हमारा परिवार राजस्थान के अलवर जिले के चोरोटी पहाड़ गांव में रहता है। यहां हमारे पास 0.75 बीघा (0.47 एकड़) जमीन है। तीन साल पहले तक हम खेती, दूध के व्यापार और मेरे पति की मज़दूरी के सहारे अपना गुज़ारा करते थे। लेकिन मेरे पति की नौकरी छूटती रहती थी और केवल खेती से होने वाली कमाई हमारे लिए पर्याप्त नहीं थी। हमें हमारे बेटे की पढ़ाई-लिखाई का खर्च भी उठाना था।
मैं एक स्वयं सहायता समूह की सदस्य हूं जिसे अलवर स्थित एक समाजसेवी संगठन इब्तदा ने बनाया है। 2020 में मैंने इस समूह से 10,000 रुपये का ऋण लेकर अपनी ख़ुद की एक दुकान शुरू की थी। आसपास की महिलाओं ने मुझसे कहा कि मुझे दुकान में महिलाओं के कपड़े जैसे साड़ी, ब्लाउज़ और पेटीकोट वगैरह रखना चाहिए ताकि वे अलवर जाकर साड़ी लेने की बजाय मुझसे ही खरीद सकें।
आमतौर पर महिलाओं के लिए बाहर सफर करना मुश्किल होता है। यहां तक कि अगर उनके पति के पास मोटरसाइकिल होती भी थी तो भी उन्हें अपने पति पर निर्भर रहना पड़ता था कि वे काम से छुट्टी लें और उन्हें लेकर जाएं। सार्वजनिक परिवहन सीमित और महंगा है। मेरी दुकान से खरीदारी करने से उनके 50 से 100 रुपये तक बच जाते हैं जो उन्हें अलवर आने-जाने पर खर्च करने पड़ते।
मैंने केवल एक दर्जन साड़ियों के साथ शुरुआत की थी। जब मैंने इनकी मांग बढ़ते देखी तो मैंने इसे 20 तक बढ़ा दिया। मैं अपने बेटे के साथ खरीदारी करने के लिए अलवर जाने से पहले, महिलाओं से पूछती हूं कि उन्हें क्या चाहिए। शुरू में वे 250 से 300 रुपये की कीमत वाली साड़ियां ही मंगवातीं थीं, अब वे मेरी दुकान से फैंसी साड़ियां खरीदती हैं। जब मुझे किसी ग्राहक की कोई खास मांग समझ में नहीं आती है तो मैं उनसे मेरे लिए एक नोट लिखने को कहती हूं, जिसे मैं अलवर के दुकानदार को दिखा सकूं।
मैंने खिलौने रखना भी शुरू कर दिया है क्योंकि महिलाएं अक्सर अपने बच्चों के साथ आती हैं जो इनकी मांग करते हैं। आगे चलकर हम बच्चों के लिए स्नैक्स और सॉफ्ट ड्रिंक्स भी रखना शुरू कर देंगे। इसके अलावा, मेरा बेटा कहता रहता है कि दिल्ली में साड़ियां सस्ती हैं और हमें वहां जाना चाहिए। हम यह योजना बना रहे हैं कि जब हमारे पास पर्याप्त पैसा होगा तो हम दिल्ली से साड़ियां मंगवाया करेंगे।
मुनिया देवी राजस्थान के चोरोटी पहाड़ गांव में रहने वाली एक किसान और साड़ी विक्रेता हैं।
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उत्तर प्रदेश में सार्वजनिक अस्पतालों के प्रसूति (मैटरनिटी) या बाल चिकित्सा वार्ड के बाहर “पुरुषों का प्रवेश निषेध है” का बोर्ड टंगा हुआ दिखाई पड़ना एक आम बात है। इस बोर्ड के पीछे नवजात शिशुओं की देखभाल और पालन-पोषण में पुरुषों की भूमिका से जुड़ी मान्यताएं हैं। स्थानीय अस्पताल के प्रशासक आमतौर यह मानते हैं कि इन कामों में पुरुषों के करने लायक़ कुछ नहीं होता है और इसलिए वार्ड में उनकी उपस्थिति से भीड़ बढ़ेगी और/या महिलाओं को असुरक्षित भी महसूस होगा।
