भारत की 43 फ़ीसदी आबादी के लिए आजीविका का मुख्य स्त्रोत कृषि है और इसने साल 2020–21 में देश की कुल जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में 18.8 फ़ीसदी का योगदान दिया है। इसे संभव बनाने वाले लगभग 85 प्रतिशत किसान परिवार, ऐसे छोटे या सीमांत किसान हैं जिनके पास दो हेक्टेयर से कम ज़मीन है। वास्तव में, औसत जोत प्रति परिवार केवल 0.5 हेक्टेयर है। ज़मीन के इन छोटे टुकड़ों को अक्सर खेती के लिए अव्यावहारिक माना जाता है और यह समझा जाता है कि इतनी जमीन अपने मालिकों को स्थाई आजीविका देने में सक्षम नहीं होती है। उन इलाक़ों में इस स्थिति के और भी गम्भीर होने की संभावना है जहां जल संरक्षण एक मुद्दा हो।
उत्तर-पश्चिम महाराष्ट्र का मराठवाड़ा इलाक़ा ऐसा ही एक उदाहरण है। यह एक सूखा-प्रभावित इलाक़ा है जहां पानी का उपलब्ध ना होना एक व्यापक स्तर की समस्या है और इसी के चलते यहां की ज़मीन को समुदाय के सदस्यों और नीति निर्माताओं द्वारा अव्यावहारिक कह कर ख़ारिज कर दिया जाता है। इस स्थिति का नतीजा खाद्य असुरक्षा, पलायन और कर्ज के ढ़ेर के रूप में देखने को मिलता है। उधर देश के पूर्वी इलाक़ों जैसे पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ राज्यों में घने जंगल होने के कारण, अनियमित रूप से ही सही लेकिन बहुत अधिक बारिश होती है। इन क्षेत्रों में भी जल संरक्षण एक मुद्दा है क्योंकि असमतल भौगोलिक स्थिति होने के कारण पानी का बहाव तेज होता है।
इन भौगोलिक क्षेत्रों के अलग-अलग होने के बावजूद, दोनों ही जगहों पर छोटे किसानों को एक जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इन इलाक़ों में जब जल संरक्षण सुनिश्चित करने के प्रयास किए गए तो जल आपूर्ति में सुधार लाने पर अधिक ध्यान केंद्रित किया गया है। जलवायु संकट के कारण होने वाली अनियमित वर्षा, जल भंडारण के लिए बुनियादी ढांचे (जैसे बांध और खेत के तालाब) के निर्माण और रखरखाव में आने वाला खर्च और समुदायों द्वारा पानी का दुरुपयोग किया जाना, कुछ ऐसे कारण हैं जो इस दृष्टिकोण को सीमित कर देते है।
स्वयं शिक्षण प्रयोग (एसएसपी) एक ऐसा स्वयंसेवी संगठन है जो 1993 से मराठवाड़ा क्षेत्र में महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए काम कर रहा है। यह संगठन लातूर भूकम्प के विनाशकारी प्रभावों से निपटने में समुदाय की मदद के उद्देश्य से बनाया गया था।
एसएसपी के कार्यक्रम निदेशक उपमन्यु पाटिल बताते हैं कि “हम पिछले तीन दशकों से महिलाओं के साथ कई और बारीक स्तरों पर काम कर रहे हैं। हम उन्हें उद्यमिता में प्रशिक्षित करने और सामुदायिक स्तर पर फ़ैसले लेने में योग्य बनाने पर काम कर रहे हैं। 2013–14 में जब हमने अनगिनत किसानों को आत्महत्या करते देखा तो हमने फ़ैसला किया कि अब कृषि के क्षेत्र में काम करने का समय आ गया है। इसके लिए हमने प्रारम्भिक अध्ययन किए। इन अध्ययनों में हमने पाया कि लोग ऐसी नक़दी फसलों की खेती करते हैं जिनमें बहुत अधिक लागत की ज़रूरत होती है। और, कम या अधिक बारिश, कर्ज की बढ़ती राशि और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के आने से स्थिति बिगड़ जाती है। ऐसे में उनके पास ना नक़द होता है और ना ही भोजन।”
देश के पूर्वी इलाके की कहानी इससे थोड़ी अलग भले ही है लेकिन उसके नतीजे मराठवाड़ा जैसे ही हैं। पश्चिम बंगाल के 72 पश्चिमांचल उन्नयन पार्षद प्रखंडों/ब्लॉकों में भौगोलिक स्थितियों और वर्षा आधारित फसलों पर निर्भरता ने समुदाय को एक फसल वाली खेती के लिए प्रेरित किया। यह एक आदिवासी बहुल इलाक़ा है और शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, आय और उत्पादकता के मामले में अत्यधिक गरीब भी। यहां के कई लोग अपने परिवार को एक समय का भोजन देने में भी सक्षम नहीं थे और पलायन कर पश्चिम बंगाल के अन्य इलाक़ों और यहां तक कि राज्य से बाहर भी जा रहे थे।
प्रदान पिछले तीन दशकों से भारत के मध्य और पूर्वी इलाक़ों में आजीविका के क्षेत्र में काम करने वाला एक स्वयंसेवी संगठन है। इसने झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में सामुदायिक भागीदारी मॉडल के माध्यम से महिलाओं के साथ जुड़ने का काम किया है। इसके बाद से ही इन क्षेत्रों की महिलाओं की आय, आत्मविश्वास और फ़ैसले लेने की उनकी क्षमता में एक बड़ा बदलाव देखने को मिला है। जब प्रदान ने पश्चिम बंगाल में काम करना शुरू किया तब वे महिलाओं के साथ किए गए काम से मिलने वाले अनुभवों को आगे लेकर गए।
प्रदान के पश्चिम बंगाल इकाई के इंटिग्रेटर अलक जना का कहना है कि “हमने इस क्षेत्र में विकास की चुनौतियों और आदिवासी समुदाय के सामने आने वाली समस्याओं के बारे में जानने में समय लगाया। समय के साथ हमने उन्हें महिला समूहों के विभिन्न रूपों में संगठित करने में सक्षम बनाया। साथ ही, उनके लिए पंचायती राज संस्थानों, सरकारी प्रशासन, बैंकों और बाजारों सहित कई हितधारकों के साथ जोड़ने के तरीक़े और रास्ते बनाए। संक्षेप में कहा जाए तो यहां हम एक उत्प्रेरक और सूत्रधार की भूमिका निभा रहे थे।”
सबसे पहला काम छोटे और कम जोत वाले किसान परिवारों की महिलाओं को स्व-सहायता समूहों में संगठित करना था। अलक ने आगे बताया कि “हम लोगों ने उनकी ज़रूरतों, उनके सामने आने वाली समस्याओं को समझने और उनके पास उपलब्ध संसाधनों के बारे में जानने के लिए उनसे बातचीत की। और, यह काम हमने सहभागी प्रक्रियाओं का उपयोग करते हुए किया। हमने आजीविका के उन अवसरों के बारे में भी पता लगाया जिन पर काम करके ये महिलाएं अपनी आय, पोषण और भोजन की जरूरतों को पूरा कर सकती थीं।”
“हमने उन परिवारों को चिन्हित करना शुरू किया जिनके पास साल भर का भोजन नहीं था, जहां कुपोषण का स्तर बहुत उंचाई पर पहुंच चुका था और जिनकी आय बहुत कम थी। लेकिन फिर भी अपने और अपने बच्चों के लिए उनकी आकांक्षाएं बहुत उंची थीं।”
प्रदान के टीम कोर्डिनेटर रितेश पांडे के अनुसार “ज्ञान ताक़त है और जब महिलाएं अपने जीवन के विभिन्न पहलुओं जैसे पोषण, आजीविका और स्वास्थ्य से जुड़ी जानकारी के साथ-साथ बाज़ारों, बैंकों और सरकारी योजनाओं तक पहुंचने के लिए कौशल विकसित कर लेती हैं। तब यह ज्ञान ही उनकी क्षमताओं को बढ़ाता है और उन्हें कई चुनौतियों का समाधान करने में मदद करता है। वे उनका सामना करती हैं।”
शुरुआत में इस क्षेत्र में खेती के इतिहास और उत्पत्ति को समझने के लिए महिलाओं को अपने गांवों में बुजुर्गों के साथ बातचीत करनी थी। भौगोलिक स्थिति और पारंपरिक प्रथाओं का स्थानीय ज्ञान महत्वपूर्ण है। इस ज्ञान का अधिकांश हिस्सा, जैसे कि क्या उगाना है, मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार कैसे करना है, और पानी की कमी से निपटने के लिए क्या किया जा सकता है, स्थानीय लोगों के दिमाग में रहता है।
अलक बताते हैं कि प्रदान ने महिला किसानों को आधुनिक बाज़ारों के लिए पारंपरिक प्रथाओं को अपनाने और बाज़ार के मुताबिक उन्हें नई तरह से ढालने में मदद की। उदाहरण के लिए उन्होंने इन इलाक़ों में पारंपरिक रूप से उगाए जाने वाली चावल की क़िस्मों को लगाना शुरू किया। “अगर सही तरीक़ा अपनाया जाए तो चावल की इन क़िस्मों की फसल भी मुख्यधारा के धान जितनी ही उत्पादक होती है। इसके बाद चुनौती यह थी कि इन किस्मों का बड़े पैमाने पर उत्पादन करने के लिए मदद की जाए और इसके लिए कुछ तरीक़ों में सुधार किया जाए। बजाय इसके कि इन्हें बस कम मात्रा में होने वाले कुछ चुनिंदा उत्पादों की तरह देखा जाए।”
प्रदान और एसएसपी दोनों ने ही इसमें वैज्ञानिक समझ के पहलू को भी शामिल करने का काम किया। उन्होंने अपने किसानों को कृषि विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों के प्रमुख वैज्ञानिकों से जोड़ा। ये वैज्ञानिक इन महिला किसानों से बात करते थे, उनके खेतों का मुआयना करते थे और फिर अपने सुझाव देते थे। “हमने विश्विद्यालयों के साथ साझेदारी की कि वे अपने कुछ प्रदर्शनों को विश्वविद्यालय की प्रयोगशालाओं में करने की बजाय किसानों के खेतों में करें। खुद करके सीखने से महिलाओं का आत्मविश्वास बढ़ाने में मदद मिली। उदाहरण के लिए बिधान चंद्र कृषि विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर महिला किसानों के खेत पर जाते थे और मिट्टी की नमी मापने के लिए वहीं अपना यंत्र लगाते थे। इसके बाद परिणाम के मुताबिक अपने सुझाव देते कि कौन सी फसल किस मौसम में पैदा होगी,” रितेश बताते हैं।
प्रदान के मदद से किए गए विभिन्न सहयोगों और वैज्ञानिकों की सिफारिशों के कारण, पानी की अधिकता वाले धान से धीरे-धीरे उन फसलों के उत्पादन में बदलाव आया है जिन्हें खुले बाजारों में बेचा जा सकता है। मराठवाड़ा के मामले में, एसएसपी ने किसानों को अधिक पानी की खपत वाली नकदी फसलों से दूर पोषक तत्वों से भरपूर खाद्य फसलों जैसे दाल, फल और सब्जियों की ओर बढ़ने में मदद की है।
देशभर में ज़्यादातर किसानों की आम समझ यही है कि अधिक उत्पादन के लिए अधिक निवेश जैसे अधिक पानी, अधिक उर्वरक आदि की ज़रूरत होती है। लेकिन एसएसपी और प्रदान दोनों ने यह दिखा दिया कि बेहतर इनपुट प्रबंधन से बेहतर उत्पादकता प्राप्त की जा सकती है।
कम पानी की ज़रूरत और पत्तियों और वर्मीकम्पोस्ट जैसे जैव पदार्थों के उपयोग से की जाने वाली जैव कृषि से खेती में आने वाले खर्चे में कमी आती है।
महिला किसानों द्वारा अपनाई गई कई तकनीकों ने उनके खेतों में पानी की खपत को कम करने में मदद की है। इसका एक उदाहरण जैविक खेती है। इसमें सड़ी-गली पत्तियां और वर्मीकम्पोस्ट जैसे जैव अपशिष्टों का उपयोग होता है जो स्थानीय रूप से आसानी से उपलब्ध होते हैं और इससे उत्पादन लागत में भी कमी आती है। ऐसी ही एक अन्य तकनीक ड्रिप स्प्रिंकलर का उपयोग है जो पौधों की जड़ों को धीमी गति से (2–20 लीटर प्रति घंटे) पानी की थोड़ी मात्रा पहुंचाती है। इसने मराठवाड़ा में अच्छा काम किया है जहां एसएसपी महिलाओं को प्रधान मंत्री कृषि सिंचाई योजना जैसी योजनाओं तक पहुंचाने में मदद कर सका है। इस योजना के तहत किसानों को स्प्रिंकलर की लागत पर सब्सिडी मिलती है। इन तकनीकों को अपनाने से जल भराव वाली सिंचाई के पुराने तरीके की तुलना में कम पानी खपत होता है। साथ ही, यह मराठवाड़ा जैसे सूखा प्रभावित क्षेत्रों में एक महत्वपूर्ण बदलाव साबित हुआ है।
इन तकनीकों का प्रभाव स्पष्ट है। पिछले तीन सालों में मराठवाड़ा में अच्छी बारिश हुई है और वहां का जल स्तर भी चार इंच बढ़ा है। इसके साथ ही, इस क्षेत्र में किसान आत्महत्या दर में गिरावट देखी गई है।
दोनों क्षेत्रों की महिला किसानों ने एकल-फसल को छोड़कर बहु-फसल मॉडल को अपना लिया है। अलक बताते हैं कि आमतौर पर खरीफ फसल के मौसम के अंत में, 85–90 प्रतिशत भूमि परती (ख़ाली) रहती थी। “अब, अपने नए हासिल ज्ञान के आधार पर महिलाओं ने खरीफ के दौरान कम अवधि की धान की किस्मों की खेती की खोज कर ली है ताकि मिट्टी में कुछ नमी बरकरार रहे। यह दृष्टिकोण सुनिश्चित करता है कि कम पानी की आवश्यकता वाली फसलें जैसे दालें, तिलहन या सब्ज़ियों जैसी दूसरी फसलों (जिसमें मिट्टी को केवल हल्की सिंचाई की आवश्यकता होती है) के लिए मिट्टी में नमी की पर्याप्त मात्रा उपस्थित रहे। कुछ किसान एक ही भूमि का उपयोग साल की तीसरी फसल के लिए भी करते हैं – उदाहरण के लिए वे लता वाली फसलें उगाते हैं जिनमें कम पानी लगता है और गर्मी के महीनों में इनसे भोजन और नकदी प्राप्ति होती है।”
वास्तव में, महिलाएं लगातार अपनी फसल के विकल्पों, निवेश के तरीकों और जल प्रबंधन के जरिए खाद्य सुरक्षा, पोषण और आय को अधिकतम करने के उपायों के बारे में सोच रही हैं – यह एक ऐसी बात है जो कुछ साल पहले इन क्षेत्रों में नहीं सुनी गई थी।
अलक के अनुसार “जब बात इस क्षेत्र के धान की आती है तब यहां की पारंपरिक उत्पादन क्षमता 1.9–2 मेट्रिक टन प्रति हेक्टेयर थी। कृषि के बेहतर तरीक़ों को अपनाने के बाद यह मात्रा बढ़कर 3.5–4 मेट्रिक टन प्रति हेक्टेयर हो गई है। इससे महिलाओं के आत्मविश्वास का स्तर और उनकी फसलों की उत्पादकता दोनों बढ़ी है। साथ ही खाद्य पदार्थों की पर्याप्त मात्रा सुनिश्चित हुई है और लोगों की आमदनी में वृद्धि हुई है।जल सुरक्षा में हुई वृद्धि के अन्य सकारात्मक परिणाम भी देखने को मिलने लगे हैं। 2014–15 में संबोधि द्वारा किए गए अध्ययन से यह बात सामने आई कि पश्चिम बंगाल के ऊपरी इलाक़ों में पलायन दर अन्य क्षेत्रों की तुलना में 50 फ़ीसदी अधिक थी। चार साल बाद यह घट कर 30 फ़ीसदी हो गई। अब इस क्षेत्र को संकट प्रवास के उच्च दर वाले क्षेत्र के रूप में नहीं देखा जाता है।
खाद्य फसलों की खेती से खाद्य सुरक्षा में वृद्धि हुई है और महिलाओं के परिवारों के स्वास्थ्य में सुधार हुआ है।
उपमन्यु ने हमें बताया कि मराठवाड़ा में भी ऐसे ही परिणाम देखने को मिले हैं। खाद्य फसलों को उपजाने से खाद्य सुरक्षा में बढ़त हुई है और यह महिलाओं के परिवारों के स्वास्थ्य में आए सुधार में भी सहायक हुआ है। इसके चलते महिलाओं की आय बढ़ी है और उनके अधिकार क्षेत्र में भी विस्तार आया है। समाज और पर्यावरण के स्तर पर इन तरीक़ों के इस्तेमाल से पानी की मांग में कमी आई है और मिट्टी की गुणवत्ता भी बेहतर हुई है। ये दोनों ही बातें जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले दबावों से निपटने के लिए महत्वपूर्ण हैं जिनका किसान हर दिन सामना कर रहे हैं।
एसएसपी और प्रदान दोनों ही इन नई तकनीकों और तरीकों के प्रति सरकार की बढ़ती ग्रहणशीलता के बारे में बात करते हैं। अलक कहते हैं कि “हम केवल पंचायतों और ग्रामीण विकास विभागों से ही नहीं बल्कि कृषि, बागवानी और जल संसाधन जांच और विकास विभागों से भी मिल रहे हैं। अब वे अपने कार्यक्रमों में प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन और बेहतर बागवानी के तरीकों को अपना रहे हैं।”
उपमन्यु जैविक खेती पर केंद्र के साथ-साथ महाराष्ट्र सरकार द्वारा बढ़ाई गई तवज्जो की बात करते हैं। वे कहते हैं कि “हमने महिला किसान सशक्तिकरण परियोजना पर काम किया जिसका फंड केंद्र सरकार से मिलता है। सरकार चाहती है कि महिलाएं किसानों के तौर पर पहचानी जाएं और इसके साथ ही वह खाद्य फसल और जैविक खेती को प्राथमिकता देने की इच्छुक है। इसलिए इस काम के लिए बड़ा बजट आवंटित किया गया है। हमारा काम यह सुनिश्चित करना है कि महिलाएं इसमें शामिल हों और ये योजनाओं उन तक पहुंचें।
हालांकि प्रदान और एसएसपी कई दशकों से अपने क्षेत्रों में महिलाओं के साथ काम कर रहे हैं, लेकिन यह सफलता के लिए पहले से मौजूद शर्त नहीं है। उपमन्यु बताते हैं कि कैसे इस मॉडल से उन नए इलाकों में भी जबरदस्त सफलता देखने को मिली है जिनमें उन्होंने हाल ही में विस्तार किया है। ये ऐसे जिले हैं जहां एसएसपी की पहले से कोई उपस्थिति नहीं थी – जैसे औरंगाबाद, अहमदनगर और वाशिम। दरअसल, इन जिलों में ये मॉडल सीधे सरकार के पास गए हैं। “इन तीनों ज़िलों के समुदायों में हमारी किसी भी तरह की उपस्थिति नहीं है, इसलिए इन गांवों में हम सरकार के फ़्रंटलाइन कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण दे रहे हैं।” उपमन्यु ने भविष्यवाणी की है कि खरीफ फसल के इस पहले मौसम में ही वे औरंगाबाद और नगर के दो जिलों में लगभग 20,000 किसानों तक पहुंचेंगे।
