नागपुर महाराष्ट्र का तीसरा सबसे बड़ा शहर होने के साथ ही राज्य का प्रमुख व्यावसायिक और राजनीतिक केंद्र भी है। शहर की छत्तीस प्रतिशत आबादी झुग्गियों में रहती है। इन झुग्गियों में लगातार जलता हुआ बायोमास गैस देश में घरेलू वायु प्रदूषण का एक मुख्य कारण है जो अब गम्भीर चिंता का विषय बन चुका है। वॉरियर माम्स और सेंटर फ़ोर सस्टेनेबल डेवलपमेंट ने नागपुर के शहरी इलाक़ों में स्थित 12 झुग्गियों के 1,500 झोपड़ियों का सर्वेक्षण किया। इस सर्वेक्षण की मदद से उन्होंने विभिन्न क़िस्मों के ईंधन की उपलब्धता और इस्तेमाल तथा उनसे जुड़े स्वास्थ्य प्रभावों को समझने की कोशिश की। इस सर्वेक्षण में विशेष रूप से उन महिलाओं और उनके बच्चों के स्वास्थ्य को केंद्र में रखा गया जो अपने घरों में खाना पकाने या गर्म करने के लिए चूल्हों (मिट्टी या ईंट के स्टोव) का इस्तेमाल करती हैं।
हमारे सर्वे के अनुसार नागपुर की झुग्गियों में रहने वाली 43 प्रतिशत औरतें एलपीजी कनेक्शन होने के बावजूद अब भी खाना पकाने के लिए लकड़ी, भूसे, चारकोल, कोयला, उपले और किरोसीन तेल का इस्तेमाल करती हैं। यह इस बात की ओर ध्यान दिलाता है कि शहरी झुग्गियों में खाना पकाने के स्वच्छ विकल्प को पूरी तरह बदलने की इस प्रक्रिया में अब भी कई तरह की आर्थिक और सामाजिक-सांस्कृतिक बाधाएं हैं। और यह एक जटिल और बहुस्तरीय समस्या है।
रिसर्च से इस बात की पुष्टि हुई है कि घरों में जलने वाले बायोमास से होने वाली घरेलू वायु प्रदूषण का सबसे अधिक असर महिलाओं और बच्चों पर पड़ा है। सविता भोजने (32) की टिन से बनी झोपड़ी चिखली झुग्गी में है। उसका कहना है कि दिन भर कूड़ा उठाने का काम करने के बाद रात में उसे जलते हुए चूल्हे के सामने बैठकर खाना पकाना पड़ता है। यह समस्या सविता के जीवन का हिस्सा है क्योंकि उसके लिए यह सबसे किफ़ायती और सुलभ विकल्प है।
एलपीजी सिलिंडरों की आसमान छूती क़ीमतों का एक मात्र मतलब यह है कि गरीब लोग अब भी पूरी तरह से स्वच्छ ईंधन के विकल्प को नहीं अपना सकते हैं। यह उनके लिए एक सपने की तरह है। एक एलपीजी सिलिंडर की कीमत 1,000 रुपए से ज़्यादा है और यह मुश्किल से एक महीने चलता है। वहीं 100–400 रुपए में इतनी लकड़ी आ जाती है जिससे एक महीने तक आसानी से खाना पकाया जा सकता है। कुछ लोग साल के ज़्यादातर महीने एलपीजी का इस्तेमाल करते हैं लेकिन सर्दियों में होने वाली गर्म पानी की खपत के लिए उन्हें भी चूल्हों का उपयोग करना पड़ता है।
अपने परिवार का पेट भरने और उन्हें खाना खिलाने के लिए औरतों को अक्सर ही जलावन के लिए लकड़ियां इकट्ठा करने का काम करना पड़ता है। उनचास वर्ष की मायाबाई शिंघनापूरे नागपुर के न्यू वैशाली नगर झुग्गी में रहती है। वह पिछले कई दशक से अपने चूल्हे के लिए लकड़ी इकट्ठा करने का काम कर रही है। महज़ 6,000 रुपए की मासिक आमदनी वाली मायाबाई को लगता है कि निकट भविष्य में उनकी स्थिति कुछ ख़ास नहीं बदलेगी क्योंकि वह आसमान छूती क़ीमत वाली एलपीजी नहीं ख़रीद सकती है।
औरतों और लड़कियों का ज़्यादा समय जलावन के लिए लकड़ी या अन्य चीजों को इकट्ठा करने में लग जाता है। ऐसा करते हुए वे कई बार खुद को जोखिम में डाल देती है क्योंकि जलावन चुनने के इस काम में अक्सर डम्पिंग ग्राउंड जैसी असुरक्षित जगहों से बायोमास भी उठा लाती हैं। युवा लड़कियों को अवसर के रूप में इस काम की ज़्यादा क़ीमत चुकानी पड़ती है क्योंकि वे पढ़ाई-लिखाई जैसे काम छोड़कर बायोमास इकट्ठा करने को अपना मुख्य काम बना लेती हैं।
ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज स्टडी, 2019 के अनुसार ठोस ईंधन जलाने से घरेलू वायु प्रदूषण होता है। यह प्रदूषण पूरे भारत में परिवेशी वायु गुणवत्ता का 30-50 प्रतिशत है। इसके कारण हर साल लगभग 6 लाख भारतीयों की समय से पहले मौत हो जाती है। अध्ययन से यह बात सामने आई है कि चूल्हों से निकलने वाले ज़हरीले प्रदूषक पदार्थों का उच्च स्तर फेफड़े के कैंसर और हृदय एवं सांस संबंधी बीमारियों का एक प्रमुख कारक है। इन ज़हरीली धुओं में सांस लेने से महिलाओं को दमा (अस्थमा), अनियमित मासिक चक्र का शिकार होना पड़ता है और इसके अलावा उन्हें गर्भावस्था में प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है।
सिद्धेश्वरी झुग्गी में रहने वाली 60 वर्षीय आदिवासी महिला राजकुमारी धुर्वे के लिए चूल्हे पर खाना बनाना एक मुश्किल काम है। चूल्हे के धुएं से उसकी आंखों में पानी आ जाता है और खाना बनाना एक कठिन और नापसंदगी का काम बन जाता है। लेकिन उसे हर दिन कम से कम दो घंटे चूल्हे के सामने बैठना पड़ता है। राजकुमारी की तरह ही सर्वेक्षण में भाग लेने वाले 65 प्रतिशत लोगों ने बताया कि चूल्हा इस्तेमाल करते हुए उनकी आंखों में जलन होती है।
बीस साल की पूनम मरकम एक दिहाड़ी मज़दूर है। पहले गर्भावस्था के दौरान सात माह के अपने पहले बच्चे को खोने के बाद पूनम अब फिर से मां बनने वाली है। नागपुर की सिद्धेशवरी झुग्गी की निवासी पूनम अपनी गर्भावस्था के दिनों में भी चूल्हे पर ही खाना पकाती है और अपने और अपने अजन्मे बच्चे पर पड़ने वाले इसके दुष्प्रभाव से अनजान है। ग़रीबी और बायोमास ईंधन के दुष्प्रभाव को लेकर जागरूकता की कमी ने पूनम जैसी औरतों को गर्भावस्था के प्रतिकूल परिणामों का शिकार होना पड़ता है। रिसर्च बताता है कि लगातार धुएं के सामने रहने से औरतों पर बहुत ही प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। इस स्थिति में उनका बच्चा या तो गर्भ में ही मर सकता है, कम वजन वाला हो सकता है, अविकसित हो सकता है और इससे नवजात मृत्यु दर भी बढ़ जाता है।
महिलाओं की तरह, बच्चों को चूल्हे के करीब होने के कारण बायोमास जलने के हानिकारक प्रभावों का सामना करना पड़ता है जब उनकी मां खाना पका रही हो या पानी गर्म कर रही हो। उनके फेफड़े चूल्हों से निकलने वाले जहरीले धुएं के संपर्क में आते हैं, जिससे वे सांस लेने में तकलीफ, सांस फूलने और लगातार खांसी की चपेट में आ जाते हैं।
प्रधान मंत्री उज्ज्वला योजना (पीएमयूवाय) 2016 में लागू होने वाली केंद्र सरकार की एक फ़्लैगशीप योजना है। इस योजना का उद्देश्य एलपीजी के नेटवर्क का विस्तार कर भारत को धुआं-मुक्त करना है। इस योजना के लागू होने के बाद हमारे देश में एलपीजी उपलब्धता का दायरा बढ़ा है। लागू होने के बाद से जनवरी 2022 तक इस योजना के तहत करोड़ों कनेक्शन बांटे गए हैं। पीएमयूवाय के तहत एलपीजी का दायरा बढ़ा है लेकिन दुर्भाग्यवश भारत के 40 फ़ीसदी घरों की आर्थिक क्षमता ऐसी नहीं है कि वे इसी योजना के तहत मिलने वाले एलपीजी सिलिंडरों को दोबारा भरवा कर उसका इस्तेमाल कर सकें।
अपनी लगातार बढ़ती क़ीमतों के कारण एलपीजी ग़रीबों के लिए एक दुर्लभ वस्तु हो गई। जिसका सीधा मतलब यह है कि अपने अन्य घरेलू ज़रूरतों को पूरा करने के लिए वे इस पर पैसे खर्च करना बंद कर देते हैं।आर्थिक कठिनाइयां स्वच्छ ईंधन की ओर रुख़ करने के रास्ते में एक बहुत बड़ी बाधा है। वहीं सामाजिक मानदंड भी अन्य विकल्पों की खोज में बाधा बन जाते हैं। ज्योति मरकम (23) सिद्धेश्वरी झुग्गी में रहती है जहां उसके अपने घर के अलावा अन्य घरों में भी एलपीजी कनेक्शन है। हालांकि ज्योति और कई अन्य लोग अब भी बायोमास जलाते हैं क्योंकि उनके घर के लोग चूल्हे पर बना खाना पसंद करते हैं। उन लोगों का मानना है कि चूल्हे पर पकाया खाना ज़्यादा स्वादिष्ट होता है। घरों में फ़ैसले लेने वाले अमूमन मर्द ही होते हैं इसलिए हमने पाया कि औरतों का स्वास्थ्य और उनकी भलाई शायद ही कभी प्राथमिकता होती है।
औरतों के स्वास्थ्य और घरेलू वायु प्रदूषण के बीच के संबंध को पहचाने जाने की ज़रूरत है। इसके अलावा स्वच्छ ईंधन विकल्पों के शोध और विकास में एक व्यवस्थागत निवेश की ज़रूरत है। सरकार को एलपीजी और अन्य विकल्पों के लिए सब्सिडी प्रदान करने के लिए सामाजिक-आर्थिक स्थिति और स्वास्थ्य संकेतकों के लेंस से कमजोर परिवारों की पहचान करनी चाहिए जो महिलाओं के लिए काम करेंगे और परिवार के वित्तीय बोझ को कम करेंगे।
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- इस लेख को पढ़ें और जानें कि सरकार रसोई गैस के उपयोग को कैसे बढ़ावा दे सकती है।
- भारत में वायु प्रदूषण के बारे में विस्तार से जानें।
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- वॉरियर माम्स के बारे में विस्तार से जानने और इस आंदोलन से जुड़ने के लिए इस लिंक पर जाएं।
- केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के नेशनल एयर क्वालिटी इंडेक्स पर अपने इलाक़े की वायु गुणवत्ता के बारे में जानें या भारत भर में वायु की गुणवत्ता के बारे में यहां जानें।
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