भारत ने, 2022 के साल में 314 दिन ऐसे देखे जब इसके अलग-अलग इलाकों में भारी बारिश, बाढ़ और भूस्खलन जैसे विध्वंसक मौसमी घटनाएं दर्ज की गईं। अनुमान है कि इस एक साल में, लगभग 20 लाख हेक्टेयर फसल भूमि और 4.2 लाख घर क्षतिग्रस्त हो गये। विश्व मौसम विज्ञान संगठन के एक विश्लेषण के अनुसार, 1970 से 2021 के बीच 573 जलवायु-संबंधी आपदाओं में लगभग 1,38,377 भारतीयों की मृत्यु हुई है – जो एशिया में दूसरी सबसे बड़ी संख्या है। ऐसी घटनाओं और मानवता पर इसके प्रभाव के स्पष्ट होने के साथ इन आपदाओं के लिए तैयारी और अनुकूल प्रणालियों का निर्माण आवश्यक होता जा रहा है। लेकिन जैसा कि हमने महामारी के दौरान देखा, स्वास्थ्य और सेवा वितरण सहित हमारी कई प्रणालियां इन चुनौतियों से लड़ने में सक्षम नहीं थीं।
हमारे पॉडकास्ट ऑन द कॉनट्रेरी बाय आईडीआर में, हमने केरल के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री केके शैलजा और समाजसेवी संगठन ग्राम विकास की कार्यकारी निदेशक लिबी जॉनसन से बातचीत की। केके शैलजा को उनके नेतृत्व और कोविड-19 महामारी और केरल में नीपा वायरस के प्रकोप से निपटने के लिए राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर पहचान मिली है। लिबी को जमीनी स्तर और नीतिगत कार्य तथा आपदा प्रबंधन में 25 वर्षों से अधिक का अनुभव है। उन्होंने 1999 के ओडिशा में आये सुपर चक्रवात के साथ-साथ 2004 हिंद महासागर में आई सुनामी के बाद ग्राम विकास की राहत, पुनर्वास और पुनर्निर्माण गतिविधियों में कॉर्डिनेटर की भूमिका निभाई थी।
लिबी और शैलजा ने इस बातचीत में बताया है कि कैसे अलग-अलग राज्यों के मामले में उनका भूगोल और जनसांख्यिकी अलग तरह की चुनौतियां पैदा करती हैं। उन्होंने लचीलेपन के वास्तविक अर्थ और इसे हासिल करने के तरीकों, नागरिक समाज की भूमिका, और अज्ञात आपदाओं के लिए की जाने वाली तैयारी जैसे विषयों पर भी बात की है।
नीचे दिये गये सम्पादित ट्रांस्क्रिप्ट में आप कार्यक्रम के दोनों अतिथियों की बातचीत की एक झलक पा सकते हैं।
केरल एवं ओडिशा: आपदाओं का पुराना इतिहास
लिबी जॉनसन: प्राकृतिक आपदाएं राज्य को [ओडिशा] को कई सालों से प्रभावित करती आ रही हैं, और पिछले पांच वर्षों से तो हमारे राज्य में वार्षिक आपदा घटनाएं – चक्रवात या बाढ़ – बहुत ज्यादा होने लगी हैं। साल 2021 में, [कोविड-19] के दौरान मध्यपूर्व और ओडिशा के तटीय इलाकों में एक चक्रवात आया था। इसलिए अंतिम कुछ साल हमारे लिए संघर्ष से भरे रहे। ओडिशा सरकार ने कुछ गंभीर, सशक्त प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियां स्थापित की हैं और इसका एक फायदा चक्रवात और इसी तरह की आपदाओं के दौरान जानमाल के नुकसान को रोकना है। 1999 के महा चक्रवात के दौरान हुए अनुभवों की तुलना में यह उल्लेखनीय प्रगति है।
ओडिशा में शहरीकरण की दर भारत में सबसे कम है।
ओडिशा की 40 फीसद आबादी अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजातीय समुदायों से है। राज्य का लगभग दो तिहाई भूगोल पहाड़ी है जिसके बड़े हिस्से में जंगल है। बाकी का बचा एक तिहाई तटीय हिस्सा सघन आबादी वाला इलाका है और यहां विभिन्न व्यवसायों से जुड़े लोग रहते हैं। ओडिशा की जीएसडीपी का लगभग एक-तिहाई हिस्सा खनन और खनिज प्रसंस्करण उद्योगों से आता है। इसलिए, जंगल और जल जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर रोज ही इसका प्रभाव पड़ रहा है। [इलाके में] पांच बड़े नदी बेसिन और वार्षिक बाढ़ वाले इलाके हैं। [राज्य में] शहरीकरण की दर भी भारत के अन्य राज्यों की तुलना में सबसे कम है, इसलिए यहां की अर्थव्यवस्था बहुत ही ग्रामीण और कृषि प्रधान है। लेकिन सकल राज्य उत्पाद (ग्रॉस स्टेट प्रोडक्ट) में कृषि का योगदान केवल 15–16 फ़ीसद है जिसके कारण प्रवासन की दर बहुत अधिक है।
ये सभी कारक मिलकर ओडिशा को अपेक्षाकृत असुरक्षित बना देते हैं। [उदाहरण के लिए, कोविड -19 के दौरान], निचले स्तर पर स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव के कारण राज्य वास्तव में तैयार नहीं था। उन्होंने पंचायतों की जिम्मेदारी बढ़ाकर इससे निपटने का प्रयास किया लेकिन ओडिशा में पंचायती राज व्यवस्था अभी भी अपनी प्रारंभिक अवस्था में है, जिसके कारण तेजी से प्रतिक्रिया देने में सक्षम नहीं है।
केके शैलजा: मुझे लगता है, केरल को भी ओडिशा जैसी ही स्थिति का सामना करना पड़ता है और यह भी बाढ़ और तूफ़ान के प्रति अत्यंत संवेदनशील है। भूभाग एक जैसे हैं – जंगलों से ढके पहाड़। साल 2018 और 2019 में राज्य में विनाशकारी बाढ़ आई था और हमने ओखी जैसे तूफान का सामना किया था।
सामाजिक-आर्थिक रूप से, केरल के लिए चीजें तुलनात्मक रूप से बेहतर हैं– भूमि सुधार अधिनियम, संपूर्ण साक्षरता मिशन और विकेंद्रीकृत योजना जैसे सामाजिक सुधारों के कारण राज्य का मानव विकास सूचकांक ऊंचा है। भारत के अन्य राज्यों की तुलना में केरल में गरीबी दर भी सबसे कम है। लेकिन 860 प्रति वर्ग किलोमीटर, यानी यहां का जनसंख्या घनत्व बहुत अधिक है, जो महामारी के दौरान एक बड़ा खतरा बन गया था। जीवनशैली से जुड़ी बीमारियां – उच्च रक्तचाप, मधुमेह, कैंसर – भी बड़े पैमाने पर हैं और इस दौरान चिंता का कारण बन गई थीं।
आपदा की तैयारी में क्या-क्या शामिल होता है?
1. संकट से परे लचीलेपन का निर्माण
लिबी जॉनसन: 1999 के महा चक्रवात से ओडिशा ने जान को पहुंचने वाली हानि को रोकना सीखा। पिछले कुछ वर्षों में हुई किसी भी आपदा के कारण ओडिशा में होने वाली मौतों की संख्या दहाई में नहीं पहुंची है। जहां यह एक प्रशंसनीय बात है, वहीं किसी आपदा के समय की जाने वाली प्रतिक्रिया अभी भी बहुत ही अनौपचारिक और बिना किसी तैयारी के की जाने वाली प्रतिक्रिया है। तैयारी से जुड़े बहुत सारे काम होते हैं – प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियां अपना काम करने लगती हैं, लोगों को चक्रवात आश्रयों में ले जाया जाता है, राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल (एनडीआरएफ) तुरंत बचाव और राहत कार्य शुरू कर देता है। चाहे हो वह तत्काल भोजन राहत हो या फिर आश्रय सहायता, सब कुछ में बहुत अधिक मनमानी है, [जो कि] सभी अनुभवों [राज्य के अनुभव] को देखते हुए आश्चर्यजनक है। और हम फिर भी इन सभी समस्याओं के लिए तकनीकी-प्रबंधकीय समाधानों (टेक्नो-मैनेजरियल सोल्यूशंस) में भरोसा करते हैं। (इस दृष्टिकोण) की अपनी सीमाएं हैं क्योंकि यह नागरिकों को केंद्र में नहीं रखता है।
लचीलापन लंबे समय में होने वाले विकास और किसी घटना के झटके को झेलने की नागरिकों की क्षमता है। [उदाहरण के लिए], लोगों ने संपत्ति के रूप में लंबे समय तक न टिकने वाले खाद्य पदार्थों का संग्रहण कर रखा हो, लेकिन उनके बैंक में [पर्याप्त] धन नहीं हो। इसके अलावा, जिस परिवार के पास बैंक बैलेंस है और जिसके पास नहीं है, उनके बीच का अंतर बहुत स्पष्ट है। इसलिए, हमें विकास की बुनियादी बातों पर लौटना होगा, और आपदाओं के इर्द-गिर्द इस आभास को दूर करना होगा जिसके कारण लोगों को महसूस होता है कि यह कुछ ऐसा है जो बहुत अलग है।
केके शैलजा: जब भी कोई दुर्घटना होती है हम तभी [लोगों] के बारे में सोचते हैं, और यह पर्याप्त नहीं है। दोबारा बेहतर व्यवस्था के निर्माण का मतलब यह बिलकुल नहीं है कि हम बाढ़ या किसी अन्य आपदा के बाद [उसी संरचना] को दोबारा तैयार करना – इसका मतलब होता है दोबारा ऐसी व्यवस्था बनाना कि लोग इस तरह की कठिनाइयों का सामना कर सकें।
2. योजना और प्रतिक्रिया के केंद्र में नागरिकों को रखना
लिबी जॉनसन: एक नागरिक के रूप में [जब मैं इसके बारे में सोचती हूं] मेरी सरकार ने मेरे साथ कैसा व्यवहार किया है तो मुझे महसूस होता है कि मैंने कक्षा 2 के बच्चे जैसा कुछ गलत किया है और सरकार एक प्रधानाध्यापक है। चिंता और डर का एक भाव निरंतर बना रहता है। राज्य और नागरिकों को दो व्यवस्कों के रूप में एक दूसरे से व्यवहार करना चाहिए; लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। हमारे देश और विशेष रूप से ओडिशा में, यह एक [अपेक्षाकृत] अभिभावक और बच्चे के बीच होने वाले रिश्ते के जैसा है। एक नागरिक का अपने राज्य में विश्वास का स्तर क्या है, जो पंचायत सरपंच, जिला कलेक्टर या मुख्यमंत्री के रूप में प्रकट होता है?
