मेरी उम्र 39 वर्ष है और मैं उत्तर कर्नाटक के बेलगाम से आई हूँ। मैं बंगलुरु में गुड बिजनेस लैब (जीबीएल) के लिए एक गणनाकार (एन्यूमरेटर) के रूप में काम करती हूँ। मैं एक फील्ड कर्मचारी हूँ। लेकिन इसके अलावा मैं सर्वेक्षण का काम भी करती हूँ जिनसे मिले आंकड़ों का उपयोग विभिन्न प्रकार के अध्ययन और शोध में किया जाता है।
मैं जीबीएल में पिछले चार सालों से काम कर रही हूँ। लेकिन मेरा करियर लगभग 18 वर्ष पहले मेरी बेटी के जन्म के बाद ही शुरू हो गया था। 17 साल की उम्र में मेरी शादी एक बुजुर्ग आदमी से कर दी गई थी जो बहुत ही रोकटोक करने वाला और एक पितृसत्तात्मक सोच वाला व्यक्ति था। वह चाहता था कि मैं घर पर रहकर घर संभालने का काम करूँ, जो कि मुझे बिलकुल पसंद नहीं था। मैं नहीं चाहती थी कि मेरी बेटी भी मेरे जैसा जीवन जिये। मैं चाहती थी वह एक अच्छे अँग्रेजी माध्यम के स्कूल में पढ़ाई करे और उसका भविष्य बेहतर हो। इसलिए मैंने काम करने का फैसला किया। शुरुआत में मैंने एक स्थानीय स्कूल में शिक्षक के रूप में काम किया लेकिन वहाँ मुझे बहुत कम वेतन मिलता था। उतने पैसे में मैं अपनी बेटी को बेहतर शिक्षा नहीं दिलवा सकती थी। इसलिए मैंने एक गणनाकार के रूप में नौकरी शुरू कर दी।
मुझे बाहर जाने और काम करने में बहुत मजा आता था और अपने काम के क्रम में ही मैंने बहुत सारे दोस्त बना लिए। लेकिन जल्द ही मेरे परिवार ने इसका विरोध शुरू कर दिया। वह चाहते थे कि मैं काम छोड़कर अपने बच्चे के साथ घर पर रहूँ। हालांकि उनके दबाव में आकर मैंने अपनी नौकरी छोड़ दी लेकिन मैं संतुष्ट नहीं थी। मुझे अपनी बेटी के सुरक्शित भविष्य के लिए पैसों की जरूरत थी। इसलिए मैंने टेलरिंग और कोस्मेटोलॉजी का प्रशिक्षण लिया और घर पर ही कपड़े सिलने और ब्यूटी पार्लर चलाने का काम शुरू कर दिया। छ: साल तक मैंने यह काम किया लेकिन तब तक मेरी बेटी सातवीं कक्षा तक पहुँच चुकी थी और मुझे उसकी पढ़ाई जारी रखने के लिए और अधिक पैसों की जरूरत थी। उस समय मैंने अपने गणनाकार दोस्तों से संपर्क किया जिन्होनें मुझे इस क्षेत्र में उपलब्ध अवसरों की जानकारी दी। मैंने तय कर लिया कि मैं अपने परिवार के मर्जी के खिलाफ भी काम करूंगी क्योंकि मैं जानती थी कि मेरी बेटी के भविष्य को सुरक्शित करने का यही एकमात्र तरीका था। मैंने अपनी बेटी को बेलगाम में अपने माता-पिता के पास छोड़ा और बंगलुरु आ गई। उस वक्त से ही मैं यहाँ विभिन्न संस्थाओं के साथ गणनाकार के रूप में काम कर रही हूँ।
सुबह 6.00 बजे: मैं सुबह जल्दी जागती हूँ ताकि मैं समय पर नाश्ता करके काम के लिए निकल सकूँ। बंगलुरु में यातायात की हालत बहुत खराब है जिसकी वजह से काम पर पहुँचने में मुझे एक घंटा से ज्यादा समय लगता है। पहले जब मुझे सर्वे के लिए अक्सर बाहर फील्ड में जाना पड़ता था तब मैं सुबह 4 बजे जागती थी और पूरे राज्य के विभिन्न जिलों तक जाने के लिए लंबी-लंबी बस यात्राएं करती थी। अगर रास्ते में कुछ मिल गया तो हम खा लेते थे; वरना अक्सर ही खाली पेट फील्ड में काम करते रहते थे और उम्मीद लगाते थे कि शायद कुछ खाने के लिए मिल जाए। गणनाकार के रूप में काम करने के शुरुआती सालों में किसी भी नई परियोजना की शुरुआत मुझे बेचैन कर देती थी। मुझे अपनी टीम और काम के माहौल को लेकर चिंता होती थी। एक औरत होने के नाते ऐसे भी बिना अनुमति के घर से निकलना हमारे लिए मुश्किल होता है। हमें इसकी चिंता भी होती थी कि हमारी टीम में पुरुष सहकर्मी तो नहीं होंगे क्योंकि पुरुष सहकर्मियों के साथ काम करने का अनुभव हमारा अच्छा नहीं रहा था। कुछ परियोजनाएँ कई दिनों या सप्ताह तक भी चलती थी और अक्सर हमारे रहने और खाने के इंतज़ामों के बारे में हम लोगों को कुछ भी पता नहीं होता था। मुझे याद है मैं पहली बार फील्ड में काम करने बीजापुर जिले में गई थी और वहाँ मैं और मेरे सहकर्मी रात 10 बजे तक बस स्टॉप पर खड़े रहे थे क्योंकि हमारे पास रात में रुकने के लिए कोई जगह नहीं थी। हम दोनों बाहर से आए थे और हमें रात में रुकने के लिए जगह मांगने में डर लग रहा था। संयोग से हम लोगों ने किसी तरह उस महिला से संपर्क किया जो बीजापुर में रहती थी और उससे पूछा की क्या हम लोग उसके घर एक रात के लिए रुक सकते हैं क्योंकि अगले दिन फिर से हमें फील्ड में जाना था। इस तरह की परिस्थितियाँ असामान्य नहीं थीं।
सुबह 9:30 बजे: मैं बेल्लंदूर के पास वाली इकाई पर पहुँचती हूँ जहां आज मैं काम करने वाली हूँ। जीबीएल के साथ मैं कपड़ा कारखानों में काम करने वाले श्रमिकों का सर्वेक्षण करने के लिए विभिन्न परियोजनाओं पर काम करती हूँ। पूरे बंगलुरु में लगभग 20 ऐसे कारखाने हैं जिनके साथ हम लोग काम करते हैं और इसलिए मेरी रिपोर्टिंग वाली इकाई मेरे काम कर रहे परियोजना के आधार पर बदल सकती है।
हाल ही मेरी पदोन्नति गणनाकार से फील्ड विश्लेषक के रूप में हुई है इसलिए मैं एक समय में दो-तीन परियोजनाओं पर काम करती हूँ। और हर परियोजना का अपना समय और अपनी अलग जरूरतें होती हैं। आज मैं जिस परियोजना पर काम कर रही हूँ वह सुबह श्रमिकों की आँखों के स्वास्थ्य का अध्ययन करता है। इसके लिए हमें उस दूरी का माप लेना है जिस पर काम करते समय श्रमिक सुई पकड़ते हैं। शाम में मैं एक दूसरी परियोजना में लग जाऊँगी जिसमें कपड़ा कारखानों में काम करने वाले प्रवासी मजदूरों के अकेलेपन और सामाजिक अलगाव का अध्ययन है। इसके लिए हम लोगों को महिला श्रमिकों के छात्रावासों में जाना होगा और वहाँ रहने वाली महिलाओं का साक्षात्कार लेना होगा।
दोपहर 12:00 बजे: अपनी नई भूमिका में मुझे नए गणनाकारों के प्रशिक्षण और समर्थन का काम भी करना पड़ता है। मैंने देखा है कि परियोजना पर काम करने से पहले गणनाकारों को दिये जाने वाले प्रशिक्षण में आमतौर पर पूछे जाने वाले सवालों, सवालों के क्रम और सवाल करने के तरीकों के बारे में बताया जाता है। लेकिन इससे हमें अपने काम के मात्र 50 प्रतिशत हिस्से में ही मदद मिलती है—इसके अलावा हमें संचार और पारस्परिक कौशल की जरूरत होती है जिसे हमें खुद ही विकसित करना पड़ता है। जब हम साफ-साफ बात कर पाएंगे और लोगों को समझ पाएंगे तभी हमें वे निजी जानकारियाँ मिलेंगी जिनकी अक्सर हमें जरूरत होती है। हमारी समझ भी इस स्तर की होनी चाहिए कि हम लोगों से मिली जानकारियों के सही और गलत की जांच कर सकें। इस कौशल को विकसित होने में समय लगता है।
दोपहर 2:00 बजे: इकाई के साथ रहने पर दोपहर का खाना हमेशा ही दिया जाता है। हालांकि गणनाकार के रूप में काम करने के शुरुआती सालों में मुझे अपने दोपहर के खाने का इंतजाम भी खुद ही करना पड़ता था। कभी-कभी हम लोग इतने पिछड़े इलाके में होते थे कि पैसे होने के बावजूद हमें खाना-पानी कुछ नहीं मिल पाता था।
दोपहर के खाने के बाद मैं आराम करने घर चली जाती हूँ क्योंकि शाम को मुझे फिर से काम पर आना होता है।
शाम 5:00 बजे: मैं घर से उस हॉस्टल जाती हूँ जहां उस दिन के डाटा संग्रहण के लिए मुझे लड़कियों और महिलाओं से बात करनी है। मैं वार्डेन से बात करके उससे पूछती हूँ कि कितनी लड़कियां उपलब्ध हैं और उस आधार पर मैं गणनाकारों के बीच काम का बंटवारा करती हूँ। रात 8:30 बजे तक हम अपना काम ख़त्म करके घर की तरफ लौट जाते हैं।
पूरे दिन सर्वेक्षण का काम परेशानी भरा हो सकता है और हमारे काम में लॉकडाउन के आने से अलग तरह की चुनौतियाँ भी आईं। मैं सौभाग्यशाली थी कि मुझे कोविड-19 से जुड़ी परियोजनाओं का काम मिला था जिसके कारण महामारी के चरम में भी मेरे पास काम था। चूंकि गणनाकार फील्ड में नहीं जा सकते थे इसलिए उस दौरान उनमें से कईयों के पास काम नहीं था। महामारी के दौरान औरतों का सर्वेक्षण करना और अधिक मुश्किल हो गया था क्योंकि उनसे बात करने के लिए हमें उनके पतियों की अनुमति लेनी पड़ती थी। कई मामलों में हमें सुबह बात करने की अनुमति मिल जाती थी लेकिन फिर वे बाद में अपना इरादा बदल देते थे। कई मामलों में फोन करने के कारण वे हम लोगों पर चिल्लाने लगते थे। इन सबके कारण हमारे लिए हमारा काम करना बहुत कठिन हो गया था।
रात 9:30 बजे: घर पहुँचने के बाद मैं रात का खाना पकाती हूँ। उसके बाद फोन पर अपनी माँ और बेटी से बात करती हूँ। मैंने अपनी पूरी जमा पूंजी अपनी बेटी की पढ़ाई में खर्च कर दी है इसलिए मुझे अकसर चिंता होती है। मैं अब लगभग 40 साल की हो चुकी हूँ और मुझे इस बात की चिंता है कि बढ़ती उम्र के साथ मुझे फील्ड में काम मिलेगा या नहीं। मेरी बेटी मुझे आश्वस्त करते हुए कहती है कि मुझे चिंता करने की जरूरत नहीं। वह कहती है, “तुम चिंता क्यों करती हो? चिंता छोड़ दो। मुझे पढ़ाई करने दो और एक बार जब मैं अपने पैरों पर खड़ी हो जाऊँगी तब हम दोनों आराम से जिंदगी जिएंगे।” मैं उसे अच्छा करते देखना चाहती हूँ। मेरा सपना है कि वह डॉक्टर बने, और इसके लिए मैं कड़ी मेहनत कर रही हूँ। मुझे लगता है ऐसे लड़कियों का साथ देना चाहिए जो बाहर निकलकर काम करना चाहती हैं। मैं अक्सर उससे कहती हूँ कि उसके अपने पैरों पर खड़े होने के बाद वह मुझे घूमने लेकर जाएगी। चूंकि मेरी बेटी का नाम देवी माता के नाम पर ‘वैष्णवी’ है इसलिए मैं जम्मू और कश्मीर में वैष्णो देवी के मंदिर जाना चाहती हूँ।
रात 11:00 बजे: सोने जाने से पहले मैं अपने मैनेजरों को दिन भर के काम और घटनाओं की रिपोर्ट भेजती हूँ, खासकर के शाम की परियोजना की रिपोर्ट। हालांकि इस काम के क्षेत्र की अपनी चुनौतियाँ है लेकिन मुझे यह काम करना अच्छा लगता है क्योंकि मैं हर दिन नए लोगों से मिलती हूँ, उनसे बात करती हूँ और उनकी बात सुनती हूँ। इन बातचीत के कारण हमारे बीच जो संबंध बनता है उससे मुझे खुशी मिलती है।
शुरुआत में मेरे माता-पिता ने काम करने के कारण मुझे बहुत दुख दिए। मेरे पति की मृत्यु के बाद वे इस बात को लेकर चिंतित थे कि लोग क्या कहेंगे कि वे मेरी बेटी का पालन-पोषण कर रहे हैं और मैं दूसरे शहर में काम कर रही हूँ। लेकिन मैं अडिग थी और मुझे पैसों के लिए बिना किसी पर निर्भर हुए अपनी बेटी के लिए बेहतर जीवन चाहिए था। मेरी कड़ी मेहनत और पेशेवर उन्नति को देखने के बाद अब वे मेरे साथ हैं। अब मुझे उनके इस साथ को स्वीकार करने में संघर्ष करना पड़ता है क्योंकि यह तब नहीं था जब मुझे इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी। मेरा पूरा ध्यान मेरी बेटी पर होता है जिससे मुझे काफी उम्मीदें हैं।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
इस लेख को अँग्रेजी में पढ़ें।
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अधिक जानें
मेरा नाम रतन लाल रेगर है। मैं राजस्थान के भीलवाड़ा जिले का एक सामाजिक कार्यकरता हूँ। मैंने 1998 से ही नागरिक समाज समूहों के साथ काम करना शुरू कर दिया था। उस समय मैं एक छात्र ही था।
विभिन्न प्रकार की नौकरशाही बाधाओं के कारण कई सरकारी योजनाएँ और नीतियाँ हाशिए के समुदायों तक नहीं पहुँच पाती हैं। एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में मैं हमेशा इस काम के लिए प्रेरित रहता हूँ। मैं हमेशा ही सामाजिक वर्गीकरण के सबसे नीचले पायदान पर जी रहे लोगों तक इन लाभों को पहुँचाने का काम करता हूँ। मैं उनसे मिलता हूँ, उनकी समस्याओं को समझता हूँ और उन्हें सुलझाने के लिए एक उपयुक्त नौकरशाही चैनल को खोजने में उनकी मदद करता हूँ। एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में सबसे ज़्यादा काम मैंने साल 2003-04 के दौरान दलित कार्यकर्ता भँवर मेघवंशी के साथ काम करके सीखा। मैं एक ऐसे आदमी के परिवार से मिलने गया था जो दुर्घटनाग्रस्त था, लेकिन उसके परिवार को इलाज के लिए वित्तीय दावा करने में संघर्ष का सामना करना पड़ रहा था। एक बार जब हमें समस्या मालूम हो गई उसके बाद मेघवंशी की मदद से हम अधिकारियों से मिलने गए। और उसके बाद उस परिवार को 80–90,000 रुपए की धनराशि मिली। इस अनुभव से मुझे इतनी ख़ुशी हुई कि इसके बाद मैंने सोचा कि क्यों न ऐसे और काम किए जाएँ। बहुत सारे ज़रूरतमंद लोग हैं लेकिन वे नहीं जानते हैं कि उन्हें अपनी समस्याओं को लेकर किसके पास जाना चाहिए। किस अधिकारी से बात करनी चाहिए, किस विभाग में जाना चाहिए; उन्हें सही रास्ता नहीं मालूम है। इस स्थिति को बदलने के लिए हम लोगों ने स्वयंसेवकों के एक समूह के रूप में काम करना जारी रखा। घटना के बारे में पता लगते ही हम पीड़ित परिवार से मिलने जाते थे।
अंतत: 2007 में मेघवंशी की मदद से मैं मज़दूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) से जुड़ गया। इस संस्था से जुड़ने के बाद मेरी मुलाक़ात निखिल देय, शंकर सिंह और पारस राम बंजारा जैसे सामाजिक कार्यकरताओं से हुई।
अब एमकेएसएस ऐसे कई संगठनों में से एक ही जिनके साथ मैं काम करता हूँ। मैं फ़ाउंडेशन फ़ॉर एकोलॉजिकल सिक्योरिटी (एफ़ईएस) से भी जुड़ा हुआ हूँ और राजस्थान के गाँवों में विभिन्न स्तरों पर इस संगठन के काम करता हूँ। मेरा काम मुख्य रूप से सामान्य संसाधनों और टिकाऊ खेती के इस्तेमाल और सुरक्षा जैसे मुद्दों पर जागरूकता फैलाने में मदद करना है। मैं प्रशासन गाँव के संग जैसे जागरूकता कार्यक्रमों में एफ़ईएस की मदद करता हूँ। यह केंद्र सरकार की एक वार्षिक पहल है जिसका उद्देश्य ग्राम समुदायों को पंचायत स्तर के पदाधिकारियों को जवाबदेह ठहराने की सुविधा प्रदान करना है। मैंने राजस्थान के विभिन्न जिलों में होने वाली जवाबदेही यात्रा में भी हिस्सा लिया है। जवाबदेही यात्रा राजस्थान के जिलों में आयोजित होने वाली एक ऐसी यात्रा है जिसमें राज्य में सामाजिक जवाबदेही क़ानून की माँग करने के लिए विभिन्न नागरिक समाज संगठन और संघ एकत्रित होते हैं। यह क़ानून आम लोगों को शिकायत करने, उनकी शिकायत के निवारण में हिस्सा लेने, उनकी शिकायतों का एक स्पष्ट समय सीमा के भीतर निवारण करने का अधिकार देगा। इस क़ानून के पारित होने के बाद अपने शिकायत के निवारण से असंतुष्ट होने पर आम आदमी अपनी शिकायत को अगले स्तर पर ले जा सकेगा। साथ ही वह सरकारी योजनाओं के सामाजिक लेखापरीक्षा (सोशल ऑडिट) का हिस्सा भी बन सकता है। इस क़ानून के लिए की गई पहली यात्रा 2015-16 में आयोजित की गई थी जिसकी अवधि 100 दिनों की थी। इसमें मैं सिर्फ़ एक दिन ही हिस्सा ले सका था। मेरी भागीदारी दूसरी यात्रा में थी जिसका निर्धारित समय 20 दिसम्बर 2021 से 2 फ़रवरी 2022 तक था लेकिन कोविड-19 के कारण उसे 6 जनवरी 2022 को स्थगित करना पड़ा।
सुबह 5.00 बजे: यात्रा के दौरान मैं सुबह जल्दी सोकर जागता हूँ। कर्मचारियों के समूह और आयोजकों के साथ चाय-नाश्ते के बाद रैली के रूट चार्ट के बारे में बात करता हूँ। स्थानीय अधिकारियों से अनुमति लेने के बाद हम लोग बैनर लगी गाड़ियों से राजस्थान के एक जिले के किसी ख़ास शहर में रैली निकालते हैं। यात्रियों से भरी गाड़ी एक दिन के लिए उस जगह पर रुकती है जहाँ हम लोग सभाओं का आयोजन करते हैं। इन सभाओं में समुदाय के सदस्य अपनी शिकायत दर्ज करते हैं और उसके बारे में बात करते हैं।
इस साल मैं 4 जनवरी को भीलवाड़ा में रैली में शामिल हुआ था। पहले इस यात्रा में समुदाय के सदस्य बहुत बड़ी संख्या में हिस्सा लेते थे। विभिन्न जगहों पर लगभग 500-700 औरतें स्वेच्छा से इस रैली में हिस्सा लेती थी। इस बार कोविड-19 के कारण जारी निर्देशों की वजह से हमें अपनी संख्या 100 लोगों तक सीमित रखनी पड़ी।
सुबह 10.00 बजे: मंगनीआरों और भील जैसी समुदाय के लोग नुक्कड़ नाटक और कठपुतली का प्रदर्शन करते हैं। वे समुदायों की समस्याओं और जवाबदेही क़ानून से जुड़ी जानकारियों से संबंधित जागरूकता फैलाने में मदद करते हैं। सांस्कृतिक कार्यक्रम यात्रा का एक अभिन्न हिस्सा है क्योंकि इससे भीड़ आकर्षित होती है और आने-जाने वाले लोगों का ध्यान हमारी तरफ जाता है। जैसी सेना के पास अपनी ऊर्जा को बनाए रखने के लिए बैंड होता है, उसी तरह जवाबदही यात्रा के पास भी विभिन्न कार्यक्रमों का प्रदर्शन करने के लिए अपना एक बैंड है। ये लोग यात्रा शुरू होने से महीनों पहले कार्यक्रमों की तैयारी में लग जाते हैं। ये लोग विभिन्न समुदायों से आते हैं और कभी-कभी नाटक करने वाली जाति के लोग भी होते हैं। उदाहरण के लिए इस साल प्रदर्शन करने वाला समूह मंगनीआर समुदाय था। यह समुदाय अपनी आजीविका चलाने के लिए जैसलमेर क़िले पर गाना गाने का काम करता है।
सुबह 11.30 बजे: हम जहाँ भी जाते हैं वहाँ हमारा इरादा रैली को सभा में बदलने का होता है। सभा के शुरू होते ही स्वयंसेवक और समुदाय के सदस्य मंच पर चढ़कर जनता के सामने असंख्य समस्याओं के बारे में बोलना शुरू करते हैं। इन समस्याओं में पेंशन मिलने में होने वाली देरी, पानी की कमी और राशन मिलने में होनी वाली मुश्किलें भी शामिल होती हैं। भीलवाड़ा में मैं वक़्ता था। मैंने उन समस्याओं के बारे में बोला था जिन्हें गाँव-गाँव घूमकर लोगों से बातचीत करके मैंने इकट्ठा की थी। इनमें मनरेगा से जुड़े मामले भी थे जहाँ लोगों को आधार कार्ड से जुड़ी ग़लतियों के कारण पैसे नहीं मिले थे।
हमारे जिले में लोग अब भी मनरेगा के संचालन को समझने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। मैं आपको कल की घटना के बारे में बता रहा हूँ। हम एक ऐसे निर्माण मज़दूर से मिले जिसका कहना था कि ग्रामीण रोज़गार योजनाओं का कोई मतलब नहीं है। यह सिर्फ़ पैसों को ठगने के लिए बनाया गया है। जब हमनें मामले की गहराई से छानबीन की तब हमें पता चला कि इस आदमी ने पाँच अलग जगहों पर काम किया था लेकिन बहुत कोशिशों के बावजूद उसे एक भी जगह से पैसा नहीं मिला। उससे लगभग आधे घंटे बातचीत करने के बाद हम मामले को स्पष्ट रूप से समझ पाए थे। उसने अधिकारी को अपने बैंक के खाते की एक प्रति दी थी लेकिन फिर भी उसे अभी तक पैसे नहीं मिले थे।
मेरे गाँव में ही ज़मीन से जुड़ा एक अलग मामला था। इसके बारे में जानने से आपको नौकरशाही में होने वाली मनमानियों का अंदाज़ा लग जाएगा। एक आदमी की तीन बहनें और दो भाई थे और उनके पास ज़मीन का एकमात्र टुकड़ा था जिसके मालिक उसके पिता थे। पिता की मृत्यु के बाद क़ानूनी रूप से ज़मीन उसकी माँ और पाँचों भाई-बहनों को मिलना चाहिए था। लेकिन हुआ यह कि सरपंच या पटवारी ने ज़मीन के काग़ज़ में लड़कियों का नाम दो बार दर्ज कर दिया—एक बार पिता की बहनों के रूप में और एक बार पुत्री के रूप में। जब परिवार को इस दस्तावेज़ की नक़ल प्रति मिली तब उन्हें इसके बारे में पता चला। इसे ठीक करने के लिए मैंने पटवारी से बात की थी। उसका कहना था कि इसे ठीक करने के लिए कुछ पैसे लगेंगे और उसे अपने ऊपर के अधिकारियों को भी पैसे देने पड़ेंगे। जवाबदेही यात्रा के दौरान मैंने इस मामले को उठाया। अगर ग़लती ग्राम पंचायत या सरकारी अधिकारी की है तो लोगों को क्यों इसका ख़ामियाज़ा भुगतना पड़े?
दोपहर 12.30 बजे: हम नागरिकों की शिकायतों को दर्ज करने, उनपर नज़र रखने और तार्किक निष्कर्ष पर लाने के लिए हर जिले में शिकायत निवारण शिविर स्थापित करते हैं। राजस्व, मनरेगा और महिला उत्पीड़न से संबंधित शिकायतों जैसे विभिन्न श्रेणियों के मुद्दों के लिए अलग-अलग केंद्र हैं। इस साल अकेले मैंने ही 10 से अधिक शिकायतों पर काम किया है और जब मैं उनके पंजीकरण के लिए गया तब मेरे टोकन की संख्या 170 थी। इससे आप यात्रा में मिलने वाली शिकायतों की संख्या का अंदाज़ा लगा सकते हैं।
शिकायतों को इनकी श्रेणी के अनुसार रजिस्टर में लिखा जाता है। उसके बाद हम लोग इन शिकायतों को आगे बढ़ाने के लिए एक प्रतिनिधिमंडल के रूप में उप-मंडल मजिस्ट्रेट (एसडीएम) या जिला कलेक्टर जैसे उपयुक्त अधिकारियों से मिलने जाते हैं। प्रशासन के लोग हमारी शिकायत लिखते हैं और हमें एक रसीद देते हैं। इस रसीद को हम समुदाय के सदस्यों को सौंप देते हैं। यात्रा के ख़त्म होने के बाद समुदाय के सदस्य इस रसीद के माध्यम से अपनी शिकायत से जुड़ी स्थितियों के बारे में पता लगाते रह सकते हैं। इस साल मैं भीलवाड़ा के उस प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा था जो अधिकारियों से मिलने गया था। बाद में एक शिकायतकर्ता को एक पटवारी के दफ़्तर से फ़ोन आया था, जिससे यह स्पष्ट होता है कि शिकायतों पर काम हो रहा है।
शाम 4.00 बजे: इस समय तक हम लोगों का आज का काम ख़त्म हो चुका है। काम के ख़त्म होते ही हम लोग उस जगह के लिए निकल गए हैं जहाँ हम आज रात रुकेंगे। अब अगले दिन के काम के बारे में बात करने और उसे तय करने का समय है। संगीत के माध्यम से जागरूकता फैलाने का काम करने वाले लोग बैठ चुके हैं और अपने गीत और नारे लिखने का काम कर रहे हैं। मैं बैनर और पर्चियों से जुड़े काम करता हूँ क्योंकि मुझे पोस्टर डिज़ाइन के काम का अनुभव है। आप कह सकते हैं कि पर्चियों की डिज़ाइन मेरा शौक़ है। मैं जयपुर में डीटीपी संचालक के रूप में एक छापेखाने में काम करता था। लेकिन मैंने वह नौकरी छोड़ दी क्योंकि मेरे माता-पिता अब बूढ़े हो रहे हैं और मुझे अपने परिवार का ख़्याल रखना है।
जब मैं यात्रा पर नहीं जाता हूँ तब अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए विभिन्न क़िस्म के काम करता हूँ। इसमें राजस्थान सरकार के ई-मित्र परियोजना में स्वयंसेवक के रूप में काम करना, विभिन्न संगठनों के लिए सुविधा देने वाले के रूप में काम करना और सरसों के खेत में किसान के रूप में काम करना भी शामिल है।
जब आप लोगों के लिए काम करते हैं तब आपके पास रुकने या थमने का समय नहीं होता है।
रात 11.00 बजे: हम लोग आमतौर पर अपनी रातें धर्मशाला में बिताते हैं। यह जगह स्थानीय सदस्यों द्वारा यात्रियों के ठहरने के लिए तैयार की जाती हैं। अगर धर्मशाला उपलब्ध नहीं होता है तब उस स्थिति में हमें सस्ते होटल खोजने पड़ते हैं। दिन भर के काम के बाद मैं और मेरे सहयात्री थक चुके हैं लेकिन अभी अगला दिन आने वाला है।
जब आप लोगों के लिए काम करते हैं तब आपके पास रुकने या थमने का समय नहीं होता है। शुरुआत में मेरा परिवार मेरे काम से जुड़े जोखिम से चिंतित था और उन्हें समझने में मुश्किल होती थी। अब मेरी पत्नी मेरी सबसे बड़ी ताक़त है, उसे अब मेरे काम का महत्व समझ में आता है। मेरे माता-पिता अब भी थोड़े डरे हुए हैं; उन्हें लगता है कि इस काम से गाँव के लोग मेरे दुश्मन बन जाएँगे। मैं उनका डर समझता हूँ। यही वही डर है जिसके कारण बहुत सारे लोग आगे आकर ख़ुद से अपनी शिकायत दर्ज नहीं करवाते हैं। इसी वजह से हम जैसे लोगों को उनके लिए पुल का काम करना पड़ता है। गाँव के लोगों को इस बात का डर है कि कहीं उनके पानी और बिजली की आपूर्ति ना काट दी जाए, जो एक अनसुनी घटना नहीं है।
हालाँकि मैंने देखा है कि बदलाव हो रहे हैं। हमारे गाँव में कुल 500 घर हैं जिसमें विभिन्न समुदाय के लोग रहते हैं। जब हम, हमारे पिता या हमारे दादा लोगों के घर में चाय पीने जाते थे तब हमें अपना कप ख़ुद ही धोना पड़ता था। जाति से जुड़े भेदभाव के कारण हमें इन चीज़ों का सामना करना पड़ता था। अब हमें ऐसा नहीं करना पड़ता है। जैसा कि आप देख रहे हैं लोगों की मानसिकता बदल रही है। अपने काम के कारण मेरा अपना नज़रिया बदला है, ख़ास कर तब जब मैं मेघवंशी के साथ काम कर रहा था। मुझे याद है कि जब मैं छोटा था तब हम लोग उच्च जाति के लोगों, राजपूत जाति के किसी आदमी के सामने आने पर अपनी साइकल से उतर जाते थे। अब मुझे अपने अधिकारों के बारे में पता है। जैसा कि हम सही-ग़लत का अंतर समझकर अपने अधिकारों की माँग करते हुए अपनी लड़ाई जारी रख रहे हैं, मुझे पूरी उम्मीद है कि स्थिति बेहतर होगी।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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मेरा नाम बिसमा भट्ट है और मैं श्रीनगर, कश्मीर में एक पत्रकार हूँ। वर्तमान में मैं फ्री प्रेस कश्मीर नाम की एक साप्ताहिक पत्रिका में फीचर लेखक के रूप में काम करती हूँ। मैंने अपना पूरा जीवन श्रीनगर में बिताया है। मेरे बचपन में ही मेरे पिता का देहांत हो गया था। मुझे और मेरी दो छोटी बहनों को हमारी माँ ने पाला है। मेरे जीवन की योजना में पत्रकार बनना शामिल नहीं था। स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद मुझे जम्मू और कश्मीर के कटरा में वास्तुकला में स्नातक की पढ़ाई करने के लिए श्री माता वैष्णोदेवी विश्वविद्यालय में नामांकन मिल गया था। चूंकि कॉलेज घर से थोड़ी ज्यादा दूरी पर था और मेरी माँ को मेरी सुरक्षा की चिंता थी इसलिए मैंने वहाँ न जाने का फैसला किया। इसके बदले 2016 में मैंने विज्ञान में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। उसी साल एक मुठभेड़ में उग्रवादी बुरहान वानी मारा गया था, जिसके कारण कश्मीर में तनाव का माहौल बन गया था। उसी समय के आसपास अपनी माँ के साथ उनके वार्षिक चिकित्सीय जांच के लिए मैं पास के ही एक तृतीयक देखभाल अस्पताल गई थी। मैं डॉक्टर के कमरे के बाहर अपनी माँ का इंतजार कर रही थी, तभी मैंने देखा कि एक आदमी को जल्दी से स्ट्रेचर पर लाया जा रहा है जिसके सिर में गोलियां लगी हुई हैं और वह घायल अवस्था में है। मैं उसकी माँ के रोने की आवाज़ सुन सकती थी। जैसे ही मैं अपने झटके से उबरी मुझे अच्छी तरह से याद है कि उस वक्त वहाँ एक भी पत्रकार या मीडिया का आदमी मौजूद नहीं था जो इस घटना की रिपोर्टिंग करता। मैं अंदर से हिल गई थी लेकिन साथ ही मुझे यह भी महसूस हुआ कि मुझे कुछ करने की जरूरत है।
उस घटना के बाद मैंने केंद्रीय विश्वविद्यालय, कश्मीर से अभिसरण पत्रकारिता (कन्वर्जेंट जर्नलिज़्म) में स्नातकोत्तर की पढ़ाई के लिए आवेदन करने का फैसला किया। मैंने 2018 में अपनी पढ़ाई पूरी कर ली और मेरी पहली नौकरी कश्मीर मॉनिटर नाम के एक दैनिक अँग्रेजी अखबार में लगी। मैंने वहाँ लगभग तीन वर्षों तक काम किया। उसके बाद अगस्त 2020 में मैं फ्री प्रेस कश्मीर से जुड़ गई।
वर्तमान में फ्री प्रेस कश्मीर में बहुत अधिक संख्या में रिपोर्टर नहीं है और इसलिए मुझे हर दिन दैनिक रिपोर्टिंग से जुड़ा बहुत सारा काम करना पड़ता है। हालांकि मेरी रुचि विवाद-आधारित और गुमशुदा लोगों की कहानी में है। मैं द वायर, आर्टिकल 14 और फ़र्स्टपोस्ट जैसे राष्ट्रीय समाचार पोर्टलों के लिए भी लिखती हूँ।
सुबह 7.00 बजे: सुबह का मेरा अधिकतर समय घर के कामों को निबटाने में लग जाता है— घर और बर्तन की सफाई, मेरे पति के काम पर जाने से पहले उनके लिए खाना पकाना। कोविड-19 के कारण मेरे दफ्तर ने मुझे घर से काम करने की अनुमति दे दी है लेकिन चूंकि मेरे पति शिक्षा विभाग में एक सरकारी कर्मचारी हैं इसलिए उन्हें हर दिन काम पर जाना पड़ता है। मेरे ससुर मुझे जब भी घर के कामों में लगा हुआ देखते हैं, वह मुझसे दफ्तर जाने के लिए कहते हैं या फिर कहानियों के लिए क्षेत्र में निकलने की गुजारिश करते हैं। वह मुझसे अक्सर कहते हैं कि मुझे अपनी नौकरी पर ध्यान देना चाहिए और घर के कामों में ज्यादा समय नहीं बिताना चाहिए।
दोपहर 1.00 बजे: दोपहर का खाना जल्दी ख़त्म करके मैं लैपटाप पर नई कहानी पर काम शुरू करती हूँ। पहले चरण में मैं लोगों की सूची बनाती हूँ जिनसे मुझे इस कहानी को पूरा करने के लिए मिलने की जरूरत होती है। कहानी के लिए संभावित स्त्रोतों की पहचान करने के बाद मैं उनमें से प्रत्यके को फोन करना शुरू करती हूँ।
कुछ सालों तक एक पत्रकार के रूप में काम करने के बाद मैं अब आसानी से लोगों तक पहुँच कर जानकारी हासिल कर लेती हूँ।
मेरे लिए लेख लिखने की प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा इसमें शामिल सभी पक्षों से बात करना है। मैंने हाल में ही श्रीनगर के पीरबाग में एक लेख पर काम किया था जहां एक घरेलू सहायक ने 3-4 लाख रुपए की चोरी की और भाग रहा था। जब मुझे इस मामले के बारे में पता चला तो मैंने सबसे पहले उस परिवार से संपर्क किया जिसके घर में चोरी हुई थी और फोन पर ही जानकारी हासिल की। मैंने उनसे पूछा कि वास्तव में क्या हुआ था, उन्हें इसके बारे में कब पता चला था और इस पूरी घटना में नौकरी दिलाने वाली एजेंसी की क्या भूमिका है। उनसे बात करने के बाद मैंने जिला के पुलिस थाने में फोन किया और उसके बाद उस एजेंसी में भी फोन किया जिसने उस घरेलू सहायक को काम पर लगवाया था और मैंने इस घटना को लेकर उनका पक्ष भी सुना। मैं बहुत विस्तार से नहीं बताऊँगी कि उन लोगों से मुझे क्या जानकारियाँ मिली क्योंकि यह एक बड़ी खबर है जिसपर मैं अभी काम कर रही हूँ और मुझे उम्मीद है कि मैं जल्द ही इसे राष्ट्रीय प्रकाशन के लिए पेश करूंगी।
कुछ सालों तक एक पत्रकार के रूप में काम करने के बाद मैं अब आसानी से लोगों तक पहुँच कर जानकारी हासिल कर लेती हूँ। हालांकि ऐसा हमेशा से नहीं था। मुझे याद है जब मैंने कश्मीर मॉनिटर के साथ पहली बार एक पत्रकार के रूप में काम करना शुरू किया था, उस समय क्षेत्र में मेरे पास बहुत अधिक स्त्रोत नहीं थे। कहानियाँ ढूँढना बहुत मुश्किल था, और अक्सर मुझे खबर लिखने के लिए घटना वाली जगह पर जाना पड़ता था। शुरूआती दिनों में मुझे विभिन्न सरकारी दफ्तरों में जाना पड़ता था और जानकारी इकट्ठा करने के लिए वरिष्ठ अधिकारियों से बातचीत करनी पड़ती थी। एक युवा महिला पत्रकार के रूप में यह काम आसान नहीं था। कभी-कभी इन जानकरियों के बदले मुझसे ‘निश्चित समझौते’ करने के लिए कहा जाता था। मुझे याद है कि उन दिनों मैं कितना डरती थी। मेरी उम्र बहुत कम थी और मैंने अभी-अभी अपना करियर बनाना शुरू किया था। मैं नहीं जानती थी कि इन परिस्थितियों से कैसे निबटा जाए। इस क्षेत्र में कुछ साल बिताने के बाद अब मैं समझ गई हूँ कि लोगों से कैसे संपर्क किया जाए और ऐसे मामलों में कैसे प्रतिक्रिया करनी चाहिए।
दोपहर 3.00 बजे: फोन कॉल से मिली जानकारियों को लिखने के बाद मैं ऑनलाइन शोध करना शुरू करती हूँ और देखती हूँ कि क्या इस तरह के मामलों से जुड़ी खबरें भारत में पहले प्रकाशित हो चुकी हैं। अगर मुझे ऐसी कोई खबर मिलती है तब मैं उसका अध्ययन करती हूँ। जरूरत पड़ने पर मैं बाहर निकलकर स्त्रोतों से बातचीत भी करती हूँ। जैसे ही अपनी रिपोर्ट के ढांचे को लेकर मैं आश्वस्त हो जाती हूँ मैं अपना लैपटॉप बंद करती हूँ और बैग में रख लेती हूँ। आमतौर पर मैं लिखने का काम अगले दिन दोपहर को करना पसंद करती हूँ और शाम तक अपने संपादक को कहानी भेज देती हूँ। मुझे याद है जब 2019 में अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिया गया था। उस दिन न तो मैं दफ्तर जा सकी थी और न ही अपने संपादक को अपनी कहानियाँ भेज पाई थी क्योंकि सभी नेटवर्क बंद कर दिये गए थे। उस समय सरकार मीडिया सुविधा केंद्र में सीमित इंटरनेट कनेक्शन मुहैया करवाती थी। इसलिए मैं अपनी कहानियों को पेनड्राइव में डाउनलोड करती थी और सुविधा केंद्र तक जाती थी ताकि दिल्ली में बैठे अपने संपादकों से जम्मू और कश्मीर की वर्तमान स्थिति से जुड़ी खबरें साझा कर सकूँ।
कश्मीर में एक पत्रकार होना आसान नहीं है। संपर्कस्त्रोत और सुरक्षा की कमी के कारण मुझे कभी-कभी सिर्फ श्रीनगर से जुड़ी खबरों पर ही काम करना पड़ता है। दिन में मैं बहुत देर तक बाहर भी नहीं रह सकती हूँ और अंधेरा होने से पहले मुझे घर वापस लौटना पड़ता है।
एक पत्रकार के रूप में हर दिन हमारा सामना हिंसा, खून-खराबा और मौतों से होता है, विशेष रूप से हमारे इलाकों में जहां संघर्ष बहुत अधिक है।
हालांकि 2020 में जब मुझे संजय घोस मीडिया पुरस्कार के लिए चुना गया था तब मुझे इसके कारण उन ग्रामीण इलाकों से जुड़ी खबरों पर काम करने का मौका मिला था जो सामान्य स्थिति में संभव नहीं था। प्रक्रिया के हिस्से के रूप में मैं औरतों से जुड़ी पाँच खबरों पर काम कर सकती थी। उस दौरान मैंने बहुत सारी औरतों से बात की और मुझे इस बात का एहसास हुआ कि वे सभी किसी न किसी रूप में संघर्ष कर रही हैं। उनमें से अधिकतर औरतों को अपने अधिकारों की जानकारी भी नहीं है। वे नहीं जानती हैं कि घर पर पति या परिवार के सदस्यों द्वारा बुरा बर्ताव करने की स्थिति में उन्हें किससे संपर्क करना चाहिए या क्या कदम उठाना चाहिए।
मुझे इस बात का भी एहसास हुआ कि मीडिया संगठनों के बहुत कम लोग श्रीनगर के इन इलाकों में जाते हैं और इनकी समस्याओं के बारे में लिखते हैं। उस समय मैं अनंतनाग और बंदीपोरा जैसे इलाकों में होने वाली घटना और मुठभेड़ों पर काम कर रही थी। इन इलाकों में ये घटनाएँ बहुत आम थीं। हालांकि, मानव-हित से संबंधित बहुत कम कहानियाँ ही हैं। इन जगहों पर रहने वाले लोगों की आवाज़ें देश भर में तो क्या हम तक भी कभी नहीं पहुँच पाती हैं। आज की तारीख में कश्मीर में एक पत्रकार के रूप में काम करते हुए मैं कोशिश करना चाहती हूँ और बदलाव लाना चाहती हूँ।
शाम 6.00 बजे: रात का खाना तैयार करने के बाद मैं अपने लिए एक कप चाय बनाती हूँ और कश्मीर के इतिहास से जुड़ी उस किताब को उठा लेती हूँ जो मैं पिछले कुछ दिनों से पढ़ रही हूँ। आमतौर पर मुझे विवाद और युद्ध-आधारित कहानियाँ पसंद हैं, लेकिन हाल ही में मैंने यह पाया है कि मैं कश्मीर पर लिखी ऐतिहासिक कथा और कथेतर की किताबें भी पढ़ने लगी हूँ।
अपने करियर के इतने सालों में मुझे इस बात का एहसास हुआ है कि हमारे जीवन में ऐसे शौक और पसंद की चीजें होनी चाहिए जिनसे हमें राहत पाने में आसानी होती है। एक पत्रकार के रूप में हर दिन हमारा सामना हिंसा, खून-खराबा और मौतों से होता है, विशेष रूप से हमारे इलाकों में जहां संघर्ष बहुत अधिक है। ऐसे अनुभव अक्सर आपके जीवन का हिस्सा बन जाते हैं।
कश्मीर के लोगों को बहुत कुछ सहना पड़ता है। हर दिन किसी के बेटे, भाई या पिता के गुम होने की खबर दर्ज होती है।
मेरे दिमाग से आज भी वह घटना नहीं जाती है जिस पर 2020 में मैं काम कर रही थी। यह कुलगाम में एक लड़की के बारे में था जिसका बलात्कार करके मरने के लिए छोड़ दिया गया था। जब मैं उसके परिवार से बात करने के लिए गई तब तक उस लड़की की मृत्यु के तीन दिन हो चुके थे। मैंने उनके साथ एक-दो घंटे का समय बिताया ताकि वे घटना के बारे में मुझसे बात करने में सहज महसूस कर सकें। वे अब भी सदमे में थे लेकिन उनके अंदर गुस्सा भी था क्योंकि उन्हें ऐसा लग रहा था कि उनके लिए कोई कुछ नहीं कर रहा था—उनके अनुसार पूरी घाटी इस घटना को लेकर चुप थी। मुझे याद है कि वे बार-बार एक ही सवाल पूछ रहे थे: हम इतने असंवेदनशील कब हो गए?
खासकर औरतों से जुड़ी इस तरह की कहानियों पर नियमित रूप से काम करने और लिखने के बाद मैंने फैसला किया कि अपने मानसिक स्वास्थ्य के लिए मुझे किसी पेशेवर मदद की जरूरत है। उस घटना के बारे में सोचने पर आज भी मैं परेशान हो जाती हूँ।
शाम 7.00 बजे: मुझे पुलिस का कॉल आया है। उन्होनें मुझे आश्वस्त किया है कि यह एक नियमित रूप से होने वाला सत्यापन का कॉल है। उन्होनें पूछा है कि मैं कहाँ काम करती हूँ और क्या काम करती हूँ। उनके सवालों का जवाब देने के क्रम में मैं यह याद करने की कोशिश कर रही हूँ कि हाल में मैंने कुछ ऐसा तो नहीं लिखा है जिसके कारण मुझे पुलिस से किसी तरह की कॉल आ सकती है। उनके फोन रखने के बाद मैंने अपने सहकर्मियों को फोन किया और उनसे यह जानने की कोशिश की कि क्या उनके पास भी इस तरह का कोई कॉल आया था। शुक्र है उन सबके पास भी ऐसे ही फोन आए थे और उनसे भी वही सवाल किए गए थे।
रात 8.00 बजे: मैं और मेरे पति रात का खाना खा रहे हैं और मैंने उन्हें थोड़ी देर पहले आए पुलिस कॉल के बारे में बताया। उन्होनें मेरी सुरक्षा को लेकर चिंता जताते हुए मुझे अपने पेशे को बदलने के बारे में गंभीरता से सोचने की सलाह दी। यह एक ऐसी बातचीत है जो हमारे बीच कई बार हो चुकी है – वह मुझसे कहते हैं कि मैं जो काम करती हूँ वह बहुत ख़तरनाक है, और मैं उनसे कहती हूँ कि जहां एक तरफ मैं इस काम के खतरे को समझती हूँ वहीं दूसरी तरफ मैं कोई दूसरा काम नहीं करना चाहती हूँ।
कश्मीर के लोगों को बहुत कुछ सहना पड़ता है। हर दिन किसी के बेटे, भाई या पिता के गुम होने की खबर दर्ज होती है। हाल ही में मैंने एक ऐसे परिवार की मदद की थी जिनसे मैं कभी मिली भी नहीं थी। ऐसा उस खबर की वजह से हुआ जिसमें मैंने उत्तर प्रदेश में गिरफ्तार हुए उन तीन मुस्लिम लड़कों के बारे में लिखा था जिन्होनें पाकिस्तान के क्रिकेट टीम के पक्ष में नारेबाजी की थी। उन तीन लड़कों में से दो लड़के बहुत ही गरीब थे। वकील का खर्च उठाने के लिए उनमें से एक के परिवार को अपनी गाय बेचनी पड़ी थी। जब मैंने इस खबर के बारे में लिखा और ट्वीट किया उसके बाद से मुझे ऐसे असंख्य लोगों के संदेश मिले जो उनकी मदद करना चाहते थे और उस परिवार को पैसे भेजना चाहते थे ताकि उन्हें अपनी गाय वापस मिल जाए।
मैं जानती हूँ कि हम जो काम करते हैं वह आसान नहीं है। लेकिन मेरा विश्वास है कि अगर मैं आवाज़ों को बाहर लाने में मदद कर सकती हूँ, अगर मैं किसी भी तरह से किसी की मदद कर सकती हूँ, तो मैं जो करती हूँ उसे करते रहना चाहती हूँ।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
इस लेख को अँग्रेजी में पढ़ें।
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मैं एक स्ट्रिंगर हूँ—एक फ्रीलैंस पत्रकार जो उत्तर प्रदेश के उन्नाव शहर में हाइपरलोकल मुद्दों पर पत्रकारिता करता है। मैं स्थानीय सभी ख़बरों पर रिपोर्टिंग करता हूँ। मेरे पास उन दूसरे पत्रकारों की तरह काम के चुनाव का विकल्प नहीं है जो किसी खास बीट की खबर पर ही रिपोर्टिंग करते हैं। एक स्वतंत्र पत्रकार सभी तरह की ख़बरों पर काम करता है—अपराध, राजनीति, और भी बहुत कुछ। हमें जैसे ही किसी घटना की खबर मिलती है हम जितनी जल्दी हो सके उस घटना-स्थल पर पहुँचने की कोशिश करते हैं और उसी समय स्टोरी को दर्ज करते हैं। और चूंकि हम लोग खुद भी यहीं के रहने वाले हैं इसलिए हमें इस बात की समझ होती है कि किसी भी विशेष मुद्दे का समुदाय पर कैसा असर पड़ेगा।
बचपन में मैं बहुत ज्यादा टीवी देखता था—अधिकतर दूरदर्शन। हर शाम 7 बजे जब मैं लखनऊ से प्रसारित होने वाले समाचारों के पत्रकारों को देखता था और सोचता था कि, “एक दिन मैं भी टीवी पर आऊँगा।” लेकिन मेरा पेशेवर जीवन टीवी पत्रकार के रूप में नहीं शुरू हो पाया। जब मैं अपने इंटरमिडिएट की पढ़ाई पूरी कर रहा था तब मेरी मुलाक़ात एक ऐसे पत्रकार से हुई जिन्होनें मुझे अखबारों में लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। मुझे लगा कि यह एक अच्छा काम है और मुझे इसके लिए कोशिश करनी चाहिए, इसलिए मैंने डेली न्यूज एक्टिविस्ट के लिए काम करना शुरू कर दिया। प्रिंट मीडिया के साथ मेरा अनुभव मजेदार था—खबर वाली जगहों पर जाना, लोगों से बात करना, अपने हाथों से कहानी की रिपोर्टिंग करना और इसे प्रकाशित करवाना। यह सब 2014 की बात है। उसके बाद से मैंने कई मीडिया घरों के साथ काम किया है—समाचार डेस्क पर बैठकर, एक संवाददाता के रूप में, एक एंकर के रूप में। मैंने स्थानीय, राज्य संबंधी और राष्ट्रीय स्तर की खबरों पर लखनऊ और दिल्ली से पत्रकारिता की है।
जब 2020 की शुरुआत में कोविड-19 से जुड़े मामले वैश्विक रूप से दर्ज होने लगे थे, तब मैं लखनऊ के आमने सामने न्यूज के साथ काम कर रहा था। बीबीसी पर कोविड-19 से जुड़ी ख़बरों पर मेरी लगातार नजर बनी हुई थी और मैं जानता था कि पूरी दुनिया में स्थिति बदतर होती जा रही है। इसलिए 20 जनवरी को मैंने मुख्यमंत्री कार्यालय से संपर्क किया और उनसे लखनऊ में कोविड-19 से जुड़ी तैयारियां शुरू करने की बात कही। यह भारत में कोविड से जुड़े मामले मिलने से बहुत पहले की बात है। और जब कोविड-19 भारत पहुँच गया और स्थिति बदतर होने लगी तब मेरी तनख़्वाह भी रुक गई। मुझे लखनऊ में रहकर काम करने में कठिनाई होने लगी। इसलिए मैंने अपने गाँव वापस लौट जाने का फैसला किया। अब मैं टीवी9 भारतवर्ष नाम के राष्ट्रीय न्यूज चैनल के लिए एक स्ट्रिंगर के रूप में काम करता हूँ।
सुबह 7:00 बजे: सुबह जागने के बाद सबसे पहले किसी भी नई खबर या अपडेट के लिए मैं अपना व्हाट्सएप देखता हूँ। एक स्ट्रिंगर के लिए यह बहुत जरूरी है कि उसके पास एक मजबूत स्थानीय नेटवर्क हो। यही एकमात्र तरीका है जिससे आपके पास स्थानीय घटनाओं और मामलों से जुड़ी खबरें तुरंत पहुँचती हैं। अगर आपके पास एक मजबूत नेटवर्क नहीं है तो आपको ख़बर बनने लायक घटनाओं के बारे में पता नहीं चलेगा और आप समय पर न तो स्टोरी तैयार कर पाएंगे न ही उसे रिपोर्ट कर पाएंगे।
मैं स्थानीय अख़बारों, स्थानीय प्रधानों (गाँव के प्रमुख) और पंचायत के प्रतिनिधियों के संपर्क में रहता हूँ। विभिन्न प्रशासनिक कार्यालयों के अधिकारी—पुलिस विभाग, जिला अधिकारी और अन्य अधिकारियों के पास मेरा मोबाइल नंबर है और जब भी कुछ नया होता है तब वे मुझे फोन करते हैं। स्वतंत्र पत्रकारों के बीच में भी मेरा एक मजबूत नेटवर्क है। घटना स्थल पर सबसे पहले पहुँचने वाला स्ट्रिंगर बाकी अन्य पत्रकारों के साथ ख़बर साझा करता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मैं घटना स्थल पर समय पर नहीं पहुँच सकता। अगर ऐसा होता है तब मैं उन्नाव में काम करने वाले दूसरे स्वतंत्र पत्रकारों पर भरोसा कर सकता हूँ।
एक मजबूत नेटवर्क उस स्थिति में सबसे ज्यादा मददगार साबित होता है जब आप जांच के समय अफवाह और तथ्य को अलग-अलग करने का काम करते हैं।
और जब भी मैं किसी नई जगह पर जाता हूँ तब मैं वहाँ के स्थानीय लोगों से बातचीत करता हूँ और उन्हें अपना मोबाइल नंबर देता हूँ। मैं उनसे कहता हूँ कि वे मेरा नंबर अपने मोबाइल में दर्ज कर सकते हैं और जरूरत पड़ने पर या इलाके में कुछ ऐसा घटने पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं जिसे ख़बरों में आना चाहिए या जिसकी रिपोर्टिंग होनी चाहिए। एक मजबूत नेटवर्क उस स्थिति में सबसे ज्यादा मददगार साबित होता है जब आप जांच के समय अफवाह और तथ्य को अलग-अलग करने का काम करते हैं। हाल ही में मेरे साथ बिलकुल ऐसा ही हुआ जब मैं उन्नाव में दो दलित लड़कियों की मौत पर रिपोर्टिंग कर रहा था। जहां बहुत सारे पत्रकार इस विषय पर रिपोर्टिंग कर रहे थे कि उन लड़कियों को बलात्कार के बाद मार दिया गया, वहीं मैंने स्थानीय पुलिस, डॉक्टरों और परिवार के सदस्यों से बातचीत करके सभी तथ्यों को इकट्ठा किया। इन तथ्यों के आधार पर मैंने यह रिपोर्ट बनाई कि लड़कियों की मौत जहर खाने से हुई थी। यह जरूरी है कि हम अपनी रिपोर्ट तथ्यों और सबूतों के आधार पर बनाएँ और भावनाओं और अफवाहों के प्रभाव में न आयें, विशेष रूप से आजकल जब सभी तरह की अफवाहें व्हाट्सएप और सोशल मीडिया के माध्यम से बहुत ही तेजी से फैलती हैं।
सुबह 8:30 बजे: मैं सुबह का नाश्ता करने के बाद मोटरसायकल से उन्नाव के लिए निकल जाता हूँ। मैं शहर से लगभग 15 किलोमीटर की दूरी पर रहता हूँ इसलिए मुझे रोज ही शहर से गाँव जाना पड़ता है। शहर पहुँचने के बाद सबसे पहले मैं जिला अस्पताल जाता हूँ, और उसके बाद पुलिस अधीक्षक और जिला अधिकारी के कार्यालयों का दौरा करता हूँ। इन कार्यालयों से मैं विभिन्न कहानियों पर रिपोर्ट बनाता हूँ— दुर्घटनाएँ, जमीन से जुड़े मामले और अन्य मामले। इन सभी जगहों पर जाकर मैं मामले से प्रभावित आदमी और अधिकारियों से बात करता हूँ और सभी महत्वपूर्ण और प्रासंगिक सूचनाओं को लिख लेता हूँ। मैं इन रिपोर्ट को वहीं खड़े-खड़े अपने फोन में लिख लेता हूँ और उन्हें टीवी9 के समाचार डेस्क को भेज देता हूँ। मैं उन लोगों के फोन नंबर भी मांग लेता हूँ जिनसे मेरी बात हुई है ताकि आगे किसी ख़बर की जरूरत पड़ने पर मैं उनसे दोबारा संपर्क कर सकूँ।
किसी किसी दिन मैं आठ रिपोर्ट बनाता हूँ। हालांकि मेरी बनाई गई सभी रिपोर्ट प्रकाशित नहीं होती हैं। ख़बरों को प्रकाशित करने और उनके चुनाव का फैसला समाचार डेस्क करती है। चुनी गई ख़बरों पर स्ट्रिंगर का अधिकार नहीं होता है और न ही प्रकाशित हुई ख़बरों के अंतिम स्वरूप पर। कभी-कभी मुझे बुरा लगता है जब एक अच्छी रिपोर्ट को समाचार डेस्क प्रकाशित नहीं करता है लेकिन उस स्थिति में मैं खुद से कहता हूँ कि मैं अगली बार और अच्छा करूंगा। और भी कई तरह की चुनौतियाँ हैं। जैसे कि, हमारी कोई निश्चित मासिक आय नहीं है। हमें सिर्फ उन ख़बरों के ही पैसे मिलते हैं जो प्रकाशित होती हैं, न कि हमारे द्वारा भेजी गई सभी ख़बरों के। इन कहानियों को भेजने से मिलने वाले पैसों से मोटरसायकल के तेल का खर्च भी मुश्किल से निकल पाता है। इन ख़बरों तक पहुँचने और जानकारियाँ जुटाने में इससे ज्यादा खर्च होता है। और इन ख़बरों की बाईलाईन में उस आदमी का नाम जाता है जो समाचार डेस्क पर बैठकर इन्हें एक साथ लाने का काम करता है; हमारा नाम कभी-कभी लेख के अंत में दे दिया जाता है। लेकिन रिपोर्टिंग मेरा जुनून है और इसलिए मैं यह काम करता हूँ।
दोपहर 1:00 बजे: इस समय उत्तर प्रदेश में चुनाव हो रहे हैं, इसलिए मैं और दिनों की अपेक्षा ज्यादा व्यस्त हूँ। सभी सामान्य समाचारों के अलावा मुझे चुनाव से जुड़ी सभी ख़बरों की रिपोर्टिंग भी करनी पड़ती है। मुझे राजनीतिक दलों की रैलियों में जाना पड़ता है जहां मैं मतदाताओं और दलों के प्रतिनिधियों से बात करता हूँ। एक पत्रकार के रूप में मुझे यह लगता है कि नागरिकों से जुड़े मुद्दों पर ध्यान देना जरूरी है—वे क्या हैं, क्या उनका समाधान हो गया, पिछले पाँच वर्षों में क्या प्रगति हुई है, सत्ता में बैठे राजनीतिक दल ने कौन सी राहतें मुहैया की हैं? हमें प्रासंगिक स्थानीय खबरों के बारे में बात करनी चाहिए और किसी विशेष प्रत्यासी के समर्थन या विरोध में माहौल बनाने का काम नहीं करना चाहिए।
इस बार मतदाता खुलकर नहीं बता रहे हैं कि वे किसे अपना मत देंगे। पिछले तीन चुनावों में हम लोगों ने हर बार एक दल के पक्ष में जनता का लहर देखा ही—पहले बीएसपी, उसके बाद समाजवादी पार्टी और फिर बीजेपी। लेकिन इस चुनाव में हमें किसी भी एक दल के पक्ष में स्पष्ट बहुमत नहीं दिखाई पड़ रहा है।
जनता को केवल राशन दे देने भर से विकास का काम पूरा नहीं होता है।
चुनावी रैलियों और अभियानों की रिपोर्टिंग करने के अलावा मैं उन्नाव जिले में पुरवा विधान सभा क्षेत्र से जुड़ी एक कहानी पर भी काम कर रहा हूँ। कुछ महीने पहले, मैं चुनाव आयुक्त की वेबसाइट पर कुछ शोध कर रहा था और मेरी नजर इस बात पर गई कि इस विधान सभा क्षेत्र में बीजेपी ने आज तक एक भी सीट पर जीत दर्ज नहीं की है। मेरी रुचि इस बात में जगी कि ऐसा क्यों है और मैंने इस पर आगे खोजबीन करने का मन बना लिया ताकि पता लगा सकूँ कि इससे जुड़ी कोई मजेदार रिपोर्टिंग बन सकती है या नहीं। इसलिए मैंने पुरवा का दौरा किया और वहाँ के स्थानीय लोगों से बातचीत की, खासकर उन बुजुर्गों से जो कई दशकों से मतदान कर रहे हैं। उन लोगों ने मुझे बताया कि पुरवा के लोग आज भी पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं जैसी मौलिक सुविधाओं के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यहाँ न तो एक भी अच्छा अस्पताल है न ही उच्च शिक्षा संस्थान। यह एक ऐसी चीज है जिस पर अगली आने वाली सरकार को ध्यान देना चाहिए। जनता को केवल राशन दे देने भर से विकास का काम पूरा नहीं होता है।
शाम 6:00 बजे: घर पहुँचते ही मेरे फोन की घंटी बजी और मुझे खबर मिली कि हाईवे पर एक दुर्घटना हो गई है। मैं तुरंत वापस मुड़ा और घटना स्थल की तरफ निकल गया। आमतौर पर इस तरह की खबरें देर रात में आती हैं—बीच रात में या सुबह के 2 बजे करीब। इससे फर्क नहीं पड़ता है कि मेरे पास किस समय फोन आ रहा है; फोन आते ही मैं उस समय कर रहे अपने काम को बीच में छोडकर रिपोर्ट की फ़ाइल तैयार करने घटना स्थल पर जाने के लिए निकल जाता हूँ। अगर इन घटनाओं में किसी की मौत हो जाती है तब मुझे पोस्ट-मोर्टेंम रिपोर्ट के लिए अस्पताल भी जाना पड़ता है।
मैं इस काम को इसलिए कर रहा हूँ ताकि वहाँ तक पहुँचने का रास्ता मिल सके जहां मैं पहुँचना चाहता हूँ और तब तक करता रहूँगा जब तक मेरी रुचि खत्म नहीं हो जाएगी।
मेरी दिनचर्या अनिश्चित है और मुझे अपने परिवार के साथ बहुत कम समय मिलता है। शुरुआत में जब मैंने काम करना शुरू किया था तब मेरे पिता को लगता था कि मैंने गलत पेशा चुन लिया है। उनका कहना था कि, “तुमने इंटरमिडिएट की पढ़ाई पूरी कर ली है, तुम कंप्यूटर क्यों नहीं सीख लेते हो और उसके बाद इधर-उधर घूमने के बजाय एक अच्छी सी नौकरी क्यों नहीं ढूंढते हो?” अब जब लोग उन्हें मेरे काम के बारे में बताते हैं तब उन्हें राहत मिलती है। मेरे दोस्तों को लगता है कि मेरा काम सबसे अच्छा है क्योंकि मैं कहीं भी जा सकता हूँ, लोगों से मिल सकता हूँ और उनकी समस्याओं के बारे में बात कर सकता हूँ। लेकिन एक स्ट्रिंगर के काम में बहुत अधिक दबाव होता है, जिसमें मान्यता और मिलने वाले पैसे न के बराबर होते हैं। मैं इस काम को इसलिए कर रहा हूँ ताकि वहाँ तक पहुँचने का रास्ता मिल सके जहां मैं पहुँचना चाहता हूँ और तब तक करता रहूँगा जब तक मेरी रुचि खत्म नहीं हो जाएगी।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
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पिछले 22 वर्षों से मैं गुजरात के कच्छ क्षेत्र के कुछ दूरदराज़ के गाँवों में स्वयंसेवी संस्था कच्छ महिला विकास संगठन (केएमवीएस) के साथ काम कर रही हूँ। कच्छ भारत का सबसे बड़ा ज़िला है और उसमें विविधता बहुत है—यहाँ कई समुदाय, भाषा, कपड़े, भोजन और धर्म हैं और यही कच्छ की ताकत है। हम ज़िले भर में काम करते है, कच्छ के लंबे और घुमावदार तट के करीबी गाँवों से लेकर भारत-पाक सीमा के करीबी गाँवों तक, जो कच्छ के रण के आंतरिक हिस्से में हैं।
मैंने स्वयं सहायता समूह के नेता के रूप में केएमवीएस के साथ अपनी यात्रा शुरू की, और बाद में एक अर्धन्यायिक (पैरालीगल) के रूप में प्रशिक्षण लिया। पिछले छह वर्षों से मैं संगठन के साथ पूर्णकालिक पैरालीगल के रूप में काम कर रही हूँ। केएमवीएस में हम घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं को न्याय दिलवाने के लिए सहायता करते हैं। हम कानूनी प्रक्रिया के माध्यम से या झगड़ों को सुलझाने के लिए विश्वसनीय मध्यस्थों के रूप में काम कर के उनकी और उनके परिवारों की सहायता करते हैं।
हमारा काम यहीं खत्म नहीं होता। हम कच्छ पुलिस के साथ भी काम करते हैं। हमने 2010 में ‘हैलो सखी’ हेल्पलाइन शुरू की थी। यह हेल्पलाइन भुज के महिला पुलिस थाने से संचालित है और यह हमें अधिक महिलाओं तक पहुँचने में मदद करती है। इससे पहले, हम विभिन्न गाँवों की यात्रा करते थे और महिलाओं की सीमित संख्या तक ही अपनी सेवाएँ पहुँचा पाते थे। हम अभी भी अधिकारों और महिलाओं के हक़ों पर सेमिनार आयोजित करने के लिए, और महिलाओं (विशेष रूप से विधवाओं) की सरकारी योजनाओं और सेवाओं तक पहुँच बढ़ाने के लिए गाँवों में यात्रा करते हैं, लेकिन हेल्पलाइन के द्वारा हम तत्काल सहायता भी प्रदान कर पाते हैं।
अब मैं 400 से अधिक महिलाओं को केएमवीएस में पैरालीगल बनने के लिए प्रशिक्षित कर चुकी हूँ।
जब मैंने 20 साल की उम्र में केएमवीएस में काम करना शुरू किया था, तब मैंने सातवीं कक्षा से आगे की पढ़ाई नहीं की थी। मेरे गाँव के स्कूल में इससे आगे की शिक्षा संभव नहीं थी, इसलिए चाहने के बावजूद मैं आगे पढ़ाई नहीं कर सकी। अब मैं 400 से अधिक महिलाओं को केएमवीएस में पैरालीगल बनने के लिए प्रशिक्षित कर चुकी हूँ। इसी वर्ष में मैंने दसवीं कक्षा पूरी करने के बारे में सोचा, जब मेरे पर्यवेक्षक ने सुझाव दिया कि मैं परीक्षा देकर अपना प्रमाण पत्र प्राप्त कर सकती हूँ। संगठन ने सोचा की इससे मुझे मदद मिलेगी, और साथ ही जो युवा मेरी देख-रेख में काम करते हैं उन्हें भी प्रेरणा मिलेगी। 42 साल की आयु होने के कारण मैं झिझक रही थी; आखिरी बार मैंने औपचारिक रूप से पढ़ाई बहुत साल पहले की थी। लेकिन मेरे सहयोगियों ने मेरा हौसला बढ़ाया और कुछ महीनों तक कठिन मेहनत के बाद, मैं उत्तीर्ण हुई।
अब मेरा ज्यादातर समय भुज के ऑफिस में या बाहर फ़ील्ड में बीतता है।
सुबह 7:30 बजे: मेरा काम आमतौर पर सुबह 10 बजे शुरू होता है, जब मैं पड़ोसी गाँवों का दौरा करने के लिए या सीधे कार्यालय जाने के लिए अपने स्कूटर पर निकलती हूँ। लेकिन आज के जैसे दिन, जब हैलो सखी हेल्पलाइन पर कॉल सुनने के लिए कोई भी उपलब्ध नहीं है, तो मैं इसके बजाय पुलिस स्टेशन जाती हूँ।
मुझे याद है कि जब मैंने शुरुआत की थी, तो मैंने कभी बस में यात्रा नहीं की थी। कल्याणपुर में, जिस गाँव में मैं पली-बढ़ी हूँ, महिलाएँ अपने घरों की दहलीज से बाहर कदम नहीं रखती थीं। मैं मुसलमान हूँ और मेरे समुदाय में महिलाओं को अकेले और बिना घूँघट के बाहर जाने की अनुमति नहीं है। आश्रित और कम दुनिया देखे हुए जीवन की आदत होने के कारण मैं केएमवीएस से जुड़ने में संकोच कर रही थी।
लेकिन जब केएमवीएस की महिलाओं ने अपने काम के बारे में बताया, तो मैंने उनसे जुड़ने की हिम्मत जुटाई। शुरुआत में मेरे पति के परिवार के सदस्य बैठकों के वक़्त मेरे पीछे पीछे आते थे, यह देखने के लिए कि मैं कहाँ जा रही हूँ, मैं क्या कर रही हूँ। मेरी सास ने भी मेरे साथ आने पर ज़ोर दिया। लेकिन कुछ बैठकों के बाद उन्होंने स्वीकार किया कि सामूहिक काम रचनात्मक है और हमारी बहनों से बहुत कुछ सीखने को मिलता है। समय के साथ, मैं अपने परिवार का विश्वास और समर्थन हासिल कर पाई। अब जबसे लॉकडाउन हुआ है, तबसे मैं हर दूसरे दिन अपना काम पूरा करने के लिए अपने स्कूटर से पड़ोसी गाँवों की यात्रा करती हूँ।
सुबह 8 बजे: एक बार महिला पुलिस स्टेशन पहुँचने के बाद मैं हेल्पलाइन पर कॉल का जवाब देती हूँ, जो कि प्रतिदिन सुबह 8 बजे से 9 बजे के बीच चलती है, यहाँ तक कि दिवाली और ईद की छुट्टियों में भी। मैं फोन करने वाले व्यक्ति से उनका विवरण—नाम, गाँव, उम्र, बच्चों की संख्या—का ब्यौरा लेती हूँ। साथ ही जिस मुद्दे का वह सामना कर रहे हैं उसका विवरण भी लेती हूँ। कच्छ के सभी दस तालुकों (ब्लॉक) में हमारे कार्यालय हैं, इसलिए फोन जहाँ से आ रहा है उसके अनुसार मैं उस तालुका के पैरालीगल और काउंसलर से संपर्क करती हूँ और उन्हें स्थिति से अवगत करवाती हूँ। आमतौर पर हम कॉल करने वालों को हमारे कार्यालयों में आने के लिए कहते हैं, लेकिन यदि वे नहीं आ सकते तो हम उनसे मिलने जाते हैं।
चूँकि मैं भुज में रहती हूँ, अगर कोई मामला पास में है, तो मैं खुद उसमें शामिल होती हूँ। हम आम तौर पर महिलाओं और उनके परिवारों के बीच सभी मामलों को सबकी सहमति बना कर हल करने का प्रयास करते हैं। लेकिन अगर महिला को फिर भी खतरा महसूस होता है या वह खतरे में है, तो हम मामले को पुलिस के पास ले जाते हैं।
सुबह 10 बजे: जब मैं पुलिस थाने में थी मुझे मेरे मोबाइल पर फोन आया। मैं औसतन लगभग 200 गाँवों के साथ काम करती हूँ, और चूँकि लोग मुझे अच्छी तरह से जानते हैं, इसलिए वे कभी-कभी हेल्पलाइन के बजाय सीधे मेरे फोन पर कॉल करते हैं।
मैंने फोन का जवाब दिया—रामलाल*, पास के गाँव का एक व्यक्ति, अपनी बेटी लक्ष्मी* की ओर से फोन कर रहा है। वह मुझे बताता है कि लक्ष्मी के ससुर ने कल रात उसे घर से निकाल दिया। उसने परिवार के लिए चाय बनाते समय थोड़ा ज़्यादा दूध डाल दिया था। उसके ससुर नाराज़ हो गए, और मौका मिलते ही उसे पीट कर घर से बहार निकाल दिया। लक्ष्मी अब अपने माता-पिता के घर पर है और इसलिए रामलाल मुझसे उसकी मदद करने और हस्तक्षेप करने का अनुरोध करता है।
सुबह 11.30 बजे: मैं उनके घर पहुँचती हूँ, और लक्ष्मी से बात करने बैठती हूँ। हम इस घटना पर चर्चा करते हैं, और मैं उसे बताती हूँ कि उसके ससुर को उसके साथ ऐसा व्यवहार करने का कोई अधिकार नहीं है। जब उससे इस सब में उसके पति की भूमिका के बारे में पूछा गया, तो उसने बताया कि उसके पति ने अपने पिता को रोकने की कोशिश की लेकिन वो असफल रहा। हम तय करते हैं कि यह सबसे अच्छा होगा यदि वे दोनों (पति और पत्नी) कुछ समय के लिए परिवार के बाकी लोगों से अलग रहें, ताकि लक्ष्मी अपने ससुर से कुछ दूर रह सके। उनकी अनुपस्थिति में उसके पति का भाई अपने माता-पिता की देखभाल करने के लिए सहमत हुआ।
जब इस तरह की स्थितियों को पुलिस में ले जाया जाता है, तो वह महिला के लिए अतिरिक्त तनाव का कारण बन सकता है। अक्सर इस मुद्दे को परामर्श के माध्यम से हल करना आसान होता है। हालाँकि आपातकालीन स्थितियों मे हम पुलिस की 181 महिलाओं की हेल्पलाइन वैन का उपयोग करते हैं, ताकि महिलाओं तक जल्दी पहुँच सकें और उन्हें तत्काल खतरे से बाहर निकाला जा सके।
दोपहर 2 बजे: मैं भुज में कुछ प्रशासनिक काम करवाने के लिए वापस कार्यालय जाती हूँ, और मेरी निगरानी में काम करने वाले कुछ पैरालीगल्स से बात करती हूँ। उनमें से कुछ, जो अन्य कंपनियों या होटलों में नौकरी करते हुए पैरालीगल के रूप में काम करते हैं, वे महामारी के कारण अपनी आय और बचत को लेकर चिंतित हैं। एक महिला को अपने 17 वर्षीय बेटे को काम करने के लिए कहना पड़ा, क्योंकि उसका पति, एक प्रवासी कामगार, लॉकडाउन के दौरान उन तक नहीं पहुँच पाया।
हम हर साल जनवरी में पैरालीगल के एक नए कैडर को भर्ती करते हैं। ऐसा करने के लिए हम एक गाँव से दूसरे गाँव जाते हैं। वहाँ हम महिलाओं से बात करते हैं, उन्हें हमारे काम के बारे में बताते हैं, और उन्हें हमारे साथ जुड़ने के लिए कहते हैं। हम आम तौर पर गाँव के साथ एक संबंध स्थापित करने के लिए गाँव के सरपंच या आशा कार्यकर्ता के साथ पहले बातचीत करते हैं, और उनकी मदद से यह पहचान करते हैं कि कौनसी महिलाएँ हमसे जुड़ने में दिलचस्पी ले सकती हैं।
वर्षों से परिवारों के साथ काम करने के कारण हम एक मध्यस्थ के रूप में अपनी भूमिका स्थापित करने में सक्षम रहे हैं।
एक बार जब नए पैरालीगल का काम शुरू होता है, तो मैं उन्हें घरेलू हिंसा, यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (पीओसीएसओ) अधिनियम, बाल हिरासत कानून, लिंग, महिलाओं के अधिकार, और इसी तरह की बातों पर प्रशिक्षित करती हूँ। हम प्रचलित सामाजिक मानदंडों और मानसिकता पर भी चर्चा करते हैं। अभी भी बहुत सारी बुज़ुर्ग महिलाएँ हैं जो अपनी बेटियों और बहुओं को घर से बाहर निकलने, महिलाओं के समूह का सदस्य बनने और सामाजिक कल्याण के मुद्दों पर अपनी आवाज़ उठाने पर आपत्ति जताती हैं। हमें उन्हें समझाने और उन्हें आश्वस्त करने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है कि हम कुछ भी गलत नहीं कर रहे हैं। पितृसत्तात्मक मानदंड महिलाओं को उनके घर छोड़ने से रोकते हैं, लेकिन हम उन्हें सलाह देते हैं, उनके डर को दूर करने में मदद करते हैं। हम परिवर्तन को अपनाने के लिए उन्हें प्रोत्साहित करते हैं कि वे अभी तक जिसमें उन्हें सहूलियत लगती थी या जिसकी उन्हें आदत थी, उस विचारधारा को छोड़ें।
शाम 4 बजे: मेरा फोन फिर से बजता है—इस बार, यह एक महिला है जो अपने पति की शराब की लत के बारे में चिंतित है और इसकी वजह से वह उसके साथ कैसा व्यवहार करेगा उसे लेकर परेशान है। वर्षों से परिवारों के साथ काम करने के कारण हम एक मध्यस्थ के रूप में अपनी भूमिका स्थापित करने में सक्षम रहे हैं; हम आँख बंद करके महिलाओं का साथ नहीं देते, लेकिन हम उन्हें बता देते हैं कि वे वास्तविक, निष्पक्ष सहायता के लिए हम पर भरोसा कर सकती हैं। ऐसा करने से हम घर के अन्य सदस्यों का विश्वास अर्जित कर पाए हैं, और यही कारण है हम झगड़ों को सुलझाने में मदद कर पाते हैं।
मैं उस महिला को सलाह देती हूँ, उसे आश्वस्त करती हूँ कि अगर उसे खतरा महसूस होता है, तो हम एक काउंसलर और पैरालीगल को भेजेंगे।
शाम 5 बजे: दिन का काम खत्म करने से पहले मैं हमारे पैरालीगल्स के लिए प्रशिक्षण सत्रों के अगले सेट की योजना बनाने में कुछ समय बिताती हूँ। इस बारे में सोचने से मुझे केएमवीएस के साथ अपने शुरुआती दिनों का ख़याल आता है। जब मैंने काम करना शुरू किया था, तो मुझे महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा, महिलाओं के अधिकारों और हमारे संगठन के बारे में जागरूकता सत्र आयोजित करने के लिए गाँव-गाँव जाना पड़ता था। गाँव भर की महिलाओं के साथ जुड़ने में मुझे जो मदद मिली थी उसका कारण यह था कि मैं उनकी तरह ही एक गाँव की लड़की थी, जिसने पहले कभी अपने घर से बाहर कदम नहीं रखा था।
हम अपने अधिकारों और क्षमता के बारे में जानने से ही पितृसत्तात्मक मानदंडों को पीछे छोड़ सकते हैं जो हमें अपने घरों में बाँध के रखते हैं। अगर मैं बाहर न निकली होती या नई चीज़ें न आज़माई होतीं, तो मैं आज जहाँ हूँ, वहाँ न होती। मैं खुद से भुज नहीं जा पाती, एक प्रबंधक के रूप में काम न कर पाती, खुद बैठकें न कर पाती, और अपनी बहनों को उनकी आवाज़ ढूँढने में मदद भी न कर पाती। एक समय पर हमें ‘भुज वली बहनें’ भी कहा जाता था और अपने काम के माध्यम से मैं कच्छ भर में 5,000 से अधिक बहनों के साथ जुड़ी हुई हूँ।
*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नाम बदले गए हैं।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया है।
इस लेख को अँग्रेजी में पढ़ें।
मेरा जन्म दिल्ली के मौजपुर इलाके में हुआ था। मेरे पिता एक मजदूर थे और हम लोग किराए के घर में रहते थे। पाँच साल की उम्र में मैं अपने भाईयों और माता-पिता के साथ गाज़ियाबाद के लोनी में रहने आ गया था। हालांकि हम लोग दिल्ली के बहुत ही नजदीक रहते थे लेकिन कई तरह की राजनीतिक समस्याओं और दबाव के कारण वह इलाका विकसित नहीं हुआ था। लोनी में अपराध तेजी से फैल रहा है और हमारे पास अच्छे निजी या सरकारी स्कूल भी नहीं हैं। हालांकि मैंने किसी तरह अपने स्कूल की अपनी पढ़ाई पूरी की। उसके बाद मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में स्नातक की पढ़ाई का फैसला किया। मैं हमेशा से बहुत कुछ सीखना चाहता था और जीवन में बहुत आगे जाना चाहता था, और हमारे ही जैसे दूसरे अन्य परिवारों की मदद करना चाहता था जिनके पास मौलिक सुविधाएं भी नहीं हैं। मुझे इस बात का एहसास हुआ कि लोनी में इस तरह के बदलाव लाने के लिए मुझे राजनीति में जाना होगा क्योंकि यहाँ राजनीति से जुड़े नेताओं के पास ही असली ताकत है।
अपने कॉलेज के दिनों में मैंने एक स्थानीय राजनीतिक दल के साथ काम किया था। वहाँ मेरी मुलाक़ात उत्तर प्रदेश के एक प्रसिद्ध नेता से हुई जिन्होंने मेरी आर्थिक स्थिति और परिवार की पृष्ठभूमि के बारे में जानने के बाद मुझे राजनीति में न जाने की सलाह दी। उन्होंने मुझसे कहा कि राजनीति वैसे लोगों के लिए है जिनके पास समय और पैसा है और दुर्भाग्य से मेरे पास दोनों ही नहीं थे। इसके बदले उन्होंने सलाह दी कि मुझे यूपीएससी प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी करनी चाहिए।
अब मेरे दिन का ज़्यादातर समय परीक्षा की तैयारी और पढ़ाई में निकल जाता है। साथ ही अपने पिता और भाइयों के साथ मैं पास के बाजार में सफाईकर्मी के रूप में काम भी करता हूँ। मेरे दोनों भाई मुझसे छोटे हैं। जहां मेरा एक भाई अब भी पढ़ाई कर रहा है वहीं मेरे दूसरे भाई ने 12वीं के बाद पढ़ाई छोड़ दी है। वह अब घर के कामों में मदद करता है और हल्के-फुल्के काम करके थोड़े से पैसे भी कमा लेता है।
सुबह 6:00 बजे: मेरा दिन ऑनलाइन कोचिंग क्लास से शुरू होता है जो यूपीएससी परीक्षाओं की तैयारी में मेरी मदद करता है। मैं अपने स्मार्टफोन से क्लास में लॉगिन करने के पहले जल्दी से मुंह-हाथ धोता हूँ। मेरे पिता मुझे एक कप चाय देते हैं। यह चाय वह अपने उस निजी स्कूल में जाने से पहले बनाते हैं जहां वह एक सफाई कर्मचारी के रूप में काम करते हैं। यह उनका रोज का काम है। सुबह की यह चाय क्लास में मुझे चौकन्ना रहने में मेरी मदद करती है।
शुरुआत में मुझे यूपीएससी परीक्षाओं के बारे में सिर्फ इतना ही पता था कि मुझे इसमें सफल होने की जरूरत है। इससे ज्यादा मैं इसके बारे में कुछ नहीं जानता था। ऑनलाइन खोजबीन करने और लोगों से बातचीत करने के बाद मुझे मुखर्जी नगर के कोचिंग केन्द्रों के बारे में पता चला और फिर उनमें से एक में मैंने दाखिला ले लिया। लेकिन यह कोचिंग कोविड-19 के कारण बंद हो गया। उन्होनें अभी तक मेरे पैसे भी नहीं लौटाए हैं। इसलिए मैंने एक ऐसे ऑनलाइन कोचिंग में नाम लिखवा लिया है जिसका शुल्क मैं भर सकता हूँ।
दोपहर 12:00 बजे: अपना क्लास खत्म करने के बाद मैं घर के कामों को खत्म करता हूँ। अगर जरूरत होती है तो मैं पास की दुकान से जाकर कुछ राशन ले आता हूँ। मेरा पूरा दिन मेरी क्लास और उसके समय पर निर्भर करता है। आज चूंकि मुझे आपसे बात करनी थी इसलिए मैंने अपने क्लास का काम पहले ही पूरा कर लिया था और घर का एक भी काम नहीं किया। आज मेरे बदले मेरा छोटा भाई घर के कामों में मदद कर रहा है।
दोपहर 3:00 बजे: इस समय मैं दोपहर का खाना खाता हूँ और थोड़ी देर आराम करने की कोशिश करता हूँ। हम सब शाम 4 बजे के करीब साथ बैठकर चाय पीते हैं, और उसके बाद मैं अपनी शाम की क्लास के लिए बैठ जाता हूँ।
शाम 6:00 बजे: मैं पास के बाजार से हमारे काम के बदले मिलने वाले पैसे लेने के लिए घर से निकलता हूँ। अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए मैंने बहुत कम उम्र में ही काम करना शुरू कर दिया था। स्कूल के दौरान दो महीनों की गर्मियों की छुट्टियों में मैं सभी सरकारी समितियों और निजी कंपनियों में काम के लिए आवेदन दिया करता था। मेरी पहली नौकरी 2012 में रेलवे के साथ थी। मैं एक ठेकेदार के साथ काम करता था जो मुझे महीने के 4,000 रुपए देता था। मुझे लगता था कि स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद स्थिति शायद बेहतर होगी लेकिन मेरी डिग्री पूरी होने के बाद भी कुछ नहीं बदला।
घर के खर्चों को पूरा करने के लिए धीरे-धीरे मैंने भी सफाई का काम ही शुरू कर दिया जो मेरा परिवार कई पीढ़ियों से कर रहा है।
मैं जब भी काम ढूँढने के लिए जाता हूँ तब नियोक्ता मेरे काम के अनुभवों के बारे में पूछते हैं। जैसे ही मैं उन्हें अपने सफाई कर्मचारी होने की बात बताता हूँ तब वह मुझसे आगे भी यही काम करने की बात कहते हैं। इसके पीछे का कारण बताते हुए वे ये कहते हैं कि मेरे पास किसी दूसरे काम का कोई अनुभव नहीं है। मुझे याद है कि एक बार मैंने अपने ही दफ्तर में रूम अटेंडेंट की नौकरी के लिए आवेदन दिया था जहां मैं पहले से ही काम कर रहा था। हालांकि वेतन में लगभग हजार रुपए से ज्यादा का अंतर नहीं था। लेकिन मुझसे कहा गया कि चूंकि वहाँ के लोगों ने मुझे सफाई का काम करते देखा है इसलिए वे मुझसे अपने कमरे की चादर और तकिया के खोल बदलवाना पसंद नहीं करेंगे। घर के खर्चों को पूरा करने के लिए धीरे-धीरे मैंने भी उसी सफाई का काम फिर से शुरू कर दिया जो मेरा परिवार कई पीढ़ियों से कर रहा है। हालांकि आजकल यूपीएससी प्रवेश परीक्षा की तैयारियों के कारण मैं काम को बहुत अधिक समय नहीं दे पाता हूँ।
रात 10:00 बजे: दिन भर की पढ़ाई और क्लास खत्म करने के बाद मैं और मेरा परिवार रात के खाने के लिए साथ में बैठते हैं। यह खाना हमारी माँ हमारे लिए पकाती हैं। रात के खाने के बाद, मेरे पिता, मेरे भाई और मैं दुकानों की सफाई के लिए बाजार की तरफ निकल जाते हैं। कोविड-19 लॉकडाउन के कारण हमें काम पर रखने वाले दुकानदार अपनी दुकानें नहीं खोल पाते थे। जिन्होंने अपनी दुकानें खोलने की कोशिश की उन्हें पुलिस की मार पड़ी। एक बार मुझे भी पुलिस ने मारा था जब मैं पैसे लेने बाहर निकला था। उन्होंने कहा, “तुम्हें दिखाई नहीं देता है कि यहाँ लॉकडाउन लगा है?” हम सब दिहाड़ी मजदूरी पर जिंदा हैं और बिना पैसे का एक दिन भी हमें बहुत भारी पड़ सकता है।
नहाने से पहले भी सोचना पड़ता था क्योंकि साबुन बचाना था। यह सबकुछ उस दौरान हो रहा था जब लोग साबुन से बार-बार हाथ धोने की बात कर रहे थे।
लेकिन उन मुश्किल दिनों में कोई भी हमारी मदद के लिए नहीं आया। महामारी के पहले मेरे पिता एक निजी कंपनी में सफाई कर्मचारी थे। जब लॉकडाउन शुरू हुआ तब 400–500 कर्मचारियों के साथ उन्हें भी काम से निकाल दिया गया। उन्हें मार्च महीने की आधी तनख्वाह मिली और उसके बाद कुछ नहीं। हमने अपने बचाए हुए पैसों पर ही गुजारा किया। हमारे जीवन में अलग-अलग किस्म की समस्याएँ थीं। हम पहले आधा लीटर दूध खरीदते थे लेकिन अब 250 मिली ही लाते थे, हमें अपने खाने का खर्च में कटौती करनी पड़ी थी और हम लोगों को नहाने से पहले भी सोचना पड़ता था क्योंकि साबुन की बचत करनी थी। यह सबकुछ उस दौरान हो रहा था जब लोग साबुन से बार-बार हाथ धोने की बात कर रहे थे।
मैंने लॉकडाउन के दौरान ही एक स्वयंसेवी संस्था के साथ काम करना शुरू किया। मैंने एक ऐसे स्वयंसेवी संस्था के कामों में मदद की जो हमारे इलाके में खाना बांटने आया था। मैंने सफाई कर्मचारी आंदोलन (एसकेए) के साथ काम करना शुरू कर दिया था। मुझे उनसे जुड़े एक या दो साल ही हुए थे लेकिन उनके काम के बारे में मैं बचपन से ही जानता था। मुझे याद है कि वह पहली बार हमारे इलाके में 2010 में आए थे और हमें यह बताया था कि हमें मैनुअल स्कैवेंजिंग का काम बंद कर देना चाहिए। मेरी माँ और इलाके की अन्य औरतें हाथ से मैला ढ़ोने वालों के साथ काम करती थीं। 2013 में मेरी माँ ने यह काम छोड़ दिया।
संभवत: उच्च वर्ग के एक सरकारी अधिकारी ने हमें यह समझाया था कि आदमी के मैले को ढ़ोने के लिए किसी दूसरे आदमी को काम पर रखना एक दंडनीय अपराध बन गया था। हम खुश थे कि अब हमें मैनुअल स्कैवेंजिंग का काम नहीं करना पड़ेगा। लेकिन अब सवाल यह था कि हम करेंगे क्या?
सरकार वादे करती रहती है लेकिन असलियत में कुछ नहीं होता है।
वह 2010 था और अब 2021 है—ये औरतें अब भी ‘पुनर्वास’ के इंतजार में बैठी हैं। सरकार वादे करती रहती है लेकिन असलियत में कुछ नहीं होता है। वे हम लोगों से स्व-घोषणा पत्रों पर हस्ताक्षर करवा लेते हैं और कई चरणों तक कागजी कारवाई करते रहते हैं। मैं अब इन औपचारिकताओं में मदद के लिए एसकेए के साथ काम करता हूँ। संगठन लोगों को और अधिक काम दिलवाने की कोशिश कर रही है लेकिन नगर निगम से किसी भी तरह की सहायता नहीं मिलती है।
रात 12:00 बजे: मैं आधी रात तक दुकानों की सफाई का काम पूरा करता हूँ। घर पहुँचने के बाद मैं अपने कपड़े बदलता हूँ और उन्हें धोता हूँ। उसके बाद बैठकर थोड़ी देर पढ़ाई करता हूँ। मैं सुबह की क्लास के अपने नोट्स को देखता हूँ और किसी तरह का सवाल होने पर उसे लिख लेता हूँ। इस दौरान मेरा छोटा भाई भी मेरे फोन पर अपनी पढ़ाई का काम पूरा कर लेता है।
अपनी परीक्षा में सफल होने के बाद मैं वास्तव में अपने आसपास के लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए उनकी मदद करना चाहता हूँ। मैं लोगों की न्यूनतम मजदूरी को बढ़ाने के क्षेत्र में काम करना चाहता हूँ ताकि कम से कम उनकी मौलिक जरूरतें पूरी हो सके। उदाहरण के लिए मदर डेयरी के दूध की कीमत 44 रुपए प्रति लीटर है, और 250 ग्राम दाल भी 20 रुपए में आती है। अगर एक परिवार में दो बच्चे हैं और परिवार की कुल कमाई 300 रुपए है तो उनका गुजारा कैसे होगा?
दूसरी चीज कौशल का विकास है जिस पर मैं ध्यान देना चाहता हूँ। मैं प्रधान मंत्री कौशल विकास योजना के तहत मोबाइल रिपेयरिंग का प्रशिक्षण हासिल करने गया था। लेकिन प्रशिक्षक को कौशल सिखाने की चिंता नहीं थी; वे सिर्फ सरकार से अपने हिस्से का पैसा लेना चाहते थे। मुझे इस पाठ्यक्रम की डिप्लोमा डिग्री भी नहीं मिली। सरकार योजना बनाती हैं लेकिन इसके कार्यान्वयन पर नजर नहीं रखती है।
कौशल विकास बहुत महत्वपूर्ण है। लोग कह सकते हैं कि मैनुअल स्कैवेंजिंग का काम खत्म हो गया है। लेकिन जो इस काम में लगे हैं उन्हें अब भी मैनुअल स्कैवेंजिंग और सफाई का काम करना पड़ता है। क्यों? ऐसा इसलिए है क्योंकि वह कोई दूसरा काम नहीं खोज पाते हैं—उनके पास कोई दूसरा कौशल नहीं है। न ही उन्हें किसी तरह का प्रशिक्षण दिया गया है और न ही इन कौशलों के विकास और काम ढूँढने के लिए उन्हें किसी तरह की अनिवार्य सहायता मिली है। लोग इंतजार करके थक गए और अंतत: अपने पुराने काम पर वापस लौट गए। मुझे भी वापस सफाई के काम में लौटना पड़ा। सिर्फ इतना ही अंतर आया है कि पहले यह कच्चा (गड्ढे वाला शौचालय) था, अब हम झाड़ू लगाते हैं, गंदगी उठाते हैं और उसे फेंकते हैं। प्रक्रिया शायद कागजों पर बदल गई होगी लेकिन काम और उत्पीड़न अब भी वैसा ही है।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया था।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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मैं एक जिद्दी बच्ची थी जो अपने माता-पिता द्वारा तय पेशेवर जीवन की उन योजनाओं पर नहीं चलना चाहती थी जिसका लक्ष्य सरकारी नौकरी तक पहुँचना होता है और जो नागालैंड में एक कानून की तरह है। फिर भी उनके दबाव के कारण मैं 2011 में अपने बीए की पढ़ाई पूरी करने के बाद एक प्रतियोगिता परीक्षा में शामिल हुई। लेकिन मैं 30 मिनट में ही परीक्षा हॉल से बाहर निकल गई। मुझे पता था कि मैं कुछ और करना चाहती थी। मैं लोगों के लिए काम करना चाहती थी—सामाजिक क्षेत्र में। लेकिन यहाँ दीमापुर में हमारे पास इस तरह के व्यवसायों में आगे बढ़ने के लिए ज़रूरी मार्गदर्शन नहीं था।
और फिर मैं एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करने के लिए बैंग्लोर चली गई। मैंने कुछ सालों तक नौकरी की और विदेश के क्लाईंट (ग्राहकों) की मदद की। लेकिन मेरे अंदर हमेशा यह बात चलती रहती थी कि यह काफ़ी नहीं है। मैं अपने समुदाय के लोगों के लिए कुछ करना चाहती थी।
उसी दौरान मेरी मुलाक़ात यूथनेट के निदेशक से हुई। यूथनेट एक स्वयंसेवी संस्था है जो नागालैंड में युवाओं के लिए काम करती है और उन्हें नौकरी के बाजार के लिए ज़रूरी हुनर के साथ तैयार होने में उनकी मदद करती है। मैं कई सालों से इस संस्था के काम के बारे में सुन रही थी और फिर 2017 में मैंने जोखिम उठाने का फैसला कर लिया। मैं नागालैंड वापस चली गई और यूथनेट के नौकरी केंद्र एवं करियर विकास केंद्र में एक संचालन पर्यवेक्षक (ऑपरेशन सुपरवाइजर) के रूप में काम करने लगी। वर्तमान में मैं इन केन्द्रों के प्रबंधन का काम देखती हूँ।
नागालैंड का छोटा सा नौकरी-बाजार महामारी के कारण और अधिक सिकुड़ गया है।
नौकरी खोजने वाले लोग हमारे केन्द्रों में अपना पंजीकरण करवाते हैं और हम लोग उन्हें बायोडाटा लेखन, साक्षात्कार शिष्टाचार (इंटरव्यू एटीकेट) और इस तरह के कौशलों का प्रशिक्षण देते हैं। हम नौकरी दिलवाने में भी उनकी मदद करते हैं। हम लोग विभिन्न प्रकार के लोगों के साथ काम करते हैं—जिसमें निरक्षर लोगों से लेकर स्नातक (बीए) की पढ़ाई करने वाले शामिल हैं।
सुबह 10.00 बजे: मैं अपने दिन की शुरुआत सहकर्मियों, नियोक्ताओं और नौकरी खोजने वाले लोगों से मिले ईमेल को देखने से करती हूँ। एक उत्साही सहकर्मी ने हमारी टीम को एक ईमेल भेजा है जिसमें उसने नागालैंड में युवाओं के स्व-रोजगार को लेकर अपने विचार रखे हैं। आजकल हमारी कोशिश का मुख्य केंद्र कोविड-19 के कारण पैदा हुई नौकरी के संकट से निबटना है। नागालैंड का छोटा सा नौकरी-बाजार महामारी के कारण और अधिक सिकुड़ गया है। इसलिए हमारी टीम आम ढर्रा से बाहर निकलने और रोजगार अवसर के निर्माण के नए तरीके के बारे में सोचने की कोशिश कर रही है। यह कहने की जरूरत नहीं है कि इसने हमारे काम करने के तरीके को भी बदल दिया है।
महामारी के पहले हम लोग स्कूल और कॉलेजों में जाकर छात्रों से बात करते थे और करियर के चुनाव संबंधी उनके सवालों का जवाब देने और मदद करने की कोशिश करते थे। कुछ छात्रों का कहना था, “मैं 12वीं कक्षा के बाद पढ़ाई नहीं करना चाहता हूँ। मैं अभी पैसे कमाना चाहता हूँ।” हम ऐसे लोगों को समझाते हैं और यह सलाह देते हैं कि अधिक शिक्षा हासिल करने से रोजगार के अवसर भी बढ़ जाते हैं।
2020 में जब लॉकडाउन की घोषणा हुई तब हमें लगा था कि यह एक से दो महीने तक रहेगा। कर्मचारियों के हितों पर महामारी के प्रभाव से निबटने के लिए हमने एक महीने तक अपने काम को रोक दिया था। हालांकि हमें जल्द ही इस बात का एहसास हो गया कि हमें इसके बीच में ही काम करना पड़ेगा। हमारा दफ्तर कई महीनों तक खुला हुआ था और हमारी टीम लोगों से आमने-सामने मिलती थी, लेकिन प्रशिक्षण सत्र से जुड़े कामों का आयोजन ऑनलाइन ही किया जाता था।
सुबह 11.00 बजे: मैंने प्रदर्शन (प्रेजेंटेशन) और संवाद (कम्यूनीकेशन) कौशल पर प्रशिक्षित करने के लिए नौकरी खोजने वाले एक समूह के साथ 90 मिनट वाले एक वीडियो सत्र में हिस्सा लिया। नए आने वाले लोग खुद को नौकरी के बाजार के लिए तैयार मानते हैं। इसलिए अक्सर मुझे उन्हें विस्तार से समझाना पड़ता है कि नए कौशल सीखना बहुत ही जरूरी है। वह चाहते हैं कि पहली नौकरी से उन्हें 15 से 20,000 रुपए का वेतन मिले, वहीं ज़्यादातर नियोक्ता नए आए लोगों (फ्रेशर) को 6 से 7,000 रुपए देना चाहते हैं। ज्यादा वेतन के लिए नियोक्ताओं को अधिक अनुभवी लोगों की चाह होती है। हमनें पाया कि बीच का रास्ता ऐसे फ्रेशर को तैयार करना है जिनके पास कौशल हो।
नागालैंड का नौकरी बाजार परंपरागत रूपरेखा से निकलकर अधिक पेशेवर हो गया है, इसलिए नौकरी खोजने वालों को इसके मांग के अनुकूल तैयार होने की जरूरत है। ऐसे कई नवागंतुक (फ्रेशर) हैं जिन्होनें कंप्यूटर की पढ़ाई की है लेकिन अगर आप उन्हें कंप्यूटर ऑन करने कहेंगे तो वे घबरा जाते हैं।
मैं यह कहना चाहती हूँ कि कोविड-19 ने हमारे काम की मुश्किलों को दोगुना कर दिया है। 2020 में पहले लॉकडाउन के दौरान जब हम लोग अपने प्रशिक्षण सत्रों का आयोजन ऑनलाइन करते थे तब यह एक आपदा की तरह था। प्रशिक्षुओं के लिए लैपटाप या मोबाइल पर प्रशिक्षण लेना बिलकुल नया अनुभव था और ऐसा ही कुछ हाल प्रशिक्षकों का भी था। कुछ सत्रों के अंत तक केवल एक या दो प्रशिक्षु ही बच जाते थे। उसी दौरान हमें इस बात का एहसास हुआ कि हमें बाहरी मदद की जरूरत है। हमनें क्वेस्ट अलायंस नाम के एक स्वयंसेवी संस्था से संपर्क किया जिन्होनें स्व-प्रशिक्षण और डिजिटल प्रशिक्षण के क्षेत्र में कई सालों तक काम किया है। उन्होनें इस अज्ञात क्षेत्र में रास्ता बनाने और इससे बाहर निकलने में हमारी मदद की। दूसरी चीजों के साथ हमने यह भी सीखा कि चूँकि आभासी बातचीत में लोगों का ध्यान कम समय के लिए ही केन्द्रित हो पाता है इसलिए ऑनलाइन प्रशिक्षण सत्र बहुत लंबे नहीं हो सकते हैं। राज्य की कमजोर इंटरनेट कनेक्टिविटी को ध्यान में रखते हुए हमने सत्रों की रिकॉर्डिंग शुरू कर दी। हम लोग व्हाट्सएप के माध्यम से अपने प्रशिक्षुओं को ये रिकॉर्डिंग भेज देते हैं ताकि वे अपनी सुविधा के अनुसार इसे देख सकें।
दोपहर 1.00 बजे: 30 मिनट के आराम के बाद शुरू होने वाले प्रशिक्षण के दूसरे सत्र में, आमतौर पर मैं एक विशेष व्याख्यान का आयोजन करती हूँ जिसमें हम लोग विषय संबंधी विशेषज्ञ या उद्यमियों को बोलने के लिए आमंत्रित करते हैं। पहले हम अपने प्रशिक्षुओं को उद्योग परिसर में लेकर जाते थे लेकिन अब इस सत्र का आयोजन भी हमें ऑनलाइन ही करना पड़ता है।
कर्मचारियों को उनके अधिकारों के प्रति सजग करना बहुत महत्वपूर्ण है।
हम लोग अपने प्रशिक्षुओं को सही सवाल तैयार करने के लिए कहते हैं और एक कर्मचारी के रूप में उनके अधिकारों के प्रति उन्हें सजग करते हैं। कर्मचारियों को उनके अधिकारों के प्रति सजग करना बहुत महत्वपूर्ण है। आपको भरोसा नहीं होगा कि कई बार हम लोगों ने किसी व्यक्ति को एक कंपनी में काम दिलवाया और बाद में हमें पता चला कि उसके साथ वहाँ नाइंसाफी हुई। कर्मचारियों को कम वेतन दिया जाता है और उनसे उम्मीद की जाती है कि वे विभिन्न प्रकार की जिम्मेदारियाँ उठाएँ। हम नियोक्ता के साथ ऐसे समझौता ज्ञापन (एमओयू) पर हस्ताक्षर करते और करवाते हैं जिसमें श्रम कानून और अधिकारों की बात स्पष्ट रूप से लिखी होती है। इसके बावजूद भी, कई बार ऐसा होता है कि कर्मचारियों पर काम का बोझ बढ़ा दिया जाता है क्योंकि जिम्मेदारियों का वितरण स्पष्ट नहीं होता है। पिछले साल हमारे द्वारा प्रशिक्षित एक आदमी की नौकरी एक रेस्तरां में मैनेजर के रूप में लगी थी और अंत में उससे बर्तन धोने का काम करने के लिए कहा गया। ऐसे मामलों में हम नियोक्ताओं से संपर्क करते हैं और उन्हें बताते हैं कि उनके द्वारा हस्ताक्षर किए गए समझौते के अनुसार उनका यह बर्ताव गलत है। हमें दोनों ही पक्षों को पेशेवर शिष्टाचार सिखाना पड़ता है।
नागालैंड एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था है, जहां निजी क्षेत्र एक नई अवधारणा है। ज़्यादातर व्यापारों का मालिक कोई न कोई परिवार है और इनका संचालन भी उन्हीं परिवार द्वारा होता है। अपर्याप्त वेतन, बेहिसाब काम के घंटे, नौकरी की अनुचित ज़िम्मेदारी जैसी खराब प्रथाओं के कारण इन क्षेत्रों में कर्मचारियों के साथ होने वाले अत्याचार का दर ऊंचा होता है। हम लोग उद्योग के लोगों को उत्कृष्ट शिष्टाचार सिखाने के साथ नियोक्ता और कर्मचारी के बीच विश्वास का रिश्ता बनाने के बारे में भी सिखाने की कोशिश करते हैं। खुदरा बाजार के विकास और बिग बाज़ार, रिलायंस ट्रेंड्स, और वेस्टसाइड जैसे बड़े और स्थापित खिलाड़ियों के इस लड़ाई में प्रवेश के बाद हमने पाया है कि अत्याचार के दर में कमी आई है। इससे हमें यह बात समझ में आती है कि अगर व्यवस्था सुचारु ढंग से काम करे तो कर्मचारी लंबे समय तक जुड़े रहते हैं।
दोपहर 3.00 बजे: हमारी साप्ताहिक टीम-मीटिंग शुरू हो गई है और हम लोग उस कार्यक्रम के प्रदर्शन पर चर्चा कर रहे हैं जिसकी शुरुआत कुछ महीने पहले युवाओं को स्व-रोजगार बनने में उनकी मदद करने के लिए की गई थी। इस तरह के कार्यक्रम आज की जरूरत बन चुके हैं। महामारी के दौरान, अन्य राज्यों में काम करने वाले कई युवाओं ने अपनी नौकरियाँ छोड़ दी और नागालैंड वापस चले गए। हालांकि उनमें से कई अब वापस लौट गए हैं लेकिन बहुत सारे युवाओं ने नागालैंड में ही रुकने का चुनाव किया है और उनके लिए नौकरी ढूँढने में हमें कठिनाई हो रही है।
युवाओं को सुनने और उनसे सीखने, उनकी इच्छाओं को समझने और बेहतर आजीविका के लिए उन्हें प्रेरित करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है।
हमारे डाटाबेस में 600 अधिक ऐसे लोग हैं जो नौकरी ढूंढ रहे हैं। हम यह समझते हैं कि कई कंपनियों के बंद हो जाने के कारण उन्हें पारंपरिक तरीकों से नौकरियाँ नहीं मिल सकती हैं। और हम लोग सिर्फ नौकरी ढूँढने वालों की ही नहीं बल्कि नौकरी देने वालों की भी मदद करना चाहते हैं। इस बात को ध्यान में रखते हुए, हमनें ‘नॉकडाउन द लॉकडाउन’ नाम से एक कार्यक्रम शुरू किया। इस कार्यक्रम में नौकरी ढूँढने वालों को छोटे स्तर के उद्यमियों में बदलने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। हमनें एक प्रतियोगिता का आयोजन किया जिसमें नौकरी ढूँढने वालों को नए उद्योग शुरू करने के उनके विचारों को पेश करने के लिए आमंत्रित किया गया। हम लोगों ने छ: समूहों का चुनाव किया और प्रत्येक को व्यापार चलाने के उद्देश्य से 45 दिनों के लिए 10,000 रुपए दिये। लोग कई नए विचारों के साथ हमारे पास आए थे। हमारी टीम ने स्थानीय पाइनवूड की लकड़ी से डाईनिंग टेबल और कुर्सी बनाई और बेचा, और हमें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि महज 45 दिनों में उन लोगों ने 2 लाख की कमाई की! इस तरह की शुरुआत से न केवल नौकरी ढूँढने वालों में आत्मविश्वास जगा बल्कि हमरे टीम का उत्साह भी बढ़ा।
शाम 4.30 बजे: मैं दफ्तर में अपना काम ख़त्म करके घर की तरफ बढ़ती हूँ। थोड़ी देर आराम करने के बाद मैं अपने अगले दिन के सत्रों की तैयारी में लग जाती हूँ। मैं आत्मसंतुष्ट नहीं बनना चाहती हूँ और न ही प्रशिक्षण के दौरान एक टेप रिकोर्डर की तरह काम करना चाहती हूँ। इसलिए शाम में अक्सर अपना समय युवाओं को प्रशिक्षित करने के नए तरीकों को ढूँढने में लगाती हूँ। मैं यह भी कोशिश करती हूँ कि समय की मांग के अनुसार तैयार रहूँ ताकि मेरे सत्र प्रासंगिक और विषय से संबंधित हों।
युवाओं को सुनने और उनसे सीखने, उनकी इच्छाओं को समझने और बेहतर आजीविका के लिए उन्हें प्रेरित करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। हालांकि अब मैं दो विभागों के प्रबंधन का काम संभालती हूँ, फिर भी युवाओं के साथ काम करने से मुझे प्रेरणा मिलती है और मैं आगे बढ़ती हूँ।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
मेरा नाम लक्ष्मीप्रिय साहू है और पिछले तीन वर्षों से मैं उड़ीसा के नयागढ़ जिले के रानकडेउली गाँव में एक कृषि मित्र के रूप में काम कर रही हूँ। मेरी मुख्य भूमिका इस क्षेत्र के किसानों के साथ मिलकर जैविक खेती को बढ़ावा देना है। मैंने फ़ाउंडेशन फॉर इकोलॉजिकल सेक्यूरिटी (एफ़ईएस) के सहयोग से आयोजित ओड़ीसा लाईवलीहूड मिशन (ओएलएम) से टिकाऊ खेती का प्रशिक्षण लिया था। मेरा प्रशिक्षण मुख्य रूप से चार क्षेत्रों में हुआ था जिसमें बीज सुधार (अंकुरण, चुनाव और उपचार), मिट्टी का स्वास्थ्य, रोग प्रबंधन और बीजों की कटाई और भंडारण शामिल है।
कृषि मित्र के रूप में काम करने से पहले मैं एक घरेलू महिला थी। मेरा ध्यान इस ओर गया कि हम अपनी फसलों को उगाने में बहुत अधिक मात्रा में अजैविक खाद का इस्तेमाल करते हैं। इससे फसल तो अच्छी होती है लेकिन साथ ही यह गाँव के हमारे युवाओं तक को भी मधुमेह (डायबिटीज़) और रक्त-चाप (ब्लड-प्रेशर) जैसी बीमारियों की चपेट में ला देती है। मैं नहीं चाहती कि जब मेरे बच्चे बड़ें हों तो वे खेती में लगातार इस्तेमाल होने वाले रसायनों की वजह से बीमारियाँ का शिकार हो जाएँ। मैं अपने बच्चों के भविष्य को सुरक्षित करना चाहती थी और यही वजह थी जिसने मुझे कृषि मित्र के रूप में काम करने के लिए प्रेरित किया था। एक कृषि मित्र के रूप में मैं जैविक खेती के उस अभ्यास को एक हद तक वापस लाना चाहती हूँ जिसका पालन हमारे पूर्वज किया करते थे। यह खेती का एक ऐसा स्वरूप है जो हमें सिर्फ खाना ही नहीं देगा बल्कि स्वस्थ भी रखेगा।
जब हम अपने लिए खुद ही सब्जियाँ उगा सकते हैं तो हमें बाहर से जहरीली सब्जियाँ खरीदने की क्या जरूरत है?
हालांकि मेरे समूह में 60 किसान हैं लेकिन मैं वास्तव में रानपुर प्रखण्ड के लगभग 150 किसानों के साथ काम करती हूँ। मेरा ज़्यादातर काम छोटे और हाशिये पर जी रहे किसानों और विधवाओं के साथ होता है। ओएलएम कई सारी स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) के साथ काम करता है और उनके माध्यम से ही मैं उन परिवारों तक पहुँचती हूँ जो पोषण संबंधी या कम आय जैसी समस्याओं से जूझ रहे होते हैं। मैं औरतों को बीज देती हूँ और पौष्टिक बगीचों को तैयार करने के लिए उन्हें प्रशिक्षित करती हूँ, जहां वे अपने इस्तेमाल के लिए विभिन्न प्रकार की सब्जियाँ उगाती हैं। जब हम अपने लिए खुद ही सब्जियाँ उगा सकते हैं तो हमें बाहर से जहरीली सब्जियाँ खरीदने की क्या जरूरत है? जब हमने एक साथ काम करना शुरू किया था तब मेरे एक औरत होने की वजह से पुरुष किसान अक्सर मेरी बातों को सुनने से मना कर देते थे। उनका कहना था कि वे अजैविक खादों का प्रयोग जारी रखेंगे क्योंकि इससे फसलों की उपज अधिक होती है और उनके परिवार की जरूरतों को पूरा करने में मदद मिलती है। मैंने उन्हें यह समझाने की कोशिश की कि इससे हमें कई तरह की बीमारियाँ हो जाती हौं और उन्हें यह सुझाव दिया कि वह मेरी इस सलाह को अपनी जमीन के छोटे से हिस्से पर की जाने वाली खेती के लिए लागू करके देखें—लेकिन उन्होंने मना कर दिया।
उनकी इस जिद को देखते हुए मैंने अपनी रणनीति में बदलाव लाने का फैसला किया और स्थानीय एसजीएच में काम कर रही औरतों से संपर्क करना शुरू कर दिया। मैं हर दिन अलग-अलग एसजीएच बैठकों में शामिल होती थी और अजैविक खेती से होने वाली बीमारियों और उसकी लागत के बारे में लोगों को जागरूक करती थी। मैंने उन्हें यह बताया कि किस तरह स्थानीय रूप से उपलब्ध जैविक उत्पादों जैसे गाय का गोबर और नीम के पत्ते का इस्तेमाल खेती के लिए किया जा सकता है। इनके इस्तेमाल से हम न केवल उत्पादन की लागत को कम कर सकते हैं बल्कि बीमारियों की रोकथाम भी कर सकते हैं। धीरे-धीरे औरतों ने अपने पौष्टिक बगीचों के लिए जैविक खादों का इस्तेमाल शुरू कर दिया। जब उन्हें यह दिखने लगा कि इस तरीके से अच्छी पैदावार हो रही है तब उन लोगों ने अपने पतियों को भी जमीन के छोटे से टुकड़े पर इस तरीके से खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया।
लंबे समय की कोशिश के बाद मैं इस समुदाय के लोगों का भरोसा जीत पाई। शुरुआत में, लोग केवल 0.5–1 एकड़ जमीन पर ही जैविक खेती करते थे लेकिन आज की तारीख में मेरी पंचायत में 50 एकड़ से ज्यादा जमीन पर जैविक खेती की जाती है।
सुबह 9.00 बजे: मैं अपने घर के कामों से निबटकर दिन के पहले दौरे पर निकलती हूँ। हर दिन मैं अपने समूह के 4 से 5 किसानों से मिलती हूँ। हम लोग उन किसानों की हर तरह की समस्या पर चर्चा करते हैं चाहे वह बीमारी हो, कीड़ों की समस्या हो या फिर कीटों की। मेरे प्रशिक्षण के आधार पर हम लोग एक साथ मिलकर उस समस्या का समाधान खोजते हैं। अगर मैं समाधान को लेकर आश्वस्त नहीं होती हूँ तब उस स्थिति में मैं समस्या की तस्वीर लेकर उसे एफ़ईएस द्वारा आयोजित साप्ताहिक प्रशिक्षण सत्र में भेज देती हूँ। यहाँ आजीविका सहायता पेशेवर मेरे इन सवालों का जवाब देता है। अगर वे भी उस समस्या को नहीं सुलझा पाते हैं तब उस स्थिति में उन बैठकों में शामिल प्रखण्ड कृषि पदाधिकारी जैविक तरीकों का इस्तेमाल करके समाधान ढूँढने में हमारी मदद करता है। अगली बार किसान से मिलने पर मैं उसे उस समाधान के बारे में बता देती हूँ। मैं किसानों और अधिकारियों के बीच पुल की तरह काम करती हूँ।
आज मैं एक ऐसे किसान से मिलने जा रही हूँ जिसकी फसल को एफ़िड प्रकोप से नुकसान पहुँच रहा है। इससे निजात पाने के लिए मैंने उन्हें नीम और गाय के पेशाब के छिड़काव जैसे उपायों का सुझाव दिया है। अपने इस दौरे में मैंने ध्यान दिया कि इन उत्पादों के छिड़काव के बाद यह समस्या एक हद तक ख़त्म हो गई।
मैंने मिट्टी जांच में भी प्रशिक्षण लिया है। समय-समय पर किसानों से मिलने जाते समय मैं सॉइल किट रख लेती हूँ ताकि किसानों को उनकी जमीन पर इस्तेमाल होने वाले अजैविक खादों के हानिकारक प्रभावों के बारे में बता सकूँ। मैं उनकी मिट्टी की जांच करती हूँ और अगर उनकी मिट्टी में अम्ल का अनुपात बहुत अधिक होता है तब मैं उन लोगों को यह जानकारी देती हूँ कि वे इस तरह की मिट्टी में अनाज नहीं उगा सकते हैं। उसके बाद हमारा पहला काम खराब गुण वाले मिट्टी को हरे खाद या जैविक उत्पादों की मदद से ठीक करना हो जाता है।
सुबह 11.30 बजे: मैं किसानों के साथ काम करती हूँ ताकि उन्हें जैविक खेती के तरीकों का प्रशिक्षण दे सकूँ और इस विषय पर उनकी सोच को विकसित कर सकूँ।जब भी किसी तरह की नई चीज, तरीका या तकनीक आती है तो मैं उसका प्रदर्शन करके दिखाना चाहती हूँ, मैं किसानों को अपने प्रदर्शन वाली जगह पर लेकर आती हूँ जिसपर मैंने जैविक खेती से फसल उगाई है। शुरू करने से पहले मैं उन लोगों को मेरी फसलों को देखने और उसमें उन कीड़ों या रोग को खोजने की बात करती हूँ जो उन्हें अपनी फसलों में दिखते हैं। जब उन्हें कुछ नहीं मिलता है तब मैं इस अवसर का उपयोग उनसे जैविक खेती के अभ्यासों के बारे में बात करने के लिए करती हूँ और उन्हें बताती हूँ कि इसके इस्तेमाल से उनकी फसलों में होने वाले रोगों में कमी आएगी और उनके फसल की गुणवत्ता बेहतर होगी।
मेरी चिंता सिर्फ इतनी है कि इस प्रक्रिया को और अधिक टिकाऊ कैसे बनाया जाए।
मैं किसी भी नई तकनीक या तरीके का इस्तेमाल करने के लिए अपनी जमीन का प्रयोग करती हूँ और किसानों को उसके परिणाम दिखाती हूँ। पहले जब मैं जैविक खेती के तरीकों के फायदे के बारे में बोलती थी तब मेरी बातों का विश्वास कोई नहीं करता था। जब किसानों ने अपनी आँखों से इसके प्रभावों को देखा और उसका अनुभव किया तब जाकर उन्हें मेरी बातों पर भरोसा होने लगा और वे नई चीजों को करके देखने के लिए तैयार होने लगे। इस साल हम किसानों की मुख्य फसल धान के लिए रोपनी और आरोपण को बढ़ावा देने की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए मैंने अपनी ही जमीन पर पूर्व से पश्चिम की दिशा में कतारबद्ध रोपनी का काम शुरू कर दिया है और साथ ही सूरज की पर्याप्त रौशनी, मिट्टी को हवादार बनाना और समय-समय पर जैविक उत्पादों के इस्तेमाल को सुनिश्चित किया है। किसान अपनी आय के मुख्य स्त्रोत के साथ किसी भी तरह का जोखिम नहीं उठाना चाहते हैं लेकिन जब एक बार उन्हें फायदा दिखने लगेगा तब मेरा विश्वास है कि वे अपनी जमीन पर भी इस तरीके के इस्तेमाल की कोशिश शुरू कर देंगे।
हालांकि ज्यादा से ज्यादा किसानों को जैविक खेती की तरफ जाते देखना सुखद है। लेकिन साथ ही मैं इसे टिकाऊ बनाने की प्रक्रिया को लेकर चिंतित हूँ। वर्तमान में, कृमि खाद और अन्य जैविक उत्पादों की पूर्ति के लिए किसान हम लोगों पर निर्भर हैं। लेकिन जब मैं नहीं रहूँगी तब ये किसान इस प्रणाली को किस तरह बचाए रखेंगे? इसलिए मैंने उन्हें खुद से घर पर ही कृमि खाद, जीवमृत (जैविक द्र्वय खाद), बीजमृत (बीजों के उपचार के लिए) और अन्य प्रकार के खादों के निर्माण प्रक्रिया को सिखाना शुरू कर दिया है। कोविड-19 का लॉकडाउन कई मामलों में कठिन था, लेकिन इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए यह एक बहुत बड़ा कदम था। इस दौरान, किसानों के लिए बाजार से अजैविक खाद लेकर आना कठिन था, इसलिए मैंने इस अवसर का उपयोग उन्हें हांडी खाटा (बर्तन वाले खाद), अमृत पानी (एक प्रकार की उर्वरक और बीज अंकुरण खाद) आदि जैसी चीजें खुद से तैयार करने की विधि सिखाने में किया।
दोपहर 2.00 बजे: हर सप्ताह हमारे प्रखंड के 21 कृषि मित्र एक घंटे के एक रिफ्रेशर सत्र में हिस्सा लेते हैं जहां वे पहले सीखी गई चीजों और अपने संशय के स्पष्टीकरणों पर एक नजर डालते हैं। हम जो कुछ भी सीखते हैं उसे वापस लौटकर किसानों को सिखाते हैं। कोविड-19 के पहले हमारे प्रशिक्षण और सलाह के सत्रों में हम लोग आमने-सामने बैठकर बात करते थे। हालांकि, लॉकडाउन के बाद यह सब अब ऑनलाइन होता है। इन सत्रों में हिस्सा लेने के लिए हम लोग अपने स्मार्टफोन में जूम नाम के ऐप का प्रयोग करते हैं और हम लोगों को अपनी हाजिरी दर्ज करवाने और उसे सुनिश्चित करने के लिए एक क्यूआर कोड स्कैन करना पड़ता है।
जैविक खाद निर्माण प्रक्रिया के तरीकों, आवश्यक सामग्रियों आदि से जुड़े सभी दस्तावेज और पीडीएफ़ पीडीए पार्टीसिपेसन ऐप के माध्यम से उड़िया भाषा में हम तक पहुंचाया जाता है। हम लोग इन दस्तावेजों को डाउनलोड कर सकते हैं और उन्हें व्हाट्सऐप के माध्यम से किसानों के साथ साझा भी कर सकते हैं।
शाम 4.00 बजे: मैं अपनी उस डायरी को अपडेट करने के लिए पंचायत जाती हूँ जिसमें मैं अपने कामों के बारे में लिखती हूँ। दरअसल मेरे काम में खेतों पर जाना, प्रशिक्षण, पौष्टिक बगीचों के लिए जागरूकता फैलाना और अन्य कई तरह की गतिविधियां शामिल होती हैं। इसलिए उस डायरी में मैं उस दिन किए गए विशिष्ट काम के बारे में लिखती हूँ जिसमें उस दिन मिलने वाले किसानों की संख्या, प्रशिक्षण में हिस्सा लेने वाले लोगों का ब्योरा, सहमत और असहमत होने वाले किसानों की संख्या और उनकी सहमति-असहमति के कारण आदि शामिल होते हैं।
मैंने उन्हें समझाया था कि किस तरह 5 रुपए की अजैविक खाद की खरीद का मतलब होता है 50 रुपये की बीमारी खरीदना।
आज मेरे प्रशिक्षण में कुछ पुरुष किसानों ने कहा कि खुद से जैविक उत्पादों के निर्माण में बहुत अधिक मेहनत लगती है; वहीं अजैविक खाद के मामले में वे बाजार से तैयार खाद लाकर उसका इस्तेमाल कर लेते हैं, और साथ ही जैविक खाद ज्यादा महंगा भी है। मैंने उनकी बात सुनी और मैं उनकी चिंता समझती हूँ। मैंने उन्हें समझाया था कि किस तरह 5 रुपए की अजैविक खाद की खरीद का मतलब होता है 50 रुपये की बीमारी खरीदना। इसके बदले अगर वे अभी मजदूरी पर थोड़े से अधिक पैसे निवेश करते हैं तो भविष्य में स्वास्थ्य पर होने वाले 50 रुपए के खर्चे को बचा सकते हैं। मैं उन्हें यह दिखाती हूँ कि किस तरह से अजैविक खेती से पैदा होने वाली उनकी फसल की मात्रा अधिक होती है लेकिन उनका कुल लाभ कम होता है क्योंकि रासायनिक सामग्रियों का रखरखाव महंगा होता है। अगर वे जैविक कृषि के तरीकों का इस्तेमाल करते हैं तो संभव है कि उनकी उपज में थोड़ी कमी आएगी लेकिन उनका कुल निवेश भी कम होगा। मैं उन्हें 1 एकड़ की जमीन पर जैविक खेती के तरीकों का इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित करती हूँ और उत्पादन में होने वाले खर्च के अंतर पर नजर बनाए रखने के लिए कहती हूँ।
शाम 5.00 बजे: मैं काम से घर वापस आ जाती हूँ। मैं जल्दी से अपने घर के रोज़मर्रा के काम खत्म करती हूँ और बैठकर कुछ देर सिलाई करती हूँ। जब मैं बहुत छोटी थी तभी मैंने सिलाई का काम सीखा था और अब अपने परिवार की मदद के लिए मैं कपड़े सिलती हूँ। मुझे इस काम में मजा आता है और इसलिए कृषि मित्र के काम के साथ मैं यह काम भी करती हूँ। कृषि मित्र की मेरी इस नौकरी में मेरा परिवार हमेशा मेरा साथ देता है। जब मैंने पहली बार काम करना शुरू किया था तब कोई भी मेरी बात नहीं सुनता था। लेकिन धीरे-धीरे और संयम के साथ मैंने लोगों का भरोसा और सम्मान जीत लिया है। इस तथ्य से मुझे खुशी होती है कि जैविक खेती से लोगों को लाभ होता है और यही कारण है जिससे मुझे प्रेरणा मिलती है और मैं ज्यादा से ज्यादा किसानों को जैविक खेती अपनाने के लिए प्रोत्साहित करती हूँ।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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मेरी उम्र 17 साल है। मैं कोलकाता में अपने माँ-बाप और पाँच भाई-बहनों के साथ रहती हूँ। मेरे पापा बढ़ई हैं और माँ दूसरों के घरों में काम करती हैं। मेरी बड़ी बहन की अब शादी हो चुकी है और उसके बाद की बहन बारहवीं कक्षा में विज्ञान की पढ़ाई कर रही है, और मैं ग्यारहवीं में हूँ और कॉमर्स पढ़ती हूँ। उसके बाद मेरी छोटी बहन है जो नौवीं में है और मेरा भाई सातवीं में। उसके बाद वाली मेरी बहन अभी पाँचवी में पढ़ती है।
हमारा घर रेलवे स्टेशन के पास है जिससे मुझे सियालदह में अपने स्कूल तक जाने में आसानी हो जाती है। मैं ट्रेन पकड़ती हूँ और पाँच मिनट में स्कूल पहुँच जाती हूँ। लेकिन कोविड-19 ने मेरी दिनचर्या को बदल कर रख दिया है। अब मैं पढ़ाई के लिए स्मार्टफोन का इस्तेमाल करती हूँ।
मुझे क्रिकेट खेलना पसंद है। मैं बचपन से ही अपने इलाके में खेलती आई हूँ लेकिन मैंने कभी भी यह नहीं सोचा था कि मैं राष्ट्रीय स्तर पर भारत का प्रतिनिधित्व भी करूंगी। यह 2019 की बाद है जब मैंने लंदन में होने वाले स्ट्रीट चाईल्ड क्रिकेट वर्ल्ड कप में हिस्सा लिया था। मैं उस टीम का हिस्सा थी जिसमें चार लड़के और चार लड़कियां थीं जिन्हें सेव द चिल्ड्रेन इंडिया द्वारा देश भर से चुना गया था। मैं अब भी उस टीम के साथ खेलती हूँ और उस टीम की उप-कप्तान हूँ।
सुबह 5.00 बजे: हालांकि अभी तक स्कूल खुले नहीं हैं लेकिन मैं सुबह जल्दी ही सोकर जग जाती हूँ। इस तरह से मैं ऑनलाइन क्लास शुरू होने से पहले घर के कामों में माँ की मदद कर सकती हूँ।
लेकिन ऑनलाइन क्लास आसान नहीं है। हमारे मोहल्ले के ज़्यादातर लोगों के पास एंडरोइड फोन नहीं है। मेरे घर में भी सिर्फ एक ही फोन है। जब यह उपलब्ध होता है तब मैं क्लास कर लेती हूँ। लॉकडाउन में यह विशेष रूप से मुश्किल था। पापा को बहुत ज्यादा काम नहीं मिल रहा था और कई बार तो ऐसा हुआ कि हम अपना फोन तक रिचार्ज नहीं करवा पाते थे।
सुबह 7.00 बजे: मैंने अंतत: उस टैली के बैलेंस का काम पूरा कर लिया जिसपर मैं कुछ दिनों से काम कर रही थी। मुझे अकाउंटींग का काम पसंद है। कुछ साल पहले तक इतिहास मेरा पसंदीदा विषय था। इसमें अच्छा अंक लाना बहुत आसान था! आप चाहे पाँच अंक के प्रश्न पर दो पेज का जवाब ही क्यों न लिख दें आपको चार या पाँच अंक मिल जाते थे। लेकिन फिर मैं अपनी बड़ी बहन हो देखती थी जिसने कॉमर्स विषय चुना था और पेंसिल और स्केच से बड़ी रेखाएँ बनाती थी और लैपटॉप पर काम करती थी। मुझे यह अच्छा लगता था और आठवीं कक्षा में मैंने यह फैसला किया कि अगर मैं 11वीं तक पढ़ पाई तो मैं भी कॉमर्स ही पढ़ूँगी।
ऑनलाइन क्लास में पढ़ाई जाने वाली चीजों को सीखना आसान नहीं है और यह क्लास लगातार नहीं होती है। जब स्कूल की पढ़ाई नहीं होती है या जल्दी खत्म हो जाती है तब मैं पास के मैदान में जाकर अपने दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलती हूँ। मैं भैया लोगों के साथ बचपन से खेलती आई हूँ। शुरुआत में वह मुझे सिर्फ फील्डिंग का मौका ही देते थे। बाद में मैं बल्लेबाजी और गेंदबाजी भी करने लगी। मुझे बल्लेबाजी बहुत ज्यादा पसंद है लेकिन अब मैं एक ऑल-राउंडर हूँ।
दोपहर 12.00 बजे: मैं लगभग इसी समय घर आती हूँ। यह एक पुरानी आदत है। जब स्कूल खुला था तब मैं ट्रेन पकड़कर दोपहर तक घर वापस आ जाती थी। मैं और मेरे भाई-बहन घर के कामों में माँ की मदद करते हैं और फिर हम लोग साथ में दोपहर का खाना खाते हैं।
हालांकि, चीजें बेहतर हुई हैं क्योंकि अभिभावकों ने यह समझना शुरू कर दिया है कि हम किसी का नुकसान नहीं चाहते। उनमें से कई लोग अब हमारी बैठकों में आने लगे हैं। अभिभावकों के साथ होने वाली आज की बैठक संतोषजनक है। उन लोगों में से कई ने मेरी इस बात पर सहमति जताई है कि लड़का और लड़की दोनों को शिक्षा का अधिकार है। यह एक बहुत बड़ी जीत है।
हाल तक मेरे इलाके की कई लड़कियों को शिक्षा हासिल करने की अनुमति नहीं थी। वह घर पर ही रहती थीं और उनके भाई घूमने-फिरने, खेलने या स्कूल जाने के लिए बाहर निकलते थे।
उसके बाद मैं ड्रीम एक्सिलेटर लघुपरियोजना पर काम करने के लिए बाहर निकलती हूँ जो बच्चों के अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर की जाने वाली एक पहल है। यह परियोजना 2020 में शुरू हुई थी और इसे यह नाम इसलिए दिया गया था क्योंकि यह प्रत्येक बच्चे के सपने और उन सपनों को आगे ले जाने के विषय पर ध्यान देता है। मैंने फैसला किया कि मैं लोगों से लैंगिक मुद्दों पर बात करना चाहती हूँ। मैं उनसे इस विषय पर बात करना चाहती हूँ कि कैसे लड़कियों और लड़कों के साथ भेदभाव होता है। सेव द चिल्ड्रेन के माधबेन्द्र सिंह रॉय के साथ हम लोग इलाके के कई घरों में जाते हैं और लैंगिक भेदभाव के बारे में अभिभावकों से बातचीत करते हैं। हम लोग उनके बच्चों को हमारी बैठकों में भेजने के लिए भी कहते हैं। शुरुआत में कई अभिभावकों ने हमारी बात को अनसुना कर दिया था। वह हमें बच्चा कहकर बगल कर देते थे। बाकी के लोग हमारी बातें सुनते थे और इससे सहमत थे कि लैंगिक भेदभाव है लेकिन उनका यह भी कहना था कि वे इस तरह का भेदभाव नहीं करते हैं इसलिए उन्हें अपने बच्चों को इस तरह की बैठकों में भेजने की जरूरत नहीं है।
स्कूल की पढ़ाई छोड़ने वाले बच्चों में से एक बच्चे का हम लोगों ने पुनर्नामांकन करवाया है।
समस्या यह है कि इलाके में लड़कियों का सरकारी स्कूल सिर्फ कक्षा आठ तक ही है। चूंकि कक्षा आठ तक की शिक्षा मुफ्त है इसलिए अभिभावक तब तक उन्हें पढ़ने देते हैं। लेकिन नौवीं कक्षा के बाद पैसे का भुगतान करने की वजह से वे अपनी लड़कियों को स्कूल नहीं भेजते हैं। अभिभावकों से की गई हमारी बातचीत से इसमें मदद मिली है। अब कम से कम उनकी सोच में बदलाव आ रहा है। स्कूल छोड़ चुके बच्चों में से एक या दो का पुनर्नामांकन हमारे द्वारा करवाया गया है।
दोपहर 2.00 बजे: आज मुझे बच्चों के एक समूह से भी मिलना है। हमनें काफी शुरुआत में ही यह फैसला कर लिया था कि हम लोग माँ-बाप से अलग सिर्फ उनके बच्चों से मुलाक़ात करेंगे। हमें यह अहसास हुआ कि बच्चे वही कहते हैं जो उन्हें दिखता है। बड़े लोग उतना खुलकर अपनी बात नहीं करते हैं। इसका कारण या तो शर्म है या फिर वे अपने घर की बात को सबके सामने नहीं लाना चाहते हैं। अलग से बात करने पर बच्चे अपनी समस्याओं और लैंगिक मुद्दों पर बात करते हैं।
इन बैठकों में हम लोग लिंग-आधारित भेदभाव पर बात करते हैं और इसे अपने आसपास घटित होने से रोकने पर चर्चा करते हैं। भले ही यह हमारे घर की बात ही क्यों न हो। इसलिए अगर आप एक लड़का हैं और आपके माँ-बाप आपकी बहन के साथ बुरा बर्ताव करते हैं तब आपको उन्हें यह बताना चाहिए कि वे आप दोनों को एक नजर से देखें क्योंकि दोनों के पास एक से अधिकार हैं। हम लोग उन्हें यह बताते हैं कि भेदभाव सही नहीं है। हमारी बातों को समझने के लिए आमतौर पर एक दिन काफी नहीं होता है इसलिए हम कई दिन तक ऐसी बैठकों का आयोजन करते हैं। एक हद तक हमारे इलाके में होने वाले भेदभाव में कमी आई है।
जब हमनें इसे शुरू किया था तब बहुत सारे बच्चों ने लिंग और इस आधार पर होने वाले भेदभाव के बारे में सुना भी नहीं था। इसलिए हमनें कुछ विषयों की सूची तैयार की जिसमें लिंग क्या है, जो भी है वह ऐसा क्यों है और कैसी जगहों पर लिंग संबंधी समस्याएँ देखने को मिलती हैं, आदि शामिल हैं। हमनें लिंग को बताने वाले 20 सवालों का एक सर्वे फॉर्म बनाया। इस फॉर्म में यह बताया गया है कि लड़कियों और लड़कों के बीच होने वाले भेदभाव की भूमिका क्या है और हम इससे सहमत क्यों नहीं हैं। हमनें 20 बच्चों का चुनाव करके उन्हें इन मुद्दों पर प्रशिक्षित किया। इसके बाद, उनमें से प्रत्येक बच्चे ने अपने इलाके के 10 बच्चों का चुनाव किया और उनसे और उनके परिवार वालों से लिंग-आधारित होने वाले भेदभाव के बारे में बातचीत की। इस तरह से हमारा संदेश 200 घरों तक पहुंचा।
शाम 4.00 बजे: मैं दोबारा खेलने के लिए बाहर जाती हूँ। यह मेरे दिन का सबसे अच्छा हिस्सा होता है। आज पड़ोस के एक चाचा ने टिप्पणी करते हुए कहा कि लड़कियों को लड़कों के साथ नहीं खेलना चाहिए। लेकिन मुझे इसकी परवाह नहीं है कि लोग क्या कहते हैं।
जब मैं बड़ी हो रही थी तब मुझे अक्सर ऐसा लगता था कि काश मैं लड़का होती। लेकिन धीरे-धीरे मुझे यह बात समझ में आ गई कि मैं वह सबकुछ कर सकती हूँ जो लड़के करते हैं। जब मेरा चुनाव लंदन में होने वाले विश्व कप के लिए हुआ तब लोग सशंकित थे। उन्होनें मेरे माता-पिता से यह कहा कि क्रिकेट प्रशिक्षण की आड़ में स्वयंसेवी संस्थाएं मुझे उनसे दूर कर देंगी और मैं उनके पास लौटकर वापस कभी नहीं आऊँगी। लेकिन मेरे माँ और पापा ने मेरा साथ दिया था। वे डरे हुए भी थे और उनके साथ मैं भी, लेकिन मैं लोगों को गलत साबित करना चाहती थी। मुझे लगा कि अगर मैं अपने डर को हावी होने दूँगी तो कभी भी अपनी क्षमताओं के बारे में नहीं जान पाऊँगी और वे यही सब कहते रहेंगे जो आज कहते हैं।
मैंने अपने इलाके के गली के बच्चों के बारे बात की जिनके पास पहचान पत्र नहीं है और इसलिए वे स्कूल नहीं जा सकते हैं।
वर्ल्ड कप में चुने जाने के लिए मैंने बहुत अधिक मेहनत की थी। मैंने लंदन को सिर्फ टीवी पर देखा था। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं लंदन जाऊँगी। लेकिन मैं गई। और मुझे सभी मंत्रियों के सामने हाउस ऑफ कॉमन में बात करने का मौका भी मिला था। यह एक बहुत बड़ा अवसर था! मैंने अपने इलाके की गली के उन बच्चों के बारे में बात की जो पहचान पत्र नहीं होने के कारण स्कूल नहीं जा सकते हैं। और कैसे आधार कार्ड नहीं होने की वजह से उनके पास पहचान पत्र नहीं है। उन्हें किसी भी तरह का अवसर नहीं मिलता है और वे कहीं बाहर नहीं जा सकते हैं। मुझे वास्तव में यह सब अनुभव करके बहुत अच्छा लगा था।
शाम 6.00 बजे: अब घर जाने का समय हो गया है। हालांकि आज मैंने बहुत ज्यादा रन नहीं बनाए हैं लेकिन फिर भी हमारी टीम 30 रन से जीत गई है। अंधेरा हो चुका है। कुछ साल पहले तक किसी ने सोचा भी नहीं था कि लड़कियाँ शाम में इतनी देर तक खेल सकती हैं। माँ-बाप यह कहकर उन्हें जाने नहीं देते थे कि अंधेरे में बाहर जाना हमारे लिए सुरक्षित नहीं है। अब हम लोग उन्हें यह कहकर मना लेते हैं कि बिजली आने से अब रौशनी है। इसलिए अब आप देखेंगे कि हमारे इलाके की लड़कियाँ शाम में भी खेलने के लिए बाहर निकल जाती हैं।
मेरे लंदन यात्रा से लोगों की सोच में भी बदलाव आया है। इलाके के सभी लोगों को हम पर गर्व है। अब उन्हें इस बात पर भरोसा है कि लड़कियाँ भी कुछ कर सकती हैं। लोग हमें गंभीरता से लें इसके लिए हमें क्रिकेट को गंभीरता से लिया। इस खेल ने मुझे बहुत कुछ सिखाया है। सबसे जरूरी सीख यह है कि अकेले कुछ भी नहीं किया जा सकता है। आपको अच्छे परिणाम तभी मिलते हैं जब आप एक टीम के रूप में काम करते हैं।
मैंने अपने ड्रीम एक्सिलेटर लघुपरियोजना पर काम करने के दौरान भी बहुत कुछ सीखा है, और मैं लोगों की सोच को बदलने के लिए लगातार काम करना चाहती हूँ। मैं लोगों को यह समझाना चाहती हूँ कि लड़कियाँ भी कम नहीं हैं। लेकिन यह सबकुछ यहाँ ख़त्म नहीं हो सकता है। अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है। उदाहरण के लिए, आसपास रहने वाले तीसरे लिंग के लोगों को हमारे मोहल्ले में स्वीकृति नहीं मिली है। हमारे समाज में यह एक पुरानी परंपरा है जिसके तहत लड़के और लड़कियों को शामिल किया गया है लेकिन तीसरे लिंग के लोगों को नहीं। हमारे द्वारा निर्मित समाज उनके साथ भेदभाव करता है और उन्हें अपने से अलग समझता है।
इसलिए मैं इस काम को करती रहूँगी। और मैं क्रिकेट के अपने खेल को भी जारी रखूंगी। मैं बड़ी होने के बाद क्या बनूँगी? पहले मैं एक शिक्षक बनना चाहती थी- एक अच्छी दिल वाली शिक्षक। लेकिन अब जब मैं कॉमर्स की पढ़ाई कर रही हूँ मुझे लगता है कि मैं इससे संबंधित कुछ करूंगी जैसे कि बैंकिंग।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
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