बाल शोषण के प्रति 60 देशों की प्रतिक्रियाओं की जांच करने वाली 2019 की इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट की रिपोर्ट में कुछ दिलचस्प जानकारियां सामने आई हैं। इसने सर्वेक्षण किए गए सभी देशों में बच्चों को यौन शोषण और दूसरे अन्य प्रकार के शोषणों से बचाने के लिए कानूनी ढांचे के मूल्यांकन में भारत को सबसे ऊपर रखा है। इस माप के आधार पर, रिपोर्ट के अनुसार भारत ने बच्चों के लिए सबसे बेहतर वातावरण माने जाने वाले यूनाइटेड किंगडम, स्वीडन और ऑस्ट्रेलिया को पीछे छोड़ दिया है।
भारत में बाल यौन शोषण के ख़िलाफ़ प्राथमिक क़ानून क्या हैं?
पॉक्सो एक्ट, 2012 और इसके संबंधित नियमों को बच्चों को विभिन्न तरीक़े के यौन अपराधों से बचाने और इन अपराधों से निबटने के लिए बाल-सुलभ न्यायिक तंत्र शुरू करने के उद्देश्य से बनाया गया था। लेकिन, हमारे देश में ऐसे व्यापक बाल यौन शोषण क़ानूनों के बावजूद इस तरह के दुर्व्यवहार का पैमाना चौंका देना वाला है। वर्ल्ड विजन इंडिया द्वारा 2017 में किए गए सर्वेक्षण के अनुसार भारत में प्रत्येक दो में से एक बच्चा यौन शोषण का शिकार है। इसके अलावा अधिकांश मामलों में अपराधी पीड़ित के परिचित होते हैं। जिसके कारण पीड़ित इस समस्या के निवारण के लिए अधिकारियों से नहीं मिलना चाहते हैं।
कोविड-19 महामारी के समय से बच्चों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार की घटनाएँ और तेज़ी से बढ़ रही हैं। साइबर अपराध के नए और कपट वाले रूप अपना सिर उठा रहे हैं। इसके अलावा, जैसा कि हाल के एक अध्ययन से पता चलता है, हमारे पॉक्सो एक्ट के बारे में जागरूकता का स्तर सामान्य से भी बहुत नीचे है।
यहाँ पॉक्सो एक्ट के बारे में जानने वाली पांच प्रमुख बातें हैं, खासकर यदि आप विकास क्षेत्र में बच्चों के साथ काम करते हैं:
1. यह लैंगिक रूप से एक तटस्थ क़ानून है
18 वर्ष के कम उम्र के किसी बच्चे को ‘किसी भी व्यक्ति’ के रूप में परिभाषित करते हुए पॉक्सो एक्ट बाल यौन शोषण पीड़ितों हेतु उपलब्ध कानूनी ढांचे के लिए एक लिंग-तटस्थ वातावरण बनाता है। नतीजतन, यौन दुर्व्यवहार से पीड़ित कोई भी बच्चा इस अधिनियम के तहत उपचार की सुविधा प्राप्त करने में सक्षम है। यह अधिनियम यौन शोषण के अपराधियों के बीच भी लिंग के आधार पर अंतर नहीं करता है, और ऐसे कई मामले हैं जिसमें न्यायालय ने ऐसे दुर्व्यवहारों के लिए औरतों को दोषी ठहराया है।
2. दुर्व्यवहार की सूचना नहीं देना अपराध है
पॉक्सो एक्ट की प्रमुख विशेषता, और यकीनन सबसे अधिक बहस वाला बिंदु धारा 19 के तहत अनिवार्य रिपोर्टिंग का दायित्व है। इसके अनुसार प्रत्येक उस व्यक्ति के लिए स्थानीय पुलिस या विशेष किशोर पुलिस इकाई में जाकर सूचना देना अनिवार्य है जिसे किसी बच्चे के साथ किए जा रहे यौन अपराध का संदेह है या उसकी जानकारी है।
संस्था का प्रभारी कोई भी व्यक्ति जो अपने अधीनस्थ से संबंधित यौन अपराध की सूचना देने में विफल होता है उसे दंडित किया जा सकता है।
इस अधिनियम के तहत न केवल यौन शोषण करने वाले अपराधी दंडित होता है बल्कि उन लोगों को भी सज़ा मिलती है जो ऐसे अपराधों की सूचना नहीं देते हैं। इस अधिनियम के तहत सूचना छुपाने वाले को कारावास या जुर्माना या कई मामलों में दोनों ही प्रकार की सज़ा होती है। इस अधिनियम की धारा 21 के तहत किसी भी कम्पनी या संस्थान में अपने अधीनस्थ से संबंधित यौन अपराध की सूचना देने में असफल होने वाले प्रभारी को जेल भेजे जाने के साथ ही उस पर जुर्माना लगाया जा सकता है। हालाँकि यह अधिनियम बच्चों को ग़ैर-रिपोर्टिंग दायरे से बाहर रखता है। बाल यौन शोषण को रोकने के लिए पिछले कुछ वर्षों में कई लोगों के ख़िलाफ़, आपराधिक कार्रवाई की गई है। इनमें ख़ासकर ऐसे लोग हैं जो शैक्षणिक संस्थानों के प्रभारी है।
3. यौन अपराध की रिपोर्ट करने के लिए कोई समय सीमा नहीं है
आमतौर पर, बाल यौन शोषण पीड़ितों को पहुँचने वाला आघात उन्हें तुरंत अपनी शिकायत दर्ज कराने से रोकता है। इसे स्वीकार करते हुए, 2018 में, केंद्रीय कानून और न्याय मंत्रालय ने स्पष्ट किया कि पॉक्सो अधिनियम के तहत यौन अपराधों की रिपोर्ट करने के लिए कोई समय या आयु सीमा नहीं है। नतीजतन, पीड़ित किसी भी समय अपराध की रिपोर्ट कर सकता है, यहां तक कि दुर्व्यवहार किए जाने के कई साल बाद भी। इसलिए, भारत में बच्चों के साथ काम करने वाले संगठन समय व्यतीत करने के बहाने अपने कर्मचारियों के खिलाफ बाल यौन शोषण की शिकायतों को दूर नहीं कर सकते हैं। दूसरी तरफ़, अमेरिका के कई राज्यों और यूरोपीय संघ के कई देशों में कानूनी सहारा चाहने वाले बाल यौन शोषण पीड़ितों के लिए समय सीमा की शर्त अब भी लगाई गई है। इस तरह की समय सीमा उन पीड़ितों के रास्ते में बाधाएं पैदा करती है जो जीवन में बाद में अपने यौन शोषण के आरोपों को आवाज देने का इरादा रखते हैं।
4. पीड़ित की पहचान की गोपनीयता बरक़रार रखना
पॉक्सो एक्ट की धारा 23 किसी भी प्रकार के मीडिया में पीड़ित की पहचान को प्रकट करने पर प्रतिबंध लगाती है सिवाय उस स्थिति के जब स्थापित विशेष अदालत द्वारा अनुमति दी गई हो। इस धारा के उल्लंघन के तहत दंड का प्रावधान है भले ही पीड़ित के पहचान का ख़ुलासा सद्भाव से ही क्यों ना किया गया हो। इस स्थिति को दोहराते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में सोशल मीडिया पर अन्य बातों के अलावा पॉक्सो पीड़ित की पहचान का खुलासा करने को लेकर भी कई निर्देश जारी किए।
5. पॉक्सो नियम के तहत नए दायित्व
पिछले साल सरकार ने पॉक्सो नियमों की नई सूची जारी की। भारत में बच्चों के लिए काम कर रही संस्थाओं के लिए इन नियमों से तीन मुख्य निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। सबसे पहले, बच्चों को आवास देने वाली या उनके साथ लगातार सम्पर्क में आने वाली किसी भी संस्था को समय-समय पर पुलिस सत्यापन करवाना होगा। साथ ही उन कर्मचारियों की पृष्ठभूमि की आवश्यक रूप से जाँच करवानी होगी जो बच्चों से बातचीत करते हैं या उनके सम्पर्क में रहते हैं। दूसरे, ऐसी संस्था को अपने कर्मचारियों को बाल सुरक्षा और संरक्षण के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए नियमित प्रशिक्षण देना होगा। तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसे बच्चों के ख़िलाफ़ हिंसा को लेकर ज़ीरो टॉलरन्स के सिद्धांत पर आधारित बाल संरक्षण नीति अपनानी होगी। इस नीति को उस राज्य सरकार की बाल संरक्षण नीति को प्रतिबिंबित करना चाहिए जिसमें संगठन संचालित होता है।
कानूनी अनिवार्यताएं एक तरफ, बच्चों से जुड़े किसी भी संगठन के लिए बाल संरक्षण नीतियां बिल्कुल महत्वपूर्ण हैं। ये नीतियां बाल शोषण की घटनाओं से निबटने के लिए प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करती हैं और ऐसी घटनाओं के सामने आने पर मनमानी कार्रवाई को कम करती हैं। इसके बदले में यह प्रतिष्ठा को क्षति पहुँचने से रोकता है और संगठन की विश्वसनीयता को बढ़ाता है।
एक अच्छी तरह से तैयार की गई बाल संरक्षण नीति संगठन के बाल शोषण रोकथाम उपायों को स्पष्ट रूप से परिभाषित करेगी। साथ ही बाल दुर्व्यवहार की घटनाओं को हल करने के लिए एक निवारण तंत्र तैयार करने में मददगार होगी। ऐसा करने पर, यह पोक्सो एक्ट के तहत अनिवार्य रिपोर्टिंग दायित्व को प्रतिबिंबित करेगा। और बाल शोषण की शिकायतों को दूर करने और नीति को लागू करने के लिए संगठन के भीतर व्यक्तियों के एक निर्दिष्ट समूह में अधिकार निहित करेगा। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि एक मजबूत बाल संरक्षण नीति इस विश्वास को प्रेरित करेगी कि इसे अपनाने वाला संगठन बाल शोषण की चिंताओं से निष्पक्ष रूप से और कानून की उचित प्रक्रिया के अनुसार निबटेगा।
अस्वीकरण: इस लेख का उद्देश्य सामान्य जानकारी प्रदान करना है और इसे संदर्भ-विशिष्ट पेशेवर कानूनी सलाह के बदले उपयोग में नहीं लाया जाना चाहिए। यह लेख मूलतः अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुआ था और आप इसे यहाँ पढ़ सकते हैं। आईडीआर ने इस लेख का हिंदी में अनुवाद किया है ताकि अनुवादक के प्रयोग से इसे बृहत् स्तर पर पहुँचाया जा सके। जहां एक तरफ़ आईडीआर अंग्रेज़ी में लिखे मूल लेख के अचूक अनुवाद की सभी संभव कोशिशें करता है, वहीं भाषाई सीमाओं के कारण हिंदी लेख में कुछ अंतर का पाया जाना सम्भव है। इन अंतरों और अनुवाद के कारण आई किसी भी तरह की ग़लती के लिए न तो आईडीआर और ना ही लेखक ज़िम्मेदार होगा।
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अधिक जानें
- पॉक्सो एक्ट, 2012 और पॉक्सो नियम, 2020 के बारे में अधिक जानें।
- महामारी के दौरान यौन शोषण से पीड़ित लोगों की सहायता करना सीखें।
अधिक करें
- नागरिक समाज संगठनों के लिए प्रभावी बाल संरक्षण नीतियों का मसौदा तैयार करने के तरीके पर इस व्यापक मार्गदर्शिका का उपयोग करें।
- चाइल्डलाइन (एक 24/7 राष्ट्रीय हेल्पलाइन) के लिए 1098 पर कॉल करें या बाल शोषण से संबंधित किसी भी प्रकार की मदद के लिए उन्हें [email protected] पर ईमेल करें।
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