लैंगिक संवेदनशीलता के बारे में बचपन से ही बताया जाना चाहिए

प्रारम्भिक किशोरावस्था (नौ वर्ष से 13 वर्ष तक) एक महत्वपूर्ण चरण है जिसे वर्तमान में भारत में बाल विकास कार्यक्रमों के दायरे में नहीं रखा जाता है। बच्चों के कल्याण एवं विकास के लिए बनाई गई योजनाएं आमतौर पर बचपन के प्रारम्भिक दिनों— शून्य से छः वर्ष—की उम्र पर केंद्रित होती हैं। इनमें इंटिग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट सर्विसेज़ योजना (एकीकृत बाल विकास सेवा योजना) के तहत 15 वर्ष या उससे अधिक उम्र के युवाओं के लिए बनाए गए कार्यक्रम शामिल होते हैं।

हालांकि नौ से 13 वर्ष वाला आयु वर्ग मौजूदा पितृसत्तात्मक संरचनाओं के बारे में बच्चों में जागरूकता फैलाने के लिए एक महत्वपूर्ण अवसर प्रदान करता है। यही वह उम्र होती है जब वे अपने शरीर में होने वाले नए विकास एवं बदलावों का अनुभव करते हैं और धीरे-धीरे लिंग से जुड़ी भूमिकाओं एवं मानदंडों तथा सेक्शूऐलिटी के बारे में जानते हैं। इस उम्र में शुरू होने वाले लिंग तथा पुरुषत्व और स्त्रीत्व के इन मूलभूत ढांचों को चुनौती देने के लिए, देश में लिंग जागरूकता कार्यक्रमों को छोटे बच्चों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

कमिटी ऑफ़ रिसोर्स ऑर्गनायज़ेशन (कोरो) की ऑर्गनायज़ेशन प्रोसेस डायरेक्टर पल्लवी पलव कहती हैं कि “लिंग से जुड़े मानदंड बहुत ही कम उम्र में बनने शुरू हो जाते हैं। यदि हम इसे बदलना चाहते हैं तो हमें कम उम्र से ही उसकी शुरुआत करने की ज़रूरत है और साथ ही हमें संस्थाओं के माध्यम से इस काम को करना चाहिए ताकि बड़े स्तर पर बदलाव को देखा जा सके।”

कोरो राजस्थान एवं महाराष्ट्र के शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में सबसे अधिक पिछड़े समुदायों के नेताओं के सशक्तिकरण पर काम करने वाला एक एनजीओ है। वर्षों से अपने काम के अनुभव के आधार पर कोरो का ऐसा मानना है कि लिंग मानदंडों में बदलाव लड़कों और लड़कियों दोनों में ही प्रारम्भिक किशोरावस्था में शुरू होना चाहिए।

संस्थाओं के माध्यम से काम करना महत्वपूर्ण है

युवा किशोरों को शामिल करने के लिए लिंग जागरूकता कार्यक्रमों के दायरे का विस्तार करने के प्रयास के अंतर्गत कोरो ने जेंडर इक्विटी मूवमेंट इन स्कूल्स (जीईएमएस) नामक एक स्कूल-आधारित कार्यक्रम विकसित किया। इस कार्यक्रम को मुंबई के 45 स्कूलों में कक्षा 6 और 7 के छात्रों के लिए डिज़ाइन किया गया था। इस कार्यक्रम को इंटरनेशनल सेंटर फ़ॉर रिसर्च ऑन वीमेन और टाटा इंस्टीट्यूट फ़ॉर सोशल साइयन्सेज के साथ मिलकर तैयार किया गया था।

इन सत्रों और संवादों के दौरान जो बात सामने आई वह यह है कि इस छोटी सी उम्र में भी बच्चों में शक्ति और शक्ति के डायनमिक्स की धारणा थी।

कुछ स्कूलों में जीईएमएस हस्तक्षेप में लिंग अभियानों के साथ ही साप्ताहिक को-एड जेंडर एजुकेशन के सत्रों को शामिल किया गया था। इन सत्रों में छात्रों को लिंग से जुड़े विषयों पर निबंध लिखने या नाटक में भाग लेने के लिए कहा जाता था। अन्य स्कूलों में हस्तक्षेप के रूप में केवल अभियान ही चलाए गए थे। और इसके बाद ऐसे स्कूल भी थे जो कंट्रोल ग्रुप के रूप में काम करते थे। इन स्कूलों में किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप की गुंजाइश नहीं थी। शिक्षा सत्रों में रोल प्ले जैसी कई एक्शन आधारित गतिविधियां करवाई जाती थीं। इन सत्रों के दौरान जो बात सामने आई वह यह है कि इस छोटी सी उम्र में भी बच्चों में शक्ति और शक्ति के डायनमिक्स की धारणा थी। उदाहरण के लिए एक वर्कशॉप में यह बात सामने आई कि अपने-अपने घरों में वे अपनी माँ की शक्ति को अपने पिता की शक्ति से कमतर आंकते हैं। ऐसा इसलिए भी था क्योंकि उनके पिता काम करने बाहर जाते थे और इसलिए उनके अनुसार उनके पिता को अधिक सुविधाएं, खाना और आराम की ज़रूरत थी।

घरेलू हिंसा के विरोध में पोस्टर लिए सड़क पर घूमती युवतियां-लैंगिक संवेदनशीलता
देश में लिंग जागरूकता कार्यक्रमों को छोटे बच्चों पर ध्यान केंद्रित करना आवश्यक है। । चित्र साभार: वाचा रिसोर्स सेंटर फ़ॉर वीमेन एंड गर्ल्स

बच्चों के जीवन में उपस्थित प्रभावशाली लोगों के साथ मिलकर काम करना महत्वपूर्ण है

अपने कार्यक्रम के तीसरे साल में कोरो ने शिक्षकों के साथ मिलकर काम करना शुरू किया क्योंकि वे बच्चों के जीवन को प्रभावित करने वाले मुख्य लोगों में से होते हैं। अंतत: कोरो ने यूनिसेफ़ और महाराष्ट्र सरकार के साथ साझेदारी के माध्यम से राज्यों के सभी स्कूलों में अपने पाठ्यक्रम को पढ़ाना शुरू कर दिया। पल्लवी इस बात को लेकर स्पष्ट थीं कि पाठ्यक्रम को संस्थागत बनाना महत्वपूर्ण है। “उन्होंने कार्यक्रम को उनके स्कूलों में लागू करने के लिए कहा लेकिन हमें ऐसा महसूस हुआ कि इस कार्यक्रम को संचालित करने के लिए उनका क्षमता निर्माण करना अपेक्षाकृत अधिक स्थाई तरीक़ा है। और इसलिए हमने ऐसा ही किया।” इस कार्यक्रम का नाम मीना-राजू मंच है और इसने किशोर लड़के एवं लड़कियों दोनों के साथ काम किया। दस साल बाद यह कार्यक्रम आज भी सरकारी स्कूलों में चालू है। कार्यक्रम से मिलने वाले अनुभवों ने स्टेट काउन्सिल ऑफ एज़ुकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग के इक्विटी सेल की अवधारणा को सूचित किया जो लिंग विविधता और दिव्यांग बच्चों की ज़रूरत पर केंद्रित था।

समाज के रक्षकों के साथ काम करना लिंग जागरूकता हस्तक्षेप का एक अभिन्न अंग होना चाहिए अन्यथा प्रतिरोध या प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ सकता है।

सरकारी प्रणाली के साथ काम करने के महत्व के अलावा इस कार्यक्रम का एक और सबक़ यह था कि गेटकीपर (समाज के रक्षकों) के साथ काम करना लिंग जागरूकता हस्तक्षेप का एक अभिन्न अंग होना चाहिए अन्यथा प्रतिरोध या प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ सकता है। उदाहरण के लिए कोरो के जीईएमएस कार्यक्रम के शुरुआती कुछ वर्षों में विभिन्न स्कूलों के शिक्षक इससे सहमत नहीं थे। उनका दावा था कि यह कार्यक्रम बच्चों को विद्रोही बना रहा था और उन्हें अपना पाठ्यक्रम पूरा करने नहीं दे रहा था। बाद में जब उन्होंने कार्यक्रम के कारण लड़के और लड़कियों के व्यवहार में आए बदलावों का अनुभव किया तब जाकर हमारे साथ आए। उदाहरण के लिए लड़कियों ने अपने साथ होने वाली हिंसा के बारे में खुलकर बात करनी शुरू कर दी; लड़कों ने घरों में अपनी बहनों और माँ के साथ होने वाले भेदभाव के बारे में सवाल करना शुरू कर दिया और घर के कामों में हिस्सा लेने लगे।

वाचा ट्रस्ट की परियोजना वाचा रिसोर्स सेंटर फॉर वीमेन एंड गर्ल्स एक अन्य ऐसा संगठन है जो लिंग के मुद्दों पर कई हितधारकों और द्वारपालों के साथ मिलकर काम कर रहा है। वाचा मुंबई बस्तियों में शुरुआती किशोरों के साथ विशेष रूप से जुड़ने वाले देश के पहले संगठनों में से एक है। इस नाते वाचा ने समय के साथ एक ऐसा मॉडल विकसित किया है जो समुदायों के भीतर व्यापक रूप से इस तरह काम करता है जिसमें उनके द्वारा किए गए हर काम में लिंग का नज़रिया शामिल होता है। यह मॉडल मानता है कि बच्चों के दैनिक जीवन में भूमिका निभाने वाले प्रत्येक व्यक्ति एवं संस्था—अभिभावकों, शिक्षकों, आशा कार्यकर्ताओं और स्थानीय नेतृत्व—के अलावा लड़कों को लिंग के विषय पर संवेदनशील बनाना महत्वपूर्ण है ताकि वे लड़कियों के लिए सहायक बन सकें।

पहले निष्पक्षता और फिर समानता पर ध्यान दें

हालांकि, लड़कों को संवेदनशील बनाते समय यह स्वीकार करना महत्वपूर्ण है कि उस उम्र में भी प्रचलित लिंग मानदंडों के कारण लड़कों और लड़कियों के बीच पहले से ही एक प्रकार का शक्ति अंतर है। जब स्वास्थ्य, पोषण, शिक्षा, सुरक्षित स्थान आदि तक पहुंच की बात आती है तो युवा लड़कियों और महिलाओं को लैंगिक अंतर के अतिरिक्त बोझ का सामना करना पड़ता है। इसलिए लड़कियों को सशक्त बनाने की यात्रा में ऐसे सुविधाओं को मुहैया करवाने पर ध्यान देने की ज़रूरत है जो सिर्फ़ उनके लिए हो। और उसके बाद इस अंतर को कम करने के लिए लड़कों को इसमें शामिल किया जाना चाहिए और साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि शक्ति का ढांचा संतुलित हो। वाचा रिसोर्स सेंटर फॉर वीमेन एंड गर्ल्स की निदेशक यगना परमार बीएमसी स्कूल में हुए एक घटना के बारे में बताती हैं जहां वे लोग युवा सशक्तिकरण कार्यक्रम के हिस्से के रूप में कम्प्यूटर की क्लास संचालित करवा रहे थे। “लड़कियों के लिए आयोजित एक सत्र में ग़लती से एक लड़का आ गया। हालांकि उसने कुछ नहीं कहा था लेकिन उसके आते ही एक लड़की ने खड़े होकर उसे अपनी जगह दे दी। मेरे पूछने के बाद ही उसे यह एहसास हुआ कि यह सत्र केवल उसके लिए है न कि लड़कों के लिए, और साथ ही किसी ने भी उसे अपनी जगह देने के लिए नहीं कहा था।”

इस कारण से ही जब वाचा ने समुदायों के साथ काम करना शुरू किया तो उसका पूरा ध्यान लड़कियों के लिए एक सुरक्षित स्थान के निर्माण पर था ताकि वे अपने विचारों को व्यक्त कर सकें। इस काम के लिए उन लड़कियों को कौशल-आधारित प्रशिक्षण सत्रों से लेकर विभिन्न प्रकार के खेलों आदि जैसी रचनात्मक गतिविधियों में लगाया गया। इससे उनके अधिकार और आत्मविश्वास का निर्माण होता है। साथ ही इन सभी गतिविधियों में लिंग और उससे जुड़े विचार और बातचीत को शामिल किया जाता है। लड़कियों द्वारा एक-दूसरे के साथ बंधन बनाने और अपने समुदायों के भीतर पहल करने के साथ ही उनकी सामाजिक पूंजी का विकास भी होता है। वे अपने आसपास की दुनिया और पहले से मौजूद मानदंडों और तरीक़ों के अलावा अन्य हितधारकों जैसे अभिभावकों, शिक्षकों और समुदाय के नेताओं से प्रश्न पूछने लगती हैं।

लिंग मानदंडों को बदलने के स्तर पर काम करते समय बड़े समुदाय के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वे भी बदलाव को प्रोत्साहित करें और उसे अपना समर्थन दें।

इसलिए लड़कियों के साथ मिलकर लिंग जागरूकता कार्यक्रम को शुरू करना ज़रूरी है। एक बार जब वे नेताओं की भूमिका में आ जाएंगी तब वे अपने साथ लड़कों को भी ला सकती हैं। लेकिन काम यहीं नहीं रुक सकता है। लिंग मानदंडों को बदलने के स्तर पर काम करते समय बड़े समुदाय के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वे भी बदलाव को प्रोत्साहित करें और उसे अपना समर्थन दें। वाचा इस प्रकार कॉलेजों में भविष्य के शिक्षकों, छात्रों के साथ स्कूलों में, समुदाय में विभिन्न संवेदीकरण सत्रों और एक वार्षिक स्वास्थ्य और लिंग मेले के माध्यम से तथा अन्य स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ काम करता है। यह एकीकृत, व्यापक दृष्टिकोण है जिसने अंततः सकारात्मक परिणाम प्राप्त किए हैं। उदाहरण के लिए लड़कियों की शादी की उम्र में देरी करना और उनकी उच्च शिक्षा पूरी करना।

युवा लड़कों और पुरुषों के साथ काम करने के विषय पर पल्लवी स्वर्गीय कमला भसीन की कही गई बातों की व्याख्या करती हैं: “दृष्टिकोण ऐसा नहीं होना चाहिए जहां महिलाओं को पुरुषों के खिलाफ खड़ा किया जाए। वास्तव में, हमें उनके साथ मिलकर काम करने की आवश्यकता है, क्योंकि पितृसत्तात्मक मानदंड पुरुषत्व की विषाक्त धारणाओं को उतना ही लागू करते हैं, जितना कि वे स्त्रीत्व की कठोर धारणाओं को करते हैं।” कोरो ने 2000 और 2007 के बीच जनसंख्या परिषद के साथ साझेदारी में एक क्रिया अनुसंधान कार्यक्रम के दौरान पुरुषत्व के अवधारणा निर्माण प्रक्रिया और लिंग हिंसा के कारणों का अध्ययन किया था। इस सत्र में कई पुरुषों ने बताया कि कैसे पुरुष के महिला से श्रेष्ठ होने का विचार कुछ ऐसा है जो वे न केवल अपने आसपास के अन्य पुरुषों के व्यवहार से सीखते हैं, बल्कि अपने जीवन में उपस्थित महिलाओं के व्यवहार से भी सीखते हैं। अध्ययन के दौरान इस तथ्य के बावजूद कि महिलाएं घर के अंदर और बाहर दोनों जगह काम करती हैं, घर के नियंत्रक और रोटी कमाने वालों के रूप में पुरुषों की मर्दानगी की रूपरेखा भी सामने आई। मीडिया द्वारा प्रोत्साहित किए गए ‘पुरुष केवल उस तरह के होते हैं’ या ‘अगर वह मुझे मारता है, तो वह मुझसे प्यार करता है’ जैसे विचार आम थे जिनका सामना कोरो को करना पड़ा।

यगना कहती हैं “कुल मिलाकर, बहुक्षेत्रीय दृष्टिकोण एकल हस्तक्षेप की तुलना में अधिक प्रभावी होने की संभावना है। इसका कारण यह है कि किशोर सशक्तिकरण के जोखिम कारक आपस में घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं। किशोरों को कम उम्र में शादी या हिंसा के जोखिम में डालने वाली कई कमज़ोरियों को एक साथ संबोधित करने की आवश्यकता है।” अंततः यह एक साथ निर्माण करने के बारे में है, क्योंकि पितृसत्ता हम सभी को प्रभावित करती है और इसका आकार पीढ़ियों और संदर्भों में बदलता रहता है। स्वयंसेवी संस्थाओं और फ़ंडरों के लिए यह अच्छा होगा कि वे समान रूप से इसकी पहचान करें कि लिंग बायनेरीज़ को तोड़ने की प्रक्रिया के लिए धैर्य और प्रतिबद्धता के साथ ही प्रतिक्रिया व विफलता का सामना करने की तत्परता की भी ज़रूरत होती है।

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मज़बूत एनजीओ बनाने के लिए पे व्हाट इट टेक्स 

एनजीओ की प्रशासनिक और प्रबंधन से जुड़ी फंडिंग में लगातार आ रही कमी, उनके विकास और अधिक से अधिक समुदायों की सेवा करने की क्षमता पर एक रुकावट की तरह है। जैसा कि दसरा में साधन निर्माण के भूतपूर्व निदेशक अनंत भगवती ने कहा, ‘प्रबंधन लागत के क्षेत्र में एनजीओ के लिए फंडिंग का अभाव है।’

एनजीओ क्षेत्र से जुड़े अनेक प्रमुख लोगों से विचार-विमर्श करने के बाद हमने जाना कि अनेक निवेशक इस बात से डरते हैं कि उनके द्वारा किए गए निवेश को अगर उसी कार्यक्रम तक सीमित नहीं रखा गया जिसके लिए उन्होंने निवेश किया है तो उसका परिणाम अच्छा नहीं आ पाएगा। लेकिन अनेक एनजीओ के उदाहरणों से यह बात ग़लत साबित हो जाती है। उनके अनुभवों से यह पता चला है कि कुछ ऐसे ज़रूरी खर्चे जो कार्यक्रम की लागत का हिस्सा नहीं होते, जैसे कि रणनीति, नेतृत्व विकास और वित्तीय प्रबंधन, इनके लिए पर्याप्त धनराशि वास्तव में समाज में उनके योगदान में अत्यधिक लाभकारी हैं, और इससे ऐसी संस्थाओं का निर्माण होता है जो विपरीत परिस्थितियों में भी समुदाय और समाज की सेवा करने में सक्षम होते हैं।  

क्वालिटी एजुकेशन सपोर्ट ट्रस्ट (क्वेस्ट)—बच्चों की प्रारम्भिक शिक्षा पर केंद्रित एनजीओ ऐसा ही एक उदाहरण है। यह संस्था 13 वर्षों में, एक छोटी ग्रासरूट संस्था से महाराष्ट्र के 24 जिलों में 2,60,000 से अधिक सुविधाहीन बच्चों को शिक्षा संपन्न बनाने वाले सफल स्टार्ट-अप के रूप में विकसित हुई है। क्वेस्ट के संस्थागत साधन निर्माण में अगर निवेशकों ने निवेश नहीं किया होता तो क्वेस्ट के लिए इस स्तर पर सफलता प्राप्त करना संभव नहीं हो पाता। 

एक एनजीओ के लीडर के अनुसार कार्यक्रम के अलावा निवेश नहीं मिल पाने के कारण, यह कोई आश्चर्य नहीं है कि स्वयंसेवी संस्थाएँ वांछित से कम स्तर (‘सब-स्केल’) पर काम करने के लिए मजबूर हैं। धन की कमी तीन गैर-कार्यक्रम श्रेणियों पर प्रभाव डालती हैं:

