मैं उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में रहने वाला एक शिक्षक और एक्टिविस्ट हूं। मैंने अपना नाम नेविश रखा है क्योंकि एक ग़ैर-बाइनरी व्यक्ति होने के नाते जन्म के समय मिलने वाले अपने नाम, जाति और लिंग से मैं संबंध स्थापित नहीं कर सका। नेविश शब्द में मेरे पसंदीदा रंग (नीला) के अक्षर के अलावा मेरे माता-पिता के नाम (विमला और शिव प्रकाश) के अक्षर भी हैं। मुझे सुनने में यह बहुत अच्छा लगा था और मैंने उत्सुकता में गूगल पर इसका अर्थ खोजने की कोशिश की कि वास्तव में इस शब्द का कोई मतलब है या नहीं। हालांकि मैं एक नास्तिक हूं लेकिन मुझे यह जानकर अच्छा लगा कि हिब्रू भाषा में इस शब्द का अनुवाद ‘देवता की सांस’ होता है। तब से ही इस ‘नेविश’ शब्द ने मेरे अंदर जगह बना ली।
डेवलपमेंट सेक्टर ने बचपन से ही मुझे अपनी ओर आकर्षित किया है। अपने आसपास विभिन्न तरह के भेदभाव और असमानताओं को देखने और उनमें से कुछ का अनुभव हासिल करने के बाद मेरे भीतर सामाजिक बदलाव की प्रेरणा आई। इसलिए 2018 में मैंने एक कम्यूनिटी-केंद्रित संगठन वी इमब्रेस ट्रस्ट की स्थापना की। यह ट्रस्ट मानव अधिकारों, पशु अधिकारों और क्लाइमेट जस्टिस (जलवायु न्याय) के मुद्दों पर काम करता है। अपने क्लाइमेट जस्टिस वाले काम के हिस्से के रूप में हम लोग फ़्राइडेज फ़ॉर फ़्यूचर के दायरे में काम करते हैं। यह एक वैश्विक पर्यावरण पहल है जो ग्रेटा थुनबर्ग द्वारा किए गए कामों से निकला है। गोरखपुर में मानव अधिकारों के विषय पर किया गया हमारा काम मुख्य रूप से शिक्षा के अधिकारों पर केंद्रित है।
हम लोग तीन से 12 साल के बच्चों के साथ मिलकर झुग्गियों में शिक्षा से जुड़े कार्यक्रम चलाते हैं। ये सभी निम्न आय वर्ग वाले परिवारों से आते हैं; उनमें से कुछ ने बीच में ही स्कूल जाना बंद कर दिया है और कुछ ने तो स्कूल में दाख़िला तक नहीं लिया है। हम उन्हें स्कूल जाने के लिए तैयार करते हैं। स्कूल के पाठ्यक्रमों को पढ़ाने के अलावा यह कार्यक्रम लिंग संवेदनशीलता पर ध्यान देता है और विविधता और समावेशन को बढ़ावा देता है।मेरे काम का मुख्य चरित्र लिंग संवेदनशीलता मेरे काम का मुख्य चरित्र है। मेरी सोच यह कहती है कि वी इमब्रेस कई अलग-अलग क्षेत्रों में इसलिए काम करती है ताकि वह यह स्पष्ट कर सके कि कैसे हाशिए पर जी रहे लोगों की पहचान एक दूसरे का प्रतिच्छेद कर सकती है। इन प्रयासों के अलावा, मैं जीवनयापन करने के लिए लीड इंडिया के साथ मिलकर सामाजिक क्षेत्र के साथियों के लिए नेतृत्व और माइंडफुलनेस वर्कशॉप का आयोजन करता हूं। इस काम से मिलने वाले पैसे से मेरा अपना खर्च निकल जाता है।
