श्मशान भूमि के लिए कालबेलिया समुदाय का संघर्ष

राजस्थान के कई जिलों में बसा कालबेलिया समुदाय एक घुमंतू समुदाय के तौर पर जाना जाता रहा है। विशेष रूप से जोधपुर के गांवों की बात करें तो इस समुदाय के लोग अब एक जगह पर रहकर ही अपना जीवन यापन कर रहे हैं। लेकिन अब इस समुदाय के लिए, मृत्यु के बाद अपने लोगों को जलाने के लिए श्मशान घाट की जमीन उपलब्ध नहीं है।

यहां तक कि जो लोग 20-25 सालों से भी एक जगह पर रह रहे हैं, उनके लिए आज भी श्मशान भूमि न मिल पाना एक समस्या बनी हुई है। ऐसे में उनके पास मृतकों को जलाने की बजाय उन्हें जमीन में दफनाने का ही विकल्प बचता है। जमीन न होने की वजह से लोग शवों को अपने घर के सामने ही दफ़नाने पर मजबूर हो रहे हैं। इस वजह से गांवों में हर कहीं कब्रें बनती जा रही हैं। कोविड-19 में तो यह समस्या और भी ज्यादा गंभीर हो गई थी।

कोरो इंडिया संस्था के माध्यम से हमने ऐसे लोगों की मदद करने की कोशिश की है जिन्हें शवों को जलाने के लिए जमीन नहीं मिल पा रही थी। अभी हम लगभग 35 गांवों में काम कर रहे हैं। हमने श्मशान घाट की जमीन की समस्या के लिए कालबेलिया समुदाय के लोगों को साथ लेकर कई बार प्रशासन के सामने धरना दिया है। हम वी, द पीपल अभियान के ज़रिये समुदाय के लोगों को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करने के लिए, संविधान की जानकारी देते हैं। इसके फलस्वरूप, श्मशान के लिए कई गांवों में सरकार की ओर से जमीन भी मिल गई है। मैंने खुद अपनी संस्था के प्रयासों से सरकार से अपने गांव के लिए पांच बीघा भूमि आवंटित करवाई है। हालांकि अभी भी कुछ गांव ऐसे हैं जहां ज़मीन तो उपलब्ध हो पाई है मगर जमीन का पट्टा नहीं मिल पाया है और यहां तक कि सरकारी रिकार्ड में भी कालबेलिया समुदाय के लोगों का नाम जुड़ नहीं पाया है।

गांव के कुछ स्थानीय निवासियों का कहना होता है कि ये कालबेलिया समुदाय के लोग तो घुमंतू होते हैं, आज यहां रहेंगे तो कल कहीं और चले जाएंगे तो इसलिए इनको ज़मीन का पट्टा देने का कोई मतलब नहीं है। कई बार स्थानीय प्रतिनिधि भी इस तरह के लोगों के प्रभाव में आ जाते हैं और इस वजह से होने वाला काम बीच में रुक जाता है।

हमने कालबेलिया समुदाय की कुछ प्रमुख मांगें स्थानीय विधायक के सामने रखी हैं। इसमें श्मशान की जमीन का पट्टा दिलाना और हर पंचायत में कालबेलिया समाज के लोगों के लिए एक सामुदायिक भवन की व्यवस्था करना शामिल है। इस समुदाय के लोगों के पास, जब तक ज़मीन संबंधी कागज़ात नहीं होंगे तब तक ये घर बनाने के लिए सरकारी अनुदान, पानी, बिजली आदि जैसी मूलभूत सुविधाओं से पूरी तरह से वंचित रहेंगे।

तिलोकनाथ कालबेलिया बीते पांच सालों से राजस्थान में कालबेलिया समुदाय के लिए काम कर रहे हैं।

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काम की जाति

2011 में मैं एक स्किल डेवलपमेंट कार्यक्रम पर राजस्थान स्किल एंड लाइवलीहुड डेवलपमेंट कार्पोरेशन (आरएसएलडीसी) के साथ काम कर रहा था। यह राजस्थान के 21 जिलों में फैली हुई एक विशाल परियोजना थी जिसके तहत युवाओं को हॉस्पिटैलिटी का प्रशिक्षण दिया जा रहा था। इन इलाकों में एक इलाका जोधपुर जिले में था जहां हम लोग उच्च-जाति के लोगों के साथ काम कर रहे थे। हमनें वहाँ प्रशिक्षण केंद्र तैयार किए लेकिन उसके पहले हमलोगों ने क्षेत्र के समुदायों के साथ सर्वेक्षण के काम में समय नहीं दिया। इसके कारण वहाँ जो कुछ भी हुआ हम उसके लिए तैयार नहीं थे। 

हमारा केंद्र तैयार होने के बाद भारी संख्या में लड़के और लड़कियां आने लगे। लेकिन कुछ ही समय में वे समझ गए कि हॉस्पिटैलिटी में काम करने का एक मतलब कमरों और सार्वजनिक जगहों की सफाई करना भी है। जहां एक तरफ वे होटलों में काम करने की संभावना को लेकर उत्साहित थे वहीं वे इस बात से अनजान थे कि इसमें कई तरह के काम शामिल होते हैं—और सभी काम अनिवार्य होते हैं। नब्बे प्रतिशत प्रशिक्षु बीच में ही कार्यक्रम छोड़कर चले गए। इसका कारण सिर्फ इतना था कि उनकी जाति उन्हें साफ-सफाई वाले काम करने की अनुमति नहीं देती है।  

ये समुदायों के भीतर की क्रूर सच्चाई है। स्किल डेवलपमेंट कार्यक्रमों को करवाने वाली स्वयंसेवी संस्थाएं इन नियमों के बारे में जानती हैं। लेकिन उन्हें लोगों को रोकने के लिए समुदायों के भीतर जाकर उनके रवैये को बदलने के लिए भी काम करना होगा। इस मामले में वे समुदायों के साथ बैठकर श्रम की गरिमा के बारे में बात कर सकते है।

अजित सिंह अनंत लर्निंग एंड डेवलपमेंट प्राइवेट लिमिटेड के संस्थापक है।

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