मौलिक सुविधाओं से मीलों दूर

20 साल पहले एक राज्य के रूप में स्थापित उत्तराखंड के निवासी आज भी बुनियादी परिवहन ढांचे की कमी के कारण संघर्ष कर रहे हैं। दुमक, कलगोथ, किमाना, पल्ला, जखोला, लंजी पोखनी, द्विजिंग और ऐसे ही विभिन्न तमाम गांवों में परिवहन की सुविधा की कमी है। इन गांवों में लगभग 500 परिवार रहते हैं जिन्हें अपनी आजीविका के लिए मीलों की दूरी तय करनी पड़ती है। बारिश और बर्फ के मौसम में सड़कों पर चलना भी असंभव हो जाता है। इससे आगे, 2013 में आई बाढ़ों के कारण इन गांवों को जोड़ने वाली पगडंडियाँ और पल टूट गए थे और इनकी मरम्मत अब भी नहीं हुई है। 

इन क्षेत्रों में राजमा, रामदाना और आलू जैसे फसलों की खेती होती है। लेकिन परिवहन के उचित साधन के बिना ये चीजें बाजार तक नहीं पहुँच पाती हैं। देहरादून जैसी मंडियों तक समान पहुँचाने का खर्च कई गुना बढ़ गया है। 

दुमक गाँव में सड़क अभियान के अग्रणी और एक समाज सेवक के रूप में काम करने वाले प्रेम सिंह संवाल कहते हैं कि “आज भी इन गांवों के लोग अपने फसल को मंडी तक ले जाने और बेचने के लिए घोड़ों और खच्चरों का उपयोग करते हैं। इसके कारण किसानों को बहुत अधिक नुकसान उठाना पड़ता है क्योंकि सामानों की ढुलाई में बहुत अधिक पैसे लगते हैं।” गाँव के एक किसान का कहना है कि “गोपेश्वर या जोशी मठ शहर तक जाने के लिए किराए पर एक घोड़ा या खच्चर लेने पर पाँच क्विंटल राजमा देना पड़ता है और मुझे एक पैसे का फायदा नहीं होता है।”

दुमक गाँव के जीत सिंह संवाल और पूरन सिंह का कहना है कि “सीमावर्ती गांवों में से एक गाँव होने के बावजूद मौलिक समस्याएँ यूं ही बनी हुई हैं। सड़क तक पहुँचने के लिए गाँव वालों को 18 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है।” आगे वे कहते हैं कि “यह समस्या तब और ज्यादा गंभीर हो जाती है जब गाँव में कोई बीमार हो जाता है।” ऐसी स्थिति में लोग डोली की मदद से बीमार आदमी को लेकर जाते हैं। कभी-कभी वह बीमार आदमी रास्ते में ही मर जाता है। बारिश और बर्फ पड़ने के दौरान रोगी को अस्पताल तक ले जाना भी संभव नहीं होता है।”

गाँव वालों द्वारा लगातार किए गए दोषारोपण के बाद सरकार ने प्रधान मंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत धिंघारण-स्युन-वेमरु-दुमक कलगोथ सड़कों के साथ ही विभिन्न अन्य इलाकों में भी सड़कों के निर्माण की अनुमति की घोषणा की है। लेकिन निर्माण कंपनियों की मनमानी के कारण पिछले 17 सालों से काम या तो रुका हुआ है या अब भी पूरा नहीं हुआ है। 

महानन्द सिंह बिष्ट एक पत्रकार हैं और इन्हें समाज सेवा के कामों में 20 वर्षों का अनुभव है। मूल लेख चरखा फीचर्स द्वारा प्रकाशित की गई थी। 

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कुआँ ही सबकुछ है

2008 में मैं सलीधना गाँव में था। यह मध्य प्रदेश के खांडवा जिले के खलवा प्रखण्ड में है। इस गाँव में कई स्वदेशी समुदाएँ बसती हैं। 

गाँव के लोग मुझे बरसाती नदी (बारिश के पानी से बनने वाली नदी) लेकर गए जो उनके गाँव से कई मीटर नीचे थी। मुझे बताया गया कि नदी से बर्तनों में पानी भर कर ऊपर लाते समय कई औरतें फिसलने की वजह से घायल हो जाती हैं। इस समस्या को सुलझाने के लिए हम लोगों ने सलीधना में क्लौथ फॉर वर्क कार्यक्रम शुरू किया। इसके तहत हमनें नदी तक आसानी से पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ बनाने का फैसला किया। यह एक अच्छी योजना लग रही थी। 

नदी से वापस गाँव आने के दौरान मैंने एक बुजुर्ग से पूछा कि ऐसी कौन सी समस्या है जिसका समाधान तुरंत होना चाहिए। उनका जवाब था, “हम एक कुआं चाहते हैं।” मैं उनका जवाब सुनकर चौंक गया था और इसलिए मैंने उनसे फिर पूछा “एक कुआं क्यों? यह एक छोटा सा गाँव है। सीढ़ियाँ बन जाने के बाद आपलोग नदी किनारे लगाए गए हैंडपंप तक आसानी से जा सकेंगे। नदी का इलाका पानी सोखने वाला है इसलिए हैंडपंप के सूखने की संभावना नहीं के बराबर है।”

उन्होनें मेरी बात ध्यान से सुनी और फिर मुस्कुराते हुए कहा, “बेटा, आप जो कह रहे हैं वह सही है। लेकिन मॉनसून में नदी का पानी बहुत ऊपर तक आ जाता है इसलिए हम उस समय हैंडपंप तक नहीं जा पाएंगे।” औपचारिक शिक्षा से मिले मेरे सभी सिद्धान्त उसी समय ध्वस्त हो गए। पानी वाले उस इलाके में पहले से ही एक पंप लगा था और हम लोग सीढ़ियाँ बनाने के बारे में सोच रहे थे। लेकिन वस्तुस्थिति यह थी कि उनकी पानी की समस्या को ख़त्म करने के लिए यह कदम पर्याप्त नहीं था।  

सिद्धांतो और अपने कई अनुभवों के आधार पर हम लोग यह सोच लेते हैं कि उच्च जल स्तर वाले इलाके में पंप के होने से पानी की समस्या नहीं होगी। लेकिन ऐसा हमेशा ही हो जरूरी नहीं है। कई मामलों और इलाकों में पंप होने के बावजूद लोगों को पानी नहीं मिल पाता है। अंतत: हमने गाँव के लोगों के निर्देश के अनुसार वहाँ एक कुआँ खुदवाया। क्योंकि उनकी बातों को सुनने और समझने के बाद हमें एहसास हो गया कि उन्हें सच में कुएँ की जरूरत है और यही उस समस्या का समाधान भी था। जैसा कि गाँव वालों ने हमें बताया था खुदाई करने पर हम लोगों को जमीन से 18 फीट नीचे ही पानी का स्तर मिल गया था।

अंशु गुप्ता सामुदायिक विकास के क्षेत्र में काम करने वाली स्वयंसेवी संस्था गूंज के संस्थापक-निदेशक हैं।

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जल ही जीवन है

धीराराम कपाया वन उत्थान संस्थान चलाते हैं। यह समितियों का एक ऐसा संघ है जो जमीन से जुड़े संसाधनों की सुरक्षा करता है। कपाया राजस्थान के उदयपुर जिले के भील जनजाति से आए हैं। उदयपुर जिले में जंगलों और चारागाहों की सुरक्षा के लिए कई दशक लंबे आंदोलन चले और अब इस इलाके के लोग इसे सामुदायिक संसाधन के रूप में देखते हैं। धीराराम एक कार्यकर्ता और कलाकार दोनों हैं। यह सामाजिक मुद्दों पर जागरूकता फैलाने के लिए लोकगीत लिखते हैं और उन गीतों को गाते हैं। इनकी गीतों का विषय विविध है और इसमें कुपोषण से लेकर पर्यावरण जैसे विषय शामिल हैं।

इस गीत को सुनिए जो इन्होनें पानी और दूसरे प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के बारे में और अपने समुदाय के लोगों को जागरूक करने के लिए बनाया है।  

धीराराम कपाया एक कार्यकर्ता और कलाकार हैं और सेवा मंदिर द्वारा स्थापित वन उत्थान संस्थान चलाते हैं।

