हमने अपनी और विकास सेक्टर में काम करने वाले अपने साथियों की स्थिति पर बेहद गहन विचार-विमर्श किया। ऐसा करने पर हमें कुछ अधिकारों की जरूरत महसूस हुई जिनकी मांग हमने यहां रखी है। चूंकि ये अधिकार हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं और हमारी जिंदगी को आसान बना सकते हैं, इसलिए हमने इन्हें ‘सुविधानिक अधिकार’ नाम दिया है। ये कुछ इस प्रकार हैं:
क्या आप जानते हैं कि हमारे संविधान में 1.4 लाख से अधिक शब्द हैं और यह दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है। क्या आपने कभी इसे पढ़ने और समझने पर विचार किया है? अगर आपका उत्तर हां है तो यह वीडियो आपको भारतीय संविधान की संरचना और सूची को समझने में मदद करेगा।
यह वीडियो मूल रूप से वी, द पीपल अभियान में प्रकाशित हुआ है।
कर्नाटक के बागेपल्ली गांव के शिवप्पा एक सीमांत किसान हैं जो तेजी से हो रहे जलवायु परिवर्तन के मुताबिक ढलने के लिए हर संभव कोशिश कर रहे हैं। कई पीढ़ियों से उनका परिवार आधे हेक्टेयर से भी कम जमीन पर खेती कर अपना भरण-पोषण करता रहा है। लेकिन अब मानसून का सही पूर्वानुमान लगा पाना मुश्किल होता जा रहा है, बारिश या तो बहुत देर से होती है या बहुत जल्दी हो जाती है। लंबे समय तक सूखे जैसे हालात के कारण कभी जमीन सूख जाती है और फिर बारिश आने के साथ बाढ़ आ जाती है। भूजल भी लगातार कम होता जा रहा है। इसके चलते उन्हें अपने कुओं को और गहरे खोदना पड़ा जिसका खर्च उठाने के लिए वे कर्ज लेने पर भी मजबूर हुए। कीट और बीमारियां भी फसलों को कमजोर कर देती हैं। हमेशा से आत्मनिर्भर रहा उनका परिवार अब आर्थिक संकटों और खाद्य असुरक्षा का सामना कर रहा है।
शिवप्पा जैसे सीमांत किसान – जो एक हेक्टेयर से कम जमीन पर खेती करते हैं – भारत के कृषि क्षेत्र को सशक्त बनाते हैं और किसान समुदाय का लगभग 70% हिस्सा हैं। फिर भी, दस करोड़ लोगों का यह समुदाय आर्थिक और सामाजिक संकेतकों पर खराब प्रदर्शन कर रहा है और जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा प्रभावित है। बार-बार आने वाली लू (हीट वेव), सूखा, अनियमित बारिश और बाढ़ जैसी आपदाएं, प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र का संतुलन बिगाड़ती हैं और किसानों के लिए खेती करना दिन पर दिन अधिक चुनौतीपूर्ण बनाती हैं। इससे वे किसान सबसे अधिक प्रभावित होते हैं जिनके पास जमीन और अनुकूलन उपायों पर खर्चने के लिए धन कम है। असल में, जलवायु परिवर्तन पर काम करने वाले कई देशों के सरकारों के दल (इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज-आईपीसीसी) ने पाया है कि भारत, खेती के लिहाज से जलवायु जोखिमों के मामले में पूरे एशिया में सबसे कमजोर स्थिति में है।
कई अध्ययन सुझाते हैं कि अनुकूलन उपायों के बगैर, प्रमुख फसलों की पैदावार में काफी गिरावट आ सकती है। इससे किसानों की आजीविका के साथ-साथ, देश की खाद्य सुरक्षा भी खतरे में पड़ सकती है। वैसे तो सरकार ने अनुकूलन प्रयासों के लिए एक बड़ी रकम – 2024 से 2030 के लिए 57 लाख करोड़ रुपये – तय की है। लेकिन पिछले कुछ सालों में जलवायु परिवर्तन के लिए नेशनल अडाप्टेशन फंड को दिया जाना वाला धन लगातार और तेजी से कम हुआ है। यह फंड स्थानीय और क्षेत्रीय स्तर पर जलवायु से जुड़ी चुनौतियों से निपटने की परियोजनाओं को जारी रखने के लिए महत्वपूर्ण है। इसमें गिरावट कुछ इस तरह है कि साल 2015-16 में जो रकम 118 करोड़ रुपए थी, वह 2022-23 में घटकर लगभग 20 करोड़ रुपए रह गई है। देश के सामने आई इस भीषण अनुकूलन चुनौती से निपटने के लिए न केवल सरकारी मदद चाहिए बल्कि निजी वित्तीय प्रयास (फिलैन्थ्रपी और निवेश दोनों के जरिए) भी किए जाने की जरूरत है।
अनुकूलन के लिए जरूरी यह धन, कृषि समुदायों की आजीविका को मजबूत करने और जलवायु संकट से निपटने में सक्षम बनाने की दिशा में कैसे जा सकता है? यह समझने के लिए हमने हाल ही में, एचएसबीसी इंडिया के सहयोग से आंध्र प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में लगभग 800 किसानों और 150 खेतिहर मजदूरों का सर्वेक्षण और गहन साक्षात्कार करने के साथ-साथ इलाके का दौरा कर एक अध्ययन किया है। इन राज्यों को एग्रोइकोलॉजिकल जोन्स, इलाके में उगाई जाने वाली फसलों और जलवायु से जुड़े खतरों के अलग-अलग संयोजन सुनिश्चित करने के लिए चुना गया था। अध्ययन में वंचित तबकों जैसे महिलाओं, दलित और आदिवासी समुदाय के सदस्यों पर ध्यान केंद्रित किया गया।
सर्वेक्षण में शामिल 98% किसानों का कहना था कि उन्होंने पिछले 10 सालों में जलवायु से जुड़े खतरों का अनुभव किया है। कई सीमांत किसान, परिवार के उपयोग के लिए फसल उपजाते हैं और बचा हुआ अनाज बेच देते हैं। हमने जिनसे बात की उनमें से 79% किसान सालाना 40,000 रुपये से कम कमाते हैं, जो लगभग चार लोगों के परिवार के लिए गरीबी रेखा के बराबर है। केवल 16% ही इतना कमाते हैं कि वे अपने घरेलू खर्चों को पूरा कर सकें और उनके पास बचत हो। सर्वेक्षण में हिस्सा लेने वालों का एक बड़ा हिस्सा अन्य कामों जैसे जानवर पालने, पशु उत्पाद बेचने और कभी-कभी मिलने वाले श्रम कार्य से अपनी कमाई पूरी करते हैं। इस दौरान केवल 15% किसानों और 13% खेतिहर मजदूरों ने आय का कोई अन्य जरिया ना होने की बात कही है।
सर्वेक्षण के दौरान अपनी आय बहुत कम (40,000 रुपये या उससे कम) बताने वालों में आदिवासी और दलित समुदाय के लोग अधिक थे। आदिवासी और दलित समुदाय से आने वाले किसानों और श्रमिकों ने बताया कि उनके पास ग्राम पंचायत, किसान समूह, स्वयं सहायता समूह या सरकारी सहायता प्राप्त कार्यक्रम तक पहुंच जैसी कोई सहायता प्रणाली नहीं है। कम बचत और संपत्ति के साथ, ये किसान निर्वाह-स्तर की खपत पर निर्भर हैं और इनके सामने स्वास्थ्य और शिक्षा से जुड़े जोखिम भी अधिक होते हैं। जब जलवायु आपदाओं के चलते इनकी आजीविका छिन जाती है तो परिवार अक्सर भोजन में कटौती करते हैं, बच्चों (खासकर लड़कियों) को स्कूल से निकाल लेते हैं, उत्पादक परिसंपत्ति (सोना, घर, जमीन, बचत बॉन्ड वगैरह) बेच देते हैं, या ऐसे ही अन्य नकारात्मक समाधान अपनाते हैं।
उनके सामने आने वाली कठिनाइयों के बारे में विस्तार से पूछे जाने पर, सर्वेक्षण में हिस्सा लेने वालों ने जलवायु-संबंधी समस्याओं की पहचान की, जो सामाजिक-आर्थिक और प्रणालीगत चुनौतियों के साथ मिलकर, उनके लिए जोखिम और बढ़ा देती हैं। एक मुद्दा जिसका सबसे अधिक जिक्र किया गया वह कीटों और बीमारियों के बढ़ने का था, इसके बाद जल संकट दूसरे नंबर पर था। इसके अलावा मिट्टी की उर्वरता में कमी, मुश्किल से या ना मिल सकने वाले खेती के संसाधन और फसल की कम कीमतें भी प्रमुख मुद्दों में शामिल रहा। ज्यादातर लोगों का कहना था कि खेती से जुड़े उनके फैसलों जिनमें बीज की किस्में बदलना, काम के घंटे और खेती के तरीके बदलना शामिल है, सभी पर जलवायु परिवर्तन का असर पड़ा है।
सर्वेक्षण में शामिल किसानों के पास, पारंपरिक ज्ञान और स्थानीय संदर्भों की समझ है और वे यह भी जानते हैं कि जलवायु परिवर्तन से उनके खेती के तरीकों में बदलाव आ रहा है। लेकिन अनुकूलन की जरूरत कहां पर है, यह बात अच्छी तरह से जानने के बाद भी उनके जीवन को प्रभावित करने वाले फैसलों और समाधानों से उन्हें बाहर रखा जाता है। सीमांत किसानों के पास कम आर्थिक संपत्ति होती है जिस पर वे निर्भर हो सकें, और सामाजिक सहयोग हमेशा उन तक नहीं पहुंच पाता है। उदाहरण के लिए, अनेक किसानों के पास अपनी भूमि का स्वामित्व नहीं है लेकिन सरकारी योजनाओं का लाभ उठाने के लिए जमीन का मालिकाना हक जरूरी है। यह किराए की जमीन पर खेती करने वाले किसानों, भूमिहीन खेत मजदूरों और उन सभी को अयोग्य घोषित करती हैं, जिनके पास अपनी जमीन नहीं है।
यह जरूरी है कि अनुकूलन में निवेश, स्थानीय समुदायों की समझ और प्राथमिकताओं के अनुसार हो, इस मामले में एक समाधान सभी के लिए कारगर नहीं हो सकता है। हमारे सर्वेक्षण के एक हिस्से के तौर पर, हमने समुदायों से जलवायु चुनौतियों से निपटने के संभावित समाधानों के बारे में बात की। उन्होंने यह कुछ सुझाव दिए हैं और हमारा मानना है कि अगर सरकार और निजी फंडर्स अपना निवेश बढ़ाते हैं तो यह उपयोगी साबित हो सकते हैं:
इनमें से कुछ समाधान पहले से ही देश के विभिन्न हिस्सों में समाजसेवी संगठनों द्वारा कार्यान्वित किए जा रहे हैं, लेकिन कई छोटे किसानों और खेतिहर मजदूरों तक पहुंचने के लिए इन्हें और बढ़ाया जा सकता है। समाजसेवी समुदाय (फिलैंथ्रॉपिस्ट) और इन्पैक्ट फर्स्ट निवेशकों द्वारा उत्प्रेरक निवेश, नवाचारों को बढ़ावा दे सकते हैं, सबूत तैयार कर सकते हैं, जोखिमों को कवर कर सकते हैं और अधिक लोगों को भाग लेने के लिए एक सक्षम पारिस्थितिकी तंत्र (इकोसिस्टम) का निर्माण कर सकते हैं। उनके सहयोगात्मक प्रयास, सरकारी योजनाओं और बैंकों द्वारा दी जाने वाली पूंजी तक पहुंचने में मदद कर सकते हैं और संकटग्रस्त किसान समुदायों को फिर से जलवायु परिवर्तन से होने वाली चुनौतियों के लिए तैयार कर सकते हैं।
ब्रिजस्पैन की पूरी रिपोर्ट यहां पढ़ें।
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कल्पना करिए कि मध्य भारत के एक छोटे से गांव में, रामू किसान को अपना खेत जोतते हुए कुछ पुराने और कीमती सिक्के मिलते हैं। खुश होकर, वह इन सिक्कों को 1500 रुपए की मामूली सी कीमत पर बेच देता है। लेकिन ये खुशी थोड़ी ही देर की है क्योंकि उसे पता चलता है कि जिला अधिकारियों को खजाना मिलने की खबर न देने के कारण अब उस पर इंडियन ट्रेजर ट्रोव एक्ट, 1878 के तहत मुक़दमा चलेगा। अब रामू को एक साल के लिए जेल जाना पड़ सकता है।
यह अस्पष्ट और गुजरे जमाने का कानून, उन कई कानूनों में से एक है जो एक आम नागरिक को अपराधी में बदल सकते हैं। असल में, भारतीय कानून में 6000 से अधिक ऐसे अपराध हैं जो किसी के भी लिए जेल जाने का खतरा पैदा कर सकते हैं। आपराधिक कानूनों पर यह अतिनिर्भरता, अक्सर सामाजिक व्यवस्था और नैतिकता की अपनी धारणाओं से निकलती है और छोटी गलतियों का अपराधीकरण एक बड़े मुद्दे की ओर इशारा करता है। यह मुद्दा है – आपराधिक कानूनों को कब और कैसे लागू किया जाना चाहिए, यह बताने वाली किसी स्पष्ट नीति का ना होना।
आपराधिक कानूनों को लेकर स्पष्टता की कमी इसका राजनीतिकरण होने देती है। यह सरकार की चुनौतियों (जैसे शासन-व्यवस्था बनाए रखने) से निपटने में एक सहज और लगभग स्वीकार्य प्रतिक्रिया बन गई है, जबकि इसके लिए अन्य प्रकार की नागरिक कार्रवाइयां (जैसे जुर्माना लगाना) भी अपनाई जा सकती हैं। आपराधिक कानूनों पर हमेशा बनी रहने वाली यह निर्भरता, इस आधुनिक और लोकतांत्रिक भारत के स्वतंत्रता, न्याय और उदारता जैसे संवैधानिक मूल्यों के साथ संगत नहीं है।
लोगों को उनके जीवन और स्वतंत्रता से वंचित रखने की क्षमता को देखें तो आपराधिक कानून सरकार का एक शक्तिशाली साधन बन जाते हैं। खासतौर पर जब बात सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने की आती है। परंपरागत रूप से, आपराधिक कानून जीवन, स्वतंत्रता, शासन व्यवस्था और राज्य की सुरक्षा के लिए होते हैं और इन्हें नुकसान पहुंचाने वाले आचरणों को रोकते और दंडित करते हैं। आजादी के बाद बनाए गए कई विशेष कानूनों के साथ भारतीय दंड संहिता, 1860 भी इस नजरिए के अनुरूप थी। बीते दशकों में, नए कानूनों के बनने के बाद भी आपराधिक कानून के इस्तेमाल को निर्देशित करने वाली धारणाएं जस की तस बनी हुई हैं।1 इन सिद्धांतों में समाज और राजनीतिक व्यवस्थाओं के लिए जरूरी मूल्यों की रक्षा करना और यह तय करना शामिल है कि संवैधानिक अधिकारों का अपराधीकरण ना होने पाए। साथ ही,2 इन मूल्यों को सुरक्षित रखने के लिए एक तार्किक और उचित दंड व्यवस्था बनाना भी शामिल है।
हालांकि, अपवाद हमेशा से ही रहे हैं। उपनिवेश काल से राजद्रोह और मानहानि जैसे अपराध कानूनों का इस्तेमाल अक्सर असहमति को दबाने, और स्वतंत्रता आंदोलन समेत तमाम राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों को कुचलने के लिए किया जाता रहा है। इसी तरह विक्टोरियन नैतिकता भी भारतीयों पर थोपी गई और समलैंगिक संबंध व विवाहेतर संबंधों को अपराध घोषित कर दिया गया, जिसे हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने रद्द किया है। भीख मांगने और नशा करने को अपराध बताना भी सामाजिक मुद्दों से निपटने में अपराध कानूनों पर जरूरत से ज्यादा निर्भरता को दिखाते हैं। यह बताता है कि सरकारी प्रतिक्रियाओं में अक्सर बारीकियों का ध्यान रखे जाने और गहन विचार-विमर्श की कमी दिखाई देती है।
ऊपर जिक्र किए उदाहरण समस्या का एक सिरा भर हैं। बीते कुछ समय से, कई तरह की नागरिक प्रतिक्रियाओं को नियंत्रित करने के लिए अपराध कानूनों का इस्तेमाल करने का चलन बढ़ रहा है। यहां तक कि जब यह प्रक्रियाएं सामाजिक व्यवस्था, जीवन, संपत्ति या राज्य की सुरक्षा के लिए खतरा नहीं होती हैं, तब भी ऐसा किया जाता है? असल में अपराध कानून भारत में रोजाना के शासन-प्रशासन के केंद्र में आ गए हैं।
उदाहरण के लिए, साधारण नियमों का पालन न करना जैसे पंजीकरण की औपचारिकताओं को पूरा ना करना, आर्थिक दस्तावेजों का ठीक से प्रबंधन ना करना या समय पर सरकारी विभाग तक उसकी जानकारी ना पहुंचाना, पालतू जानवरों से ठीक से व्यवहार ना करना, किसी सरकारी अधिकारी की प्रशासनिक शक्तियों के प्रयोग में बाधा डालना या सड़क पर लाल बत्ती पार करना आदि जैसी गतिविधियां, किसी को जेल पहुंचा सकती हैं। गौर करने वाली बात है कि अगर कोई अपने आर्थिक दस्तावेजों का एकदम सही प्रबंधन नहीं करता है तो ऐसे 14 कानून हैं जो इसे अपराध बताते हैं और इसके लिए उसे दो साल तक की सजा भी हो सकती है। इसी तरह, 20 कानून हैं जो बताते हैं कि सरकारी अधिकारी के काम (शक्ति के प्रयोग) में बाधा डालना अपराध है जिसके लिए जेल और जुर्माना हो सकता है। लेकिन इन कानूनों में बाधा डाले जाने को स्पष्टता से नहीं बताया गया है।
मामूली उल्लंघनों के लिए अपराध कानूनों पर निर्भर होना एक ऐसी प्रणाली को मजबूती देता है जो न केवल बहुत सख्त है बल्कि आधुनिक लोकतांत्रिक समाज के लिहाज से भी उपयुक्त नहीं है।
भले ही, ऐसा नियमों का कड़ाई से पालन सुनिश्चित करने के लिए किया गया हो, लेकिन मूलभूत सवाल यह उठता है कि क्या अपराध कानून इस उद्देश्य के लिए उपयुक्त साधन हैं? क्या हत्या और बलात्कार जैसे गंभीर मामलों में न्याय करने के लिए बनाए कानूनों का इस्तेमाल इसके लिए भी हो सकता है कि किसी ने अपने दस्तावेज सही समय पर नहीं जमा किए, या सफाई कर्मचारी ने समुचित औपचारिकता के बगैर छुट्टी ली, या फिर कोई बिना इंश्योरेंस की गाड़ी चला रहा था? गंभीर अपराधों और छिटपुट उल्लंघनों के बीच स्पष्ट सीमारेखा ना होने से, न केवल अपराध कानून और इन्हें लागू करने वालों की भूमिका का विस्तार होता है बल्कि, इससे न्याय व्यवस्था का मूल उद्देश्य भी समाप्त हो जाता है। अपराध कानून केवल उन गंभीर अपराधों के लिए होने चाहिए जिनसे मानव जीवन, संपत्ति या सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था को खतरा हो। छोटे-मोटे उल्लंघनों के लिए भी उतना ही सख्त रवैया अपनाया जाना और दोनों के बीच के अंतर को ना समझना, अपराध क़ानूनों के मूल उद्देश्य को कमजोर करता है।
इसके अलावा, यह नजरिया एक ऐसी संस्कृति को बढ़ावा देता है जहां दंड और अवरोध को कानूनों को लागू करने का एकमात्र तरीका माना जाता है। मामूली उल्लंघनों के लिए अपराध कानूनों पर निर्भर होना एक ऐसी प्रणाली को मजबूती देता है जो न केवल बहुत सख्त है बल्कि आधुनिक लोकतांत्रिक समाज के लिहाज से भी उपयुक्त नहीं है, जहां दंडात्मक उपायों को सुधार उपायों से बदला जा रहा है। यह नजरिया वर्तमान नागरिक-सरकार संबंधों के साथ भी मेल नहीं खाता है क्योंकि अब इस संबंध को शिक्षा, प्रोत्साहन और सामाजिक जुड़ाव के जरिए मज़बूत किए जाने पर जोर दिया जाता है।
अपराध कानूनों का मनमाना उपयोग अत्यधिक अपराधीकरण पर जाकर नहीं रुकता है। सजा तय करने में असंगतता और अतार्किकता इसे और उलझन भरा बना देती हैं। रामू के उदाहरण पर वापस जाएं तो खजाना मिलने की जानकारी न देने के कारण उसे एक साल तक की कैद का सामना करना पड़ सकता है। विडंबना यह है इतनी ही सजा तब भी दी जा सकती है जब कोई किसी को आपत्तिजनक बात कहकर उसका यौन उत्पीड़न करता है या किसी से उसकी इच्छा के खिलाफ काम करवाता है।
भारत के आपराधिक कानून का परिदृश्य ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जहां अलग-अलग अपराधों के लिए समान रूप से सजा दी जाती है। या फिर इसके उलट, समान अपराधों के लिए अलग-अलग तरह से सजा दी जाती है। उदाहरण के लिए, मानहानि के लिए दो साल तक की कैद की सजा का प्रावधान है और यही सजा तब भी दी जाती है जब कोई किसी बच्चे के जन्म को छुपाने के लिए, उसकी लाश को छुपाता है। इसी तरह, अदालत में झूठा बयान देने और किसी महिला के साथ क्रूरता करने, दोनों अपराधों के लिए के लिए तीन साल की सजा है। दूसरी तरफ देखें तो सरकारी अधिकारी के काम में दखल देने के लिए मर्चेंट शिपिंग एक्ट, 1958 के तहत 200 रुपए का जुर्माना है, ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट, 1940 के तहत यह सजा तीन साल तक की जेल है और फूड सेक्योरिटी एंड स्टैंडर्ड एक्ट, 2006 के तहत महज तीन महीने की सजा काफी है।
हालांकि कारावास की अवधि अपराध की गंभीरता को दिखाती है – अपराध जितना अधिक गंभीर, सजा उतनी ही कठोर – लेकिन इसमें विसंगतियां साफ दिखाई देती हैं। उदाहरण के लिए, जहां गंभीर उकसावे के बगैर हमला करने या आपराधिक बल प्रयोग करने पर तीन महीने तक की कैद की सजा हो सकती है, वहीं बाड़े से मवेशियों को छुड़ाने पर छह महीने तक की कैद की सजा हो सकती है।
एक ऐसा देश जहां रोजमर्रा के प्रशासनिक मामलों के लिए अपराध कानून पर इतनी अधिक निर्भरता है, वहां यह तय करने में स्पष्टता नहीं है कि कौन से अपराध के लिए क्या सजा दी जानी चाहिए। इस असंगति की जड़ शायद उस समझ की कमी है कि सज़ा किस उद्देश्य से तय की जानी चाहिए। उदाहरण के लिए, खजाना मिलने की खबर ना देने वाले को एक साल की सजा देने का क्या तुक है? इसी तरह संपत्ति कर देने में देरी और महिला के साथ क्रूरता किए जाने में क्या तुलना है कि दोनों के लिए तीन साल तक सजा देने का प्रावधान है? ये अपराध अपनी प्रवृत्ति में एकदम अलग हैं, फिर भी कानून उनके साथ एक जैसा व्यवहार करता है। सजा प्रभावी होने के साथ सुधार लाने वाली होनी चाहिए, न कि केवल हतोत्साहित करने वाली। सरकार को अलग-अलग तरह के अपराध के दोषियों के लिए अलग-अलग नजरिया अपनाना चाहिए।
बीते दो सालों में, इन मुद्दों को हल करने और शासन में अपराध कानूनों की भूमिका का दोबारा आकलन करने के उद्देश्य से कुछ नीतिगत बदलाव होते दिखे हैं। भारतीय न्याय संहिता (बीएमएस), 2023, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस), 2023, और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (बीएसए), 2023, का उद्देश्य आपराधिक न्याय व्यवस्था को आधुनिक बनाना और उपनिवेशवाद की छाया से मुक्त करना है। इसके लिए इन नई किताबों में नागरिक केंद्रित प्रक्रियाओं, तेजी से निराकरण के लिए समयसीमा, फ़ॉरेंसिंक और तकनीक का इस्तेमाल, पीड़ित केंद्रित न्याय व्यवस्था और सजा के ऊपर न्याय को वरीयता देने पर जोर दिया गया है। इसी तरह, जन विश्वास (अमेंडमेंट ऑफ प्रोविज़न) एक्ट, 2023 में भारत में व्यापार से जुड़ी प्रक्रियाओं को आसान बनाने के इरादे के साथ अपराधों के लिए सजा का गैर-अपराधिकरण करने और उन्हें तर्कसंगत बनाने की मांग की गई है।
भारत का विधायी (लेजिस्लेटिव) परिदृश्य आपराधिक प्रावधानों और ऐसे दंडों से भरा है जो कि अपराध के अनुरूप नहीं हैं।
भले ही ये सुधार मौजूदा व्यवस्था के भीतर समस्याओं को स्वीकार करने की दिशा में एक सकारात्मक कदम हैं, लेकिन वे यथास्थिति को बदल पाने में असफल ही रहे हैं। उदाहरण के लिए, बीएनएस मनमाने ढंग से दंड देना जारी रखता है। मानहानि, राजद्रोह और धर्म के खिलाफ अपराध जैसे अपराध पुराने मापदंडों के साथ किताब में बने हुए हैं। ध्यान खींचने वाला एक मात्र जुड़ाव, अतिरिक्त सजा के तौर पर सामुदायिक सेवा की शुरूआत है, लेकिन यह प्रावधान केवल छह अपराधों पर लागू होता है जिससे इसका प्रभाव सीमित हो जाता है।
संक्षेप में, भारत का विधायी (लेजिस्लेटिव) परिदृश्य आपराधिक प्रावधानों और ऐसे दंडों से भरा है जो कि अपराध के अनुरूप नहीं हैं, साथ ही प्रशासनिक व्यवस्था भी अपराधीकरण पर जरुरत से ज्यादा निर्भर है।
आपराधिक कानून उन मामलों तक सीमित होना चाहिए जो लोगों, सार्वजनिक व्यवस्था, सुरक्षा, या संपत्ति को नुकसान पहुंचाते हैं या उससे संबंधित होते हैं। उदाहरण के लिए, क्रोएशिया और स्लोवेनिया जैसे देशों में दंड संहिताएं हैं जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मानवाधिकारों पर खतरा होने या उनका उल्लंघन करने वाले कृत्यों के लिए आपराधिक प्रतिबंधों पर ही बात करती हैं।
इससे परे के मुद्दों के लिए, जिनके लिए अभी भी विनियमन की आवश्यकता है, सरकार को सजा के विकल्प या कम से कम सजा के वैकल्पिक रूपों पर विचार करना चाहिए। उदाहरण के लिए, ऑस्ट्रेलिया में कई विकल्प होते हैं, जैसे गहन सुधार आदेश, ड्रग्स और शराब उपचार आदेश, और गैर-दोषी आदेश – जो अदालत को अपराध के अनुरूप सजा देने के लिए उचित विकल्प प्रदान करते हैं।
हालांकि, आपराधिक कानूनों की नई कल्पना करने के लिए कुछ जरूरी सवालों पर विचार करने की जरूरत होगी: आधुनिक भारत के लिए आपराधिक कानून का असली उद्देश्य क्या है? लोगों को सजा देने से कौन से उद्देश्य पूरे होते हैं? क्या इन उद्देश्यों को पाने के लिए और अधिक प्रभावी विकल्प हैं? और आखिर में, क्या हम आचरण को अपराध बनाकर या केवल नई समस्याएं पैदाकर किसी समस्या का समाधान कर रहे हैं?
आपराधिक कानून-निर्माण पर एक ठोस नीति – जिसमें अपराधीकरण के मानदंड, कानून के मसौदे पर लोगों की राय का आकलन और सजा के स्वरूप और मात्रा निर्धारित करने के नियम शामिल हैं, गैर-जरूरी और मनमाने अपराधीकरण को खत्म करने में मदद कर सकती है। इसी तरह, सजा निर्धारित करने की एक रूपरेखा, जेल की शर्तों और जुर्माने के उपयोग की अधिक उपयुक्त और स्थिर व्यवस्था तय कर पाएगी। न्यायाधीशों के लिए स्पष्ट रूप से सजा के लिए निर्धारित दिशानिर्देशों की गैरमौजूदगी में, इस तरह की रूपरेखा यह तय करने में महत्वपूर्ण बदलाव ला पाएगी कि दंड अपराध के अनुरूप हो।
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इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
क्या ज्यादा जरूरी है: काम करना या अपने काम का प्रचार करना?
हमारे देश में हजारों छोटे-बड़े जन संगठन मौजूद हैं जो जनता के मुद्दों पर लगातार संघर्ष कर रहे हैं। यहां जन-संगठन से अर्थ उन संस्थानों से है जो समुदायों के साथ सीधे जमीन पर काम कर रहे हैं। इन्हें समाजसेवी संस्थाओं या एनजीओ से अलग देखे जाने की जरूरत है।
पारंपरिक संस्थाओं से अलग जन संगठनों में से ज्यादातर का कोई औपचारिक ढांचा नहीं होता है। यहां तक कि इनमें कार्यकर्ताओं की मासिक आमदनी की कोई तय व्यवस्था भी नहीं होती है। ये मूलरूप से, समुदाय के लोगों द्वारा अपने मुद्दों को लेकर खुद ही संघर्ष किए जाने के विचार के साथ काम करते हैं। इस तरह जन संगठनों के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह होती है कि कैसे वे अपने जमीनी प्रयासों को जारी रखते हुए, अपने कार्यकर्ताओं के दैनिक जीवन की जरूरतें भी पूरी कर सकें।
बनारस की मनरेगा मजदूर यूनियन के प्रमुख, सुरेश राठौड़ बताते हैं कि जनता के काम में उसकी भागीदारी तय करना जरूरी है। हमारा प्रयास होता है कि जनता के काम के लिए जनता से ही पैसा जुटाया जाए। इसे और समझाते हुए महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले में कार्यरत सर्वहारा जन आंदोलन की प्रमुख उल्का महाजन कहती हैं, “हमें ध्यान रखना चाहिए कि अगर हम कोई संगठन बना रहे हैं तो वह समुदाय की जरूरत होनी चाहिए, किसी एक व्यक्ति या कुछ संगठन कार्यकर्ताओं भर की नहीं। संगठन के शुरुआती दिनों में ही हमने तय कर लिया था कि हम किसी प्रोग्राम के लिए फंडिंग नहीं लेंगे और संगठन की आर्थिक जरूरतों को सदस्यता शुल्क और व्यक्तिगत सहयोग से ही पूरा किया जाएगा।” वे आगे बताती हैं कि शुरुआत में लोगों को बताना पड़ा कि संगठन के काम के लिए आर्थिक सहयोग की जरूरत होती है, लेकिन अब समय के साथ लोग समझ गए हैं और सदस्यता राशि या किसी कार्यक्रम के लिए चंदा जमा करने में वह खुद ही सहयोग करते हैं।
झारखंड के लातेहार जिले में आदिवासी समुदाय के अधिकारों और नेतरहाट फील्ड फाइरिंग रेंज (जहां सेना अपने हथियारों और विस्फोटकों का अभ्यास करती है) के खिलाफ संघर्ष कर रहे संगठन केंद्रीय जन संघर्ष समिति के प्रमुख जेरोम कुजूर बताते हैं कि “हमारा प्रयास होता है कि संगठन के कार्यक्रम कम से कम खर्च में हों, इसलिए समुदाय की भागीदारी तय करना जरूरी है। इसके लिए हमें जिस भी रूप में सहयोग मिलता है, हम लेते हैं।” वे कहते हैं “फील्ड फायरिंग रेंज के आंदोलन के दौरान जब कार्यक्रम होते थे तो लोग अपना राशन खुद लेकर आते थे। हफ्ते भर तक चलने वाले इन कार्यक्रमों में लोग न केवल मिल-जुल कर अपना खाना खुद ही बनाते थे बल्कि आने-जाने की व्यवस्था भी करते थे।”
संगठन में लोगों की सीधी भागीदारी उसे संख्या के आधार पर विशाल रूप तो देती है, लेकिन वंचित समुदायों से 10 रुपये से लेकर 50 रुपये तक की सालाना सदस्यता राशि और चंदे आदि से मिलने वाला आर्थिक सहयोग सीमित ही होता है। ऐसे में संगठन के काम को मजबूत करने के लिए समुदाय का क्षमता निर्माण महत्वपूर्ण है। समुदाय से नजदीकी रिश्ता संगठनों को कुछ ऐसे कौशल पहचाने में मदद कर सकता है, जिनके लिए पैसे देकर कहीं अन्य जगह से सहयोग लेना पड़ता है। जैसे संगठन के सदस्यों को जीपीएस मैपिंग, गांव का नजरी नक्शा बनाना, वन अधिकार दावा फॉर्म भरना आदि जैसे कौशलों में प्रशिक्षित किया जा सकता है।
युवा शिविर जैसे संगठन के कार्यक्रमों में क्षमता निर्माण की ऐसी कार्यशालाओं को शामिल किया जा सकता है या इन्हें संगठन की जरूरत के अनुसार अलग से भी आयोजित किया जा सकता है। संगठन के अन्य कार्यक्रमों में भी जानकारी-पूर्ण विशेष सत्र आयोजित करना भी इसका एक तरीका हो सकता है।
एक उदाहरण देते हुए उल्का महाजन कहती हैं, “हमारे काम के दौरान भू अधिकार सहित कई मामलों में न्यायिक प्रक्रिया से गुजरना होता है। ऐसे में हम समुदाय के लोगों को कोर्ट की जिरह-बहस के लिए तैयार करते हैं ताकि समुदाय और संगठन के न्यायिक प्रक्रिया का खर्च कम किया जा सके। साथ ही, इससे लोगों में आत्मविश्वास भी आता है और संगठन का भी समुदाय से रिश्ता मजबूत होता है।”
किसी राजनीतिक पार्टी की मीटिंग में जाना, संगठन के किसी कार्यक्रम में जाने से किस तरह अलग है यह समुदाय के लोग तभी समझ पाएंगे जब उनके बीच समानता, न्याय, और सामाजिक सद्भाव आदि जैसे मूल्यों पर काम होगा। उल्का महाजन बताती हैं, “हमारे लगातार संवाद से लोग अब समझ पाए हैं कि संगठन के कार्यक्रम उन्हीं के अधिकारों के लिए हैं, उसकी व्यवस्था भी उन्हीं को करनी होगी। संगठन के हर कार्यक्रम में ये बात रखी जाती है कि संगठन को बनाने और चलाने की प्रक्रिया में सभी को सहयोग करना है।“
उल्का आगे जोड़ती हैं कि “संगठन से जुड़े कई लोग जो संगठन के काम को समझते हैं, जन्मदिन या खुशी के किसी मौके पर कोई जलसा करने या दावत देने की बजाय संगठन को कुछ सहयोग राशि देते हैं। कुछ लोग किसी परिजन या प्रियजन की मृत्यु हो जाने पर उनकी याद में भी सहयोग राशि देते हैं। ऐसा तभी संभव है जब लोग संगठन के काम के साथ-साथ सामाजिक मुद्दों पर काम किए जाने की अहमियत को भी समझ पाएं।” इसे और समझाते हुए उल्का कहती हैं, “हमने तय किया था कि हम किसी को गोद में उठाकर नहीं चलेंगे। अगर पैरों में ताकत नहीं है तो हम आपसी सहयोग से ताकत बढ़ाने की बात करेंगे।”
जेरोम कुजूर बताते हैं कि फील्ड फायरिंग रेंज के संघर्ष के लिए आर्थिक सहयोग जुटाने के लिए संगठन ने प्रभावित इलाके के सभी परिवारों को एक यूनिट माना। इसमें आदिवासी और गैर-आदिवासी सभी शामिल हैं। साथ ही, अन्य राज्यों में रहने वाले प्रवासी लोगों से भी हमने सहयोग मांगा। हमने उनसे कहा कि अगर आप यहां आंदोलन में शामिल नहीं हो सकते तो आर्थिक सहयोग तो कर ही सकते हैं। उनके परिवार के लोगों ने भी उन्हें इसके लिए प्रोत्साहित किया।
संगठन के काम में समुदाय की सक्रिय भागीदारी, आपसी विश्वास का एक रिश्ता कायम करती है। यह किसी संगठन के लिए आर्थिक सहयोग जुटाने के लिहाज से महत्वपूर्ण है। जेरोम कुजूर अपने संगठन की संरचना समझाते हुए बताते हैं कि मैम्बरशिप और चंदे से जो भी पैसा इकट्ठा होता है, उसे एक तय अनुपात में ग्राम समिति, क्षेत्रीय समिति और केंद्रीय समिति में बांट दिया जाता है। हर स्तर पर होने वाले कार्यक्रम की योजना बनाने में इन समितियों की मुख्य भूमिका होती है, जो विभिन्न स्तरों पर समुदाय का प्रतिनिधित्व करती हैं। इस तरह हम अपने कार्यक्रमों में लोगों की सहभागिता तय कर पाते है।
तीनों ही संगठनों से चर्चा में यह सामने आया कि तय समय पर (सालाना, छमाही और तिमाही) संगठन की बैठकें होती हैं जिनमें संगठन ने कितना पैसा जमा किया और उसके खर्च की जानकारी दी जाती है। साथ ही, आगामी कार्यक्रमों की योजनाओं पर भी चर्चा की जाती है। इस तरह समुदाय के लोग इन पर अपने विचार और सुझाव साझा कर पाते हैं और संगठन के काम की पारदर्शिता और समुदाय से मिलने वाले आर्थिक सहयोग की जवाबदेही भी तय हो पाती है।
उल्का महाजन बताती हैं कि संगठन के कार्यक्रमों के लिए समुदाय से ही आर्थिक सहयोग लिया जाता है लेकिन कार्यकर्ताओं के मानदेय के लिए हम कुछ स्थानीय संस्थाओं से मदद लेते हैं। जैसे महाराष्ट्र में ‘सामाजिक कृतज्ञता निधि’ नाम के एक ग्रुप से हम सहयोग लेते हैं। इसमें देश और राज्य के ऐसे लोग शामिल हैं जो साहित्य, कला, लेखन, फिल्म आदि जैसे रचनात्मक क्षेत्रों से जुड़े हैं, सामाजिक बदलाव के लिए अपना जीवन लगा देने वाले लोगों को यह समूह सहयोग करता है। इसी तरह दिल्ली की एक संस्था श्रुति से भी हमारे कुछ कार्यकर्ताओं को फेलोशिप मिलती है। ऐसे समूह और संस्थाएं विभिन्न संगठनों को एक मंच पर लेकर आती हैं और आपसी रिश्ते और नेटवर्क बनाने का मौका देती हैं।
आज के दौर में तकनीक का लाभ उठाते हुए बड़े स्तर पर जन संगठन आपस में जुड़ रहे हैं और ऐसे अलायंस और नेटवर्क बना पा रहे हैं जो कई राज्यों में फैले हैं। यह नेटवर्क जमीनी अनुभवों से मिले ज्ञान का बड़ा स्रोत हैं जो किसी संगठन को सफलतापूर्वक चलाने के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध करा सकते हैं। इनसे समान विचार रखने वाले ऐसे लोगों और संगठनों से संपर्क बन पाता है, जिनसे आर्थिक सहयोग भी पाया जा सकता है।
इस तरह के नेटवर्क से जुड़ने का एक अन्य फायदा यह भी है कि किसी एक संगठन के लोगों को दूसरे इलाके में अपने जैसा काम करने वाले किसी अन्य संगठन से बातचीत करने या उनके यहां जाने का अवसर भी मिलता है। जेरोम बताते हैं कि ऐसे ही एक नेटवर्क के कारण उनके संगठन के लोगों को जम्मू कश्मीर की तोशा मैदान फील्ड फायरिंग रेंज का संघर्ष कर रहे संगठन के क्षेत्र में जाने, उनके काम को देखने और उनसे सीखने का मौका मिल पाया। हमारे रहने-खाने और संगठन के कार्यक्षेत्र में आने-जाने की व्यवस्था भी कश्मीर के ही उस संगठन ने की थी और इस तरह बहुत कम खर्च में हम उनके काम के बारे में सीख पाए।
उदारीकरण के बाद सामाजिक मुद्दों पर काम करने वाली समाजसेवी संस्थाओं की संख्या बहुत तेजी से बढ़ी है। पहले जिन समस्याओं के लिए लोग संगठन के पास जाया करते थे, अब कई संस्थाएं उन पर काम कर रही हैं जिनके पास संगठनों की तुलना में कहीं अधिक संसाधन हैं। उदाहरण के लिए पंचायत या ब्लॉक स्तर पर कोई दस्तावेज जैसे कोई पहचान पत्र या राशन कार्ड आदि बनवाना संगठन के लोग किया करते हैं, लेकिन अब कई संस्थाएं भी यह काम करती हैं और इसके लिए वे जनता से कोई चंदा भी नहीं लेती हैं। इस तरह संगठनों के लिए अब लोगों से जुड़ाव बरकरार रख पाना बड़ी चुनौती बनता जा रहा है।
सुरेश राठौड़ कहते हैं, “इन बदलती परिस्थितियों के कारण बहुत से जन-संगठन भी संस्थागत सहयोग पर निर्भर होते जा रहे हैं जो कि चिंता की बात है। एनजीओ अक्सर तय लक्ष्यों के साथ एक तय अवधि के लिए प्रोजेक्ट के आधार पर काम कर रहे होते हैं। जैसे ही प्रोजेक्ट पूरा हो जाता है उनसे मिलने वाला आर्थिक सहयोग भी बंद हो जाता है और उन पर निर्भर संगठन के बंद होने की संभावनाएं बढ़ जाती है।” संगठन के लिए जनता से आर्थिक सहयोग जुटाने में आने वाली चुनौतियों पर आगे बात करते हुए सुरेश कहते हैं कि “पिछले कुछ सालों से देश में विभाजनकारी सोच को भी बढ़ावा मिला है, इस कारण विभिन्न समुदायों को संगठित करना मुश्किल होता जा रहा है।”
समाजसेवी संस्थाओं के बढ़ते प्रभाव को उल्का महाजन भी एक बड़ी चुनौती के रूप में देखती हैं। वे बताती हैं कि इन संस्थाओं के पास आर्थिक संसाधन तो होते हैं, लेकिन प्रोजेक्ट के आधार पर काम करने से बदलाव को नापकर देखने का एक नजरिया बनता जा रहा है। ऐसे में बदलाव के लिए लगातार प्रयास करने की प्रक्रिया को सहयोग मुश्किल से मिल पाता है। साथ ही, वंचित समुदायों से आने वाले युवा जो अपने समुदाय के लिए कुछ करने की इच्छा से संगठन से जुड़ते हैं, उन्हें भी अच्छे वेतन पर ये समाजसेवी संस्थाएं अपने यहां काम दे देती हैं। इस तरह जो युवा वैचारिक रूप से संगठन के उद्देश्यों को लेकर समर्पित हैं वे तो संगठन से जुड़ते हैं, लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर पैसों की जरूरत के कारण युवा इन समाजसेवी संस्थाओं की तरफ ज्यादा आकर्षित होते हैं।
इन तमाम चुनौतियों के बाद भी सर्वहारा जन आंदोलन, मनरेगा मजदूर यूनियन और केंद्रीय जन संघर्ष समिति जैसे संगठन हाशिये के समुदायों के अधिकारों के लिए आवाज उठा रहे हैं। बदलते समय के अनुसार नए तरीके अपनाना इन संगठनों की सफलता की एक मुख्य वजह भी है। उल्का महाजन बताती हैं कि सामाजिक क्षेत्र में पढ़ाई करने वाले युवा और शोध करने वाले विद्यार्थी भी संगठन का काम समझने के लिए आते हैं और अपनी इच्छा से आर्थिक सहयोग भी देते हैं। इस तरह के प्रयास युवाओं को सामाजिक बदलाव के क्षेत्र में अनुभव देने के साथ आने वाली नई साझेदारियों की नींव डालते हैं। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है समुदाय से लगातार रिश्ता बनाए रखना, समुदाय को यदि संगठन की अहमियत समझ आएगी तो वह स्वयं ही उसे टिकाए रखने के प्रयास करेगा।