कई भारतीय निवेशक जिसे ‘साक्ष्य की गंभीर कमी’ कहते हैं, वह फंडिंग प्रथाओं में बदलाव के पैरोकारों के लिए भी बड़ी बाधा रही है। इस कमी को दूर करने के लिए, द ब्रिजस्पैन ग्रुप ने इस सेक्टर का प्रतिनिधित्व करती 388 स्वयंसेवी संस्थाओं का सर्वेक्षण किया और 40 अग्रणी और अपेक्षाकृत अच्छी तरह से वित्त पोषित स्वयंसेवी संस्थाओं का वित्तीय विश्लेषण किया। हमारा सर्वेक्षण और वित्तीय विश्लेषण एक नए पे व्हाट इट टेक्स (पीडबल्यूआईटी ) इंडिया इनिशिएटिव का हिस्सा है, जिसकी पहल ब्रिजस्पैन और पाँच मुख्य सहभागी: ए.टी.ई. चंद्रा फाउंडेशन, चिल्ड्रेन्स इनवेस्टमेंट फंड फाउंडेशन, एडेलगिव फाउंडेशन, फोर्ड फाउंडेशन और ओमिडयार नेटवर्क इंडिया द्वारा की गई है। सभी सहभागी भारत में और अधिक मज़बूत, और विपरीत परिस्थितियों से उभरने में समर्थ एनजीओ के निर्माण के लिए प्रथाओं और अन्य हितधारकों की मानसिकता को बदलने के लिए साथ कार्य करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। हमारे शोध से भगवती द्वारा बताए गए व्यवस्थित तरीके के अभाव का एक स्पष्ट स्वरूप उभरकर आया। 

शोध में सामने आने वाले कुछ मुख्य बिन्दु निम्नलिखित हैं:

पानी के पाईप की एक क़तार जिसमें ताला लगा हुआ है_एनजीओ फंडिंग
प्रबंधन लागत के क्षेत्र में एनजीओ के लिए फंडिंग का अभाव है। | चित्र साभार: फ़्लिकर

जहाँ सामाजिक क्षेत्र प्रतिबंधात्मक सरकारी नियमों के तहत काम करना जारी रखे हुए है, फंडरों के साथ-साथ स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा अच्छी प्रथाओं को अपनाने से अधिक सामाजिक कल्याण करने के लिए आवश्यक विश्वास और पारदर्शिता को बेहतर बनाने में मदद मिल सकती है। सैक्टर के लीडरों के साथ हमारे शोध और साक्षात्कार ने हमें चार ऐसी बेहतर प्रथाओं को पहचानने में मदद की जो फंडर और स्वयंसेवी संस्थाओं को नए मार्ग बनाने की संभावना दिखाती हैं।

1. फंडरस्वयंसेवी संस्था के बीच अनेक वर्षों के लिए सहभागिता (पार्टनरशिप) विकसित करना

साझा उद्देश्यों के आधार पर दीर्घकालिक साझेदारी का भरोसा, अनुदान लेने वाले और फंडर के बीच बेहतर और पारस्परिक विश्वास का निर्माण करती है। परिणामस्वरूप, दोनों ही अनुदानों को लेन-देन की नज़र से देखना बंद कर देते हैं और बेहतर सामाजिक कल्याण प्रदान करने के लिए सभी ज़रूरी बातों पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं।

2. अप्रत्यक्षलागत क्षेत्र में फंडिंग की कमी को ख़त्म करना

अप्रत्यक्ष-लागत के क्षेत्र में फंडिंग की कमी को ख़त्म करने के लिए फंडरों को अनुदान देने के बारे में सोचने के तरीके को बदलने की आवश्यकता होगी – जिसे स्वयंसेवी क्षेत्र अपनी आवश्यकताओं को स्पष्ट रूप से बताकर सरल बना सकता हैं। फंडरों के लिए, इसका मतलब – अपने कर्मचारियों को प्रशिक्षित करना और वास्तविक लागतों के विकल्प के रूप में कम, निश्चित अप्रत्यक्ष-लागत दरों पर निर्भर रहने के बजाय स्वयंसेवी लीडरों से उनके विशिष्ट मिशन, ऑपरेटिंग मॉडल और आवश्यकताओं के बारे में बातचीत में शामिल करना है।

3. संस्थागत विकास (ऑर्गनाइज़ेशन डेवलेपमेंट) में निवेश करना

स्वयंसेवी संस्थाएँ, संस्थागत विकास के लिए ऐसी अनुदान राशि का इस्तेमाल करती हैं जिनके ऊपर किसी तरह की सीमा नहीं लगाई गई होती है। लेकिन इस तरह की धनराशि कम ही रहती है। फंडर अनुदान लेने वाली संस्थाओं को बता सकते हैं कि वे इस बात को समझते हैं कि संस्थाओं को मजबूत बनाना कितना ज़रूरी होता है और वे इसके लिए आवश्यक वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए तैयार हैं। एनजीओ को अपनी संस्थागत विकास की छोटी और दीर्घकालिक ज़रूरतों और उन पर होने वाले खर्च का आकलन साझा करने से फायदा होगा। 

4. संचित कोष बनाएँ

जब संभव हो, तब निवेशकों को सीधे अनुदान लेने वाले की संचित कोष को मज़बूत करने में निवेश करना चाहिए। उन्हें स्वयंसेवी संस्थाओं को प्रोत्साहित करना चाहिए कि वे कामकाज के लिए मिले धन से कुछ धन बचाएँ जिन्हें आरक्षित निधि में परिवर्तित किया जा सकता है। स्वयंसेवी संस्थाओं को अपने निवेशकों और उनके बोर्डों को प्रमुख बातों, जैसे ऑपरेटिंग सरप्लस तथा आरक्षित निधि कितने महीनों की है जैसी बातों के बारे में सूचित करना चाहिए, ताकि वित्तीय लचीलापन बनाने के महत्व पर ज़ोर दिया जा सके।

फंडिंग में लगातार कमी उन सामाजिक उद्देश्यों को हानि पहुंचाती है जिसके लिए फ़ंडर और स्वयंसेवी संस्थाएँ प्रयास करती हैं। सच्ची लागत फंडिंग (ट्रू कॉस्ट फ़ंडिंग) की दिशा में बढ़ने के लिए गहरे पैठ चुके दृष्टिकोण और प्रथाओं को दूर करना होगा। और इसके लिए सब्र और मजबूत इरादे की ज़रूरत होगी। यह एक जटिल और व्यवस्था से जुड़ा मुद्दा है, और सभी हितधारकों को इसे हल करने के लिए एक साथ काम करने की आवश्यकता है। लेकिन इस बदलाव की पहल फंडरों को ही करनी होगी। 

जिन लोगों ने पहले से ही बेहतर अनुदान प्रथाओं को अपनाया है, उन्होंने देखा है कि कैसे क्वेस्ट जैसी संस्थाएं अपने सामाजिक मिशन की दिशा में बेहतर नतीजे दे सकती हैं। इसके अलावा, हमारे शोध से यह समझ में आता है कि अब समय आ गया है कि फंडर सुनिश्चित करें कि समाज की जटिल समस्याओं से जूझती स्वयंसेवी संस्थाओं के पास मजबूत संस्थागत आधार और विपरीत परिस्थितियों से उबरने के लिए आवश्यक संसाधन हों। जस का तस जैसी स्थिति से किसी का भला नहीं होने वाला है। 

प्रिथा वेंकटचलम और डोनाल्ड येह मुंबई में स्थित ब्रिजस्पैन के पार्टनर हैं, और शशांक रस्तोगी ब्रिजस्पैन के प्रिन्सिपल हैं।

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फ़ोटो निबंध: प्रदूषण और कचरे के ढ़ेर में दबता हुआ हिमालय

फरवरी 2022 में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने जुलाई से डिस्पोजेबल कटलरी, गुब्बारे और पॉलीस्टाइरीन सहित कुछ सिंगल यूज वाले प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा करते हुए एक नोटिस जारी किया। हालांकि यह कदम स्वागत योग्य है, लेकिन देश भर में इसे लागू करना और इस पर निगरानी रखना एक मुश्किल काम होगा, खासकर छोटे शहरों और पहाड़ी इलाकों में।

नीति आयोग और विश्व बैंक की रिपोर्ट का अनुमान है कि भारतीय हिमालयी क्षेत्र (आईएचआर) अब सालाना पांच से आठ मिलियन मीट्रिक टन से अधिक कचरा उत्पन्न करता है। 2010 से अब तक उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में पर्यटकों की कुल संख्या 400 मिलियन रही है और ये दोनों राज्य ठोस अपशिष्ट प्रबंधन के मामले में सबसे ख़राब प्रदर्शन वाले राज्यों की सूची में शामिल हैं। खराब कचरा संग्रह और बुनियादी ढांचे के कारण 60 प्रतिशत से अधिक कचरा जला दिया जाता है, उनका ढ़ेर लगा कर छोड़ दिया जाता है या फिर गंगा, यमुना और सतलज जैसी प्रमुख नदियों में नीचे की ओर बहा दिया जाता है।

उपरोक्त विश्व बैंक की रिपोर्ट में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि इस तरह के परिदृश्य में उत्पन्न होने वाले कचरे की मात्रा और प्रकार को लेकर पर्याप्त डेटा उपलब्ध नहीं है। रिपोर्ट ने यह भी पुष्टि की है कि कचरा संग्रह प्रणाली केवल पर्वतीय राज्यों के शहरी क्षेत्रों में मौजूद है और जमा किए गए कचरे को आमतौर पर नदियों के पास स्थित खुले लैंडफिल में फेंक दिया जाता है। यह तरीक़ा पिछड़े समुदायों को ग़ैर-आनुपातिक ढंग से प्रभावित करता है। इसके अतिरिक्त, अपशिष्ट डंपिंग का स्थानीय वनस्पतियों और जीवों की 30,000 से अधिक प्रजातियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, जिनमें से कुछ प्रजातियां दुर्लभ हो चुकी हैं और विलुप्त होने की कगार पर हैं।

भारतीय हिमालयी क्षेत्र में पहाड़ियों पर कचरे को जलाना कचरा प्रबंधन का एक आम तरीक़ा है-प्रदूषण कचरा
भारतीय हिमालयी क्षेत्र में पहाड़ियों पर कचरे को जलाना कचरा प्रबंधन का एक आम तरीक़ा है। । चित्र साभार: वेस्ट वॉरियर्स

इस इलाक़े में कचरा इतनी बड़ी समस्या क्यों है?

ग्रामीण इलाक़ों में वस्तुओं के उपयोग के तरीक़े में बदलाव

ऐतिहासिक रूप से भारत के ग्रामीण एवं पर्वतीय इलाक़ों में कचरा प्रबंधन की ज़रूरत नहीं होती थी क्योंकि इस्तेमाल किए जाने वाला ज़्यादातर सामान बायोडिग्रेडेबल होता था। हालांकि, हाल के दशकों में टिकाऊ और उपयोग में लाई जाने वाली चीज़ें—विशेष रूप से बहुस्तरीय प्लास्टिक पैकेजिंग में फास्ट-मूविंग कंज्यूमर गुड्स (एफएमसीजी)—हिमालय के अधिकांश गांवों में पहुंच गए हैं। कपड़े, लकड़ी, पत्ते, बांस और अन्य स्थानीय सामग्रियों से बने घरेलू उत्पादों की जगह बड़े पैमाने पर प्लास्टिक से बनी चीज़ें इस्तेमाल होने लगी हैं। इससे ग्रामीण इलाक़ों में प्राकृतिक रूप से नहीं सड़ने वाला कचरा पैदा हो रहा है। किसी भी तरह के कचरा प्रबंधन व्यवस्था के न होने से ग्रामीण इलाक़ों के आम लोग और प्रशासन मजबूरन इन कचरों को जलाते या घाटियों में फेंक देते हैं और नदियों में बहा देते हैं।

मेरे नेतृत्व वाले संगठन वेस्ट वॉरियर्स द्वारा एकत्र किए गए कचरा संग्रह के आंकड़ों से पता चला है कि परिवहन की सुविधा वाले पर्यटक स्थलों पर प्रत्येक घर से हर माह लगभग 6 किलोग्राम कचरा निकलता है, दूरदराज के गांवों में प्रति माह प्रति परिवार 2 किलोग्राम से अधिक सूखा कचरा निकलता है। उदाहरण के लिए, उत्तरकाशी में गोविंद वन्यजीव अभयारण्य (एक हिम तेंदुआ संरक्षण क्षेत्र) के अंदर 5,000+ घर और हर साल यहां आने वाले हजारों पर्यटक प्रति माह 15 मीट्रिक टन से अधिक सूखा कचरा उत्पन्न करते हैं। इस पूरे कचरे को या तो जंगल/नदी/पहाड़ी इलाक़ों में यूं ही फेंक दिया जाता है या फिर जला दिया जाता है।

पर्यटन और एकल उपयोग वाले उत्पादों की भारी आमद

सड़क, ट्रेन और हवाई मार्ग से यात्रा के अधिक विकल्पों की उपलब्धता के कारण पर्यटक तेजी से हिमालयी राज्यों में आ रहे हैं। इसके अलावा वे दूरदराज़ के इलाक़ों और ट्रेकिंग रुट्स पर भी जाते हैं। पर्यटकों की शहरी जीवनशैली ने इन इलाक़ों के ग्रामीणों पर अपना असर डाला है। नतीजतन इन क्षेत्रों के लोगों ने एफ़एमसीजी पैकेटों, पीईटी बोतलों और सिंगल-यूज वाले प्लास्टिक की ख़रीद-बिक्री शुरू कर दी है ताकि वे पर्यटन, खाद्य और हॉस्पिटैलिटी सेक्टर की भारी मांगों की पूर्ति कर सकें। इससे पर्यटन क्षेत्रों और इसके आसपास के इलाक़ों में बाहरी मात्रा में कूड़ा जमा हो रहा है, उन्हें डम्प किया जा रहा है और प्रबंधन के उद्देश्य से जलाया जा रहा है।

उत्तरकाशी में ट्रेकिंग मार्गों में फेंके हुए प्लास्टिक कचरे को खा रही एक गाय-प्रदूषण कचरा
उत्तरकाशी में ट्रेकिंग मार्गों में फेंके हुए प्लास्टिक कचरे को खा रही एक गाय।। चित्र साभार: वेस्ट वॉरियर्स

रसद और बुनियादी ढांचे के लिए कठिन इलाका

कठिन हिमालयी इलाकों के कारण दैनिक लागत में वृद्धि होती है, इससे रसद परिवहन जटिल होता है और नज़दीकी रीसाइक्लिंग फैक्टरियों से दूरी भी बढ़ती है। आईएचआर में अपशिष्ट संग्रह (वाहन), सूखा अपशिष्ट प्रसंस्करण (सामग्री पुनर्प्राप्ति सुविधाएं), और गीला अपशिष्ट प्रसंस्करण (खाद या बायोगैस इकाइयां) के लिए बुनियादी ढांचों की कमी है। सुनिश्चित किए गए अनौपचारिक डंपिंग स्थल आमतौर पर नदी के किनारे के पास होते हैं ताकि मानसून के दौरान कचरा बह सके।

उत्तरकाशी में भागीरथी नदी के बगल में लैंडफिल साइट, जो अंततः गंगा नदी में मिलती है-प्रदूषण कचरा
उत्तरकाशी में भागीरथी नदी के बगल में लैंडफिल साइट, जो अंततः गंगा नदी में मिलती है।। चित्र साभार: वेस्ट वॉरियर्स

एक्सटेनडेड प्रोड़्यूसर रेस्पॉन्सिबिलिटी की पहुंच का अभाव

प्लास्टिक वेस्ट मैनेजमेंट रुल्स 2016 के तहत एक्सटेनडेड प्रोड़्यूसर रेस्पॉन्सिबिलिटी जनादेश के एक हिस्से के रूप में पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने सभी एफ़एमसीजी ब्रांडों को अपने प्लास्टिक कचरे के प्रबंधन के लिए रिवर्स लॉजिस्टिक्स की व्यवस्था स्थापित करने और उसमें सहायता के आदेश दिए थे। लेकिन पहाड़ी इलाक़ों में कचरा संग्रहण की लागत उच्च होने के कारण ज़्यादातर ब्रांडों ने इन इलाक़ों में रिवर्स लॉजिस्टिक्स सिस्टम स्थापित नहीं किए। इसके अलावा, इन गांवों में उपलब्ध कई उत्पाद स्थानीय ब्रांडों द्वारा उत्पादित किए जाते हैं, जिनमें रिवर्स लॉजिस्टिक्स में निवेश करने की क्षमता नहीं होती है। पर्यटक अपने साथ लोकप्रिय ब्रांडों के उत्पाद लेकर आते हैं और उनके द्वारा पीछे छोड़े गए कचरे को न तो एकत्र किया जाता है और न ही उनके रिसायक्लिंग की व्यवस्था होती है।

उत्तरकाशी का एक डम्प साइट-प्रदूषण कचरा
उत्तरकाशी का एक डम्प साइट। । चित्र साभार: वेस्ट वॉरियर्स

नीति प्रवर्तन और अभिसरण का अभाव

आईएचआर में कचरा संग्रह छिटपुट स्तर पर होता है और कचरे को तुरंत या तो पहले से ऐसे निश्चित स्थलों पर डम्प कर दिया जाता है जिनके लिए पर्यावरणीय मंजूरी नहीं होती है या सीधे घाटी में फेंक दिया जाता है और नदियों में बहा देते हैं। अनौपचारिक कचरा बीनने वाले और स्क्रैप डीलर सामग्री की वसूली में मुख्य भूमिका निभाते हैं, लेकिन उनकी यह भूमिका केवल उच्च मूल्य वाली सामग्री जैसे पीईटी प्लास्टिक, धातु, कार्डबोर्ड और कांच आदि तक ही सीमित होती है। इसके अतिरिक्त, इस तरह का कचरा उठाना शहरी और पर्यटन क्षेत्रों तक ही सीमित है। अधिकांश ग्राम पंचायतें और गांव या प्रखंड विकास प्राधिकारी स्थानीय लोगों और पर्यटकों द्वारा पैदा किए जाने वाले कचरे के प्रबंधन के काम में सक्षम नहीं हैं।

इसके अलावा, जबकि कचरा आमतौर पर वन क्षेत्रों में डंप किया जाता है, वन विभाग के पास ग्रामीण क्षेत्रों में अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली स्थापित करने का अधिकार नहीं है। पर्यटन विभाग विभिन्न पर्यटन स्थलों में कूड़ेदान लगाने में निवेश करता है, लेकिन संग्रह और प्रसंस्करण प्रणाली ठीक से कारगर नहीं है।

एक और बड़ी चुनौती विभिन्न सरकारी विभागों की एक दूसरे के साथ प्रभावी ढंग से सहयोग करने में असमर्थता है। उदाहरण के लिए, पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय (स्वजल के माध्यम से) स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण का प्रभारी है, जो प्लास्टिक कचरा प्रबंधन इकाई के निर्माण के लिए प्रति ब्लॉक 16 लाख रुपये आवंटित करता है। ग्राम पंचायतों को प्रदान की गई धनराशि का अधिकतम उपयोग सुनिश्चित करना पंचायती राज विभाग के दायरे में आता है। हालांकि स्वजल का अधिदेश केवल सामग्री रिकवरी सुविधा का निर्माण है जिसमें इसके संचालन कि ज़िम्मेदारी को सौंपने के विषय पर बहुत कम स्पष्टता है। इसके अलावा ग्राम-पंचायत अपने दिन-प्रतिदिन के संचालन के लिए इस विशेष अनुदान के प्रयोग को लेकर सशंकित रहते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि जियोटैगिंग के माध्यम से पूरा होने का प्रमाण मिलने पर इस तरह की गतिविधि को आम तौर पर मंजूरी मिल जाती है। हालांकि, दिन-प्रतिदिन के कार्यों को जियोटैग नहीं किया जा सकता है।

वेस्ट वॉरियर्स के सफ़ाई साथी देहरादून में सामग्री रिकवरी सुविधा केंद्र पर-प्रदूषण कचरा
वेस्ट वॉरियर्स के सफ़ाई साथी देहरादून में सामग्री रिकवरी सुविधा केंद्र पर। । चित्र साभार: वेस्ट वॉरियर्स

