इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि पड़ोसी राज्य असम में ऊंची क़ीमत पर काले धान की बिक्री होते देखकर बिहार के भी कुछ किसानों ने इसकी खेती करने की सोची। लेकिन, ग़रीबी से निकलने के लिए की गई उनकी यह कोशिश और कुछ आज़माने का उनका यह प्रयोग उल्टा पड़ गया है।
गया जिले के गुरारू ब्लॉक में स्थित सोनडीहा गांव के निवासी मनोज कुमार को उनके एक रिश्तेदार ने बताया था कि काले धान से निकलने वाले चावल की क़ीमत दस से पंद्रह हज़ार प्रति क्विंटल तक होती है। अधिक पैसे कमाने की चाह में मनोज और उस गांव के अन्य किसानों ने दस एकड़ से अधिक ज़मीन पर काले धान की खेती करने का फ़ैसला किया। गया जिले के अन्य आठ गांवों के किसान भी ‘सुपर ग्रेन’ नाम से तेज़ी से लोकप्रिय हो रही इस फसल को अपने खेतों में उपजा कर देखना चाहते थे। किसानों को इस खेती से प्रति बीघा बारह क्विंटल उपज की उम्मीद थी। मगर, उनकी योजना धरी की धरी रह गई।
धान की रोपाई के समय मनोज ने लगभग 25 किलो यूरिया का इस्तेमाल किया था। मनोज बताते हैं कि “बहुत बाद में मुझे इस बात का पता चला कि इस फसल के लिए इस रासायनिक खाद का उपयोग नहीं करना था। यूरिया के कारण धान के पौधों की लंबाई बढ़ गई और उसकी फ़लियां खेत में ही गिरनी शुरू हो गई। हमारी सारी मेहनत बेकार हो गई। मुझे मेरी एक बीघा जमीन से केवल 6 क्विंटल धान ही मिला।”
लेकिन काले धान की खेती करने वाले किसानों के सामने सबसे बड़ी मुश्किल थी इस अनाज के ख़रीददारों को खोजना। मनोज का कहना है कि “बिहार में इसके ख़रीददार लगभग ना के बराबर हैं।” स्थानीय बाजार में इस फसल की मांग ना होने के कारण किसानों ने अपनी उपज को छत्तीसगढ़ के एक व्यापारी को प्रति क्विंटल साढ़े चार हज़ार की दर पर बेच दिया। हालांकि यह क़ीमत उनकी उम्मीद से तो आधी ही थी लेकिन बिहार में सामान्य धान के लिए मिलने वाली क़ीमत से फिर भी दोगुनी थी।
काले धान की उपज से नुक़सान उठाने वाले किसान दुखी थे। मनोज ने बताया कि “हमें यह सपना दिखाया गया था कि इस उपज से हमारी आमदनी बढ़ेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। आमतौर पर, इस इलाक़े में लोग एक बीघा ज़मीन में 12 से 14 क्विंटल धान उपजा [जिनसे उन्हें अधिकतम 23 हज़ार 8 सौ रुपये तक मिल जाता है] लेते हैं। लेकिन काले धान के मामले में हमारी फसल प्रति बीघा 6 से 7 क्विंटल [जिससे अधिकतम 31 हज़ार 5 सौ रुपये ही मिले] तक ही सीमित रह गई। अब हमें नहीं पता कि इस धान का क्या करना है। कई किसानों के घरों में यह बेकार पड़ा हुआ है। दोबारा इस फसल की खेती करने से पहले हमें कई बार सोचना होगा।”
रामनाथ राजेश बिहार के गया जिले में एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह लेख मूल रूप से 101 रिपोर्टर्स पर प्रकाशित लेख का एक अंश है।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
—
अधिक जानें: इस लेख को पढ़ें और जानें कि बिहार में किसानों के लिए पॉपलर की खेती करना आसान क्यों नहीं है?
अधिक करें: लेखक के काम को विस्तार से जानने और उन्हें अपना सहयोग देने के लिए उनसे [email protected] पर संपर्क करें।
8 जून, 2007 को अनिल वर्मा जो कि उस समय आजीविका हासिल करने में सहयोग करने वाली ग़ैर-लाभकारी संस्था ‘प्रदान’ के सदस्य थे, बिहार के गया जिले में पड़ने वाले शेखवारा गांव में जैविक खेती पर बातचीत करने के लिए पहुंचे। वहां उन्होंने चावल, गेहूं, सरसों और मक्का वगैरह उगाने के लिए रूट इंटेन्सिफिकेशन प्रणाली (एसआरआई) और उसके फायदों पर विस्तार से बात की। बिना किसी कैमिकल के, कम पानी और थोड़ी मेहनत वाले इस तरीके को खाने की कमी से जूझ रहे और सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े इस इलाक़े के लोगों का ध्यान आकर्षित करना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। समुदाय का एक भी सदस्य इस प्रयोग में शामिल नहीं होना चाहता था। उन्हें इस बात का डर था कि यह किसी तरह का घोटाला है। अनिल वहां से निकलने ही वाले थे कि कुंती देवी नाम की एक दलित महिला ने उन्हें रोक लिया।
कुंती ने कहा, “मैं खेती की आपकी इस तकनीक का इस्तेमाल अपने खेत में करुंगी।” कुंती देवी का फ़ैसला सुनकर गांव के लोग बहुत निराश हुए। इनमें से कई लोगों का मानना था कि कुंती देवी की असफल होना तय है। उन्होंने कहा, “अगर तुम्हारे खेत में धान नहीं उगा तो तुम अपने बच्चों को खिलाओगी क्या?” यहां तक कि कुंती के पति भी उनके इस फ़ैसले से सहमत नहीं थे।
बाद में, जुताई के कुछ ही दिनों के बाद जब धान के नन्हे-नन्हे पौधे दिखने लगे तो उसने जाकर गांव में सबको अपनी सफलता की कहानी सुनाई। कुंती देवी का फ़ैसला सही साबित हुआ था। नतीजतन, उस गांव और आसपास के कई गांवों की ढ़ेर सारी महिलाओं ने जैविक खेती करनी शुरू कर दी। अनिल ने आगे चलकर गया में ही एसआरआई तकनीक के माध्यम से जैविक खेती करने वाली महिलाओं के साथ काम करने वाली समाजसेवी संस्था प्राण (पीआरएएन) की स्थापना की। अनिल का कहना है कि “अपने अनुभव में मैंने महिला किसानों को अपनी सोच में अधिक समावेशी पाया है।” उन्हें अपनी आय के अलावा अपने परिवार के स्वास्थ्य और उनके पोषण की भी उतनी ही चिंता रहती है।
इसके और भी फ़ायदे हैं। जब ग्रामीण भारत की महिलाएं पैसे कमाना शुरू कर देती हैं तो उनकी सामाजिक स्थिति भी बेहतर हो जाती है। परिवार और गांव के मामलों में उनकी राय का भी महत्व बढ़ जाता है। अनिल का कहना है कि उन्होंने महिला किसानों को पंचायत स्तर के नेतृत्व तक पहुंचते भी देखा है। इसके अलावा, उन्होंने मासिक धर्म के दौरान मंदिरों में प्रवेश न करने जैसी कुप्रथाओं को समाप्त करने में भी अपना योगदान दिया है।
गया के बरसोना गांव की महिला किसान रीना देवी का कहना है कि “मुझे लोगों के बीच बोलने में पहले डर लगता था लेकिन अब मैं किसी भी सभा में जाकर लोगों के सामने अपने मन की बात रख सकती हूं। महिला सभाओं की बैठकों में अब मैं खुल कर अपनी बात कहती हूं।”
रीना ने अन्य महिला किसानों को जैविक खेती के तरीके सिखाने के लिए उत्तर प्रदेश में प्रयागराज से बाराबंकी तक की यात्रा की है। वे कहती हैं, “मुझे वहां 20-25 दिनों के काम के लिए 42,500 रुपये मिले। उन पैसों से मैं अपने परिवार के सदस्यों को इलाज के लिए पटना ले गई। मुझे खुशी है कि इसके लिए मुझे अपनी जमीन नहीं बेचनी पड़ी।”