2022 में अगस्त की एक भीषण गर्मी वाले दिन निज़ाम को यह ख़बर मिली कि उनकी पत्नी मीना को समय से पहले ही प्रसव पीड़ा शुरू हो गई है और उसे एक बड़े सार्वजनिक अस्पताल में सीज़ेरियन सेक्शन का ऑपरेशन करवाना होगा। निज़ाम दिल्ली में एक प्रवासी श्रमिक के रूप में काम करते हैं। यह खबर मिलते ही वे जल्दी से अपने घर पूर्वी उत्तर प्रदेश के लिए निकल गए। रास्ते में ही उन्हें पता चला कि मीना ने जुड़वा बच्चों को जन्म दिया है। दोनों ही बच्चों का वजन 1.6 किलोग्राम था। एक सामान्य नवजात शिशु का वजन 2.5 किलोग्राम होता है। यानी, निज़ाम के बच्चों का वजन औसत से बहुत कम था।
अक्सर समय से पहले और कम वजन के साथ पैदा होने वाले बच्चों को, अपने शरीर के तापमान को नियंत्रित करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। उनमें दूध पीने की क्षमता का विकास भी पूरी तरह नहीं हो पाता है। इसलिए निज़ाम और मीना के जुड़वा बच्चों को अस्पताल के स्तनपान और नवजात शिशु देखभाल कार्यक्रम के अंतर्गत नामांकित कर लिया गया था। परिवारों, विशेषकर पिताओं की भागीदारी को ध्यान में रखकर निकाले गए सरकारी दिशा-निर्देशों के बावजूद, अस्पताल ने अन्य लोगों की तरह पिताओं को भी नवजात शिशु की देखभाल वाले आईसीयू में बच्चे और उसकी मां के साथ रहने की अनुमति नहीं दी थी। हालांकि निज़ाम का मामला एक अपवाद बना और जुड़वा बच्चों की देखभाल से जुड़े तर्क के कारण अस्पताल को उसे विशेष अनुमति देनी पड़ी थी।
इस अनुमति के कारण निज़ाम को अपने बच्चों के साथ तब तक रहने का अवसर मिला जब तक कि वे अस्पताल से घर नहीं आ गए। इससे पहले वे अपनी पत्नी को, बच्चे के जन्म के एक माह के भीतर ही छोड़कर चले जाते थे। लेकिन इस बार वे पूरे तीन महीनों तक घर पर ही रहे और तब तक रहने की योजना बनाई जब तक कि उनके जुड़वा बच्चे पूरी तरह स्वस्थ न हो जाएं। उनका कहना है कि “मेरे बड़े बच्चों की तुलना में मुझे अपने इन दोनों बच्चों से अधिक लगाव महसूस होता है क्योंकि मैंने इनके साथ ज़्यादा समय बिताया है। वे भी मुझसे अधिक जुड़े हुए हैं। मैं जैसे ही काम से घर लौटता हूं वे दोनों मेरे लिए रोना शुरू कर देते हैं और मुझसे बंदर की तरह चिपक जाते हैं।”
मीना को भी ऐसा लगता है कि निज़ाम की मदद से उसे फायदा हुआ है। ऑपरेशन के बाद होने वाले दर्द से खाना खाने और दवा लेने जैसे साधारण कामों में भी मुश्किल होती है। ऐसे में मदद के बिना बच्चों की देखभाल करना संभव नहीं हो पाता। मीना कहती हैं कि “यदि निज़ाम नहीं होते तो मुझे अस्पताल से जल्दी निकलना पड़ता।”
इस बात की पुष्टि के लिए पर्याप्त चिकित्सीय साक्ष्य हैं जो यह बताते हैं कि बच्चों के पिता भी कुशलतापूर्वक देखभाल कर सकते हैं। हालांकि इससे पिताओं पर पड़ने वाला वह सामाजिक दबाव ख़त्म नहीं हो जाता है जिसका सामना उन्हें पितृसत्तात्मक लैंगिक मानदंडों का पालन करने के लिए करना पड़ता है। बच्चों की देखभाल को केवल महिलाओं के ज़िम्मे आने वाले काम के रूप में देखा जाता है और इस काम में मदद की इच्छा रखने वाले पिताओं को अक्सर ही हतोत्साहित किया जाता है। अपने नवजात शिशुओं की गम्भीरता से देखभाल करने वाले एक और पिता पुत्तन का कहना है कि “हमारे आसपास कुछ लोग ऐसे थे जिनका कहना था कि यह आदमियों का काम नहीं है और मुझे इस प्रकार अपने बच्चों की देखभाल नहीं करनी चाहिए।” लेकिन उन्होंने इन बातों पर ज़रा भी ध्यान नहीं दिया। “आजकल, महिलाएं सब कुछ कर रही हैं। वे अफ़सर, डॉक्टर बन रही हैं तो हम पुरुष भी सारे काम क्यों नहीं कर सकते हैं? यदि पति-पत्नी एक दूसरे की मदद नहीं करेंगे तो काम कैसे चलेगा?”