सामाजिक कलंक और अनौपचारिक आजीविका

आजीविका के लिए कचरे और कूड़े का काम करने वालों के साथ एक तरह के सामाजिक कलंक का भाव जुड़ा हुआ है। ज़्यादातर शहरी इलाक़ों में कचरे के संग्रहण एवं इसके पृथक्करण का काम अनौपचारिक प्रवासी मज़दूरों के हिस्से में होता है। हालांकि ये प्रवासी मज़दूर गांवों की ओर आकर्षित नहीं होते हैं।

अपशिष्ट प्रदूषण के कारण होने वाली पर्यावरणीय चुनौतियों से निपटने के अलावा, ग्राम पंचायतों, ग्राम विकास अधिकारियों और राष्ट्रीय संस्थाओं जैसे राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन को इस कलंक को दूर करने की दिशा में काम करने का प्रयास करना चाहिए। इसके लिए इन इकाइयों को ग्रामीण निवासियों के साथ समन्वय स्थापित करना चाहिए तथा मिलकर काम करने के साथ ही उनके लिए वैकल्पिक उत्पादों के लिए अपशिष्ट संग्रह संचालन, सामग्री की वसूली और बाजार से जुड़ाव आदि के क्षेत्र में आजीविका के अवसर पैदा करने के प्रयासों का समर्थन करना चाहिए।

एक अन्य महत्वपूर्ण कारक यह भी ही कि अधिक घनी आबादी वाले मैदानी इलाक़ों की तुलना में पहाड़ी क्षेत्रों के कठिन इलाक़ों में जनसंख्या का फैलाव व्यापक होता है। इसके कारण स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण निर्देशों के तहत केंद्र सरकार द्वारा ग्राम पंचायतों को प्रति व्यक्ति दी जाने वाली राशि ख़र्चों से निपटने के लिए अपर्याप्त होती है।

समस्या की इस व्यवस्थित प्रकृति का सीधा मतलब यह है कि इसके लिए किसी एक संस्था या हितधारक को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। निश्चित रूप से आईएचआर में कचरा प्रबंधन समस्या को हल करने की तत्काल आवश्यकता है, लेकिन इस दिशा में मौजूदा प्रयास इस मुद्दे के पैमाने के अनुरूप नहीं हैं। महासागर प्लास्टिक प्रदूषण से निपटने में महत्वपूर्ण वैश्विक निवेश को देखते हुए अब समय आ गया है कि हम अपने शक्तिशाली हिमालय की रक्षा के लिए आवश्यक संसाधनों का भी निवेश करें।

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तकनीक को लेकर सामाजिक क्षेत्र की सोच कैसे ग़लत है

आज तकनीक सामाजिक क्षेत्र से जुड़े हर तरह के कामकाज का हिस्सा बन गई है—तमाम प्रक्रियाओं को लागू करने और उनकी गुणवत्ता तय करने, डेटा इकट्ठा करने से लेकर निगरानी, मूल्यांकन और संगठन को आगे बढ़ाने तक में यह मददगार है। कोरोना महामारी के दौरान यह तब साफ़तौर पर दिखाई दिया जब सभी संगठनों ने अपने समुदायों के संपर्क में रहने और कार्यक्रमों को उन तक पहुंचाने के लिए व्हाट्सएप औऱ ज़ूम जैसे साधनों का रुख किया। इसके बाद भी सोशल सेक्टर में तकनीक को एक अतिरिक्त साधन की तरह देखा जाता है। कार्यक्रमों का बजट बनाते हुए, स्वयंसेवी संस्थाओं (और दानदाताओं) को अपनी मानसिकता बदलने और तकनीक को इंफ़्रास्ट्रक्चर (मूलढांचे) की तरह देखने की ज़रूरत है। ऐसा ना करने पर संस्थाओं को नुक़सान होता है क्योंकि तकनीक का खर्च उन्हें यूं भी वहन करना ही पड़ता है। ऐसे में इसका समुचित उपयोग न कर पाना समझदारी नहीं है।

हम तकनीक को ठीक से नहीं समझते हैं

1. तकनीक सुविधा है, समाधान नहीं

टेक4डेव में अपने काम के दौरान हमने देखा कि जब तकनीक का इस्तेमाल करने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं की बात आती है तो हमें कुछ गलतफहमियों या धारणाओं का सामना करना पड़ता है। सोशल सेक्टर में इससे जुड़ी पहली धारणा यह है कि तकनीक समाधान है। दरअसल तकनीक एक सुविधा है—यह एक प्रभावी, कुशल समाधान को संभव बनाती है। यह खुद किसी समस्या का समाधान नहीं कर सकती है। उदाहरण: मोबाइल डेटा कलेक्शन के लिए तकनीक का इस्तेमाल करना बढ़िया बात है। लेकिन प्रभावी तरीक़े से तकनीक का इस्तेमाल करने के लिए संगठन के पास ऐसी प्रक्रिया और व्यवस्था होनी चाहिए जो सुनिश्चित करें कि कौन सा डेटा इकट्ठा करना है, किससे करना है। साथ ही इन प्रक्रियाओं और व्यवस्थाओं में प्रशिक्षित फ़ील्ड कर्मचारियों की भी ज़रूरत होती है जिन्हें डेटा संग्रहण और इससे जुड़ी समस्याओं के बारे में भी जानकारी हो। इस स्थिति में तकनीक की मदद से उच्च-गुणवत्ता वाला डेटा इकट्ठा किया जा सकता है लेकिन इसे कैसे करना है यह केवल संस्था को पता होता है।

2. संगठन के छोटे या बड़े होने से फर्क नहीं पड़ता है

एक दूसरी धारणा यह है कि तकनीक आधारित समाधान के क्रियान्वयन से पहले संगठन का एक विशेष आकार तक पहुंचना आवश्यक होता है। दूसरे शब्दों में तकनीक ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले छोटे संगठनों के लिए नहीं होता है। इस बारे में सोचने का बेहतर तरीक़ा यह है कि आप स्वयं से पूछें कि: क्या अभी मेरे पास इस समस्या का समाधान है, और क्या उस समाधान के क्रियान्वयन का कोई व्यवस्थित तरीक़ा अभी उपलब्ध है? यदि आपका जवाब हां है तो इस बात का कोई ख़ास महत्व नहीं रह जाता है कि संगठन कितना बड़ा है। उदाहरण के लिए, हमने छोटे संगठनों को बहुत ही प्रभावी तरीक़े से गूगलशीट का इस्तेमाल करते देखा है। आप छोटे स्तर पर सस्ती तकनीक का इस्तेमाल कर सकते हैं, और आप बड़े स्तर पर भी सस्ती तकनीक का प्रयोग कर सकते हैं। हमने बड़े और छोटे दोनों ही स्तर के संगठनों में ख़राब तकनीक का इस्तेमाल भी देखा है। इसलिए इतना तो तय है कि तकनीक के इस्तेमाल का संबंध संगठन के आकार से नहीं बल्कि व्यवस्थात्मक दृष्टिकोण से होता है। तकनीक चीजों को आसान और कुशल तो बनाती है लेकिन यह उसकी जटिलता को बढ़ा भी देती है। इसका इस्तेमाल करने के लिए कर्मचारियों को कई नई बातें जानने और सीखने की ज़रूरत पड़ती है।

संख्याओं के साथ लेबल की गई कुकीज़ जो '1+2=4' की जोड़ की गलती को दर्शाता है-तकनीक स्वयंसेवी संगठन
हमें तकनीक के लिए एक ऐसा ज्ञानाधार बनाने की ज़रूरत है जिसे हर कोई स्वयंसेवी संस्था, दानकर्ता और सॉफ़्टवेयर पार्ट्नर सीख सके। | चित्र साभार: पिक्साबे

हम एक स्वयंसेवी संगठन के साथ काम कर रहे थे—चलिए इसका नाम टीम हेल्थ रख लेते हैं—इनके पास बहुत बड़ी संख्या में फ़ील्ड कर्मचारी थे जिनसे यह संगठन व्हाट्सएप, ईमेल और फ़ोन कॉल जैसे विभिन्न माध्यमों से डेटा प्राप्त कर रहा था। इसमें से एक भी डेटा मानक या व्यवस्थित नहीं था और न ही इसमें कोई भी डेटा रिकॉर्डेड था। टीम हेल्थ इसे बदलना चाहती थी। वे एक ऐसा ऐप चाहते थे जिसमें उनके सभी फ़ील्डकर्मचारियों को पता हो कि तकनीक की आवश्यकतानुसार जानकारी को सटीक तरीके से कैसे दर्ज करना है। इससे उन्हें अपनी ज़रूरत के अनुसार मानक डेटा प्राप्त हो जाएगा। लेकिन उस समय उनकी प्रक्रिया मानकीकृत नहीं थी और उनके फ़ील्डवर्कर को एक ख़ास तरीक़े से ही डेटा जमा करने की आदत थी, इसलिए इस ऐप से उनकी समस्या का समाधान नहीं होता। अगर उन्होंने ये तरीक़ा अपना लिया होता तो शायद उनके लिए स्थितियां और बुरी हो सकती थीं।

3. दानदाताओं सेफंड टेकयानी तकनीक के लिए सहयोग मांगना

संगठनों के बीच तीसरी सबसे बड़ी धारणा यह है कि दानदाता तकनीक के लिए पैसे देने में संकोच करते हैं। दानदाताओं से ‘तकनीक के लिए फंड’ की मांग करने के बजाय स्वयंसेवी संस्थाओं को यह बताना चाहिए कि संगठन के संचालन के लिए तकनीक क्यों महत्वपूर्ण है। उन्हें इस बिंदु को अपने प्रस्तावों में इसी रूप में अवश्य शामिल करना चाहिए। इसे संभव बनाने के लिए हमें दानदाताओं और स्वयंसेवी संस्थाओं, दोनों को ही इसके बारे में समझाने की ज़रूरत है।

चलिए, अब टीम सैनिटेशन नाम के एक संगठन का उदाहरण लेते हैं जो भारत में शहरी गरीब लोगों के लिए सामुदायिक शौचालय उपलब्ध करवाने का काम करता है। अपने दिन प्रति दिन के कामकाज के लिए यह संगठन डेटा संग्रहण और भौगोलिक सूचना व्यवस्था (जीआईएस) के लिए ठीक-ठाक मात्रा में तकनीक का इस्तेमाल करती है। इसलिए टीम सैनिटेशन ने अपने फ़ंडिंग प्रस्तावों में इन तकनीकों से जुड़े ख़र्चों (उदाहरण के लिए लाईसेंसिंग और संचालन लागत) को अनिवार्य प्रोजेक्ट खर्च के रूप में शामिल करना शुरू कर दिया। ऐसा करने पर उन्हें अपने दानदाताओं से किसी तरह के प्रतिरोध का भी सामना नहीं करना पड़ा। यदि एक संगठन अपने कार्यक्रमों के अनुरूप ही तकनीक की आवश्यकता का प्रदर्शन करता है तो ज़्यादातर दानदाताओं को ऐसे मुख्य ख़र्चों के लिए सहायता देने में समस्या नहीं होगी।

4. यह मानना कि आपकी समस्या किसी और की समस्या नहीं है

कई संगठन चौथी सबसे आम गलती, यह सोचने की करते हैं कि उन्हें कस्टम टेक सॉल्यूशन यानी उनके लिए ख़ासतौर पर तैयार किए गए तकनीक समाधानों पर एकदम शून्य से काम करने की ज़रूरत है। इसके बारे में सोचने से पहले स्वयंसेवी संस्थाओं को उनकी समस्याओं और ज़रूरतों को परिभाषित करने की ज़रूरत होती है। उनकी प्रमुख समस्याएं क्या हैं, वे महत्वपूर्ण क्यों हैं, और वे जिस काम को करने की कोशिश कर रहे हैं तकनीक उसे कैसे प्रभावित करती है। यह जानकारी उन्हें यह समझने में सहायक होगी कि तकनीक किन परिस्थितियों में उनकी मदद कर सकती है और किन परिस्थितियों में नहीं। यदि तकनीक ही असली समाधान है तो वास्तव में बहुत कम स्वयंसेवी संस्थाओं के पास ऐसी अलग औऱ मुश्किल समस्याएं होंगी जिन्हें हल किए जाने की ज़रूरत है। संदर्भ, समुदाय और संसाधन भिन्न हो सकते हैं, लेकिन मूल रूप से जिस समस्या का हल एक स्वयंसेवी संगठन ढूंढने का प्रयास कर रहा है, संभव है कि उसका समाधान किसी अन्य व्यक्ति द्वारा ढूंढ़ा जा चुका होगा।

तकनीकी समाधानों के लिए शून्य से शुरूआत करने की बजाय मौजूदा समाधानों और उपकरणों को खोजना बेहतर है।

उदाहरण के लिए, एक ऐसे संगठन को लेते हैं जो प्राथमिक विद्यालय के शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए काम करता है। संगठन को पता चलता है कि इतने बड़े पैमाने पर, शिक्षकों को व्यक्ति रुप से प्रशिक्षित करना बहुत महंगा है। निश्चित रूप से ऐसे और संगठन भी होंगे जिन्हें लागत और बड़े पैमाने पर काम करने से जुड़ी इन चुनौतियों का सामना करना पड़ा होगा और उन्होंने इसके समाधान के लिए प्रयास किए होंगे। लेकिन इसके बाद भी नॉन-प्रॉफिट सेक्टर में कस्टम टेक प्लेटफ़ॉर्म बनाने का एक चलन है। दानदाता और स्वयंसेवी संस्थाओं दोनों को ही इसका खर्च उठाना पड़ता है और फिर कोई समाधान मिल पाता है। कुछ मामलों में असफल होने पर निवेश रद्द कर दिया जाता है और कुछ में इतनी प्रगति नहीं हुई होती कि जिसे दिखाया जा सके। कस्टम तकनीक न केवल संसाधनों, समय और प्रयास की बर्बादी है बल्कि इसे बड़े पैमाने पर कर पाना भी मुश्किल होता है। इस कारण से, शुरू से समाधान खोजने में संसाधनों के निवेश की बजाय पहले से मौजूद ऐसे समाधानों और उपकरणों को खोजना बेहतर है जिन्हें अपनी ज़रूरतों के मुताबिक़ बदला जा सकता हो। हमने विभिन्न स्वयंसेवी संस्थाओं में मोबाइल डेटा संग्रह प्लेटफ़ॉर्म, केस मैनेजमेंट सिस्टम और ग्राहक संबंध प्रबंधन (सीआरएम) सिस्टम के कई कस्टम बिल्ड देखे हैं, जिनमें से अधिकांश वर्तमान समय में मौजूद ओपन-सोर्स और व्यावसायिक रूप से उपलब्ध समाधानों की तुलना में कमतर और अपर्याप्त थे। ‘रिसर्च बिफोर बिल्ड’ एक ऐसा मंत्र है जिसका हम टेक4डेव में निष्ठापूर्वक पालन करते हैं।

हमें सहयोग और ज्ञान साझा करने वाली एक ऐसी संस्कृति बनाने की जरूरत है जहां सभी को लाभ हो

कई स्वयंसेवी संस्थाएं जिन समस्याओं को हल करने की कोशिश कर रही हैं अगर उनके समाधान पहले से ही मौजूद हैं तो सवाल यह उठता है कि ऐसी जानकारी तक पहुंचने के रास्ते में कौन सी बाधाएं हैं?

अधिकांश स्वयंसेवी संस्थाओं के पास ऐसा तकनीकी ज्ञान या विशेषज्ञता नहीं है जो यह समझने में सहायक हो कि उनकी किसी ख़ास समस्या के लिए कौन से उपकरण उपयोगी हो सकते हैं। समस्या और संभावित उपयोगी तकनीकों के बीच के बिंदुओं को जोड़ने की ज़िम्मेदारी आमतौर पर सॉफ़्टवेयर पार्टनर की होती है। हालांकि सॉफ़्टवेयर पार्टनरों के पास अक्सर सोशल सेक्टर में सीमित अनुभव होता है इसलिए संगठन की समस्या के प्रति उनका दृष्टिकोण केवल स्वयंसेवी संस्थाओं के लिए एक समाधान भर तैयार करना होता है। यह आदर्श स्थिति से बहुत अलग है। हमें न केवल ऐसे सॉफ़्टवेयर पार्टनर की ज़रूरत है जो सोशल सेक्टर और स्वयंसेवी संस्थाओं के उद्देश्यों दोनों से वाक़िफ़ हो बल्कि हमें ऐसे स्वयंसेवी संगठनों की भी ज़रूरत है जो तकनीक की अपनी समझ को मज़बूत बनाएं।

इस क्रम में, हमें तकनीक के लिए एक ऐसा ज्ञानाधार बनाने की ज़रूरत है जिससे हर कोई सीख सके—स्वयंसेवी संस्था, दानकर्ता और सॉफ़्टवेयर पार्टनर। इस तरह का खुला इकोसिस्टम फ़ंडर को यह महसूस करने में भी मदद करेगा कि वे किन बिंदुओं पर एक ही समाधान के लिए कई संगठनों में निवेश कर रहे हैं और इससे संगठनों को भी एक दूसरे के काम से सीखने में मदद मिलेगी।

हमें काम के ओपन-सोर्स प्रकाशन को प्राथमिकता देनी होगी

तकनीक के समाधान स्वयंसेवी संगठनों के लिए सुलभ हों, ऐसी व्यवस्था बनाने के लिए पहला कदम मौजूदा ज्ञान को सभी संबंधित हितधारकों के साथ बांटना है। स्वयंसेवी संगठनों को अपने कार्यक्रम, चुनौतियों, समाधानों और अनुभवों को आम जनता के साथ साझा करना चाहिए। उदाहरण के लिए, यदि कोई स्वयंसेवी संगठन अपने एक प्रोजेक्ट में 300 घंटे काम करता है तो उसे कम से कम 10 घंटे का समय ओपन-सोर्स सामग्री तैयार करने में लगाना चाहिए। इससे लोगों को उनके द्वारा किए जा रहे काम को समझने में मदद मिल सकेगी।

संगठनों को अपने ‘ट्रेड सीक्रेट’ को दूसरों के साथ साझा करने के डर से आगे बढ़ना चाहिए।

सोशल सेक्टर में काम कर रहे संगठनों के लिए ओपन-सोर्स सामग्रियों के जरिए जागरूकता फैलाना जरूरी है ताकि वे एक-दूसरे की मदद कर सकें और एक-दूसरे से सीख सकें। लेकिन यह तुरंत नहीं हो सकता है। जैसे-जैसे और अधिक संगठन तकनीकी विशेषज्ञता साझा करने लगेंगे वैसे-वैसे सोशल सेक्टर का अपना व्यापक इकोसिस्टम तेज़ी से बनने लगेगा। संगठनों को अपने ‘ट्रेड सीक्रेट’ को दूसरों के साथ साझा करने के डर से आगे बढ़ना चाहिए और इस तथ्य में विश्वास रखना चाहिए कि इसमें निवेश से उन्हें भविष्य में लम्बे समय में लाभ होगा।

दान दाताओं और मध्यस्थ संगठनों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है

आईडीइन्सायट जैसे संगठनों ने अपने काम को समय-समय पर प्रकाशित कर बहुत ही शानदार काम किया है। यह उनके ब्लॉग और लिंक्डइन पेज पर देखा जा सकता है। इस जानकारी को साझा करने से इकोसिस्टम के विविध खिलाड़ियों को मदद मिलती है जिससे एक मज़बूत इकोसिस्टम तैयार होता है। दानदाता इन संगठनों को अपने काम को प्रकाशित करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं क्योंकि इसका मुख्य उद्देश्य ज्ञान को जल्द से जल्द प्रसारित करने में मदद करना है। हमें तब तक इंतजार नहीं करना चाहिए जब तक कि सही और अच्छी तरह से तैयार की गई रिपोर्ट न बन जाए। काम की प्रगति के साथ ही उसे प्रकाशित करना उन परियोजनाओं का एक और मंत्र है जिन्हें हम टेक4डेव में चलाते हैं।

