2020 जैसे क्रूर साल से जुड़ी एक अच्छी बात यह है कि इसने भारत के फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं को उनकी बहुप्रतीक्षित पहचान दिलवाई। महामारी के दौरान पूरे समय हमने देखा कि कैसे आशा कार्यकर्ता घर-घर जाकर लोगों को सुरक्षा उपायों के बारे में बता रहीं थीं। गांवों में रहने वाले कार्यकर्ता सर्वेक्षण कर रहे थे ताकि सबसे कमजोर वर्ग के लोगों की जरूरतों की पहचान की जा सके। ग्राम रोजगार सहायकों ने अपने घर लौटने वाले प्रवासी मजदूरों को उनका रोजगार कार्ड वापस दिलवाने में मदद की ताकि वे नरेगा के अंतर्गत काम कर सकें। इस तरह भारत के ग्रामीण इलाक़ों में इन फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं की उपस्थिति पता चलने लगी। हर बार जरूरत पड़ने पर इन्हीं के द्वारा समस्याएं सुलझाए जाने के कारण अंतत: लोगों को भी इनकी कीमत समझ में आने लगी।
महामारी ने इस बात की तरफ़ ध्यान दिलाया कि विकास कार्यों में भी इन स्थानीय कार्यकर्ताओं को शामिल किया जा सकता है। गांवों के विकास के लिए अब हम शहरी-शिक्षित कामगारों पर ही निर्भर नहीं हैं। ग्रामीण युवा अपनी भूमिकाओं को अच्छी तरह से निभा रहा है। ऐसा होना ग्रामीण भारत के लिए रोजगार का एक नया प्रतिमान को खोलने जैसा है।
भारत के गांवों को ऐसे रोजगारों की जरूरत है जो उनकी जरूरत को पूरा करे
राष्ट्रीय स्तर पर शहरीकरण को वरीयता देने के चलते हम ग्रामीण अर्थव्यवस्था में रोजगार पैदा करने की जरूरत को नजरअंदाज करने की गलती कर सकते हैं। ग्रामीण भारत शहरों के रहमो-करम पर आर्थिक तरक्की नहीं कर सकता है। यह साफ है कि गांवों में शिक्षा तक बेहतर पहुंच के बाद अनगिनत युवकों और युवतियों ने अपने समुदायों में फ्रंटलाइन वर्कर्स की भूमिका निभाई है।
बड़े पैमाने पर फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं को शामिल करने से जल एवं कृषि क्षेत्रों को लाभ मिलेगा।
विडम्बना यह है कि प्रभावी परिणाम देने में सक्षम होने के बावजूद फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं को अनौपचारिक और अस्थायी माना जाता है और इन्हें बहुत कम महत्व दिया जाता है। इनके प्रभावी होने का एक उदाहरण भारत के स्वास्थ्य संकेतकों पर आशा कार्यकर्ताओं का असह है। 2005 में आशा को स्वास्थ्य सेवाओं में फ्रंटलाइन कार्यबल का हिस्सा बनाया गया। इसके बाद से मातृ मृत्यु दर में 59.9 प्रतिशत और नवजात बच्चों की मृत्यु दर में 49.2 प्रतिशत की कमी आई है। आशा कार्यकर्ताओं के संरक्षण में देश भर में टीकाकरण की दर 44 प्रतिशत से बढ़कर 62 प्रतिशत पर पहुंच गई है। वहीं संस्थागत प्रसव का प्रतिशत दोगुना होकर 39 प्रतिशत से 78 प्रतिशत पर आ गया है। यह उदाहरण साफ करता है कि अन्य क्षेत्रों में भी फ्रंटलाइन वर्कफोर्स के विकास में नई संभावनाएं हो सकती है। खासकर जल एवं कृषि क्षेत्रों को फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं की मजबूत भागीदारी से महत्वपूर्ण रूप से लाभ होगा।
स्वास्थ्य सेवाओं से परे ग्रामीण कार्यबल की नई पीढ़ी