ताहा इब्राहिम सिद्दिक़ी रिसर्च इंस्टिट्यूट ऑफ़ कम्पैशनट एकनॉमिक्स (आरआईसीई) में एक शोधकर्ता और डेटा विश्लेषक हैं। इन्होंने जामिया मिलिया इस्लामिया से अर्थशास्त्र में बीए किया है।
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ग्रामीण क्षेत्रों में उन महिलाओं को ‘पशु सखी’ कहा जाता है जिन्हें अपने समुदाय में पशु चिकित्सा सेवाएं, प्रजनन सेवाएं और पशुओं को दवाइयां प्रदान करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। इनका चयन इनकी साक्षरता और संचार कौशल के आधार पर किया जाता है। अपनी इन सेवाओं के बदले पशु सखियां पशुपालकों से मामूली शुल्क लेती हैं।
लेकिन, यह शुल्क हासिल करना इनके लिए एक बड़ी चुनौती है। कटरिया गांव की पशु सखी भारती देवी ने बताया कि “लोग हमसे पूछते हैं कि हम शुल्क क्यों लेते हैं। उन्हें ये सेवाएं और दवाइयां मुफ़्त में चाहिए होती हैं या फिर वे नहीं लेना चाहते हैं।” उत्तर भारत में ज़्यादातर घरों में आय के अतिरिक्त स्त्रोत के लिए पशुपालन किया जाता है। इसलिए पशुओं के लिए किसी भी प्रकार के खर्च को अक्सर ये लोग अतिरिक्त या अवांछित खर्च मानते हैं। ऐसी भी कई सखियां हैं जिन्हें अपना शुल्क मांगने में झिझक होती है। आमतौर पर समुदाय और पशु सखियों के बीच पहले से ही सौहार्दपूर्ण संबंध होते हैं। इन संबंधों के कारण भी सखियां अपने काम के बदले भुगतान नहीं मांग पाती हैं। भारती आगे कहती हैं कि “यदि इलाज के दौरान पशु की मृत्यु हो जाती है तब तो पैसे न मिलना पक्का हो जाता है।”
पशु सखी मॉडल के आने से पहले पशु चिकित्सा और पशु प्रजनन से जुड़ी सभी सेवाएं पुरुषों की जिम्मेदारी थीं। जहां एक ओर इन सखियों द्वारा पशु चिकित्सा की सेवा का स्वागत हुआ, वहीं प्रजनन सेवाओं में इनकी भागीदारी को समुदाय के विरोध का सामना करना पड़ता है। गांव में लोग मानते हैं कि पशुओं के प्रजनन में महिलाओं की भागीदारी अनुचित है। परिवार और गांव के बड़े-बुजुर्ग इस काम के लिए महिलाओं को यह कहकर हतोत्साहित करते हैं कि पशु प्रजनन एक गंदा काम है और इसे पुरुषों को ही करना चाहिए।
पशु सखियां इन मुद्दों पर बात करने के लिए, उन समाजसेवी संस्थाओं के साथ चर्चा करती हैं जिन्होंने इन्हें इस काम का प्रशिक्षण दिया है। कइयों ने मुफ़्त सेवा प्रदाता होने तक सीमित हो जाने की चिंता जताई है। कटरिया की ही एक अन्य पशु सखी सज़दा बेगम का कहना है कि “शुल्क का भुगतान पूरी तरह से ग्राहक के विवेक पर निर्भर होता है और वे इसे आमतौर पर परोपकार से जुड़ा काम मानते हैं।”
हालांकि, भुगतान की कमी पशु सखियों के मार्ग की एक बड़ी बाधा है लेकिन उन्हें इस काम से लाभ भी मिलता है। पशु सखी होने के कारण समुदाय में उनकी लोकप्रियता बढ़ जाती है। कुछ पशु सखियों ने तो पंचायत चुनाव लड़कर उसमें शानदार जीत भी हासिल की है।
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रोहिन मैनुएल अनिल एसबीआई यूथ फ़ॉर इंडिया फ़ेलोशिप में एक फेलो हैं और आईडीआर की #ज़मीनीकहानियां के कॉन्टेंट पार्टनर हैं।
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मैं पिछले 30 साल से छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में आने वाले तेगनवाड़ा गांव में वैद्य (पारंपरिक चिकित्सक) के रुप में काम कर रहा हूं। मैंने अपने पिता और दादा से पारंपरिक चिकित्सा की शिक्षा ली है। वे दोनों भी वैद्य थे। वे अपने मरीज़ों से किसी भी प्रकार का शुल्क नहीं लेते थे। तमाम तरह की बीमारियों से पीड़ित लोग इलाज के लिए उनके पास आया करते। वे रोगी की जांच करते और उस आधार पर जंगलों से चुनकर लाई गई जड़ी-बूटियों से बनी दवा उन्हें देते थे। इसके बदले में वे मरीज़ों से नारियल और अगरबत्ती लेते थे।
अब समय बदल चुका है। मुझे अपने परिवार के खाने-पीने और बच्चों की पढ़ाई का इंतज़ाम भी करना पड़ता है। मैं गरीब लोगों से कोई तय शुल्क नहीं लेता हूं। हां, यदि वे मुझे कोई छोटी-मोटी राशि देना चाहते हैं तो बीमारी ठीक होने के बाद दे सकते हैं। लेकिन दूसरों से मैं उनकी बीमारी की गंभीरता के आधार पर पैसे लेता हूं। अब जड़ी-बूटियां ख़रीदना भी मुश्किल हो गया है। एक समय था जब हमारे गांवों में ये प्रचुरता से उपलब्ध थीं। जल्दी पैसा कमाने की इच्छा रखने वाले गांव के कुछ लोगों ने इन जड़ी-बूटियों को बाज़ार के विक्रेताओं को बेचना शुरू कर दिया है। बाजार के विक्रेता हमारी इन जड़ी-बूटियों को शहर ले जाते हैं और फिर वहां से हमें ही उंची क़ीमतों पर बेचते हैं।
मुझ जैसों वैद्यों के लिए यह ख़तरा बनता जा रहा था। इसलिए हमने अपने घर के पीछे की ज़मीनों में जड़ी-बूटी उगाने का फ़ैसला किया। इस तरह इन्हें उगाना और देखभाल करना आसान है। हम इनकी पत्तियों को अपने मवेशियों को खिला देते हैं और इसमें किसी प्रकार का नुक़सान नहीं होता है क्योंकि दवा बनाने में इस्तेमाल होने वाली जड़ें आमतौर पर सुरक्षित होती हैं।
हम भी जड़ी-बूटियां बेचते हैं लेकिन हमारे ग्राहक केवल दूसरे वैद्य ही होते हैं। उदाहरण के लिए, यदि मैं बेल उगाता हूं तो एक दूसरा बेल नहीं उगाने वाला वैद्य, अपनी ऐसी किसी जड़ी-बूटी के बदले मुझसे बेल ले सकता है जो मेरे पास उपलब्ध नहीं है। या फिर, वह मुझसे सीधे ख़रीद भी सकता है। कूरियर सेवा से जड़ी-बूटी की यह अदला-बदली देश के विभिन्न हिस्सों में होती है। मैंने हाल ही में कुछ जड़ी-बूटियों का एक पैकेट श्रीलंका भी भेजा है। अदला-बदली की यह व्यवस्था हमारे लिए आवश्यक है क्योंकि ऐसी कई जड़ी-बूटियां हैं जो विशेष वातावरण में ही उगाई जा सकती हैं। आंखों से जुड़ी एक बीमारी के इलाज में एक विशेष प्रकार की जड़ी-बूटी इस्तेमाल होती है और यह केवल महानदी नदी के उद्गम स्थल सिवान पहाड़ के आसपास की मिट्टी में ही पैदा होती है। मैंने इसे अपने गांव के वातावरण में उपजाने की कोशिश की थी लेकिन असफलता ही हाथ लगी।
पारम्परिक चिकित्सा का अभ्यास एवं जड़ी-बूटी की ख़रीद-बिक्री के अलावा मैं कपड़ों की सिलाई का काम भी करता हूं। जब मैं 8वीं कक्षा में था तभी मैंने अपने गांव के दर्ज़ियों से टेलरिंग का काम सीखा था। पैसों की कमी के कारण मैं 10वीं के आगे नहीं पढ़ सका लेकिन मैंने वनस्पति विज्ञान में डिप्लोमा किया है। वनस्पति विज्ञान की परीक्षा में मैंने टॉप किया था और इसके बाद जड़ी-बूटियों के इस्तेमाल, उनके रोपण और खेती से जुड़ा प्रशिक्षण पूरा किया। जब मैं अपने तीन बेटों को सिखाता हूं तब मैं उन्हें प्रत्येक पौधे का वैज्ञानिक नाम और उनके इस्तेमाल के बारे में भी विस्तार से बताता हूं। मेरे बेटे मुझसे पारम्परिक चिकित्सा से जुड़ा ज्ञान भी ले रहे हैं और साथ ही अपनी औपचारिक शिक्षा भी पूरी कर रहे हैं।
सम्मेलाल यादव छत्तीसगढ़ राज्य के बिलासपुर जिले में रहने वाले वैद्य हैं।
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मैं 2011 से उत्तर प्रदेश के गाज़ियाबाद ज़िले में आंगनबाड़ी कार्यकर्ता के रूप में काम कर रही हूं। मेरे कंधों पर बच्चों को पढ़ाने, राशन वितरण करने, चुनाव की ड्यूटी करने, टीकाकरण अभियान चलाने, गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य एवं पौष्टिक आहार का ध्यान रखने और नवजात शिशुओं की देखभाल जैसे अनगिनत कामों की जिम्मेदारी है।
आमतौर पर आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को एक सहायक दिया जाता है जो बच्चों को आंगनबाड़ी केंद्रों पर लाने और घर पहुंचाने में, कार्यकर्ता की अनुपस्थिति में केंद्र को संभालने जैसे तमाम कामों में उनकी मदद करता है। मेरे केंद्र पर काम करने वाली सहायक तीन साल पहले ही सेवानिवृत हो चुकी है और सरकार ने अब तक उसकी जगह पर किसी को नहीं भेजा है। इस कारण मुझे अकेले ही सारे काम सम्भालने में कठिनाई हो रही है। अगर मुझे किसी मीटिंग में जाना होता है तब बच्चों के साथ रुकने वाला कोई नहीं होता।
2021 से हमारे कंधों पर एक और जिम्मेदारी आ गई है। अब हमें छह साल तक के बच्चों का वजन और उनकी लम्बाई भी मापनी पड़ती है। उनके वजन और लम्बाई के इस आंकड़े को पोषण ट्रैकर ऐप पर दर्ज करना पड़ता है। यह ऐप छोटे बच्चों के पोषण की स्थिति पर नज़र रखता है और इससे कुपोषण से लड़ने में मदद मिलती है। हमें बताया गया था कि इस अतिरिक्त जिम्मेदारी के लिए हमें हर महीने अलग से कुछ पैसे दिए जाएंगे, लेकिन यह भुगतान नियमित नहीं है।
मेरी तनख़्वाह 5,500 रुपए है जो अपने आप में घर चलाने के लिए पर्याप्त नहीं है। जब से पोषण ट्रैकर ऐप शुरू हुआ तब से किसी-किसी महीने मुझे 7,000 तो किसी महीने 8,000 रुपए मिलते हैं। हमें इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि यह सिस्टम कैसे काम करता है और ना ही कोई इस बारे में बताने वाला है। बिना निश्चित राशि के मुझे अपने मासिक खर्च की योजना बनाने में दिक्कत आती है।
मैं ना तो वास्तविक रूप से एक स्वास्थ्य कार्यकर्ता और ना ही एक शिक्षक का काम कर रही हूं। मैं चाहती हूं कि सरकार मुझे एक शिक्षक बना दे क्योंकि पढ़ाना मुझे पसंद है। मुझे लगता है कि आंगनबाड़ी कार्यकर्ता को अपने काम के लिए कम से कम 15-20,000 रुपए की तनख़्वाह और रिटायरमेंट पर कुछ धनराशि तो मिलनी ही चाहिए।
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अनीता रानी उत्तर प्रदेश के गाज़ियाबाद ज़िले में एक आंगनबाड़ी कार्यकर्ता हैं।
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असम के माजुली जिले में नुक्कड़ नाटक होते दिखाई देना एक आम बात है। यहां की संस्कृति बहुत ही समृद्ध है। ऐतिहासिक रूप से यह प्रदर्शन और कला का वह इलाका है जहां नव-वैष्णव पुनर्जागरण हुआ था। पहले ये नाटक धार्मिक विषयों पर आधारित होते थे। लेकिन इसके एक हालिया संस्करण में महिलाओं के भूमि अधिकार जैसे मुद्दे पर बात होते देखी गई।
महिलाओं द्वारा उनके भूमि अधिकारों का उपयोग न कर पाना माजुली की एक जटिल समस्या है। यहां के अधिकांश खेतिहर परिवारों के पास उस भूमि का मालिकाना हक़ नहीं है जिस पर वे खेती करते हैं। पितृसत्तात्मक सामाजिक ढांचे के कारण महिलाओं के पास पहले से ही ज़मीन का मालिकाना हक़ नहीं है। नतीजतन, ऐसे इलाक़ों में स्थिति और भी खराब हो जाती है जहां भूमि का स्वामित्व आमतौर पर सामान्य से अलग होता है।
माजुली ज़िले में काम कर रही एक समाजसेवी संस्था अयांग ट्रस्ट के फ़ील्ड कोऑर्डिनेटर प्रोनब डोले का कहना है कि “हालांकि खेतों में महिलाएं ही सबसे अधिक काम करती हैं लेकिन फिर भी ज़मीन उनके नाम पर नहीं होती है।” प्रोनब ने ऊपर ज़िक्र किए गए इस नाटक का डिज़ाइन तैयार करने में मदद की थी। माटी और महिला नाम से तैयार किया गया यह नाटक ज़मीन पर महिलाओं को मालिकाना हक़ मिलने की जरूरत पर बात करता है। थिएटर कलाकार, आदिथ ने समुदाय की भूमिहीन महिलाओं के अनुभवों को चित्रित करके और नाटक की अवधारणा बनाने में समुदाय के सदस्यों की मदद की है।
स्थानीय महिलाओं के अनुभवों को दिखाते हुए यह नाटक भूमि अधिकारों के महत्व को दर्शाता है। साथ ही, ज़मीन पर अपने कानूनी अधिकारों को सुरक्षित करने का प्रयास करते समय महिलाओं के सामने आने वाली चुनौतियों पर भी बात करता है। नाटक में भाग लेने वाले लोगों का मानना है कि इसने उन्हें ऐसे दर्शकों तक भी पहुंचाया है जो पर्चे या प्रजेंटेशन के माध्यम से इस विषय की महत्ता को समझने में असमर्थ थे।
नाटक पर काम करने वाली इसी समुदाय की एक अन्य सदस्य प्रोनामिका डोले कहती हैं कि “लोगों को नाटक समझने में आसानी हुई। दर्शकों ने हमें बताया कि इससे पहले उन्होंने भूमि अधिकारों के महत्व को लेकर कभी नहीं सोचा था। विशेष रूप से, विधवाओं और परित्यक्त महिलाओं के लिए जिनके पास अपनी आजीविका सुरक्षित करने का कोई साधन नहीं बचता है।” समुदाय की सकारात्मक प्रतिक्रिया से उत्साहित, नाटक के निर्माण में शामिल स्थानीय लोग भी अब इस क्षेत्र में महिलाओं के लिए भूमि अधिकारों को सुरक्षित करने में मदद कर रहे हैं। प्रोनामिका सरीखे समुदाय के सदस्यों ने भूमि अधिकार प्राप्त करने की प्रक्रिया को बेहतर ढंग से समझने के लिए स्थानीय सर्कल कार्यालय और जिला कानूनी सेवा प्राधिकरण के तहत प्रशिक्षण प्राप्त किया। प्रोनामिका अब इन मामलों में मदद के लिए उनसे संपर्क करने वाले समुदाय के लोगों का मार्गदर्शन करती हैं।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
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प्रोनामिका पेगू डोले लेकोप माजुली महिला किसान निर्माता कंपनी के निदेशकों में से एक हैं। प्रोनब डोले अयांग ट्रस्ट के फील्ड कोऑर्डिनेटर हैं।
नाटक माटी और महिला देखने के लिए इस लिंक पर जाएं।
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अलवर, राजस्थान के चोरोटी पहाड़ गांव की रहने वाली दया देवी एक किसान हैं। अपने गांव के कुछ अन्य जमींदार किसानों की तरह उन्होंने अपनी जमीन पर एक बोरवेल लगवाया है। बोरवेल उनके खेतों की सिंचाई करता है और उनके परिवार को पानी उपलब्ध करवाता है। इसके साथ ही, यह उनके लिए आय का एक स्रोत भी है। इससे वे अपने इलाके के छोटे किसानों को, जिनके पास खुद का बोरवेल नहीं है, किराए पर पानी देती हैं। इसके लिए वे 150 रुपये प्रति घंटे की दर पर भुगतान हासिल करती हैं।
दया देवी का मानना है कि ऐसा करने में सबका फायदा है। वे आगे जोड़ती हैं कि “बोरवेल चलाने वाले मालिक बिजली का बिल भी भरते हैं और उसके रखरखाव का खर्च भी उठाते हैं। पानी खरीदने वालों को [बिना किसी झंझट के] अपने खेतों की सिंचाई करने की सुविधा मिलती है।”
दया के परिवार के पास दो दशकों से अधिक समय से बोरवेल है। उन्होंने इस दौरान लगातार भूजल के स्तर को कम होते देखा है। वे कहती हैं, ”हर साल बारिश कम हो रही है। पहले हमें 200 फीट ज़मीन खोदने पर पानी मिलता था, अब पानी के लिए हमें 500 फीट तक खुदाई करनी पड़ती है।”
सिंचाई के लिए बोरवेल के अलावा कुछ अन्य विकल्प भी हो सकते हैं, जैसे ड्रिप सिंचाई। इसके लिए पानी की टंकी की आवश्यकता होती है। दया को इन तरीक़ों की जानकारी भी है, वे कहती हैं कि “ड्रिप इरिगेशन भविष्य है। यदि आप अपने खेत पर 1,000 लीटर का टैंक रखते हैं और इसका उपयोग सिंचाई के लिए करते हैं तो यह बोरवेल से जुड़े पाइप का उपयोग करने की तुलना में सस्ता है, जिसमें एक बीघे की सिंचाई करने में लगभग 12 घंटे लगते हैं।”
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दया देवी एक किसान हैं और अलवर स्थित एक गैर-लाभकारी संस्था इब्तदा द्वारा सहयोग प्राप्त एक स्वयं सहायता समूह की सदस्य हैं।
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अधिक जानें: जानें कि कैसे राजस्थानी समुदाय पानी से जुड़ा एक खेल खेलते हैं जिससे उन्हें भूजल के संरक्षण और इस्तेमाल के तरीक़े सीखने में मदद मिलती है।
शीलाबेन अहमदाबाद के पटड़ नगर की रहने वाली हैं। वे दो कमरों के घर में रहती हैं जिनमें से एक कमरे का उपयोग वे ब्लाउज और स्कर्ट पर पत्थर चिपकाने का काम करने के लिए करती है। एक ब्लाउज का काम पूरा करने में उन्हें दो से तीन घंटे का समय लगता है। एक कपड़े पर उन्हें लगभग 15 से 25 रुपए तक मिल जाते हैं। यह काम उन्हें ठेकेदार से मिलता है और यह नियमित नहीं है।
त्योहारों विशेष रूप से नवरात्रि का समय यह तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है कि उन्हें कितना काम मिलने वाला है। शीलाबेन बताती हैं कि “त्योहारों के मौसम आने से पहले मैं रात के 12 बजे तक काम करती हूं। हमारे पास अतिरिक्त काम होता है और यही समय होता है जब हम थोड़े ज़्यादा पैसे कमा कर अपने लिए कुछ बचा सकते हैं।”
शीलाबेन के लिए, अपने इस छोटे से घर में काम करना आसान नहीं है। उनके जैसे अनगिनत कारीगर यहां ऐसे घरों में रहते हैं जहां आमतौर पर छतें और दीवारें स्थायी नहीं होती हैं। इन घरों में मौलिक सुविधाएं भी नहीं होती हैं। उदाहरण के लिए, जल निकासी की उचित व्यवस्था न होने के कारण मानसून के दिनों में इन घरों में पानी भर जाता है। इसके चलते, कच्चे माल को नुक़सान पहुंचता है।
जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली मौसम में आए चरम बदलाव सीधे इनके घरों को प्रभावित करते हैं। इसका असर इनके काम पर भी होता है। शीलाबेन ने बताया कि “हमारी छतें एस्बेस्टस की बनी होती हैं, इसलिए यह बहुत ज़्यादा गर्म हो जाती हैं। इसके नीचे बैठना मुश्किल हो जाता है लेकिन हमें फिर भी काम करना पड़ता है। मैं अपने काम से होने वाली आमदनी पर कोई समझौता नहीं कर सकती हूं।” घर के अंदर प्रचंड गर्मी के कारण उनके काम करने की क्षमता पर असर पड़ता है। ऐसे में उन्हें इधर-उधर जाकर काम करना और रात में मौसम ठंडा होने पर काम करना पड़ता है।
मानसून में काम करने की अपनी अलग चुनौतियां हैं। बारिश के मौसम में गोंद को सूखने में अधिक समय लगता है और घर की सीलन कपड़ों को नुक़सान पहुंचाती है। इलाक़े में सीवर पाइप न होने के कारण पानी रिसता है जो आख़िर में काम पर असर डालता है। शीलाबेन आगे बताती हैं कि “मैं मानसून में काम नहीं करती हूं क्योंकि उन दिनों में जितना फायदा होता है, उससे ज़्यादा कपड़ों का नुक़सान हो जाता है। इससे मुझ पर ठेकेदार का भरोसा भी कम होता है।”
यही काम करने वाली पटड़ नगर की एक अन्य कारीगर मालतीबेन कहती हैं कि “दोपहर में, माला (मनके हार) बनाने वाली हमारे आस-पड़ोस की महिलाएं कभी-कभी काम करने के लिए सामुदायिक मंदिर या छायादार सड़कों के नीचे बैठती हैं। लेकिन हम ऐसा नहीं कर सकते हैं क्योंकि हमारे लिए टुकड़ों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाना आसान नहीं है। पत्थर चिपकाने के बाद कपड़े को सीधा रखकर सुखाने की ज़रूरत होती है।”
इलाके की दूसरी महिलाएं माला-बनाने, दर्ज़ी का काम करने और चम्मचों की पैकेजिंग जैसे काम करती हैं। पत्थर चिपकाने के काम से कम पैसे मिलने के बावजूद रुक्मिणीबेन माला बनाने का ही काम करती हैं। उनका कहना है कि “पत्थर चिपकाने का काम हर कोई नहीं कर सकता है। मैं कपड़े कहां सूखने के लिए डालूंगी? मेरे घर में बैठने और काम करने की जगह नहीं है।”
अनुज बहल एक अर्बन रिसर्चर और व्यवसायी हैं।
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अधिक जानें: जानें कि कैसे जैसलमेर के सामान्य वन क्षेत्रों में स्थापित अक्षय ऊर्जा परियोजनाएं इसकी जैव विविधता और स्थानीय पशुपालकों की आजीविका को नुकसान पहुंचा रही हैं।
अधिक करें: लेखक के काम को विस्तार से जानने और अपना समर्थन देने के लिए उनसे [email protected] पर सम्पर्क करें।
2021 में, राजस्थान सरकार ने भरतपुर जिले में बंध बारेठा वन्यजीव अभ्यारण्य (वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी) के कुछ हिस्सों को डिनोटिफाई किया था। इसे लेकर अधिकारियों का कहना था कि अभ्यारण्य के उन हिस्सों (ब्लॉक्स) के वातावरण में गिरावट के कारण यह फैसला लिया गया है।
लेकिन, अब इस क्षेत्र का खनन गुलाबी पत्थरों के लिए किया जा रहा है। ये पत्थर अयोध्या में राम मंदिर के लिए इस्तेमाल हो रहे हैं। अभ्यारण्य में लोगों की ज़मीन चले जाने की भरपाई करने के लिए, आस-पास के जंगली इलाकों, जैसे करौली जिले की मासलपुर तहसील को अभ्यारण्य में ही शामिल कर लिया गया है।
मासलपुर में लगभग 100 गांव हैं, जहां गुर्जर और मीणा जैसे पशुपालक समुदाय रहते हैं। ये समुदाय इन जंगलो का ओरण (पवित्र बाग) की तरह संरक्षण करते रहे हैं। साथ ही, वे अपनी आजीविका के लिए इन जंगलों पर निर्भर हैं।
भरतपुर की स्थिति भी सही नहीं कही जा सकती है। यहां खनन के कारण वनस्पतियों और जीव-जंतुओं की हालत खराब है। दूसरी तरफ, स्थानीय लोगों को बताया जा रहा है कि खान से उन्हें नौकरियां मिलेंगी। लेकिन वे पूछ रहे हैं कि अगर खान के मालिक और श्रमिक बाहर के हैं तो उन्हें नौकरियां कहां से मिलेंगी?
अमन सिंह राजस्थान में जमीनी स्तर पर काम करने वाले एक समाजसेवी संगठन, कृषि एवं पारिस्थितिकी विकास संस्थान (KRAPAVIS) के संस्थापक हैं।
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भारत में प्राचीन काल से ही जाति समुदायों की एक पहचान रही है। यह पहचान शायद उनके काम से थी और उनकी आजीविका का साधन भी थी। लोग चाहे उस काम से खुश हों या न हों, उनको वह काम करना ही पड़ता था (या अभी भी करना पड़ता है, नहीं तो सामाजिक दंड दिया जाता है)।
मैं भी एक ऐसी ही जाति – भाट/भांड से आता हूं जो मध्य-राजस्थान में बसती है। भाट/भांड समुदाय का जातिगत काम कविता करना था। इस जाति को जाचक, ढोली और अन्य नाम भी दिए गए हैं। इनका काम आगे चलकर जजमानों के यहां होने वाले शादी-विवाह जैसे मांगलिक कार्यक्रमों में ढोल बजाना भी बना।
हमारे समुदाय के कुछ लोग अब यह काम छोड़ चुके हैं, कुछ आज भी कर रहे हैं, और कुछ ने इसका स्वरूप बदल दिया है। इसके अनेक कारणों में सबसे बड़ा कारण रहा है – जातिवाद। ऐतिहासिक तौर पर कलाकार समुदाय से होते हुए भी मैं ग्रामीण संस्कृति और सामाजिक बदलावों को जोड़ने के क्षेत्र में आया।
मैंने भजन और संघर्ष के गीतों को गाकर, अपनी कला में बदलाव किया है। यह लोगों को जागरूक करने और उन्हें अपने हक-अधिकारों के लिए लड़ने में प्रेरित करने वाला रहा है।
मेरे दो हमउम्र साथी – कार्तिक और ईश्वर, मेरी ही तरह गांव से आते है और संस्कृति, संगीत और कला में रुचि रखते हैं। इन दोनों का जातिगत काम खेती-किसानी था। कलाकार जाति का न होते हुए भी इनको गांव-गांव जाकर ढोल बजाने और गाना गाने में कोई झिझक नहीं है।
हम कोशिश करते हैं कि मीरा, कबीर, रूपा दे, रामसा पीर आदि के विचारों को आज के परिप्रेक्ष्य में रख सकें। युवा, भजन गाने की तरफ कम आते हैं। इसलिए हमारे इस तरीके से प्रभावित होकर, लोगों ने गांव की चौकी (मारवाड़, पाली) में हमें भजन गाने के लिए बुलाया।
कबीर भगवान को निर्गुण मानते थे। अपने भजन ‘तू का तू’ में वे कहते हैं:
“इनका भेद बता मेरे अवधू, साँची करनी डरता क्यों,
डाली फूल जगह के माही, जहाँ देखूं वहां तू का तू।”
इसका मतलब है कि भगवान हर जगह हैं, आप में, मुझ में, पत्ते में, डाली में। इसी भजन में कबीर आगे कहते हैं:
“चोरों के संग चोरी करता, बदमाशों में भेड़ो तू,
चोरी करके तू भग जावे, पकड़ने वाला तू का तू।”
इसका मतलब हुआ कि भगवान जब सब में हैं तो एक चोर में भी है, और जब वो चोर चोरी करके भाग जाता है तो उसे पकड़ने वाले में भी भगवान ही हैं।
कुछ लोग इसका असल मतलब नहीं समझे और उन्हें लगा कि यह भजन भगवान को चोर कहता है। उन्हें यह पसंद नहीं आया और उन्होंने विरोध किया। हमने लोगों को इस दोहे का असल मतलब समझाया कि भगवान हर जगह हैं। तब उन्होंने हमारा साथ दिया। कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्होंने भजन का मतलब खुद से समझा और विरोध करने वालों को समझाने में हमारी सहायता की। लोग कबीर, मीरा, बुल्ले शाह आदि के शब्दों को नकार नहीं सकते क्योंकि ये सभी इन इलाकों से ही हैं।
महिलाएं भी पितृसत्ता के कारण मंडली में शामिल नहीं होतीं थीं। उन्होंने भी हमारी मंडली में भाग लिया क्योंकि हम गीत के शब्द समझाते हैं और लैंगिक भेदभाव के ख़िलाफ़ भी बोलते हैं।
इस तरह यह हमारा सांस्कृतिक माध्यमों के जरिए लोगों को अधिकार और समानता, प्यार, करुणा, सद्भावना से परिचित करने का एक तरीक़ा है।
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