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अध्ययनों से पता चलता है कि युवाओं में तनाव, चिड़चिड़ेपन और डिप्रेशन के मामले बढ़ते जा रहे हैं और इसके चलते वे कई बार कुछ गंभीर कदम भी उठा लेते हैं। तनाव के कारणों में कठिन सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियां, परेशान करने वाले पारिवारिक संबंध, स्कूल में दबाव और दैनिक कार्य जीवन में असंतुलन शामिल हैं। ऐसे में ये जरूरी हो जाता है कि वे अपनी पढ़ाई-लिखाई या कामकाज से जुड़ी बातों को लेकर जो भी महसूस कर रहे हों, उसे किसी न किसी के साथ साझा करें। इससे उन्हें अपनी तरह के अनुभव रखने वाले लोगों से जुड़ने का मौक़ा भी मिलता है और किसी व्यक्ति को उस समस्या का समाधान खोजने में भी मदद मिल सकती है।
लेकिन ऐसे समुदाय को बनाने और बनाए रखने के लिए लोगों को अलग तरह से सोचने की ज़रूरत होती है। यही सामाजिक एवं भावनात्मक शिक्षा यानि सेल करता है। यह एक सीखने की प्रक्रिया है जो एक दूसरे से साझा करने, गहराई से सुनने और सहानुभूति की संस्कृति बनाने पर केंद्रित है। यह हमारे समाज के लिए अब पहले से कहीं ज़्यादा ज़रूरी है।
इस वीडियो में, झारखंड में सेल कार्यक्रम पर काम कर रहे विकास व्यवसायी (डेवलपमेंट प्रैक्टिशनर) और स्कूल शिक्षक, सभी उम्र के लोगों के लिए इसकी प्रासंगिकता के बारे में बात कर रहे हैं।
इस आलेख को तैयार करने में सलोनी सिसोदिया, इंद्रेश शर्मा और देबोजीत दत्ता ने सहयोग किया है।
यह पोर्टिकस संस्था द्वारा समर्थित 12-भागों की सीरीज का पहला लेख है। यह सीरीज बाल विकास के सभी पहलुओं और बच्चों व युवाओं की बेहतर सामाजिक-भावनात्मक स्थिति तय करने से जुड़े समाधानों पर केंद्रित है। साथ ही, यह सीरीज़ इन विषयों पर बेहतर समझ बनाने से जुड़ी सीख और अनुभवों को सामने लाने का प्रयास करती है।
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पिछले दो दशकों यानी साल 2000 से 2019 के बीच भारत कुदरती आपदाओं का सामना करने के मामले में तीसरे नंबर पर है। आने वाले समय और ज्यादा भयावह होने का अनुमान है। कई प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति और तीव्रता में बढ़ोतरी होने का पूर्वानुमान है। इससे नुकसान और क्षति अरबों अमेरिकी डॉलर तक पहुंच जाएगी। तब राज्य के खजाने में भुगतान करने के लिए शायद पर्याप्त रकम ना हो।
भारत इस वित्तीय खाई को पाटने के लिए नए तरह के बीमा को सावधानी से आजमा रहा है। इसका नाम है पैरामीट्रिक बीमा। जहां नियमित बीमा योजनाएं क्षतिपूर्ति पर आधारित होती हैं या आपदा होने के बाद नुकसान का मूल्यांकन करती हैं, वहीं पैरामीट्रिक बीमा पहले से तय मापदंडों के सेट पर निर्भर करता है, जो पूरा होने पर तुरंत भुगतान शुरू कर देता है। एएक्सए क्लाइमेट के भारत प्रमुख पंकज तोमर ने कहा, “कोई सर्वेक्षण या मूल्यांकन की लंबी अवधि नहीं है, जो कि फर्क का मुख्य बिंदु है।” यह एएक्सए ग्रुप का उपक्रम है जो बदलते मौसम के हिसाब से समाधान बनाने पर काम करता है।
अहमदाबाद के अंबावाड़ी नगरपालिका में 60 साल की निर्माण मजदूर जशीबेन परमार ने कहा कि अब वह लू के चलते अपनी मजदूरी में होने वाले नुकसान की भरपाई उस दिन कर पाई, जब उन्हें स्वरोजगार महिला संघ (एसईडब्ल्यूए-सेवा) के सदस्यों के लिए चल रही पैरामीट्रिक हीट बीमा योजना के तहत 400 रुपये का भुगतान मिला। इस साल गर्मियों में उत्तर और उत्तर-पश्चिम भारत के ज्यादातर हिस्से भीषण गर्मी और रिकॉर्ड तोड़ तापमान की चपेट में थे। उन्होंने मोंगाबे इंडिया को बताया, “मैंने इस पैसे का इस्तेमाल खाने-पीने और घर चलाने में किया।”
सेवा की ओर से चलाया जा रहा यह कार्यक्रम, हाल के सालों में देश में तेजी से फैल रहे अन्य कार्यक्रमों में से एक है। इसमें बाढ़, गर्मी के बढ़ते प्रकोप और नवीन ऊर्जा संयंत्रों में उत्पादकता में कमी जैसी चीजें शामिल की गई हैं।
लेकिन पैरामीट्रिक बीमा के लाभ इस बात पर निर्भर करते हैं कि जोखिम और नुकसान का हिसाब किस तरह लगाया जाता है। पैरामीट्रिक बीमा के साथ भारत का अनुभव अभी शुरुआती स्टेज में है। जानकारों का भी कहना है कि इसे बदलते मौसम के हिसाब से मौजूदा रणनीतियों को बेहतर करना चाहिए, ना कि उनकी जगह लेनी चाहिए।
भारत के हर हिस्से में अब प्राकृतिक आपदाओं का आना आम बात हो गया है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की रिपोर्ट के अनुसार, भारत ने 2022 के पहले नौ महीनों में लगभग हर दिन प्राकृतिक आपदाएं देखीं। 2019 और 2023 के बीच, देश को मौसम संबंधी आपदाओं के कारण 56 बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ।
भारत में आपदा प्रबंधन के लिए पैसों का इंतजाम आमतौर पर राष्ट्रीय या राज्य आपदा प्रतिक्रिया कोष (एसडीआरएफ) और अंतरराष्ट्रीय सहायता से आता है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) को केंद्र सरकार से 75 से 90% तक मदद मिलती है, जबकि बाकी बची राशि राज्य सरकार द्वारा दी जाती है। हालांकि, ये फंड हमेशा तुरंत उपलब्ध नहीं हो पाते हैं। कई राज्य सरकारों ने संकट के समय केंद्र सरकार की ओर से फंड जारी करने में देरी को लेकर अदालत का रुख किया है। कोपेनहेगन विश्वविद्यालय में कानून के प्रोफेसर मोर्टन ब्रोबर्ग ने पैरामीट्रिक बीमा पर 2019 के एक पेपर में लिखा कि अंतरराष्ट्रीय मानवीय सहायता एक और उपयोगी तरीका है, लेकिन यह अप्रत्याशित हो सकता है और “देशों के लिए जोखिम में कमी के मूल्य को या खतरों के प्रबंधन में आने वाली लागत को पूरी तरह से समझना मुश्किल हो जाता है।”
इसके विपरीत, पैरामीट्रिक बीमा को मौसम में हो रहे बदलाव से निपटने के लिए मददगार टूल के रूप के रूप में देखा जाता है, क्योंकि यह सरकारों को किसी विनाशकारी घटना के बाद संभावित नुकसान का पहले से आकलन करने में मदद करता है। यह पैरामीटर पूरे होने पर बिना किसी रोक के भुगतान करके नकदी का प्रवाह बनाए रखने में भी मदद कर सकता है, जिससे पुनर्वास और बहाली तेजी से हो सकती है।
नागालैंड भारत का पहला ऐसा राज्य है जिसने पैरामीट्रिक बीमा के जरिए भारी बारिश को लेकर अपने पूरे भौगोलिक क्षेत्र का बीमा कराया है। नागालैंड में मानसून के दौरान भारी बारिश होती है और खास तौर पर राज्य के निचले इलाके बाढ़ की चपेट में आ जाते हैं। साल 2017 में, राज्य बाढ़ से तबाह हो गया था जिसमें 22 लोगों की मौत हो गई थी, 7,700 घर पूरी तरह या आंशिक रूप से नष्ट हो गए थे। तब राज्य की एक-तिहाई आबादी बाढ़ से प्रभावित हुई थी। राज्य सरकार की अपनी आपदा सांख्यिकी रिपोर्ट के अनुसार, 2018 और 2021 के बीच पानी और जलवायु संबंधी खतरों की घटनाएं 337 से बढ़कर 814 हो गईं। नागालैंड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनएसडीएमए) के संयुक्त मुख्य कार्यकारी अधिकारी जॉनी रुआंगमेई ने कहा, “नागालैंड छोटा राज्य है और इस तरह की घटनाओं से होने वाला नुकसान सैकड़ों करोड़ में होता है, जिसकी भरपाई अकेले एसडीआरएफ की ओर से नहीं की जा सकती है।”
जहां नियमित बीमा योजनाएं क्षतिपूर्ति पर आधारित होती हैं या आपदा होने के बाद नुकसान का मूल्यांकन करती हैं, वहीं पैरामीट्रिक बीमा पहले से तय मापदंडों के सेट पर निर्भर करता है
आर्थिक रूप से कुछ सबसे कमजोर आबादी वाले मजदूर संघ भी जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान से उबरने के लिए पैरामीट्रिक बीमा की तरफ जा रहे हैं। पिछले साल स्व-नियोजित महिला संघ ने एड्रिएन आर्शट-रॉकफेलर फाउंडेशन रेजिलिएंस सेंटर और बीमाकर्ता ब्लू मार्बल के साथ समझौते में गुजरात के चार जिलों में अपने 21,000 सदस्यों के लिए हीट इंश्योरेंस योजना शुरू की थी। इस योजना में तापमान की एक सीमा तय की गई थी। इससे ज्यादा तापमान बढ़ने पर हर सदस्य को भुगतान किया जाएगा। बीमा के साथ-साथ, सेवा ने जलवायु अनुकूलन वाली दूसरी तकनीकों को भी लागू किया, जैसे कि सौर ऊर्जा से चलने वाले वाटर कूलर और लचीलापन बढ़ाने के लिए तिरपाल शीट उपलब्ध कराना। सेवा में वेलनेस प्रोग्राम समन्वयक साहिल हेब्बार ने कहा, “2022 में लू के दौरान हमारे कितने सदस्यों को अपना वेतन खोना पड़ा, यह देखने के बाद समाधान खोजना जरूरी था।” केरल में राज्य का सहकारी दुग्ध विपणन संघ केसीएमएमएफ, अपने डेयरी किसानों को गर्मी के कारण कम दूध उत्पादन से होने वाले नुकसान से बचाव के लिए पैरामीट्रिक बीमा का भी इस्तेमाल कर रहा है।
पैरामीट्रिक बीमा योजनाएं समय के साथ किसी दिए गए खतरे की भयावहता और आवृत्ति का अनुमान लगाने के लिए जटिल गणनाओं का इस्तेमाल करती हैं। साथ ही, इसे नुकसान के वाजिब कीमत से जोड़ती हैं, ताकि यह तय किया जा सके कि किस सीमा पर भुगतान शुरू किया जाना चाहिए। ये कारक बीमा कवर की कुल बीमा राशि और लागत (प्रीमियम) भी तय करते हैं। इन सभी गणनाओं के मूल में योजना के तहत आने वाले डेटा का चुनाव करना है।