एसएसपी और प्रदान दोनों ने ही यह दिखाया है कि लगातार सरल और नए तरीकों को अपनाकर छोटी जोत वाली खेती को व्यावहारिक बनाना संभव है। इसमें महिलाओं को एकत्रित करने, सिंचाई के लिए प्रौद्योगिकी के उपयोग या फसल पैटर्न में बदलाव करने जैसे काम शामिल हैं। इस समाधान की प्रकृति यूनीवर्सल (सार्वभौमिक) है इसलिए इसे लागू करना और इसकी नक़ल पर काम करना आसान है।
समीकरण के मांग पक्ष पर ध्यान केंद्रित करके, छोटी जोत वाली महिला किसानों ने दिखाया है कि वे पहले अपर्याप्त या बंजर मानी जा चुकी जमीन पर खेती कर सकती हैं। साथ ही, ये महिलाएं यह भी सुनिश्चित करती हैं कि उनके परिवार का पेट भरा हो और स्वास्थ्य अच्छा रहे। फिर भले उनके पास बाज़ार में बेचने के लिए अतिरिक्त अनाज हो या न हो। ऐसा करते हुए वे भारत में छोटी जोत वाली खेती के परिदृश्य को बदल रही हैं।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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नागपुर महाराष्ट्र का तीसरा सबसे बड़ा शहर होने के साथ ही राज्य का प्रमुख व्यावसायिक और राजनीतिक केंद्र भी है। शहर की छत्तीस प्रतिशत आबादी झुग्गियों में रहती है। इन झुग्गियों में लगातार जलता हुआ बायोमास गैस देश में घरेलू वायु प्रदूषण का एक मुख्य कारण है जो अब गम्भीर चिंता का विषय बन चुका है। वॉरियर माम्स और सेंटर फ़ोर सस्टेनेबल डेवलपमेंट ने नागपुर के शहरी इलाक़ों में स्थित 12 झुग्गियों के 1,500 झोपड़ियों का सर्वेक्षण किया। इस सर्वेक्षण की मदद से उन्होंने विभिन्न क़िस्मों के ईंधन की उपलब्धता और इस्तेमाल तथा उनसे जुड़े स्वास्थ्य प्रभावों को समझने की कोशिश की। इस सर्वेक्षण में विशेष रूप से उन महिलाओं और उनके बच्चों के स्वास्थ्य को केंद्र में रखा गया जो अपने घरों में खाना पकाने या गर्म करने के लिए चूल्हों (मिट्टी या ईंट के स्टोव) का इस्तेमाल करती हैं।
हमारे सर्वे के अनुसार नागपुर की झुग्गियों में रहने वाली 43 प्रतिशत औरतें एलपीजी कनेक्शन होने के बावजूद अब भी खाना पकाने के लिए लकड़ी, भूसे, चारकोल, कोयला, उपले और किरोसीन तेल का इस्तेमाल करती हैं। यह इस बात की ओर ध्यान दिलाता है कि शहरी झुग्गियों में खाना पकाने के स्वच्छ विकल्प को पूरी तरह बदलने की इस प्रक्रिया में अब भी कई तरह की आर्थिक और सामाजिक-सांस्कृतिक बाधाएं हैं। और यह एक जटिल और बहुस्तरीय समस्या है।
रिसर्च से इस बात की पुष्टि हुई है कि घरों में जलने वाले बायोमास से होने वाली घरेलू वायु प्रदूषण का सबसे अधिक असर महिलाओं और बच्चों पर पड़ा है। सविता भोजने (32) की टिन से बनी झोपड़ी चिखली झुग्गी में है। उसका कहना है कि दिन भर कूड़ा उठाने का काम करने के बाद रात में उसे जलते हुए चूल्हे के सामने बैठकर खाना पकाना पड़ता है। यह समस्या सविता के जीवन का हिस्सा है क्योंकि उसके लिए यह सबसे किफ़ायती और सुलभ विकल्प है।
एलपीजी सिलिंडरों की आसमान छूती क़ीमतों का एक मात्र मतलब यह है कि गरीब लोग अब भी पूरी तरह से स्वच्छ ईंधन के विकल्प को नहीं अपना सकते हैं। यह उनके लिए एक सपने की तरह है। एक एलपीजी सिलिंडर की कीमत 1,000 रुपए से ज़्यादा है और यह मुश्किल से एक महीने चलता है। वहीं 100–400 रुपए में इतनी लकड़ी आ जाती है जिससे एक महीने तक आसानी से खाना पकाया जा सकता है। कुछ लोग साल के ज़्यादातर महीने एलपीजी का इस्तेमाल करते हैं लेकिन सर्दियों में होने वाली गर्म पानी की खपत के लिए उन्हें भी चूल्हों का उपयोग करना पड़ता है।
अपने परिवार का पेट भरने और उन्हें खाना खिलाने के लिए औरतों को अक्सर ही जलावन के लिए लकड़ियां इकट्ठा करने का काम करना पड़ता है। उनचास वर्ष की मायाबाई शिंघनापूरे नागपुर के न्यू वैशाली नगर झुग्गी में रहती है। वह पिछले कई दशक से अपने चूल्हे के लिए लकड़ी इकट्ठा करने का काम कर रही है। महज़ 6,000 रुपए की मासिक आमदनी वाली मायाबाई को लगता है कि निकट भविष्य में उनकी स्थिति कुछ ख़ास नहीं बदलेगी क्योंकि वह आसमान छूती क़ीमत वाली एलपीजी नहीं ख़रीद सकती है।
औरतों और लड़कियों का ज़्यादा समय जलावन के लिए लकड़ी या अन्य चीजों को इकट्ठा करने में लग जाता है। ऐसा करते हुए वे कई बार खुद को जोखिम में डाल देती है क्योंकि जलावन चुनने के इस काम में अक्सर डम्पिंग ग्राउंड जैसी असुरक्षित जगहों से बायोमास भी उठा लाती हैं। युवा लड़कियों को अवसर के रूप में इस काम की ज़्यादा क़ीमत चुकानी पड़ती है क्योंकि वे पढ़ाई-लिखाई जैसे काम छोड़कर बायोमास इकट्ठा करने को अपना मुख्य काम बना लेती हैं।
ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज स्टडी, 2019 के अनुसार ठोस ईंधन जलाने से घरेलू वायु प्रदूषण होता है। यह प्रदूषण पूरे भारत में परिवेशी वायु गुणवत्ता का 30-50 प्रतिशत है। इसके कारण हर साल लगभग 6 लाख भारतीयों की समय से पहले मौत हो जाती है। अध्ययन से यह बात सामने आई है कि चूल्हों से निकलने वाले ज़हरीले प्रदूषक पदार्थों का उच्च स्तर फेफड़े के कैंसर और हृदय एवं सांस संबंधी बीमारियों का एक प्रमुख कारक है। इन ज़हरीली धुओं में सांस लेने से महिलाओं को दमा (अस्थमा), अनियमित मासिक चक्र का शिकार होना पड़ता है और इसके अलावा उन्हें गर्भावस्था में प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है।
सिद्धेश्वरी झुग्गी में रहने वाली 60 वर्षीय आदिवासी महिला राजकुमारी धुर्वे के लिए चूल्हे पर खाना बनाना एक मुश्किल काम है। चूल्हे के धुएं से उसकी आंखों में पानी आ जाता है और खाना बनाना एक कठिन और नापसंदगी का काम बन जाता है। लेकिन उसे हर दिन कम से कम दो घंटे चूल्हे के सामने बैठना पड़ता है। राजकुमारी की तरह ही सर्वेक्षण में भाग लेने वाले 65 प्रतिशत लोगों ने बताया कि चूल्हा इस्तेमाल करते हुए उनकी आंखों में जलन होती है।
बीस साल की पूनम मरकम एक दिहाड़ी मज़दूर है। पहले गर्भावस्था के दौरान सात माह के अपने पहले बच्चे को खोने के बाद पूनम अब फिर से मां बनने वाली है। नागपुर की सिद्धेशवरी झुग्गी की निवासी पूनम अपनी गर्भावस्था के दिनों में भी चूल्हे पर ही खाना पकाती है और अपने और अपने अजन्मे बच्चे पर पड़ने वाले इसके दुष्प्रभाव से अनजान है। ग़रीबी और बायोमास ईंधन के दुष्प्रभाव को लेकर जागरूकता की कमी ने पूनम जैसी औरतों को गर्भावस्था के प्रतिकूल परिणामों का शिकार होना पड़ता है। रिसर्च बताता है कि लगातार धुएं के सामने रहने से औरतों पर बहुत ही प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। इस स्थिति में उनका बच्चा या तो गर्भ में ही मर सकता है, कम वजन वाला हो सकता है, अविकसित हो सकता है और इससे नवजात मृत्यु दर भी बढ़ जाता है।
महिलाओं की तरह, बच्चों को चूल्हे के करीब होने के कारण बायोमास जलने के हानिकारक प्रभावों का सामना करना पड़ता है जब उनकी मां खाना पका रही हो या पानी गर्म कर रही हो। उनके फेफड़े चूल्हों से निकलने वाले जहरीले धुएं के संपर्क में आते हैं, जिससे वे सांस लेने में तकलीफ, सांस फूलने और लगातार खांसी की चपेट में आ जाते हैं।
प्रधान मंत्री उज्ज्वला योजना (पीएमयूवाय) 2016 में लागू होने वाली केंद्र सरकार की एक फ़्लैगशीप योजना है। इस योजना का उद्देश्य एलपीजी के नेटवर्क का विस्तार कर भारत को धुआं-मुक्त करना है। इस योजना के लागू होने के बाद हमारे देश में एलपीजी उपलब्धता का दायरा बढ़ा है। लागू होने के बाद से जनवरी 2022 तक इस योजना के तहत करोड़ों कनेक्शन बांटे गए हैं। पीएमयूवाय के तहत एलपीजी का दायरा बढ़ा है लेकिन दुर्भाग्यवश भारत के 40 फ़ीसदी घरों की आर्थिक क्षमता ऐसी नहीं है कि वे इसी योजना के तहत मिलने वाले एलपीजी सिलिंडरों को दोबारा भरवा कर उसका इस्तेमाल कर सकें।
अपनी लगातार बढ़ती क़ीमतों के कारण एलपीजी ग़रीबों के लिए एक दुर्लभ वस्तु हो गई। जिसका सीधा मतलब यह है कि अपने अन्य घरेलू ज़रूरतों को पूरा करने के लिए वे इस पर पैसे खर्च करना बंद कर देते हैं।आर्थिक कठिनाइयां स्वच्छ ईंधन की ओर रुख़ करने के रास्ते में एक बहुत बड़ी बाधा है। वहीं सामाजिक मानदंड भी अन्य विकल्पों की खोज में बाधा बन जाते हैं। ज्योति मरकम (23) सिद्धेश्वरी झुग्गी में रहती है जहां उसके अपने घर के अलावा अन्य घरों में भी एलपीजी कनेक्शन है। हालांकि ज्योति और कई अन्य लोग अब भी बायोमास जलाते हैं क्योंकि उनके घर के लोग चूल्हे पर बना खाना पसंद करते हैं। उन लोगों का मानना है कि चूल्हे पर पकाया खाना ज़्यादा स्वादिष्ट होता है। घरों में फ़ैसले लेने वाले अमूमन मर्द ही होते हैं इसलिए हमने पाया कि औरतों का स्वास्थ्य और उनकी भलाई शायद ही कभी प्राथमिकता होती है।
औरतों के स्वास्थ्य और घरेलू वायु प्रदूषण के बीच के संबंध को पहचाने जाने की ज़रूरत है। इसके अलावा स्वच्छ ईंधन विकल्पों के शोध और विकास में एक व्यवस्थागत निवेश की ज़रूरत है। सरकार को एलपीजी और अन्य विकल्पों के लिए सब्सिडी प्रदान करने के लिए सामाजिक-आर्थिक स्थिति और स्वास्थ्य संकेतकों के लेंस से कमजोर परिवारों की पहचान करनी चाहिए जो महिलाओं के लिए काम करेंगे और परिवार के वित्तीय बोझ को कम करेंगे।
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मानसून की इस लगातार होने वाली बारिश को देखकर 21 साल के शुभम* ने समझ लिया कि आज की रात काफ़ी भारी गुजरने वाली है। वह अपनी बस्ती के घरों में जमा हुए बारिश के पानी को निकालने के लिए दूसरे लोगों का इंतज़ार कर रहा है। उसके पिता अपने ‘मर्दाना’ कर्तव्यों को पूरा करने में जुटे हुए हैं। वे इतना कमा लेते हैं कि अपने पांच लोगों के परिवार के खाने, कपड़े, घर और पढ़ाई के खर्च उठा सकें। शुभम के पिता एक सुरक्षा गार्ड हैं और उनकी रातें मुंबई की ऊंची इमारतों के बाहर खड़े होकर उनपर निगरानी रखते और जाने-पहचाने चेहरों से दुआ-सलाम करते हुए बीतती हैं।
शुभम का जीवन बेशक भारत के शहरों में जी रहे मध्यम वर्गीय लड़कों के जीवन से बहुत अलग है। लेकिन, यकीनन इन दोनों ही तबकों के बीच एक समानता है: शुभम और उसके सम्पन्न समकक्षों को आज देश में एक उस दबाव का सामना करना पड़ता है जो ‘पुरुष’ की परिभाषा के इर्द-गिर्द पनपता है। दरअसल आर्थिक पृष्ठभूमि से परे आज के दौर में भारत में पुरुषों और लड़कों पर लागू किए गए मर्दानगी के सख़्त लैंगिक पैमानों से कोई भी अछूता नहीं है।
इन दबावों को गहराई से समझने के लिए रोहिणी निलेकनी फ़िलांथ्रपीज ने इस साल की शुरूआत में एक शोध1 करवाया। हम दोनों ने इस शोध का जिम्मा संभाला जिसमें अपनी भूमिकाओं को निभाने के दौरान युवा पुरुषों और लड़कों के जीवन में आने वाली चुनौतियों और उनकी चिंताओं का पता लगाने की कोशिश की गई। हमने प्रतिभागियों के कुल आठ ऑनलाइन समूह बनाए। इस अध्ययन में मुंबई, बेंगलुरु और दिल्ली में रहने वाले एसईसी ए और एसईसी सी/डी (सामाजिक-आर्थिक स्पेक्ट्रम के दो अलग-अलग हिस्से) के प्रतिभागियों ने हिस्सा लिया। इन 42 लड़कों और 12 लड़कियों से हमने कई तरह के प्रश्न किए। हमने उनसे पूछा कि वर्तमान में भारत में एक पुरुष या लड़का होने का क्या मतलब है? हमें लगातार और ज़बरदस्त प्रतिक्रिया मिली जिसमें कहा गया कि इसका सीधा अर्थ ज़िम्मेदारी है। लड़कियों के मामले में इसी सवाल का जवाब प्रतिबंध था।
लड़के और लड़कियों दोनों ने स्पष्ट किया कि लड़कों के लिए वयस्कता कैसे दबे पांव आती है – बचपन की मासूमियत से शुरू होकर लड़कपन आते-आते ज़िम्मेदारी का अहसास होने लगता है, और आख़िर में ये ज़िम्मेदारियां स्वीकार कर ली जाती हैं जो एक मर्द होने की निशानी होती है। 15 वर्ष के महेश* का कहना है कि “पारिवारिक मामलों के लिए हमें ऐसा महसूस होता है कि पूरा परिवार (ज़िम्मेदारी) हमारे ही कंधों पर है। मैं दसवीं में पढ़ता हूं और अभी छोटा हूं। लेकिन मुझे यह एहसास होता रहता है कि मैं बड़ा हो रहा हूं। पर हम इसके बारे में किसी से बात नहीं कर सकते हैं…हमें पहले से ही इसकी समझ है कि आगे क्या करना है।”
ज़्यादातर लड़कों के लिए पढ़ाई पूरी करने के बाद सबसे स्पष्ट विकल्प अपने पिता की जगह लेना और उनकी जिम्मेदारियों को अपने ऊपर लेना होता है। उनसे उम्मीद की जाती है कि वे कमाकर परिवार का भरण-पोषण करें। इसका दूसरा अर्थ परिवार के लिए खाना, माता-पिता के स्वास्थ्य संबंधी ख़र्चों की पूर्ति और घर के अन्य सभी ख़र्चों के लिए पर्याप्त धन कमाना है। अपने प्रतिभागियों के साथ की जाने वाली बातचीत और बहसों के दौरान हमने बार-बार जो बात सुनी वह यह थी कि एक ‘अच्छे’ बेटे को अपने भाई-बहन के लिए आदर्श बनना चाहिए। निम्न आय वाली पृष्ठभूमि से आने वाले लड़कों से भी यह उम्मीद की जाती है कि वह अपने छोटे भाई-बहनों को लायक़ बनाए। इसका सीधा मतलब होता है अपने भाई की पढ़ाई पूरी करवाना और बहन की शादी की ज़िम्मेदारी उठाना।
लेकिन परिपक्वता एक दिन में नहीं आती है। कई लड़कों का कहना था कि कम उम्र में मिलने वाली उनकी आज़ादी पर धीरे-धीरे पारिवारिक भूमिकाओं ने लगाम लगानी शुरू कर दी। पुरुषों और लड़कों से की जाने वाली अपेक्षाओं में अनकहे नियमों और पहले से तय लैंगिक भूमिकाओं का काफ़ी योगदान होता है।
अपने परिवार की देखभाल करने के लिए एक पुरुष को पैसे चाहिए। पैसे कमाने के लिए उसे एक स्थाई और अच्छी तनख़्वाह वाली नौकरी की ज़रूरत होती है। और, ऐसी एक नौकरी पाने के लिए उसे उचित समय और डोमेन में अच्छी शिक्षा की आवश्यकता होती है। इसके कारण आमतौर पर उनके पास केवल ऐसे दो या तीन पेशों का विकल्प होता है जिन्हें वे अपना सकते हैं। संगीत, कला, बॉडीबिल्डिंग और यहां तक कि ह्यूमैनिटीज़ के लिए भी किसी तरह की ‘गुंजाइश’ नहीं रह जाती है। इन्हें एक असफल जीवन की लम्बी यात्रा के रूप में माना जाता है। इसलिए लड़कों को विरले ही इस तरह की चीजों में भाग लेने की अनुमति दी जाती है।
नवयुवकों में हताशा को और अधिक बढ़ाने का एक कारण यह भी है कि उन्हें भावनाओं का एक सीमित क्षेत्र दिया गया है। एक अदृश्य लेकिन स्पष्ट सीमा यह बताती है कि किस बात की अनुमति है और किसकी नहीं। ताक़त के प्रदर्शन की सराहना की जाती है। भय, उदासी और स्नेह अंत में क्रोध, अवमानना या रूढ़िवाद के रूप में व्यक्त किए जाते हैं। वहीं आंसू एक छुपे हुए रहस्य जैसे हैं। 19 साल के राघव* का कहना है कि “अगर एक लड़का रोना चाहता है तो उसे अपने बिस्तर पर तकिए से मुंह ढक कर और कम्बल के नीचे रोना पड़ता है ताकि उसे कोई देख न सके।”
20 साल के आदित्य* के अनुसार “सोसायटी में इज्जत कम हो जाएगी क्योंकि लड़के मज़बूत होते हैं उन्हें स्थितियों से निपटना आना चाहिए। अगर आप अपनी कमजोरी दिखाते हैं तो वे आपको सबसे कमजोर इंसान महसूस करवा देंगे।” अक्सर ये दबी हुई भावनाएं तेज, आक्रामक और हिंसक व्यवहार का रूप ले लेती हैं। समाज को लड़कों के आंसुओं से इतना डर क्यों लगता है? हो सकता है इसका संबंध उनकी प्रतिष्ठा से ज़्यादा हमारी ज़रूरतों से हो।
हमने जिन लड़कों से बात की, उनमें से कुछ ही अपने पिता को अपने जीवन के आदर्श के रूप में देखते हैं। हालांकि गहन पूछताछ पर कई लड़कों ने उन पर पड़ने वाले अपने पिता के प्रभावों के बारे में बताया। शुरू में दोनों के बीच के रिश्ते में एक दूरी रहती है और मां बच्चे की रक्षा और उसका पालन-पोषण करती है। अक्सर पिता की छवि एक रहस्यपूर्ण या अस्पष्ट व्यक्ति की होती है। वह रात में कुछ घंटे के लिए घर पर होता है और उस समय इतना अधिक थका होता है कि उसके पास अपने बेटे में दिलचस्पी लेने या उसके साथ समय बिताने की ताक़त नहीं होती है। एक निश्चित उम्र में एक दूसरे के बीच होने वाली दूरी और डर का यह रिश्ता एक दूसरे को समझने में बदल जाता है। ऐसा अक्सर तब होता है जब बेटा परिवार की ज़िम्मेदारियां उठाने लायक़ हो जाता है। इस तरह से मर्दानगी का यह विचार एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी तक पहुंचता है।
लड़कों पर दबाव बनाने वाली एक और अपेक्षा है ‘लड़की के लायक़ बनना’। बेहतर होते शिक्षा-स्तर और आर्थिक आत्मनिर्भरता के कारण लड़कियां अपने जीवन में आने वाले पुरुषों के लिए पैमानों को उंचा कर रही हैं। लड़कों ने ध्यान दिया है कि आज की लड़कियां और किशोरियां अपना ध्यान रख सकती हैं, फ़ैसले ले सकती हैं, अपनी आवाज़ उठा सकती हैं और पुरुष की कमियों को लेकर कम सहिष्णु हैं। इसलिए वे किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश में होती हैं जो जीवन में उनसे बेहतर कर रहा हो।
तो कौन सी चीज़ लड़कों को लड़कियों से शादी करने योग्य बनाती है? हमने 22–24 साल के लड़कों के समूह के साथ इंटरव्यू किया। उन लड़कों का कहना था कि लड़कियां और उनके माता-पिता एक ही आदमी में सब कुछ चाहते हैं। कोई ऐसा जो सफल हो, अच्छा कमाता हो, अच्छे इलाके में रहता हो। उसके पास एक कार, अच्छी और प्रतिष्ठित नौकरी, माता-पिता और कुछ सभ्य दोस्त होने चाहिए। यह सूची लम्बी है और हमारे अध्ययन में शामिल ज़्यादातर लड़के इस सूची से घबराए हुए थे।
एक लड़के के लिए तय किया गया अंतिम लक्ष्य ‘घर बसाना’ है। लेकिन इस तमग़े को हासिल करने के लिए दो पूर्व निर्धारित शर्तें हैं – भौतिक सफलता और इज्जतदार छवि। हमारे अध्ययन में भाग लेने वाले प्रतिभागियों के अनुसार ‘इज्जतदार छवि’ का अर्थ था पढ़ाकू होना, सिगरेट और शराब न पीना और सफलता के रास्ते से भटकाने वाले लोगों से बच कर रहना। उनका कहना था कि इस दोषहीन जीवन से उनका विवाह एक अच्छे परिवार की लड़की से हो जाएगा।
हालांकि ये दबाव नए नहीं है लेकिन आज की तारीख़ में लड़कों के पास पिछली पीढ़ियों की तुलना में नई चीज़ें ढूंढने और पढ़ने के लिए अधिक साधन मौजूद हैं। जिम्मेदारियों को कुछ समय तक परे रखा जा सकता है। 18 साल की उम्र से ही काम शुरू करने वाले पिता अपने बेटों को एमबीए करने के लिए बढ़ावा दे रहे हैं।
तब से अब तक रोज़गार के अवसरों में भी विस्तार हुआ है और इसके साथ ही प्रतिस्पर्धा में भी वृद्धि हुई है। यह स्थिति न केवल लड़कों के लिए बदली है बल्कि अब पहले से अधिक पढ़ाई-लिखाई करने वाली और परीक्षाओं में बेहतरीन प्रदर्शन करने वाली लड़कियों के लिए भी बदली है। एक तरफ़ जहां रास्ते अधिक जटिल होते जा रहे हैं वहीं लक्ष्य भी लगातार बदल रहे हैं। अब मेहनती और कर्तव्य निभाने वाला पुरुष होना भर काफ़ी नहीं है। अपने परिवार (और साथी) से सम्मान पाने के लिए एक पुरुष को ‘अपने काम में सबसे अच्छा’ होना ज़रूरी है। एक आदर्श सामाजिक स्थिति है – अत्यधिक प्रतिष्ठित और दूसरों द्वारा प्रशंसित। अक्सर मुकेश अम्बानी को आदर्श माना जाता है – एक ऐसा आदमी जो न केवल सफल है बल्कि उसकी समाज में प्रतिष्ठा भी है और वह एक सच्चा ‘फ़ैमिली मैन’ भी है।
ये सभी उम्मीदें हमारे रोज़मर्रा के जीवन में इस कदर शामिल हैं कि हम अक्सर लड़कों को सही रास्ते पर रखने वाले बारीक (और इतने बारीक नहीं भी) तरीक़ों को देखने में असफल रहते हैं। उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वह जो भी काम करें उसमें प्रतिस्पर्धा हो और वे हमेशा जीतें। यह एक आम धारणा है कि “अगर वह इसका हिस्सा है तो उसे सबसे आगे होना चाहिए।” इस प्रतिस्पर्धा को ‘शर्माज़ी का बेटा सिंड्रोम’ से और बढ़ा-चढ़ा दिया गया है जिसमें माता-पिता लगातार अपने बेटों की तुलना दूसरे लड़कों से करते हैं। यहां तक कि रिश्तेदार भी उनके प्रदर्शन पर अपनी टीका-टिप्पणी करने से बाज नहीं आते हैं। यह तुलना शादी की उम्र तक आते-आते और ज़्यादा गहरी हो जाती है। जब लड़की का परिवार उसकी शादी के लिए एक उपयुक्त लड़का खोजने निकलता है तब नौकरी, वेतन और ज्ञान जैसी बातें ज़रूरी पैमाना होते हैं।
लड़कों का मूल्यांकन उनके कामकाज के अलावा उनके व्यक्तित्व के लिए भी किया जाता है। “बालों को ऐसे क्यों रखा है? क्या जंगली की तरह रह रहे हो? ऊंची आवाज़ में नहीं बोलना, बड़ों की बात सुननी है – यह तब भी सुनना पड़ता है जब हम बड़े हो चुके हैं। माता-पिता को इस बात की चिंता होती है कि दोस्त कुछ सिखा न दें, ये सब आदतें नहीं पालनी चाहिए।”
उनके दोस्तों पर नज़र रखी जाती है ताकि वे ‘बुरी संगत’ में न पड़ जाएं। यह जांच-परख लड़कियों के साथ उनके रिश्तों तक पहुंच जाती है। माता-पिता और शिक्षक लड़कों को शक की नज़र से देखते हैं। बिना किसी टीका-टिप्पणी और पूर्वाग्रह के किसी लड़की के साथ एक साधारण दोस्ती रखना असम्भव है। ‘मैंने प्यार किया’ फ़िल्म आए तीस साल हो गए लेकिन आज भी हमारे युवाओं की मानसिकता इस तरह बनाई जाती है कि “एक लड़का और एक लड़की कभी दोस्त नहीं हो सकते।”
अनुशासन के इन निम्न-स्तरीय तरीक़ों में शारीरिक सजा चार-चांद लगाने का काम करती है। जिन लड़कों से हमने बात की, उन्हें उनके माता-पिता या शिक्षकों ने या तो थप्पड़ मारा था या पीटा था। सामाजिक संस्कार की जड़ें इतनी गहरी हैं कि कई लोगों का ऐसा मानना है कि उन्हें शारीरिक दंड का भागी होना चाहिए। वे अपनी ‘अक्षमताओं’ को उजागर कर इसे सही ठहराते हैं। “रीजन से मारते हैं, पढ़ाई नहीं की – तो मारना ठीक है। शिक्षक का तुम्हें मारना सही है। जब कोई तुम्हें पढ़ाएगा तो ग़ुस्सा आएगा। यहां तक कि अभिभावकों का अपने बच्चों को पीटना भी सही है – वे हमें सिखा रहे हैं।” समाज की पारंपरिक मांगों को पूरा करने में असफल होने वाले पुरुषों को अक्सर ही बेरोज़गार, निकम्मा, बर्बाद, कामचोर और नालायक जैसे तमग़े दिए जाते हैं। और ये सब नरम शब्द हैं जिन्हें लड़के हमारे साथ साझा करना चाहते थे; आमतौर पर तो उन्हें गालियां सुननी पड़ती हैं।
शायद ‘लड़कों का गिरोह’ ही वह जगह है जहां लड़के खुद होकर रह सकते हैं। यह आपस में मज़बूती से जुड़े हुए लड़कों का एक समूह है जहां वे एक-दूसरे के भाई/दोस्त/यार बन जाते हैं। वे बिना ज्यादा कुछ कहे गहरी समानुभूति और एक-दूसरे के जीवन की समझ पर आधारित एक अनोखी दोस्ती बनाते हैं। लड़कों के साथ हमारी बातचीत से हमने जाना कि लड़कों का किसी समूह में शामिल होने से उनकी पहचान तय होती है और इससे उनकी सोच बनती है और उन्हें सुरक्षा मिलती है। समूह का आपसी समीकरण उनके द्वारा एक दूसरे के जीवन में निभाई जाने वाली भूमिकाओं के बारे में बताता है। यह भूमिका एक लीडर या मेंटॉर आदि की हो सकती है।
समूह का हर एक लड़का अपनी मर्दानगी साबित करना चाहता है। इसलिए जहां उनका यह गिरोह बाहरी दुनिया से उनकी सुरक्षा करता है वहीं समूह के भीतर एक दूसरे को चिढ़ाना, मिलकर उपद्रव करना और आपस में गाली देना वगैरह आम बातें है। हमें बताया गया कि यह सब बॉडी शेमिंग का रूप ले लेता है। लड़कों को उनके आकार, उंचाई, रंग, दाढ़ी-मूंछ आदि जैसी शारीरिक अपेक्षाओं के आधार पर चिढ़ाया जाता है। अक्सर मोटा, सूखा, गिट्टा, बौना, कलुआ और चिकना (गोरे या समलैंगिक लड़कों के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द) जैसी गालियों का इस्तेमाल कर उन्हें चिढ़ाया जाता है।
सबसे ख़राब स्थिति में यह समूह वही ‘बुरी संगत’ बन जाता है जिससे बचने के लिए माता-पिता उन्हें आगाह करते हैं। लड़कों से अपेक्षा की जाती है कि वे इस समूह की बदमाशियों की पुष्टि करें। इन बदमाशियों और ग़लतियों में धूम्रपान करना, शराब पीना, नशीले पदार्थों (ड्रग आदि) का सेवन करना और कभी-कभी लड़कियों का पीछा करना और हिंसा भी शामिल होता है।
समाज की कभी ख़त्म न होने वाली पूछताछ एक प्रकार की निगरानी का काम करती है ताकि लड़के अपनी ज़िम्मेदारियों को गम्भीरता से लें। इसका इरादा इस तथाकथित योग्य लिंग को सफलता के लिए तैयार करना है। लेकिन नज़दीक से देखने पर हम पाते हैं कि ये अपेक्षाएं दरअसल वे बोझ हैं जिन्हें लड़कों को चाहे-अनचाहे उठाना पड़ता है। उससे मिलने वाली आज़ादी, छूट और विशेषाधिकार के साथ एक अनकही समझ जुड़ी होती है। एक लड़के की सफलता वह आरओआई है जिसमें परिवार अपना निवेश करता है। यह उनके बुढ़ापे का बीमा है। यह फोकस समूह चर्चाओं में लड़कियों और लड़कों दोनों द्वारा व्यक्त किया गया विचार था।
इसलिए, सफलता की उम्मीद ही काफी नहीं है। एक सफल फ़ैमिली मैन (पारिवारिक आदमी) ही आदर्श होता है। एक ऐसा पुरुष जो न केवल करियर में बेहतर कर रहा हो बल्कि अपने परिवार का भी ख़्याल रखने वाला हो। उपलब्धियों को हासिल करने वाला एक ऐसा पुरुष जो अब भी अपनी जड़ों से जुड़ा है।
जहां इस अध्ययन से हमें कई जवाब मिले वहीं कई ज़रूरी सवाल भी पैदा हुए। क्या लड़के जिस आज़ादी का आनंद लेते हैं वह सशर्त होती है? क्या लोगों की उम्मीदें लड़कों को उन पर खरा उतरने की चिंता से भर देती हैं? जब उन्हें कई तरह के फ़ायदे मिलते हैं तो वहीं क्या उन्हें मिलने वाले विशेषाधिकार के पीछे बेहतर करने का दबाव भी छुपा होता है?
क्या नवयुवकों और लड़कों से जुड़ी हमारी कुछ अवधारणाओं पर दोबारा सोचने का समय आ गया है?
*नाम बदल दिए गए हैं।
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फुटनोट:
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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मैनुअल स्कैवेंजिंग (हाथ से मैला ढ़ोने) का काम करने वाले दलित समुदाय के लोगों को एक प्रकार के जातिगत और व्यवस्थागत भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। इस भेदभाव के प्रति बेजवाड़ा विल्सन ने पुरज़ोर आवाज़ उठाई है। पीढ़ियों से इसी काम को करने वाले एक ऐसे ही दलित परिवार में जन्म लेने वाले विल्सन बचपन से ही अपने लोगों को इस अमानवीय प्रथा का शिकार होते देख रहे थे। इस अन्याय को देख अपने अंदर पैदा हुए आक्रोश और ग़ुस्से के कारण ही उन्होंने इस दिशा में काम करना शुरू किया।
बेज़वाड़ा ने एक ज़मीनी स्तर का आंदोलन शुरू किया जिससे हाथों से मैला ढोने की प्रथा का उन्मूलन हो सके। उस आंदोलन का नाम था सफाई कर्मचारी आंदोलन (एसकेए)। 1993 से आज तक, एसकेए ने देश भर में वालंटियरों की मदद से सामाजिक और कानूनी लड़ाई जारी रखी है जिसकी वजह से हज़ारों दलितों को इस अमानवीय प्रथा से आज़ादी मिली है। सन 2016 में बेज़वाड़ा विल्सन को दलितों के जन्मसिद्ध मानवीय गरिमा के अधिकार को वापस लेने के अथक प्रयासों के लिए रेमन मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
इसके निर्माण के लिए कोई ठोस प्रयास किये गए हों ऐसा नहीं है। संघर्ष ज़रूर रहा है – वास्तविक संघर्ष। ग़ुस्सा और पीड़ा भी थी जिससे आंदोलन को उभर कर आने की जगह मिली। हमने इतना ज़रूर किया कि ग़ुस्से को मज़बूती दी और उसे एक दिशा दी। और इसी ग़ुस्से ने आगे चलकर सफ़ाई कर्मचारी आंदोलन का रूप ले लिया।
एसकेए रजिस्टर्ड भी नहीं है क्योंकि यह औपचारिक संस्था नहीं है – यह एक आंदोलन की धारा है – और इस धारा में लोग जुड़ते जाते हैं। आज पूरे देश में लगभग 4,800 वालंटियर हैं।
आज भी हमें इस बात से ग़ुस्सा आता है – आज भी यह समस्या क्यों मौजूद है (हाथ से मैला ढोने की समस्या), इतने सालों के अथक प्रयास के बावजूद भी? आज से ३५ साल पहले इसी ग़ुस्से के कारण हमने अपना यह आंदोलन कर्नाटक में शुरू किया था। और आज भी महिलाओं को शौचालय साफ़ करता देख उतना ही ग़ुस्सा आता है। उम्र, तजुर्बे या समय के साथ कुछ भी नहीं बदला।
हम लोगों को संगठित करने के लिए अलग से कुछ नहीं कर रहे हैं; हम केवल अपने अंदर के इस ग़ुस्से को सही दिशा देते हुए आगे बढ़ रहे हैं। और इस अन्याय के प्रति हमारे जैसा ही ग़ुस्सा रखने वाले लोगों को जब हमारी यह दिशा सही लगती है तो वे हमारे साथ इस आंदोलन में जुड़ जाते हैं।
हमारी सबसे बड़ी समस्या भाषा को लेकर थी। दरअसल इस विषय और मुद्दे पर बात करने के लिए हमारे पास किसी तरह की भाषा नहीं थी। समय के साथ साथ हम आज़ादी, पुनर्वास और उन्मूलन (हाथ से मैला ढोने का) जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर बात करने लगे लेकिन ये सभी शब्द बाद में आए। जब हमने शुरू किया था तब हम केवल इतना जानते थे कि कोई भी इस काम को करने के लिए मजबूर नहीं है और न ही उसकी ऐसी कोई मजबूरी होनी चाहिए जिससे कि वह हाथों से मैला ढ़ोने का काम करे।
तब से अब तक का सफर काफी लम्बा रहा है। इस सफर के दौरान, कभी मंथन हुआ है, कभी कुछ फट पड़ा है तो कभी लड़ाइयाँ और बहसें भी हुई हैं। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में हमें एक बात समझ में आई कि हमें ग़ुलाम बना दिया गया है।
इस बात की समझ और इसका एहसास होने से पहले हम यह मान चुके थे कि हम केवल ग़ुलामी ही कर सकते हैं। ग़ुलामी की अपनी इस स्थिति का ज़िम्मेदार हम खुद को ही मानते थे। हम बेरोज़गार थे और हमारी न तो कोई आशा थी और न ही सपने। हम अनपढ़, कमजोर और गरीब लोग थे।
फिर 1991 में – बाबासाहेब अम्बेडकर के शताब्दी महोत्सव में – मैंने इन मुद्दों पर उनका लिखा हुआ कुछ पढ़ा। उन्होंने बहुत स्पष्ट शब्दों में कहा था कि हम मैला ढोने वाले इसलिए नहीं हैं क्योंकि हम गरीब, कमज़ोर या अनपढ़ हैं या हमने मैला ढोने का काम खुद से चुना है। ऐसा इसलिए है क्योंकि किसी ने हमें मैला ढोने वाला बनाया है। तब हमनें यह समझा कि किसी ने हमें बन्दी बना के रखा हुआ है, वर्णव्यवस्था ने हमें यहां लाकर खड़ा किया है। और इसमें पितृसत्ता जुड़ जाने से हमारे समुदाय की महिलाओं का हाल और भी बदतर कर दिया है। तब हमने यह सवाल पूछा: हम इस सब के खिलाफ कैसे लड़ें?
जल्द ही मैला ढोने वाले समुदाय के अलावा दूसरे समुदायों ने भी एकजुटता दिखाई क्योंकि ये लड़ाई किसी व्यक्ति विशेष के ख़िलाफ़ नहीं बल्कि पूरी व्यवस्था के ख़िलाफ़ है। एकजुटता और दूसरों के सहयोग से हमें बल मिला।
मुक्ति की शुरुआत तब हुई जब हाथ से मैला ढोने वालों ने खुद अपनी चुप्पी तोड़ी।
समुदाय ने मुद्दे को समझना भी शुरू किया। कोई किसी दूसरे का मल साफ़ नहीं करना चाहता परन्तु परिस्थितियों की वजह से वे ऐसा कर रहे थे। जब हम नें उनसे कहा “जब और लोग दूसरों का मल साफ़ किये बिना जी रहे हैं, तो तुम भी उसके बिना क्यों नहीं जी सकते?” तो वे सोचने पर मजबूर हुए। जो समुदाय अभी तक चुप था उसने खुल कर बोलना शुरू किया। मुक्ति की शुरुआत तब हुई जब हाथ से मैला ढोने वालों ने इस मुद्दे पर खुद अपनी चुप्पी तोड़ी और मुखर हो कर बोलना शुरू किया।
और जब लोगों का मुद्दे में विश्वास बढ़ा वह अपने आप ही आंदोलन से जुड़ गए। उन्हें एहसास हुआ कि वे अकेले नहीं थे और उन्होंने सवाल करना शुरू किया कि “हम सब क्या कर सकते हैं?”
क्या हम जा कर कुछ शौचालय तोड़ डालें? चलो! नहीं? अच्छा, हम मैले की टोकरी तो जला ही सकते हैं। प्राधिकारियों को एक ज्ञापन देते हैं। हो गया! जब हम ये सब कर रहे हैं तो क्या हम चुप्पी बनाये रखें? कम से कम नारे लगाते हैं। कुछ नारे बनाते हैं! और ऐसे बात आगे बढ़ती गयी – सब कुछ संगठित रूप से, स्वाभाविक रूप से आगे बढ़ता जाता है – फिर थोड़ा और आगे बढ़ता है। फिर थोड़ा और।
मैंने और मुझ जैसे ही एसकेए के अन्य वरिष्ठ लोगों ने आंदोलन को एक दिशा दी है। लोगों को अलग अलग दिशाओं में आगे बढ़ना अच्छा लगता है। हम उन्हें कहते हैं “कुछ समय तक इस दिशा में चल कर देखते हैं, अगर कामयाबी नहीं मिली तो आपकी सुझाई दिशा में चलेंगे। यदि पहली दिशा में चल कर कामयाब हुए तो आप जब भी तैयार हों, शामिल हो जाइएगा। इसके पीछे का यह दर्शन है कि ‘किसी को भी पीछे न छोड़ें’।
बदलाव तो आया है लेकिन इस बदलाव की गति बहुत धीमी है। शुरुआत में सरकार ने न तो ज़रा भी दिलचस्पी दिखाई और न ही इस दिशा में कोई प्रयास किया। समय के साथ इसमें बदलाव आया है। पर सरकार का हमेशा वही एक एजेंडा नहीं बना रह सकता। उनकी क्षमता और स्थायित्व सिर्फ पाँच साल का है। पाँच साल के बाद वे अपना पैटर्न बदल देते हैं। स्वयंसेवी संस्थाएं भी ऐसा ही करती हैं – हर 6-7 साल में अपना पैटर्न और ध्यान का केंद्र बदल देती हैं। कहने का मतलब यह है कि हमारी लड़ाई लगातार जारी रहनी चाहिए और अगर हम बदलाव चाहते हैं तो हमें बिना रुके काम करना होगा।
सरकार कहेगी कि समस्या ख़त्म हो चुकी है – वह लोगों को इसका अहसास भी दिला देती है और लोग सरकार की बातों पर विश्वास भी कर लेते है। लेकिन यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम लगतार लोगों को इस बात की याद दिलाते रहे कि समस्या ख़त्म नहीं हुई है।
हम जंतर मंतर पर इकट्ठे होंगे, मीडिया से बात करेंगे। और इस सब के दौरान औरतें – हाथ से मैला ढोने वाली औरतें – केंद्र में होंगी। उनके शब्दों में दूसरे लोगों की बातों से ज़्यादा ताक़त है। जब ये औरतें लोकतांत्रिक सरकार से सवाल करती हैं और न्याय मांगती हैं और जब वो कहती हैं कि सरकार की ज़िम्मेदारी है कि हाथ से मैला ढोने की प्रथा का उन्मूलन हो, लोगों को उनकी बात सुननी ही पड़ती है।
आंदोलन ने कानून बदलने के लिए सरकार पर दबाव डाला। पहलेपहल हम सरकार के प्रतिनिधियों से 2010 में मिले और मैन्युअल स्केवेंजिंग एक्ट के प्रारूपण में शामिल हुए। तीन साल बाद जब 2013 में यह एक्ट लागू हुआ तब हमें लगा कि हमारा काम हो गया। और हमने सरकार के साथ बातचीत बंद कर दी। पर जब अमल करने की बात आयी तो कुछ भी नहीं बदला क्योंकि नौकरशाही का रवैया और व्यवहार पहले जैसा ही था।
कानून के उल्लंघन के लिए किसी भी सरकारी अधिकारी पर क़ानूनी कार्रवाई नहीं की गई है।
सबसे बड़ी विडम्बना है कि किसी भी सरकारी अधिकारी के ऊपर कानून का उल्लंघन करने के लिए कानूनी कार्रवाही नहीं की गयी है – एक भी अधिकारी को सजा नहीं मिली। कुछ मामलों में एफ़आईआर दर्ज की गयी हैं पर वे अभियोग लगने के चरण तक नहीं पहुंची हैं; आरोप पत्र दायर किये गए हैं पर वे मुक़दमे के स्तर पर नहीं पहुंचे हैं।
2013 में इस एक्ट के लागू होने से पहले हमने 20 साल तक लड़ाई लड़ी। तब से अब तक नौ साल से ज़्यादा बीत गए हैं और आज हमें लगता है कि हम रुक गए हैं। एक भी व्यक्ति को सज़ा नहीं हुई है। बहुत से मामलों में ज़िला अधिकारी /कलेक्टर अपराधी है – वह व्यक्ति जिसके अपने ज़िले में हाथ से मैला ढ़ोने का काम होता है और वह उसे रोकता नहीं है।
अगर आप ऐसे तीन कलेक्टरों को एक हफ्ते के लिए भी जेल भेज दें तो तुरंत ही सब कुछ बदलता नज़र आएगा। आज वे अपनी जान बचा रहे हैं लेकिन उनके कारण इतने लोग उनकी सीवर की लाइन और सेप्टिक टैंक साफ़ करते हुए अपनी जान गंवा चुके हैं।
जब कोई मुक्त हो जाता है तो हम उस बदलाव का उत्सव नहीं मनाते हैं। यदि 10 लोग इस काम को छोड़ पाते हैं हम न तो किसी तरह का जश्न मनाते हैं और न ही उनकी वाहवाही करते हैं। क्योंकि इस पेशे से निकल के आना उनका अपना निर्णय है इसलिए वे जश्न मनाएं या न मनाएं यह निर्णय भी उन्हीं का होना चाहिए।
दूसरा, यह हमारी सफलता नहीं बल्कि उनकी सफलता है, उनके परिवार की सफलता है। इसलिए हमने कभी इस संख्या की गिनती नहीं की। लोग हमसे पूछते हैं: एसकेए ने कितने लोगों को इस काम से मुक्ति दिलवाई है? हम कहते हैं हमें नहीं मालूम। हम कभी गिनते नहीं हैं। हमें यह पता है कि कितने लोग अभी भी हाथ से मैला ढोने का काम कर रहे हैं। हम उस संख्या को गिनते हैं और ट्रैक करते हैं। क्योंकि हमारा लक्ष्य उस संख्या को शून्य तक पहुंचाना है। दूसरों की तरह हमारा उद्देश्य गिनती को बढ़ाना नहीं है। हम चाहते हैं कि गिनती घटती रहे।
पुनर्वास के लिए किसी भी तरह के अच्छे प्रयास नहीं हुए हैं। आप महिलाओं को दो भैसें और कुछ पैसा देकर ये नहीं मान सकते हैं कि वे खुश हो जाएंगी। 5,000 साल पुरानी प्रथा और रवैए को बदलने की कोशिश के लिए पुनर्वास और रोज़गार के मायनों की समग्र और स्पष्ट समझ होनी चाहिए।
आप को गांव-गांव जा कर हर एक महिला की क्षमता की पहचान करनी होगी। आप कौशल का परीक्षण नहीं कर सकते हैं क्योंकि उन्हें अपने कौशल विकसित करने के अवसर नहीं मिले हैं। आपको क्षमता ढूंढ़नी होगी। आपको देखना होगा कि उनमें कितनी हिम्मत है। ऐसा करने के लिए आपको उनके पास जाना होगा, उनकी ताकत को समझना होगा और ये देखना होगा कि वे क्या कर सकती हैं। और आप उनकी कैसे मदद कर सकते हैं न कि सिर्फ कुछ पैसा दे दें।
भारत में सरकार पुनर्वास को सिर्फ पैसे से जोड़ कर देखती है।
बात सिर्फ पैसे की नहीं है। जिस मदद की ज़रूरत है उसमें पैसा सबसे अंत में और सबसे कम ज़रूरत की चीज़ है। पर भारत में, सरकार पुनर्वास को सिर्फ पैसे से जोड़ कर देखती है। वे 10 लाख देती है वो भी ऋण के रूप में।
या एक महिला को दो भैंसें या बकरियां, एक ऑटोरिक्शा या ऐसा ही कुछ दे देंगे ताकि उसपर उसे बिठा कर उसकी फोटो ले सकें। आप ऐसी उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि वह इस गाड़ी को चला कर अपना खर्चा चला पायेगी जब कि इससे पहले उसने ऐसा कभी किया नहीं है? इससे बेहतर है कि आप उन्हें वाजिब अच्छी मासिक आय दें जिससे उनकी जीविका चल सके।
सरकार को हाशिये पर खड़े लोगों के प्रति समाज के रवैये और व्यवहार को बदलने की कोशिश भी करनी चाहिए। अपनी तरफ़ से हम यही कहना चाहते हैं कि इस देश के लोगों को यह समझने की ज़रूरत है कि हाथ से मैला ढोने वालों ने हम सबके लिए सब्सिडी प्रदान की है – उनके काम का आर्थिक लाभ हम सब ने उठाया है।
इस देश के लोगों को यह समझने की ज़रूरत है की हाथ से मैला ढोने वालों ने हम सब को सब्सिडी प्रदान की है।
इसलिए, हम उन्हें कोई सब्सिडी नहीं दे रहे हैं, हम उनकी भरपाई कर रहे हैं। सालों तक, हमने उनसे लिया है। इन महिलाओं ने प्रति घर मात्र 30 रूपया महीना पर हमारे शौचालय साफ़ किये हैं। ये एक दिन के काम के लिए सिर्फ एक रूपया हुआ!
इन महिलाओं ने आपको बुनियादी सेवाएं दी हैं। इसलिए अब समय आ गया है कि आप इसकी भरपाई करें। लेकिन सरकार का रवैया ऐसा नहीं है। सरकार इसे सब्सिडी के रूप में देखती है, जैसे यह एक मुफ़्त का उपहार हो।
मध्य वर्ग भी इस बात को नहीं समझता है। उसके लिए सब कुछ यहीं पर आ के रुकता है कि “मुझे कुछ मिलना चाहिए।” और इस तरह की सोच समाज के लिए बहुत ख़राब है। कोई ख़ुशी नहीं, कोई भाईचारा नहीं, कोई मानवता नहीं।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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डेवलपमेंट सेक्टर में यह मान्यता है कि लोग हमारी सबसे बड़ी सम्पदा हैं और प्रगति के दौरान टीम की सुरक्षा और उसका विकास एक बड़ी चुनौती है। लेकिन एक सवाल ऐसा है जिसका संतोषजनक जवाब ढूंढने की ज़रूरत हमें अब भी है: लगातार विकसित हो रहे एक संगठन की संस्कृति को हम कैसे बचाते हैं – और कैसे बचा सकते हैं?
किसी भी स्वयंसेवी संस्था की प्रकृति अक्सर ही इसके संस्थापक सदस्यों के मूल्यों और दूरदर्शिता से संचालित होती है। इन संस्थापक सदस्यों को अपने आपको एक उदाहरण के तौर पर पेश करते हुए नेतृत्व करना होता है और अपनी बनाई संस्कृति को संगठन में ऊपर से नीचे तक पहुंचाना होता है। यह संस्कृति भौगोलिक और व्यक्तिगत सीमाओं के पार जा सके इसके लिए एक ऐसे बहुआयामी दृष्टिकोण की ज़रूरत होती है जो एक साधारण ‘रणनीति’ से परे हो।
क्वेस्ट एलायंस में हम लगातार अपने कर्मचारियों को प्रोत्साहित करने के नए तरीके विकसित करते रहते हैं। यहां हम अपनी इस यात्रा से मिले कुछ अनुभव साझा कर रहे हैं।
किसी दी गई भूमिका के लिए उपयुक्त और कुशल लोगों को तो कभी भी ढूंढा ही जा सकता है। लेकिन किसी ऐसे व्यक्ति को ढूंढना कठिन है जो वैचारिक स्तर पर संगठन को समझता हो। कम्पनी के बढ़ने के साथ, संस्थापक सदस्यों का हर इंटरव्यू में शामिल होना सम्भव नहीं रह जाता है। लेकिन एक चीज़ जो सम्भव है वह यह है कि नियुक्ति की पूरी प्रक्रिया में एक चरण पूरी तरह से संस्कृति और मूल्यों को सुनिश्चित करने वाला होना चाहिए। यही वह बिंदु है जब आप यह पता लगा सकते हैं कि एक उम्मीदवार उन्हीं चीजों से प्रेरित और उत्साहित हो रहा है या नहीं, जिनसे आपका संगठन संचालित होता है।
निर्माण का बुनियादी मतलब एक टीम के रूप में साथ मिलकर कुछ बनाना होता है। चाहे यह वर्कशॉप के जरिए यह पता लगाने के लिए हो कि मिशन स्टेटमेंट कैसे विकसित होना चाहिए या रणनीति पर होने वाली मल्टी-स्टेकहोल्डर चर्चाएं हों। इन सबका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि परिणाम मिलकर हासिल किए जाएं और सभी उसके महत्व को समझते हों। जब सह-निर्माण एक आदर्श बन जाता है तब संस्कृति, दृष्टिकोण और संगठन की भावनाओं को ऊपर के स्तर से नीचे पहुंचाने की ज़रूरत नहीं रह जाती है बल्कि यह पूरे संगठन का एक अभिन्न हिस्सा बन जाता है।
सफल प्रतिभा प्रबंधन के केंद्र में संस्कृति की साझी समझ होती है। संस्कृति का यह मतलब हरगिज़ नहीं है कि हर कर्मचारी एक ही तरह से सोचे या काम करे। बल्कि इसका अर्थ है कि संगठन के कुछ महत्वपूर्ण दृष्टिकोण या मूल्य हैं जो सभी कर्मचारियों में मौजूद हैं। यह खुद से सीखने के लिए प्रतिबद्धता, नवाचार की साझी समझ या समावेशन पर जोर कुछ भी हो सकता है।
इस संस्कृति को विकसित करने का कोई एक तय तरीक़ा नहीं है। दरअसल हमने पाया कि इसे व्यक्त और विकसित करने के लिए कई साधनों का होना महत्वपूर्ण है। औपचारिक और अनौपचारिक दोनों ही प्रकार के आयोजनों के माध्यम से हम लोगों के लिए एक ऐसी जगह बना सकते हैं जहां वे एक दूसरे से मिल सकें और अपना नज़रिया बांट सकें। हम अपने संगठन में हर माह के पहले शुक्रवार को ‘फ़र्स्ट फ़्राइडेज’ मनाते हैं। इस दिन हम सब मिलकर पिज़्ज़ा खाते हुए एक दूसरे के साथ समय बिताते हैं और अपने टीम के सदस्यों से बातचीत करते हैं। हमारे वार्षिक स्टाफ रिट्रीट और नियमित टीम मीटिंग जैसे औपचारिक कार्यक्रमों से हमें इस बात पर चर्चा करने और जुड़ने के मौक़े मिलते रहते हैं कि हम जो करते हैं वह क्यों करते हैं।
यह कहना एक बात है कि आप अपने कर्मचारियों से उनकी प्रतिक्रियाएं लेने के लिए तैयार हैं। लेकिन ये प्रतिक्रियाएं सामने आ सकें, इसके लिए सुरक्षित जगहें और मौक़े बनाना एक मुश्किल काम है। हम लोगों ने कुछ समीक्षाओं (उदाहरण के लिए उनकी नियुक्ति के बाद 45-दिवसीय समीक्षा) के नेतृत्व की ज़िम्मेदारी सुपरवाईजरों के बदले कर्मचारियों को दीं। यह कदम हमारे लिए प्रभावी साबित हुआ। ऐसे मौक़े बनाते रहना हमारा सतत लक्ष्य है।
नए कर्मचारियों के लिए सीखना एक लम्बी प्रक्रिया हो सकती है। शुरुआती चरण में ही अपेक्षाओं को स्पष्ट कर देने से यह तय करना आसान हो जाता है कि सब लोग एक ही दिशा में और एक ही स्तर पर काम कर रहे हैं। एक तयशुदा शुरूआत नए कर्मचारियों को अन्य टीमों के साथ जल्दी जुड़ने और उस माहौल को समझने में मददगार साबित हो सकती है जिसमें वे काम कर रहे हैं। हम 90-दिवसीय ‘लक्ष्य निर्धारण’ कार्यक्रम का पालन करते हैं जिसमें नए कर्मचारी अपने सुपरवाईजर के सहयोग से, अपने काम से जुड़े और अन्य सामान्य लक्ष्य, दोनों तैयार करते हैं। वे 45 दिनों के बाद एक कर्मचारी के नेतृत्व वाली बैठक में और 90 दिनों के बाद सुपरवाईजर के नेतृत्व वाली बैठक में इन पर चर्चा करने के लिए इकट्ठा होते हैं।
कर्मचारियों के लिए, पेशेवर संतुष्टि का एक प्रमुख कारक करियर ग्रोथ और आर्थिक तरक्की रहते हैं। कर्मचारियों को उनके अपने करियर में आगे बढ़ने के लिए सक्षम बनाना, निश्चित रूप से उन्हें संगठन में बनाए रखने वाला एक महत्वपूर्ण कारक है। लेकिन साथ ही यह कर्मचारियों को अपने अंदर से आने वाले प्राकृतिक नेतृत्व विकास के लिए भी तैयार करता है।
पिछले एक साल से, हमारे कर्मचारियों के विकास को ‘रीच फॉर द स्टार्स’ कार्यक्रम के जरिए आगे बढ़ाया गया है जिसमें खुद का आकलन, सहकर्मियों की प्रतिक्रिया, लक्ष्य निर्धारण और समीक्षा शामिल है। ये लक्ष्य, उनकी भूमिका से संबंधित या फिर व्यक्तिगत, दोनों ही हो सकते हैं। इस पूरी प्रक्रिया को इस तरह से बनाया गया है कि कर्मचारी अपनी महत्वाकांक्षाओं को समझ सकें और उनके साकार होने की कल्पना कर सकें। इसी के अंतर्गत उन्हें व्यावसायिक विकास निधि, अध्ययन के लिए समय या यहां तक कि आराम के लिए मिलने वाली लंबी छुट्टी जैसे लाभ मिलते हैं।
हम सभी को यह जानने की जरूरत है कि हमारे काम को पहचान और महत्व दोनों मिला हुआ है। ऐसा करने के कई तरीक़े हैं और हमेशा ज़रूरी नहीं है (और नहीं होना चाहिए) कि यह लीडरशीप वाली टीम से आए। साझा करने वाले आंतरिक मंच, कर्मचारियों (हम अपने संगठन में सोशल कास्ट का इस्तेमाल करते हैं) को एक-दूसरे के योगदानों के लिए आभार जताने और शुक्रिया कहने का अवसर दे सकते हैं। अधिक औपचारिक मान्यता जहां वार्षिक मूल्यांकन और काम के वर्षगांठ पर की जाती है, वहीं दैनिक स्वीकृति का महत्व भी उतना ही है।
टीम के सदस्य अपनी पृष्ठभूमि, जज्बे, रिश्तों और इतिहास के साथ आते हैं। इसका मतलब है कि अलग-अलग कर्मचारी अलग-अलग तरीकों से अपनी पूरी क्षमता से काम करेंगे। संगठनों को इसे समझना चाहिए और इस विविधता को समायोजित करने के तरीक़े विकसित करने चाहिए। इसके लिए वे सुविधाजनक काम के घंटे, आराम के मौके, बच्चे के जन्म के बाद मिलने वाली छुट्टियों या मज़बूत समावेशन रणनीति को अपना सकते हैं।
दफ़्तर से बाहर, कर्मचारियों का एक मज़बूत सपोर्ट नेटवर्क होता है। हम वार्षिक रूप से क्वेस्ट डे के दिन कर्मचारियों, सहायक कर्मचारियों और ठेकेदारों के साथ अपनी सामूहिक उपलब्धियों का जश्न मनाते हैं।
कागज पर लिखी गई बातों और व्यवहार में लाई गई बातों के बीच के अंतर से ज़्यादा हतोत्साहित करने वाली चीज़ कोई और नहीं होती है। अगर आप किसी भी समय, किसी भी जगह, किसी से भी सीखने वाला एक विकास संगठन हैं तो क्या आप अपने कर्मचारियों को सीखने के लिए विभिन्न मौके प्रदान कर रहे हैं? यदि आपके संगठन में नवाचार सबसे ऊपर है तो क्या आपके कर्मचारियों को नवाचार करने, असफल होने और फिर से कोशिश करने के अवसर दिए जाते हैं?