सुबह 7.00 बजे: मेरी सुबह विपश्यना/ध्यान से शुरू होती है। मैं इसे अपने दैनिक जीवन के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण मानता हूं और शिक्षा कार्यक्रम के तहत अपने साथ काम कर रहे बच्चों के जीवन में भी इसे शामिल करना चाहता हूं। मेरे माता-पिता का घर पास में ही है इसलिए सुबह के नाश्ते के बाद मैं उनसे मिलने चला जाता हूं। मुझे उनके साथ बिताया गया समय बहुत अच्छा लगता है। माता-पिता से मिलने के बाद मैं अपने घर वापस लौटता हूं और अपने ईमेल का जवाब देने से लेकर ऑनलाइन होने वाली मीटिंग और ऐसे ही अन्य काम निपटाता हूं।
अपने माता-पिता के साथ मेरा रिश्ता समय के साथ बेहतर हुआ है। मेरे किशोरावस्था में वे चाहते थे कि मैं ढंग से पढ़ाई करके एक सरकारी नौकरी कर लूं, शादी करुं और बच्चे पैदा करुं। लेकिन मुझे ऐसा भविष्य आकर्षित नहीं करता था। मैंने हमेशा उन चीजों पर सवाल किए जिन्हें मेरे परिवार ने हल्के में लिया। एक बार मैंने अपनी माँ की ऐसी तस्वीर देखी जिसमें उन्होंने सलवार क़मीज़ पहना था। मैंने उनसे पूछा कि वह शादी के बाद सिर्फ़ साड़ी ही क्यों पहनने लगीं जबकि मेरे पिता के कपड़ों में किसी तरह का कोई बदलाव नहीं आया था। उनके पास मेरे इस सवाल का कोई जवाब नहीं था। बड़े मुझसे अकसर कहा करते थे कि बाल की खाल मत उखाड़ो (मतलब कि बहस मत करो)। मुझे मालूम नहीं था कि बाल की खाल क्या होता है।
मैं स्कूल के दिनों में बहुत अच्छा विद्यार्थी था और मैंने सिविल इंजीनियरिंग में गोरखपुर के इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉज़ी एंड मैनेजमेंट से बीए की पढ़ाई की है। उसके बाद मैंने स्ट्रक्चरल इंजीनियरिंग में एमए की पढ़ाई शुरू की लेकिन बीच में ही छोड़ दिया और अपना पूरा ध्यान सोशल इंजीनियरिंग पर लगा दिया।
2014 में बेहतर अवसर की तलाश में मैं दिल्ली आ गया। यह वह समय भी था जब मैं अपनी अलैंगिकता (असेक्सुअलिटी) और ग़ैर-बाइनेरी पहचान को समझने लगा था। इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़ने के मेरे फ़ैसले से मेरा परिवार बहुत खुश नहीं था। उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं एक इंजीनियर के रूप में किसी कन्स्ट्रक्शन साइट पर काम क्यों नहीं कर सकता हूं। मैंने करने की कोशिश भी थी लेकिन मुझे काम का माहौल बहुत ख़राब लगा। मैं उन जगहों पर अति पुरुषत्व को बर्दाश्त नहीं कर सकता था, जहां इंजीनियर साइट पर श्रमिकों को फटकार लगाते थे। मेरा चुनाव कॉलेज में सहायक प्रोफ़ेसर के रूप में भी हुआ था। लेकिन मैं उस समय संशय में आ गया जब एक साथी प्रोफ़ेसर ने मुझसे पूछा कि मैं ‘अजीब’ तरह से क्यों चलता हूं। मुझे इस बात का डर था कि कॉलेज के छात्र और ज़्यादा संकीर्ण दिमाग़ के होंगे और मेरा मज़ाक उड़ाएंगे। इसलिए मैंने उस पद पर काम न करने का फ़ैसला किया।
लगातार पूछताछ और आत्म-संदेह, मेरे दादाजी की अचानक मृत्यु और मुझ पर शादी करने और ‘सामान्य जीवन’ जीने के दबाव के कारण मैं गहरे अवसाद में पड़ गया। मैंने इस दौरान काउन्सलिंग ली और इससे मुझे अपनी लिंग पहचान की पुष्टि करने में मदद मिली। इससे मुझे इस बात का एहसास हुआ कि मैं अन्य हाशिए के व्यक्तियों के लिए सुरक्षित स्थान प्रदान करने में योगदान देना चाहता हूं।