वारविक विश्वविद्यालय में वैश्विक सतत विकास के एसोसिएट प्रोफेसर निकोलस बर्नार्ड्स ने कहा, “बहुत से विकासशील देशों की सरकारों में अक्सर ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम होती है जिनके पास संबंधित गणना करने के लिए खास कौशल हो। असल में जब मॉडल बहुत जटिल होते हैं तो अक्सर इस बात में बहुत पारदर्शिता नहीं होती है कि मॉडल कुछ मामलों में भुगतान क्यों करता है और बाकी मामलों में नहीं।”
भारी बारिश और बाढ़ का सामना करने के बावजूद, बीमाकर्ता द्वारा नागालैंड में उन सालों के दौरान कभी भी भुगतान नहीं किया गया, जब उसने राज्य में पैरामीट्रिक बीमा को लागू किया गया था। रुआंगमेई ने कहा, “हमें अहसास हुआ कि पैरामीटर बनाने के लिए इस्तेमाल किया गया डेटा जमीन पर देखी गई असलियत से बहुत अलग था, और सीमा बहुत ज्यादा तय की गई थी। इतनी ज्यादा सीमा पर बहुत बड़ा हिस्सा बह जाता और हम जितना कवर किया गया था, उससे ज्यादा खो देते।”
नागालैंड ने 2021 से 2023 तक बीमाकर्ता के रूप में टाटा एआईजी और फिर से बीमा करने वाले के तौर पर स्विस रे (जिस पर बीमाकर्ता अपने खुद के जोखिम स्थानांतरित कर सकता है) के साथ पायलट पैरामीट्रिक बीमा समझौता किया। राज्य सरकार ने लगभग पांच करोड़ रुपये के कवरेज के लिए लगभग 70 लाख रुपये के सालाना प्रीमियम का भुगतान किया जिसमें ट्रिगर सीमा शुरू में 290 और 350 मिमी बारिश के बीच तय की गई थी। समझौते में इस्तेमाल किया गया डेटासेट नासा समर्थित सीएचआईआरपीएस उपग्रह का था। लेकिन बाद में सरकार को अहसास हुआ कि ये अनुमान भारतीय मौसम विभाग के ग्रिड किए गए डेटासेट के साथ-साथ उसके अपने मौसम स्टेशनों द्वारा कैप्चर किए गए डेटासेट से अलग थे।
पैरामीट्रिक बीमा को मौसम में हो रहे बदलाव से निपटने के लिए मददगार टूल के रूप के रूप में देखा जाता है।
जब नुकसान होता है, लेकिन योजना की सीमा पूरी नहीं होती है तो इस समस्या को आधार जोखिम कहा जाता है। अगर नुकसान को महंगे प्रीमियम के ऊपर वहन करना पड़ता है तो यह संसाधनों पर और ज्यादा दबाव डाल सकता है। बर्नार्ड्स ने कहा, “खासतौर पर जब वाणिज्यिक बीमाकर्ता शामिल होते हैं तो परस्पर विरोधी हितों की समस्या भी होती है। बीमाकर्ता बहुत सटीक रूप से परिभाषित और आदर्श रूप से ज्यादा कठोर शर्तों से लाभान्वित होते हैं। उपयोगकर्ताओं का हित इसके विपरीत होता है। व्यवहार में इन्हें अक्सर बहुत ज्यादा तकनीकी सवालों के रूप में माना जाता है जिसमें बीमा के संभावित खरीदार सीधे तौर पर शामिल नहीं होते हैं।”
पिछले साल अपने पायलट को खत्म करने के बाद से, एनएसडीएमए ने अपने खुद के मौसम और आपदा के बाद के डेटा की जांच करने और अलग-अलग बीमा मॉडलों का अध्ययन करने में एक साल बिताया, ताकि यह तय किया जा सके कि कौन-से पैरामीटर उसकी जरूरतों के लिए सबसे सही होंगे। इस साल फरवरी में, राज्य सरकार ने एक्सप्रेशन ऑफ इंटरेस्ट जारी किया जिसमें इच्छुक बीमाकर्ताओं से भारी बारिश के खिलाफ राज्य का बीमा करने के लिए आगे आने का आह्वान किया गया। इसमें जोर दिया गया कि वह ऐसा समाधान चाहती है जो “ग्राउंड वेदर स्टेशन डेटा की प्रासंगिकता को ज्यादा से ज्यादा महत्व करेगा।”
रुआंगमेई ने कहा, “हमें प्रमुख बीमा कंपनियों और पुनर्बीमा कंपनियों से कई बोलियां मिलीं, जो दिखाती हैं कि इस तरह के कार्यक्रम को वित्तपोषित करने के लिए बीमा बाजार में दिलचस्पी बढ़ रही है।” नागालैंड द्वारा जून तक लगभग 50 करोड़ रुपये के कवरेज के लिए नए बीमाकर्ता और पुनर्बीमाकर्ता के साथ समझौता करने की संभावना थी।
सेवा को भी 2023 की गर्मियों में अपने पायलट के दौरान आधार जोखिम की समस्या का सामना करना पड़ा, जब कोई भुगतान शुरू नहीं हुआ। तब से इसने नए साझेदारों क्लाइमेट रेजिलिएंस फॉर ऑल और स्विस रे के साथ मिलकर तापमान की सीमा को ज्यादा उपयुक्त सीमा में समायोजित करने, मापदंडों को ढीला करने और तीन राज्यों – महाराष्ट्र, राजस्थान और गुजरात के पचास हजार सदस्यों तक योजना को बढ़ाने का काम किया है। नए डिजाइन के अनुसार, भुगतान शुरू करने के लिए दिन के तापमान को लगातार दो दिनों तक तापमान सीमा से ऊपर रहना चाहिए, जबकि पायलट में यह तीन दिन था। सबसे कम ट्रिगर सीमा तापमान उदयपुर में 41.5 डिग्री सेल्सियस और सबसे ज्यादा बाड़मेर में 45 डिग्री सेल्सियस था।
हेब्बर ने कहा, “हमें पता चल रहा है कि जिस तापमान पर मजदूर काम करते हैं, वह आमतौर पर उपग्रह या मौसम संबंधी डेटा की ओर से दर्ज तापमान से कहीं ज्यादा होता है। अभी के लिए, हमारा डिजाइन और ट्रिगर सिर्फ दिन के तापमान पर निर्भर करता है, लेकिन भविष्य में हम निश्चित रूप से आर्द्रता और रात के तापमान सहित ज्यादा मापदंडों को एकीकृत करना चाहते हैं।”
आलोचक, जलवायु बीमा की बढ़ती लोकप्रियता को ज्यादा आय वाले देशों द्वारा अपने वित्तीय दायित्वों को निजी क्षेत्र पर डाल देने के तरीके के रूप में देखते हैं।
लेकिन, इसका दायरा बढ़ाकर भी अकेले पैरामीट्रिक बीमा के लाभ जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा पीड़ित लोगों के लिए पर्याप्त नहीं होने की संभावना है। जशीबेन ने इस सीमा को संक्षेप में समझाया। उन्होंने कहा, “हां, मुझे इस योजना से लाभ हुआ है।” “लेकिन मैं गर्मी के कारण 15 दिनों से काम पर नहीं जा पाई और मुझे सिर्फ एक दिन का भुगतान मिला। 400 रुपये ठीक हैं, लेकिन असल में मुझे 4,000 रुपये की जरूरत थी, ताकि मैं जो खो चुकी हूं उसकी भरपाई कर सकूं।” जशीबेन ने कहा कि स्थिर आय नहीं होने से और बहुत ज्याद गर्मी से बढ़ते चिकित्सा बिलों के साथ, वह अपने दोनों बच्चों को स्कूल भेजने के लिए संघर्ष कर रही थी। उन्होंने कहा, “मुझे इस साल अपने खर्चों को पूरा करने के लिए स्थानीय साहूकार से कर्ज लेना पड़ सकता है।”
कोपेनहेगन विश्वविद्यालय के ब्रोबर्ग कहते हैं कि 1991 में जब जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन शुरू हुआ था, तभी से जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से निपटने के लिए बीमा को समाधान माना जाता रहा है। लेकिन हाल के सालों में पैरामीट्रिक बीमा की लोकप्रियता ज्यादा आय वाले देशों की इस इच्छा से बढ़ी है कि वे सबसे बुरे असर का सामना कर रहे निम्न और मध्यम आय वाले देशों में इसे अपनाने में मदद करें।
आलोचक जलवायु बीमा की बढ़ती लोकप्रियता को ज्यादा आय वाले देशों द्वारा अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों के तहत अपने वित्तीय दायित्वों को निजी क्षेत्र पर डाल देने करने के तरीके के रूप में देखते हैं। यूएनएफसीसीसी के तहत 27वें कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (कॉप-27) में वैश्विक नुकसान और क्षति कोष की घोषणा से पहले, ज्यादा आय वाले देशों ने बिगड़ती आपदाओं से निपटने के लिए समाधान के रूप में बीमा की वकालत की थी। पैरामीट्रिक बीमा को डिजाइन करने में कई चरण शामिल होते हैं। साथ ही, बीमाकर्ता ज्यादा जोखिम वहन करते हैं। इस वजह से पैरामीट्रिक बीमा के लिए प्रीमियम अन्य बीमा के पारंपरिक रूपों की तुलना में काफी ज्यादा होता है। नागालैंड और सेवा दोनों ही प्रीमियम की लागत को वित्तपोषित करने में मदद के लिए परोपकार के उद्देश्य से दी जाने वाली आर्थिक मदद पर निर्भर हैं। इन लागतों और सीमाओं ने बराबरी की चिंताओं को भी जन्म दिया है कि किस हद तक निम्न और मध्यम आय वाले देशों के लिए जलवायु परिवर्तन के सबसे बुरे प्रभावों के लिए खुद का बीमा कराना उचित है, भले ही इस समस्या को बढ़ाने में उनकी भागीदारी सबसे कम है।
बर्नार्ड्स ने कहा, “जलवायु नुकसान में सिर्फ विनाशकारी घटनाएं ही शामिल नहीं होती हैं। धीमी गति से होने वाली आपदाएं भी होती हैं, जिनमें काम के दौरान लोगों का गर्मी से जूझना या गर्मी, कीटों या अनियमित बारिश जैसी चीजों के कारण खेती की पैदावार कम होना शामिल है। इससे अक्सर बहुत ज्यादा कर्ज की समस्या और विकट हो जाती हैं। इनमें शायद ही कभी बीमा योग्य एकल घटनाएं शामिल होती हैं। लॉस एंड डैमेज फंड को बाद की घटनाओं की भरपाई करने भी करना चाहिए। या तो जलवायु-लचीले बुनियादी ढांचों और आवासों को वित्तपोषित करके या उदार सामाजिक सुरक्षा जैसी चीजों को लागू करने ऐसा करन चाहिए।”
भारत में बीमा की पहुंच बहुत कम है तथा प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली 90% से ज्यादा दुर्घटनाओं का बीमा नहीं होता है। प्रमुख वैश्विक पुनर्बीमाकर्ता के पूर्व कार्यकारी ने मोंगाबे इंडिया को बताया कि कंपनी ने अलग-अलग आपदाओं के लिए पैरामीट्रिक बीमा लागू करने के प्रस्ताव के साथ कम से कम पांच राज्यों – आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और केरल – से संपर्क किया था, लेकिन उन्हें झिझक का सामना करना पड़ा। पूर्व कार्यकारी ने कहा, “जहां तक बीमा शब्द का सवाल है, तो लोगों में भरोसे की कमी है। राज्य हमेशा बीमा द्वारा भुगतान नहीं किए जाने के किस्से सुनाते हैं, इसलिए सरकारों को यह बताने की जरूरत है कि पैरामीट्रिक बीमा वास्तव में किस तरह काम करता है।”
फिर भी, स्विस रे को उम्मीद है कि भारत में अगले पांच सालों में प्रीमियम में 7.1 प्रतिशत की बढ़ोतरी होगी। नागालैंड के रुआंगमेई को भी उम्मीद है कि जब राज्य अपना नया पैरामीट्रिक बीमा मॉडल लॉन्च करेगा तो बड़े राज्य भी कुछ ऐसा ही करने को तैयार होंगे। “ऐसी योजनाओं को ग्राहक और बीमाकर्ता दोनों के लिए बेहतरीन बनाने की जरूरत है। यह सिर्फ बीमाकर्ता के लाभ के लिए नहीं हो सकता है और यही हम करने की कोशिश कर रहे हैं।”
पैरामीट्रिक बीमा का बाजार भारत में ऐसे समय बन रहा है जब वैश्विक बीमा बाजार जलवायु परिवर्तन के कारण कई बदलावों से गुजर रहा है। अमेरिका में, ऐसी खबरें हैं कि बीमा कंपनियां ज्यादा और अप्रत्याशित जोखिमों के कारण बाजार से निकल रही हैं या अपनी क्षमता कम कर रही हैं।
एकएक्सए क्लाइमेट के तोमर के अनुसार, बीमा कंपनियों के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वे अपने जोखिम मॉडलिंग में जलवायु परिवर्तन के भविष्य के असर को ध्यान में रखें। आमतौर पर, जोखिम मॉडलिंग किसी खास विनाशकारी घटना की वापसी अवधि तय करने के लिए पिछले डेटा का इस्तेमाल करती है। उन्होंने कहा, “पिछले एक दशक में, वापसी अवधि की गणना गड़बड़ा रही है क्योंकि ये घटनाएं ज्यादा बार हो रही हैं।” उन्होंने आगे कहा, “बीमाकर्ताओं और पुनर्बीमाकर्ताओं को अपने मॉडल में जलवायु परिवर्तन के लिए स्पष्ट इनपुट शामिल करने के लिए मजबूर किया जा रहा है, जिसका अनिवार्य रूप से मतलब होगा कि वापसी अवधि की गणना अब सिर्फ पिछले डेटा पर आधारित नहीं है। इसका ना सिर्फ कीमत पर बल्कि जोखिम और बीमाकर्ता इसे वहन करने के लिए तैयार हैं या नहीं, इस पर भी बहुत बड़ा असर पड़ सकता है।”
अर्ष्ट-रॉक फाउंडेशन की वैश्विक नीति और वित्त की उप निदेशक निधि उपाध्याय ने कहा कि भारत में बढ़ते जलवायु प्रभावों के मद्देनजर पैरामीट्रिक बीमा की पहुंच बढ़ रही है, लेकिन यह एकमात्र समाधान नहीं हो सकता है। उन्होंने सेवा की पायलट योजना को डिजाइन करने में मदद की थी।
उन्होंने कहा, “हमारा तरीका इस बात पर विचार करता है कि जोखिम हस्तांतरण – बीमा भाग – को जोखिम में कमी के साथ किस तरह जोड़ा जाए, ताकि गर्मी से निपटने को सुलभ और न्यायसंगत बनाया जा सके। खास तौर पर भारत में, अनौपचारिक क्षेत्र बहुत बड़ा है और औपचारिक रोजगार के बुनियादी ढांचे के बाहर बीमा कवरेज को बढ़ाना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। इसे और अधिक किफायती बनाने के लिए इसका दायरा बढ़ाना अहम है। लंबी अवधि में, इस तरह की पहल को सरकारी सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम या इसी तरह के तहत शुरू करने की जरूरत है, जो भारत के अनौपचारिक क्षेत्र को कवर करता है।”
यह लेख मूलरूप से मोंगाबे डॉट कॉम पर प्रकाशित हुआ था।
भारतीय शहरों में, कम आय वाले समुदायों में पले-बढ़े युवाओं को बाकी शहरी आबादी की तुलना में मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं होने का खतरा ज्यादा है। इसकी वजह पिछड़े इलाकों में तनाव के अतिरिक्त कारणों की मौजूदगी है। इनमें असुरक्षित आवास और अनौपचारिक आजीविका के प्रभाव, बुनियादी सेवाओं की कमी और इन इलाकों में रहने वाले लोगों पर भेदभावपूर्ण और दमनकारी सामाजिक मानदंडों का असर शामिल हैं। एक हालिया अध्ययन में पाया गया कि नई दिल्ली की मलिन बस्तियों में बच्चे लगातार उपेक्षित समूह बने हुए हैं जबकि वे हमेशा ऐसे तनावपूर्ण हालात में रहते हैं जिनमें मानसिक बीमारियों के पनपने का जोखिम बढ़ता है। भारत की राष्ट्रीय युवा नीति (2022) के मसौदे में युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य की सुरक्षा को महत्वपूर्ण बताया गया है, लेकिन यह जागरूकता लाने और मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों की भूमिका तक ही सीमित है।
मानसिक स्वास्थ्य के प्रति पारंपरिक दृष्टिकोण अक्सर संरचनात्मक निर्धारकों, यानी इस क्षेत्र में असमानता पैदा करने वाली ऐतिहासिक, व्यवस्थागत और राजनीतिक ताकतों का ध्यान नहीं रख पाते हैं। जैसे, मानसिक स्वास्थ्य के लिए गहन चिकित्सकीय दृष्टिकोण, अक्सर बीमारी का पता लगाने, उसके पूर्वानुमान और उसके अनुसार हस्तक्षेप के रूप में तैयार किया जाता है। यह हाशिए पर रहने, तंत्रिका विविधता या न्यूरो डाइवर्सिटी और लोगों के जीवन की वास्तविकताओं से पैदा होने वाले अतिरिक्त तनावों को भी ध्यान में नहीं रख पाता है। मारीवाला हेल्थ इनिशिएटिव (एमएचआई) स्पष्ट करता है कि मानसिक स्वास्थ्य एक हमेशा मौजूद रहने वाला विषय है। इसके प्रति मनोसामाजिक दृष्टिकोण, किसी व्यक्ति के मनोवैज्ञानिक पहलुओं (विचारों, भावनाओं, भावनाओं, आदि) के साथ-साथ सामाजिक मानदंडों, मूल्यों और रिश्तों को भी महत्वपूर्ण मानता है, जो मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। इसके अलावा, मानसिक स्वास्थ्य को विभिन्न सामाजिक वर्गों के नजरिये से देखना, विभिन्न सामाजिक पहचानों (जैसे कि जेंडर, जाति और विकलांगता आदि) को स्वीकार करता है और यह जानने का प्रयास करता है कि लोगों में इनके अनूठे संयोजन, संपूर्ण मानसिक स्वास्थ्य को कैसे प्रभावित करते हैं। इन बारीकियों पर ध्यान दिये बिना, मानसिक स्वास्थ्य और कल्याण के लिए मजबूत ढांचा बनाना मुश्किल है।
यूथ फॉर यूनिटी एंड वॉलंटरी एक्शन (युवा) पिछले चार दशकों से जमीनी स्तर पर हाशिए के समुदायों के साथ काम कर रहा है। हम लोगों को उनके सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकारों का दावा करने में सक्षम बनाने का प्रयास करते हैं। युवाओं के साथ हमारे व्यापक जुड़ाव ने इस बात पर भी जोर दिया है कि उनके समग्र विकास को उनके मानसिक स्वास्थ्य और कल्याण से अलग नहीं किया जा सकता है। यह लेख उन कुछ प्रमुख सबकों का सारांश प्रस्तुत करता है जो हमने युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य और उनके जुझारूपन का सहयोग करते समय सीखे हैं, युवाओं के साथ-साथ यह लोगों के अन्य समूहों के साथ काम करने पर भी लागू होता है। विशेष रूप से, यह इस बात पर रौशनी डालता है कि जमीनी संगठन अपनी व्यवस्था और प्रक्रियाओं में कैसे संदर्भ-विशिष्ट, समाधान की जन-केंद्रित रणनीतियां; सहकर्मी समूहों से महत्वपूर्ण समर्थन की अहमियत; स्थिति बिगड़ने से पहले मानसिक संकट की तुरंत पहचान और विविध प्रतिक्रिया की भूमिका; और अधिक विशिष्ट सहायता की जरूरत वाले युवाओं के लिए रेफरल के महत्व को शामिल कर सकते हैं।
समाज में हाशिये पर होना, युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर कई तरह से असर डालता है। उदाहरण के लिए, किसी अनौपचारिक बस्ती में नियमित बेदखली का सामना करने वाले एक युवा में ‘असुरक्षा’ की भावना, और उसका मानसिक स्वास्थ्य पर असर, किसी पुनर्वास कॉलोनी में रहने वाले व्यक्ति से काफी अलग होगी। समान संदर्भों या स्थितियों में रहने वाले अलग-अलग लोगों के अनुभव भी अलग-अलग हो सकते हैं। बस्तियों में संरचनात्मक हिंसा और इसकी कई अभिव्यक्तियां खास तरह के तनावों को जन्म देती हैं – उदाहरण के लिए, एक युवा लड़की की चिंता के कारण, उसके आस-पड़ोस में छेड़छाड़ की समस्या होना या सामुदायिक शौचालय में जाने पर उसकी सुरक्षा को खतरा होना, हो सकते हैं। इसी तरह, बस्ती में एक किशोर को रोजाना हिंसक संघर्षों की समस्या या पानी लाने में कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है, जो उसकी पढ़ाई जारी रखने की क्षमता को प्रभावित कर सकता है।
भारत में दुनिया में सबसे ज्यादा आत्महत्या के आंकड़े दर्ज किए गए हैं जिनमें से 41% प्रभावित लोगों की उम्र 30 वर्ष से कम है।
ऐसी स्थितियों से उत्पन्न होने वाले मानसिक संकट को दूर करने की रणनीतियां बनाते समय, आपस में जुड़ी चुनौतियों को ध्यान में रखना होता है। युवाओं को उचित सहायता देने के लिए समाधानों को उनके विशिष्ट संदर्भों के अनुसार होना चाहिए। कई मामलों में, केवल परामर्श (काउंसिलिंग) काफी नहीं होता है, बल्कि लोगों में आत्मविश्वास (एजेंसी) का निर्माण करना और, ताकत और समर्थन प्रदान करने वाली सामूहिक प्रक्रियाएं स्थापित करना ज्यादा प्रभावी साबित हो सकता है। उदाहरण के लिए, मालवणी युवा परिषद के साथ युवा संस्था का काम युवाओं की सामूहिक आवाज विकसित करने पर केंद्रित है। ताकि, वे महिलाओं से छेड़छाड़ के मुद्दे का विरोध कर सकें और सुरक्षित समुदायों के लिए सक्रिय रूप से वकालत कर सकें। एक सुरक्षित समुदाय के लिए लोगों की सक्रिय भागीदारी तय करने के लिए युवाओं ने लड़कियों के उत्पीड़न पर बात करने, लोगों को जागरूक करने और व्यवहारिक परिवर्तन पर जोर देने के लिए नुक्कड़ नाटक जैसे माध्यमों का इस्तेमाल करते हैं। इस तरह, कल्याण के दृष्टिकोण को लोगों की स्थितियों और ज़रूरतों के मुताबिक ढालने की जरूरत है। उन्हें अपने साथियों के सहयोग के साथ-साथ व्यवस्था को मजबूत करने की जरूरत है, और युवाओं में मानसिक परेशानी पैदा करने वाले बड़े मुद्दों के समाधान के लिए विकास की दिशा में हुए अन्य प्रयासों पर भी ध्यान दिया जा सकता है।
जमीनी कार्यकर्ता हाशिये के समुदायों से करीब से जुड़े हुए हैं। वर्षों तक लोगों से जुड़ने और उनका सहयोग करने के कारण, वे अक्सर भरोसेमंद दोस्त और सलाहकार बन जाते हैं। मानसिक संकट के शुरुआती लक्षणों की पहचान करने में अपने बुनियादी प्रशिक्षण के साथ – पहले अपने लिए और फिर दूसरों के लिए – और सहायक सामुदायिक देखभाल नेटवर्क की सुविधा के साथ, वे पहले प्रभावी कार्यकर्ता (फर्स्ट रेस्पोंडर्स) के रूप में कार्य कर सकते हैं। मानसिक स्वास्थ्य के बारे में खुली बातचीत की संस्कृति को बढ़ावा देकर, जमीनी कार्यकर्ता मानसिक कल्याण के बारे में जागरूकता बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जो लोग परामर्श और सहायता लेने में झिझकते हैं उन्हें वे प्रोत्साहित कर सकते हैं और यह एहसास कराने में मदद करते हैं कि उनकी परेशानी, मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे से उत्पन्न हो सकती है या इससे बढ़ सकती है।
कई बार, युवा लड़कों को अपने मानसिक स्वास्थ्य के बारे में बात करना अधिक चुनौतीपूर्ण लगता है। कुछ मामलों में, उनका व्यवहार अक्सर गुस्से या हताशा के रूप में व्यक्त होता है जो उनके आंतरिक तनाव के दबे-छुपे कारण सामने ला सकता है। सुनने के कौशल के साथ-साथ, मानसिक स्वास्थ्य के बारे में गहरी समझ और जागरूकता विकसित कर, और युवाओं को सुरक्षित स्थानों पर खुद को व्यक्त करने के लिए बढ़ावा देकर, एक सुरक्षात्मक और सामुदायिक सुविधा का ढांचा बनाया जा सकता है, जिससे मानसिक स्वास्थ्य जोखिमों के बढ़ने को कम किया जा सकता है।
युवा के सामुदायिक कार्यकर्ताओं ने मानसिक स्वास्थ्य के बारे में बातचीत शुरू करने का एक तरीका एक सामूहिक गतिविधि के माध्यम से शुरू किया है। इसकी शुरुआत हर किसी के द्वारा अपने शरीर के उन हिस्सों को रंगने से होती है जिनमें वह दबाव महसूस करते हैं। फिर इससे पहले कि लोग अपनी भावनाओं को व्यक्त करें और साझा करें, निर्देशित ध्यान का अभ्यास किया जाता है और कुछ अन्य अभ्यास भी किए जाते हैं। यह अक्सर बातचीत शुरू करने का एक असरदार और कोई नुकसान न पहुंचाने वाला तरीका रहा है।
समुदाय के लिए मानसिक स्वास्थ्य और कल्याण सेवाओं के विभिन्न रूप हो सकते हैं। मानसिक स्वास्थ्य सहायता को व्यापक नजरिए से देखना जरूरी है ताकि यह तय किया जा सके कि लोग अपनी गति से, अपने बाकी काम और जिम्मेदारियों के हिसाब से देखभाल प्राप्त कर सकें। हमारे अनुभव में, पारंपरिक परामर्शदाता अक्सर बस्तियों में आने वाली चुनौतियों की जटिलताओं के साथ तालमेल बिठाने के लिए संघर्ष करते हैं। ये जटिलताएं लोगों के खास तरह के तनावों की एक श्रृंखला और हाशिए पर रहने वाले लोगों पर उनके मिले-जुले असर के कारण पैदा होती हैं। यह सामाजिक नेटवर्क के प्रति लोगों के नजरिए, उस तक पहुंच के विभिन्न तरीकों, लोगों के जुझारूपन के कई रूपों और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी चुनौतियों का मुकाबला करने की विविध रणनीतियों के कारण भी पैदा होती हैं।
जटिलताएं लोगों के खास तरह के तनावों की एक श्रृंखला और हाशिए पर रहने वाले लोगों पर उनके मिले-जुले असर के कारण पैदा होती हैं।
प्रशिक्षित सामुदायिक कार्यकर्ता आमतौर पर बातचीत शुरू करने, मानसिक स्वास्थ्य के प्रबंधन के लिए सरल और प्रभावी तरीके साझा करने में सक्षम होते हैं। साथ ही, जिन लोगों को विशेषज्ञ नेटवर्क और संस्थानों में ज्यादा सहायता की जरूरत होती है, वह उन्हें रेफर करने में भी सक्षम होते हैं। मानसिक स्वास्थ्य की देखभाल का यह समुदाय-आधारित दृष्टिकोण, आत्मीयता दृष्टिकोण से मेल खाता है। इसे विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) विश्व स्तर पर सामुदायिक आउटरीच मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं के लिए 25 अच्छी प्रथाओं में से एक के रूप में मान्यता देता है।
व्यक्तिगत स्तर पर, डांस मूवमेंट थेरेपी अक्सर युवा लोगों के लिए गहरी भावनाओं को सामने लाने और उन्हें मूवमेंट के माध्यम से संबोधित करने का एक शक्तिशाली तरीका रहा है। इसने सामुदायिक कार्यकर्ताओं को मुश्किलों में उलझे युवाओं की मदद करने और आवश्यकतानुसार उन्हें आगे विशेषज्ञों के पास भेजने की दिशा दिखाई है। सामुदायिक स्तर पर, शहरी गरीब समुदायों में प्रकृति-आधारित जगह का चुनाव एक महत्वपूर्ण तरीके के रूप में उभरा है। यह घनी आबादी वाली बस्तियों में वहां के लोगों और स्थानीय सरकारी अधिकारियों के सहयोग से डिजाइन की गई हरी-भरी जगहों के बनाए जाने का तरीका सुझाता है। ऐसी जगहें शारीरिक और भावनात्मक विकास के लिए बहुत जरूरी हैं जो समाजीकरण की संभावनाओं के द्वारा मानसिक सहायता प्रदान करती हैं, और हर व्यक्ति को स्वस्थ और तरो-ताजा महसूस कर पाने की क्षमता देती हैं।
इस तरह, जैसा कि एमएचआई कहता है, “देखभाल का लक्ष्य” यह तय करना नहीं होना चाहिए कि कोई व्यक्ति उस बिंदु तक पहुंचे जहां उसे देखभाल की जरूरत ना हो। बल्कि यह नई तरह से देखता है कि विविध समुदायों और समूहों के लिए लगातार मिलने वाली, एक जैसी, समुदाय के नेतृत्व वाली वह देखभाल कैसी है जिसके केंद्र में पीड़ित है।”
हम ‘जिनका सवाल उनका नेतृत्व’ के सिद्धांत में विश्वास करते हैं। मानसिक स्वास्थ्य सहायता सेवाओं के मामले में भी, युवाओं ने कुछ मौकों पर कमियों को पहचाना है और उनके समाधान के तरीके भी सुझाए हैं; हम बस इस बदलाव का नेतृत्व करने के लिए उनका समर्थन करते हैं। उदाहरण के लिए, कोविड-19 महामारी के दौरान, अनुभव आधारित शिक्षण कार्यक्रम चलाने वाले अनुभव शिक्षा केंद्र, और युवा के सदस्यों ने साथ मिलकर ‘मी टू डायरी‘ नाम की एक पहल पर काम किया। यह युवाओं क लिए उन्हीं के द्वारा चलाया जाने वाला एक जर्नलिंग (डायरी लिखना) कार्यक्रम है। उन्होंने ‘संडेज फॉर सेल्फ रिफलेक्शन’ जैसे आयोजन किए जिनमें अपनी भावनाएं व्यक्त करने के लिए ड्राइंग और लेखन जैसे रचनात्मक माध्यमों का उपयोग किया गया। इन युवाओं ने एक-दूसरे के साथ अपनी भावनाएं साझा करने के लिए पूर्वाग्रहों से मुक्त एक सुरक्षित जगह बनाई है जहां उन्हें अपनी कमजोरियों के साथ-साथ खुद को तलाशने का मौका भी मिलता है। यह कार्यक्रम प्रतिभागियों के आत्मविश्वास, करुणा और उनकी भावनात्मक समझ पर इसके असर के फीडबैक के आधार पर कई संस्करणों के माध्यम से जारी रहा है। यह अभी भी युवाओं के नेतृत्व को आगे बढ़ाने का एक प्रयास है।
एक संस्था के तौर पर लोगों के मानसिक स्वास्थ्य के कल्याण और विकास को लंबे अरसे से प्राथमिकता देने के बाद भी हमारा मानना है कि अभी भी बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है। भारत में दुनिया में सबसे ज्यादा आत्महत्या के आंकड़े दर्ज किए गए हैं जिनमें से 41% प्रभावित लोगों की उम्र 30 वर्ष से कम है। अलग-अलग क्षेत्रों की संस्थाओं के लिए कार्यक्षेत्र का ऐसा माहौल बनाना जरूरी है जिसमें मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे को गलत नजर से ना देखा जाए और मानसिक स्वास्थ्य देखभाल को सभी के लिए सुलभ बनाने के प्रयास किए जाएं। मानसिक स्वास्थ्य के बारे में खुली बातचीत को प्रोत्साहित करना, चाहे वह किसी भी क्षेत्र या विषय का काम हो, एक सक्षम संस्कृति बनाने के दिशा में पहला महत्वपूर्ण कदम है। प्रासंगिक तरीकों के बारे में लोगों का ज्ञान विकसित करने के साथ जानकारी और जानकारियों के संग्रह तक लोगों की पहुंच बढ़ाना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। लोगों के मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति को बेहतर बनाने की दिशा में काम करने वाली नीतियों को अपनाना, और उन्हें असरदार तरीकों से लागू करना भी महत्वपूर्ण है। संगत और सेंटर फॉर मेंटल हेल्थ लॉ एंड पॉलिसी जैसी कुछ संस्थाएं हैं जो कई तरह के तरीके (टूल्स), संसाधन और सुलभ शिक्षण सामग्री प्रदान करती हैं। एक शिक्षण संस्थान की हैसियत से हमारा मानना है कि गैर-मेडिकल विशेषज्ञ के रूप में काम करने वालों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है, जो स्थानीय संदर्भों की समझ रखते हुए संरचनात्मक शोषण के प्रभावों के प्रति भी सजग रहते हैं।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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