एक अच्छे प्रतिभा प्रबंधन के लिए आप बीच का रास्ता चुनते हैं। उसी तरह प्रतिभा प्रबंधन के विभिन्न पहलुओं पर की जाने वाली गलती को पहचानने की आपकी योग्यता भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। साथ ही, आपको इसे लगातार बेहतर बनाने के लिए काम करने के लिए तैयार रहना होगा। अभी हमारे लिए, हमारे टीम से मिलने वाली प्रतिक्रियाओं पर काम करने का मतलब है कि हम अपनी देखभाल (सेल्फ़-केयर) को अपने मूल्यों का एक अभिन्न हिस्सा बना रहे हैं। हम हमारी लैंगिक और समावेशन रणनीति को अधिक मजबूती से विकसित और स्पष्ट कर रहे हैं। साथ ही, हम यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि हमारे ‘सेकंड लाइन लीडरशीप’ को सही प्रशिक्षण मिल रहा है ताकि आने वाले सालों में वे हमारे विकास को सतत रूप से आगे ले जा सकें।
सीखने के लिए हमेशा तैयार रहना हमारे आंतरिक प्रतिभा प्रबंधन में उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि क्षेत्र में हमारे द्वारा किए जाने वाले काम के लिए है।
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*मेगन डॉबसन के विचारों के साथ।
10 सितंबर को मनाए जाने वाले ‘विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस’ से ठीक पहले राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ने भारत में आत्महत्या की घटनाओं से जुड़े गम्भीर आंकड़े पेश किए। आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में आत्महत्या से होने वाली मौतों की संख्या 2020 की तुलना में, साल 2021 में 7.2 प्रतिशत अधिक है। इस तरह यह आंकड़ा अब तक के सबसे उच्चतम स्तर पर पहुंच चुका है। 2021 में प्रकाशित एक अन्य शोध से यह तथ्य सामने आया है कि दुनियाभर में आत्महत्या से होने वाली मृत्यु को दर्ज करने वाले देशों में भारत सबसे पहले स्थान पर है। कई बार आत्महत्या के कई मामले दर्ज नहीं होते हैं या नहीं हो पाते हैं इसलिए ऐसी सम्भावना भी जताई जा सकती है कि वास्तविक संख्या, जारी आंकड़ों से और भी अधिक होगी।
अच्छी बात यह है कि आत्महत्या को रोका जा सकता है। अपनी रिपोर्ट प्रिवेंटिंग सूयसाइड: ए ग्लोबल इम्परेटिव में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) ने सामाजिक स्तर पर किए जाने वाले कई मध्यस्थता कार्यक्रमों के बारे में बताया है। इनकी मदद से आत्महत्या के ख़तरे को टाला जा सकता है। इनमें से एक प्रमुख रणनीति जिम्मेदार मीडिया रिपोर्टिंग है। पपाजेनो इफेक्ट के नाम से प्रसिद्ध यह शोध बताता है कि जब मीडिया आत्महत्या से जुड़े मामलों की अपनी रिपोर्टिंग में इससे जुड़े आलोचनात्मक रवैये को कम कर, लोगों को मदद मांगने के लिए उत्साहित करते हैं, तब आत्महत्या रोकथाम के प्रयासों पर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। ज़िम्मेदार रिपोर्टिंग में सनसनी पैदा करने वाली हेडलाइन का इस्तेमाल नहीं किया जाता है और न ही आत्महत्या के तरीके के बारे में बताया जाता है। एक ज़िम्मेदार रिपोर्टिंग में मदद के सम्भावित तरीक़ों की जानकारी दी जाती है, आत्महत्या के कारण का अति-सरलीकरण करने से बचा जाता है। साथ ही लोगों को आत्महत्या और इसकी रोकथाम से जुड़ी जानकारी दी जाती है।
इसके विपरीत, वेर्थर प्रभाव के रूप में जानी जाने वाली घटना में, सनसनीखेज समाचार रिपोर्ट और गैर-जिम्मेदार रिपोर्टिंग – विशेष रूप से सेलिब्रिटी आत्महत्या के मामलों में – देखी जाती है। यह बाद में देखादेखी की जाने वाली आत्महत्याओं के लिए एक प्रोत्साहन बन सकती है। एक अध्ययन का अनुमान है कि किसी सेलिब्रिटी की आत्महत्या की मीडिया कवरेज के बाद आमलोगों में आत्महत्या का ख़तरा 13 फ़ीसदी तक बढ़ जाता है। अध्ययन यह भी साफ़ करता है कि जब खबरों में किसी सेलिब्रिटी के आत्महत्या के तरीक़े का उल्लेख किया जाता है तो उसी तरीक़े से होने वाली आत्महत्याओं में 30 फ़ीसदी की वृद्धि देखी जाती है।
इस बात के पर्याप्त सबूत होने के बावजूद कि मीडिया रिपोर्टों में आत्महत्या की रोकथाम के प्रयासों को मजबूत या कमजोर करने की क्षमता होती है, भारत में आत्महत्या से जुड़े मामलों की रिपोर्टिंग की गुणवत्ता बहुत खराब है। दो दशक से भी पहले, डबल्यूएचओ द्वारा जारी सुझावों में मीडिया पेशेवरों के लिए आत्महत्या पर रिपोर्ट करने के तरीक़ों के बारे में बताया गया था। 2019 में प्रेस काउन्सिल ऑफ़ इंडिया ने भी डबल्यूएचओ द्वारा पारित दिशानिर्देशों के आधार पर अपनी एक सूची जारी की थी। इसने मीडिया जगत को इस बात के लिए भी प्रोत्साहित किया कि वे आत्महत्या की खबरों को सनसनीखेज़ बनाकर पेश न करें या इस तरह से रिपोर्टिंग न करें जिससे कि आत्महत्या को किसी समस्या के समाधान के रूप में देखा या समझा जाए। इसके बाद मुख्य धारा के प्रिंट मीडिया में कुछ सकारात्मक बदलाव देखने को मिले लेकिन समस्या की गम्भीरता को देखते हुए हमें और अधिक बदलावों की जरूरत है। साइरन के एक आंकड़े के अनुसार भारत के प्रमुख अंग्रेज़ी अख़बारों ने आत्महत्या से जुड़े अपने 80 प्रतिशत से अधिक लेखों में ध्यान खींचने वाले हेडलाइन का इस्तेमाल किया था। वहीं, लगभग 85 प्रतिशत लेखों में आत्महत्या के तरीक़ों का उल्लेख भी पाया गया। इसके विपरीत केवल 17 प्रतिशत लेखों में मदद मांगने के लिए हेल्पलाइन नंबर जैसी जानकारियां दी गईं थीं और 0.72 लेखों में इससे जुड़े आपराधिक भाव को कम करते हुए इस बात पर जोर दिया गया था कि आत्महत्याओं को रोका जा सकता है।
मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी कहानियां बताने वाले सैनिटी नामक एक स्वतंत्र प्लैटफ़ॉर्म के संस्थापक सम्पादक और आत्महत्या रोकथाम वकील तन्मॉय गोस्वामी बताते हैं कि “हमने इस बारे में बहुत सोचा और इस पहेली को सुलझाना आसान काम नहीं है।” वे आगे कहते हैं “पहला विचार यही आता है कि ‘क्या कोई एक तरीक़ा है जिससे हम इन दिशानिर्देशों का पालन न करने वाले मंचों पर प्रतिबंध लगा सकें?’ लेकिन स्थायित्व पाने के क्रम में दंड देना कारगर उपाय नहीं होता है; इसके बदले हमें मीडिया को संवेदनशील होकर रिपोर्ट करने के लिए प्रोत्साहित करने की ज़रूरत है।”
आत्महत्या से जुड़े शोध एवं इसकी रोकथाम के लिए डबल्यूएचओ के अंतर्राष्ट्रीय नेटवर्क की सदस्य और चेन्नई-स्थित संगठन स्नेहा की संस्थापक डॉक्टर लक्ष्मी विजयाकुमार भी इस बात से अपनी सहमति जताते हुए कहती हैं “आत्महत्या रोकथाम पर काम करने वालों के रूप में हमें यह बात समझनी होगी कि आत्महत्या को खबर बनने और प्रकाशित होने से नहीं रोका जा सकता है। इन पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता है। इसलिए मीडिया द्वारा की जाने वाली ग़लतियों की आलोचना करने के बजाय हम मीडिया को सही तरह से यह काम करने और वास्तव में लोगों की जान बचाने के लिए प्रोत्साहित करने की उम्मीद कर रहे हैं।”
दोनों ही जानकार इस बात से सहमत हैं कि इसे करने का कोई चमत्कारिक तरीक़ा मौजूद नहीं है और आत्महत्या की रिपोर्ट करने के लिए मीडिया द्वारा इस्तेमाल किए गए तरीके को बदलने के लिए हमें कई तरह के समाधानों और साथ आकर काम करने वालों की जरूरत है।
आत्महत्या की रिपोर्टिंग के तरीक़ों के बारे में बताने के लिए पहले से ही कई तरह के संसाधन और टूलकिट उपलब्ध हैं। नतीजतन, तन्मॉय के अनुसार मामला अब जानकारी की कमी से संबंधित नहीं है बल्कि इसका संबंध इस बात से है कि क्या मीडिया संगठनों के लोग दिशानिर्देशों को लागू करने के लिए पर्याप्त सावधानी बरतते हैं। “यह एक साधारण सूची है जिसका पालन किए जाने की आवश्यकता होती है। अगर डेस्क पर काम करने वाला आदमी आत्महत्या पर लिखे लेख का सम्पादन कर रहा है तब उसके सामने यह चेकलिस्ट होनी चाहिए। कई सालों तक डेस्क पर काम करने के कारण मुझे इस बात की जानकारी है कि सम्पादक सभी तरह की चेकलिस्ट का ध्यान रखते हैं। जब मानवीय संकटों या अन्य त्रासदियों के रिपोर्टिंग की बात आती है तो न्यूज़ रूम के लोग दिशानिर्देशों का पालन करना जानते हैं। लेकिन जब मामला आत्महत्या का होता है तब सबको यही लगता है कि ऐसा करना सही है क्योंकि इसको प्रकाशित करने से भारी संख्या में दर्शक और पाठक आकर्षित होते हैं।”
हालांकि यह देखने में सामान्य लगता है लेकिन इस समस्या की जड़ें गहरी हैं। आत्महत्या पर रिपोर्ट करने वाले मीडिया पेशेवरों के अनुभवों और दृष्टिकोणों की जांच करने वाले एक अध्ययन में पाया गया कि कई लोगों को इस बात पर ही संदेह था कि मीडिया आत्महत्या से बचाव में कोई भूमिका निभा सकता है। अधिकांश लोगों को मौजूदा राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दिशानिर्देशों के बारे में पता नहीं था। वहीं कुछ लोग इस बात को लेकर आशंकित थे कि सिर्फ एक खबर के छपने से आत्महत्याओं पर कोई असर पड़ सकता है।
डॉक्टर लक्ष्मी कहती हैं कि “स्नेहा द्वारा पत्रकारों के साथ किए जाने वाले प्रशिक्षण सत्रों में लोगों ने मुझसे आकर कहा कि एक कहानी से कोई अंतर नहीं आने वाला है। हां, यह सही है कि एक लेख या स्टोरी सीधे अधिक आत्महत्याओं का कारण नहीं बन सकती है लेकिन कुछ लोगों को प्रेरित कर सकती है और हमें इस पर ही ध्यान देने की ज़रूरत है।” चीजों को बदलने के लिए यह ज़रूरी है कि पत्रकारों से लेकर संपादकों और वरिष्ठ प्रबंधन तक सभी स्तरों के मीडिया पेशेवरों को सबसे पहले खुद यह मानना होगा कि आत्महत्याएं अपरिहार्य नहीं हैं और इन्हें रोका जा सकता है। तभी वे इन मिथकों को अपनी रिपोर्टिंग में चुनौती दे सकते हैं।
मीडिया संगठनों में लाए जाने वाले आवश्यक बदलावों में एक सबसे ज़रूरी बदलाव यह है कि आत्महत्या से जुड़े मामलों की रिपोर्टिंग क्राइम पत्रकारों की बजाय स्वास्थ्य पत्रकारों द्वारा की जानी चाहिए। 2017 में, मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम ने भारत में आत्महत्या को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था।
इसके बावजूद राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो से लगातार आत्महत्या से जुड़े मामलों के आंकड़े आते रहते हैं और ज़्यादातर समाचार प्रकाशन अभी भी आत्महत्या के खबरों को अपराध की श्रेणी वाली खबरों में रखते हैं। मारीवाला हेल्थ इनीशिएटिव एक मानसिक स्वास्थ्य-केंद्रित, फंडिंग और इसकी वकालत करने वाला संगठन है। इसकी सीईओ प्रीति श्रीधर कहती हैं “यदि आप आत्महत्या को सार्वजनिक स्वास्थ्य मुद्दे के रूप में न देखकर उसे एक अपराध मानते हुए उसके बारे में बात करते हैं तब आपकी बातचीत का लहजा अलग होता है। स्वास्थ्य पत्रकारों को इसके बारे में रोकथाम के दृष्टिकोण से सोचने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है; वे सेवाओं और समुदाय-आधारित हस्तक्षेपों तक पहुंच के बारे में सोचते हैं।”
हालांकि क्राइम रिपोर्टर्स को संवेदनशील रूप से आत्महत्या की रिपोर्ट करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है लेकिन वे उतने लम्बे समय तक वहां मौजूद नहीं होते हैं कि चीजों को बदल सकें।
मामलों को जटिल बनाने के लिए, डॉ लक्ष्मी ने देखा कि स्वास्थ्य संवाददाता अक्सर अपनी भूमिका में अपराध संवाददाताओं की तुलना में अधिक समय तक रहते हैं। इसलिए अपराध संवाददाता संवेदनशील रूप से आत्महत्या की रिपोर्टिंग करने के लिए प्रशिक्षित होने के बावजूद चीजों को बदलने के लिए वहां पर्याप्त समय तक मौजूद नहीं रह पाते हैं और अपराध संवाददाताओं के नए समूह को प्रशिक्षित करने की आवश्यकता बन जाती है। एक अन्य मुख्य समस्या यह है कि अधिकांश अख़बारों में पूरी खबर और सुर्ख़ियां लिखने वाले लोग अलग-अलग होते हैं। इसलिए ऐसा सम्भव है कि खबर बहुत अच्छी तरह से तैयार की गई हो लेकिन सुर्ख़ियों के साथ तालमेल न बैठ रहा हो क्योंकि सुर्ख़ियों का उद्देश्य लोगों को अपनी ओर खींचना होता है। वे आगे कहती हैं कि एक पत्रकार ने मुझसे कहा था कि “आत्महत्या शब्द क्लिकबेट होता है।”
समाचार व्यवसाय का अर्थशास्त्र क्लिक और दर्शकों की संख्या द्वारा संचालित होने वाली चीज़ होती है और यह अक्सर ही आत्महत्या पर की जाने वाली सूक्ष्म रिपोर्टिंग के रास्ते में आती है। तन्मॉय कहते हैं कि “न्यूज़ रूम में सनसनीखेज़ रिपोर्टिंग से आगे बढ़कर काम करने के लिए आवश्यक प्रोत्साहन का स्तर बहुत ही कम होता है।”
प्रीति कहती हैं कि “अभी जो मैं देखती हूं वह रिपोर्टिंग के समय आत्महत्या का अति-सरलीकरण है। खबरों में सबसे पहले आत्महत्या को मानसिक स्वास्थ्य के मामलों जैसे कि अवसाद या तनाव से जोड़ने का काम किया जाता है। लेकिन आत्महत्या को समझने का यह दृष्टिकोण पश्चिमी देशों से आया है जो भारत के लिए सही नहीं है। यहां आत्महत्या के 50 फ़ीसदी से अधिक मामलों के कारण बीमारी, संबंधों से जुड़े मुद्दे या वित्तीय नुक़सान वगैरह से जुड़े होते हैं। आत्महत्या व्यक्तिगत समस्या नहीं है; यह सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, नैतिक और ऐतिहासिक संदर्भों से जुड़ा मामला होता है और मीडिया को आत्महत्या को इस नज़रिए से समझना शुरू करने की ज़रूरत है।”
यह हमें राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के नवीनतम आंकड़ों में भी देखने को मिलता है जो इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि कैसे 2021 में आत्महत्या से होने वाली 50 प्रतिशत से अधिक मौतों के लिए पारिवारिक समस्याओं और बीमारी को जिम्मेदार ठहराया गया था।
और इसलिए, आत्महत्या की खबर पर ज़िम्मेदारी से रिपोर्टिंग करने के लिए यह आवश्यक है कि इसे मानसिक बीमारी से जोड़ने के बजाय इसके परे जाकर देखा जाए। साथ ही उन व्यवस्थात्मक कारकों पर भी ध्यान दिया जाना ज़रूरी है जो किसी व्यक्ति के लिए आत्महत्या का कारण बन सकते हैं। विशेष रूप से पिछड़े समुदायों के लिए यह अधिक गम्भीरता से किए जाने की ज़रूरत है। इसके लिए लोगों द्वारा अनुभव किए जाने वाले अलग-अलग तरह के तनावों को समझने की आवश्यकता होगी, न कि केवल आत्महत्या के बारे में बात करने की। उदाहरण के लिए, एक समलैंगिक ट्रांस व्यक्ति की आत्महत्या पर रिपोर्ट करते समय लेख में इस बात की स्वीकृति होनी चाहिए कि इस समुदाय में आत्महत्या की दर बहुत अधिक है। संवाददाताओं को जाकर इस समुदाय के लोगों से बात करनी चाहिए ताकि उन्हें उनके जीवन के वास्तविक अनुभवों की सही तस्वीर मिल सके जिसमें शर्मिंदगी का भाव न हो। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसे बड़े नीतिगत बदलावों से जोड़ा जाना चाहिए, जैसे कि शिक्षा और रोजगार में ट्रांस लोगों को शामिल करना।
आत्महत्या से जुड़ी धारणा बदलकर इसे व्यक्तिगत समस्या के रूप में पहचाना जाना चाहिए, इसे संभव बनाने में मानसिक स्वास्थ्य चिकित्सकों की एक बड़ी भूमिका होती है।
तन्मॉय के अनुसार जब एक व्यक्तिगत समस्या के रूप में आत्महत्या की धारणा को बदलने की बात आती है तो उसमें मानसिक स्वास्थ्य चिकित्सकों, विशेष रूप से मनोचिकित्सकों की बड़ी भूमिका होती है। “मेडिकल प्रोफेशनल्स को अभी भी हमारे समाज में बहुत अधिक सम्मान दिया जाता है। अगर वे इस तथ्य के बारे में बात करना शुरू करते हैं कि आत्महत्याएं सिर्फ मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी नहीं हैं और वे मनो-सामाजिक कारकों के कारण होती हैं, तो शायद समाज इसे अलग तरह से देखना शुरू कर देगा। तब शायद आत्महत्याओं को सनसनीखेज नहीं बनाया जाएगा, और लोगों में इसे लेकर एक बेहतर समझ विकसित होगी। इस समस्या को ठीक करने का काम आप मीडिया से शुरू नहीं कर सकते; आपको इसे ऊपर से शुरू करना होगा। जब तक लोगों में इस बात की स्पष्ट समझ नहीं होगी कि आत्महत्या क्या है, आप उनसे इस पर अलग तरह से रिपोर्टिंग शुरू करने की उम्मीद नहीं कर सकते।”
तन्मॉय आशान्वित होते हुए निष्कर्ष निकालते हैं कि “चीजों के बदलने की गति को देखते हुए निराश होना या नाउम्मीद होना बहुत आसान है। मीडिया उद्योग को अक्सर ही चीजों को सही करने का श्रेय नहीं मिलता है, इसलिए मुझे लगता है कि यह स्वीकार करना महत्वपूर्ण है कि चीज़ें बदल रही हैं। मुझे इस बात से उम्मीद मिलती है कि हमारे पास प्रोजेक्ट साइरन अवार्ड के लिए पर्याप्त प्रविष्टियां है। कुछ साल पहले की स्थिति ऐसी नहीं थी। हमें इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि यह समस्या कई दशकों से हमारे बीच है इसलिए हमें छोटी-छोटी जीत का भी जश्न मनाना चाहिए।”
स्नेहा फ़िलिप ने इस लेख में अपना योगदान दिया।
यदि आप या आपका कोई परिचित आत्मघाती विचारों से जूझ रहा है, तो सहायता के लिए iCALL (9152987821) या यहां सूचीबद्ध किसी भी हेल्पलाइन पर सम्पर्क किया जा सकता है।
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2020 जैसे क्रूर साल से जुड़ी एक अच्छी बात यह है कि इसने भारत के फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं को उनकी बहुप्रतीक्षित पहचान दिलवाई। महामारी के दौरान पूरे समय हमने देखा कि कैसे आशा कार्यकर्ता घर-घर जाकर लोगों को सुरक्षा उपायों के बारे में बता रहीं थीं। गांवों में रहने वाले कार्यकर्ता सर्वेक्षण कर रहे थे ताकि सबसे कमजोर वर्ग के लोगों की जरूरतों की पहचान की जा सके। ग्राम रोजगार सहायकों ने अपने घर लौटने वाले प्रवासी मजदूरों को उनका रोजगार कार्ड वापस दिलवाने में मदद की ताकि वे नरेगा के अंतर्गत काम कर सकें। इस तरह भारत के ग्रामीण इलाक़ों में इन फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं की उपस्थिति पता चलने लगी। हर बार जरूरत पड़ने पर इन्हीं के द्वारा समस्याएं सुलझाए जाने के कारण अंतत: लोगों को भी इनकी कीमत समझ में आने लगी।
महामारी ने इस बात की तरफ़ ध्यान दिलाया कि विकास कार्यों में भी इन स्थानीय कार्यकर्ताओं को शामिल किया जा सकता है। गांवों के विकास के लिए अब हम शहरी-शिक्षित कामगारों पर ही निर्भर नहीं हैं। ग्रामीण युवा अपनी भूमिकाओं को अच्छी तरह से निभा रहा है। ऐसा होना ग्रामीण भारत के लिए रोजगार का एक नया प्रतिमान को खोलने जैसा है।
राष्ट्रीय स्तर पर शहरीकरण को वरीयता देने के चलते हम ग्रामीण अर्थव्यवस्था में रोजगार पैदा करने की जरूरत को नजरअंदाज करने की गलती कर सकते हैं। ग्रामीण भारत शहरों के रहमो-करम पर आर्थिक तरक्की नहीं कर सकता है। यह साफ है कि गांवों में शिक्षा तक बेहतर पहुंच के बाद अनगिनत युवकों और युवतियों ने अपने समुदायों में फ्रंटलाइन वर्कर्स की भूमिका निभाई है।
बड़े पैमाने पर फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं को शामिल करने से जल एवं कृषि क्षेत्रों को लाभ मिलेगा।