स्नेहा फिलिप आईडीआर में कंटेंट डेवलपमेंट और क्यूरेशन का काम देखती हैं। 

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काम की जाति

2011 में मैं एक स्किल डेवलपमेंट कार्यक्रम पर राजस्थान स्किल एंड लाइवलीहुड डेवलपमेंट कार्पोरेशन (आरएसएलडीसी) के साथ काम कर रहा था। यह राजस्थान के 21 जिलों में फैली हुई एक विशाल परियोजना थी जिसके तहत युवाओं को हॉस्पिटैलिटी का प्रशिक्षण दिया जा रहा था। इन इलाकों में एक इलाका जोधपुर जिले में था जहां हम लोग उच्च-जाति के लोगों के साथ काम कर रहे थे। हमनें वहाँ प्रशिक्षण केंद्र तैयार किए लेकिन उसके पहले हमलोगों ने क्षेत्र के समुदायों के साथ सर्वेक्षण के काम में समय नहीं दिया। इसके कारण वहाँ जो कुछ भी हुआ हम उसके लिए तैयार नहीं थे। 

हमारा केंद्र तैयार होने के बाद भारी संख्या में लड़के और लड़कियां आने लगे। लेकिन कुछ ही समय में वे समझ गए कि हॉस्पिटैलिटी में काम करने का एक मतलब कमरों और सार्वजनिक जगहों की सफाई करना भी है। जहां एक तरफ वे होटलों में काम करने की संभावना को लेकर उत्साहित थे वहीं वे इस बात से अनजान थे कि इसमें कई तरह के काम शामिल होते हैं—और सभी काम अनिवार्य होते हैं। नब्बे प्रतिशत प्रशिक्षु बीच में ही कार्यक्रम छोड़कर चले गए। इसका कारण सिर्फ इतना था कि उनकी जाति उन्हें साफ-सफाई वाले काम करने की अनुमति नहीं देती है।  

ये समुदायों के भीतर की क्रूर सच्चाई है। स्किल डेवलपमेंट कार्यक्रमों को करवाने वाली स्वयंसेवी संस्थाएं इन नियमों के बारे में जानती हैं। लेकिन उन्हें लोगों को रोकने के लिए समुदायों के भीतर जाकर उनके रवैये को बदलने के लिए भी काम करना होगा। इस मामले में वे समुदायों के साथ बैठकर श्रम की गरिमा के बारे में बात कर सकते है।

अजित सिंह अनंत लर्निंग एंड डेवलपमेंट प्राइवेट लिमिटेड के संस्थापक है।

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आख़िरी हैंड-ब्लॉक प्रिंटर

वीडियो साभार: अन्नाबेल डी’कोस्टा

आज की तारीख में मनसुख पीताम्बर गुजरात में बेला गाँव में बेला छपाई का काम करने वाले इकलौते इंसान हैं। पुराने जमाने में उनका गाँव हैंड-ब्लॉक छपाई के लिए मशहूर था। मनसुख भाई दुखी होकर कहते हैं कि “आज सिर्फ मैं ही बच गया हूँ।”

55 साल की उम्र में भी मनसुख भाई धुलाई, छपाई और रंगाई का काम खुद ही करते हैं। उनका कहना है कि उनकी कला में कल्पना, एकाग्रता और सटीकता की जरूरत होती है। इस तरफ एक मिलीमीटर के भी इधर-उधर होने से दूसरी तरफ काम फैल जाता है इसलिए कपड़े की अंतिम सुंदरता मनसुख भाई के हाथों की सटीकता में है।

बेला हैंड-ब्लॉक प्रिंट अपनी विविधता और दक्षता के लिए मशहूर है। कपड़े पर छपाई कला की सबसे पुरानी, सरल और सबसे धीमी रूपों में से एक है। बेला के लोगों के लिए यह केवल एक उपयोगिता का सामान भर नहीं था बल्कि वे कला के इस रूप का उपयोग यादों को सँजोने में, अपने जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं के संकेत के रूप में और यह बताने के लिए प्रयोग करते थे कि वे कौन थे।

हालांकि समय के साथ स्थानीय समुदायों में इस कलात्मक कृति की मांग में कमी दर्ज की गई है। गाँव के लोग अब इसके बदले मशीन से बनने वाली सस्ती चीजों को खरीदने लगे। बेला प्रिंटिंग के काम में बहुत अधिक समय और मेहनत लगने के कारण इस कला को विस्तार का मौका नहीं मिला।

आज की तारीख में बेला प्रिंटिंग की यह कला विलुप्त होने की कगार पर है क्योंकि इस काम को आगे ले जाने वाले युवाओं की संख्या न के बराबर है। लेकिन क्या हम वास्तव में उन्हें इसका दोषी मान सकते हैं? ज़्यादातर युवाओं को इस तरह के पारंपरिक पेशे न केवल अव्यवहारिक लगते हैं बल्कि आर्थिक रूप से भी उन्हें ऐसे सभी काम मुश्किल लगते हैं। दरअसल बेला छपाई के पेशे का भविष्य न होने के कारण कई कलाकार आजीविका के दूसरे स्त्रोतों की तरफ रुख करने के लिए मजबूर हो गए हैं। इन कलाकारों में मनसुख भाई के बड़े भाई और भतीजे भी शामिल हैं।

हालांकि मनसुख भाई अभी तक अडिग हैं। वे कहते हैं कि, “मुझे यह सोचकर दुख होता है कि युवा पीढ़ी इस शिल्प के लंबे इतिहास और इसकी तकनीक से अनजान है। इस पीढ़ी के पूर्वज बेला से आए थे। ये कौशल तभी बच सकती है जब हर पीढ़ी में इसे जानने वाले लोग होंगे। ये हमें हमारी जड़ों तक पहुँचने का रास्ता बताते हैं और ये हमारी साझा विरासत का हिस्सा हैं।”

अन्नाबेल डी’कोस्टा एक भूतपूर्व इंडिया फ़ेलो हैं और उन्होंने गुजरात के कच्छ में खमीर के साथ काम किया है।

इंडिया फ़ेलो आईडीआर में #जमीनीकहानियाँ के कंटेन्ट पार्टनर हैं। मूल लेख को यहाँ पढ़ें।

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कौन बचाएगा जंगल को?

1970 के दशक में ओडिशा के नयागढ़ जिले में सुलिया जंगल 30 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैला हुआ था। जंगल के आसपास के छत्तीस गाँव अपनी आजीविका और दूसरी जरूरतों के लिए इसपर निर्भर थे। हालांकि 1980 के दशक की शुरुआत में इन संसाधनों के अनियोजित उपयोग के कारण जंगल का बहुत बड़े स्तर पर क्षरण हुआ। इस क्षेत्र के पाँच छोटे गाँवों—रघुनाथपुर, कुशपांडेरी, बारापल्ला, पांडुसारा और कल्याणपुर—ने एक साथ मिलकर 1980 के दशक के मध्य में इसे बचाने की बहुत अधिक कोशिश की। इन तरीकों में एक तरीका थेंगापाली भी है जिसका साधारण अनुवाद है ‘छड़ी की बारी’ (थेंगा का मतलब छड़ी और पाली मतलब बारी)। इसमें ग्रामीण लोग चौबीसों घंटे बारी-बारी से जंगल की रखवाली करते हैं। 

दशकों की कड़ी मेहनत के बाद यहाँ की हरियाली वापस लौट आई। धीरे-धीरे जंगल दोबारा उगने लगा, जंगली जीवन वापस लौट आया और झरनों में पनि वापस लौट आया। लेकिन यह सब बहुत कम समय तक ही रहा। बाकी के 31 गांव जंगल की सुरक्षा के बारे में बिना सोचे समझे इसका दोहन करने लगे। उन्होनें दोबारा गैर-कानूनी तरीके से लकड़ियों को काटना और जंगली जानवरों का शिकार शुरू कर दिया। अपनी आर्थिक शक्ति और उच्च जाति के होने और उच्च जाति के लोगों के साथ संपर्क होने के कारण इन 31 गांवों के पास उन पाँच छोटे गांवों की तुलना में अधिक ताकत थी। इसलिए जंगल की सुरक्षा को बनाए रखने के लिए इन पाँच गांवों ने बृक्ष्य ओ जीवर बंधु परिषद, केशरपुर और जंगल सुरख्या महासंघ, नयागढ़ से मदद की गुहार लगाई। ये दोनों ही समुदाय-आधारित संगठन हैं और आसपास के लोगों में जंगल की सुरक्षा के बारे में जागरूकता फैलाने का काम करते हैं। साथ ही ये आसपास के समुदायों को जंगल की सुरक्षा की जिम्मेदारी उठाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।    

1995 में इन दोनों संगठनों ने इस मामले को सुलझाने के लिए 36 गांवों के लोगों के साथ मिलकर कई बैठकें की और हस्तक्षेप किया। एकमत के साथ यह फैसला लिया गया कि सभी गांवों के प्रतिनिधि जंगल की सुरक्षा के लिए एक साथ मिलकर काम करेंगे। ज़िम्मेदारी का एहसास पैदा करने के लिए समिति ने एक ग्राम सभा का आयोजन किया। इस सभा में यह फैसला लिया गया कि 36 गांवों के सभी निवासियों को जंगल का हितधारक बनाया जाएगा। एक साथ मिलकर इन लोगों ने जंगल के संसाधनों के संचालन के लिए कुछ नियम और कानून बनाए। उदाहरण के लिए, समिति की पूर्व अनुमति के बिना जंगल में कोई भी प्रवेश नहीं कर सकता है, जंगल से मिलने वाले सभी संसाधनों को सभी गाँववासियों में बराबर बांटा जाएगा और जंगल-संबंधी किसी भी तरह की समस्या का निवारण यह समिति करेगी।  

जब हम लोग अपने सार्वजनिक संसाधन की सुरक्षा के बारे में बात करते हैं तब इस प्रक्रिया में सभी हितधारकों को बिना शामिल किए ऐसा करना असंभव है। दो से अधिक दशकों के बाद समुदायों के बीच समझ और आपसी विश्वास ने ही सुलिया जंगल को फिर से जीवित करने में मदद की है। कुशपांडेरी के एक ग्रामीण का कहना है कि “आप निगरानी वाले कैमरे लगा कर जंगल को नहीं बचा सकते हैं। इसे तभी बचाया जा सकता है जब इसके हितधारकों की आँखें खुली हों।”

नित्यानन्द प्रधान और सास्वतिक त्रिपाठी फ़ाउंडेशन फॉर इकोलॉजिकल सिक्योरिटी में जिला समन्वयक के रूप में काम करते हैं। 

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जलवायु परिवर्तन ने ख़त्म किया आपसी बातचीत का माहौल

असम के नौगाँव जिले में अनुसूचित जाति के काईबरता समुदाय की मछुआरिनें हर दिन शाम में आसपास के जल स्त्रोतों के पास समूहों में इकट्ठा होती हैं और रात के खाने के लिए मछली पकड़ती हैं। वे इस समय का उपयोग आपस में मेलजोल बढ़ाने, अपनी समस्याओं के बारे में बात करने और गप करने में करती हैं। दिन भर में यही वह समय होता था जो इनका अपना होता था—यह उनके ‘आराम’ का समय था। और इसके बाद वे रात के खाने का इंतजाम करके अपने घर वापस लौट जाति थीं। 

सामुदायिक रूप से मछ्ली पकड़ना लंबे समय से इन लोगों की संस्कृति का हिस्सा रहा है। बचपन से ही इन औरतों ने अपनी माँओं को घर का काम खत्म करने के बाद दूसरी औरतों के साथ मछली पकड़ने के लिए जाते देखा है। मछुआरिनों की काई पीढ़ियों के लिए मछली पकड़ने का काम न सिर्फ मुक्ति देने वाला था बल्कि सशक्त बनाने वाला भी था। ऐसा इसलिए था क्योंकि उच्च वर्ग की इनकी समकक्षों को घर से बाहर तक निकलने की आज़ादी नहीं थी और वहीं काईबरता समुदाय की औरतें बाहर जा सकती थीं और परिवार की आय में अपना योगदान दे सकती थीं। 

समय के साथ इलाके की बिगड़ती परिस्थितिकी के कारण आसपास के जल स्त्रोत या तो ख़त्म हो गए या प्रदूषित हो गए। नतीजतन, इन मछुआरिनों का सामाजिक जीवन धीरे-धीरे गायब हो गया। अब उनके पास सामुदायिक रूप से मछली पकड़ने और दूसरी औरतों के साथ आराम के कुछ पल बिताने के लिए कोई जगह नहीं बची है। अब वे एक दूसरे से सिर्फ स्वयं-सहायता समूह (एसएचजी) की बैठकों में ही मिल सकती हैं। स्थानीय जलवायु में आए परिवर्तनों ने उनके जीवन के महत्वपूर्ण हिस्से और सदियों की उनकी परंपरा को मौलिक रूप से बदल दिया है। 

जब मैं 2015 में उस समुदाय में गई थी तब मैंने देखा था कि कई एसएचजी इनकी परंपरा के पुनर्जन्म के उद्देश्य से आसपास के कुछ जल स्त्रोतों के कायाकल्प का काम कर रहे थे। वे पैसे इकट्ठा कर रहे थे और सफाई अभियानों का आयोजन कर रहे थे। लेकिन यह केवल एक शुरुआत भर है और उन्हें उम्मीद है कि जल्द ही सरकार उनकी मदद करेगी। 

सरमिस्ठा दास 2010 से तेजपुर विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में अध्यापन का काम कर रही हैं। 

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पैसे, भूकंप और विकास

उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र के राकेश राव की उम्र पचास वर्ष है। वह गंगोत्री शहर में आने वाले तीर्थ यात्रियों और गंगा के स्त्रोत देखने आने वाले पर्यटकों के लिए गाइड का काम करते हैं। इसी जगह पर अक्टूबर 2020 में मेरी और मेरे एक सहकर्मी की मुलाक़ात इनसे हुई थी। 

राकेश ने हमें इस इलाके में होने वाले स्थानीय विकास की कुछ मजेदार कहानियाँ सुनाईं। उन्होने बताया कि 1991 के पहले, उनके गाँव के कुछ ही लोगों के पास पैसे थे। उनके परिवार के लोग एक दिन में सिर्फ दो जग पानी का ही इस्तेमाल करते थे क्योंकि उन्हें पानी लाने के लिए नीचे बहुत दूर चलकर नदी तक जाना पड़ता था। ज़्यादातर घरों की छतें फूस से बनी थीं और वे अक्सर ही जल जाया करती थीं।  

1991 में, गढ़वाल के गांवों को बदलने वाली दो परिवर्तनकारी शक्तियाँ आईं: भारतीय अर्थव्यवस्था का उदारीकरण, और एक विनाशकारी भूकंप। इस भूकंप में पूरे उत्तराखंड में लगभग 700 लोग मारे गए और 40,000 से अधिक घरों को नुकसान पहुंचा। राकेश के गाँव के ज़्यादातर घर बर्बाद हो चुके थे, लेकिन उन्हें पुनर्निर्माण के लिए सरकार से 15,000 रुपए मिले थे। 

नकद पैसे और उदारीकरण के बाद तेजी से हो रहे आर्थिक विकास ने गाँव के लोगों का जीवन भी तेजी से बदल दिया। राकेश के अनुसार, 2020 में लोग अपनी गायों को 1991 की तुलना में बेहतर घरों में रखते हैं। गाँव में अब पानी की व्यवस्था है जिससे लोगों का वह समय बच जाता है जो पहले पानी लाने के काम में लगता था। साथ ही अब घरों में पानी का इस्तेमाल पहले से अधिक मात्रा में होने लगा है। घर के छतों की सामग्री बेहतर होने से अब आग भी कम लगती है। बेहतर सड़क और परिवहन होने के कारण अब लोगों को बाहर से आने वाली सामग्रियाँ आसानी से मिल जाती हैं। 

राकेश ने खुद का जीवन भी बदलते देखा है। उसकी एक बेटी और दो बेटे हैं और औपचारिक रूप से तीनों के पास नौकरी है। उसका परिवार अब भी खेती करता है लेकिन जीविका के लिए अब इस पर निर्भर नहीं है। 

माइकल हेनरी कनाडा के नागरिक हैं और इन्होनें 2019–20 में आईडीइनसाइट के साथ काम किया था।  

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तलाक़ के लिए शुल्क

लाल पगड़ी और सफ़ेद कुर्ता पजामा पहने तीन लोग एक चारपाई पर बैठे हैं और उनके पीछे एक बच्ची खड़ी है-तलाक़ रबारी समुदाय राजस्थान

रबारी राजस्थान और गुजरात के कुछ हिस्सों में निवास करने वाली पशुपालकों की एक खानाबदोश जनजाति है। इन्हें रेवारी, रैका, देवसी या देसाई के नाम से भी जाना जाता है। इस समुदाय का काम बकरियों, भेड़, गाय, भैंस और ऊँट जैसे विभिन्न पशुओं को पालना है।  

कई अन्य समुदायों की तरह रबारी समुदाय भी तलाक़ को वर्जित मानते हैं। पंचायत सदस्य और समुदाय के अन्य बुजुर्ग तलाक से संबंधित फैसलों में शामिल होते हैं। इस समुदाय में तलाक़ को रोकने के लिए कई तरह की परम्पराएँ हैं। इनमें से एक में यह उन परिवारों पर शुल्क लगाता है जिसमें तलाक़ की घटना होती है। चाहे वह पत्नी का परिवार हो या पति का, तलाक का फैसला करने वाला पहला पक्ष दूसरे पक्ष को मुआवजा शुल्क का भुगतान करता है। तलाक़ लेने वाले पक्ष को समुदाय के सभी पुरुष सदस्यों के लिए भोजन की व्यवस्था भी करनी होती है। कानूनी अलगाव के एवज में अक्सर दो परिवारों के बीच पशुधन, विशेष रूप से ऊंटों का आदान-प्रदान भी होता है।

विवाह की समाप्ति के प्रतीक के रूप में, पति अपनी पगड़ी से कपड़े का एक छोटा टुकड़ा काटकर पत्नी के परिवार को देता है।

इरम शकील लेंड-ए-हैंड इंडिया नाम के एक स्वयंसेवी संस्था के साथ कार्यरत हैं। यह संस्था व्यावसायिक शिक्षा को मुख्यधारा की शिक्षा के साथ एकीकृत करने की दिशा में काम करती है।

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चौकीदारी की छड़ी

दक्षिणी राजस्थान में उदयपुर जिले के आसपास की कभी बंजर पड़ी जमीन अब सुरक्षित और विकसित है। पिछले 25 वर्षों में इन आम ज़मीनों को उनके आसपास के गांवों द्वारा बहुत ही सावधानी से चारागाहों में बदल दिया गया है। 

इसे बनाए रखने के लिए हर घर अपना योगदान देता है और होने वाले फायदे को भी आपस में सब बराबर बांटते हैं। अपनी जमीन पर दूसरों के अतिक्रमण (दूसरे गांवों या आवारा चरने वाले पशुओं और बकरियों) से बचाव को सुनिश्चित करने के लिए झडोल प्रखण्ड में सुल्तान जी का खेरवारा के गाँव के निवासियों ने एक अनोखी रणनीति को विकसित किया है। इस गाँव में कुल 450 घर हैं। अपनी ज़मीन की रक्षा के लिए ग्रामीणों ने चौकीदारी का फ़ैसला किया। जिसके लिए उन्होंने हर दिन एक अलग घर के एक सदस्य को निगरानी के काम पर भेजना शुरू कर दिया।

उन्होनें एक मजेदार तरीका भी विकसित किया है ताकि इस बात का पता लगाया जा सके कि चारागाहों पर निगरानी की बारी कौन से घर की है। निगरानी करने वाले आदमी को एक छड़ी दी जाती है जिसे वह हमेशा अपने पास रखता है। जब उनकी बारी खत्म हो जाती है तब वह उस छड़ी को अपने पड़ोसी के घर के बाहर रख देता है जो इस बात का संकेत होता है कि अगली बारी उनकी है। इस तरह से, यह छड़ी एक घर से दूसरे घर तक जाती है और ग्रामीणों को यह बताती है कि इस बार गाँव के चीजों की सुरक्षा की बारी उनकी है। 

आएशा मरफातिया पहले इंडिया डेवलपमेंट रिव्यू में संपादकीय सहयोगी थीं। 

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