मैं बिहार के बक्सर जिले से हूं, लेकिन काम के सिलसिले में अक्सर राज्य से बाहर रहता हूं। गंगा के किनारे बसे बक्सर और इससे सटे केशवपुर, मानिकपुर, राजपुर, राजापुर और रामपुर जैसे कई गांव हमेशा से पानी के लिए इस पर निर्भर रहे हैं। बक्सर और आस-पास के गांवों में पहले कभी भी पीने के पानी की समस्या नहीं थी। लेकिन जब से मैं गांव लौटा हूं तो यहां लगभग हर क्षेत्र के परिवार को पीने के पानी की समस्या का सामना करते देख रहा हूं।
ये हालात तब हैं जब हर घर में चापाकल (हैंड पंप) लगे हुए हैं। बिहार सरकार की हर घर नल जल योजना के तहत बहुत से घरों में नलों की व्यवस्था भी है। दो दशक पहले तक हम सार्वजनिक जल व्यवस्था का उपयोग करते थे। जैसे पीने का पानी कुएं से भरना और सींचाई के लिए गंगा नदी पर निर्भरता। बारिश में कमी होने और गंगा में मिलने वाली सोन नदी में मध्य प्रदेश, झारखंड, और उत्तर प्रदेश से पानी कम होने के कारण गंगा के जल स्तर में भी कमी आ रही है, इसलिए लोग भूजल पर ज्यादा निर्भर हो गए। राज्य सरकार की योजना के तहत बक्सर जिले के ग्रामीण और शहरी इलाकों में पाइप लाइन डाली गई और कुओं को बंद कर दिया गया। कुछ सालों तक तो पाइप लाइन में पानी आया भी लेकिन फिर वह भी कम होने लगा, तो लोगों ने घरों में बोरिंग करवाना शुरू किया।
पहले 100—150 फीट बोरिंग के बाद ही मिलने वाला पानी, कुछ सालों बाद अब 400 से 500 फीट की गहराई पर मिलता है। इतनी गहराई में पानी तो मिला लेकिन उसका स्वाद पहले जैसा नहीं रहा, अब इसका स्वाद खारा हो गया है। पानी पीने के बाद पेट भारी भी रहता है और बार—बार प्यास लगती रहती है। पहले लगा यह केवल भ्रम है पर जब अक्सर पेट खराब रहने लगा तो जिला अस्पताल जाना पड़ा।
वहां जाकर पता चला कि मैं जिस पानी का उपयोग पीने के लिए कर रहा हूं उसमें आर्सेनिक की मात्रा बहुत ज्यादा है, जिसकी वजह से पेट संबंधी समस्याएं आ रही हैं। डॉक्टर ने बताया कि यह दिक्कत केवल मेरे साथ नहीं है बल्कि बक्सर जिले में आए दिन लोग पानी की खराब गुणवत्ता के कारण बीमार होकर अस्पताल पहुंच रहे हैं। मरीजों में अधिकांश बच्चे और युवा हैं। आर्सेनिक युक्त भूजल का उपयोग करने से जिले में कैंसर के मरीजों की संख्या भी बढ़ रही है।
इस मामले में राज्य सरकार ने साल 2023 में भू—जल सर्वेक्षण भी करवाया है। इसकी रिपोर्ट के अनुसार बक्सर के साथ भोजपुर और भागलपुर जिलों के कई गांवों के भूजल में आर्सेनिक की मात्रा 1 हजार 906 माइक्रोग्राम प्रति लीटर हो गई है। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार पानी में आर्सेनिक की अधिकतम मात्रा 10 माइक्रोग्राम प्रति लीटर से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। मेरे इलाके के बुजुर्ग कहते हैं कि जब तक हम लोग प्राकृतिक पानी का इस्तेमाल कर रहे थे तब तक सब ठीक था। हम बारिश के पानी को कुएं और पोखरों में जमा करते थे। गंगा नदी का पानी भी उपयोग करते थे। लेकिन समय के साथ लोग सार्वजनिक व्यवस्था से हटकर निजी व्यवस्था और सुविधाओं पर ध्यान देने लगे। अब हर घर में पानी के लिए खुदाई की जा रही है और इसका असर पानी की गुणवत्ता पर दिख रहा है।
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मैं झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले में क्वेस्ट एलायंस नाम की संस्था में प्रोग्राम ऑफिसर के तौर पर काम करती हूं। मेरे काम में मुख्य रूप से सामाजिक एवं भावनात्मक शिक्षा यानि सेल पर अध्यापकों को सपोर्ट करना रहता है। यह एक शिक्षण पद्धति है जो गहराई से अपने विचार सुनने और साझा करने को बढ़ावा देती है।
यह बात साल 2023 की है, जब मैं अपने जिले के कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय में नौवीं कक्षा की छात्राओं के साथ एक कक्षा आयोजित कर रही थी। हम उस दिन कक्षा में सुमेरा ओरांव* की कहानी पर चर्चा कर रहे थे जो सेल पाठ्यक्रम का हिस्सा थी। ग्रामीण झारखंड की कई महिलाओं की तरह, सुमेरा भी डायन प्रथा से जूझ रही थी। सुमेरा ने अपना जीवन अंधविश्वास और डायन करार दिए जाने के कलंक से लड़ते हुए बिताया था।
कहानी सुनाने के बाद एक छात्रा मेरे पास आई और उसने पूछा, “आपने हमें बताया कि यह एक सच्ची कहानी है। क्या आप मुझे सुमेरा का फ़ोन नंबर दे सकती हैं?” मैंने उससे पूछा, “आपको उनका नंबर क्यों चाहिए?” इस पर बच्ची ने मुझे अपनी दादी के बारे में बताया, जिन्हें उनके गांव में डायन कहा जाता था और लोग उन्हें हर जगह जाने से बाहर कर देते थे।
उसने मुझसे कहा, “हमारे गाँव में कोई भी मेरी दादी के पास नहीं आता और न बात करता है।
मैंने उस छात्रा से कहा कि जब आप घर जाओगे तो आपने सुमेरा की कहानी से जो कुछ भी सीखा है वो अपने परिवार के साथ इसे साझा करना। उसकी दादी लोगों के व्यवहार की वजह से बहुत तंग आ चुकी थीं और गांव छोड़ने के लिए भी तैयार थीं क्योंकि पूरा समुदाय उनके खिलाफ था।
लेकिन छात्रा ने घर जाकर अपने परिवार को इस पूरे मामले के बारे में समझाया और इस मुद्दे को पंचायत में ले जाने के लिए राजी कर लिया क्योंकि स्कूल में उसे बताया गया था कि किसी को डायन कहना और उनके साथ भेदभाव करना दंडनीय अपराध है। पंचायत की बैठक में परिवार ने तर्क दिया, “हमारे परिवार में बहुत सारे बच्चे हैं जो सभी स्वस्थ हैं। यदि दादी सच में बच्चों को नुकसान पहुंचाती, तो क्या वे सभी बच्चे अभी तक ठीक रहते?” पंचायत ने परिवार के पक्ष में अपना फैसला सुनाया और इस पर गांव वालों को झुकना पड़ा। उस बातचीत को एक साल से ज्यादा हो गया है और परिवार अभी भी गांव में रह रहा है।
यह सब होने के बाद मैंने उस छात्रा से कहा कि यह सब इसलिए संभव हो पाया क्योंकि आप इस कहानी से मिले सबक को अपने जीवन में लागू कर पाए।
प्रीति मिश्रा क्वेस्ट एलायंस में एक प्रोग्राम ऑफिसर हैं।
*गोपनीयता के लिए नाम बदल दिये गए हैं।
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मैं भारत के सबसे ठंडे स्थानों में से एक लद्दाख के द्रास जिले का रहने वाला हूं। सर्दियों के महीनों में यहां का तापमान -35°C से भी नीचे चला जाता है। इतने ठंडे मौसम और कठिन भौगोलिक परिस्थितियों के कारण यहां रोजगार के ज्यादा अवसर नहीं हैं। परंपरागत रूप से, इस क्षेत्र के रहवासी रोजगार के लिए सरकारी नौकरियों या सेना पर निर्भर रहते हैं। छात्रों के लिए भी सामान्यत: पारंपरिक करियर जैसे चिकित्सा या कला क्षेत्र को चुनना आम बात है। लेकिन मैंने इस रूढ़ि को तोड़ते हुए होटल प्रबंधन का क्षेत्र चुना।
मैंने साल 2016 में स्नातक किया पर उस समय मेरी रूचि जम्मू और कश्मीर प्रशासनिक सेवा (जेकेएएस), जम्मू और कश्मीर पुलिस सेवा या ऐसी अन्य परीक्षाओं में बैठने में नहीं थी। मैंने एक निजी कंपनी में 4 साल नौकरी की और नए कौशल सीखे। इसी की बदौलत मुझे तुर्की से एक नौकरी का प्रस्ताव मिला।
हालांकि, साल 2019 में घटी दो मुख्य घटनाओं ने मेरी किस्मत बदल दी। पहली घटना, लद्दाख उस समय के जम्मू और कश्मीर राज्य के विभाजन के बाद बने दो केंद्र शासित प्रदेशों (यूटी) में से एक बन गया। इसके बाद अनुच्छेद 370 को हटा दिया गया, जो जम्मू और कश्मीर के सभी स्थायी निवासियों को संपत्ति का अधिकार, सरकारी नौकरियों और छात्रवृत्तियों जैसी विशेष सुविधाएं प्रदान करता था। दूसरी घटना थी कोविड-19 महामारी, जिसने तुर्की के लिए मेरी अंतर्राष्ट्रीय यात्रा को असंभव कर दिया और नौकरी का मौका हाथ से निकल गया।
फिर मैंने इस उम्मीद के साथ सरकारी परीक्षा की तैयारी शुरू कर दी, कि लद्दाख को नए केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा मिलने से अब ज्यादा स्वायत्तता मिलेगी और मेरे जैसे लोगों के लिए नए अवसर पैदा होंगे।
हालांकि, साल 2019 से लद्दाख में उच्च स्तर की सरकारी पदों के लिए कोई प्रतियोगी परीक्षाएं आयोजित नहीं की गई हैं। हजारों दूसरे लद्दाखी उम्मीदवारों की तरह, मैं भी निराश हूं कि केंद्रीय सरकार ने अभी तक लद्दाख लोक सेवा आयोग स्थापित नहीं किया है, जो केंद्र शासित प्रदेश में सिविल सेवा की परीक्षाएं आयोजित कर सके। अब मैं उम्र की सीमा को पार कर चुका हूं और इन परीक्षाओं के लिए आवेदन नहीं कर सकता।
इन हालातों का सामना लद्दाख के बहुत से लोग कर रहे हैं। युवाओं में निराशा बढ़ती जा रही है क्योंकि अवसरों का इंतजार तो है लेकिन यह नहीं पता कि कब तक? अब यहां संविदा आधारित भर्तियां इतनी बढ़ रहीं हैं कि इन्होंने सरकारी नौकरियों की जगह लेना शुरु कर दिया है। हालांकि इनमें न तो रोजगार की सुरक्षा मिल पाती है और न ही बेहतर वेतनमान।
जब लद्दाख जम्मू और कश्मीर का हिस्सा था, तो हर साल कई लद्दाखी युवा जम्मू और कश्मीर प्रशासनिक सेवा में सफलतापूर्वक शामिल होते थे। अब लद्दाख एक केंद्र शासित प्रदेश है, तो ऐसे में स्थानीय अवसर बढ़ने का फायदा होना चाहिए था लेकिन हम अभी भी खुद को हाशिए पर खड़ा महसूस कर रहे हैं। यहां के सलाहकार पदों, जैसे पर्यावरण परामर्शदाता की भूमिका में प्रदेश के बाहरी उम्मीदवारों को मौका दिया जा रहा है। हम स्थानीय लोगों के जनसंख्या और क्षेत्र की गहरी समझ के बाद भी हमें अक्सर इन नौकरियों के लिए दौड़ से बाहर कर दिया जाता है।
वर्तमान हालात काफी निराशाजनक हैं। लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा मिलने से युवाओं के लिए नए अवसर खुलने की जो उम्मीदें थीं, वे अब बढ़ती चुनौतियों की चिंताओं में बदल गई हैं। ऐसा लगता है कि हमें अपनी ही भूमि में हाशिये पर रखा जा रहा है।
अली हुसैन वर्तमान में दिल्ली में काम करते हैं।
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मेरा नाम जसप्रीत सिंह है। मेरी पहचान के कई पहलू हैं। मैं एक साधारण सिख परिवार से आता हूं और अनुसूचित जनजाति से संबंध रखता हूं। मेरा परिवार विभाजन के बाद पाकिस्तान से पलायन कर जम्मू कश्मीर आकर बस गया था। और, वर्तमान में मैं जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय में शोध (पीएचडी) का छात्र हूं। लेकिन इन सब बातों से अलग मेरी एक महत्वपूर्ण पहचान यह भी है कि मैं एलजीबीटीक्यू+ समुदाय से आता हूं। मैं खुद को द्वि-लैंगिक पहचान (बाइनरी जेंडर आइडेंटिटी) से अलग देखता हूं जिसे नॉन-कन्फर्मिटी या न्यूट्रल जेंडर भी कहा जाता है। एलजीबीटीक्यू+ समुदाय से आने वाले सभी लोगों के लिए एक पहचान दस्तावेज बनता है जिसे ट्रांसजेंडर सर्टिफिकेट कहा जाता है। मैं ऐसे कई किस्से बता सकता हूं जिनमें लोगों को यह सर्टिफिकेट बनवाने के लिए महीनों का इंतज़ार करना पड़ा है, सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाने पड़े हैं या तमाम अधिकारियों को अनगिनत बार ई-मेल भेजते रहना पड़ा है। इसमें कश्मीर से आने वाले मेरे एक दोस्त, मेरे पार्टनर और अपने खुद के मामले में तो मैं सक्रिय रूप से शामिल रहा हूं।
ट्रांसजेंडर सर्टिफिकेट के साथ एक ट्रांसजेंडर पहचान पत्र भी बनाता है। ये दस्तावेज हमारे लिए शिक्षा या नौकरी में आरक्षण, फीस में रियायत और अलग-अलग तरह की योजनाओं का लाभ लेने में काम आते हैं। सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के पोर्टल पर जाकर या फिर जिला मजिस्ट्रेट के पास जाकर, इसके लिए आवेदन किया जा सकता है। इसमें अधिकतम 30 दिन का समय लगता है। लेकिन तीनों ही बार, मेरा अनुभव रहा है कि इस प्रक्रिया में चार से छह महीने लगे हैं।
प्रमाणपत्र हासिल करने की पूरी प्रक्रिया ऑनलाइन रखने का उद्देश्य ही यह है कि एलजीबीटीक्यू+ समुदाय को किसी भी तरह के सामाजिक भेदभाव, शोषण या दबाव का सामना किए बगैर आगे बढ़ने में मदद मिल सके। मुझे लगा था कि जब मैंने बनवाया तब इतनी दिक्कतें आई, लेकिन अब तक तो लोग थोड़े संवेदनशील हो गए होंगे। मैंने प्रक्रिया को लेकर अधिकारियों से बात की थी तो मुझे आश्वासन मिला था कि यह सब सही किया जाएगा मगर, मेरे पार्टनर का सर्टिफिकेट बनवाने के लिए भी मुझे उसी तरह बार-बार ईमेल करना पड़ रहा है, वही महीनों इंतज़ार करना पड़ रहा है। उनके घर पर अभी तक माहौल खराब है और कागज भी नहीं बन पाया है। एक दस्तावेज जो हमें भेदभाव और अपमान से बचाने के लिए ही जरूरी है, उसे बनवाने में ही हमें जो सहना पड़ जाता है, उसे क्या कहा जाना चाहिए।
जसप्रीत सिंह, जम्मू में रहते हैं और जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहे हैं।
आईडीआर पर इस जमीनी कहानी को आप हमारी टीम के साथी सिद्धार्थ भट्ट से सुन रहे थे।
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मैं मूलरूप से हरियाणा के सोनीपत जिले का रहने वाला हूं। मैं पिछले कई वर्षों से एक निजी कंपनी में नौकरी करता हूं। मैं कंपनी के सेल्स विभाग के कामों को देखता हूं इसलिए आमतौर पर मेरा दिन हमेशा ही बहुत व्यस्त रहता है। नौकरी करते हुए, पिछले कई सालों से मेरे दैनिक जीवन में तनाव लगातार बढ़ता जा रहा था। इसका कारण शायद यह था कि जो काम मैं कर रहा था, वह मेरे व्यक्तित्व के अनुरूप नहीं था। लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते केवल इसे ही करता चला जा रहा था। उम्र बढ़ने के साथ मेरे पास उतने विकल्प भी नहीं रह गए थे।
ज्यादातर लोगों की तरह, कोविड-19 के दौरान मैंने अपने जीवन को लेकर सोचना शुरू किया। मैंने खुद को टटोला कि आखिर मेरे अंदर ऐसा कौन सा स्किल है जिससे मैं अपने तनाव को कम कर सकता हूं। मुझे लगा कि अगर अब मैं अपनी रुचि से जुड़ी चीजों के लिए समय नहीं दूंगा तो मेरे लिए लंबे समय तक इतने तनाव के साथ काम करना मुश्किल होगा। यही सब सोचते और ऑनलाइन रिसर्च करते हुए मैंने निर्णय लिया कि मैं उन लकड़ियों का कुछ बेहतर इस्तेमाल करूंगा जिन्हें लोग अक्सर बेकार समझकर फेंक देते हैं।
मैंने धीरे-धीरे बेकार पड़ी लकड़ियों से कुछ चीजें बनाना शुरू किया। शुरूआत एक दीवार घड़ी बनाने से हुई। मैं जब भी कस्टमर विजिट पर जाता तो समय मिलते ही वहां आसपास की आरा मशीन पर जाकर देख-ताक करने लगता। मैंने वहां देखा कि आरा मशीन पर लकड़ियों की कटाई के बाद बेकार लकड़ियों को जलाने के लिए फेंक दिया जाता था। मैं वहां से कुछ लकड़ियां मांगकर घर ले आता जिन्हें साफ सुथरा कर मेरी पत्नी और बेटी उन्हें पेंट कर सजाती संवारती थीं।
मैं आज अपने ऑफिस के काम के साथ-साथ जहां भी जाता हूं, वहां के लोकल आरा मशीनों या किसी ढाबा वगैरह से बेकार लकड़ियों को घर लाकर दीवार घड़ी, पेन स्टैन्ड, घर की नेम प्लेट्स, हैंगिंग लाइटस जैसी कई सारी घरेलू चीजें बनाने लगा हूं।
आमतौर पर मैं रविवार के दिन उन लकड़ियों की कटाई, सफाई और वार्निश से जुड़ा काम करता हूं। इन्हें तैयार करने के लिए मैं कुछ मशीनों का इस्तेमाल करता हूं जो आसानी से ऑनलाइन उपलब्ध हो जाती हैं। मैं बता नहीं सकता कि यह सब करके मुझे कितनी खुशी मिलती है। इस पूरे अनुभव से मुझे यह एहसास हुआ है कि भले ही थोड़े समय के लिए सही, लेकिन हमें अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में उन चीजों को जरूर शामिल करना चाहिए जो हमें वास्तव में प्रेरित करती रहें।
निखिल अरोड़ा एक निजी कंपनी में काम करते हैं।
आईडीआर पर इस जमीनी कहानी को आप हमारी टीम के साथी सिद्धार्थ भट्ट से सुन रहे थे।
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मध्य प्रदेश के सतना जिले में लैंटाना (वैज्ञानिक नाम – लैंटाना कैमरा) नाम के एक आक्रामक पौधे का प्रसार हो रहा है। इससे इलाके के आदिवासी समुदायों को पारंपरिक खाद्य पदार्थों की कमी हो रही है और लोगों को रोजगार के लिए पलायन करना पड़ रहा है। इतना ही नहीं, नई पीढ़ी अपने कई परंपरागत वन उत्पादों के ज्ञान को खो रही है क्योंकि लैंटाना के फैलने से कई स्थानीय प्रजातियां और जड़ी-बूटियां उग नहीं पा रही हैं। लैंटाने पौधा, पानी और पोषक तत्वों को अन्य वनस्पतियों के मुकाबले जल्दी अवशोषित करता है जो मिट्टी की उर्वरकता को भी प्रभावित करता है। इस पौधे के पत्तों में पाए जाने वाले विषैले तत्वों के कारण चरने वाले जानवरों के स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ रहा है।
मझगवां ब्लॉक के चितहरा गांव के मवासी आदिवासी, रामेश्वर मवासी ने लैंटाना के आक्रामक फैलाव के कारण स्थानीय जंगल को धीरे-धीरे, अपने सामने ही खत्म होते देखा है। रामेश्वर बताते हैं, “मुझे अभी भी याद है कि हमने मझगवां जंगल से चिरौंजी इकट्ठा की थी ताकि हमारा परिवार मेरी बहन की शादी की दावत का खर्च उठा सके। मेरी मां, दो भाई और मैंने जंगल में चार दिन बिताए और 80 किलो चिरौंजी इकट्ठा की और उसे बाजार में जाकर बेचा। लेकिन आज स्थिति बदल गई है। आप जंगल में कितने भी दिन बिता लो, आपको कुछ नहीं मिलेगा। दुख की बात है कि महुआ, चिरौंजी और अन्य जड़ी-बूटियां, लैंटाना जैसी आक्रामक प्रजातियों के कारण विनाश की कगार पर हैं।”
यहां वन विभाग साल में दो बार लैंटाना को साफ करने का प्रयास करता है। साल 2021 में वन विभाग ने लैंटाना को काटकर सतना जिले के एक सीमेंट प्लांट को भेजना शुरू किए ताकि कोयले की जगह इसे एक ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सके।
यहां ग्राम वन समिति (विलेज फॉरेस्ट कमेटी – वीएफसी) का भी गठन किया गया जिसमें गांव के सभी निवासी सदस्य हैं। इन सदस्यों को वन क्षेत्र से लैंटाना झाड़ियों को उखाड़ने का काम सौंपा गया था। इस काम के लिए वीएफसी सदस्यों को कटी हुई लैंटाना झाड़ियों के लिए प्रति मीट्रिक टन 1,200 रुपये दिए जाते हैं। पहले तीन महीनों में, 29.87 मीट्रिक टन लैंटाना निकाला गया जिसके लिए गांव के लोगों को करीब 35 हजार 844 रुपये मिले। अब इस परियोजना को उन जिलों में भी लाया जा रहा है जहां लैंटाना पौधों का आक्रमण है।
जिले के एक अन्य निवासी कुशराम मवासी का कहना है कि “लैंटाना को हटाने के बाद पलाश, जामुन, रेला, धावा और करोंदा जैसे स्थानीय पेड़ उगने लगे हैं। अब जंगल में जानवरों के लिए चारा भी मिल जाता है। साथ ही जंगली सूअर, हिरण और चीतल फसल को अब पहले जितना, नुकसान नहीं पहुंचा पाते हैं।”
सनव्वर शफ़ी भोपाल, मध्य प्रदेश में बतौर स्वतंत्र पत्रकार काम करते हैं।
यह एक लेख का संपादित अंश है जो मूलरूप से 101 रिपोर्टर्स पर प्रकाशित हुआ था।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
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मैं मिजोरम के मामित जिले के दमपरेंगपुई गांव का एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हूं। मैं ब्रू समुदाय से ताल्लुक रखता हूं, इसलिए बचपन से घर पर ब्रू भाषा में ही बात करना सीखा। मैंने स्कूल में मिज़ो भाषा सीखी क्योंकि यह सभी छात्रों के लिए अनिवार्य थी, और राज्य में रहने वाले अधिकांश लोगों के लिए यह पर्याप्त थी। मिज़ो यहां सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है और लोग आमतौर पर अपनी ही भाषा में बातचीत करना पसंद करते हैं। हालांकि, 2016 में मैंने तय किया कि मुझे हिंदी सीखनी है।
मुझे लगा कि हिंदी जानना राज्य के भीतर और बाहर रोजगार के अवसरों को ढूंढने के लिए अहम है, और यह मिज़ोरम के बाहर के लोगों से जुड़ने, बातचीत करने और विचारों का आदान-प्रदान करने का माध्यम भी है।
हिंदी सीखने के लिए मैं उसी साल गुवाहाटी, असम चला गया और अलग-अलग होटलों और रेस्टोरेंट में काम करना शुरू किया। मैंने संचालकों से कहा कि मुझे हिंदी भाषा सीखनी है, इसलिए कोई भी काम करने के लिए तैयार हूं। मेरी पहली नौकरी एक मिज़ो रेस्टोरेंट में थी, जहां मैंने रसोई में काम किया। चूंकि ये भाषा सीखने के शुरुआती दिन थे तो एक परिचित माहौल में रहना मेरे लिए मददगार साबित हुआ। मैं वहां काम करने वाले सभी लोगों से हिंदी में बात करने का आग्रह करता था, और उनसे कहता था कि अगर मैं कोई गलती करूं तो मुझे सुधार दें। धीरे-धीरे जब मैंने भाषा को समझना शुरू किया तो मुझे रसोई से हटा कर रिसेप्शन पर काम दे दिया गया क्योंकि इसमें ग्राहकों के साथ बातचीत शामिल थी, जिनमें से कई अन्य राज्यों के केवल हिंदी बोलने वाले टैक्सी ड्राइवर थे। जब मेरी भाषा में और सुधार हुआ, तो मैंने एक गैर-मिज़ो रेस्टोरेंट में शेफ (बावर्ची) की नौकरी कर ली, जिससे मुझे अच्छा वेतन मिला। भाषा जानने से मुझे एक अंजान शहर में भी आसानी से घूमने-फिरने में मदद मिली। बाहरी होते हुए भी मैं ऑटो ड्राइवरों और दुकानदारों से बात कर सकता था और इस बात का ध्यान रखता था कि कोई मुझसे ज्यादा पैसे न ले।
जब मिज़ोरम वापस आया, तो मैंने ऐसे कोर्स और फेलोशिप्स की तलाश शुरू की जो मुझे बेहतर कौशल सिखा सके, भले ही इसके बदले एक बार फिर घर से दूर रहना हो। मुझे साल 2022 में ग्रीन हब फेलोशिप के लिए चुना गया, जो पर्यावरणीय फिल्म निर्माण पर आधारित एक आवासीय कार्यक्रम है। एक बार फिर मैंने नियमित रूप से हिंदी बोलना शुरू किया। चूंकि कक्षाओं का संचालन अंग्रेजी और हिंदी में होता था, हिंदी जानने से मुझे अपने विचार और राय सही तरीके से व्यक्त करने में मदद मिली और फिल्म निर्माण के बारे में लोगों से बातचीत करने का मौका मिला। जब मैंने फेलोशिप पूरी की और मिज़ोरम से एक नए बैच के फेलो शामिल हुए, तो मैं उनके और मेंटर्स के बीच एक सेतु बन गया, जब तक कि वे फेलो हिंदी या अंग्रेजी में बातचीत करना नहीं सीख गए।
इस फेलोशिप ने मुझे डॉक्यूमेंट्री बनाने का तरीका सिखाया और वन्यजीव संरक्षण में मेरी रुचि भी बढ़ाई। इस तरह देखा जाए तो मैंने एक भाषा सीखी और इसने मुझे और कुछ नया सीखने का रास्ता दिखाया। आजकल, जब मैं डॉक्यूमेंट्री नहीं बना रहा होता, तो स्कूलों में पर्यावरण जागरूकता कार्यशालाएं आयोजित करता हूं। मैं हमारे गांव आने वाले वन्यजीव प्रेमियों के साथ भी जाता हूं और उनके लिए दुभाषिए का काम करता हूं, जिससे मुझे कुछ पैसे कमाने और ज्ञान का आदान-प्रदान करने का मौका मिलता है।
रोडिंगलिआन आईडीआर नॉर्थईस्ट मीडिया फेलो 2024-25 हैं।
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राजस्थान के बांसवाड़ा जिले के कुशलगढ़ ब्लॉक के गांवों में आदिवासी किसान महिलाएं परंपरागत ज्ञान का प्रयोग कर खेती के साथ-साथ परंपरागत बीजों के संरक्षण और उन्हें बढ़ावा देने के लिए भी कर रही हैं। इन बीजों के जरिए महिलाएं परिवार की पोषण की जरूरतों को पूरा करने के साथ-साथ इलाके में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कर, ग्रामीण विकास में अपना योगदान दे रही हैं।
ये महिलाएं उन बीजों का सरंक्षण करती हैं जो पहले आमतौर पर खाए जाने वाले स्थानीय अनाज (जैसे रागी, कांगनी) थे। बीज इकट्ठा करने से लेकर उनके सरंक्षण का तरीका, पुरानी परंपराओं, स्थानीय समझ और इनके नवाचारों पर आधारित है। फसल में सबसे अच्छे और पहले आने वाले बीजों को चुनकर महिलाएं उन्हें राखी बांध देती हैं या एक रुमाल में बांधकर सुरक्षित रख लेती हैं। इससे कटाई के समय ये अलग से दिखाई देते हैं और उन्हें ही बीजों के रूप में संरक्षित किया जाता है।
मुख्य रूप से, यहां देसी मक्का, बाजरा, और कोदरा जैसे बीजों को प्राथमिकता दी जाती है और महिलाएं माइनर मिलेट्स या छोटे अनाजों (जैसे रागी, कंगनी) को भी सहेजकर रखती हैं। इस तरह लुप्त होते बीजों को बचाने के इन प्रयासों से जैव विविधता भी संरक्षित होती है और आने वाली पीढ़ियों के लिए परंपरागत फसलों की उपलब्धता भी।
इन बीजों को वे रक्षाबंधन जैसे त्योहारों पर अन्य महिलाओं को भी उपहार के रूप में देती हैं। इसे वे ‘बीज-बंध’ कहती हैं, महिलाएं साल दर साल ये बीज समुदाय में बांटकर अपनी संस्कृति और परंपरा को जीवित रख पा रही हैं, और समुदाय में अपनी पहचान भी बना रही हैं। बीजों को अगली फसल तक बचाए रखना भी एक खास तकनीक है जो हर बीज के लिए अलग तरीके से काम करती है। कुछ को फल के भीतर रखकर सुखाना होता है, कुछ के लिए राख और नीम के पत्तों का उपयोग करना होता है तो कुछ को बाहर सुखाना पड़ता है।
ये महिलाएं एक साथ कई फसलों की खेती करती हैं, जिसे स्थानीय भाषा में ‘हंगनी खेती’ कहा जाता है। यह प्रणाली मिट्टी की गुणवत्ता सुधारने और जल संरक्षण में भी मददगार है क्योंकि अलग-अलग फसलों की जड़ें मिट्टी में नमी को बनाए रखने में मदद करती हैं और वाष्पीकरण को कम करती हैं। हालांकि, बड़ी कंपनियों द्वारा हाइब्रिड बीजों का बढ़ता दबाव और बाजार की मजबूरी जैसी चुनौतियां हैं लेकिन महिलाएं अपने बीजों पर भरोसा करती हैं। लोग हाइब्रिड बीज ज्यादा खरीदते हैं क्योंकि उनकी मार्केटिंग बहुत अच्छी होती है। ये एक बार इस्तेमाल के बाद बेकार हो जाते हैं जबकि महिलाओं द्वारा तैयार देसी बीज कई पीढ़ियों तक चल सकते हैं। अगर सरकार स्थानीय बीजों को खरीदने और पीडीएस के तहत वितरित करने की पहल करे तो महिला किसानों को एक स्थायी बाजार मिलेगा और उनका बीज संरक्षण कार्य भी मजबूत होगा।
सोहन नाथ वाग्धारा संस्था में यूनिट लीडर के तौर पर काम करते हैं।
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मैं मध्य प्रदेश भोपाल की निवासी हूं। मैंने जून 2024 में, यहां के एक कॉलेज से अपना मास्टर ऑफ सोशल वर्क (एमएसडब्ल्यू) पूरा किया है। अब जब मैं पढ़ाई ख़त्म करने के कुछ ही महीने बाद सामाजिक क्षेत्र के नौकरी बाजार में प्रवेश कर रही हूं तो मैं महसूस कर रही हूं कि हमारी शिक्षा हमें सेक्टर में काम करने के लिए ठीक तरह से तैयार नहीं कर पाई है।
शिक्षार्थियों के लिए एक महत्वपूर्ण चुनौती पाठ्यक्रम की फीस है। एमएसडब्ल्यू के दो साल की कुल फीस 30 हज़ार रुपए है जो अन्य कोर्सेज से दोगुनी है। उदाहरण के लिए समाजशास्त्र में मास्टर्स करने के लिए आपको दो साल में महज 12 हज़ार रुपए देने पड़ते हैं। इस कारण जहां समाजशास्त्र में 100 छात्र थे, एमएसडबल्यू में हम केवल आठ ही लोग थे। यह फीस जुटाना मेरे और मेरे जैसे और लोगों के लिए उतना आसान नहीं था। उस समय, मेरी एक प्रोफेसर ने मदद की और कहा कि वे वक्त पर फीस भर देंगी जिसे मैं बाद में लौटा दूं।
मेरा यह पाठ्यक्रम जन भागीदारी द्वारा भी संचालित था। जन भागीदारी पाठ्यक्रमों में अतिथि शिक्षकों द्वारा कोर्स पूरा किया जाता है। अतिथि शिक्षकों का चयन कोई विशेष भर्ती प्रक्रिया या पात्रता परीक्षा से नहीं होता है। ऐसे में, अतिथि शिक्षकों में अपने काम के लिए जवाबदेही या उसमें रुचि अक्सर स्थाई शिक्षकों की तुलना में कम ही देखने को मिलती है।
साथ ही, कॉलेज में एजुकेशनल टूर के लिए साधन सुविधाओं का अभाव भी एक बड़ा कारण था जिसने मुझे सोशल वर्क के व्यावहारिक ज्ञान की गहराइयों में जाने से वंचित रखा। हम हर सेमेस्टर में जो प्रोजेक्ट बनाते थे वह महज दो बार के एजुकेशनल टूर के आधार पर बनाया जाता था। कोर्स के दौरान दो सालों में, हमें केवल आठ फील्ड विजिट करवाई गई, वह भी सिर्फ एक या दो घंटे की होती थी। इसकी बड़ी वजह यह थी कि हमारे कॉलेज के पास अपनी बस नहीं थी। हमें कहीं भी जाना हो तो उसके लिए गाड़ियां बुक करनी पड़ती थीं जो एक निश्चित समय के लिए ही उपलब्ध हो पाती थीं। अंतर-विद्यालय (इंटर-स्कूल) एक्सचेंज प्रोग्राम की सुविधा भी हमें नहीं मिली जिससे हम दूसरे संस्थानों के प्रायोगिक कार्यों को देख-समझ सकते थे। इस क्षेत्र में काम करने के लिए हमें सबसे ज़्यादा यह समझने की ज़रूरत है कि समुदाय में काम कैसे करते हैं लेकिन फील्ड में न जाने से हम ये कौशल विकसित नहीं कर पाते।
आज जब हम कहीं नौकरी करने जाते हैं तो सबसे पहले अनुभव से जुड़े सवाल ही पूछे जाते हैं। लेकिन कॉलेज में ये सब सुविधाएं ना होने के कारण, हमें ना नौकरी नहीं मिल पाती है ना कोई अच्छा प्लेसमेंट। हम चाहते हैं कि हमें अंतर-विद्यालय एक्सचेंज प्रोग्राम की सुविधा भी मिले जिससे हमारे कॉलेज में प्लेसमेंट और नौकरी के अधिक अवसर आ सकें। मेरे कई दोस्त हैं जो डिग्री लेने के बाद आज भी बेरोजगार हैं।
मुझे कुछ मौके मिले लेकिन उन्हीं लोगों के जरिये जिन्हें मैंने अपना नंबर फील्ड दौरे के समय दिया था। लंबे समय तक इंटरनेट पर खोजते-खोजते मुझे एक फेलोशिप मिली जिसके लिए मैं दिल्ली गई। दिल्ली में मुझे नई चुनौतियों का सामना करना पड़ा जैसे रिपोर्ट लिखने, समुदाय के साथ बात करने का कौशल मुझे काम करते हुए सीखना पड़ा। अगर मैंने कोर्स के दौरान फील्ड विजिट किए होते तो मेरे लिए यह सब करना आसान होता।
मैं अभी भी नौकरी खोज रहीं हूं। मैं इस सेक्टर में प्रवेश करने और लोगों के लिए काम करने के लिए उत्साहित थी। मेरी उम्मीद थी कि एमएसडब्ल्यू मुझे वहां पहुंचने में मदद करेगा लेकिन पूरी तरह से ऐसा नहीं हो सका। मुझे जो मौके मिले वे मेरी खुद की कोशिशों के चलते मिले हैं। आखिर में, इतना सब करने के बाद भी नौकरी मिलने में दिक्कत ही हो रही है।
शिवाली दुबे प्रवाह की फेलो रह चुकी हैं।
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अधिक जानें: जानें की वंचित समुदायों के युवाओं को डर से उबरने में क्या मदद करता है?
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हम यूथ फॉर यूनिटी एंड वॉलंटरी एक्शन (युवा) संस्था के अंतर्गत महाराष्ट्र के 21 जिलों में अनुभव शिक्षा केंद्र नामक एक युवा-केंद्रित कार्यक्रम चलाते हैं। अनुभव शिक्षा केंद्र, नए-नए तरीकों से शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के वंचित समुदाय के युवाओं में लीडरशिप का निर्माण करता है।
शहरी क्षेत्रों में रहने वाले युवाओं के साथ बातचीत में हमने पाया कि बहुत से ऐसे हैं जिनमें नौकरी ढूंढने से जुड़े कामों में अधिक संघर्ष और तनाव के कारण आत्मविश्वास की काफी कमी होती है।
चूंकि शहरी युवाओं के लिए रोजगार एक बड़ी चिंता है, इसलिए युवा संस्था उन्हें नौकरी के लिए रेफरल (सिफारिश) देकर मदद करता है। एक इसी से जुड़े मामले में, मुंबई के उपनगर मलाड के मालवणी से लगभग 22-23 साल के तीन लड़कों को एक प्रमुख बीमा कंपनी में बैक-ऑफिस की नौकरी मिल गई। वे उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी, बस्ती और गोंडा जिलों से आए थे और तीन साल से मुंबई में रह रहे थे। उनके परिवार जरी का काम करते थे। दो युवाओं ने 12वीं कक्षा पूरी कर ली थी और एक बी.कॉम. की पढ़ाई कर रहा था।
नौकरी मिलने के बाद, लड़कों को ट्रेनिंग के लिए बीमा ऑफिस जाना था। लेकिन बाद में हमें पता चला कि वे ऑफिस के रिसेप्शन से आगे भी नहीं गए। जब हमने पूछा कि क्या हुआ, तो उन्होंने हमें बताया, “ऑफिस एक बहुत बड़ी कांच की इमारत में था और हम ये सब देखकर घबरा गए क्योंकि हम इससे पहले कभी ऐसी जगह पर नहीं गए थे। जब हम रिसेप्शन पर गए और हमने वहां फ्रंट-डेस्क पर बैठी मैडम से बात करनी चाही तो उन्होंने हमसे अंग्रेजी में बात करना शुरू कर दिया। इस सबसे हम डर गए और परेशान हो रहे थे कि हम उनकी बात का जवाब कैसे दें। इसलिए, हमने ट्रेनिंग पूरी न करने का फैसला किया और वापस आ गए।”
हमने ये महसूस किया कि रोजगार के मौकों के अलावा युवाओं में आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए उन्हें नए संदर्भों व परिस्थितियों को पहचानने के लिए बाहरी दुनिया से परिचित कराना भी बहुत जरूरी है।
इस घटना को लेकर हमने अपनी सप्ताह में होने वाली बैठक अनुभव कट्टा में चर्चा की, जहां युवाओं ने चकाचौंध (एलीट) वाली जगहों में जाने से अपने डर के बारे में बात साझा की।
इसको लेकर युवाओं ने खुद ही एक समाधान निकाला कि वे मॉल में इस तरह की बड़ी-बड़ी दुकानों पर जाकर उस माहौल के बारे में जानेंगे। उन्होंने यह फैसला इसलिए किया ताकि उन जगहों पर जाने से उनके मन में जो डर रहता है उस पर काबू पाने में काफी मदद मिलेगी।
इसलिए मैं खुद 20-25 युवाओं को अपने साथ मलाड के इन्फिनिटी मॉल में गया। वहां जाकर मैंने उन्हें एस्केलेटर पर चढ़ने, ट्रेंड्स और क्रोमा जैसे स्टोर में जाने, कपड़े परखने और दुकानें चलाने वाले लोगों से बात करने के लिए प्रोत्साहित किया। उनमें से कई युवा कपड़ों की दुकानों पर गए, लेकिन वे सैलून आदि से जुड़ी दुकानों में जाने से हिचकिचा रहे थे क्योंकि उन्हें लगा कि वहां काम करने वाले लोग उनके प्रति तिरस्कारपूर्ण रवैया रखते हैं क्योंकि वे उन्हें अपने नियमित ग्राहकों जैसे दिखाई नहीं पड़ते थे। लेकिन हमने उनसे कहा, “भले ही दूसरे व्यक्ति को लगे कि आप उनकी दुकान में कुछ ना भी खरीदना चाहते हों, फिर भी आपको इस तरह की दुकान में जाना चाहिए।” इस तरह उन्होंने ठीक ऐसे ही किया।
ये सब के बाद जब हमने उनके अनुभवों पर चर्चा की तो उन्हें सच में एहसास हुआ कि इस तरह की बड़ी जगहों पर जाने का डर सिर्फ उनके मन में ही था। क्योंकि जब वे वास्तव में उन जगहों पर गए तो यह उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी।
युवाओं को अपने स्थानीय इलाकों में ऐसी जगहें तलाश करनी चाहिए, जहां वे खुद को अभिव्यक्त करने के साथ-साथ अपने मन में बैठे डर को दूर करने का समाधान भी खुद ही ढूंढ पायें। हालांकि, खासकर वंचित समुदायों में अक्सर इसकी कमी देखने को मिलती है। अगर इस तरह की असुरक्षाओं के लिए काउंसलर उनके साथ बात भी करते हैं, तब भी वे अपनी चर्चाओं में इन बातों को सामने लाने से हिचकिचाते हैं।
हमने नगर निगम कार्यालयों में भी यही तरीका अपनाया है। हम युवाओं को बीएमसी कार्यालय ले जाते हैं ताकि उन्हें उनके अधिकारों के बारे में जागरूक किया जा सके। इसके लिए हम उन्हें अधिकारियों के साथ बात करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। हालांकि, उन्हें वहां भी डर लगता है, लेकिन इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ता है। इससे उन्हें स्थानीय शासन में शामिल होने में मदद मिलती है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि उन्हें एहसास होता है कि वे सक्रिय नागरिक (एक्टिव सिटीजन) के तौर पर शासन व्यवस्था से जुड़ सकते हैं।
जहां तक तीनों लड़कों की बात है, उनमें से दो अब ई-कॉमर्स कंपनियों में काम करते हैं और एक मलाड में थोक की दुकान चलाते हैं।
सचिन नचनेकर, यूथ फॉर यूनिटी एंड वॉलंटरी एक्शन (युवा) में कार्यक्रम प्रमुख हैं।
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अधिक जानें: जानें कि क्यों युवाओं की जरूरतों को नहीं, बल्कि उनकी इच्छाओं को समझना जरूरी है।
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