घर-घर दस्तक देती हूं,
बच्चे की खांसी, बुर्जुगों की सेहत
सबका हाल जानती हूं।
आज का सर्वे कुछ नया है,
घर के गमले गिनने आई हूं,
क्योंकि हो सकता है मच्छर भी
अब ‘राष्टविकास’ का हिस्सा हों।
कभी बुखार, कभी सर्वे,
कभी बच्चों की सही उम्र का अंदाजा
कल तक टीके थे जरूरी,
आज ‘पेट के कीड़े’ की चिंता गहराई है।
लिखूं किसका पोषण कम है
या दर्ज करूं किसके घर की छत
पर कितने पानी के टैंक है,
घर में पानी नहीं,
पर फॉर्म में पूछना है-
“हाथ कितनी बार धोते हैं?”
कागज पर रिपोर्टिंग है,
पर जमीनी सच्चाई कहीं खो जाती है।
मीटिंग में फिर सवाल आता है-
“मैडम, कोई परेशानी तो नहीं?”
मैं मुस्कुरा देती हूं-
मैं एक छोटी सी ‘आशा’ हूं।
मेरे पास है यूनिफार्म
नाम का टैग भी
पर तनख्वाह मेरी
‘प्रोत्साहन’, ‘मानदेय’ राशि में आती है
मानो काम न हो, यहां सेवा ‘निशुल्क’ है
जो गुजारे की नहीं ‘सब्र’ बन जाती है
क्योंकि आशा तो है उम्मीद की किरण
न मैं डॉक्टर हूं, न अफसर
पर हर योजना की पहली सीढ़ी
मेरे कदमों से बढ़ती है।
हर घर के हालात
मेरे रजिस्टर में दर्ज हैं।
‘गांव में कुछ बदला’ कोई पूछता है,
तो सोचती हूं
हां, बदला है
अब मच्छर भी गमलों में
उम्मीदें पालते हैं-
कि आशा आएगी,
तो शायद हमसे भी पूछेगी-
“आपके कितने बच्चे हैं?”
गोपनीयता बनाए रखने के लिए आपके ईमेल का पता सार्वजनिक नहीं किया जाएगा। आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *