2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में 2.68 करोड़ से अधिक विकलांगजन (पीडब्ल्यूडी) हैं। दिव्यांगजन अधिकार (आरपीडब्ल्यूडी) अधिनियम, 2016, सरकार पर ऐसे प्रभावी उपाय करने की जिम्मेदारी डालता है जो विकलांगजनों के लिए समान अधिकार सुनिश्चित कर सकें। इन उपायों के तहत विकलांगों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने की आवश्यकता होगी, जो रोजगार के सीमित अवसरों, विकलांगता के कारण होने वाले अतिरिक्त ख़र्चों, आर्थिक लोच में आई कमी और अन्य संबंधित कारकों से निपटने में उनकी मदद करेगा।
सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने वाला, ऐसा ही एक उपाय इंदिरा गांधी राष्ट्रीय विकलांग पेंशन योजना (आईजीएनडीपीएस) है जिसे 2009 में लागू किया गया था। इस योजना के तहत 18–79 वर्ष की आयु वाले विकलांगजनों को 300 रुपये और 80 वर्ष से अधिक उम्र वाले विकलांगजनों को 500 रुपये विकलांग पेंशन देने का प्रावधान है। इस योजना की पात्रता हासिल करने के लिए, एक व्यक्ति का शरीर गंभीर रूप से (80 फीसद या अधिक) विकलांग होना चाहिए या फिर उसके शरीर में एक से अधिक विकलांगता होनी चाहिए और उसे गरीबी रेखा से नीचे आना चाहिए। पात्रता के सख्त मानदंड लागू करने और पीडब्ल्यूडी को पेंशन के रूप में न्यूनतम राशि प्रदान करने के बावजूद, 2023–24 के केंद्रीय बजट में इस योजना के लिए बहुत कम राशि आवंटित की गई। इस कमी के लिए राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों द्वारा योजना के तहत आवंटित राशि के उपयोग में आने वाली लगातार कमी को ज़िम्मेदार ठहराया गया।
आईजीएनडीपीएस के पात्रता मानदंड 95 फीसद से अधिक विकलांगता वाले लोगों को इसका लाभ उठाने से रोकते हैं। विकलांग लोगों के सर्वेक्षण (एनएसएस 76वें दौर) के विश्लेषण से पता चलता है कि केवल 5 फीसद विकलांगजन ही इस योजना के पात्रता मानदंडों को पूरा कर पाते हैं। यह निष्कर्ष उस स्थिति में और अधिक चिंताजनक बन जाता है जब हम इस बात को मानते हैं कि इस सर्वे में इस्तेमाल किया गया आंकड़ा 2011 की जनगणना से लिया गया है, जो विकलांगों की कम गिनती के लिए बदनाम है।
इसकी सीमित सफलता को समझने के लिए योजना की कुछ कमियों पर चर्चा करना जरूरी है।
विकलांगता की गंभीरता या संख्या के आधार पर लाभों को प्रतिबंधित करने का तर्क विकलांग व्यक्ति अधिनियम,1995 का पालन करता है। हालांकि हालिया आरपीडब्ल्यूडी अधिनियम, बेंचमार्क विकलांगता (40 फीसद) वाले लोगों के लिए विशेष प्रावधान प्रदान करता है, वहीं आईजीएनडीपीएस में इस बिंदु पर गौर नहीं किया जाता है। इसके अलावा, इस योजना में विकलांग बच्चों को भी शामिल नहीं किया गया है, और इसके कारण ऐसे बच्चों के माता-पिता के सामने आर्थिक चुनौतियां मुंह बाए खड़ी हो जाती हैं।
आधिकारिक सूत्रों के अनुसार, आईजीएनडीपीएस अभी भी, 2002 की गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) जनगणना का उपयोग, यह जानने के लिए करता है कि कौन से विकलांगजन (पीडब्ल्यूडी) इसके लाभों का लाभ उठाने के लिए पात्र हैं। राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम (एनएसएपी) के दिशानिर्देश पात्र लाभार्थी डेटाबेस को बनाए रखने के लिए राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों को जिम्मेदार मानते हैं। भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक द्वारा एनएसएपी के हाल में किए गये ऑडिट से यह बात सामने आई है कि 35 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में से केवल 11 राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों के पास लाभार्थियों की पहचान के लिए उपयोग की जाने वाली बीपीएल सूची का ब्यौरा उपलब्ध था। इन 11 राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में से केवल केरल और हरियाणा ने ही पात्र लाभार्थियों का डेटाबेस तैयार किया था। हालांकि 2011 की सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना (एसईसीसी) ने लाभार्थियों की बेहतर पहचान के लिए कई कल्याणकारी योजनाओं में पुरानी बीपीएल सूचियों को बदल दिया है। लेकिन आईजीएनडीपीएस ने इस नये बदलाव को अब तक नहीं अपनाया है। पुरानी बीपीएल सूची का पालन करने के कारण गंभीर विकलांगता वाले 84 फीसद विकलांगजन भी इससे बाहर हो गए हैं, जो सबसे न्यूनतम आय वर्ग से आते हैं।
केंद्र सरकार मासिक पेंशन के रूप में 300 रुपये प्रदान करती है, और साथ ही इस बात की सिफारिश करती है कि आरपीडब्ल्यूडी अधिनियम के अनुरूप विकलांगों को उचित सहायता प्रदान करने के लिए राज्यों को भी समान राशि का योगदान देना चाहिए। आदेश की कमी के कारण विभिन्न राज्यों में लाभार्थियों तक पहुंचने वाली राशि में बहुत अधिक अंतर है। उदाहरण के लिए बिहार में यह राशि 300 रुपये प्रति माह है जबकि आंध्र प्रदेश में 3,000 रुपये प्रति माह।
आरपीडब्ल्यूडी अधिनियम के अनुसार, विकलांगता से संबंधित अतिरिक्त लागतों को ध्यान में रखते हुए, विकलांगजनों को मिलने वाली पेंशन, अन्य लोगों के लिए लागू की गई समान योजनाओं की तुलना में कम से कम 25 फीसद अधिक होनी चाहिए। हालांकि, विधवाओं/बुजुर्गों के लिए समान योजनाओं द्वारा दी जाने वाली 200 रुपये प्रति माह की तुलना में, इस पेंशन के तहत अधिक राशि प्रदान की जाती है। लेकिन इसके बावजूद यह विकलांगता के अतिरिक्त खर्चों का वहन करने के लिए पर्याप्त नहीं है।
इस योजना का लाभ उठाने के लिए किसी व्यक्ति के पास आधार कार्ड और राज्य द्वारा जारी विकलांगता प्रमाण पत्र सहित कई अन्य उचित दस्तावेज होने चाहिए। लेकिन किसी विकलांगजन के लिए आधार कार्ड बनवाना ही एक कष्टदायक अनुभव हो सकता है क्योंकि आधार नामांकन केंद्रों में अक्सर ही व्हीलचेयर के लिए रास्ते नहीं बने होते हैं और कर्मचारियों के असहानुभूतिपूर्ण रवैये के कारण आवेदक को बार-बार केंद्रों का चक्कर लगाना पड़ता है।
विकलांगजनों पर किया गया एनएसएस सर्वेक्षण (2017–18) यह बताता है कि केवल 28.8 फीसद विकलांगजनों के पास ही सरकार द्वारा जारी विकलांगता प्रमाणपत्र है, जो पेंशन पाने के लिए एक आवश्यक दस्तावेज है। इसके अलावा, विकलांगजनों के लिए लागू की गई योजनाओं का लाभ उठाने के लिए विशिष्ट विकलांगता पहचान या यूनिक डिसेबिलिटी आइडेंटिटी (यूडीआईडी) को भी अनिवार्य किया गया है। यूडीआईडी प्राप्त करने से जुड़ी कठिनाइयों को देखते हुए अधिक से अधिक लोगों के इस योजना के लाभ से वंचित होने की संभावना जताई जा सकती है।
एनएसएपी के दिशानिर्देशों में, ग्रामीण विकास मंत्रालय (एमएमआरडी) ने इसका जिक्र किया है कि राज्यों को योजनाओं के सामाजिक ऑडिट के लिए अपने कुल बजटीय आवंटन का कम से कम 0.5 फीसद निर्धारित करना चाहिए। योजनाओं का सामाजिक ऑडिट संभावित लाभार्थियों द्वारा किया जाता है और इसे योजना की पारदर्शिता और जवाबदेही बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है। 2018 में, एमआरडी द्वारा जारी एक पत्र में कहा गया था कि राज्य/केंद्रशासित प्रदेश सामाजिक ऑडिट के नियम का पालन नहीं कर रहे थे।
कमियों के आधार पर, निम्नलिखित सुझाव दिये गये हैं ताकि इस योजना को विकलांगों के लिए अधिक लाभकारी बनाया जा सके।
विकलांगजनों के लिए राष्ट्रीय स्तर का एकमात्र वित्तीय सहायता कार्यक्रम होने के नाते, विकलांगता पेंशन योजना अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इस प्रकार, इसके कार्यान्वयन पर ध्यान केंद्रित करना और प्रभावी और सफल वितरण सुनिश्चित करना आवश्यक है। ऐसा करने से सतत विकास लक्ष्यों में निहित किसी को भी पीछे न छोड़ने के मूल्य को भी कायम रखा जा सकेगा।
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