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
रीना देवी एक किसान होने के साथ–साथ गया, बिहार के श्री विधि महिला समूह की सदस्य भी हैं। अनिल वर्मा, प्राण (पीआरएएन) के इग्ज़ेक्युटिव निदेशक हैं।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
—
अधिक जानें: जानें कि कैसे कुछ शक्तिशाली समुदाय के सदस्य छत्तीसगढ़ में महिलाओं के भूमि स्वामित्व में बाधा बन रहे हैं।
अधिक करें: अनिल वर्मा के काम को विस्तार से जानने और उन्हें अपना समर्थन देने के लिए उनसे [email protected] पर सम्पर्क करें।
यह फीचर पहली बार द थर्ड आई की भारत के सार्वजनिक स्वास्थ्य और इसके संभावित भविष्य में नारीवादी जांच के हिस्से के रूप में सामने आया था। इस बारे में और अधिक पढ़ने के लिए यहाँ जाएँ।
भारत में लगभग 80 प्रतिशत डॉक्टर शहरी आबादी की जरूरतों को पूरा करने में लगे हैं। ग्रामीण भारत में आज भी लोग मौलिक स्वास्थ्य सेवाओं तक आसानी से नहीं पहुँच पाते हैं। यह समस्या काफी लंबे समय से चली आ रही है। शहरी-ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा विभाजन के अलावा, ग्रामीण इलाकों में ही स्वास्थ्य सेवा की पहुँच में असमानता है। यह एक ऐसा विषय है जिस पर ज़्यादातर लोगों का ध्यान नहीं जाता है। बिहार के मुजफ्फरपुर और गया जिले में ज़मीनी समूहों की महिलाओं ने अपना अनुभव साझा किया। उन्होनें बताया कि ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं तक लोगों की पहुँच को तय करने में जाति की भूमिका महत्वपूर्ण है।
“हमारे गाँव में उप-स्वास्थ्य केंद्र वहाँ नहीं है जहां इसे होना चाहिए। यह उच्च जाति के राजपूतों के प्रभुत्व वाले इलाके में है। निम्न जाति के लोगों के लिए वहाँ पहुँचना मुश्किल है क्योंकि वे लोग छूआछूत में विश्वास करते हैं। जब अनुसूचित जाति का कोई व्यक्ति अपने बच्चे को लेकर टीका लगवाने वहाँ जाता है तब राजपूत समुदाय के लोग उन्हें नीची नजर से देखते हैं। ऐसी जगह पर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं होना चाहिए था, इसे उस जगह बनाया जाना चाहिए जहाँ सब पहुँच सकें,” मुजफ्फरपुर जिले की निराला ने कहा।
गया जिले की ललिता अपनी बात जोड़ते हुए कहती है कि, “हमारा गाँव सदर-अस्पताल से 5-6 कीलोमीटर दूर है। वहाँ के आसपास के लोगों को समय पर हर सुविधा मिलती है। सिर्फ हाशिये की जाति के लोग ही पीछे छूट गए हैं। कभी-कभी, डॉक्टर निम्न जाति के लोगों का इलाज करते हैं। उनमें से कई गरीबी रेखा से नीचे आने के कारण अनुदान में मिलने वाली दवाओं के हकदार भी होते हैं। लेकिन इन मामले में अक्सर ऐसा होता है कि डॉक्टर दवा लिख देते हैं और फिर कहते हैं कि दवाईयाँ अस्पताल में उपलब्ध नहीं है और बाहर से खरीदनी पड़ेगी। हालांकि अगर उसी दिन उच्च जाति का कोई मरीज इलाज के लिए आता है तो उसे बिना किसी परेशानी के बेहतर इलाज और वही दवाईयाँ मिल जाती हैं।”
द थर्ड आई एक नारीवादी थिंक टैंक है जो लिंग, सेक्शुआलिटी, हिंसा, तकनीक और शिक्षा के मुद्दों पर काम करता है।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
—
अधिक जानें: पढ़ें कि कैसे हम आदिवासी समुदायों को शामिल करते हुए भारत के स्वास्थ्य संबंधी लक्ष्यों को हासिल कर सकते हैं।
अधिक करें: और अधिक जानने और उनके काम को समर्थन देने के लिए [email protected] पर लेखक से संपर्क करें।