November 13, 2025

सभी राज्यों में काम करने वाले शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम कैसे बनाएं?

सरकारी व्यवस्थाओं के साथ काम करने वाली गैर-लाभकारी संस्थाओं के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रमों के मानकीकरण और संदर्भीकरण के बीच संतुलन बनाना, हमेशा एक बड़ा सवाल बना रहता है।
9 मिनट लंबा लेख

हमने लगभग 5-6 साल पहले शिक्षा के क्षेत्र में जमीनी स्तर पर काम करना शुरू किया। तभी हमारे काम में कक्षाओं और समुदायों में काम करते हुए, बच्चों को सुनते हुए, शिक्षकों के साथ मिलकर सीखते हुए, प्रशासनिक कर्मचारियों के साथ समस्याओं के हल ढूंढते हुए, और राज्य व्यवस्था के जरिए बड़े बदलाव (या रुकावटें) समझने की कोशिश करते हुए प्रयास करना शामिल हुआ।

साल 2022 में हम सिंपल एजुकेशन फाउंडेशन (एसईएफ) की शिक्षक व्यावसायिक विकास टीम का हिस्सा बने और राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद, दिल्ली (एससीईआरटी) के साथ काम करना शुरू किया। हमने इस विश्वास के साथ काम किया कि असली बदलाव भीतर से ही आता है। इस दौरान हमने यह समझा कि शिक्षकों और बच्चों को उनकी जरूरतों और अनुभवों के मुताबिक बनाए गए समाधानों की आवश्यकता होती है। यही वह समय था जब हमारे रास्ते थोड़े अलग हुए। अब हममें से एक शिक्षक प्रशिक्षण के बड़े अनुभवों को डिजाइन करता है ताकि राज्य स्तर पर प्रशिक्षण ज्यादा अर्थपूर्ण और उपयोगी बन सकें। दूसरा लाखों शिक्षकों और छात्रों से मिले डेटा को समझने, उनकी प्रगति पर नजर रखने और जमीनी सच्चाइयों को उजागर करने के लिए सिस्टम बनाता है। 

एक साथ मिलकर, हम इस प्रश्न से जूझते रहे हैं कि स्थानीय संदर्भ को खोए बगैर किसी समाधान को बड़े पैमाने पर प्रभावी कैसे बनाया जा सकता है? 

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एक दुविधा जो सबके सामने आती है 

सरकारी व्यवस्थाओं के साथ काम करने वाली गैर-लाभकारी संस्थाओं के लिए मानकीकरण और संदर्भीकरण के बीच संतुलन बनाना, हमेशा एक बड़ा सवाल बना रहता है। मानकीकरण से काम का पैमाना, गुणवत्ता और पहुंच बढ़ती है – लेकिन इसका खतरा है कि इसमें अलग-अलग जगहों की विशिष्ट जरूरतें अक्सर नजरअंदाज हो जाती हैं। वहीं, संदर्भीकरण काम को जमीनी स्तर पर उपयोगी और असरदार बनाता है – लेकिन इससे एकरूपता और स्थिरता कम हो सकती है। 

राज्य सरकारों के साथ हमारे काम में यह तनाव सैद्धांतिक नहीं, बल्कि व्यावहारिक है – यह हमारे रोज के निर्णयों में दिखाई देता है। 2021 तक हम 7 से 8 स्कूलों में प्राचार्यों, शिक्षकों और माता-पिता के साथ काम कर रहे थे। इसके बाद जब हमारा काम बढ़कर 1000 स्कूलों तक पहुंचा तो हमें यह तय करना था कि हमारे कार्यक्रम का फोकस शिक्षक, प्राचार्य या माता-पिता यानी किस हितधारक पर केंद्रित होगा? राज्य के लिए शिक्षक प्रशिक्षण मॉड्यूल बनाते समय भी हमें यह सोचना पड़ा कि क्या सभी शिक्षकों को समान प्रशिक्षण दिया जाए या विषय, ग्रेड और क्षेत्र के अनुसार इसे प्रासंगिक बनाया जाए। इसी तरह, जब हम किसी शिक्षण रणनीति को एसईएफ के स्कूलों में अच्छा काम करते देखते हैं, तो सवाल उठता है – क्या इसे सभी स्कूलों में अपनाया जाए, या हर जगह के हिसाब से बदला जाए? क्या एक ही तरह का कक्षा अवलोकन उपकरण सभी कक्षाओं में इस्तेमाल हो, या ग्रेड, विषय और स्थान के अनुसार बदले? 

समय, संसाधन और पहुंच की सीमाएं हमें समझौते करने पर मजबूर करती हैं – बहुत ज्यादा स्थानीय मॉडल सीमित रह जाते हैं, और बहुत व्यापक मॉडल अपनी प्रासंगिकता खो देते हैं। इसलिए चुनौती यह नहीं है कि किसी एक को चुना जाए, बल्कि यह है कि दोनों को कैसे संतुलित रखा जाए। यही संतुलन हमारी रोज की सोच और काम को दिशा देता है। 

दो कठिनाइयां और एक सीख 

मानकीकरण का पक्ष – ‘कैसे’ का जवाब सबके लिए समान बनाना 

बड़े पैमाने पर शिक्षकों के लिए असरदार प्रशिक्षण बनाना जरूरी भी है और मुश्किल भी। शिक्षा का परिदृश्य और बच्चों की जरूरतें पहले से कहीं तेजी से बदल रही हैं। शिक्षकों को अपने तरीकों को उपयोगी तरह से बदलने के लिए निरंतर, उच्च-गुणवत्ता वाले सीखने के अवसरों की आवश्यकता है। लेकिन राज्यभर के लाखों शिक्षकों तक प्रासंगिक और रुचिकर प्रशिक्षण पहुंचाना आसान नहीं है। 

इन संदर्भों में हमारी सबसे बड़ी चुनौती थी – बिखराव। हमने पाया कि दर्जनों हितधारक – सरकारी विभाग, एससीईआरटी संकाय, जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान या डाइट (डीआईईटी) प्रोफेसर, और एनजीओ – सभी एक ही समूह के शिक्षकों के लिए अलग-अलग प्रशिक्षण तैयार कर रहे थे। हर कोई कुछ अच्छा लाता था, पर दिशा और दृष्टिकोण अलग थे। हालांकि कुछ में तो सामग्री उपयोगी और गहन थी लेकिन कुछ में शिक्षकों की आवाज ही गायब थी। नतीजतन सभी कार्यक्रम एक-दूसरे से अलग लगते थे और उनमें एक साझा दृष्टि का अभाव था।

सरकार के साथ काम करने वाली संस्थाओं के लिए मानकीकरण और संदर्भीकरण के बीच संतुलन बनाना, हमेशा एक बड़ा सवाल बना रहता है। | चित्र साभार: पिक्साबे

इसे हल करने के लिए हमने शिक्षक योग्यता ढांचा (टीसीएफ) बनाया – एक साझा ढांचा जो बताता है कि अच्छे शिक्षण के लिए शिक्षक को कौन-से ज्ञान, कौशल और सोच की जरूरत है। यह ढांचा नौ महीने में विशेषज्ञ शिक्षकों के साथ मिलकर, राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय शोध के आधार पर और हजारों शिक्षकों की राय के साथ बना। 

इसके साथ हमने राज्य के साथ एक मानकीकृत प्रशिक्षण प्रक्रिया भी बनाई – जिसमें हर प्रशिक्षण एक जरूरत विश्लेषण से शुरू होता है और शिक्षकों व डाइट प्रोफेसरों के साथ मिलकर बनाया जाता है। मतलब हमने ‘कैसे बनाना है’ को तय किया, ‘क्या बनाना है’ को नहीं।

जब दिल्ली में प्रशिक्षण विकेंद्रीकृत हुआ तो हर जिले ने जरूरत पहचानने, टीसीएफ से जोड़ने, सह-डिजाइन करने और आकर्षक ढंग से प्रस्तुत करने की इसी प्रक्रिया को अपनाया। नतीजा – हर जिले ने अपनी जरूरत के अनुसार मॉड्यूल बनाए, पर साझा शैक्षणिक मानकों के साथ। कहीं शिक्षकों के तनाव प्रबंधन पर ध्यान था, कहीं तकनीक के उपयोग पर।

इस पर शिक्षकों की प्रतिक्रिया बहुत सकारात्मक थी। यह प्रक्रिया एक ऐसी नींव बन गई जिससे स्थानीयता और मजबूत हुई। सार्वजनिक प्रणालियों में मानकीकरण का मतलब सबको एक जैसा बनाना नहीं है – यह एक साझा शुरुआत बनाना है। इससे सब एक ही भाषा बोलते हैं, समान परिणाम मापते हैं और जरूरत के हिसाब से बदलाव कर सकते हैं। हमारे लिए टीसीएफ और प्रशिक्षण की मानक प्रक्रिया एक कम्पास की तरह हैं – जो हमें एक दिशा में रखता है, चाहे इलाका कोई भी हो। 

प्रासंगिकता का पक्ष – ‘क्या’ को लचीला रखना 

सार्वजनिक प्रणालियों में यह आम है कि एक राज्य में सफल चीज, दूसरे में काम न करे – खासकर तकनीक। हर राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था, डेटा प्रणाली और प्रशिक्षण तंत्र अलग होता है। अगर कोई सिस्टम बिल्कुल स्थानीय जरूरतों के मुताबिक बना है तो वह दूसरे राज्य में बेकार हो सकता है। 

हमने एक प्रशिक्षण डेटा प्रणाली में अपने पहले प्रयास के साथ इसका अनुभव किया। जब शिक्षक योग्यता ढांचे ने दिल्ली के प्रशिक्षण तंत्र को रूप दिया तो हमें 13 कार्यक्रमों में 70,000 से ज्यादा शिक्षकों के प्रशिक्षण और नतीजों को ट्रैक करने के लिए सिस्टम चाहिए था। इसके लिए हमारा समाधान कम्पास एमआईएस बना। कम्पास एमआईएस एक डिजिटल प्लेटफॉर्म है जो राज्य स्तर पर बड़े पैमाने पर शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमों की मॉनिटरिंग और मूल्यांकन (एम एंड ई) को सक्षम बनाता है।

इसने दिल्ली में अच्छा काम किया। हर शिक्षक, मेंटर और प्राचार्य का एक मास्टर डेटाबेस बनाया गया, जिसमें उनका क्षेत्र, जिला और कार्यक्रम जुड़ा था। इससे डेटा अपने आप भर जाता और सब कुछ सुचारू चलता। 

लेकिन जब इसे दूसरे राज्यों में ले गए – तो समस्याएं शुरू हुईं।

  • भौगोलिक विसंगतियां: दिल्ली अलग-अलग हिस्सों (जोन्स) में बंटी हुई थी। वहीं अन्य राज्यों में यह बंटवारा जिला, ब्लॉक या क्लस्टर्स के रूप में देखने को मिलता है। हमारा सिस्टम इस बंटवारे के मुताबिक नहीं चलता है। जैसे कि ड्रॉप डाउन मेन्यू में जोन्स का विकल्प दिखता है न कि ब्लॉक्स या क्लस्टर का। 
  • अधूरा डेटाबेस: अन्य राज्यों में दिल्ली की तरह एक केंद्रीकृत डेटाबेस नहीं है जहां सभी कर्मचारियों की अपडेटेड लिस्ट मिल सके। कुछ राज्यों में थोड़ी बहुत जानकारी उपलब्ध थी तो कहीं पर यह बिल्कुल भी नहीं थी। इस आधार के बगैर वैलिडेशन और ऑटोफिल्स ने काम करना बंद कर दिया जिन पर कम्पास मुख्य रूप से निर्भर करता है।
  • विभिन्न सुविधा संरचनाएं: दिल्ली में फैसिलिटेटर्स का एक अपेक्षाकृत छोटा लेकिन मजबूत काडर था। लेकिन अन्य राज्यों में ये बड़ी संख्या में, अलग-अलग समूहों वाले और विभन्न पदनामों के साथ दिखे। हमारा सिस्टम इन भूमिकाओं या पदनामों की पुष्टि नहीं कर सकता क्योंकि इसकी कोडिंग केवल दिल्ली में इस्तेमाल किए जाने वाले पदनामों के साथ की गई थी।

इस तरह, जो प्रणाली दिल्ली में सफल और कारगर थी, वह अन्य राज्यों में नहीं चल पाई। हमने सीखा कि हमें सिर्फ एक राज्य के लिए नहीं, बल्कि एक ऐसी प्रणाली बनानी होगी जो हर जगह कारगर हो। अब हम इस सवाल – ‘हम एक राज्य के हर विवरण को कैसे पकड़ते हैं?’ के बजाय यह सोचने लगे – ‘इस प्रणाली के किन हिस्सों को सबके लिए उपयुक्त रहना चाहिए, और किन हिस्सों को स्थानीय जरूरतों के मुताबिक बदले जाने के लिए खुला रहना चाहिए?’

अगर कोई सिस्टम बिल्कुल स्थानीय जरूरतों के मुताबिक बना है तो वह दूसरे राज्य में बेकार हो सकता है।

इसका जवाब इंटरवेंशन डिजाइन पर वापस जाने में निहित है। हमने कम्पास को उसके मूल में हस्तक्षेप के डिजाइन के साथ फिर से बनाया। यह तय किया कि प्रशिक्षण प्रणाली के उद्देश्य को परिभाषित करने वाले तत्व – डेटा कैसे एकत्र किया गया था, गुणवत्ता कैसे सुनिश्चित की गई थी, परिणामों पर कैसे नजर रखी गई थी – हर जगह स्थिर रहे। इस मूल के आसपास, हमने लचीले मॉड्यूल बनाए जो राज्यों को अपनी वास्तविकताओं के अनुकूल बना सकते हैं: 

  • स्थिर कोर: डेटा नियम, मूल्यांकन ढांचा, गुणवत्ता प्रक्रिया – सब राज्यों में समान।
  • लचीले स्थानीय मॉड्यूल: राज्य अपनी प्रशासनिक इकाइयों का मानचित्र बना सकते हैं, चाहे वे दिल्ली के क्षेत्र हों या पंजाब के जिले, ब्लॉक और समूह। 
  • फैसिलिटेटर भूमिकाएं: कम्पास में पहले स्थानीय पदनाम नहीं डाले जा सकते थे, यह केवल दिल्ली में मौजूद विकल्पों को सामने रखता था।
  • भाषा और कार्यप्रवाह: राज्य अपनी पसंदीदा भाषाओं में कम्पास को चला सकते हैं और अपनी प्रशासनिक गति और संरचनाओं के अनुसार अपने काम करने का तरीका तय कर सकते हैं। 

इससे हर राज्य को स्थिरता और आजादी दोनों मिली। कोर समान रहा, पर तरीका स्थानीय बना। पंजाब ब्लॉक स्तर तक सुविधा प्रदाता जोड़ सका, जबकि अन्य राज्य धीरे-धीरे डेटा जोड़ रहे हैं। 

सबक – बहुत ज्यादा स्थानीयकरण आपको सीमित कर देता है। असली प्रासंगिकता का मतलब है – कोर डिजाइन स्थिर रखना, बाकी में लचीलापन देना। 

संतुलन के प्रयासों से मिले सबक 

जैसा कि आलेख की शुरूआत में जिक्र किया गया है कि हमने मानक और स्थानीय संदर्भों में आसानी से फिट होने वाले समाधानों को लेकर प्रयास किए हैं। अपनी इस यात्रा में हमने समझा है कि मानकीकरण और प्रासंगिकता के संतुलन तक एक बार में नहीं पहुंचा जा सकता है – यह निरंतर प्रक्रिया है। सालों तक प्रयास, गलतियां और दोबारा प्रयास करने के कई चक्रों से गुजरकर हमने तीन बातें सीखीं जो इस संतुलन की दिशा में ले जाती हैं: 

  1. हमने क्या के बजाय कैसे को एक समान रखा शुरूआत में हम सभी राज्यों में एक जैसा कॉन्टेंट रखते थे। यह कारगर तो था लेकिन इसमें स्थानीयता का अभाव था। दिल्ली में चलने वाला मॉडल उत्तराखंड में नहीं चल रहा था जहां एक साथ कई कक्षाओं के बच्चे पढ़ाई करते हैं। इसलिए हमने प्रक्रिया को समान रखा – पंजीकरण, उपस्थिति, प्रतिक्रिया एक जैसी – पर सामग्री को राज्यों पर छोड़ दिया है। इससे हमें अधिक स्पष्ट और तुलनात्मक डेटा मिल पा रहा है।
  2. हमने केवल औपचारिक पदक्रम पर निर्भर रहना बंद किया शुरुआत में हमने सरकारी ढांचे के हिसाब से काम किया, पर जल्दी समझ आया कि असली असर रिश्तों से आता है। हमने हर स्तर पर भरोसेमंद सहयोगी बनाए – राज्य समन्वयक, जिला अधिकारी, सलाहकार – और इन्हीं रिश्तों से काम तेज हुआ।
  3. हमने कठोर प्रणालियों की जगह मॉड्यूलर सिस्टम बनाए। पहले छोटे बदलावों के लिए पूरी प्रणाली बदलनी पड़ती थी। अब कम्पास जैसे प्लेटफॉर्म एक मजबूत कोर और वैकल्पिक मॉड्यूल के साथ हैं, जिन्हें राज्य अपनी ज़रूरत के हिसाब से जोड़ सकते हैं।

शिक्षा या प्रणालियों में काम करने वाले अन्य लोगों के लिए इसका क्या मतलब है? 

ये विचार सिर्फ दिल्ली या पंजाब के लिए नहीं हैं – हर संगठन को यह सोचने की जरूरत है कि बिना प्रासंगिकता खोए कैसे बढ़ा जाए, और निरंतरता और संदर्भ दोनों के लिए कैसे डिजाइन किया जाए। इस संदर्भ में इन बिन्दुओं का ध्यान रखा जाना चाहिये: 

  • अपने स्थिर बिंदु तय करें – दृष्टि और गुणवत्ता स्थिर रखें, बाकी चीजों को स्थानीय बनाएं। 
  • साझेदारी के लिए डिजाइन करें, नियंत्रण के लिए नहीं। सह-निर्माण में समय लगता है पर यह स्थाई तौर पर प्रबंधन करने में मददगार होता है। 
  • ऐसे सिस्टम बनाएं जो आपकी अनुपस्थिति में भी चलते रहें और बढ़ते रहें। चाहे वह एक प्रशिक्षण प्रक्रिया हो या एक डेटा सिस्टम, इसे डिजाइन करें ताकि यह आपकी निरंतर उपस्थिति के बिना विकसित होता रहे। स्थिरता दूसरों के उपयोग करने, अनुकूलन करने और सुधार करने से आती है। 
  • रिश्तों को उतनी ही अहमियत दें जितनी प्रणालियों को – अनौपचारिक चैंपियन अक्सर औपचारिक पदों से ज्यादा असर डालते हैं। 

इन चरणों वाली व्यवस्था को हम रणनीति कह सकते हैं। रणनीति किसी तय योजना का नाम नहीं, बल्कि सहानुभूति और साक्ष्य के साथ अनुकूलन की क्षमता है। डेटा और शिक्षकों की वास्तविक जरूरतों के बीच संतुलन ही असली रणनीति है। इसी तरह, परिवर्तन कोई एक बार की घटना नहीं है – यह लगातार सीखने की प्रक्रिया है। जब हम केवल अपनी धारणाओं पर चलते हैं, तो जिनके लिए काम कर रहे हैं उनकी हकीकत छूट जाती है। इसलिए हम सुनते रहते हैं, सुधारते रहते हैं और आगे बढ़ते रहते हैं।

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लेखक के बारे में
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वैभव मिश्रा

वैभव मिश्रा सिंपल एजुकेशन फाउंडेशन में मैनेजर हैं। यहां वे दिल्ली और पंजाब में सरकार के साथ साझेदारियों के तहत मॉनीटरिंग, इवैल्यूएशन और लर्निंग (एमईएल) विभाग का नेतृत्व करते हैं। साथ ही, वे संस्था में शिक्षकों के पेशेवर विकास से जुड़े डेटा सिस्टम की जिम्मेदारियां देखते हैं। बिजनेस की पृष्ठभूमि से आने वाले वैभव शैक्षणिक समाधानों की गहरी समझ रखते हैं। वे सरकारों के साथ मिलकर तकनीक सक्षम और स्केलेबल, एमएंडई प्लेटफॉर्म तैयार करते हैं ताकि प्रशिक्षण की गुणवत्ता बेहतर की जा सके। शिक्षा व्यवस्थाओं में स्थाई डिजिटल परिवर्तन लाने की इच्छा रखने वाले वैभव का काम प्रोडक्ट डिजाइन, सिस्टम्स थिंकिंग और शिक्षा में एआई के प्रयोग जैसे विषयों से जुड़ता है। वे ‘कम्पास एमआईएस’ और ‘सिंपल टीचर बडी’ जैसी पहलों से जुड़े रहे हैं।

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शहनाज़ अफरूज़ा

शहनाज़ अफरूज़ा सिंपल एजुकेशन फाउंडेशन की दिल्ली सिस्टम्स स्ट्रेंथनिंग प्रोजेक्ट की प्रमुख हैं। वे बीते सात वर्षों से ग्रामीण और शहरी इलाकों में शिक्षा पर काम करती रही हैं। असम से आने वाली शहनाज़ एक प्रकृति-प्रेमी हैं और पूर्वोत्तर भारत के पारंपरिक अनाजों से भोजन बनाने में रुचि रखती हैं।

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