खेती-किसानी भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। 2019–20 में कृषि, वानिकी और मछली पकड़ने के क्षेत्रों द्वारा सकल मूल्य वर्धित (ग्रॉस वैल्यू ऐडेड या जीवीए) राशि 19.48 लाख करोड़ रुपए अनुमानित हुई है। हालांकि कृषि के क्षेत्र में नौकरी जैसी व्यवस्था का उपयोग अभी नहीं हो सका है।
राष्ट्रीय स्तर पर बना जल एवं कृषि अधिकारियों का एक कार्यबल देश में कृषि क्षेत्र में इस परिवर्तन का नेतृत्व कर सकता है। हिंदुस्तान यूनीलीवर फ़ाउंडेशन में अपने काम से जुड़े विभिन्न कार्यक्रमों में हम लोग हाई-स्कूल या स्नातक/डिप्लोमा डिग्री वाले ग्रामीण युवाओं को शामिल करते हैं। थोड़े से प्रशिक्षण के बाद इन लोगों ने ऐसी भूमिकाएं भी निभानी शुरू कर दी हैं जिनके लिए तकनीकी कौशल और विशेषज्ञता की जरूरत होती है। वे अब कृषि के आधुनिकीकरण, जल संरक्षण के साथ और जलस्रोतों और जंगलों जैसे सार्वजनिक संसाधनों के सुचारु संचालन के लिए स्थानीय रूप से काम करते हैं।
हम इन कामों को ‘अनौपचारिक’ भूमिकाओं की तरह नहीं देखते हैं। अच्छी गुणवत्ता वाले प्रशिक्षण और मार्गदर्शन के साथ इन कार्यकर्ताओं ने कम समय में आर्थिक विकास और पारिस्थितिकी संरक्षण के काम में योगदान दिया है।1 यहां हम उन भूमिकाओं के बारे में बता रहे हैं जिनका इस्तेमाल हम ग्रामीण-स्तर पर अपनी परियोजनाओं के लिए करते हैं:
1. ग्रामीण भूजल अधिकारी (रुरल ग्राउंड ऑफिसर या आरजीओ)
स्थानीय रूप से इन्हें भूजल जानकार के नाम से जाना जाता है ये अधिकारी पैरा-हाइड्रोजियोलॉजिस्ट्स यानी एक तरह के भू-जलवैज्ञानिक होते हैं। ये भूजल प्रवाह को मापने, पानी की उपस्थिति से पैदा होने वाली खूबियों और जल निकायों में पानी मात्रा तय करने की विशेषज्ञता रखते हैं। आरजीओ आमतौर पर जल स्त्रोतों की सूची तैयार करते हैं, कृषि में इस्तेमाल होने वाले पानी की मात्रा पर नजर रखते हैं, पानी का बजट तैयार करते हैं, कुओं में पानी के स्तर में आने वाले बदलाव पर नजर रखते हैं और आंकड़े तैयार करते हैं। साथ ही ये उपयुक्त कार्रवाई के लिए इन आंकड़ों को किसानों और पंचायतों के साथ साझा करते हैं। कहा जा सकता है कि एक आरजीओ पानी के बजट प्रबंधन में गांव या पंचायत की सहायता करता है। इसके अलावा एक आरजीओ गांव के बढ़ते या घटते जल स्तर की उन वजहों की भी पहचान करता है जो फसलों के चयन या सिंचाई विधियों से प्रभावित होती हैं।
आरजीओ द्वारा पैदा किए गए प्रभाव संभावित रूप से भारत को बड़े पैमाने पर जल सुरक्षा को हासिल करने में मददगार साबित हो सकते हैं। गुजरात के मेहसाणा और सबरकांथा जिलों के 21 गांवों में आरजीओ के एक समूह ने प्रति वर्ष 15 बिलियन लीटर (1500 करोड़ लीटर) पानी की बचत की। इतना पानी दोनों जिलों में रहने वाले लगभग 85 लाख लोगों के एक साल के पीने के पानी की जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त होगा।
2. कृषि विकास अधिकारी (एग्रीकल्चर डेवलपमेंट ऑफिसर या एडीओ)
इन्हें कृषि मित्र या कम्यूनिटी रिसोर्स प्रोफेशनल्स के नाम से भी जाना जाता है। एडीओ कृषि विज्ञान और प्रगतिशील कृषि पद्धतियों में प्रशिक्षित पेशेवर होते हैं जो फील्ड में काम करते हैं। ये आमतौर पर खेतिहर परिवारों से आते हैं और अपने गांवों में किसानों के लिए परामर्शदाता (गो-टू एडवाइजर्स) के रूप में काम करते हैं। एडीओ लागत को कम करने, कीटों के प्रकोप को रोकने, पानी की उचित मात्रा के उपयोग और पैदावार में सुधार के तरीकों के बारे में बताते हैं। ये अपनी सेवाओं का प्रचार-प्रसार गांव में होने वाली बैठकों, ऑडियो-वीडियो कार्यक्रम और खेतों में किए जाने वाले नमूना प्रदर्शन के जरिए करते हैं। एडीओ उपयुक्त सलाह, मशीन और अच्छी गुणवत्ता वाले बीजों के लिए विश्वसनीय स्त्रोतों तक पहुंचने में भी किसानों की मदद करते हैं।
उत्तर प्रदेश में एडीओ के केवल महिला सदस्यों वाले एक समूह ने अपने गांवों के 75 प्रतिशत किसानों को प्रगतिशील कृषि पद्धति अपनाने में मदद की है। ये स्थानीय ‘फसल डॉक्टर’ के रूप में काम करते हैं जो समस्या का निदान करते हैं और स्वस्थ फसलों को बढ़ावा देते हैं। प्रत्येक एडीओ अपने गांव के लगभग 200 किसानों की सहायता करती है। इनके प्रयासों के चलते एक साल में लागत में आई कमी और बेहतर फसल के कारण किसानों की आय 21 प्रतिशत बढ़ गई। इससे उनके गांव की प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट या जीडीपी) में आठ प्रतिशत की वृद्धि हुई है— ऐसा योगदान शहरी या ग्रामीण किसी भी तरह के रोजगार के लिए अप्रत्याशित बात है।
3. ग्राम रोजगार सहायक (जीआरएस)
इन पेशेवरों को गांव की ग्राम पंचायतें नरेगा कामों के कार्यान्वयन में सहायता देने के लिए नियुक्त करती हैं। ये तकनीकी और गैर-तकनीकी दोनों ही प्रकार के नरेगा कर्मचारियों के साथ मिलकर पंचायत स्तर पर काम पर नजर रखते हैं। जीआरएस अपनी पंचायतों के लिए वार्षिक विकास योजनाओं को बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे गांव के विकास कार्यों की वरीयता सूची बनाते हैं, सामग्री और मजदूरी की लागत का अंदाजा लगाते हैं, रोजगार कार्ड देते हैं और बुनियादी ढांचों के कामों और दिहाड़ी के लेन-देन प्रक्रिया को देखते हैं। इनका काम बहुत हद तक शहरी इलाकों में हो रहे निर्माण कार्यों के मैनेजर जैसा होता है। उनकी तरह ये भी नरेगा गतिविधियों की योजना बनाते हैं, उनका समय निर्धारित करने हैं और अपनी देखरेख में उन्हें पूरा करवाते हैं।
राजस्थान और कर्नाटक में जल संचयन और मृदा संरक्षण आधारित हमारे कार्यक्रमों के माध्यम से एक वर्ष में 5.5 करोड़ रुपए का रोजगार पैदा हुआ। प्रत्येक जीआरएस ने अपने ग्राम पंचायत में अतिरिक्त 1,902 व्यक्ति दिवस (एक व्यक्ति दिवस यानी एक व्यक्ति को मिला एक दिन का काम) का रोजगार और 3.36 लाख की आमदनी पैदा की है। पांच वर्षों में उनकी संबंधित ग्राम पंचायतों में अतिरिक्त मजदूरी की यह राशि 33 करोड़ रुपए की हो गई।
अधिक क्षमता, कम औपचारिकता