सामाजिक कार्य को अधिक व्यावहारिक तरीके से करने की आशा के साथ मैं कुछ समलैंगिक, नारीवादी और नास्तिक समूहों में शामिल हो गया। इससे मुझे अंतर-राजनीति की मेरी समझ को विकसित करने में मदद मिली। दिल्ली में मैंने एक राह ट्रस्ट की सह-स्थापना की। इस संस्था के काम में निम्न आय वाले परिवारों के बच्चों को पढ़ाना और LGBTQIA+ वर्ग के लोगों के काउन्सलिंग का काम शामिल था। महामारी के दौरान लगाए गए लॉकडाउन के दिनों में मैंने उन बच्चों के साथ काम किया जो शिक्षा के लिए संघर्ष कर रहे थे। दिल्ली में रहने के दौरान मैंने बहुत कुछ सीखा। लेकिन मुझे गोरखपुर वापस लौटना पड़ा।
2021 में मैं डिसोम का फ़ेलो बन गया। यह कार्यक्रम समाज के हाशिए के वर्गों के नेताओं के पोषण पर केंद्रित है। इस फ़ेलोशीप के अंतर्गत जब मैं नागालैंड गया था तब मुझे शांति कार्यकर्ता (पीस एक्टिविस्ट) निकेतु इरालू से मिलने का मौक़ा मिला। हमारी बातचीत के दौरान उन्होंने कहा कि “जो आपके रास्ते में है वही आपका रास्ता है”, और इन शब्दों ने वास्तव में मेरे अंदर जगह बना लिया।
मैंने महसूस किया कि लिंग संवेदीकरण, भेदभाव और बाल श्रम जैसे मुद्दों पर काम करने के लिए अपने घर वापस लौटने का महत्व मेरे लिए दिल्ली में रहने से कहीं ज़्यादा है। मैं जानता था कि गोरखपुर लौटना मेरे लिए चुनौतीपूर्ण होगा क्योंकि लोग मेरे लैंगिक अभिव्यक्ति के प्रति कहीं अधिक आलोचनात्मक होंगे। लेकिन मैं समझ चुका था कि इस क्षेत्र को तत्काल सुधार की ज़रूरत थी।
सुबह 10.00 AM: गोरखपुर में मैंने ऐसे कई लोगों के साथ काम किया जिनकी राजनीतिक विचारधारा मेरी विचारधारा से अलग थी। उदाहरण के लिए, पर्यावरण स्वच्छता और जागरूकता अभियान पर काम करते समय हमें पुलिस की अनुमति की ज़रूरत होती थी या हम लोग स्थानीय नेताओं से बात करना चाहते थे। ऐसा संभव था कि वे मेरी हर सोच से सहमत न हों। लेकिन एक बात जो मैंने महसूस की वह यह थी कि हम सब एक साफ़ और हरित शहर चाहते थे और कुछ चीजों पर सहमत हो सकते थे।
फ़्राइडेज फ़ॉर फ़्यूचर के एक हिस्से के रूप में आज हम लोगों ने शहर के बागों और झील के किनारे जाकर प्लास्टिक चुनने का काम किया है। अपने शहर को साफ़ रखने में यह हमारा छोटा सा योगदान है। इन जगहों की सफ़ाई करते हुए देखकर लोग अक्सर इस काम में हमारा साथ देने लगे या गंदगी फैलाने के लिए माफ़ी मांगने लगे। लोग हमारे इस काम करने के पीछे की हमारी प्रेरणा के बारे में जानना चाहते थे और मुझसे इस बारे में पूछा करते थे। इस सवाल के जवाब में मैं हमेशा कहता था कि हम सिर्फ़ अपने शहर को हरा और साफ़ रखना चाहते हैं और इसके लिए जो भी कर सकते हैं वह करते हैं।
इन दिनों हम विभिन्न सरकारी और निजी स्कूलों से सम्पर्क कर रहे हैं और उनसे छात्रों को पर्यावरण शिक्षा देने और उन्हें इन आंदोलनों में शामिल करने के लिए कहते हैं।
शाम 4.00 बजे: झुग्गी शिक्षा कार्यक्रम के तहत होने वाली कक्षाएं आमतौर पर दोपहर में आयोजित की जाती हैं। मेरे छात्र उन 11 परिवारों से आते हैं जिनका काम उस इलाके में कूड़ा इकट्ठा करने का है। इसमें से ज़्यादातर बच्चे अपने परिवार में पढ़ाई लिखाई करने वाली पहली पीढ़ी के बच्चे हैं। हम उन्हें स्कूल जाने के लिए आवश्यक चीजों जैसी कि स्टेशनरी और किताबें मुहैया करवाने की कोशिश करते हैं।
इन बच्चों और किशोरों के साथ काम करने का एक बहुत बड़ा कारण यह है कि मैं समझता हूं कि वे कितने प्रभावशाली हैं। यदि हम वास्तव में अपनी भावी पीढ़ी को फलता-फूलता और किसी भी तरह के भेदभाव और हिंसा से दूर देखना चाहते हैं तो इसके लिए उन्हें कम उम्र में ही संवेदनशील बनाना बहुत महत्वपूर्ण है। हम अक्सर बच्चों की क्षमता को कमतर आंकते हैं। हम सोच लेते हैं कि बच्चों में तब तक किसी तरह का कौशल नहीं होता है जब तक कि वे औपचारिक शिक्षा नहीं हासिल कर लेते। लेकिन बच्चे अपने आसपास के लोगों को देखकर बातचीत करना, गाना, नाचना और यहां तक कि झूठ बोलना भी सीख लेते हैं।
जब हम बच्चों को पढ़ाते हैं तो हम ऐसी भाषा का भी परिचय देते हैं जो पाठ्यक्रम में लिंग मानदंडों को बदल देती है।
जब मैं बच्चों से बातचीत करता हूं तब वे अपनी जिज्ञासा के कारण मेरे ‘ग़ैर-पारम्परिक’ व्यक्तित्व और व्यवहार के बारे में पूछते हैं। वे मुझसे पूछते हैं “आपके टैटू का क्या मतलब है?” और “आपके बाल इतने लम्बे क्यों हैं?” इससे मुझे उनसे लिंग और मेरे ग़ैर-बायनरी व्यक्तित्व को लेकर अपनी सोच के बारे में बात करने का अवसर मिलता है। जब हम बच्चों को पढ़ाते हैं तो हम ऐसी भाषा का भी परिचय देते हैं जो पाठ्यक्रम में लिंग मानदंडों को बदल देती है। उदाहरण के लिए, हम स्कूल की किताबों में लिखे कुछ वाक्यों को बदल देते हैं जैसे कि “राम ऑफ़िस जाता है और सीता खाना बनाती हैं” को हम “राम खाना बनाता है और सीता ऑफ़िस जाती है” कर देते हैं। इस तरह के सामान्य बदलाव श्रम विभाजन के बारे में पारंपरिक धारणाओं को इन बच्चों के मन में खुद को स्थापित करने से रोकने में मदद करते हैं।
हालांकि किसी को ऐसा लग सकता है कि बच्चों का परिचय इन विचारों से करवाने से उनके माता-पिता से प्रतिकूल प्रतिक्रिया मिल सकती है लेकिन मेरा अनुभव यह नहीं कहता है। माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चों का जीवन बेहतर हो, और वे जो हम बताते हैं उसे सुनने के लिए उत्सुक हैं। उनका मानना है कि हम उनके बच्चों की भलाई चाहते हैं।
यहां तक कि दिल्ली में मैं जिन बच्चों के साथ काम करता था उनका परिवार हमारे तौर-तरीक़ों को सहजता से स्वीकार कर लेते थे। वे क्लास में एक ट्रांसजेंडर शिक्षक द्वारा पढ़ाए जाने वाली हमारी बात से सहमत हो गए। इस तरह बच्चों को लिंग पहचान के विविध भावों के प्रति संवेदनशील बनाया गया। साथ ही बच्चे लिंग से जुड़े ऐसे सवाल करने लगे जो अन्यथा उनके लिए सामान्य नहीं था। मुझे याद है कि हमने बच्चों को लिंग से जुड़ी शिक्षा देने के लिए संगीत और डांस का प्रयोग भी किया था। जब लड़के गा या नाच रहे थे और किसी ‘स्त्री चाल’ या गाने पर नाचने से मना कर रहे थे तब मैंने उन्हें यह बताया था कि नृत्य की किसी चाल या गाने के बोल का कोई लिंग नहीं होता है। उन्हें ये अर्थ केवल यूं ही दे दिए जाते हैं।
शाम 6.00 बजे: मैंने हाल ही में गोरखपुर में विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर काम कर रहे समाजसेवी संस्थाओं, स्टार्ट-अप और वोलंटीयर और एक्टिविस्ट समूहों का संचालन करने वाले लोगों से बातचीत करनी शुरू की है। मैं ज़्यादातर उनसे इंस्टाग्राम पर सम्पर्क करता हूं और वी इमब्रेस के सोशल मीडिया चैनलों पर उनके काम के बारे में लोगों को बताता हूं। दरअसल इस काम के पीछे का विचार शहर के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न कारणों पर काम करने वाले संगठनों के एक समूह का निर्माण करना था। ऐसा करने से किसी ख़ास मुद्दे पर काम करने वाले लोग किसी क्षेत्र या शहर विशेष में कार्यरत समाजसेवी संस्था तक की यात्रा के बजाय अपने ही क्षेत्र में कार्यरत किसी संगठन से जुड़ सकेंगे।
रात 9.00 बजे: रात में सोने से पहले मैं निश्चित रूप से या तो टीवी पर कोई सीरीज़ देखता हूं या फिर कोई किताब पढ़ता हूं। पिछले दिनों में ‘फ़्रेंड्स’ आदि जैसे हल्के विषय वाले सीरीज़ ही देखना पसंद कर रहा था। जहां तक किताबें पढ़ने की बात है तो मैं आमतौर पर नारीवाद से जुड़ा साहित्य ही पढ़ता हूं। इन दिनों में निवेदिता मेनन की लिखी किताब ‘सीईंग लाइक ए फ़ेमिनिस्ट’ का नया संस्करण पढ़ रहा हूं। इसके अलावा मैं अम्बेडकर, गांधी और विनोबा भावे के कामों को भी पढ़ता हूं जिससे मुझे बहुत प्रेरणा मिलती है। पढ़ने और कविताएं लिखने से मुझे बहुत राहत महसूस होता है। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और परवीन शाकिर मेरे पसंदीदा शायर हैं। उनकी कविताओं और शेरों को पढ़ने से मुझे ख़ुशी मिलती है क्योंकि मुझे उर्दू भाषा बहुत अधिक पसंद है।
मेरे पास उर्दू भाषा का एक शब्दकोश है जिससे मैं उर्दू के नए शब्द सीखता रहता हूं। दिन के अंतिम पहर में मुझे अपने काम और लक्ष्यों के बारे में सोचने का मौक़ा मिलता है। मेरा ऐसा विश्वास है कि पाठ्यक्रमों में यदि हाशिए पर जी रहे लोगों के जीवन के ऐसे अनुभवों को शामिल किया जाए जिससे हमारी युवा पीढ़ी संवेदनशील बने तो आज से 20 साल बाद हमारा समाज बहुत अलग होगा। दूसरों को नीचा दिखाने के बजाय लोग एक दूसरे को ऊपर उठाने के लिए आतुर होंगे। मैं ऐसी ही दुनिया देखना चाहता हूं और मुझे विश्वास है कि ऐसी दुनिया बनाने के लिए समावेशी शिक्षा आवश्यक है।
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