वर्तमान में भारत में एक इकोसिस्टम बनाने की जिम्मेदारी स्वयंसेवी संस्थाओं की तुलना में दानदाताओं और मध्यस्थ संगठनों पर अधिक है। ऐसा इसलिए है क्योंकि स्वयंसेवी संस्थाओं के पास संसाधनों की कमी है और वे अपने अधिकांश प्रयासों को अपने कार्यक्रमों के प्रति ही समर्पित रखते हैं। इसके अलावा, उनके पास उस तरह का प्रभाव और दबदबा नहीं है जो दानदाताओं के पास है, और सम्भव है कि उनमें इस काम के लिए पर्याप्त कौशल की भी कमी हो।

पहला कदम जो दानदाता उठा सकते हैं, वह पारंपरिक अनुबंधों से दूर जाना है जो सामग्रियों और बौद्धिक संपदाओं (आईपी) के वितरण पर रोक लगाते हैं और सार्वजनिक डोमेन में आईपी साझा करने की दिशा में बढ़ना है। इसके अलावा, यह देखते हुए कि दानदाता आमतौर पर एक विशिष्ट क्षेत्र के भीतर कई संगठनों के साथ काम करते हैं, वे यहां एक बड़ी तस्वीर तैयार कर सकते हैं। वे स्वयंसेवी संस्थाओं को सॉफ़्टवेयर पार्टनर चुनने में भी मदद कर सकते हैं। यहां उन्हें फ़ंडर-नॉनप्रॉफिट वाली पावर डायनामिक की विषमताओं के प्रति संवेदनशील रहना होगा और एक निर्देश देने वाली भूमिका से निकलकर सहयोगी की भूमिका में आना होगा। सोशल सेक्टर के भीतर ही तकनीकी इकोसिस्टम को मज़बूत बनाने के लिए फ़ंडर बहुत कुछ कर सकते हैं। दुर्भाग्यवश बहुत कम दानदाता और संगठन इस इकोसिस्टम पर ध्यान देते हैं। हमें इकोसिस्टम और प्लेटफार्मों को बहुत तेज़ी से बनाने और उन्हें बनाए रखने के लिए पर्याप्त सहायता प्रदान करने की दिशा में अधिक प्रयास करने की ज़रूरत है। सोशल सेक्टर को इसकी ज़रूरत है ताकि संगठन अपने द्वारा किए जाने वाले कामों में तकनीक को बेहतर और अधिक सुनियोजित तरीके से शामिल कर सकें।

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अनौपचारिक श्रमिकों के लिए सुरक्षित प्रवास की स्थायी व्यवस्था कैसे की जा सकती है

मार्च 2020 में कोविड-19 महामारी की शुरुआत और उसके बाद देश भर में लगे लॉकडाउन ने भारत में गांव से शहरों की तरफ़ हुए पलायन की गम्भीरता और प्रवासी श्रमिकों एवं उनके परिवारों की वास्तविक दुर्दशा को सामने लाने का काम किया था। सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित ग्रामीण समुदायों के लिए काम के लिए शहरों में जाकर बसना एक मुख्य रणनीति रही है।

प्रवासी श्रमिकों के साथ काम करने के बाद हमारा अनुभव कहता है कि प्रवासन के चलते होने वाला विकास उस क्षेत्र की सामाजिक और आर्थिक छवि को प्रभावित कर सकता है। प्रवासी श्रमिकों द्वारा दिया गया धन गावों की अर्थव्यवस्था की सुगमता बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इससे न केवल प्रवासी श्रमिकों के परिवार लाभान्वित होते हैं बल्कि पूरे गांव की अर्थव्यवस्था को लाभ पहुंचता है। इससे जीवन स्तर बेहतर होता है, बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के ज़रिए मानव विकास (ह्यूमन डेवलपमेंट) में निजी निवेश बढ़ता है, उत्पादन से जुड़े संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल होता है और पैदावार में वृद्धि होती है। इसके अलावा इस तरह से हुआ विकास लंबे समय तक चलता रह सकता है।

किसी आपदा या संकट के कारण होने वाले प्रवास और रोज़गार के नए मौक़े खोजने के लिए किए गए प्रवास के बीच अंतर करना ज़रूरी है। इन दोनों को अलग करने वाली चीज़, लोगों में प्रवास से जुड़े फ़ैसलों को नियंत्रित करने की क्षमता है। इसे इस उदाहरण से समझ सकते हैं: जलवायु-संवेदनशील क्षेत्रों में प्रवास के विषय पर किए गए एक अध्ययन में जीवन को बचाने के लिए किए गए प्रवास और अनुकूलन के लिए किए गए प्रवास के बीच के अंतर को पहचाना गयाइसे दूसरे शब्दों में संकट से निकलने के लिए किया गया प्रवास और विकास के लिए किया गया प्रवास कहा जा सकता है।

आदमी अपनी साइकिल को पानी के पार ले जा रहा है-प्रवासी मज़दूर
अधिकतर सरकारी नीतियां प्रवासियों के जीवन पर कोई संतोषजनक प्रभाव नहीं डाल पाती हैं। | चित्र साभार: ग्राम विकास

साल 2019 से सेंटर फ़ॉर मायग्रेशन एंड इंक्लूसिव डेवलपमेंट (सीएमआईडी) और ग्राम विकास मिलकर ओडिशा में सुरक्षित और सम्मानजनक प्रवासन पर काम कर रहे हैं।

यह काम करते हुए साल 2019 से 2021 के बीच हम लोगों ने चार इंडिपेंडेंट एम्पिरिकल स्टडीज़ (स्वतंत्र प्रयोग और अनुभव आधारित अध्ययन) किए। ओडिशा के कुछ चुनिंदा जिलों में किए इन अध्ययनों का उद्देश्य देशभर में लगे लॉकडाउन से पहले यहां के परिवारों को मिलने वाली उस मासिक धनराशि का अनुमान लगाना था जो उन्हें उनके प्रवासी सदस्य भेजते थे। इन चुने हुए ज़िलों के परिवारों को मिलने वाली मासिक धनराशि अच्छी थी। एक अनुमान के अनुसार यह धनराशि गंजम में 124 करोड़ रुपए , कालाहांडी में 37 करोड़ रुपए, गजपति में 15 करोड़ रुपए और कंधमाल ज़िले में 16 करोड़ रुपए दर्ज की गई। कालाहांडी ज़िले के थुआमूल रामपुर प्रखंड में प्रवासियों के परिवारों को मिलने वाली धनराशि 30 करोड़ रुपए रही। यह धनराशि विभिन्न ग्रामीण विकास कार्यक्रमों के तहत सरकार द्वारा सालाना खर्च की जाने वाली राशि के बराबर है।

इस अध्ययन से यह भी सामने आया कि यदि लोगों को उनके गांव में ही 10,000–12,000 रुपए की मासिक आय देने वाला कोई काम मिल जाए तो उनमें से ज्यादातर अपना घर छोड़कर बाहर नहीं जाना चाहेंगे। हालांकि आर्थिक गतिविधियों के निम्न स्तर को देखते हुए निकट भविष्य में देश के अधिकांश इलाक़ों में यह सम्भव होता दिखाई नहीं पड़ता है। इसके साथ ही, जलवायु परिवर्तन जैसी नई उभरती चुनौतियों के कारण और ज्यादा लोगों को आजीविका के लिए दूसरी जगह जाने पर बाध्य होना पड़ रहा है। यह सही है कि प्रवासी कामगार भारत के महानगरों की रीढ़ हैं और उनके गांव छोड़ देने के कारण ही पीछे रह गए लोगों को तत्कालिक आर्थिक समाधान मिल पाता है। लेकिन प्रवासियों और उनके परिवारों को इसकी भारी क़ीमत चुकानी पड़ती है।

भारत के अधिकतर राज्यों में राशन कार्ड व्यक्तिगत रूप से आवंटित करके पूरे घर को आवंटित किया जाता है, जिससे समस्या और अधिक जटिल हो जाती है।

वैसे तो सरकारी नीतियां लोगों को जीवन के अनुकूल वातावरण प्रदान करती हैं लेकिन इनसे प्रवासियों के जीवन में कोई संतोषजनक अंतर नहीं आया है। उदाहरण के लिए, अंतरराज्यीय प्रवासी कामगार विनियमन अधिनियम (1979) ठेकेदारों के लिए लाइसेंस और उनके अपने राज्यों से बाहर के श्रमिकों को काम पर रखने के लिए प्रतिष्ठानों का रजिस्ट्रेशन अनिवार्य बनाता है। इसके साथ ही यह श्रमिकों के लिए कई अन्य कल्याणकारी साधन प्रदान करता है। इन साधनों में विस्थापन भत्ता, यात्रा भत्ता, स्थानीय श्रमिकों के बराबर मज़दूरी और बिना किसी लिंग-भेद के मज़दूरी दिया जाना शामिल है। हालांकि यह प्रवासी मज़दूरों के लिए बहुत अधिक उपयोगी साबित नहीं हुआ। संबंधित क्षेत्र के श्रम विभाग में सीमित मानव संसाधन, नियमों के ख़राब क्रियान्वयन, भ्रष्टाचार, सीएसओ और ट्रेड यूनियनों के सीमित प्रभाव, जागरूकता की कमी और प्रवासी श्रमिकों की अपने अधिकारों को लेकर बातचीत कर सकने की अयोग्यता जैसे कारक भी इस स्थिति के मुख्य कारण हैं। अनौपचारिक रूप से नियुक्त होने के कारण इन श्रमिकों को कर्मचारियों के राज्य बीमा या भविष्य निधि सुविधाओं का लाभ भी नहीं मिलता है।

हालांकि वन नेशन वन राशन कार्ड (ओएनओआरसी) योजना पोर्टबिलिटी (देश के किसी भी राज्य में राशन कार्ड के इस्तेमाल की योग्यता) की सुविधा प्रदान करता है लेकिन इससे अभी तक प्रवासी श्रमिकों को उनके काम वाली जगहों पर राशन प्राप्त करने में कुछ ख़ास मदद नहीं मिल सकी है। ज़्यादातर योजनाओं की तरह ही इस पहल को भी सही तरह से प्रचारित न किए जाने के चलते सम्भावित लाभार्थियों में इसे लेकर कोई जागरुकता नहीं है। भारत के ज़्यादातर राज्यों में राशन कार्ड व्यक्ति विशेष के लिए न होकर पूरे परिवार के लिए आवंटित किया जाता है जो इस तरह के मामलों को और अधिक जटिल बना देता है। ओएनओआरसी के तहत राशन को मूल निवास और प्रवास स्थान के बीच विभाजित किया जा सकता है लेकिन इस तरह की समझ के साथ काम किया जाना उतने बड़े स्तर पर संभव नहीं हो पाया है।

प्रवासन के दर में होने वाली वृद्धि की सम्भावना और नीतियों के कार्यान्वयन में उपस्थित कमियों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि परिवारों के सुरक्षित, सम्मानजनक और समावेशी प्रवासन को सुनिश्चित करने में स्वयंसेवी संगठन अपनी स्पष्ट भूमिका निभा सकते हैं। महामारी के दौरान इन मुद्दों पर काम के अपने अनुभवों के आधार पर हम कुछ उपाय सुझा रहे हैं जिनका उपयोग स्वयंसेवी संस्थाएं प्रवासियों के साथ काम करने के दौरान कर सकती हैं।

मूल निवास से प्रवास स्थान (सोर्स-डेस्टिनेशन कॉरिडोर) तक पहुंचने में मध्यस्थता करना

सोर्स-डेस्टिनेशन कॉरिडोर के विचार में मूल निवास से प्रवास स्थान तक की पूरी प्रक्रिया और अनुभव की जानकारी होती है। इससे प्रवासियों, उनके परिवारों और दोनों ही संदर्भों में एक बड़े समुदाय के सामने आने वाले अवसरों और चुनौतियों की पहचान करने में मदद मिलती है।

मूल निवास और प्रवास स्थान दोनों ही क्षेत्रों को शामिल कर मध्यस्थता करना सिर्फ़ एक क्षेत्र को शामिल करने वाली मध्यस्थता की तुलना में अधिक असरदार होता है। प्रवास के दोनों सिरों पर ध्यान देना श्रमिकों और उनके परिवार के सदस्यों के लिए अंतरराज्यीय समन्वय और सेवाओं तक निर्बाध पहुंच को सुविधाजनक बनाता है। यह तरीका उस स्थिति में अधिक कारगर होता है जब या तो संगठन की उपस्थिति मूल निवास और प्रवास स्थान दोनों ही जगहों पर होती है या फिर मूल निवास और प्रवास स्थानों पर काम कर रहे संगठनों के बीच समन्वय होता है।

उदाहरण के लिए, राजस्थान, सूरत, अहमदाबाद और मुंबई में काम कर रही आजीविका ब्यूरो नाम की स्वयंसेवी संस्था कामकाज के लिए राजस्थान के ग्रामीण इलाक़ों से उदयपुर, अहमदाबाद या मुंबई जाने वाले प्रवासी श्रमिकों की मदद करती है।

ग्राम विकास एवं सीएमआईडी मूल निवास से प्रवास स्थान तक सुरक्षित प्रवास कार्यक्रम के लिए एक साथ मिलकर काम कर रहे हैं। जब ओडिशा के कालाहांडी ज़िले के श्रमिक काम के लिए केरल वापस नहीं लौट पा रहे थे तब ग्राम विकास ने दूसरे गांवों से प्रवासियों को लाने और उनकी यात्रा बीमा करवाने का प्रबंध किया था। ग्राम विकास से प्रवासियों की ज़रूरतों से संबंधित जानकारी मिलने के बाद सीएमआईडी ने वहां पहुंच रहे प्रवासी श्रमिकों के लिए सम्भावित औपचारिक रोज़गार अवसरों की पहचान का काम शुरू कर दिया। इसने ओडिशा से केरल की उनकी यात्रा की पूरी ज़िम्मेदारी उठाई और वहां पहुंचने के बाद श्रमिकों की कोविड-19 की जांच भी की गई। इसके अलावा श्रमिकों को बैंक खाता खुलवाने में भी मदद दी गई और किसी भी तरह की शिकायत का निवारण मिल-जुलकर कोशिश कर किया जाता था।

साक्ष्यों पर आधारित कार्यक्रम बनाएं (एविडेंस इंफॉर्म्ड इंटरवेंशन)

एक से दूसरी जगह पर प्रवासन के लिए कार्यक्रम बनाते हुए पहले उपलब्ध जानकारी और अनुभवों का इस्तेमाल कर इसे अधिक कारगर तरीक़े से किया जा सकता है। मूल निवास वाले स्थानों पर यह समझना कि कितनी बड़ी संख्या में लोगों को बाहर जाना है, सामुदायिकता के आधार पर अलग तरह से प्रवास की व्यवस्था और लोगों की उम्मीदों के मुताबिक़ मध्यस्थता की सुविधा दी जा सकती है। उदाहरण के लिए ग्राम विकास और सीएमआईडी द्वारा किए गए अध्ययन से यह सामने आया कि कालाहांडी और कंधमाल के ज़्यादातर श्रमिक केरल जाते हैं, वहीं गंजम ज़िले के मज़दूर प्रवास के लिए सूरत जाते हैं। इस तरह की जानकारियों से मूल निवास क्षेत्रों में कार्यरत संगठनों को सहयोग के लिए संबंधित प्रवास स्थानों पर कार्यरत संगठनों का पता लगाने में सुविधा होती है और वे अपने क्षेत्रों से जाने वाले श्रमिकों के कल्याण को सुनिश्चित कर पाते हैं।

श्रमिकों की मातृभाषा में वॉइस संदेश के माध्यम से सूचना देने से अनपढ़ लोग भी लाभान्वित हो सकते हैं।

प्रवास स्थानों पर, प्रवासी श्रमिकों की प्रोफाइल की जानकारी उपलब्ध होने से उन तक पहुंचने के लिए कारगर रणनीति तैयार करने में मदद मिल सकती है। उदाहरण के लिए, प्रिंट मीडिया में सूचना, शिक्षा और संचार सामग्री से अनपढ़ श्रमिकों को लाभ नहीं होगा। हालांकि ऐसे टारगेटेड समूहों तक उनकी मातृभाषा में तैयार किए गए वॉइस संदेश आसानी से पहुंच सकते हैं। केरल के एर्नाकुलम ज़िले में 40 फ़ीसदी प्रवासी मज़दूर पश्चिम बंगाल के मूल निवासी हैं, वहीं 20 फ़ीसदी असम और तमिलनाडु से और 12 फ़ीसदी प्रवासी श्रमिक ओडिशा के हैं। आगे बढ़कर काम करने वाले कार्यकर्ताओं की भर्ती और इन प्रवासी श्रमिकों के साथ प्रभावी संचार सुनिश्चित करने के लिए और एक उपयुक्त भाषा का चुनाव करने के लिए यह जानकारी महत्वपूर्ण है।

क्रॉस-कटिंग पार्टनरशिप बनाएं

प्रवासी श्रमिकों के कल्याण को सुनिश्चित करने में सरकारी-निजी साझेदारी की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। इस तरह की साझेदारी का लाभ प्रवास स्थानों पर प्रवासी श्रमिकों के स्वास्थ्य की देखभाल पर स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों पर आम तौर पर आउट पेशेंट सेवाओं या डॉक्टरों से सलाह लेने का समय और प्रवासियों के काम का समय एक ही होता है। ऐसे में उनके लिए दिन की मजदूरी खोए बिना मुफ्त स्वास्थ्य सेवा प्राप्त करना मुश्किल हो जाता है। इसके कारण उन्हें अपने काम के बाद बग़ैर डॉक्टरी सलाह के निजी फ़ार्मेसी से दवाएं लेने पर बाध्य होना पड़ता है। दवा की दुकानों पर अक्सर बिना जांच के ही प्रवासी श्रमिकों को दवा दे दी जाती है। इस तरह, तपेदिक से पीड़ित किसी श्रमिक को टीबी की जांच और उसके उचित इलाज की उचित सलाह मिलने की बजाय साधारण कफ सिरप भर मिलता है।

सीएमआईडी के पास सार्वजनिक स्वास्थ्य में विशेषज्ञता थी और वे प्रवासी श्रमिकों की सुविधा के अनुसार अपनी सेवाएं भी दे सकते थे लेकिन उनके पास मोबाइल क्लिनिक को चलाने के लिए वित्तीय संसाधन उपलब्ध नहीं थे। मंगलोर रिफ़ायनरी एंड पेट्रोकेमिकल लिमिटेड (एमआरपीएल) एक सार्वजनिक क्षेत्र का उद्यम है। इसने मोबाइल क्लिनिक के रूप में इस्तेमाल किए जाने वाले वाहन को ख़रीदने में होने वाला खर्च अपने ज़िम्मे लेने का प्रस्ताव दिया। विप्रो लिमिटेड ने अपने सीएसआर पहल के अंतर्गत इस मोबाइल क्लिनिक के संचालन के लिए आर्थिक मदद देने की पेशकश की। इस खर्च में कर्मचारियों, दवाइयों, अन्य सामग्री तथा गाड़ी के लिए ईंधन की लागत शामिल थी। नेशनल हेल्थ मिशन (एनएचएम) ने इस कार्यक्रम के क्रियान्वयन के तकनीकी पहलुओं का ज़िम्मा अपने ऊपर लिया और साथ ही किसी भी अन्य प्रकार की दवाइयां और सामग्री को उपलब्ध करवाने का काम भी किया। एनएचएम ने रेफरल सेवाओं/फॉलो-अप की आवश्यकता वाले मामलों के प्रबंधन करने के लिए एर्नाकुलम में सार्वजनिक स्वास्थ्य संस्थानों के साथ जोड़े जाने की सुविधा प्रदान की। इससे सीएमआईडी बंधु क्लिनिक के संचालन में सक्षम हो सका। बंधु क्लिनिक एक ऐसा मोबाइल क्लिनिक है जो श्रमिकों को उनके काम के घंटे ख़त्म होने के बाद मुफ़्त प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करवाता है। इस क्लिनिक ने कई ईंट भट्टों, मछली पकड़ने वाले तटों, प्लाईवुड कारखानों, मछली प्रसंस्करण इकाइयों, औद्योगिक समूहों, फुटलूज़ श्रम के आवासीय क्षेत्रों और एर्नाकुलम के बाजारों में 40,000 से अधिक प्रवासी श्रमिकों को अपनी सेवा प्रदान की है। इन मोबाइल क्लीनिकों ने 70,000 प्रवासी श्रमिकों को कोविड-19 का टीका लगवाने में भी प्रशासन की मदद की है।

ज़रूरत के मुताबिक सुविधा तंत्र बनाना

मूल निवास एवं प्रवास स्थान दोनों ही जगहों पर रिसोर्स सेंटर की उपयोगिता बहुत अधिक है। मूल निवास क्षेत्रों में ये केंद्र प्रवास से जुड़े निर्णय लेने की प्रक्रिया में संभावित प्रवासी श्रमिकों की मदद कर सकते हैं। साथ ही उन्हें रोज़गार अवसरों और आवश्यकताओं से जुड़ी सूचना देकर उन्हें एक अच्छी नौकरी तक पहुंचने के योग्य बना सकते हैं। वे यात्रा की योजना बनाने, टिकट आरक्षण और कोविड-19 टीका प्रमाणपत्र जैसे ज़रूरी काग़ज़ात तैयार करने में श्रमिकों की मदद कर सकते हैं। इसके साथ ही वे बैंक खाता खुलवाने और स्थानीय प्रशासनों से उनके सम्पर्क में भी मदद पहुंचा सकते हैं जिससे श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी सुविधाएं मिल सके।

ग्राम विकास, गंजम ज़िले में बेरहामपर रेलवे स्टेशन के पास श्रमिक बंधु सेवा केंद्र नाम का एक रिसोर्स सेंटर चलाता है। इस रेलवे स्टेशन से भारी संख्या में श्रमिक देश के अंदर और बाहर विभिन्न जगहों की यात्रा के लिए जाते हैं। यह सेंटर श्रमिकों को काम पर जाने या उनके वापस घर लौटने, दोनों ही समय में परिवहन से जुड़ी सुविधाएं मुहैया करवाता है।

कालाहांडी जिले के थुआमुल रामपुर ब्लॉक और कंधमाल जिले के दरिंगबाड़ी ब्लॉक में, ऐसे केंद्रों का एक नेटवर्क दूरदराज के गांवों के श्रमिकों को सूचना और दस्तावेज़ीकरण से जुड़ी सेवाएं प्रदान करता है। इन केंद्रों ने परिवार के सदस्यों को लापता श्रमिकों का पता लगाने, नियोक्ताओं द्वारा प्रवास स्थान पर जबरन हिरासत में लिये गए श्रमिकों की रिहाई करवाने और घर से दूर मरने वाले प्रवासी श्रमिकों के शवों की वापसी आदि जैसे कामों में मदद की है।

बैंक खाते खोलना और आंगनवाड़ी और स्कूलों में बच्चों के प्रवेश की सुविधा प्रदान करना उन सेवाओं में से हैं जिनका लाभ प्रवासी अपने प्रवास स्थान पर रिसोर्स सेंटर से प्राप्त कर सकते हैं।

प्रवास स्थान पर होने वाले रिसोर्स सेंटर विभिन्न सामाजिक कल्याणकारी योजनाओं में रजिस्ट्रेशन करवाने, सरकारी विभागों में शिकायत दर्ज करवाने और उनके निवारण के लिए समय-समय पर पूछताछ करने में श्रमिकों की मदद करते हैं। बैंक में खाते खोलना, आंगनवाड़ी और स्कूलों में बच्चों के प्रवेश की सुविधा, टीकाकरण के लिए नामांकन और श्रमिकों को नौकरी खोजने या कानूनी सहायता प्राप्त करने में मदद करना ऐसी कुछ सेवाएं हैं जो प्रवासी अपने प्रवास स्थान के रिसोर्स सेंटर्स से प्राप्त कर सकते हैं।

यह बात याद रखना महत्वपूर्ण है कि प्रवासन की प्रक्रिया में केवल प्रवासी श्रमिक ही एकमात्र हितधारक नहीं है बल्कि उनके पीछे छूट जाने वाला उनका परिवार भी उतना ही महत्वपूर्ण है। उनकी ज़रूरतें और चुनौतियां हमेशा ही बहुआयामी होती हैं और इसलिए उनकी मदद के लिए तैयार संसाधन भी बहुआयामी होने चाहिए। इसके लिए कई विषयों से संबंधित क्षेत्रों में काम करने और एजेंसियों के विविध समूह को एक साथ लाने की ज़रूरत है। मूल निवास के स्तर पर पंचायती राज संस्थान, सरकारी विभाग और वित्तीय संस्थान, यात्रा की सुविधा देने वाली संस्था, कौशल निर्माण संस्थान, पंचायती राज संस्थान, सरकारी विभाग और सेवा प्रदाता जैसे वित्तीय संस्थान, यात्रा सुविधा प्रदाता, कौशल संस्थान, भर्ती एजेंसियां और संसाधन केंद्र स्रोत स्तर पर प्रवासियों के लिए महत्वपूर्ण इकाइयां हैं। प्रवास स्थान पर नियोक्ता, उद्यम संघ, ट्रेड यूनियनों, मीडिया और यहां तक कि वहां के समाज की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है।

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एक दानदाता के दृष्टिकोण से धन इकट्ठा करना

बीते एक दशक में भारत का सोशल सेक्टर उल्लेखनीय रूप से विकसित हुआ है। अब अपेक्षाकृत कमजोर तबकों की मदद और राष्ट्र-निर्माण, दोनों ही क्षेत्रों में स्वयंसेवी संस्थाओं की भूमिका को पहचाना जाने लगा है। इसके बावजूद स्वयंसेवी संस्थाओं के लिए आर्थिक मदद हासिल करना (फंडरेजिंग) अब भी एक बड़ी चुनौती है। स्वयंसेवी संस्थाओं की तमाम मुश्किलों और पूंजी जुटाने की जटिलताओं सरीखी दो वास्तविकताओं पर गौर करें तो यह कहा जा सकता है कि किसी समाजसेवी संगठन को सफलतापूर्वक चलाने के लिए धन इकट्ठा करना सबसे जरूरी चीज है।

स्वयंसेवी संस्थाओं के लिए धन इकट्ठा करने की ज़िम्मेदारी उठाने वाले यानी एक फंडर (दानदाता) के रूप में हमें कई ऐसे अग्रणी संगठनों के साथ काम करने का मौक़ा मिला जो भारतीयों की सबसे बड़ी मुश्किलों को हल करने के लिए काम करते हैं। बीते एक दशक में धन इकट्ठा करने के लिए हमने 100 से भी अधिक स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ काम किया। इसी दौरान हुए अपने कुछ उल्लेखनीय अनुभवों को हम यहां साझा कर रहे हैं।

1. किसी संगठन के लिए धन इकट्ठा करना एक मुख्य गतिविधि है कि भटकाव

हाल के सालों में समाजसेवी संगठन और इन्हें चलाने वाले धन इकट्ठा करने को काम के अनिवार्य हिस्से की तरह स्वीकारने लगे हैं। इन्होंने इसे अपने कार्यक्रम के उद्देश्य की तरह ही केंद्र में रखना शुरू कर दिया है। इनके लिए अब यह ‘मुख्य काम’ से भटकाव नहीं है। समाजसेवी कार्यकर्ता अब यह समझते हैं कि इस काम को भी समय देने और इसमें ध्यान लगाने और सक्रिय रहने की ज़रूरत है। इसलिए धन इकट्ठा करने वाली किसी टीम की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि वह उद्यमी, अपने लक्ष्य के प्रति जुनूनी और अपने संगठन का सही तरीके से प्रतिनिधित्व करती हो। स्वयंसेवी संस्थाओं के शुरुआती चरण में संस्थापकों को अपना 40–50 फ़ीसदी समय धन इकट्ठा करने में और संगठन में इसकी संस्कृति विकसित करने में लगाने की ज़रूरत पड़ सकती है। 

2. संगठनों को धन इकट्ठा करने के लिए एक अच्छी और ऐसी व्यवस्था बनाने में निवेश करना चाहिए जोउनके उद्देश्य के लिए उपयुक्तहो

एक बढ़िया फंडरेजिंग टीम निस्संदेह सबसे अच्छे शुरुआती निवेशों में से एक है जो एक स्वयंसेवी संस्था कर सकती है। फंडरेजिंग टीम के उद्देश्य संगठन के अपने विकास लक्ष्यों के अनुरूप और उससे आगे होने चाहिए। धन इकट्ठा करने की व्यवस्था को ‘उद्देश्य के लिए उपयुक्त’ होना चाहिए। यानी कि इसे संस्थान की स्थिति, क्षमता और उसके उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए तैयार किया जाना चाहिए।

शुरुआती चरण में आमतौर पर संस्थापक ही धन इकट्ठा करने की ज़िम्मेदारी उठाते हैं।

आज स्वयंसेवी संस्थाओं के सामने धन इकट्ठा करने के सेटअप के कई विकल्प मौजूद हैं जिन्हें वे अपनी आवश्यकता के अनुसार चुन सकते हैं। शुरुआती चरण में आमतौर पर संस्थापक ही धन इकट्ठा करने की ज़िम्मेदारी उठाते हैं। नज फ़ाउंडेशन जैसे कुछ संगठनों के पास केवल धन इकट्ठा करने का ही काम करने वाली एक अलग टीम है। वहीं, प्रथम जैसे संगठन किसी कार्यक्रम के लिए धन इकट्ठा करने से लेकर उसके उद्देश्य को पूरा करने तक का काम एक ही व्यक्ति या टीम को दे देते हैं। इसके अलावा, स्वयंसेवी संस्थाएं बाहरी सहयोगियों का लाभ उठा सकती हैं—जैसे कि वे दसरा और संहिता जैसे संगठनों या व्यक्तिगत स्तर पर काम करने वाले सलाहकारों की मदद ले सकती हैं। ये सहयोगी उच्च आय वर्ग वाले लोगों (हाई नेट वर्थ इंडीविजुअल) और सीएसआर फंड से पूंजी जुटा सकते हैं। बीते कुछ सालों में आईएलएसएस और आईएसडीएम जैसे संस्थान धन इकट्ठा करने में कुशल लोगों को संस्थानों तक पहुंचाने लगे हैं जो इस सेक्टर के लिए अच्छी बात है। कुछ संगठन तो धन इकट्ठा करने के लिए सामुदायिक रिश्तों का लाभ भी उठाते हैं। उदाहरण के लिए जन साहस ने देशभर में समुदाय आधारित ऐसे 12 संगठनों को शामिल किया है जो मिलकर धन इकट्ठा करने का काम करते हैं, और अब उनकी कुल फ़ंडिंग का लगभग आधा हिस्सा सामुदायिक योगदान से ही पूरा होता है।

एक दूरबीन की तस्वीर_धनउगाही
दानदाताओं की नीतियों पर ध्यान देने से स्वयंसेवी संस्थाओं को उनके साथ मजबूत संबंध बनाने में मदद मिल सकती है। | चित्र साभार: विवेक ठकयाल / सीसी बीवाय 

3. एक बढ़िया धन इकट्ठा करने के पिच में कहानी, रणनीति और आंकड़ों का संतुलन होना चाहिए

दानदाताओं के सामने जब आप अपनी बात रख रहे हों तो उसमें कई अलग-अलग चीजें शामिल होती हैं। मसलन, शुरूआती हिस्से में संगठन के मुख्य कामों की जानकारी देना उपयोगी होता है। आप मानें या न मानें कई बार फंडर्स इस बात को लेकर बहुत स्पष्ट नहीं होते कि उनकी संस्था वास्तव में क्या करती है, भले ही उन्होंने इससे जुड़े सभी तरह के काग़ज़ात पढ़े हों। एक बार यह साफ़ हो जाए तो आप निम्नलिखित के उपयोग के बारे में सोच सकते हैं:

और अंत में, संस्थापकों या फंडरेजिंग टीम के अलावा भी एक ऐसी टीम होनी चाहिए जो धन इकट्ठा करने से जुड़ी चर्चाओं में सक्रियता से हिस्सा ले। इसे एक बढ़िया कहानी कहने वाली बात से जोड़ा जा सकता है यानी दानदाता को कहानी को आगे बढ़ाने वाले किरदारों के बारे में भी जानना चाहिए।

4. दानदाता को समझना आवश्यक है

अगर आप पहले से ही दानदाताओं के बारे में थोड़ी जानकारी रखते हैं तो आपके लिए यह समझाना आसान हो सकता है कि कोई प्रस्ताव उनके लिए उपयुक्त क्यों है। इसी आधार पर आगे के लिए संबंध क़ायम किया जा सकता है। सभी दानदाता कार्यक्रमों से जुडे जोखिम, अपेक्षा और मदद (फ़ंडिंग के अलावा) के लिए अलग-अलग सुझाव सामने रख सकते हैं। उदाहरण के लिए सीएसआर फ़ंडिंग मुख्य रूप से इसे लोगों तक पहुंचाने और कार्यक्रम के क्रियान्वयन पर केंद्रित होता है। ऐसे में हो सकता है कि फंड का इस्तेमाल करने के सीमित तरीक़े ही हों। वहीं, कॉर्पोरेट अपने ब्रांड के प्रचार के प्रति अधिक सजग हो सकते हैं। दूसरी तरफ अल्ट्रा-एचएनआई या अति-उच्च आय वर्ग वाले लोग अधिक धैर्यवान हो सकते हैं। अपने दीर्घकालिक दृष्टिकोण के चलते वे नए विकसित हो रहे क्षेत्रों और शोध आदि में अधिक जोखिम उठा सकते हैं। 

सभी दानदाताओं की रणनीतिक वरीयताएं अलग-अलग होती हैं, इसलिए इसे समझना भी ज़रूरी है।

सभी दानदाताओं की रणनीतिक वरीयताएं अलग-अलग होती हैं, इसलिए इसे समझना भी ज़रूरी है। यह उन क्षेत्रों के बारे में भी हो सकती हैं जिन पर अब तक उनका फ़ोकस नहीं रहा है। इस पर ध्यान देना ज़रूरी होता है कि वे मुख्य रूप से समुदायों और सरकारी कार्यक्रमों के कार्यान्वयन में जमीनी स्तर के प्रयासों का समर्थन करते हैं या फिर उनका नज़रिया व्यापक है और वे मुद्दों की बेहतर समझ के लिए शोधों के लिए और नीति निर्धारण से जुड़े समाधान खोजने में भी मदद करना चाहते हैं। इस बात का विश्लेषण करें कि क्या दानदाता सेक्टर-लेवल के संस्थानों और ढांचों को बनाने में रुचि रखते हैं। या क्या उनका उद्देश्य इंक्यूबेटरों या एक्सिलेटरों के ज़रिए बदलाव लाने वालों को एकजुट करना भर है? या फिर उनका इरादा कल्याण और परोपकार में लगाए धन को बढ़ाना और मदद की परम्परा को बढ़ावा देना है। फ़ंड देने वालों की रणनीतियों पर पूरा ध्यान देने से स्वयंसेवी संस्थाओं को उनके साथ रिश्ते बनाने में मदद मिल सकती है।

महामारी के दौरान स्वयंसेवी संस्थाओं ने जनकल्याण की भावना, धैर्य, समानुभूति और साहस का प्रदर्शन करते हुए सरकारी योजनाओं को लागू करवाने और लोगों तक इनसे जुड़ी जानकारी पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। अब जब हम महामारी से उबर रहे हैं, सामाजिक क्षेत्र के सामने ऊंचे उद्देश्य रखने और धन इकट्ठा करने को ध्यान में रखकर रणनीतिक दृष्टिकोण अपनाने का अवसर है।

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बाल कुपोषण: मेलघाट से मिली सीख

मेलघाट में कुपोषण का पहला अनुभव मुझे साल 2019 में तब हुआ जब गम्भीर कुपोषण के आकलन के लिए मैंने गांव के एक बच्चे से मिली थी। मुझे उस बच्चे की मां की कोई भी बात समझ में नहीं आ रही थी और उस मां का हाल भी कुछ वैसा ही था। लेकिन मेरी बात सुनने के बाद अपनी सहमति से उसने अपना बच्चा मुझे सौंप दिया था। हमारी मुस्कुराहटों ने हमें एक दूसरे से जोड़ दिया लेकिन मैं जानती थी कि बहुत कुछ ऐसा भी था जो मुझसे छूट रहा था। मेलघाट में अपने तीन साल के प्रवास से मैंने इतना सीख लिया था कि कोरकू भाषा के एक छोटे से वाक्य “काकी, आमा जूम छुई?” (काकी, आपका नाम क्या है?) की मदद से क्या-क्या किया जा सकता है। इस एक वाक्य ने मुझे औरतों के घरों में प्रवेश दिलाया। जहां एक तरफ़ वे अब भी मुझे बाहरी समझती थीं वहीं मैं उतनी बाहरी नहीं रह गई थी।

महाराष्ट्र के अमरावती ज़िले में स्थित मेलघाट 75 फ़ीसदी आदिवासी समुदायों और घने जंगलों वाला इलाक़ा है। यह पूरा इलाक़ा कुला मामा (बाघ) और भुमकस (स्थानीय चिकित्सक) की कहानियों से भरा हुआ है। यूं तो मेलघाट के पास दुनिया को सिखाने के लिए बहुत कुछ है लेकिन दुर्भाग्य से कुपोषण से जुड़ी कहानियां इसकी पहचान बन गई है।

जब हम लोगों ने ज़िले में आदिवासी समुदायों के लिए विकास के मुद्दों और रणनीतियों पर काम करने वाले कार्यालय इंटेग्रेटेड ट्राइबल डेवलपमेंट प्रोजेक्ट में इस मामले को विस्तार से समझना शुरू किया तब हमने निम्नलिखित धारणाओं के साथ काम शुरू किया था: हम जानते थे कि कुपोषण अमीर और गरीब दोनों ही तबकों को कई रूपों में प्रभावित करता है और इसलिए ही इसके सही संदर्भ को समझना महत्वपूर्ण था। हम जानते थे कि इसके लिए एक मौलिक हस्तक्षेप की ज़रूरत थी और यह हमेशा से एक लम्बे समय वाला और बढ़ने वाला अनुभव होगा। हम इस तथ्य को लेकर स्पष्ट थे कि प्रत्येक हितधारक को एक साथ लाना और उन रणनीतिक क्षेत्रों की पहचान करना ज़रूरी है जिन पर ध्यान दिया जाना है। इस लेख में क्षेत्र में हमारे द्वारा किए गए कामों की अंतर्दृष्टि का कुछ हिस्सा शामिल किया गया है। यह कोविड-19 की चुनौतियों और अवसरों से तैयार हुआ है और इसका प्रयोग समान भौगोलिक या नीतिगत परिस्थितियों में किया जा सकता है।

1. कार्रवाई के लिए स्थानीय स्तर के आंकड़े का उपयोग

क्षेत्र अधिकारी के रूप में हम अक्सर आंकड़ों के उपयोगकर्ता के बदले उसके प्रेषक बन जाते हैं। ऐसा करते हुए हम अपने संदर्भ में चीजों को बदलने का अवसर खो देते हैं और सोच लेते हैं कि कोई हमारे द्वारा दिए गए इन आंकड़ों के विश्लेषण और इससे नई अंतर्दृष्टि लाने का काम कर रहा है। राज्य-स्तरीय या ज़िला-स्तरीय तुलना स्थानीय-स्तर के विश्लेषणों की जगह न तो ले सकती है और न ही इसे लेनी चाहिए। उच्च स्तर के नीति निर्माण में जहां स्थानीय आंकडें एक महत्वपूर्ण घटक है वहीं हमें स्थानीय समूहों द्वारा भी इसके उपयोग को सुनिश्चित करना होगा।

हमारे लिए देश भर में आंगनवाड़ी-स्तर के कुपोषण के आंकड़ों का लेखा-जोखा रखने वाली इंटेग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट स्कीम-कॉमन एप्लिकेशन सॉफ़्टवेयर (आईसीडीएस-सीएएस) हमेशा कारगर साबित नहीं हुई। ऐसा इसलिए क्योंकि आंकड़ों को अपलोड करने के लिए अच्छे इंटरनेट कनेक्शन की ज़रूरत होती है जो हमारे इलाक़े के आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के पास उपलब्ध नहीं था। अधूरे आंकड़ों और जानकारियों से हम क्षेत्र में मौजूद कुपोषण की पूरी तस्वीर नहीं बना पाए और इसलिए इसने प्रासंगिक तरीक़े से नीति निर्माण की हमारी क्षमता को भी सीमित कर दिया।

इसलिए हमने एक हल्के स्तर वाले लेकिन डेटा कलेक्शन के अपेक्षाकृत अधिक पूर्ण व्यवस्था को अपनाने का फ़ैसला किया। हालांकि इसके लिए हमें कुछ क्षेत्रों में कभी-कभी मैन्यूअल, एक्सेल-आधारित तरीक़ों से काम करना पड़ा जिसका अर्थ था ‘पिछड़ापन’। हमने न्यूनतम आंकड़ों के लिए कुछ महत्वपूर्ण संकेतकों को चुना जो सभी आंगनवाड़ियों से हमें आवश्यक रूप से प्राप्त होने चाहिए थे। इस अभ्यास से हमें ऐसे क्षेत्रों की पहचान करने में आसानी हुई जिन पर अधिक ध्यान दिए जाने की ज़रूरत थी, जहां हम स्थिति में सुधार लाकर उदाहरण पेश कर सकते थे। इसके अलावा इससे हमें अधिक-जोखिम वाले इलाक़ों की पहचान में भी आसानी हुई जहां तत्काल ध्यान देने की ज़रूरत थी। हमने अपनी सारी ऊर्जा सही सूचनाओं को हासिल करने में लगाई थी ताकि हम सही स्थानीय समस्याओं का पता लगाकर उस पर कार्रवाई कर सकें।

डेटा रिपोर्टिंग में समय, आवृति, सैंपलिंग और तरीक़ा सभी बहुत अधिक महत्वपूर्ण होते हैं।

इस आंकडें को एकत्रित और संग्रहित करने और इस पर काम करने के क्रम में हमें यह भी जानकारी मिली कि विभिन्न सरकारी स्त्रोतों और हमारे आंकड़ों में अंतर था। हमारे ज़िले का राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-5 (एनएफ़एचएस -5) आंकड़ा हमारे द्वारा एकत्रित किए गए आंकड़ों से भिन्न था। अपने आंकडे की दोबारा जांच करने के लिए हमने एक स्वयंसेवी संस्था के साथ एक और सर्वे करवाया। वह अंतर अब भी था। जहां एनएफ़एचएस-5 ने हमारे ज़िले में गम्भीर कुपोषण का स्तर लगभग 12 फ़ीसदी बताया था वहीं थर्ड पार्टी सर्वे में हमारे ज़िले के लिए यह आंकड़ा 3.5 फ़ीसदी और हमारे अपने सर्वे में यह अंक लगभग 1 फ़ीसदी था। इससे हमें इस बात का अहसास हुआ कि कुपोषण, विशेष रूप से गम्भीर तीव्र कुपोषण (सीवियर एक्यूट मैलन्यूट्रिशन या एसएएम) के लिए किए जाने वाले डेटा रिपोर्टिंग में समय, आवृति, नमूनीकरण (सैंपलिंग) और तरीक़ा सभी बहुत अधिक महत्वपूर्ण होते हैं क्योंकि ये सभी लगातार बदलते रहते हैं। सभी तीन सर्वे इन कारकों के कारण भिन्न थे: हमारा डेटा मासिक स्तर पर एकत्रित किया जाता था और इसमें सभी तरह के नमूनों को शामिल किया गया था, थर्ड पार्टी सर्वे वर्ष में दो बार किए गए थे और इसमें नमूनों का एक बड़ा हिस्सा शामिल था। वहीं एनएफ़एचएस ने 3–5 वर्ष में एक बार सर्वे करवाया था और इसमें बहुत ही कम मात्रा में सैम्पल इस्तेमाल हुए थे। भौगोलिक असमानता भी महत्वपूर्ण होता है। उदाहरण के लिए, एनएफ़एचएस एक ज़िले के लिए डेटा एकत्रित करता है। लेकिन ऐसा संभव है कि अंतर-ज़िला स्तर पर स्थिति भिन्न हो, ख़ास कर मेलघाट जैसे इलाक़ों में जो ज़िले के कुल प्रशासनिक क्षेत्र का सातवां हिस्सा है लेकिन कुपोषण के मामले में महत्वपूर्ण है।

इस अभ्यास से हमने एक ज़रुरी बात यह सीखी कि निरंतर निगरानी महत्वपूर्ण है। स्थानीय क्षेत्र-आधारित अधिकारियों और प्रशासन के लिए साल में कम से कम एक बार सशक्त, सूक्ष्म-स्तरीय, थर्ड-पार्टी सर्वेक्षण करवाना आवश्यक है ताकि यह समझ सकें कि पहल किस दिशा में जा रही है।

2. समुदायों, सरकारों और स्वयंसेवी संस्थाओं को साथ मिलकर काम करने की ज़रूरत है

हम लोगों ने समुदायों, यंसेवी संस्थाओं और सरकार को एक साथ लाने के लिए ट्रायलॉग मेलघाट नाम का एक मंच तैयार किया।कुपोषण एक ऐसा जटिल मुद्दा है जिसे सरकार अकेले न तो सम्भाल सकती है और न ही उसे सम्भालना चाहिए। विशेष रूप से मेलघाट जैसे मुश्किल भौगोलिक इलाक़ों के लिए यह महत्वपूर्ण है कि सभी साथ मिलकर काम करें। सामुदायिक जुड़ाव इस बात का एक मजबूत संकेतक है कि कार्यक्रम कितने सफल हो सकते हैं, और नागरिक समाज संगठन संसाधनों और लोगों के विश्वास के निर्माण दोनों ही मामलों में कई तरह के तालमेल बिठाने का काम कर सकते हैं। इन संगठनों ने हमें लोगों तक व्यवहारिक संदेश पहुंचाने, समुदाय की जरूरतों को बेहतर ढंग से समझने और सूचना या शिकायत निवारण संवाद मुहैया करवाने में मदद की। महामारी के दौरान, यह अनौपचारिक नेटवर्क कई मुद्दों से निपटने के लिए मिलकर लगातार काम कर रहा है। बुनियादी ढांचे और संचार के साथ हमारी सहायता करने के अलावा यह समूह कुपोषण या मनरेगा जैसे मामलों में ज़मीनी स्तर की सूचना का एक स्त्रोत बन गया था। चूंकि संचार में किसी तरह की बाधा नहीं थी इसलिए किसी भी तरह की मुश्किल आने पर उसके समाधान के लिए हम कभी भी नागरिक समाज के प्रतिनिधियों से सम्पर्क कर सकते थे। एक साधारण से व्हाटसेप ग्रुप के माध्यम से हमें तुरंत यह जानकारी मिल जाती थी कि किसी को मनरेगा का काम नहीं मिला रहा है, कोई प्रवासी वापस लौटना चाहता है या किसी बच्चे या रोगी को तत्काल इलाज की ज़रूरत है। इस सहयोग के परिणामस्वरूप हम ज़िले के सबसे सुदूर इलाक़ों में भी अधिक से अधिक लोगों तक पहुंच सकते थे।

वजन नापने का पैमाना-कुपोषण मेलघाट
हमें कुपोषण को एक टुकड़े या किसी एक विभाग से परे जाकर देखना चाहिए। । चित्र साभार: शार्लोट एंडरसन

3. अपनी इच्छानुसार लोगों से बात करने का तरीक़ा चुनें

स्वास्थ्य का विकेंद्रीकरण एक ऐसा विचार है जिस पर हम विश्वास करते हैं और इस प्रक्रिया में लोगों को सीधे तौर पर सशक्त बनाना शामिल है। जन्म के समय बच्चे के कम वजन दर में सुधार के लिए स्तनपान बहुत महत्वपूर्ण होता है और हमें औरतों को स्तनपान के उचित तरीक़े सिखाने की ज़रूरत थी। हमारा ऐसा मानना था कि स्तनपान जैसे अंतरंग (और महत्वपूर्ण) चीजों के लिए औरतों को उनके निजी स्थान पर सहायता उपलब्ध होनी चाहिए। लेकिन जब तक हम उनकी भाषा में उनसे बात नहीं करेंगे तब तक यह कैसे सम्भव होगा?

इससे हमारी कोरकू भाषा परियोजना का जन्म हुआ। आईआईटी बॉम्बे द्वारा शुरू की गई परियोजना स्पोकेन टूटॉरीयल्स ने डबल्यूएचओ दिशानिर्देशों के अनुरूप स्तनपान तकनीक, बच्चे को पकड़ने और उन्हें बांध कर रखने जैसी क्रियाओं पर सरल और आकर्षक विडियो तैयार किए। इन सभी विडियो के स्क्रिप्ट हिंदी में उपलब्ध थे और हमने उन्हें कोरकू में बदल दिया। इसने कोरकू को पहली ऐसी स्वदेशी भाषा बना दिया जिसमें अनुवाद के बाद ये ट्यूटोरिअल्स उपलब्ध हैं—जो इससे पहले 13 राष्ट्रीय भाषाओं और चार अंतर्राष्ट्रीय भाषाओं में उपलब्ध था—और इसका प्रयोग क्षेत्र में काम करने वाले कर्मचारी और माएँ करती हैं। इससे मांओं का इस विडियो से जुड़ने के तरीक़े में फर्क़ आया।

इस प्रक्रिया का एक अन्य आवश्यक आयाम हमारे फ़ील्ड कर्मचारियों को इन विडीयो के उपयोग का प्रशिक्षण देना था क्योंकि वे दिन-रात लोगों से मिलते हैं। उनके फ़ील्ड कौशल को भी निरंतर अपडेट की ज़रूरत होती है और उन्हें लगातार प्रेरित करते रहना पड़ता है। लेकिन प्रशिक्षण का ज़्यादातर हिस्सा एक जैसा एकालाप होता है। अगर किसी तरह की कोई गलती होती है तो वह प्रशिक्षुओं के हिस्से आती है जो ‘पर्याप्त रूप से शिक्षित नहीं हैं’ या ‘पर्याप्त रूप से कुशल नहीं हैं’। किसी भी तरह की गलती प्रशिक्षक या प्रशिक्षण के हिस्से नहीं आती है। हमने पाया कि इसे ठीक करने की ज़रूरत थी। इसलिए आईआईटी बॉम्बे के साथ मिलकर हमने जो प्रशिक्षण तैयार करना शुरू किया था उसमें प्रशिक्षण के पूर्व और बाद की परीक्षाएं शामिल थीं। इन परीक्षाओं में हमने पोषण से संबंधित मौलिक प्रश्न शामिल किए थे जो आगे चलकर मुश्किल सवाल में बदलते गए। प्रशिक्षण को मज़ेदार भी बनाना था इसलिए डॉक्टरों ने अपने पोषण से जुड़ी बातें की और इस तरह हम में ज़्यादातर लोगों को यह अहसास हुआ कि हमें भी प्रशिक्षण की ज़रूरत है! इसमें भाग लेने वाले लोगों में अंतर हम सभी को स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ रहा था। प्रशिक्षण के दौरान हमारे फ़ील्ड कर्मचारी अधिक सक्रिय, जिज्ञासु और जीवंत थे।

4. अत्यावश्यक को महत्वपूर्ण से अलग करने के लिए डेटा का उपयोग करें

कुपोषण के मामले की जब बात आती है तब गम्भीर कुपोषण के शिकार बच्चे इस समस्या का ऊपरी सिरा भर हैं। इस मुद्दे से पूरी तरह से निपटने के लिए हमें प्रत्येक बच्चे के मौलिक पोषण पर काम करने की ज़रूरत है। हमें रक्त की कमी और जन्म के समय कम वजन की समस्या को केंद्र में रखकर बच्चे और मां दोनों की दैनिक फ़िटनेस को बेहतर करने की ज़रूरत है। एक बच्चे के पोषण के लिए उसका पहला 1,000 दिन बहुत महत्वपूर्ण होता है। जन्म के बाद क्रमश: पहला सप्ताह, पहला माह और पहला साल बच्चे के लिए अधिक महत्वपूर्ण होता है।

इसलिए हमने चाइल्ड ट्रैकिंग प्रोजेक्ट शुरू किया जहां हमारे प्रत्येक फ़ील्ड कर्मचारी ने अपने प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (प्राइमरी हेल्थ सेंटर या पीएचसी) से पांच बच्चों को ‘गोद लिया’ और सप्ताह में एक बार उन बच्चों के वजन की माप लेने लगे। एक अकेले फ़ील्ड कर्मचारी के लिए यह काम आसान था और इससे हमें उस पैमाने को तैयार करने में मदद मिली जिसके निर्माण का हम प्रयास कर रहे थे। कई फ़ील्ड कर्मचारी कोरकू समुदाय से ही थे इसलिए अनूदित विडियो से उन्हें खुद तकनीक सीखने और मांओं को समझाने में मदद मिली।

अगला कदम उन्हें छँटाई करना सिखाना था। इसमें उन्हें तत्काल सहायता की आवश्यकता वाले बच्चों को उन बच्चों से अलग करना था जिन्हें तत्काल सहायता नहीं चाहिए थी। उसके बाद उन्हें अपनी ऊर्जा प्रशिक्षण और बाद की प्रक्रियाओं में लगानी थी।

इस पूरी प्रक्रिया के दौरान हमें यह अहसास हुआ कि ऐसी परियोजनाओं को स्थाई बनाने और विकसित करने के लिए निरंतर समर्पण और ऊर्जा की ज़रूरत है। कई बार हम सिर्फ़ आंकड़ों की समझ की कमी के कारण असफल हुए न कि आंकड़ों की कमी के कारण। पीएचसी स्तर पर पर्याप्त से अधिक मात्रा में आंकडें एकत्रित किए जा रहे थे। अक्सर ही फ़ील्ड कर्मचारी आंकड़े एकत्र करने और उनका रिकॉर्ड तैयार करने में इतना अधिक व्यस्त रहते हैं कि इस पूरी प्रक्रिया में इसके विश्लेषण का काम छूट जाता है।

ग़लत आंकड़े वाली स्थिति आंकड़ों की अनुपलब्धता वाली स्थिति से बदतर होती है क्योंकि यह बिना किसी ठोस लाभ के काम बढ़ाती है और अक्सर भ्रामक होती है।

कभी-कभी फ़ील्ड कर्मचारी पूरी लगन से अपना काम करते हैं लेकिन इसके बावजूद वे प्रशासनिक कामों में फंस जाते हैं। कामों के उचित वितरण के अलावा स्थानीय नेतृत्व को फ़ील्ड कर्मचारियों को बुनियादी संगठनात्मक कौशल सिखाने की ज़रूरत है। इससे फ़ील्ड कर्मचारी अपने नियमित कामों को आसानी से कर पाएँगे और उनकी शारीरिक या मानसिक परेशानी भी कम होगी।

उदाहरण के लिए सर्वे की प्रक्रिया को सरल बनाने के लिए डिजिटल उपकरणों की पहचान, फील्ड वर्कर द्वारा लैपटॉप के बजाय इनबिल्ट एनालिटिकल टूल के साथ मोबाइल प्लेटफॉर्म का उपयोग और एक्सेल शीट में स्वचालित रंग कोडिंग सभी ऐसे काम हैं जिसमें डिजिटल रूप से प्रशिक्षित नोडल अधिकारी मदद कर सकता है और सहायता पहुंचा सकता है। यह एक अच्छे इरादे वाले व्यवस्थापक को क्षेत्र में आंकड़ों से संचालित निर्णय लेने में मददगार साबित हो सकता है।

5. अन्य क्षेत्रों के साथ अंतर्संबंध की खोज

ज़मीन पर किए गए हमारे काम का एक अप्रत्यासित लाभ उन सवालों का जवाब मिलना है जो हम पूछ भी नहीं रहे थे। उदाहरण के लिए, हमने ध्यान दिया कि कुपोषण को ट्रैक करने वाले हमारे डेटा में मौसमी आधार पर ‘शहर से बाहरऽ वाला आंकड़ा दिखाई दे रहा था। जब हमने इससे जुड़े एसऐम आंकड़े की जांच की तब हमारी नज़र एक आकर्षक पहलू की ओर गई। हमने एसऐम के आंकड़े में एक एम-आकार का ग्राफ़ देखा जो उस समय बढ़त की ओर था जब बच्चे अपने परिवार के साथ उन अस्थाई नौकरियों के समाप्त होने पर लौटते थे जो उनके माता-पिता को दूसरे प्रखंड या ज़िले में मिली थी। ये लोग उन ज़िलों या प्रखंड में श्रमिक का काम करते थे।

जिला स्तर पर इंटेग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट सर्विसेज (आईसीडीएस) विभाग की मासिक प्रगति रिपोर्ट (मंथली प्रोग्रेस रिपोर्ट या एमपीआर)
स्त्रोत: जिला स्तर पर इंटेग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट सर्विसेज विभाग की मासिक प्रगति रिपोर्ट

हमने पाया कि प्रवास के दौरान कई बच्चे योजनाओं की जाल में फंस जाते हैं। टीकाकरण और स्वास्थ्य के मामले में यह एक महत्वपूर्ण समस्या है।

इस समस्या के निवारण के लिए हमने दो चीजों पर ध्यान केंद्रित किया: सभी भौगोलिक क्षेत्रों में योजनाओं का एकीकरण और पलायन को रोकने के लिए मनरेगा को सशक्त करना। सबसे पहले हम लोगों ने पड़ोसी ज़िले अकोला से सम्पर्क किया जहां कई प्रवासी मज़दूर काम के लिए जा रहे थे। हमने उनसे बात करके यह सुनिश्चित किया कि वे बच्चों के स्वास्थ्य जांच और टीकाकरण करवा रहे हैं या नहीं। हमें दोनों के बीच सह-संबंध या कारण स्थापित करने के लिए अधिक शोध की ज़रूरत थी। हमने पाया कि 2021 के मार्च माह में जब श्रमिकों का परिवार मेलघाट वापस लौटा तब एसएएम के आंकड़े में किसी भी तरह की वार्षिक वृद्धि नहीं हुई थी।

इसके साथ ही, 2020-21 में, मेलघाट ने मनरेगा के तहत पिछले पांच वर्षों (या अधिक) में अपना उच्चतम व्यक्ति-दिवस दिया। सही दिशा में अपना कदम बढ़ाते हुए भी हम जानते हैं कि हम सभी को काम नहीं दे सकते हैं और संकट से जुड़ा पलायन अपरिहार्य है। इसलिए हमने एक ऐसी डिजिटल व्यवस्था का निर्माण शुरू किया जिससे प्रवासियों को उनके मूल स्थान और गंतव्य में मदद मिलेगी और लाभ के लिए वे एक दूसरे से सम्पर्क कर सकेंगे। इस प्रयोग को सरकार और व्यवस्था ने अपने हाथों में ले लिया और इसका नाम महा-एमटीएस (महाराष्ट्र मायग्रेशन ट्रैकिंग सिस्टम) पड़ा। इस योजना को 2022 में महाराष्ट्र के पांच ज़िलों में लागू किया गया है।

इन सभी प्रकार के चिकित्सीय और प्रशासनिक हस्तक्षेपों का परिणाम आने में बेशक कुछ समय लगेगा। हमारा उद्देश्य इस अभ्यास को फ़ील्ड कर्मचारियों की आदत में शुमार करना है और साथ ही हम उन्हें स्थितियों से निपटने के लिए उचित उपकरण और कौशल मुहैया करवाना चाहते हैं ताकि अंत में इन परिवर्तनों को संस्थागत रूप दिया जा सके।

जिस तरह हम पोषण के मुद्दे को देखते हैं वह टुकड़ों में खाए जाने वाले भोजन से अधिक होना चाहिए, उसका दायरा किसी एक विभाग से अधिक होना चाहिए। किसी भी बच्चे के जन्म के बाद के पहले 1,000 दिन सिर्फ़ उनके द्वारा खाए जाने वाले खाने पर निर्भर नहीं करता है। बल्कि यह उनके माता-पिता की आजीविका, उनके आसपास के स्वास्थ्य कर्मचारियों के कौशल, समुदाय में उपलब्ध सुविधाओं, दुनिया के बारे में मिलने वाली शिक्षा और ऐसे ही कई कारकों पर निर्भर होता है। गम्भीर स्तर के कुपोषण से ग्रसित इलाक़ों में इससे निपटने के लिए स्थानीय, संदर्भित और विकेंद्रीकृत उपाय बाक़ी तरीक़ों की तुलना में ज़्यादा उपयोगी साबित होंगे।

इस लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।

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युवाओं की ज़रूरतों को नहीं, उनकी इच्छाओं को समझना

भारत के पास दुनिया भर के कुल युवाओं का पांचवां हिस्सा है और इसके साथ ही दुनिया का सबसे बड़ा युवा कार्यबल भी है। कामकाज के लायक़ युवाओं की इतनी बड़ी संख्या को काम पर लगाने के लिए देश को बड़े स्तर पर रोज़गार के अवसर पैदा करने की जरूरत है। इससे भी अधिक ज़रूरी इस पीढ़ी की इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं पर आर्थिक, सामाजिक, तकनीकी और स्थिति के अनुसार नज़रिया रखकर विचार करना है।

आर्थिक आत्म निर्भरता से स्वतंत्रता और स्वाभिमान आता है

आज के युवाओं के लिए धन कमाना और इससे मिलने वाली आर्थिक स्वतंत्रता एक बड़ी बात है—इससे इन्हें अपने जीवन से जुड़े फ़ैसले लेने का अधिकार और आज़ादी मिलती है। महिलाओं के लिए यह विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि आर्थिक रूप से सक्षम होने पर वे शादी और बच्चे पैदा करने जैसे फ़ैसलों को लेकर अपने परिवार से बातचीत कर सकती हैं। इसके साथ ही व्यक्तिगत और पेशेगत स्थितियों में कुछ हद तक अपनी शक्ति और प्रभाव का इस्तेमाल कर सकती हैं।

पैसे कमाने को सम्मान और तरक्की का साधन भी माना जाता है। जब कोई युवा कमाई करने लगता है तो वह अपने आप ही परिवार के अन्य सदस्यों के सम्मान और विश्वास का पात्र बन जाता है।

आज युवा के लिए पैसे कमाना एक शुरूआत भर है। इसके अलावा तमाम ऐसी वजहें हैं जिन्हें ध्यान में रखकर युवा वर्ग कामकाज के मौक़े खोजता या करियर के विकल्प चुनता है।

युवा क्या चाहते हैं?

1. युवा अपने घर के नज़दीक उपलब्ध अवसरों का चुनाव कर रहे हैं

बड़े पैमाने पर युवाओं को यह अहसास होने लगा है कि रोज़गार के लिए किसी बड़े शहर में बसने से उनकी आय का एक बड़ा हिस्सा रोज़मर्रा की ज़रूरतों पर खर्च हो जाता है। इसके कारण उनके पास बचत करने या भविष्य के लिए निवेश करने के नाम पर बहुत थोड़ा कुछ ही बच पाता है। भारत के किसी शहर में काम करते हुए यदि उनकी मासिक आय 8,000–10,000 रुपए भी होती है तब भी उन्हें लगभग दिहाड़ी मज़दूरों जैसा जीवन जीना पड़ता है।

वहीं, बड़े शहरों के विस्तार के बाद या गांव से शहर में विकसित हो रहे (पेरी-अर्बन) इलाक़ों में मिलने वाला वेतन शहरों के मुक़ाबले उतना कम भी नहीं होता है। इन क्षेत्रों में रिटेल और सर्विस सेक्टर से जुड़ी नौकरियों में लगभग बराबर ही पैसे मिलते हैं। टियर-I और टियर-III शहरों में काम करने वाले युवा महीने में 6,000–8,000 रुपए कमाते हैं, वे अपने गांव के नज़दीक रहते हैं और रहन-सहन पर कम खर्च होने के कारण अच्छी बचत कर लेते हैं। इसलिए हम युवाओं के एक बड़े तबके को पेरी-अर्बन इलाकों की ओर रुख़ करते देख रहे हैं। पेरी-अर्बन इलाक़े, न तो शहरी हैं और न ही पूरी तरह से ग्रामीण बल्कि ये वो इलाक़े हैं जहां रोज़गार के नए अवसर बढ़ रहे हैं।

हम देख रहे हैं कि पेरी-अर्बन इलाक़ों में जहां रोज़गार के मौक़े बढ़ रहे हैं, वहीं शहरी क्षेत्र अब भी पहले से मौजूद उद्यमों का मुख्य केंद्र है। उन्हीं के विस्तार का काम पेरी-अर्बन इलाक़ों में हो रहा है। कोविड-19 महामारी से पहले डोमिनोज, सबवे और पिज़्ज़ा हट जैसे वैश्विक फ़ूड चेन और रिलायंस, वेस्टसाइड और डीमार्ट जैसे रिटेल ब्रांड्स ने भी इन इलाक़ों में अपनी शाखाएं शुरू कर दीं थीं। पेरी-अर्बन इलाक़ों में उपलब्ध मौक़ों और बेहतर जीवन की चाह के चलते युवा इन इलाक़ों को तवज्जो देने लगे हैं।

ज़रूरी नहीं है कि छात्र अपने जीवन में जो करना चाहते हों वह उपलब्ध रोज़गार से जुड़ा हुआ ही हो।

महामारी ने युवाओं के चयन की जटिलता को थोड़ा और बढ़ा दिया है। परिवार के लोग सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए अब अपने बच्चों को नौकरी के लिए बहुत दूर नहीं जाने देना चाहते हैं। महामारी के दिनों में तकनीक के क्षेत्र में मांग बढ़ने के कारण इलेक्ट्रॉनिक्स एसेंबली से संबंधित नौकरियों में उल्लेखनीय तेज़ी आई। इससे ख़ासकर मैन्युफ़ैक्चरिंग के क्षेत्र में प्रशिक्षण प्राप्त आईटीआई छात्रों के लिए रोज़गार के बढ़िया मौके पैदा हुए हैं। हालांकि यह मौक़े उन कारख़ानों में है जो औद्योगिक केंद्र बन चुके बड़े शहरों में स्थित हैं। लेकिन उनमें काम करने के लिए घर से बाहर जाना पड़ेगा जहां अब माता-पिता अपने बच्चों को भेजना नहीं चाहते हैं। इसलिए कम आमदनी के बावजूद माता-पिता उन्हें इस तरह की नौकरियां करने के लिए हतोत्साहित करते हैं। नतीजतन, एक तरह के विरोधाभास की स्थिति बनने लगी है।

2. पहली नौकरी मनचाहे करियर के लिए एक नींव भर है

ज्यादातर संगठन जो युवाओं को किसी काम में कुशल बनाने का कार्य करते हैं, वे नौकरी ढूंढने पर केंद्रित होते हैं। लेकिन ज़रूरी नहीं है कि छात्र अपने जीवन में जो करना चाहता है, वह उपलब्ध रोज़गार के मौक़ों से ही संबंधित हो।

उदाहरण के लिए, अगर सर्विस या मैन्युफ़ैक्चरिंग सेक्टर में नौकरियां उपलब्ध हैं तो युवा इन नौकरियों को अपने मनचाहे करियर तक पहुंचने का आधार बना लेते हैं। अक्सर वे कहते मिल सकते हैं कि ‘मैं नर्स बनना चाहती हूं लेकिन मैं कैफ़े कॉफ़ी डे के इस आउट्लेट में नौकरी करुंगी ताकि पैसे कमा सकूं। ऐसा करते हुए मैं यह सीख सकती हूं कि लोगों से कैसे व्यवहार करना है। मैंने हेल्थकेयर प्रोफेशनल के तौर पर काम करने के लिए पढ़ाई की है और जब तक मैं वह नहीं बना जाती यह काम करती रहूंगी।’ इस तरह पहली नौकरी एक ट्रांज़िशन जॉब है। यह थोड़े पैसे कमाने की शुरूआत भर है जिससे युवा मनचाहे करियर गोल तक पहुंचने के दौरान अपना खर्च उठा सकें और अपने परिवार की मदद कर सकें।

टैबलेट के साथ डेस्क पर बैठा एक लड़का तकनीकी कार्य कर रहा है-युवा नौकरी
युवा और उनका परिवार दोनों ही उनके लिए ऐसे क्षेत्रों में रोज़गार चाहते हैं जहां उन्हें लोगों से मिलने-जुलने की बजाय मशीन और कम्प्यूटर के साथ समय बिताना पड़े। | चित्र साभार: क्वेस्ट अलाइयन्स

3. युवा भावी पीढ़ी के लिए अपना योगदान देना चाहते हैं

बहुत सारे युवाओं के लिए यह गरिमामय और आत्मसम्मान बढ़ाने वाली बात होती है जब वे अपने समुदाय और सीखने की जगहों की मदद करने में सक्षम हो पाते हैं। इसका एक उदाहरण वह छात्र है जो बेकर बन गया और उसने उसी संस्थान में वापस लौटकर सभी नए छात्रों के लिए पेस्ट्री बनाई जहां उसने पढ़ाई की थी। इससे छात्रों को ऐसा महसूस होता है कि वे अपने संस्थान को कुछ वापस लौटा रहे हैं और यह नेकी की श्रृंखला बनाने जैसा है।

वे ऐसा इंसान बनना और दिखना चाहते हैं जो केवल अपने करियर के बारे में ही नहीं बल्कि अपने समुदाय के बारे में भी सोचता है। इसलिए लोग अब ‘अपनी, अपने परिवार, अपने करियर और अपने समुदाय’ वाले विचार के बारे में बात करने लगे हैं। एक संगठन के तौर पर हमें उन पहलुओं को साथ जोड़ने के लिए काम करना चाहिए जिन्हें एक युवा आजीविका तक पहुंचने के अपने सफ़र का हिस्सा मानता है।

4. शहरी युवा अब सरकारी नौकरियों पर उतने निर्भर नहीं है

भारत के गांवों और पेरी-अर्बन क्षेत्रों का युवा सरकारी नौकरियों की परीक्षाओं में सफल होने की आशा के साथ लगभग तीस साल की उम्र तक पढ़ाई में लगा रहता है। लेकिन शहरों में ऐसा कम देखने को मिलता है क्योंकि शहर के युवाओं को ऐसे निजी क्षेत्रों में मौके दिखाई पड़ते हैं जहां पहले से उनके साथी काम कर रहे होते हैं।

इन क्षेत्रों में तरक्की का एक निश्चित क्रम है। खुद युवा और उनके परिवार, दोनों ही उनके लिए ऐसी नौकरियां चाहते हैं जहां उन्हें इंसानों के साथ काम करने के बजाय मशीनों और कम्प्यूटर पर काम करने को मिले। इन क्षेत्रों में काम करने वालों के लिए कम्प्यूटर पर काम करना सम्मान का एक लगभग नया पैमाना बन चुका है। यदि आप अपने लोगों को यह बताते हैं कि आप कम्प्यूटर पर काम करते हैं तो उनकी नज़रों में आपकी उपलब्धि बड़ी होती है। अब ज़्यादातर लोग वे नौकरियां नहीं करना चाहते हैं जिसमें लोगों से मिलने-जुलने की ज़रूरत पड़े। इन नौकरियों में अधिक ऊर्जावान और बातचीत में माहिर होने की ज़रूरत होती है। यह एक ऐसी योग्यता है जो ज्यादातर लोगों में नहीं होती है।

5. तकनीक ने अपने करियर की राह खोजने के लिए एक अलग माहौल दे दिया है

क्वेस्ट अलाइयन्स में हमने युवाओं को कुछ भी सीखने के लिए तकनीक का उपयोग करते हुए देखा है। तकनीक उन्हें ऐसे कौशलों के चुनाव का विकल्प देती है जिसके बारे में उन्हें दूसरों से पूछने-जानने में हिचकिचाहट हो सकती है। साथ ही इससे वे शिक्षकों, माता-पिता और सहयोगियों से मिल सकने वाली आलोचना से भी बच जाते हैं। तकनीक से उन्हें ऐसी चीजों को सीखने और उनका अभ्यास करने में मदद मिलती है जिन्हें समझना कठिन होता है या जिसके उत्तर मुश्किल होते हैं। हम लोगों ने समय के साथ युवाओं और तकनीक के संबंधों को बदलते देखा है। पहले वे परिवार के सदस्यों के साथ साझा डिवाइस इस्तेमाल करते थे जहां निजता और निगरानी एक प्रमुख मुद्दा था। अब इन युवाओं के पास अपनी डिवाइसेज हैं जिस पर वे नॉलेज और कॉन्टेंट तैयार करते हैं। इतना ही नहीं, इसे वे और लोगों के साथ बांट रहे हैं और इन्फ़्लूएंसर्स बन रहे हैं।

तकनीक के इस्तेमाल में हुई इस बढ़त के कुछ नुक़सान भी हैं। कई क्षेत्रों में ऐसे नए रोज़गार सृजित किए जा रहे हैं जिसमें ग्राहक सम्पर्क और ग्राहक सेवा शामिल होता है। वर्चुअल दुनिया में सम्पर्क करने वाली चीजों के लिए एक कम्प्यूटर, फ़ोन या इंटरनेट नेटवर्क की ज़रूरत होती है। अब भी युवा वर्ग के एक बड़े तबके के पास डिजिटल रूप से जुड़ने का साधन उपलब्ध नहीं है जिसके कारण वे ऐसी नौकरियों तक नहीं पहुंच पाते हैं। आर्थिक और सामाजिक रूप से यह महिलाओं के लिए ख़ासतौर पर मुश्किल है। उनके पास न केवल डिवाइस नहीं होती हैं बल्कि उन्हें परिवार के अविश्वास का भी सामना करना पड़ता है। अमूमन परिवार के सदस्य यह मानते हैं कि औरतों के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल करना सुरक्षित नहीं है।

6. युवा वर्ग अस्थायी या अनियमित रूप से मिलने वाला काम नहीं करना चाहता है

कोविड-19 के बाद से लॉजिस्टिक्स, ई-कॉमर्स, लास्ट-माइल डिलीवरी और डोमेस्टिक सपोर्ट जैसे कुछ उद्योगों में वृद्धि देखी गई है। लेकिन युवा अब इस तरह की नौकरियां नहीं करना चाहता है।
 दिलचस्प बात यह है कि गिग इकॉनमी (अस्थायी या फ्रीलांस कामकाज) को युवाओं के सामने ऐसे मौक़ों की तरह रखा जाता है जिससे वे छोटे स्तर के उद्यमी बन सकते हैं। वे अपना स्वयं का व्यवसाय शुरू कर सकते हैं और अगर उनमें संवाद की कला और डिजिटल दुनिया का ज्ञान है तो वे ऑनलाइन प्रतिष्ठा के साथ-साथ ठीक-ठाक पैसा भी कमा सकते हैं। इस तरह के रोज़गारों को एस्पिरेशनल जॉब्स या महत्वाकांक्षी कामकाज के रूप में पेश किया जाता है।

रोज़गार का चयन अब पूरी तरह से आर्थिक फ़ैसला नहीं रह गया है।

ज़्यादातर लोग बहुत अधिक ऊर्जा और उत्साह के साथ अपना कामकाज शुरू करते हैं। जैसे ही एलगोरिदम बनने लगता है वैसे ही उन्हें अपनी आय में कमी आते दिखने लगती है और साथ ही उनके काम पर से उनका नियंत्रण भी कम होने लगता है। उन्हें कुछ विकल्पों के चुनाव के लिए बाध्य किया जाता हैजैसे गाड़ी आदि ख़रीदने के लिए ऋण लेना, काम के घंटे बढ़ाना, अवकाश नहीं लेना क्योंकि इससे उनकी रेटिंग और आय पर असर पड़ सकता है। इन सबके वित्तीय और सामाजिक अर्थ हैं।

अधिकतर लोगों को नौकरी शुरू करते समय इन बातों का ज़रा भी अहसास नहीं होता है। उन्हें आय की बड़ी राशि दिखाकर प्रभावित कर लिया जाता है। लेकिन समय के साथ एलगोरिदम कंट्रोल के कारण उनके जीवन की गुणवत्ता और आय दोनों में कमी आने लगती है। हाल के समय में भी युवाओं ने इस तरह की समस्या को देखा-सुना है। इसके चलते इस तरह की नौकरियां अब उनका पहला चुनाव नहीं होती हैं।

हमें युवाओं की इच्छा नहीं बल्कि उनकी ज़रूरतों को समझने की ज़रूरत है

यह समझने की कोशिश करते हुए कि आज युवा किस तरह से आजीविका का चयन करता है, संस्थाओं और युवाओं के साथ काम करने वाले दानकर्ताओं के लिए यह ज़रूरी है कि वे बदलते परिदृश्य को समझें। हमारे कुछ दानकर्ता पूछते हैं कि युवा बढ़ती आय वाले विकल्पों का चयन क्यों नहीं करता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अब नौकरी करना केवल एक आर्थिक निर्णय भर नहीं रह गया है। युवा जानना चाहते हैं कि यह कोई सम्मानित काम है या नहीं, काम का माहौल अच्छा है या नहीं और उनके साथी मददगार हैं या नहीं।

रोज़गार के क्षेत्र में काम करने वाली हमारे जैसी कई स्वयंसेवी संस्थाओं ने पीछे मुड़कर टटोला कि किन चीजों ने सफलता दिलाई। अगर यह आय में बढ़त से कुछ ज्यादा है तो क्या हमें यह देखने की ज़रूरत है कि युवा अपने लॉन्ग-टर्म करियर गोल तक पहुंच पा रहा है या नहीं? युवाओं के मुताबिक़ उनकी तरक्की पहली नौकरी से नहीं होने वाली है, यह अपने लक्ष्यों और आकांक्षाओं को लेकर साफ नज़रिया रखने और उन्हें पूरा करने के लिए विपरीत परिस्थितियों में काम करने से हासिल होगी।

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2022 में FCRA: अब तक का सफ़र और उसका असर

विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम (एफ़सीआरए) हमारे देश में स्वयंसेवी संस्थाओं को मिलने वाले विदेशी अनुदानों को नियंत्रित करने वाला कानून है। यह कानून तय करता है कि स्वयंसेवी संस्थाएं कहां से धन प्राप्त कर सकती है, इसका इस्तेमाल कौन कर सकता है और किस तरह के उद्देश्यों के लिए इस धन का उपयोग किया जा सकता है।

1 जनवरी 2022 को यह अधिनियम तब एक बार फिर चर्चा में आ गया जब सरकार ने लगभग 6,000 स्वयंसेवी संस्थाओं का एफसीआरए लाइसेंस रद्द कर दिया। यानी, अब ये संस्थाएं विदेशों से आर्थिक मदद नहीं ले सकती थीं। इन संस्थाओं में मदर टेरेसाऽज मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी, ऑक्सफ़ैम इंडिया, दिल्ली विश्वविद्यालय, आईआईटी दिल्ली और जामिया मिलिया विश्वविद्यालय शामिल हैं। इसके बाद इस फ़ैसले पर नराज़गी की खबरें मीडिया में छाई रहीं, दिग्गज राजनेताओं ने इस पर अपनी तीखी प्रतिक्रियाएं दीं और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी इसने लोगों का ध्यान खींचा। शायद इसी के चलते इनमें से कुछ संस्थाओं के लाइसेंस फिर से बहाल कर दिए गए।

हम यहां तक कैसे पहुंचे?

2010 में जब एफसीआरए में संशोधन किए गए तो उनमें से एक संशोधन संस्थाओं के लाइसेंस की वैधता से संबंधित था। इससे पहले एफसीआरए के तहत रजिस्टर्ड संस्थाएं अनिश्चित समय तक विदेशों से अनुदान लेने के लिए स्वतंत्र थीं। वहीं, 2010 के संशोधन में प्रावधान किया गया कि इन संस्थाओं को हर पांच साल में अपने लाइसेंस को रिन्यू करवाने की ज़रूरत होगी। इस बदलाव के चलते अब हर पांच साल में लगभग 20,000 संगठनों को अपना एफसीआरए लाइसेंस रिन्यू करवाना पड़ता है।

इस साल भी स्थिति कुछ अलग नहीं थी और लगभग 20,000 आवेदन रिन्यूअल के लिए आए थे। जहां तक हमारी जानकारी है (अपर्याप्त सूचना के कारण) समय सीमा समाप्त होने की वजह से लगभग 6,000 आवेदन रद्द हो गए। इसका मतलब यह हुआ कि यह सरकार नहीं थी जिसने 6,000 संगठनों के लाइसेंस रद्द किए, बल्कि ये वे संस्थाएं ही हो सकती हैं जिन्होंने खुद अपने लाइसेंस रिन्यू न करवाने का फ़ैसला लिया।

अब भी यह स्पष्ट नहीं है कि किन संगठनों के एफसीआरए लाइसेंस रद्द हुए हैं और क्यों।

सरकार द्वारा वास्तव में रद्द किए गए लाइसेंसों की संख्या 179 है। ये वे मामले हैं जिसमें इन संगठनों ने लाइसेंस रिन्यूअल के लिए आवेदन दिए पर इन्हें अनुमति नहीं मिली। एक अंदाज़े के मुताबिक़ इन 179 संस्थाओं में से 83 का लाइसेंस बाद में बहाल कर दिया गया। लेकिन न तो इन आवेदनों को अस्वीकार किए जाने का कोई कारण पता चला है और ना ही बाद में इस फ़ैसले को पलटे जाने का। (डेवलपएड पर संगठनों के एफसीआरए स्टेटस का पता लगाया जा सकता है। यहां पर ‘अप्रूव्डऽ (स्वीकृत), ‘डिनाइडऽ (अस्वीकृत) और ‘ऑन होल्डऽ (रोका गया) से लेकर ‘क्लेरिफिकेशन रिक्वायर्डऽ (स्पष्टीकरण चाहिए), ‘इन प्रोसेसऽ (प्रक्रिया जारी) और ‘अदर्सऽ (अन्य) जैसी श्रेणियों में आवेदनों को बांटा गया है।) फरवरी में लगभग 12,000 संगठन ऐसे थे जिनके आवेदन पर मंत्रालय को एफसीआरए से जुड़ी प्रक्रिया शुरू करनी थी और उनके रजिस्ट्रेशन की तिथि 31 मार्च 2022 तक बढ़ा दी गई थी। इन संगठनों के बारे में साफ किया गया था कि जब तक उन्हें उनकी स्थिति के बारे में सूचित नहीं किया जाता तब तक वे यथावत बने रहेंगे।

दुर्भाग्यवश यह रिपोर्ट लिखे जाने तक स्पष्ट नहीं था कि किन संगठनों के एफसीआरए लाइसेंस रद्द हो चुके हैं और उनके रद्द होने का कारण क्या है।

नतीजा क्या रहा?

एफसीआरए नियमों में बदलाव का तात्कालिक नतीजा यह है कि स्वयंसेवी संस्थाओं पर अनिवार्य नियमों के पालन (कंप्लायंस) का बोझ बहुत बढ़ गया है। सभी स्वयंसेवी संस्थाओं को एफसीआरए, आयकर और अन्य कई नियामक संस्थाओं के नियमों का पालन करना होता है। लेकिन अब बड़े स्तर पर काम करने और पर्याप्त संसाधन वाली स्वयंसेवी संस्थाओं के लिए भी ऐसा कर पाना और इसका लेखा-जोखा रख पाना व्यावहारिक रूप से मुश्किल हो गया है।

इसका दूसरा और अतिविकट प्रभाव पूरे सेक्टर को डांवाडोल करने वाला है। दरअसल जब किसी संगठन का एफसीआरए लाइसेंस रद्द किया जाता है तब न केवल उसके विदेशी अनुदान लेने की योग्यता समाप्त हो जाती है बल्कि सरकार इन संगठनों की एफसीआरए फंड से अर्जित सारी सम्पत्ति भी ज़ब्त कर लेती है। इतना भारी-भरकम नतीजा संस्थाओं को कुछ भी ऐसा करने से रोकता है जिससे उनकी नकारात्मक छवि बन सकती हो। इसके साथ ही ऐसा होना देश के भीतर दानदाताओं पर भी विपरीत असर डालने वाला हो सकता है और वे ऐसे संगठनों से अपने जुड़ाव को लेकर असमंजस में पड़ सकते हैं।

तीसरे परिणाम पर आएं तो एफसीआरए में बदलाव के चलते उन संगठनों (जैसे थिंक-टैंक, शोध संस्थान और एडवोकेसी ऑर्गनाइजेशन्स) का संचालन बुरी तरह प्रभावित होता है जो विदेशी अनुदानों पर ही अधिक निर्भर होते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि घरेलू दानदाता सीधे सेवा पहुंचाने वाली संस्थाओं को सहायता देने को वरीयता देते हैं।

और अंत में, इन बदलावों का असर ज़मीनी-स्तर के संगठनों पर पड़ता है जो एफसीआरए-लाइसेंस प्राप्त मध्यस्थ संगठनों से मिलने वाले अनुदानों पर निर्भर होते हैं। ऐसे संगठनों का काम ठप्प पड़ जाता है क्योंकि उनके पास अंतर्राष्ट्रीय दानकर्ताओं से सीधे सम्पर्क करने का कोई साधन नहीं होता है।

ये सभी परिस्थितियां मिलकर हमारे लोकतंत्र की जड़ों को हिला देने वाली हैं। इससे एक मूक समाज तैयार होता है जो कोई जोखिम उठाकर अपनी भूमिका निभा पाने में अक्षम होता है। ऐसा समाज सरकार, व्यापारिक तबके और मीडिया को जवाबदेह नहीं ठहरा सकता है। ना तो यह हाशिए पर जी रहे लोगों के लिए आवाज़ उठा सकता है और न ही यह सुनिश्चित कर सकता है कि बनाई जाने वाली नीतियां समावेशी और लोकतांत्रिक हों।

सभा में तालियां बजाती महिलाएं-एफ़सीआरए
हमारे देश में ऐसा कोई नागरिक नहीं है जो किसी प्रकार के नागरिक समाज का लाभार्थी न रहा हो। । चित्र साभार: फ़ेमिनिजम इन इंडिया

ऐसा क्यों हो रहा है?

पहला आरोप यह लगाया जाता है कि स्वयंसेवी संस्थाओं का उपयोग आतंकवाद की फंडिंग या काले धन को सफ़ेद करने के लिए आसानी से किया जा सकता है। हमें इस धारणा को बदलना चाहिए। जहां तक मैं जानती हूं पिछले 45 सालों में मात्र एक ऐसा मामला सामने आया है जब सरकार ने किसी स्वयंसेवी संस्था को इस तरह की गतिविधियों में शामिल पाया है। इसका मतलब यह भी हुआ कि यह कानून न केवल असंवैधानिक बल्कि बेअसर भी है।

दूसरा कारण सरकार द्वारा फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) का इस्तेमाल है। एफएटीएफ अंतर-सरकारी (कई देशों की सरकारों के साथ काम करने वाली) एजेंसी है जो आंतकवाद की फ़ंडिंग और मनी लॉन्डरिंग को रोकने का काम करती है। बीते सालों में सरकार ने बार-बार यह कहा है कि उनके द्वारा उठाए गए कदम एफएटीएफ की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए हैं। वहीं, एफएटीएफ ने सरकारों को यह सुनिश्चित करने का सुझाव दिया है कि उनका नियमन या नियंत्रण जोखिम के अनुपात में होने के साथ ही अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार दायित्वों के अनुरूप होना चाहिए। लेकिन हमारे पास ख़तरे को मापने का कोई पैमाना नहीं होने की वजह से हम यह नहीं कह सकते हैं कि लगाए गए प्रतिबंध अनुपातिक हैं या नहीं।

हमें स्वतंत्र नियामकों (जैसे माइक्रोफिनांस, टेलीकॉम आदि के लिए हैं) को लाने की ज़रूरत है। ऐसे नियामक रजिस्ट्रेशन करने और रजिस्ट्रेशन रद्द करने के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ऐसे नियामक स्वयंसेवी संस्थाओं के लिए रजिस्ट्रेशन करवाने और नियमों के पालन को सुविधाजनक बनाने में अपनी भूमिका निभाते हैं। इनकी जगह आज हमारे देश में गृह मंत्रालय और कभी-कभी वित्त मंत्रालय स्वयंसेवी संस्थाओं के लिए भाग्य विधाता की भूमिका निभाता है। इनमें से कोई भी वास्तव में स्वयंसेवी संस्थाओं को अनुपालन के लिए सक्षम बनाने में एक रुपये का भी निवेश नहीं करता है।

लोगों को इसकी चिंता क्यों करनी चाहिए?

अगर महामारी के दौरान आप भारत में थे तब आपने देखा होगा कि स्वयंसेवी संस्थाएं इस काम में लगी रहीं थीं कि लोगों तक तमाम तरह की सेवाएं पहुंचती रहें। ख़ासतौर पर तब जब सरकार ने हमें हमारे भरोसे छोड़ दिया था।

एफसीआरए विनियमों को विनियमों के उस समूह के हिस्से के रूप में देखा जाना ज़रूरी है जिसका पालन सभी स्वयंसेवी संस्थाओं को करना अनिवार्य है। इसमें नए सीएसआर नियम और आय कर अधिनियम के तहत किए जाने वाले आवश्यक बदलाव भी शामिल हैं। जब आप सभी को एक साथ मिलाकर देखेंगे तो पाएंगे कि इसने केवल 20,000 स्वयंसेवी संस्थाओं को नहीं बल्कि देश की सभी स्वयंसेवी संस्थाओं को प्रभावित किया है। यहां तक कि वे समुदाय भी इस प्रभाव से अछूते नहीं हैं जिनके लिए ये संस्थाएं काम करती हैं।

समाज और समाजसेवी संस्थाओं को अपनी पूरी क्षमता के साथ काम करने की आवश्यकता है।

भारत अपने सतत विकास लक्ष्यों (सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स – एसडीजी) को प्राप्त करने में पहले से ही पिछड़ रहा था; महामारी ने इसे और पीछे धकेल दिया है। बीते कुछ समय में हमने असमानता में वृद्धि, बेरोजगारी, कुपोषण और बाल विवाह के बढ़ते मामले देखे हैं। इन कमियों को दूर करने के लिए नागरिक संगठनों और समाजसेवी संस्थाओं को अपनी पूरी क्षमता से काम करने की जरूरत है।

आखिरकार हमारे लोकतांत्रिक अधिकारों का सवाल है। चाहे यह अल्पसंख्यक समुदायों के लोगों के लिए हो, निचली जातियों के लिए हो, महिलाओं के लिए हो या विशेष भौगोलिक क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए, हम जानते हैं कि हमारा लोकतंत्र अपने आदर्श स्तर से बहुत नीचे के स्तर पर काम कर रहा है। नागरिक संगठनों द्वारा इन आवाज़ों को सशक्त किए बिना सरकार को उसकी ज़िम्मेदारियों के प्रति जवाबदेह नहीं बनाया जा सकता हैं। अगर ऐसा नहीं हुआ तो हम पाएंगे कि भारत के ज़्यादातर नागरिक लोकतंत्र और विकास के दायरे से बाहर छूटते जा रहे हैं।

लोग क्या कर सकते हैं?

मेरी पहली अपील नागरिक संगठनों से ही है। हमें इन मुद्दों पर दोगुना ध्यान देना होगा। बीते सालों में हुई घटनाओं के बावजूद आज भी कई ऐसे सीईओ और बोर्ड के सदस्य हैं जिन्हें या तो अपने ऑडिट की जानकारी नहीं है या फिर उन्होंने कंप्लायंस रिक्वायरमेंट को समझने या उसकी समीक्षा के लिए अपने ऑडिटर के साथ बैठकर बातचीत नहीं की है। जहां नियामकों को चुनौती देना आवश्यक है वहीं हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि हम अपनी पूरी योग्यता का इस्तेमाल करते हुए इसकी बारीकियों पर अपनी नज़र बनाए हुए हैं।

दूसरा, व्यवसायिक तबके और समाजसेवा से जुड़े लोगों और संस्थाओं को आवाज़ उठानी होगी। वर्तमान में इन्होंने भारत के लोकतंत्र की लड़ाई उन लोगों के ज़िम्मे डाल दी है जिनके पास लड़ने की ताक़त सबसे कम है। यह स्थिति व्याकुल और भयभीत करने वाली है। हमें चेम्बर्स ऑफ़ कामर्स और बिज़नेस एसोसिएशन द्वारा दिए जाने वाले सख़्त संदेशों की ज़रूरत है। साथ ही ऐसे लोगों के साथ की भी ज़रूरत है जिनकी सीधी पहुंच पीएमओ, गृह मंत्रालय या वित्त मंत्रालय तक हो और जो यह कह सकें कि ‘इसका नतीजा ठीक नहीं होगा।ऽ

मीडिया पहले ही इस चुनौती के लिए अपना कदम बढ़ा चुका है। बेशक यह टुकड़ों में है क्योंकि मीडिया संस्थानों ने समझ लिया है कि वे भी उतनी ही कठोर नीतियों का सामना कर रहे हैं। बहरहाल यह देखना सुखद है कि मुख्यधारा के मीडिया मंचों ने भी मानव-हित से जुड़ी कहानियों के बजाय नीति और नियामक के संदर्भ में नागरिक समाज से जुड़े मुद्दों पर बात करनी शुरू कर दी है।

अब हमें नागरिक संगठनों के क्षेत्र में अधिक समर्थन की ज़रूरत है ताकि हम सामूहिक रूप से जनता के बीच व्यापक स्तर पर योजनाओं का निर्माण कर सकें।

अंत में मैं फिर नागरिक संगठनों पर लौटूंगी। हमें इस क्षेत्र में ही सबसे अधिक साथ आने की ज़रूरत है ताकि हम मिलकर जनता में व्यापक स्तर पर दृष्टिकोण और समझ विकसित कर सकें। आम लोगों को नागरिक समाज की महत्ता को समझने की ज़रूरत है। हमारे देश में एक भी ऐसा नागरिक नहीं है जो किसी ना किसी रूप में नागरिक संगठनों का लाभार्थी न रहा हो। चाहे वह स्कूल या कॉलेज हों या फिर अस्पताल, उपभोक्ता संगठन या व्यापार संघ या मनरेगा के माध्यम से आने वाले बदलाव, यहां तक कि सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, भोजन का अधिकार और काम का अधिकार भी इसमें शामिल हैं। हमें सभी को यह कहानी सुनाने की ज़रूरत है ताकि आम लोग लोकतंत्र में नागरिक संगठनों की भूमिका को समझ सकें।

यह आलेख इंग्रिड श्रीनाथ द्वारा आईडीआर के साथ किए गए एक इंस्टाग्राम लाइव पर आधारित है जिसे आप यहां देख सकते हैं।

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फ़ोटो निबंध: एक कचरा प्रबंधन साइट से बढ़कर

पूर्वी दिल्ली के अंतिम छोर पर एक पहाड़ जैसी कोई आकृति दिखाई पड़ती है। थोड़ा नज़दीक जाने पर साफ़ दिखता है कि यह पहाड़ दरअसल कचरे का वही ढ़ेर है जिसे गाज़ीपुर लैंडफ़िल के नाम से जाना जाता है। कचरे के इसी विशाल ढ़ेर में सैकड़ों लोगों को अनौपचारिक रूप से रोज़गार मिलता है।

मैं पहली बार गाज़ीपुर 2017 में गया था। इतने सालों में मैंने देखा है कि हर दिन शहर के लोगों द्वारा असीमित मात्रा में पैदा किए गए कूड़े को रीसायकल करने के लिए कई तरह के उपाय और विकल्प अपनाए गए हैं। इस बदलाव का संकेत स्थानीय नगर निगम द्वारा लगाई गई बड़ी-बड़ी मशीजिन्होंने जलते हुए कचरे के ढ़ेर की जगह ले ली है। इन मशीनों का इस्तेमाल कचरे के ढ़ेर को अलग करने, रीसायकल करने, उन्हें दोबारा पैक करने और फिर अर्थव्यवस्था में वापस लौटाने के काम में किया जाता है। इसके लिये हर दिन लगभग 20 बैकहो मशीन एक्सकेवेटर और 15 वेस्ट सेपरेटर और सीव (ट्रोमेल) लगातार काम करते रहते हैं। 2017 में जब पहली बार मैं यहां गया था तो इनमें से कोई भी मशीन नहीं थी। कई तरह के ऐसे व्यवसाय हैं जो इस कचरे के विशाल ढ़ेर और उसकी रिसायकलिंग पर निर्भर हैं। इस ढ़ेर में से प्लास्टिक, मेटल, कपड़े, पॉलिथीन, काँच सहित कई ऐसी सामग्रियाँ निकलती हैं जिनका इस्तेमाल सैनिटेरी टाइल, खाद आदि बनाने में किया जाता है।

हर दिन सैकड़ों कचरा बीनने वाले कूड़े के इस पहाड़ में कड़ी मेहनत करके अपना जीवनयापन करते हैं-कचरा प्रबंधन

हर दिन सैकड़ों कचरा बीनने वाले कूड़े के इस पहाड़ में कड़ी मेहनत करके अपना जीवनयापन करते हैं।

ट्रक ने कचरा उड़ेल दिया है और चीलों का झुंड अब अपने बारी का इंतज़ार कर रहा है-कचरा प्रबंधन

ट्रक ने कचरा उड़ेल दिया है और चीलों का झुंड अब अपने बारी का इंतज़ार कर रहा है।

दूबे जी यहां के चौकीदार हैं। इनकी ज़िम्मेदारी कचरे के इस विशाल ढ़ेर की सबसे ऊँचाई पर खड़े होकर रीसायकल के काम पर निगरानी रखना है-कचरा प्रबंधन

उत्तर प्रदेश के मऊ के रहने वाले दूबे जी यहां के चौकीदार हैं। एक निजी सिक्योरिटी एजेंसी ने उन्हें काम पर रखा है जिसे लैंडफ़िल में मज़दूर मुहैया करवाने का ठेका मिला है। इनकी ज़िम्मेदारी कचरे के इस विशाल ढ़ेर की सबसे ऊँचाई पर खड़े होकर रीसायकल के काम पर निगरानी रखना है।

केबल सिंह लैंडफ़िल पर ट्रक ड्राइवर हैं-कचरा प्रबंधन

केबल सिंह लैंडफ़िल पर ट्रक ड्राइवर हैं। यहां काम करते हुए इन्हें लगभग तीस साल हो चुके हैं।

ट्रोमेल कचरे को अलग करने में मदद करता है-कचरा प्रबंधन

ट्रोमेल कचरे को अलग करने में मदद करता है—यह चलनी की तरह काम करता है और एक विशेष आकर की चीजों को अलग करता है।

मशीनें लगातार चालू रहती हैं जिसके कारण इसमें ख़ास क़िस्म की ख़राबियां आती रहती हैं। यहां नियुक्त मैकेनिक और वेल्डर समय-समय पर इन मशीनों को ठीक करते हैं-कचरा प्रबंधन

मशीनें लगातार चालू रहती हैं जिसके कारण इसमें ख़ास क़िस्म की ख़राबियां आती रहती हैं। यहां नियुक्त मैकेनिक और वेल्डर समय-समय पर इन मशीनों को ठीक करते हैं।

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हवा में मौजूद धूल स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक होता है। नए लगाए गए स्प्रिंकलर से हवा में पानी का छिड़काव किया जाता है ताकि धूल कम हो जाए।

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