मुझे लगता है कि ओडिशा की एक बड़ी आबादी को अपने मुख्य मंत्री और उनके फ़ैसलों पर बहुत अधिक भरोसा है। लेकिन जिला स्तर पर इस भरोसे की कमी है। हो सकता है कि पंचायत स्तर पर, एक सरपंच बहुत कुछ करना चाहता हो लेकिन उसके हाथ बंधे हुए हैं क्योंकि केरल में जिस तरह का विकेंद्रीकरण हुआ है, ओडिशा में नहीं हुआ है। कोविड -19 के दौरान हुई पुलिसिंग विशेष रूप से [अधिकारियों में नागरिकों का विश्वास बहाल करने में] सहायक नहीं रही है। इसलिए (जबकि) हम नागरिक को केंद्र में रखने के साथ ही, (हमें यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि हम) नागरिक के साथ एक वयस्क के रूप में व्यवहार कर रहे हैं।
3. विकेंद्रीकृत प्रणालियों पर ध्यान केंद्रित करना
लिबी जॉनसन: स्थानीय स्तर के मुद्दों को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने के उल्लेखनीय उदाहरण के रूप में केरल, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल को लिया जा सकता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि इन राज्यों ने संस्थागत डिजाइन और निर्णय लेने के लिए सब्सिडियरी का सिद्धांत का पालन किया, जिसमें विकेंद्रीकरण महत्वपूर्ण था। उन्होंने तय किया कि आवश्यक निर्णय लेने का अधिकार कलेक्टर की जगह पंचायत के पास होना चाहिए। अब हम केरल में विकेंद्रीकृत योजना अभियान की रजत जयंती मना रहे हैं। साल 1996 में, जब केरल सरकार ने पंचायतों को वित्तीय रूप से सशक्त बनाने का निर्णय लिया, तो बहुत से लोगों ने इसे पैसे की बर्बादी का नाम दिया था। लेकिन [कहना उचित होगा] ऐसा नहीं है।
4. तकनीक को समावेशी तरीके से शामिल करना
लिबी जॉनसन: हमें अपनी योजनाओं में तकनीक को शामिल करने की जरूरत है। हालांकि, तकनीक से जुड़े ढेर सारे नवाचार अब भी औसत नागरिक की पहुंच से दूर हैं; और उन्हें सामने लाने की जरूरत है। उदाहरण के लिए, आप एक किसान और उसकी जमीन के लिए मौसम के पूर्वानुमानों को कैसे प्रासंगिक बनाते हैं? हमें जिला-स्तर और प्रखंड स्तर के पूर्वानुमानों से जुड़ी जानकारी मिलती है, जिससे छोटे किसानों को कुछ खास लाभ नहीं मिल पाता। हम इसे किस तरह से सामने लेकर आएं ताकि अंतिम आदमी तक इसका लाभ पहुंच सके?
5. प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं और सूचना प्रणाली को मजबूत करना
लिबी जॉनसन: आज हम सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में जो कुछ भी कर रहे हैं उसे [हमें पूरी तरह] बदलने की जरूरत है। विशेष रूप से ओडिशा में, जहां तीसरे स्तर की विशिष्ट देखभाल प्रणाली के निर्माण पर ध्यान केंद्रित किया गया है और हम प्राथमिक स्वास्थ्य [व्यवस्थाओं] को नजरअन्दाज कर रहे हैं। चाहे यह एक प्राकृतिक आपदा हो या फिर मलेरिया जैसी कोई साधारण सी बीमारी, जो कि अब वापस जंगलों में लौट आई है, हम इसकी जिम्मेदारी आशा और एएनएम कार्यकर्ताओं पर नहीं छोड़ सकते हैं। और ऐसा लगता है कि प्राथमिक स्वास्थ्य समस्याओं को [अपने दम पर] हल करने के लिए हम अपनी आशा दीदियों और एएनएम दीदियों पर बहुत अधिक भरोसा करते हैं।
केके शैलजा: महामारी से हमने कई सबक सीखे, [जिनमें से एक] यह है कि इस प्रकार की आपात स्थितियों से निपटने के लिए हमें प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को तैयार करना होगा। हमने अपनी प्रयोगशालाओं को सक्षम बनाना शुरू कर दिया है ताकि वे शुरुआत में ही बीमारियों की पहचान कर सकें, इसके साथ ही हमने दूसरे और तीसरे-स्तर के अस्पतालों को भी बेहतर बनाना शुरू कर दिया। सरकार के पास अब अच्छे ऑपरेशन थिएटर और वार्ड हैं, जिनमें बिस्तरों की संख्या भी बढ़ी है।
[हमने यह भी सीखा कि] महामारी के लिए, हमें [स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं] को बीमारियों का शीघ्र पता लगाने के लिए प्रशिक्षित करना चाहिए। हम लोगों को महामारियों और बीमारियों के बारे में जागरूक कर रहे हैं। [कोविड-19 के दौरान], हमने ‘मेरा स्वास्थ्य मेरी जिम्मेदारी’ वाले नारे का [उपयोग] शुरू कर दिया था। हम लोगों को सिखा रहे हैं कि वे महामारी और संक्रामक रोगों के साथ कैसे अपना जीवन जी सकते हैं।
6. नागरिक समाज संगठनों के साथ साझेदारी विकसित करना
लिबी जॉनसन: एक समय ऐसा था जब ओडिशा में समाजसेवी संस्थाएं आपदा राहत, या पुनर्वास और पुनर्निर्माण सहित अंतिम व्यक्ति तक सामाजिक कल्याण के लाभ को पहुंचाने वाले सबसे सशक्त एजेंट थे। मुझे याद है कि साल 1999 में, महा चक्रवात के बाद ग्राम विकास ने चार सालों तक पुनर्वास और पुनर्निर्माण पर काम किया था। इसमें राज्य की भूमिका न्यूनतम थी। लेकिन 2013 में आए चक्रवात फेलिन के बाद ऐसा नहीं था, जब अनुदान देने वालों ने सामाजिक-तकनीक साझेदार के रूप में सरकार के साथ मिलकर दूसरे स्तर की भूमिका निभाई और पुनर्निर्माण में सरकार की भूमिका ही मुख्य थी। हालांकि, साल 2018 में तितली चक्रवात या फिर 2019 में आये फानी चक्रवात के बाद, सरकार को तकनीक या सामाजिक भागीदार के रूप में [नागरिक समाज] की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि उन्हें भरोसा था कि वे अपने दम पर इससे निपट सकते हैं।
ओडिशा को अपनी पंचायत प्रणालियों को मजबूत करने के लिए भी संगठनों की आवश्यकता है।
राज्य अब परिवारों को वित्तीय सहायता प्रदान कर रहा है, और लोग आवास योजना (सबऑप्टीमल हैबिटैट प्लानिंग) का विकल्प चुन रहे हैं। पर्यावास योजना या हैबिटैट प्लानिंग, यानी बड़े पर्यावरण के हिस्से के रूप में और सार्वजनिक सामान्य स्थानों को ध्यान में रखते हुए व्यक्तिगत घरों को डिजाइन करना, पूरी तरह से नियंत्रण से बाहर हो गई है। ऐसा पूरे ओडिशा में [हो रहा है] कि आपदाओं के बाद, लोगों के घर बेहतर ढंग से बनाए जा रहे हैं, लेकिन आवास के मामले में ऐसा नहीं है। इसके लिए विशिष्ट कौशल और तकनीकी अभिविन्यास की आवश्यकता होती है, जो समाजसेवी संस्थाएं और नागरिक समाज संगठन अपने साथ लेकर आते हैं।
ओडिशा को अपनी पंचायत [प्रणालियों] को मजबूत करने के लिए भी संगठनों की आवश्यकता है, और ऐसा सरपंचों को अधिक शक्ति देकर नहीं किया जा सकता है। [पंचायत मज़बूत तब बनती है] जब नागरिक-पंचायत के बीच का संबंध मज़बूत हो। स्थानों के व्यापक प्रसार और दूरस्थता, और लोगों की शिक्षा [स्तरों] में व्यापक विविधता को देखते हुए, [राज्य] को एक उत्प्रेरक की आवश्यकता है – [इसे] सुविधा प्रदान करने वाले संगठनों की आवश्यकता है। और दुर्भाग्य से, केरल और कुछ अन्य राज्यों के विपरीत, ओडिशा में साक्षरता मिशन या सामाजिक सुधार आंदोलनों जैसे जन आंदोलनों का कोई इतिहास नहीं है। इसलिए, ऐसा करने के लिए हमें मौजूदा नागरिक समाज संगठनों के पास वापस जाना होगा। और साझेदारी की यही वह प्रकृति है जिसे हमें शामिल करने की जरूरत है।
आप इस लिंक पर जाकर इस बातचीत को पूरा सुन सकते हैं।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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