विडम्बना यह है कि प्रभावी परिणाम देने में सक्षम होने के बावजूद फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं को अनौपचारिक और अस्थायी माना जाता है और इन्हें बहुत कम महत्व दिया जाता है। इनके प्रभावी होने का एक उदाहरण भारत के स्वास्थ्य संकेतकों पर आशा कार्यकर्ताओं का असह है। 2005 में आशा को स्वास्थ्य सेवाओं में फ्रंटलाइन कार्यबल का हिस्सा बनाया गया। इसके बाद से मातृ मृत्यु दर में 59.9 प्रतिशत और नवजात बच्चों की मृत्यु दर में 49.2 प्रतिशत की कमी आई है। आशा कार्यकर्ताओं के संरक्षण में देश भर में टीकाकरण की दर 44 प्रतिशत से बढ़कर 62 प्रतिशत पर पहुंच गई है। वहीं संस्थागत प्रसव का प्रतिशत दोगुना होकर 39 प्रतिशत से 78 प्रतिशत पर आ गया है। यह उदाहरण साफ करता है कि अन्य क्षेत्रों में भी फ्रंटलाइन वर्कफोर्स के विकास में नई संभावनाएं हो सकती है। खासकर जल एवं कृषि क्षेत्रों को फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं की मजबूत भागीदारी से महत्वपूर्ण रूप से लाभ होगा।
खेती-किसानी भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। 2019–20 में कृषि, वानिकी और मछली पकड़ने के क्षेत्रों द्वारा सकल मूल्य वर्धित (ग्रॉस वैल्यू ऐडेड या जीवीए) राशि 19.48 लाख करोड़ रुपए अनुमानित हुई है। हालांकि कृषि के क्षेत्र में नौकरी जैसी व्यवस्था का उपयोग अभी नहीं हो सका है।
राष्ट्रीय स्तर पर बना जल एवं कृषि अधिकारियों का एक कार्यबल देश में कृषि क्षेत्र में इस परिवर्तन का नेतृत्व कर सकता है। हिंदुस्तान यूनीलीवर फ़ाउंडेशन में अपने काम से जुड़े विभिन्न कार्यक्रमों में हम लोग हाई-स्कूल या स्नातक/डिप्लोमा डिग्री वाले ग्रामीण युवाओं को शामिल करते हैं। थोड़े से प्रशिक्षण के बाद इन लोगों ने ऐसी भूमिकाएं भी निभानी शुरू कर दी हैं जिनके लिए तकनीकी कौशल और विशेषज्ञता की जरूरत होती है। वे अब कृषि के आधुनिकीकरण, जल संरक्षण के साथ और जलस्रोतों और जंगलों जैसे सार्वजनिक संसाधनों के सुचारु संचालन के लिए स्थानीय रूप से काम करते हैं।
हम इन कामों को ‘अनौपचारिक’ भूमिकाओं की तरह नहीं देखते हैं। अच्छी गुणवत्ता वाले प्रशिक्षण और मार्गदर्शन के साथ इन कार्यकर्ताओं ने कम समय में आर्थिक विकास और पारिस्थितिकी संरक्षण के काम में योगदान दिया है।1 यहां हम उन भूमिकाओं के बारे में बता रहे हैं जिनका इस्तेमाल हम ग्रामीण-स्तर पर अपनी परियोजनाओं के लिए करते हैं:
स्थानीय रूप से इन्हें भूजल जानकार के नाम से जाना जाता है ये अधिकारी पैरा-हाइड्रोजियोलॉजिस्ट्स यानी एक तरह के भू-जलवैज्ञानिक होते हैं। ये भूजल प्रवाह को मापने, पानी की उपस्थिति से पैदा होने वाली खूबियों और जल निकायों में पानी मात्रा तय करने की विशेषज्ञता रखते हैं। आरजीओ आमतौर पर जल स्त्रोतों की सूची तैयार करते हैं, कृषि में इस्तेमाल होने वाले पानी की मात्रा पर नजर रखते हैं, पानी का बजट तैयार करते हैं, कुओं में पानी के स्तर में आने वाले बदलाव पर नजर रखते हैं और आंकड़े तैयार करते हैं। साथ ही ये उपयुक्त कार्रवाई के लिए इन आंकड़ों को किसानों और पंचायतों के साथ साझा करते हैं। कहा जा सकता है कि एक आरजीओ पानी के बजट प्रबंधन में गांव या पंचायत की सहायता करता है। इसके अलावा एक आरजीओ गांव के बढ़ते या घटते जल स्तर की उन वजहों की भी पहचान करता है जो फसलों के चयन या सिंचाई विधियों से प्रभावित होती हैं।
आरजीओ द्वारा पैदा किए गए प्रभाव संभावित रूप से भारत को बड़े पैमाने पर जल सुरक्षा को हासिल करने में मददगार साबित हो सकते हैं। गुजरात के मेहसाणा और सबरकांथा जिलों के 21 गांवों में आरजीओ के एक समूह ने प्रति वर्ष 15 बिलियन लीटर (1500 करोड़ लीटर) पानी की बचत की। इतना पानी दोनों जिलों में रहने वाले लगभग 85 लाख लोगों के एक साल के पीने के पानी की जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त होगा।
इन्हें कृषि मित्र या कम्यूनिटी रिसोर्स प्रोफेशनल्स के नाम से भी जाना जाता है। एडीओ कृषि विज्ञान और प्रगतिशील कृषि पद्धतियों में प्रशिक्षित पेशेवर होते हैं जो फील्ड में काम करते हैं। ये आमतौर पर खेतिहर परिवारों से आते हैं और अपने गांवों में किसानों के लिए परामर्शदाता (गो-टू एडवाइजर्स) के रूप में काम करते हैं। एडीओ लागत को कम करने, कीटों के प्रकोप को रोकने, पानी की उचित मात्रा के उपयोग और पैदावार में सुधार के तरीकों के बारे में बताते हैं। ये अपनी सेवाओं का प्रचार-प्रसार गांव में होने वाली बैठकों, ऑडियो-वीडियो कार्यक्रम और खेतों में किए जाने वाले नमूना प्रदर्शन के जरिए करते हैं। एडीओ उपयुक्त सलाह, मशीन और अच्छी गुणवत्ता वाले बीजों के लिए विश्वसनीय स्त्रोतों तक पहुंचने में भी किसानों की मदद करते हैं।
उत्तर प्रदेश में एडीओ के केवल महिला सदस्यों वाले एक समूह ने अपने गांवों के 75 प्रतिशत किसानों को प्रगतिशील कृषि पद्धति अपनाने में मदद की है। ये स्थानीय ‘फसल डॉक्टर’ के रूप में काम करते हैं जो समस्या का निदान करते हैं और स्वस्थ फसलों को बढ़ावा देते हैं। प्रत्येक एडीओ अपने गांव के लगभग 200 किसानों की सहायता करती है। इनके प्रयासों के चलते एक साल में लागत में आई कमी और बेहतर फसल के कारण किसानों की आय 21 प्रतिशत बढ़ गई। इससे उनके गांव की प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट या जीडीपी) में आठ प्रतिशत की वृद्धि हुई है— ऐसा योगदान शहरी या ग्रामीण किसी भी तरह के रोजगार के लिए अप्रत्याशित बात है।
इन पेशेवरों को गांव की ग्राम पंचायतें नरेगा कामों के कार्यान्वयन में सहायता देने के लिए नियुक्त करती हैं। ये तकनीकी और गैर-तकनीकी दोनों ही प्रकार के नरेगा कर्मचारियों के साथ मिलकर पंचायत स्तर पर काम पर नजर रखते हैं। जीआरएस अपनी पंचायतों के लिए वार्षिक विकास योजनाओं को बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे गांव के विकास कार्यों की वरीयता सूची बनाते हैं, सामग्री और मजदूरी की लागत का अंदाजा लगाते हैं, रोजगार कार्ड देते हैं और बुनियादी ढांचों के कामों और दिहाड़ी के लेन-देन प्रक्रिया को देखते हैं। इनका काम बहुत हद तक शहरी इलाकों में हो रहे निर्माण कार्यों के मैनेजर जैसा होता है। उनकी तरह ये भी नरेगा गतिविधियों की योजना बनाते हैं, उनका समय निर्धारित करने हैं और अपनी देखरेख में उन्हें पूरा करवाते हैं।
राजस्थान और कर्नाटक में जल संचयन और मृदा संरक्षण आधारित हमारे कार्यक्रमों के माध्यम से एक वर्ष में 5.5 करोड़ रुपए का रोजगार पैदा हुआ। प्रत्येक जीआरएस ने अपने ग्राम पंचायत में अतिरिक्त 1,902 व्यक्ति दिवस (एक व्यक्ति दिवस यानी एक व्यक्ति को मिला एक दिन का काम) का रोजगार और 3.36 लाख की आमदनी पैदा की है। पांच वर्षों में उनकी संबंधित ग्राम पंचायतों में अतिरिक्त मजदूरी की यह राशि 33 करोड़ रुपए की हो गई।
हमने फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं का प्रभाव देखा है। कल्पना कीजिये कि भारत के लिए इसका क्या अर्थ हो सकता है अगर इस तबके को एक ठोस शकल और बढ़ावा दिया जाए।
पूर्वी उत्तर प्रदेश के हमारे कार्यक्रम में, एडीओ ने 2018–19 में अपने गांव की जीडीपी में औसतन आठ प्रतिशत का योगदान दिया, जबकि सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वालों (शीर्ष 10) का योगदान स्थानीय जीडीपी में 16 प्रतिशत तक का रहा। अगर भारत के 6.5 लाख गांवों में प्रत्येक में एक प्रशिक्षित एडीओ हो तो हमारे ग्राम्य विकास की कहानी एक उदाहरण के रूप में पेश की जा सकेगी।
2017-19 के दौरान आरजीओ ने गुजरात में 27 गांवों के 234 कुओं में से 47 प्रतिशत कुओं के भूमि जलस्तर को बेहतर करने में मदद की थी। उत्तर प्रदेश में एडीओ ने 46 गांवों में मुख्य फसलों जैसे धान (34 प्रतिशत), गेहूं (25 प्रतिशत) गन्ना (15 प्रतिशत) के लिए पानी की खपत में कमी लाने का काम किया है। इससे एक साल में 9.5 बिलियन लीटर (950 करोड़ लीटर) पानी की बचत हुई है।
हमारे कार्यक्रम में 70 प्रतिशत फ्रंटलाइन कार्यकर्ता महिलाएं हैं। जैसे-जैसे वे अपने गांवों में बदलाव लाने वालों की तरह पहचानी जाने लगी हैं, वैसे-वैसे वे पितृसत्तात्मक बाधाओं को दूर करने में सक्षम होती जा रही हैं। महिलाओं की नई पीढ़ी अपने गांवों में कार्यबल में शामिल होने के लिए तैयार हैं। यह रोजगार के माध्यम से ग्रामीण युवाओं को सशक्त बनाने वाली एक ज़रूरी बात है।
अपने अनुभवों में हमने पाया कि अगर ग्रामीण भारत में एक ऐसा कार्यबल तैयार किया जाए जो कृषि के आधुनिकीकरण और जल संरक्षण के लिए जरूरी उपयुक्त कौशल सीख सके तो यह बड़ा असर छोड़ सकता है।
फिर भी इन भूमिकाओं को अभी भी अनौपचारिक रखा गया है। ग्रामीण युवा एक कीमती संसाधन हो सकते हैं और हमें उन्हें इसी रूप में देखना चाहिए। पूर्वी उत्तर प्रदेश की एक 21 वर्षीय महिला से जब यह पूछा गया कि उसने एडीओ बनने का चुनाव क्यों किया तो उसका कहना था कि, ‘मैं अपने गांव की दिशा और दशा बदलना चाहती हूं।’ उसकी प्रेरणा बस एक नौकरी पा जाने भर से परे थी और अब समय आ गया है कि हम उसके जैसे लाखों लोगों की प्रतिभा को उभारने का काम करें।
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फुटनोट:
इस लेख को अँग्रेजी में पढ़ें।
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सुजाता खांडेकर, कम्यूनिटी ऑफ़ रिसोर्स ऑर्गनाइज़ेशन (कोरो) की संस्थापक निदेशक हैं। कोरो देश में ज़मीनी स्तर पर लीडरशिप और एक्टिविज्म के क्षेत्र में काम करने वाले अग्रणी संगठनों में से एक है। सुजाता और कोरो का मुख्य उद्देश्य समुदायों को ज़मीनी स्तर के नेतृत्व की सुविधा उपलब्ध करवाना है जिससे वे अपने मुद्दों की पहचान कर खुद उनके हल निकाल सकें। पिछले तीन दशकों में सुजाता के काम ने उन्हें शहरी और ग्रामीण इलाक़ों में जमीनी स्तर की महिलाओं के सशक्तिकरण के बारे में विस्तार से जानने के लिए प्रेरित किया है। उनकी पीएचडी थीसस ‘मीनिंग्स ऑफ़ वीमेन्स एमपावर्मेंट’ का मूल विषय भी यही है। इस थीसस पर उनके साथ सात अन्य सह-शोधार्थियों ने भी काम किया है।
आईडीआर के साथ अपने इस इंटरव्यू में सुजाता ने सामाजिक परिवर्तन के लिए कार्यक्रमों को डिज़ाइन करते समय ज़मीनी समुदायों के ज्ञान और जीवन अनुभव को शामिल करने के महत्व पर बात की है। साथ ही, वे यह भी बताती हैं कि कैसे समुदायों के साथ संवाद और सामूहिक ज्ञान निर्माण आगे बढ़ने का सही तरीक़ा है।
मुझे लगता है कि जमीनी स्तर से सामुदायिक समझ बनाने की ज़रूरत का यह अहसास तीन दशकों में कोरो के काम से हासिल हुए अनुभवों का नतीजा है। 1989 में, अपनी स्थापना के समय से ही कोरो भारत के चंद सबसे पिछड़े समुदायों के साथ काम कर रहा है। समय के साथ यह एक संगठन के रूप में विकसित हुआ है जो ज़मीन पर मजबूत है औऱ जिसका नेतृत्व, आकार और प्रबंधन जमीनी समुदायों द्वारा किया जाता है। मैं आउट्लाइअर हूं यानी एक आउटसाइडर (क्योंकि मेरी सोशल लोकेशन उन कई लोगों से अलग है जो कोरो का हिस्सा हैं) और इनसाइडर दोनों हूं क्योंकि संगठन में होने वाली हर चीज में मेरी भागीदारी सौ प्रतिशत होती है।
वर्षों से मैंने देखा है कि जमीनी स्तर के लोगों को लगभग हमेशा ही ‘लाभार्थियों’ के रूप में देखा जाता रहा है। अपने काम से मैंने जाना कि इन समुदाय के लोगों में कितना असीमित ज्ञान, बुद्धि, ऊर्जा, एक्टिविज्म और नेतृत्व जैसा सब कुछ मौजूद है। कई संगठनों या शैक्षणिक संस्थानों में ये समुदाय शोध, कार्यक्रमों के डिज़ाइन और क्रियान्वयन और डेटा के संग्रहण और विश्लेषण जैसे कामों में शामिल हो सकते हैं। लेकिन बात जब ज्ञान निर्माण की आती है तब संस्थानों और समुदाय के बीच के रिश्ते में अब भी एक स्पष्ट क्रम देखने को मिलता है।
हमें ज़मीनी स्तर के लोगों को अलग नज़रिए से देखने की ज़रूरत है ताकि हम उन्हें नेता और ज्ञान निर्माता के रुप में देख सकें।
हम अक्सर ही ऐसा सोचते हैं कि अंग्रेज़ी बोलने वाले या कॉलेज की डिग्री हासिल करने वाले लोगों के पास ही सारा ज्ञान है। इस पूर्वाग्रह के कारण विभिन्न समुदायों के सदस्य शोध या प्रोग्रामिंग के लिए केवल एक आंकड़ा भर बन कर रह जाते हैं। लेकिन देखने का यह नज़रिया दूरदर्शी नहीं है क्योंकि भारत विविधताओं वाला एक देश है। यहां विविध अनुभव, दृष्टिकोण और बारीकियां हैं और सभी समान रूप से सही और जरूरी हैं। इसके अलावा पिछड़ी पृष्ठभूमि के लोगों को एक के बाद एक संघर्षों का सामना करना पड़ता है और उनका यही जीवंत अनुभव उन्हें एक खास भीतरी नजर और ज्ञान प्रदान करता है।
जमीनी स्तर के ज्ञान को पहचानने और उससे सीखने के महत्व के इस एहसास के बाद ही मुझे लगा कि एक आदर्श बदलाव की आवश्यकता है। हमें ज़मीनी स्तर के लोगों को अलग नज़रिए देखने की ज़रूरत है ताकि हम उन्हें नेता और समझ बनाने वालों के रुप में देख सकें। नेतृत्व का अर्थ केवल एक्टिविज्म में नेतृत्व से नहीं है; ज़मीनी स्तर के ज्ञान निर्माण और उस ज्ञान के लागू करने में भी नेतृत्व की ज़रूरत होती है।
और अंतत: यह ज्ञान निर्माण की राजनीति पर आधारित होता है। इसका संबंध कुछ इस तरह की बातों से है कि कौन भरोसेमंद है, किस पर भरोसा किया गया है और क्यों, और ‘किसे’ ज्ञान माना जाता है और क्यों।
आपने दोनों सिरों पर बदलाव को सुविधाजनक बनाने का सही उल्लेख किया है। दुर्भाग्य से, अक्सर जमीनी स्तर पर काम करने वाले अच्छे-खासे अनुभवी लोग भी खुद को ज्ञान निर्माता नहीं मान पाते हैं। इस ‘सक्रिय’ जागरूकता (जो काम करने से बढ़ती है) को जमीनी स्तर पर भी सुविधा प्रदान करने की ज़रूरत होती है। सामूहिक कार्रवाई आवश्यक है क्योंकि व्यक्ति अपने दम पर खुद को मुखर करने में सक्षम नहीं हो सकते हैं, विशेष रूप से तब जब ऐसा करना ज्ञान निर्माण के लोकप्रिय और स्वीकृत तरीकों से उलट हो। इसलिए, शुरुआत में यह महत्वपूर्ण होगा कि समुदाय से परे दूसरों के साथ ज्ञान का सह-निर्माण किया जाए, ताकि जमीनी ज्ञान को महत्व दिया जा सके और इसे बाहरी दुनिया के साथ साझा किया जा सके।
मैं आपको एक उदाहरण देती हूं। साल 2019 में मैं महिला सशक्तिकरण से जुड़े एक विषय पर अपनी पीएचडी पूरी करने वाली थी। मैं सशक्तिकरण के उन विभिन्न स्वरूपों के बारे में जानना चाहती थी जो सम्भव हो सकते थे। साथ ही मैं यह भी जानना चाहती थी कि महिलाएं अपने सशक्तिकरण को कैसे समझती हैं और विभिन्न सामाजिक संदर्भों से आने वाली महिलाओं के लिए इसका क्या अर्थ हो सकता है। मेरी इच्छा थी कि मैं इस काम में ज़मीनी स्तर की महिलाओं को भी शामिल करुं और उसके बाद सामूहिक रुप से ज्ञान का निर्माण करना चाहती थी। मैं चाहती थी कि वे अपने जिए हुए अनुभव बांटें – ताकि हम एक साथ मिलकर सोचें और उनके अर्थ निकालें – हमें एक ग़ैर-क्रमिक, गैर-न्यायिक, गैर-खतरे वाले वातावरण की आवश्यकता थी। मैंने जिस शोध पद्धति का अनुसरण किया उसका नाम ‘फ़ेमिनिस्ट कॉपरेटिव इंक्वायरी’ है। इसमें प्रतिभागी सह-शोधकर्ता हैं और अनुसंधान के सभी चरणों में निर्णय लेने में शामिल हैं।
मैं इस शोध में प्रमुख शोधकर्ता (रिसर्च फैसिलिटेटर) भी थी और इसका विषय भी। शोध में मेरे को-रिसर्चर कोरो के मेरे मित्र और सहकर्मी थे जिनमें से कुछ को मैं दो दशकों से जानती थी। द्वारका, पारधी नाम की एक ग़ैर-अधिसूचित जनजाति से हैं। इस जनजाति से जुड़ी कई बातों के चलते उन्हें आज भी लोगों के बुरे बर्ताव का सामना करना पड़ता है। मुमताज़ और अनवरी कम-आय वाले शहरी समुदायों की मुसलमान हैं; शीला, अनीता और विनया शहरी और ग्रामीण इलाक़ों के दलित समुदायों से आती हैं; पल्लवी एक कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि से आने वाली मराठा है; और मैं एक ब्राह्मण हूं जिसे जीवन में कई तरह के विशेषाधिकार प्राप्त हैं। आठ सह-शोधार्थियों में से पांच शोधार्थी या तो निरक्षर हैं या फिर उन्होंने नौवीं कक्षा तक की पढ़ाई की है। हम सभी का सामाजिक स्थान अलग-अलग है और हमारी अपनी समस्याएं हैं। हम सभी इस शोध प्रक्रिया के प्रत्येक चरण में शामिल थे (थीसिस के लेखन को छोड़कर जो मैंने अंग्रेजी के अपने ज्ञान के कारण अकेले किया था)।
अध्ययन के दौरान हमने एक दूसरे के साथ अपने जीवन की घटनाओं को बांटा। मैंने उनमें से प्रत्येक के साथ सात या आठ घंटे तक बातचीत की। फिर उन सभी सातों ने हमारी बातचीत की प्रक्रिया के दौरान विकसित और तय दिशा-निर्देशों के अनुसार मेरे साथ बातचीत की। हम छः दिनों तक एक साथ रहे और इस बात का विश्लेषण किया कि हमने क्या साझा किया था और कुछ चीज़ें क्यों घटित हुई थीं।
इस दौरान मैंने संवाद और सह-रचनात्मकता की शक्ति को समझा। मुझे याद है कि मैंने अपने सह-शोधार्थियों के साथ अपने जीवन की कहानी बांटी थी। मेरी कहानी सुन कर अनवरी ने कहा था कि उसका जीवन मेरे जीवन से कितना अलग था क्योंकि उसे कभी स्कूल जाने की अनुमति थी ही नहीं। उसने कहा कि “आपके बचपन की सभी कहानियां शिक्षा और स्कूल से जुड़ी हुई हैं; आपके बचपन की सभी कहानियां आपके स्कूल के शिक्षकों और शिक्षा के दौरान आपके माता-पिता के साथ के बारे में बताती है। मैं इस बात से बहुत परेशान हूं कि हम एक दूसरे से बहुत अलग हैं।” अनवरी कभी स्कूल नहीं गई थी इसलिए उसका बचपन मेरे बचपन से बहुत अलग लग रहा था।
जीवन के सभी पहलुओं में जमीनी स्तर के अनुभव और ज्ञान की मान्यता और सम्मान होना चाहिए।
मेरी पारधी सहयोगी द्वारका ने बताया कि उसे लगता था कि केवल उसके समुदाय ने दुख सहा है। उसने कहा “जब आप बोल रही थीं तब मुझे एहसास हुआ कि ब्राह्मण या आदिवासी सभी को दुख झेलना पड़ता है।” ये संवाद हमारे बीच की समानताओं को खोजने के लिए नहीं किए गए थे। इनका अर्थ हमारी विविधताओं का सम्मान करना और अपने अनुभव के अंतरों को समझने के साथ ही समान परिस्थितियों के बारे में जानना था। यह इस प्रकार की बातचीत थी जिसके कारण अंतर्विरोध और सशक्तिकरण की हमारी समझ विकसित हुई। यह सब इसलिए संभव हुआ क्योंकि हमने इस अध्ययन के लिए एक साथ ज्ञान का निर्माण करने का निर्णय लिया।
मेरा मानना है कि जब लोगों को पता चलता है कि वे दूसरों से अलग क्यों हैं या वे अपने जीवन के सफ़र में इतनी अलग जगहों या मोड़ पर क्यों हैं तो यह बहुत उम्मीद देने वाला होता है।
बात यह है कि जीवन के सभी पहलुओं में जमीनी स्तर के अनुभव और ज्ञान को मान्यता मिलनी चाहिए और उसका सम्मान होना चाहिए। ज़मीनी स्तर के ज्ञान और मूल्यों की पहचान के लिए हमें खुद को कोरो या ऐसे किसी अन्य स्वयंसेवी संस्थाओं तक सीमित नहीं कर लेना चाहिए। एक समाज के रूप में हमें ज़मीनी स्तर के ज्ञान और अनुभवों की अपनी सोच और काम में शामिल करने लायक बनने की आवश्यकता है। मैं जिस सवाल का जवाब देने की कोशिश कर रही हूं वह यह है: हम वहां तक कैसे पहुंचते हैं? क्या संतुलित और समान विकास को हासिल करने के लिए यह एक सामाजिक ज़रूरत बन सकता है?
हर मनुष्य और उसका सामाजिक परिवेश अलग-अलग होता है। इसलिए, सामाजिक परिवर्तन के लिए डिजाइनिंग भी एक जटिल प्रक्रिया होगी। इन परिवेशों और जटिलताओं को समझने के लिए हमें समुदायों के साथ मिलकर समाधान तैयार करने की आवश्यकता है। आज हम में से अधिकांश लोग साइलो या विभाजित तरीक़े से काम करते हैं। इसी स्थिति में संवाद की ज़रूरत पैदा होती है क्योंकि इसमें सीमाओं को समाप्त करने की क्षमता होती है। संवाद की पूरी प्रक्रिया उथल-पुथल वाली होती है लेकिन इससे होने वाले फ़ायदे के सामने इसकी असहजता को नज़रअन्दाज़ किया जा सकता है।
इस पूरी यात्रा का संबंध सह-यात्रा, पारस्परिक साझाकरण और सीखने से है। एक समाज के रूप में हमें यह समझने की ज़रूरत है कि आखिरकार हम सभी की स्थिति एक जैसी ही है। “हम” और “उन” के बीच यह झूठा भेदभाव करते हैं लेकिन वास्तविकता यह है कि हम जितना समझते हैं, उससे कहीं ज्यादा हम एक दूसरे के जैसे हैं।
हमें इन सीमित करने वाले विचारों से निकलने और उनसे परे देखने की ज़रूरत है जिसके कारण हमें यह लगता है कि ज़मीनी स्तर पर जी रहे लोगों को “हमारी ज़रूरत है”। समान स्तर पर आकर उनके साथ जुड़ने के बाद ही हमें इस बात का अहसास होगा कि हम लोग उनसे भी बहुत कुछ सीख सकते हैं।
समुदायों को अवधारणा से लेकर निष्पादन तक, सामाजिक परिवर्तन के तरीक़े तय करने की प्रक्रिया का हिस्सा बनने की आवश्यकता है। हालांकि सोशल सेक्टर में स्वयंसेवी संस्थाओं और समुदायों के बीच का संबंध बराबरी का नहीं होता है, खासकर जब बदलाव लाने के लिए ज्ञान के निर्माण की बात आती है।
लेकिन क्या होगा अगर हम समुदायों को देखने के तरीके को बदल दें और उन्हें ज्ञान निर्माता के रूप में भी देखें? क्या होगा अगर उन्हें सिखाने की बजाय, हम उनके साथ उनके सामाजिक संदर्भ, उनकी जीवन की वास्तविकताओं, उनके जीवन संघर्षों और उनकी सीखों के आधार पर सह-निर्माण करें? क्या होगा यदि हम ज्ञान के निर्माण और समाधानों पर सामूहिक रूप से काम करें? हमारे क्षेत्र में समुदायों की सेवा का इरादा रखने वाली इकाइयों को समुदायों और संगठनों के बीच शक्ति के असंतुलित विभाजन को ठीक करने की ज़रूरत है।
ज्ञान औपचारिक डिग्री से परे है।
दूसरा, ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया का संबंध अकादमिक जगत से है और शिक्षाविदों को इस पर पुनर्विचार करना चाहिए कि इस ज्ञान को कैसे महत्व देना है। मैं काफ़ी लम्बे समय से यह मानती आई हूं कि ज्ञान औपचारिक डिग्री से परे है। फिर भी अधिकांश शैक्षणिक संस्थानों को कागज़ी योग्यता की ज़रूरत होती है और वे सामग्री और विषय से ज़्यादा अकादमिक भाषा और प्रस्तुति को महत्व देते हैं।
नए ज्ञान को उजागर करने में मदद करने के लिए शिक्षाविदों की भूमिका महत्वपूर्ण है। विशेष रूप से जमीनी स्तर के समुदायों से जिनके अनुभव कई मुद्दों पर समकालीन बहस के लिए बहुत अच्छे से भीतरी नज़र का काम कर सकते हैं। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि अकादमिक संस्थानों की अपनी साख और विश्वसनीयता है और समाज में ज़मीनी स्तर के ज्ञान की महत्ता में बदलाव ला सकता है। संस्थानों को डिग्रियों से परे देखना चाहिए और ऐसे कार्यक्रम तैयार करने चाहिए जिसमें इस तरह के ज्ञान को सबके सामने लाने में मदद मिल सके। समय के साथ लगातार ऐसा करने से ‘औपचारिक रूप से शिक्षित’ और जमीनी स्तर के समुदायों के बीच ज्ञान निर्माण में उपस्थित पावर डायनमिक्स की असमानता को दूर करने में मदद मिलेगी। यदि हम चाहते हैं कि वास्तविक सामाजिक परिवर्तन हो तो हमें जमीनी स्तर से सीखने की इस प्रक्रिया को शुरू करना होगा। हम अब और इंतजार नहीं कर सकते।
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1990 के दशक के आरम्भ से ही पुरुषों के साथ मिलकर काम करने वाले जेंडर प्रोग्राम्स (लैंगिक बराबरी अभियानों) की शुरुआत हो चुकी थी। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय, दोनों स्तरों पर ‘मेल इंगेजमेंट’ यानी पुरुषों की भागीदारी वाले शुरूआती कार्यक्रमों का उद्देश्य महिलाओं और लड़कियों के साथ होने वाली हिंसा (वायलेन्स अगेन्स्ट वीमेन एंड गर्ल्स – वीएडबल्यूजी) के मुद्दे पर बात करना था। जैसा कि इस रिपोर्ट में कहा गया है कि महिलाओं और लड़कियों के साथ होने वाली हिंसा के अधिकांश अपराधी पुरुष होते हैं और इसमें आश्चर्य जैसी कोई बात भी नहीं है। फिर भी, जब लैंगिक मुद्दों की बात आती है तब पुरुषों के साथ काम करने का महत्व हिंसा पर संवाद करने से कहीं अधिक होता है।
‘मेल इंगेजमेंट’ प्रोग्राम्स, वे विशेष कार्यक्रम हैं जो लैंगिक समानता के लिए पुरुषों और लड़कों के साथ मिलकर काम करते हैं। (मेल इंगेजमेंट और इससे जुड़ी शब्दावली की औपचारिक परिभाषा के लिए यहां देखें।) लैंगिक बराबरी के मुद्दों पर पुरुषों और लड़कों को शामिल करने के कई लाभ हैं। इसका एक उदाहरण यह है कि बेहतर लैंगिक बराबरी वाले समाज में पुरुषों के अवसाद में जाने, आत्महत्या करने या हिंसा का शिकार होने की घटनाएं कम देखने को मिलती हैं। इसके साथ ही, लैंगिक बराबरी वाले देशों के किशोरों में साइकोसोमैटिक (मनोदैहिक) शिकायतें कम होती हैं।1
2019 में रोहिणी निलेकनी फ़िलांथ्रपीज (आरएनपी) ने पुरुष भागीदारी वाले कार्यक्रमों (स्वयंसेवी संस्थाओं के दृष्टिकोण से जो इन कार्यक्रमों का संचालन भी करते हैं और इसके प्रतिभागी भी होते हैं।) और उनके अनपेक्षित परिणामों के लाभों को समझने के लिए एक अध्ययन शुरू किया था। इस अध्ययन में तीन साल तक भारत में, आरएनपी द्वारा चलाए जा रहे मेल इंगेजमेंट कार्यक्रमों पर पहले और दूसरे दर्जे का शोध करना शामिल था। 2019 में यह शोध आठ कार्यक्रमों के साथ शुरू हुआ था और 2020 में 10 तक पहुंच गया।2 थ्योरी ऑफ चेंज वर्कशॉप के अलावा प्राथमिक शोध के अन्य तरीक़ों में प्रतिभागियों और उनके परिवार की महिला सदस्यों या दोस्तों के साथ इंटरव्यू और ग्रुप डिस्कशन शामिल थे।
इस लेख में बताई गई बातें, अनुभव और शोध पर आधारित हैं। साथ ही, इसका उद्देश्य शोध की टिप्पणियों के साथ-साथ उन विचारों को भी उजागर करना है जो मेल इंगेजमेंट प्रोग्रामिंग के क्षेत्र में महत्वपूर्ण हैं। समाधान बताने के बजाय यह लेख अधिक से अधिक संगठनों को मेल इंगेजमेंट के क्षेत्र में आने और इस पर संवाद करने के लिए प्रोत्साहित करता है। ऐसा करने के लिए उन्हें शोध और व्यवहार दोनों से ही मिली सूचना देने की भी बात करता है।
साक्ष्य बताते हैं कि मातृत्व और नवजात स्वास्थ्य से संबंधित सेवाओं में पिता को शामिल करने से गर्भावस्था के दौरान महिलाओं के लिए काम के बोझ को कम करने में मदद मिलती है। इसके अलावा, ऐसा करने से महिलाओं को अधिक भावनात्मक सहयोग मिल पाता है और बच्चे के जन्म की तैयारी और प्रसव के बाद की देखभाल की स्थिति में सुधार हो सकता है।
इसलिए पहले से मौजूद साक्ष्यों के आधार पर अपने कार्यक्रमों को तय करने की इच्छा रखने वाले, दानदाताओं और स्वयंसेवी संस्थाओं को इस तरह के सुझावों को ध्यान में रखना चाहिए। अन्य क्षेत्रों में, जहां प्रमाण कम उपलब्ध हैं वहां प्रोग्रामिंग और फ़ंडिंग को इस तरह तैयार किया जाना चाहिए कि सीखने और बदलाव लाने की गतिविधियों को तेज़ी से किया जा सके।
जब लैंगिक बराबरी की बात आती है तब पुरुषों (विशेष रूप से पिताओं) के साथ मिलकर काम करने के फ़ायदे स्पष्ट हैं लेकिन स्वयंसेवी संस्थाओं ने इस ओर ध्यान दिलाया है कि कम उम्र में शुरुआत करने की ज़रूरत बढ़ रही है। स्कूलों में लैंगिक अलगाव का, व्यवहार और हावभाव पर नकारात्मक प्रभाव और यौन शिक्षा तक पहुंच की कमी (अश्लील साहित्य के अलावा अन्य स्रोतों तक पहुंच) सहित कई अन्य चिंताओं ने इस दृष्टिकोण को जन्म दिया है। लेकिन, इस तरह के सुझाव देते समय, खास आयु वर्ग के लिए तय प्रोग्रामिंग को देखना जरूरी है। किसी विशिष्ट कार्यक्रम में छोटे बच्चों से मिलने वाली प्रतिक्रिया, उसी कार्यक्रम के लिए मध्य-किशोरावस्था में किशोरों से मिलने वाली प्रतिक्रिया से अलग हो सकती है और अंत में ऐसा होना परिणामों को प्रभावित करता है।
कार्यक्रम तब अधिक प्रभावी होते हैं जब प्रतिभागी 14 वर्ष से कम आयु के होते हैं और मध्यम किशोरों के लिए एक अलग दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है।
ऐसा एक उदाहरण महाराष्ट्र में आयोजित एक कार्यक्रम में 13–14 साल के लड़कों के समूह के साथ देखने को मिला। इन लड़कों द्वारा देखे जाने वाली पोर्नोग्राफ़ी और हिंसक मनोरंजन के दर को कम करने के प्रयास के दौरान, उन्हें सुझाव दिया गया कि इस तरह की सामग्री देखने से पहले उन्हें गंभीरता से सोचना चाहिए। लेकिन सुझाव का यह तरीक़ा कारगर नहीं रहा। इसका वास्तविक कारण पुरुष संज्ञानात्मक विकास से संबंधित हो सकता है – लड़कों के मामले में केवल 15 साल की उम्र से लेकर शुरुआती वयस्कता के दौरान ही वे लैंगिक मानदंडों और भूमिकाओं के बारे में सवाल करने, सोचने और अपने विचार बनाने की क्षमता विकसित करते हैं। इसे देखते हुए इस पर विचार किया जाना चाहिए कि क्या 13-14 वर्ष के बच्चों द्वारा पोर्नोग्राफ़ी और हिंसक मनोरंजन के इस्तेमाल में कमी लाने के लिए स्वयं लड़कों के बजाय उनके माता-पिता को शामिल करने वाली रणनीति अधिक प्रभावशाली होगी।
इसके विपरीत, ऑस्ट्रेलिया, यूरोप और उत्तरी अमेरिका के शोध में पाया गया कि किशोर प्रतिभागियों की तुलना में मध्यम किशोरों (आमतौर पर 14-17 वर्ष के बच्चों) में बदमाशी (बुलीइंग) को रोकने वाले कार्यक्रमों का कम असर होता दिख रहा है। इससे पता चला कि ये कार्यक्रम तब अधिक प्रभावी होते हैं जब प्रतिभागी 14 वर्ष से कम आयु के होते हैं और मध्यम किशोरों के लिए एक अलग दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है।
ऐसे तो कार्यक्रम के जरिए हासिल किए जाने वाले परिणाम को पहले तय किया जाना चाहिए और फिर इसके अनुसार समयावधि को निर्धारित किया जाना चाहिए। कुछ मामलों में जब डोनर या स्वयंसेवी संस्था के पास निवेश के लिए सीमित समय होता है तब ऐसे कार्यक्रम को चुनना बेहतर होता है जिसे दिए गए समय में पूरा किया जा सके। यहां पर इस बात को ध्यान में रखना जरूरी है कि थोड़ी समयावधि वाले कार्यक्रमों से कोई दीर्घकालिक परिणाम हासिल करने का लक्ष्य हमें असफलता की ओर धकेलता है।
चलिए, एक ऐसी स्वयंसेवी संस्था का उदाहरण लेते हैं जो इस अध्ययन का हिस्सा थी। संस्था अपने कार्यक्रम से किशोर लड़कों को ऐसा उदाहरण बनने के लिए प्रेरित करती है जो लैंगिक रूढ़ियों और महिलाओं या लड़कियों के ख़िलाफ़ हिंसा का विरोध करने वाला हो। ऐसा करने से किशोर, सार्थक और स्वस्थ संबंधों का, तथा महिलाएं और लड़कियां लैंगिक समानता का अनुभव कर सकती हैं। इस कार्यक्रम को उस संस्था द्वारा महिलाओं और लड़कियों के लिए किए जाने वाले काम के साथ जोड़ा गया।
हमारे अध्ययन के दौरान बच्चों या किशोरों के साथ काम करने वाले संगठनों ने प्रतिक्रिया को उनके कार्यक्रमों का लगातार अनपेक्षित परिणाम बताया।
शोध के दौरान उस समय साक्षात्कार में भाग लेने वाले पुरुष प्रतिभागियों ने औसतन दो से तीन साल तक कार्यक्रम में भाग लिया था। इस दौरान उन्होंने बाल-विवाह बंद कर दिया था, घर के कामों में योगदान देने लगे थे और सड़क पर होने वाले उत्पीड़न के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने लगे थे। इसके विपरीत, बाल यौन शोषण रोकथाम कार्यक्रम चलाने वाले एक अन्य संगठन को कम समय में ही अच्छे परिणाम हासिल हुए। उनके कार्यक्रम का समय दो से छः घंटे (एक घंटा प्रति दिन) होती है और हर दो से तीन साल में इसे बच्चों के एक ही समूह के साथ दोहराया जाता है। बाहरी और आंतरिक दोनों ही तरह के मूल्यांकन में यह पाया गया कि कम समयावधि वाला कार्यक्रम होने के बावजूद प्रतिभागियों का एक बड़ा प्रतिशत इसकी प्रमुख अवधारणाओं और संदेशों को याद कर पा रहा था। इसके अलावा, असुरक्षित परिस्थितियों का सामना करने वाले अधिकांश प्रतिभागी कार्यक्रम से सीखी गई बातों को लागू करके अपनी रक्षा करने में सक्षम थे।
कई कार्यक्रमों को समय-समय पर अनपेक्षित परिणामों का सामना करना पड़ता है। ये नकारात्मक परिणाम होते हैं जो कार्यक्रम के साइड इफेक्ट के रूप में सामने आते हैं।
हमारे अध्ययन के दौरान बच्चों या किशोरों के साथ काम करने वाले संगठनों ने प्रतिक्रिया को उनके कार्यक्रमों का लगातार अनपेक्षित परिणाम बताया। यहां, नकारात्मक परिणाम लड़कों और/या पुरुष किशोरों के खिलाफ प्रतिक्रिया को दर्शाता है जो लैंगिक समानता को चुनौती देने की कोशिश करते हैं। (जब महिलाएं पितृसत्तात्मक लिंग मानदंडों को चुनौती देती हैं तो यह पुरुषों द्वारा की जाने वाली प्रतिक्रिया से अलग होता है।) नकारात्मक परिणामों की संभावना को देखते हुए, किशोरों को शामिल करने वाले कार्यक्रमों में प्रतिक्रिया को कम करने के लिए पहले से ही बचाव की रणनीति पर विचार करना चाहिए। जेंडर प्रोग्रामिंग के संदर्भ में ऐसा करने का एक तरीका लड़के और लड़कियों दोनों से जुड़े उदाहरणों को शामिल करना है। अध्ययन में उत्तरदाताओं ने उल्लेख किया कि माता-पिता, शिक्षकों, स्कूल के प्रधानाचार्यों और गांव के नेताओं के साथ समय-समय पर बैठकें आयोजित करना इस तरह की प्रतिक्रिया को रोकने का एक प्रभावी तरीका है।
इसके अतिरिक्त, फील्ड टीमों को प्रशिक्षित करना महत्वपूर्ण है ताकि वे संभावित नकारात्मक परिणामों के प्रति अधिक चौकस हो सकें। एक बार जब वे अनपेक्षित परिणामों की पहचान करने लग जाते हैं तब वे और सीख पाते हैं और इसे कम करने की दिशा में कार्रवाई की अवधि का आकलन आसान हो जाता है।
लैंगिक कार्यक्रमों की हाल की वैश्विक समीक्षा में पाया गया कि इस तरह के कार्यक्रमों में रुचि की कमी उन मुख्य कारणों में से एक थी, जिसके चलते किशोर लड़के या तो शामिल नहीं हुए या शामिल होने के बाद बाहर हो गए। इसके समाधान के लिए, हमारे अध्ययन में कुछ संगठनों ने अनुमान लगाया कि किशोर लड़कों को मर्दानगी से जुड़े कठोर लैंगिक मानदंडों को चुनौती देने का अवसर प्रदान कर प्रेरित किया जाएगा। यह उन्हें चुनाव करने और उन तरीकों से व्यवहार करने की अनुमति देगा जो वे चाहते हैं। अन्य संगठनों ने अनुमान लगाया कि कार्यक्रम में भागीदारी के जरिए किशोरों को कोई कौशल हासिल करने का मौक़ा दिया जाएगा जो उन्हें इसका हिस्सा बने रहने के लिए प्रेरित करेगा।
मिश्रित–लिंग समूहों के साथ काम करने वालों ने कहा कि इस तरह की जगहें युवा पुरुषों और महिलाओं, या लड़कों और लड़कियों के बीच बातचीत को सामान्य बनाने लगते हैं।
हमारे शोध में पाया गया कि किशोर लड़कों ने कौशल हासिल करने के दृष्टिकोण को अधिक महत्व दिया। चूंकि कठोर लैंगिक मानदंडों को चुनौती देना मेल इंगेजमेंट का मुख्य केंद्र होता है। इसलिए हमारा सुझाव है कि प्रतिभागियों को शुरू में हस्तांतरणीय कौशल हासिल करने में सक्षम बनाने पर ध्यान केंद्रित किया जाए फिर उन इच्छाओं की पहचान की जाए जो मर्दवादी सोच के चलते दबा दी जाती हैं। इसके बाद उन पर काम किया जाए। उदाहरण के लिए हमारे शोध की सूची में शामिल एक कार्यक्रम प्रतिभागियों के बीच संवाद निर्माण और नेतृत्व कौशल के साथ शुरू हुआ था और बाद में इसने अपने प्रतिभागियों को बाल विवाह रोकने, घर के काम में भाग लेने और सड़कों पर होने वाले यौन उत्पीड़न के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने में सक्षम बनाया।
अध्ययन के प्रतिभागियों को एक ही लिंग या मिश्रित लिंग वाले समूहों के साथ काम करने वालों के बीच समान रूप से विभाजित किया गया था। एकल या मिश्रित लिंग समूहों के साथ काम करने के प्रभाव को लेकर किसी तरह का ठोस परिणाम हासिल नहीं हुआ और इसमें किसी तरह का आश्चर्य नहीं है। एक तरफ़, एकल-लिंग समूहों के साथ काम करने का फ़ायदा यह है कि इससे पुरुष प्रतिभागी संवेदनशील विषयों पर भी खुलकर बात कर पाते हैं। दूसरी ओर, मिश्रित-लिंग समूहों के साथ काम करने पर महिलाओं और पुरुषों दोनों को ही एक दूसरे के विचार, दृष्टिकोण और ज़रूरतों को समझने का अवसर मिलता है और वे संवेदनशील मुद्दों पर भी एक दूसरे से बातचीत करते हैं।
अध्ययन में मिश्रित-लिंग समूहों के साथ काम करने वालों ने बताया कि इन जगहों ने किशोर पुरुषों और महिलाओं या लड़के और लड़कियों के बीच संवाद को सामान्य बनाना शुरू कर दिया है। वहीं एकल-लिंग समूहों के साथ काम करने वालों ने कहा कि ऐसा करने का एक कारण यह है कि पुरुष और महिला प्रतिभागियों को एक ही विषय पर अलग-अलग सामग्री की आवश्यकता हो सकती है, जैसे कि सहमति।
पहली बार मेल इंगेजमेंट कार्यक्रम को तैयार करने वाले डोनर और अन्य इकाइयों को दोनों विकल्पों के फ़ायदों के बारे में सोचना चाहिए और उसके बाद चुने जाने वाले विकल्प से संबंधित सूचनाएं इकट्ठा करनी चाहिए।
हमारे अध्ययन में हमने पाया कि संगठनों ने नीचे दिए गए एक या अधिक दृष्टिकोणों का उपयोग करके स्केल करने का प्रयास किया है:
कार्यक्रमों को तब तक स्केलिंग शुरू नहीं करनी चाहिए जब तक कि वे अपनी प्रभावशीलता का सबूत देने योग्य न हो जाएं।
प्रारंभिक टिप्पणियों से संकेत मिलता है कि स्कूलों के माध्यम से स्केलिंग कार्यक्रम न्यूनतम समय में अधिकतम लोगों तक पहुंचने में सबसे प्रभावी रहे हैं। इसके लिए एक परिकल्पना यह है कि बच्चों को इकट्ठा करने की बजाय स्कूली बच्चों से संवाद करना आसान होता है। और, यदि वे एक ही प्रबंधन के अधीन हैं या एक समान पाठ्यक्रम साझा करते हैं तो सभी स्कूलों में छात्रों को एकत्रित करना संभव है।
अध्ययन में सामने आया एक अन्य मॉडल एक ऐसे संगठन का था जो एक नेतृत्व विकास कार्यक्रम चलाता है जो लिंग और अन्य सामाजिक मानदंडों पर ध्यान केंद्रित करता है। विविध क्षेत्रों में काम करने वाले स्वयंसेवी संगठन अपने कर्मचारियों को कार्यक्रम के लिए नामित करते हैं। इस दौरान उन्हें प्रवर्तक और उन्हें नामित करने वाली इकाई दोनों द्वारा सलाह दी जाती है। और, प्रतिभागियों के सहकर्मी समूह और उन्हें नामांकित करने वाले स्वयंसेवी शुरू से ही शामिल होते हैं। एक बार जब प्रतिभागी कार्यक्रम पूरा कर लेते हैं तब उनसे यह उम्मीद की जाती है कि वे अपने काम में लैंगिक और अन्य सामाजिक नियमों पर विशेष ध्यान दें। इस काम में उन्हें अपने समान प्राथमिकताओं वाले साथियों और मेंटॉर की मौजूदा व्यवस्था का साथ मिलता है।
इन उदाहरणों से संकेत मिलता है कि यह विचार करना महत्वपूर्ण है कि प्रारंभिक चरण में होने पर भी किसी कार्यक्रम को कैसे बढ़ाया जाना चाहिए। कहने का मतलब यह है कि कार्यक्रमों की तब तक स्केलिंग शुरू नहीं करनी चाहिए जब तक कि वे अपनी प्रभावशीलता का सबूत पेश करने योग्य न हो जाएं। इससे नकारात्मक अनपेक्षित परिणाम या तो कम हो जाते हैं या उन्हें ख़ारिज कर दिया जाता है।
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फुटनोट:
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सामाजिक विकास संस्थाओं की सफलता के आकलन के लिए लोग उनके विकास को ही मुख्य तौर पर पैमाना मानते हैं। आगे बढ़ने की चाहत ही हमें अपने लक्ष्यों पर ध्यान लगाए रखने के लिए प्रेरित करती है—फिर चाहे वह संगठन का आकार बढ़ाने की बात हो, काम से मिल रहे नतीजों की हो, या फिर उसके प्रभाव या क्षेत्र की ही क्यों ना हो, और ऐसा करते हुए हम उस ‘मूल भावना’ के खो जाने का जोख़िम भी ले लेते हैं, जो संगठन के निर्माण का आधार थी।
वक़्त के साथ एक संगठन के तौर पर गूंज का आकार अब बड़ा हो गया है। 1999 में हमने 67 कपड़ों के साथ काम की शुरुआत की थी और आज हम 30 राज्यों व् केन्द्रशासित प्रदेशों में सालाना 9,400 टन से अधिक सामग्रियों को ‘चैनलाइज़’ करने का काम अपनी प्रमुख पहल ‘क्लॉथ फॉर वर्क’ के माध्यम से करते हैं। यह पहल लोगों के आत्मसम्मान को बनाये रखने के साथ विकास के लिए प्रेरित करती है, जिसमें गाँव के लोग अपनी समस्याओं को खुद से दूर करने के लिए सामूहिक रूप से श्रमदान करते हैं, जैसे तालाब की सफाई करना, बांस के पुल बनाना आदि। इसके बदले में गाँव वालों को शहरों से एकत्रित की गयी सामग्रियों से बनी किट को सम्मान के तौर पर दिया जाता है। इस काम को 1,000 से अधिक नियमित सदस्यों और तमाम वालंटियर्स के साथ किया जा रहा है। मेरा मानना है कि यह सब करते हुए हम ने अपने संगठन की उस मूल भावना को बनाए रखा है जिसके साथ इसे शुरू किया था।
ऐसा करने की अपनी कोशिशों के दौरान, हमने 23 सालों में जो कुछ सीखा उसे हम यहां साझा कर रहे हैं।
आपने यह कैसे तय किया कि काम के पहले साल से लेकर अब तक, आपके संगठन में ‘वैल्यू सिस्टम’ और नियम एक तरह से बने रहें?
हर सामाजिक संस्था में अपने तय ‘मूल्यों’ को बरकरार रखने का तरीक़ा अलग-अलग होता है। जब आप यह तय करते हैं कि पैसा कहां खर्च करना है, संसाधनों का उपयोग कैसे करना है और आगे बढ़ने के आपके पैमाने क्या हैं, इन सबसे मदद मिलती है… हमने पाया कि दो बातों पर ख़ासतौर पर ध्यान देने की ज़रूरत होती है।
जब संगठन के मूल्यों, नैतिकता और उसकी सोच को आगे बढ़ाने की बात आती है तब अक्सर लोग इस काम के लिए ‘फाउंडर्स’ की ओर देखते हैं। ‘फाउंडर’ वह इंसान है जो अनगिनत मूल्यों के साथ संगठन की शुरूआत करता है पर वास्तव में शुरूआती टीम ही उस विचार को संगठन की संस्कृति का रूप देती है। यही वे लोग हैं जो कि संगठन के काम करने की क्षमता का विकास करते हैं—फिर चाहे वह जोखिम लेने की क्षमता हो या फिर यह तय करना की ध्यान कहाँ ज्यादा देना है और साथ ही ‘वैल्यू सिस्टम’ को बनाए रखना भी इन्हीं पर निर्भर करता है।
जैसे-जैसे किसी संगठन का आकार बढ़ता है, ‘फाउंडर’ अक्सर नए नियुक्तियों से दूर होते चले जाते हैं। इसलिए, यदि शुरूआती टीम को संस्था के ‘लक्ष्यों’ और ‘दूरदर्शिता’ से परिचित कराया जाए और उन पर भरोसा जताया जाए तो टीम के सदस्य आगे चलकर जुड़ने वाले नए लोगों को संगठन के ‘वैल्यू सिस्टम’ से परिचय करवाने का काम करेंगे, उनके बाद के लोग अपने बाद आने वालों तक इसे पहुंचाएंगे और यह क्रम चलता रहेगा।
यह भी ध्यान रखना ज़रूरी है कि ‘शुरूआती टीम’ केवल उन लोगों तक सीमित नहीं है जो संगठन की स्थापना के समय बोर्ड में शामिल हुए थे। हर बार जब आप विस्तार करते हैं—फिर चाहे वह विस्तार विभागीय स्तर पर हो, भौगोलिक स्तर पर हो या सेक्टर में—आपके सामने एक नई टीम होती है जिसमें समय, ऊर्जा और संसाधनों के निवेश की ज़रूरत होती है।
एक सामाजिक विकास संस्था के तौर पर हमें हमेशा इस बात का सामना करते रहना पड़ता है कि हमारे पास उस काम के लिए पर्याप्त फ़ंडिंग नहीं है जो हम करना चाहते हैं। इसलिए हम अपने कार्यक्रम में कुछ ऐसे बदलाव करते चले जाते हैं जो कि फंडर के अनुकूल हो, ऐसा करना कभी संगठन के पक्ष में हो सकता है और कई बार उससे हटकर भी, ऐसे में अपने मूल उद्देश्यों को ध्यान में रखना और उसके आधार पर अपने फ़ैसलों को आंकना बहुत जरुरी होता है।
उदाहरण के लिए, 2004 में जब हिंद महासागर में सुनामी आई थी तब गूंज को काम करते हुए सात साल भी नहीं हुए थे। हमारी टीम में 15 से कम सदस्य थे और सालाना टर्नओवर कुछ लाख रुपये ही था। उस समय हमारे सामने ऐसे प्रस्ताव भी आए जिनमें यह कहा गया कि अगर हम सुनामी प्रभावित इलाक़ों में घर बनाते हैं तो हमें लाखों रुपये और संसाधन मुहैया कराये जाएंगे। इन पैसों से हमें बहुत अधिक मदद मिल सकती थी; हम अपने लिए एक बड़ा दफ़्तर बना सकते थे, ज़्यादा लोगों को काम पर नियुक्त किया जा सकता था और अपने कामकाज को भी बढ़ाया जा सकता था। साथ ही, हम घर बनाकर ‘पुनर्वास’ की एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया का हिस्सा बन सकते थे। इसके बावजूद हमें ना कहना पड़ा क्योंकि हमारा संगठन घर बनाने के लिए नहीं बनाया गया था। मुझे लगता है कि हमें यह खुद को याद दिलाते रहना चाहिए कि हम जब भी कुछ करना चुनते हैं तो वह कुछ और करने की क़ीमत पर पर होता है।
मैं यकीनन यह कह सकता हूं कि अगर उस समय हमने वह फंड लिया होता तो आज हम शायद अलग होते और वह सब नहीं सीख पाते जो हमने सीखा। हम समुदाय की मदद से होने वाले विकास और सीमित संसाधनों में काम करने के महत्व को नहीं समझ पाते।
किसी सामाजिक विकास संस्था को चलाने के लिए जहां फंडिंग बहुत ज़रूरी है वहीं हमें यह याद रखना भी ज़रूरी है कि फंड के अलावा और भी संसाधन मौजूद हैं जैसे कौशल, समुदाय आदि जो कि किसी भी तरह से किसी बड़ी मुद्रा से कम नहीं हैं, और आपके सामने ऐसी परिस्थितियां आती रहती हैं जब ये संसाधन, आपकी नैतिकता और मूल्यों के साथ आपको खुद के प्रति सच्चे रहने में मदद करती हैं।
एक ‘डेवलपमेंट प्रैक्टिशनर’ के रूप में हम उन समुदायों की गरिमा का तो ख़्याल रखते हैं जिनके लिए हम काम कर रहे होते हैं लेकिन अपनी टीम की गरिमा पर उतना ध्यान नहीं देते हैं। हमें खुद को लगातार यह याद दिलाते रहने की ज़रूरत है कि ‘सिस्टम’ और ‘प्रोसेस’ ज़रूरी तो है ही साथ ही यह भी कि इसे लोगों का ध्यान रखने के लिए ही बनाया गया था।
अगर हम इस नज़रिए से देखें तो हमारे लिए यह समझना आसान होगा कि हमारी प्राथमिकता हमारे संगठन के लोग भी हैं और हमारी अंदरूनी नीतियां और व्यवस्थाएं उनके अनुकूल होनी चाहिए। हम यहां कुछ तरीक़ों के बारे में बता रहे हैं जो आपको अपनी टीम के लिए सही निर्णय लेने में मदद कर सकते हैं।
किसी भी संगठन या सामाजिक विकास संस्था के लिए यह जरूरी है कि वह अपने बाहरी हितधारकों, मदद की सामग्री या पैसे देने वाली इकाइयों, अपने बोर्ड और अपने साथ काम करने वाले समुदायों के प्रति पारदर्शिता बरतें। लेकिन सबसे ज़रूरी यह है कि आप अपने संगठन के लोगों के प्रति भी पारदर्शी रहें। इसके लिए हमने कुछ तरीक़े अपनाए जो कारगर साबित हुए:
पिछले कुछ वर्षों में, गूंज में, हमने अपनी वास्तविक क्षमता को जानने के लिए विचारों को अधिक प्राथमिकता दी है। टीम के सदस्यों के पास एक ही तरह के काम या प्रोजेक्ट से बंधे रहने के बजाय अलग-अलग कार्यों और क्षेत्रों को समझने का अवसर होता है। इससे वे खुद के बारे में और अच्छी समझ बना पाते हैं और साथ ही उन्हें अपनी असल विशेषज्ञता विकसित करने में भी मदद मिलती है।
यहाँ कुछ अन्य तरीके दिए गए है जो लोगो को उनकी क्षमता का एहसास कराने में मदद कर सकते है:
अगर आप चाहते हैं कि आपकी टीम खुद को निजी स्तर पर संगठन से जोड़े तो एक संगठन के तौर पर आपको भी उनसे जुड़ना होगा। इसका मतलब है कि टीम के सदस्यों के बुरे वक़्त में आपको उनका साथ देना होगा। यदि टीम का कोई सदस्य या उसके परिजन किसी भी तरह की आर्थिक तंगी या चिकित्सीय समस्या से जूझ रहे हैं या किसी दूसरी तरह कि परेशानियों से घिरे हैं तो ऐसे वक़्त में उनकी मदद करने और साथ देने के लिए संगठन से किसी सदस्य को उनके साथ होना चाहिए।
इसी तरह टीम के सदस्यों की ख़ुशी के अवसर पर भी हम उनके साथ होते हैं। उदाहरण के लिए उनके बच्चों की पढ़ाई पूरी होने के अवसर पर, कॉलेज या स्कूल में नामांकन होने या शादी के समय हम उनके साथ होते हैं। हम यह यकीन दिलाने कि कोशिश करते हैं कि हम संगठन में अपनी टीम के सदस्यों के व्यक्तिगत जीवन के अच्छे और बुरे दोनों ही समय के लिए जगह बना सकें। एक संस्था के तौर पर गूंज का काम इस सिद्धांत पर आधारित है कि अगर आप लोगों को अहमियत देते हैं। और उनका सम्मान करते हैं तो इसका बड़ा असर देखने को मिल सकता है। यह असर न केवल संगठन के लिए उनके सहयोग में दिखाई देता है बल्कि उनके जीवन और जीवन की चुनौतियों का सामना करने के तरीक़े में भी नज़र आता है।
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