हमने फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं का प्रभाव देखा है। कल्पना कीजिये कि भारत के लिए इसका क्या अर्थ हो सकता है अगर इस तबके को एक ठोस शकल और बढ़ावा दिया जाए।
आर्थिक विकास
पूर्वी उत्तर प्रदेश के हमारे कार्यक्रम में, एडीओ ने 2018–19 में अपने गांव की जीडीपी में औसतन आठ प्रतिशत का योगदान दिया, जबकि सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वालों (शीर्ष 10) का योगदान स्थानीय जीडीपी में 16 प्रतिशत तक का रहा। अगर भारत के 6.5 लाख गांवों में प्रत्येक में एक प्रशिक्षित एडीओ हो तो हमारे ग्राम्य विकास की कहानी एक उदाहरण के रूप में पेश की जा सकेगी।
पारिस्थितिकी सुरक्षा
2017-19 के दौरान आरजीओ ने गुजरात में 27 गांवों के 234 कुओं में से 47 प्रतिशत कुओं के भूमि जलस्तर को बेहतर करने में मदद की थी। उत्तर प्रदेश में एडीओ ने 46 गांवों में मुख्य फसलों जैसे धान (34 प्रतिशत), गेहूं (25 प्रतिशत) गन्ना (15 प्रतिशत) के लिए पानी की खपत में कमी लाने का काम किया है। इससे एक साल में 9.5 बिलियन लीटर (950 करोड़ लीटर) पानी की बचत हुई है।
सामाजिक समानता
हमारे कार्यक्रम में 70 प्रतिशत फ्रंटलाइन कार्यकर्ता महिलाएं हैं। जैसे-जैसे वे अपने गांवों में बदलाव लाने वालों की तरह पहचानी जाने लगी हैं, वैसे-वैसे वे पितृसत्तात्मक बाधाओं को दूर करने में सक्षम होती जा रही हैं। महिलाओं की नई पीढ़ी अपने गांवों में कार्यबल में शामिल होने के लिए तैयार हैं। यह रोजगार के माध्यम से ग्रामीण युवाओं को सशक्त बनाने वाली एक ज़रूरी बात है।
अपने अनुभवों में हमने पाया कि अगर ग्रामीण भारत में एक ऐसा कार्यबल तैयार किया जाए जो कृषि के आधुनिकीकरण और जल संरक्षण के लिए जरूरी उपयुक्त कौशल सीख सके तो यह बड़ा असर छोड़ सकता है।
फिर भी इन भूमिकाओं को अभी भी अनौपचारिक रखा गया है। ग्रामीण युवा एक कीमती संसाधन हो सकते हैं और हमें उन्हें इसी रूप में देखना चाहिए। पूर्वी उत्तर प्रदेश की एक 21 वर्षीय महिला से जब यह पूछा गया कि उसने एडीओ बनने का चुनाव क्यों किया तो उसका कहना था कि, ‘मैं अपने गांव की दिशा और दशा बदलना चाहती हूं।’ उसकी प्रेरणा बस एक नौकरी पा जाने भर से परे थी और अब समय आ गया है कि हम उसके जैसे लाखों लोगों की प्रतिभा को उभारने का काम करें।
—
फुटनोट:
- यहाँ दिया गया प्रभावी आंकड़ा एचयूएफ़ के कार्यक्रमों से मिलने वाले इनपुट डाटा पर आधारित है। यह इनपुट डाटा एक आश्वासन प्रक्रिया के माध्यम से स्वतंत्र रूप से ई&वाई द्वारा सत्यापित किया गया है। इन कार्यक्रमों और इनके प्रभावों के बारे में अधिक जानने के लिए लेखकों से [email protected] पर संपर्क करें।
इस लेख को अँग्रेजी में पढ़ें।
—
अधिक जानें
- स्वास्थ्य क्षेत्र में भारत के फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं और उनकी प्रेरणाओं के बारे में पढ़ें।
- जानें कि दुनिया भर में ग्रामीण इलाकों में रहने वाले युवा कृषि के बारे में क्या सोचते हैं।
गोपनीयता बनाए रखने के लिए आपके ईमेल का पता सार्वजनिक नहीं किया जाएगा। आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *