स्टालिन दयानंद एक पर्यावरणविद हैं जो दो दशकों से महाराष्ट्र में आर्द्रभूमि (वेटलैंड) एवं जंगलों की सुरक्षा के लिए नागरिक आंदोलन खड़ा करने पर काम कर रहे हैं। पर्यावरण से जुड़ी क़ानूनी जानकारी, पर्यावरण की शिक्षा और जमीनी स्तर पर इसका संरक्षण करना उनके काम के प्रमुख आधार हैं। मुंबई में संरक्षण का काम करने वाली एक समाजसेवी संस्था वनशक्ति के निदेशक स्टालिन कई पर्यावरण अभियानों में सबसे आगे रहे हैं। इनमें आरे बचाओ आंदोलन (सेव आरे मूवमेंट),सिंधुदुर्ग के जंगलों को खनन से बचाने का विरोध, उल्हास नदी बचाओ परियोजना और नवी मुंबई में आर्द्रभूमि पर एक अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के निर्माण के खिलाफ विरोध शामिल है।
स्टालिन ने आईडीआर से बात करते हुए बताया है कि जन-आंदोलन खड़ा करने के लिए क्या-क्या करना पड़ता है, ऐसे आंदोलनों को ‘विकास विरोधी’ क्यों नहीं करार दिया जाना चाहिए, और क़ानूनी उपचार किसी भी पर्यावरणविद के लिए अंतिम सहारा क्यों है।
जलवायु परिवर्तन कुछ चुनिंदा लोगों तक ही सीमित नहीं रहने वाला है। अमीर वर्ग उपलब्ध संसाधनों की मदद से अपने ऊपर पड़ने वाले इसके प्रभाव को कम कर सकता है, लेकिन गरीब वर्ग -जो संख्या में अधिक हैं- वह पीड़ित ही रहेगा। जलवायु परिवर्तन से जुड़ा कोई भी फैसला या घटना एक बहुत बड़ी आबादी को प्रभावित करेगा। इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि समस्या के समाधान से सीधे तौर पर निपटने वाले लोगों को ही इसका प्रवक्ता बनाया जाए।
लेकिन समस्या यह है कि समाधान को लेकर लोगों में सहमति नहीं है। इसमें शामिल और इससे प्रभावित अलग-अलग लोग कभी भी एक जैसी सोच नहीं रखते हैं। इस असहमति के कारण वैश्विक स्तर पर लोग, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से लड़ने के लिए एकजुट नहीं हो पाते हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि आंदोलन में समाज के हर तबके का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जाए। इसमें विभिन्न सामाजिक आर्थिक वर्गों, अलग-अलग शैक्षणिक योग्यताओं और आजीविका के लिए विभिन्न प्रकार के साधनों का उपयोग करने वाले लोगों को शामिल करना महत्वपूर्ण है।
जब आरे बचाओ आंदोलन शुरू हुआ, तब हमारी आलोचना यह कहकर की गई थी कि यह एक ‘अंग्रेजी बोलने वाले लोगों का आंदोलन’ था। और फिर भी, पेड़ों को बचाने के लिए मेट्रो कार की शेड में घुसने वाले पहले लोगों में वे आदिवासी थे जिन्होंने कहा था कि ‘यह हमारा जंगल है; आप इसे हाथ भी नहीं लगा सकते हैं।’
आरे बचाओ आंदोलन में समाज के हर तबके के लोगों ने भाग लिया था। इनमें डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षक, अभिनेता, गृहणियां, छात्र और प्रोफेसर शामिल थे। और, उनका साथ देने के लिए मजदूर, मथाडी श्रमिक (सिर पर सामान ढोने वाले), मछुआरे, आदिवासी, छात्र, वरिष्ठ नागरिक, महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ने वाले संगठन और यहां तक कि राजनीतिक वर्ग भी खड़ा था।
आरे को बिल्डर्स की मदद करने के लिए बलि का बकरा बनाकर पेश किया गया था, और हमारे पास इसे साबित करने के लिए दस्तावेज भी हैं। लोगों ने इस बात को समझा और इसीलिए इसे बचाने को एकजुट हुए। इस आंदोलन की सफलता का कारण भी यही था। मुंबई जैसे शहर में, जहां सरकार या बिल्डरों के हाथ से 10 वर्ग फीट जमीन छुड़ा पाना भी एक मुश्किल काम है, वहां हमें 830 एकड़ जंगल सुरक्षित करने में कामयाबी हासिल हुई है। हम मेट्रो कार शेड निर्माण को नहीं रोक पाये, लेकिन आज के समय में जहां भी लोकतंत्र चरमरा रहा है, वहां लोक के लिए तत्काल जीत हासिल करना बहुत मुश्किल है। सरकार विरोध के हर स्वर को कुचलने के लिए दुष्प्रचार से लेकर डराने-धमकाने तक, सभी प्रकार के तरीकों का इस्तेमाल कर रही है और जो करना चाह रही है, उसमें सफल हो रही है।
साल 2014 में जब पहली बार पेड़ों को काटे जाने की खबर आई, तब स्कूल के बच्चों -जिनके लिए हमने पर्यावरणीय शिक्षा के सत्रों का आयोजन किया था – ने हम लोगों से आरे के बारे में पूछना शुरू किया। हमने उन्हें बताया कि जंगल को काटा जा रहा है और बच्चों ने कहा कि वे ऐसा होने से पहले उस जंगल को देखना चाहते हैं। इसलिए हम उन्हें वहां लेकर गये। वे पेड़ों पर चढ़े, उन्हें गले लगाया और वही पहला विरोध था, मुंबई में होने वाला पहला ‘चिपको’ आंदोलन था।
फिर यह आरे के आसपास रहने वाले लोगों के बीच फैल गया। वे इससे स्वयं को जोड़ पा रहे थे और उन्होंने इसके महत्व और मूल्य को समझ लिया था। उन लोगों ने ही दूसरे लोगों को इकट्ठा किया। प्रत्येक रविवार को धरना का आयोजन किया जाने लगा जिसके कारण धीरे-धीरे मुहिम की चर्चा होने लगी। हालांकि, यह एक बिल्कुल भी सुनियोजित आंदोलन नहीं था। हमने कल्पना भी नहीं की थी कि यह आंदोलन नौ वर्षों तक चलेगा।
कोई भी आंदोलन तभी सफल हो सकता है जब वह जमीनी हो और उसमें स्थानीय लोगों की भागीदारी हो।
इसकी सफलता को प्रभावित करने वाले कई कारकों में से एक कारक पुरानी यादें थीं। प्रदर्शनकारियों में 40 से 50 वर्ष की उम्र वाले बहुत सारे लोग थे जिनकी बचपन की यादें आरे के जंगलों से जुड़ी थीं। आप अपने बचपन के एक हिस्से को हमेशा ही बचाए रखना चाहते हैं, और इसलिए आप उन जगहों के बचाव में घरों से बाहर निकलते हैं। जब आप अपने साथ बच्चों को लाते हैं तो वे उस जगह से आपके जुड़ाव को देखते और महसूस करते हैं, उसके बाद स्वयं भी उस मुहिम का समर्थन करने लगते हैं। इस मामले में हम सौभाग्यशाली थे। यह आंदोलन एक ऐसे शहर में हो रहा था जहां के लोग आरे को आज भी एक जंगल और पिकनिक वाली जगह के रूप में याद करते हैं।
सफल नागरिक आंदोलन का एक अन्य उदाहरण रत्नागिरी जिले के नानार में किया गया आंदोलन था, जहां ग्रामीणों के विरोध के कारण प्रस्तावित तेल रिफाइनरी को दूसरे गांव, बारसु-सोलगांव में स्थानांतरित किया गया था। उन प्रदर्शनों में महिलाएं आगे थीं, और अंत में लोगों की जीत हुई। अब बारसु-सोलगांव के लोग भी रिफाइनरी के विरोध में संघर्ष कर रहे हैं।
क्या ये सभी प्रदर्शन विकास-विरोधी हैं? नहीं, बिलकुल भी नहीं हैं। क्योंकि आप अपनी परियोजनाएं ऐसी जगहों पर लेकर नहीं जा रहे हैं जहां लोगों के पास पानी नहीं है या वे अन्य सामाजिक-आर्थिक कठिनाइयों से पीड़ित हैं। इन परियोनाओं को उन जगहों पर लेकर जाना चाहिए और वहां के लोगों की मदद करनी चाहिए। इसके बजाय आप आत्मनिर्भर और शांतिपूर्ण तरीके से अपना जीवन बिता रहे लोगों के आर्थिक और सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचा रहे हैं। और आप इसे विकास का नाम देते हैं!
यदि आप चाहते हैं कि लोग किसी मुहिम के लिए आपको समर्थन दें, तो इसका कोई तय फार्मूला नहीं है; हर संदर्भ में अलग-अलग तरीकों की ज़रूरत होगी। लेकिन किसी भी आंदोलन की सफलता के लिए आवश्यक है वह ज़मीनी स्तर का हो और उसमें स्थानीय लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की जाए। कहने का मतलब यह है कि, मुझे लगता है कि यदि आपने सही जगह चोट की और आपका तरीका स्पष्ट है तो लोग आपके साथ आएंगे – जैसे कि ईमानदारी से बात करना और अपने दावों के समर्थन में सबूत पेश करना आदि।
शहर आज समुद्र के स्तर में वृद्धि, बढ़ते तापमान, प्रदूषण और ठोस अपशिष्ट प्रबंधन के कारण होने वाले जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से जूझ रहे हैं। आइए, सभी चार कारकों पर एक नजर डालते हैं। जब समुद्र धरती की तरफ़ बढ़ता है तो आप क्या करते हैं? आप उसे पीछे नहीं धकेल सकते हैं; आपको पीछे होना होगा। आपको समुद्र के पानी को अंदर आने और बाहर जाने के लिए जगह देनी होगी। लेकिन हम क्या कर रहे हैं? हम समुद्र के क्षेत्र में घुसे जा रहे हैं। हम तटीय सड़कों का निर्माण कर रहे हैं। तटीय सड़क लीवर सिरोसिस से पीड़ित किसी व्यक्ति को देशी शराब की बोतल थमाने जैसा है। तटों के साथ इससे बुरा कुछ नहीं किया जा सकता है। यदि यह सड़क इतनी ही जरूरी थी तो इसे शहतीर (बांस का बना एक ढांचा) पर बनाया जा सकता था। अब, यह तट पर दबाव बनाएगा और जिससे पानी शहर में प्रवेश करेगा और बाढ़ जैसी स्थिति पैदा होगी।
दूसरा कारक तापमान में लगातार हो रही वृद्धि है। आप इसका मुकाबला कैसे कर रहे हैं? वातावरण में गर्मी को बढ़ाने के लिए अधिक से अधिक पेड़ों को काटकर और कंक्रीट की सड़कें बनाकर?
इसके बाद बारी आती है प्रदूषण की। अगर आप झुग्गियों में जाकर देखेंगे तो वहां वेंटीलेशन, हवा के आवागमन की व्यवस्था नहीं है, ना ही खुली जगह है; लोग नालों के किनारे रह रहे हैं और बच्चे बीमारियों के साथ ही पैदा हो रहे हैं। मुंबई में सभी को सांस की समस्या है क्योंकि अंतहीन निर्माण और गाड़ियों की लगातार बढ़ती संख्या के कारण वातावरण में धूल की मात्रा बहुत अधिक है।
पानी के प्रदूषण की भी समस्या है। प्रकृति ने मुंबई को दो सुंदर वन्यजीव क्षेत्रों का आशीर्वाद दिया है, उसमें से एक है ठाणे क्रीक फ़्लैमिंगो सैंक्चुअरी जो रामसर स्थल है। इस अभ्यारण्य में 1.5 लाख पक्षी हैं। उनके नालों में क्या है? केवल नाले का पानी और प्लास्टिक। फिर भी वे पक्षी वहां लगातार बने रहने का प्रयास कर रहे हैं क्योंकि उनके पास रहने की एकमात्र वही जगह बची रह गई है। आप अपनी आर्द्रभूमि (वेटलैंड्स) खोते जा रहे हैं और बची हुई भूमि को प्रदूषित कर रहे हैं।
हमारे ठोस कूड़ा प्रबंधन की स्थिति कैसी है? भारत का सबसे बड़ा कचरा डंप कांजुरमार्ग डंपिंग ग्राउंड है, जिसे 120 हेक्टेयर आर्द्रभूमि पर बनाया गया है। कानूनन, नमक क्षेत्रों, तटीय विनियमन क्षेत्रों, आर्द्रभूमियों और मैंग्रोव के अंदर अपशिष्ट लैंडफिल के निर्माण पर प्रतिबंध है। लेकिन मुंबई के सभी डंपिंग ग्राउंड मैंग्रोव के अंदर हैं।
मैं कहूंगा कि आज जो कुछ भी बचा है वह न्यायपालिका के कारण ही बचा है। लेकिन न्यायपालिका को अभी बहुत कुछ करना है और फैसले उस गति से नहीं किए जा रहे हैं जिससे किए जाने चाहिए। यदि आप बहुत लंबे समय से भूखे हों और कोई आपको बिस्कुट का एक पैकेट दे देता है तो आप उसका एहसान मानते हैं। न्यायपालिका भी कुछ-कुछ समय पर हमें बिस्कुट का एक पैकेट थमा दे देती है और चूंकि हम बहुत लंबे समय से भूखे हैं इसलिए उसके प्रति आभार प्रकट करने लगते हैं।
एक अन्य प्रणालीगत कमी भी है – पर्यावरण मामलों की सुनवाई करने वाले लोग विशेषज्ञ नहीं हैं। पर्यावरणीय विवादों के लिए राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) नाम का एक विशेष निकाय है, जिसमें न्यायिक सदस्य होते हैं जो कानून के विशेषज्ञ होते हैं और ऐसे सदस्य होते हैं जिनके पास पर्यावरण मामलों में विशेषज्ञता होती है। लेकिन अक्सर ही एनजीटी के आदेशों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी जाती है और कई बार ऐसा होता है कि स्थगन आदेश (स्टे ऑर्डर) जारी कर दिए जाते हैं। उसके बाद इन मामलों की सुनवाई में बहुत लंबा समय लग जाता है और उन्हें रद्द कर दिया जाता है। मुंबई तटीय सड़क परियोजना का ही उदाहरण ले लीजिए। साल 2019 में, बॉम्बे उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति प्रदीप नंदराजोग ने बिलकुल सही कहा था कि यह एक ज़मीन हासिल करने वाली परियोजना थी, न कि एक बुनियादी ढांचा। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उनके आदेश को पलट दिया और बीएमसी से कहा कि वे सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के अधीन निर्माण के काम को आगे बढ़ा सकते हैं। यदि आप 10 साल बाद मामले की सुनवाई करेंगे और फिर आपको इस बात का एहसास होगा कि आपने कुछ गलत किया है तब आप तट के प्राकृतिक परिदृश्य को कैसे बरकरार रख पायेंगे?
यह सबसे अंतिम रास्ता है। हमारे लिए अदालत का दरवाजा खटखटाने का निर्णय लेना सबसे अधिक कष्टदायक होता है। लेकिन हम मानते हैं कि वहां आपको न्याय पाने का अवसर मिलता है। हालांकि, देर से मिला न्याय किसी काम का नहीं होता है। और पर्यावरण से जुड़े मामलों में समय ही मूल तत्व होता है। अदालत जाने से पहले हम सभी संभव उपाय करके देख लेते हैं – विनती करना, अधिकारियों से मिन्नतें करना। जब कुछ नहीं होता है तभी हम न्यायपालिका के पास जाते हैं। और अदालत जाने के बाद सबसे पहले आपको यह साबित करना पड़ता है कि इस मामले में आपका कोई निजी हित नहीं है, क्योंकि दूसरे पक्ष से सभी प्रकार के आरोप लगाए जाएंगे।
इससे भी बढ़कर, पैसे और सत्ता वाले लोग मुकदमों को लंबे समय तक खींचने के सभी तरीके जानते हैं और इस उम्मीद में होते हैं कि आप झुक जाएंगे। एक मामले में जंगल में खनन पर रोक लगाने के अदालती आदेश थे। अभी सुनवाई शुरू नहीं हुई थी, लेकिन सरकार ने काम शुरू करने के इरादे से जनसुनवाई की। जब हम अदालत के आदेश के साथ संबंधित अधिकारियों से मिलने गये तो उन्होंने मुस्कुराते हुए हमसे कहा, ‘आपलोग कब तक हमें रोकेंगे? हम दो या फिर 10 साल बाद फिर से आ जाएंगे। लेकिन खनन तो होगा।’
जलवायु परिवर्तन के बारे में चेतावनियां साल 2006 से ही आनी शुरू हो गई थीं। लेकिन 2030-40 तक जो होने की भविष्यवाणी की गई थी वह सब कुछ अभी ही हो रहा है। हम आराम से बैठकर यह नहीं कह सकते कि हमारे पास अभी भी एकजुट होकर काम करने का समय है। हम समय से बहुत पीछे हैं। हम अपने इस लगातार हो रहे पतन को रोकने का प्रयास भर कर रहे हैं। मुकदमेबाजी बहुत ही अच्छी चीज नहीं है। इसमें लगातार प्रयास करने और धैर्य बनाए रखने, दोनों चीजों की जरूरत होती है, और जब आप बार-बार अपने प्रयासों को विफल होता देखते हैं तो मोहभंग, अवसाद और क्रोध की स्थिति पैदा होने लगती है। लेकिन हमें दृढ़ रहने की जरूरत है। हम अपनी असाधारण सफलता से खुश हैं। यह कुछ भी न करने से बेहतर है।
लोग लंबी दौड़ के लिए तैयार नहीं हैं। उन्हें त्वरित परिणाम चाहिए, और वे अपनी चेतना को संतुष्ट करना चाहते हैं। वे हमसे सवाल करते हैं कि हमने इस मुद्दे को क्यों नहीं उठाया या उस मुद्दे का विरोध क्यों नहीं किया। हम उन्हें बताते हैं, आप अपने हिस्से का काम करिए, और यदि वह कारगर नहीं होता है तो हम आपकी मदद करेंगे। लेकिन हमसे यह उम्मीद मत कीजिए कि सभी मुद्दों के लिए हम ही संघर्ष करेंगे। लोग यह बताने के लिए हमसे संपर्क करते हैं कि उनके घरों के सामने के सदाबहार पेड़ों को काटा जा रहा है। लेकिन उनकी रुचि केवल उनके घर के आसपास के दृश्य तक ही सीमित होती है। हम उनसे पुलिस बुलाने के लिए कहते हैं। लेकिन वे ऐसा नहीं करते हैं। हम उनका डर समझ सकते हैं; लोगों को जिस हद तक डराया-धमकाया जा सकता है, वह बहुत ही चिंताजनक है।
पैसे, क्षमता, साहस और ताक़त की कमी के कारण पर्यावरण को लेकर व्यापक पैमाने पर सक्रियता नहीं आ पा रही है।
आरे बचाओ आंदोलन के दौरान लोगों को बेतरतीब ढंग से उठाया गया और हिरासत में लिया गया। पुलिस वाले विरोध कर रहे लोगों की वीडियो बनाते और उनसे पूछते, ‘आपको यहां किसने बुलाया था? आप कहां रहते हैं?’ एक आम आदमी इन सब पचड़ों में नहीं पड़ना चाहता है। मराठी में एक कहावत है, ‘शिवाजी जन्ममाला आण पाहिजे, पण आमचा घरात नाहीं।’ हम शिवाजी का जन्म तो चाहते हैं लेकिन अपने घर में नहीं। क्योंकि हम अपने बच्चों को उस जोखिम में नहीं डालना चाहते जो उस महान राजा ने उठाया था।
लोगों को आगे आने की जरूरत है लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। लंबे समय तक इस रास्ते पर चलने के लिए आपको संसाधन और बैंडविड्थ दोनों की जरूरत है। पैसे, क्षमता, साहस और ताक़त की कमी के कारण पर्यावरण को लेकर व्यापक पैमाने पर सक्रियता नहीं आ पा रही है।
जिस भी रास्ते से संभव हो हमें अपना संघर्ष जारी रखना चाहिए। लोग एक पौधा या बीजारोपण कर अपने मन और अपनी आत्मा को साफ करने का प्रयास करते हैं और फिर भूल जाते हैं। सबसे बुरी बात यही है। अगर आप उस पौधे से बात करने में समय लगाते हैं और उसे एक पेड़ में बदलते हैं तब आपकी कहानी कुछ और होगी। ऐसा कहा जाता है कि आपको उस पेड़ की छाया में बैठने का सौभाग्य मिलना चाहिए जो आपके द्वारा लगाए गए पौधे से बड़ा होकर बना है।
पर्यावरणविद् केवल न्यायिक सक्रियता या मुकदमेबाजी नहीं है। यह बहुत सी चीजों का मिश्रण है; इसका संबंध प्रकृति से जुड़ने से और इस रिश्ते को तार्किक अंत तक ले जाने से है। हर इंसान को व्यक्तिगत रूप से आत्मा के स्तर पर प्रकृति से जुड़ना चाहिए, ना कि केवल धार्मिक या राजनीतिक दलों कि मांग की पूर्ति के कारण। मेरा मानना है कि देश के प्रत्येक नागरिक को अपने जीवन का कम से कम दो साल संरक्षण के काम में लगाना चाहिए। आपका वही कर्म आपके साथ जाएगा।
निर्माण कैसे करें यह एक बहुत उपयुक्त प्रश्न है। सरकार ही प्रत्येक परियोजना पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना ही पूरी की जा सकती है। अगर आप एक बिंदु से दूसरे बिंदु तक जाना चाहते हैं, और आपके रास्ते में एक जंगल आता है तो आप पेड़ों को बिना छुए उसके ऊपर से जा सकते हैं। आप जमीन के 30 मीटर नीचे रेलवे लाइन बिछा सकते हैं, आप निश्चित रूप से उस जंगल को बिना छुए निकल सकते हैं। ढांचागत परियोजनाओं में पर्यावरण को ध्यान में रखा जाना चाहिए। यह हर किसी के लिए फायदे का सौदा हो सकता है। लेकिन इसे पूरा करने के लिए पैसे खर्च नहीं करने हैं। मानक बचाव यही है कि, ‘मैं इस जगह पर लगे 2,000 पेड़ काट रहा हूं और टिम्बकटू में 10,000 पौधे लगा रहा हूं।’ अगर बारिश यहां मुंबई में हो रही है तो मुझे मेरे छाते की जरूरत यहां है ना कि दिल्ली में।
पर्यावरण की कीमत पर विकास की बात हमारी व्यवस्था में बुरी तरह रच–बस गई है।
लेकिन जंगल से होकर जाने का कारण कभी भी सड़क की सुविधा नहीं होती; इसका संबंध जंगल को चीरने और उसके अंदर भूमि खंड बनाने से है। कानूनी रूप से यह बात स्पष्ट होनी चाहिए कि किसी भी निर्माण परियोजना के कारण पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचना चाहिए। हमारे देश का कौन सा कानून आपको पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने की अनुमति देता है? यहां तक कि वृक्ष अधिनियम भी एक संरक्षण अधिनियम है ना कि पेड़-काटने का अधिनियम। यह पर्यावरण संरक्षण अधिनियम है ना कि ‘विनाश अधिनियम।’ दुर्भाग्य से ‘सतत विकास’ शब्द एक विरोधाभास है। पर्यावरण की कीमत पर विकास की बात हमारी व्यवस्था में बुरी तरह रच-बस गई है। लेकिन हमेशा एक ऐसा समाधान होता है जिससे पर्यावरण को संरक्षित किया जा सकता है। फिर भी, उन तकनीकों को इस्तेमाल में नहीं लाया जा रहा है; पैसा जहां खर्च होना चाहिए वहां नहीं हो रहा है।
इन संशोधनों का बिल्कुल भी स्वागत नहीं किया जाना चाही; वे और अधिक विनाश को बढ़ावा ही देंगे।
संशोधनों में कहा गया है रक्षा क्षेत्रों को संरक्षित करने की आवश्यकता है। मेरा तर्क यह है कि आप अभी भी इंजीनियरिंग और डिज़ाइन के माध्यम से ऐसा कर सकते हैं। पर्यावरण में रहने वाले जीवों के निवास के विनाश को प्रासंगिक नहीं बना देना चाहिए। सरकार उन आवासों के आसपास के इलाक़ों में काम की अनुशंसा कर सकती थी, या फिर यदि उनका इरादा उनके वर्तमान आवास को छीनने का है तो वे कम से कम उन जानवरों को एक उपयुक्त वैकल्पिक आवास प्रदान कर सकती है। अगर आपके इरादे सही हैं तो आपके पास संसाधनों की कोई कमी नहीं है। हमारा संविधान हमें दयालु होने के लिए कहता है। किसी जानवर को अपना निवास स्थान खोते और भूख से मरते देखने में कौन सी करुणा छिपी है?
वन्यजीव और जंगलों को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है। जब आप इसमें से किसी भी एक के साथ छेड़खानी करते हैं तो दूसरा इससे प्रभावित होता है। दुर्भाग्य से, जंगल की भूमि को किसी भी प्रकार की लूटपाट के लिए मुफ़्त में उपलब्ध माना जाता है। भारत ने 33 फीसद वन आवरण का लक्ष्य रखा है, लेकिन वर्तमान में यह केवल 21 फीसद है। जब आप पहले से ही इसके कम होने की बात स्वीकार रहे हैं तो फिर इसे नष्ट कैसे कर सकते हैं? उन्होंने वन सर्वेक्षण रिपोर्ट के साथ जो किया वह बहुत हास्यास्पद है। उन्होंने गन्ने के बागानों, घास के मैदानों, हर चीज को जंगलों की श्रेणी में रखा, और कहा कि वन क्षेत्र में वृद्धि हुई है।
जब आप आवास और वन विनाश की बात करते हैं तो आप पानी के स्तर में आ रही कमी की भी बात करते हैं। जंगल और जल का रिश्ता अटूट है और सरकार इसे नहीं समझ रही है। जंगलों को नष्ट करके हम भारत को जल संकट की ओर धकेल रहे हैं।
वनशक्ति में, सीएसआर शैक्षिक, वृक्षारोपण और आजीविका गतिविधियों के लिए आता है। फिलैंथ्रॉपी से मुकदमेबाजी के लिए भुगतान होता है, क्योंकि ऐसे लोग हैं जो दृढ़ता से मानते हैं कि हम सही काम कर रहे हैं। लेकिन फंड जुटाना बहुत कठिन है।
कई समाजसेवी संस्थाओं का एफसीआरए लाइसेंस इस तर्क के आधार पर रद्द कर दिया गया कि इस पैसे का उपयोग भारत के हितों को नुकसान पहुंचाने के लिए किया जा रहा है। सरकार समाजसेवी संस्थाओं को भूखा मारने के प्रयास में है। बुनियादी सवाल यही है राष्ट्र का हित किन कामों में है और किन कामों में नहीं? क्या राष्ट्र का हित इसमें है कि हम चुपचाप बैठ जाएं और जंगलों को बर्बाद होता और आदिवासियों को विस्थापित होता देखें। क्या राष्ट्र का हित किसानों से उनकी जमीन छीनकर, उद्योगपतियों द्वार उन्हें मजदूर बना देने में है? वर्तमान व्यवस्था के अनुसार, पारिस्थितिकी तंत्र को बर्बाद करने के लिए विदेशी धन लेना स्वीकार्य है, लेकिन विदेशी धन का उपयोग करके पर्यावरण को बचाने की कोशिश करना अपराध है।
जब तक आप इसमें अपने संसाधनों का निवेश करने के लिए तैयार हैं, तब तक उम्मीद बची हुई है। यह ऐसा है: एक आदमी था जो रोज भगवान के सामने प्रार्थना करता था और पूछता था कि उसने जैकपॉट क्यों नहीं जीता। वह एक महीने तक यही सवाल करता रहा, और एक दिन भगवान ने उत्तर दिया, ‘लेकिन इसके लिए पहले तुम्हें लॉटरी की टिकट खरीदनी पड़ेगी!’
इसलिए केवल प्रार्थना करने से कुछ नहीं होगा, आपको कुछ करना होगा; हम सभी को कुछ ना कुछ करना होगा। आशा किरण है। हमें बस उस आशा को ज़िंदा रखना है। जब आप भूख से मर रहे हों तो आपको मिलने वाले बिस्कुट के हर पैकेट के लिए आभारी होना चाहिए। आपको नहीं पता कि कब आपको सामने छप्पन भोग परोसा हुआ मिला जाए।
एक दिन आएगा जब, जनता संरक्षण को शासन में सबसे आगे रखने की मांग करेगी। हम इसी आशा के साथ अपना संघर्ष जारी रख रहे हैं।
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