पांच सौ साल पुराने गांववालों के वन अधिकारों में बाधा बनता गूगल

उदयपुर जिले के कोटड़ा ब्लॉक में स्थित गांव महाद लगभग 500 साल पुराना है। सन 1983 में इसे फुलवारी की नाल वन्य अभयारण्य में शामिल कर लिया गया था। तब से यह गांव अपनी मूलभूत सुविधाओं जैसे आजीविका, प्राथमिक विद्यालय, सड़क, पानी और बिजली के लिए जूझ रहा है।

साल 1983 में अभयारण्य घोषित किए जाने के फैसले की गंभीरता और असर का अंदाज़ा गांव वालों को तब हुआ, जब 2002 में वन विभाग ने उन्हें तेंदू पत्ता तोड़ने से मना कर दिया। कुछ लोग तेंदू पत्तों को व्यापारियों को बेच कर अपनी आजीविका चलाते थे। आखिरकार, साल 2006 में वन अधिकार अधिनियम (एफ़आरए) आने के बाद इलाके के लोगों में एक उम्मीद जगी कि अब उन्हें अपनी ज़मीन का पट्टा मिल सकेगा। लेकिन 2008 में कानून लागू होने के बाद से अब तक, यहां के 330 दावेदारों में बस 89 लोगों को ही ज़मीन का पट्टा मिला है। उनके लिए भी यह प्रक्रिया सहज नहीं रही है।

वन विभाग लोगों को यह अधिकार गूगल सैटेलाइट इमेज के आधार पर दे रहा है – मतलब दावे में लिखे ज़मीन के कोआर्डिनेट वन विभाग वाले गूगल अर्थ पर डालते हैं। उससे आई तस्वीरों का मुआइना करते हैं कि 2005 से पहले ज़मीन पर कोई बसा हुआ लग रहा है या नहीं, और उसके मुताबिक दावे को स्वीकार या अस्वीकार करते हैं। लेकिन कानून कहता है कि किसी भी तकनीक, जैसे सैटेलाइट इमेजरी, का उपयोग दावेदार द्वारा प्रस्तुत प्रमाण या सबूत के साथ केवल सहयोग के लिए किया जाना चाहिए। इसे इन अन्य सबूतों की जगह प्रमाण के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है।

एफ़आरए का कानून 13 दिसम्बर, 2005 से पहले वन्य ज़मीन पर रहने वालों को अधिकतम लगभग 16 बीघा ( चार हेक्टेयर) ज़मीन पर हक देने की बात करता है जिससे उनकी आजीविका चल सके। आजीविका से मतलब यहां पर खेती-बाड़ी हो सके, या आदिवासी घास उगा सकें ताकि वे पशु-पालन कर सकें। लेकिन जब विभाग सैटेलाइट इमेज के आधार पर भूमि के इन टुकड़ों की रूपरेखा तैयार करता है और उन्हें हरियाली, जानवर और जुती हुई भूमि नहीं दिखते हैं। ऐसे में वे दावे को खारिज कर देते हैं। ऐसा होने से जहां गांव वालों ने 5-7 बीघा ज़मीन का पट्टा मांगा है, वहां उन्हें केवल डेढ़-दो बीघा ज़मीन ही मिल पाती है। गांववाले कहते हैं, ‘मान लीजिए मैंने दो बीघा जमीन पर खेती की और दो बीघा पशुओं के चारे के लिए छोड़ दी तो गूगल के अनुसार तो वह जमीन मेरी नहीं है क्योंकि वह जोती हुई नहीं दिख रही।’ वे आगे पूछते हैं कि ऐसे अधिकार पत्र से हमें क्या फ़ायदा? इस ज़मीन के सहारे हम अपना घर और आजीविका कैसे चलायें?

गांव के लोग बताते हैं कि ‘ये लड़ाई 15 वर्षों से जारी है, हमारी पीढ़ियां तो इसी जमीन में पनपीं, अब हमारे बच्चे यहां रह पाएंगे या नहीं ये ही चिंता खाए जाती है’। 

इस परिस्थिति को बदलने के लिए गांव वालों ने 2023 में धरना प्रदर्शन किया था। इसके बाद वन विभाग ने माना की मानवीय भूल के कारण गलती हो सकती है और उसमें सुधार करने की कोशिश की जाएगी।

सरफराज़ शेख़, राजस्थान और उत्तर गुजरात में सक्रिय संस्था कोटड़ा आदिवासी संस्थान से जुड़े हैं। धरमचन्द खैर आदिवासी विकास मंच में मुख्य संचालक संयोजक हैं।

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बिना ट्रांसफ़र सर्टिफिकेट, दोबारा स्कूल जाएं भी तो कैसे?

दीपिका राजस्थान के उदयपुर जिले से बाहर एक गांव में रहती है, जहां वह एक सस्ते प्राइवेट स्कूल मे पढ़ रही थी। कोविड महामारी में स्कूल बंद रहने और घर में स्मार्टफोन और डिजिटल डिवाइस न होने के कारण दीपिका शिक्षा से पूरी तरह से दूर हो गई। माता-पिता का रोजगार भी छूट गया और वे दो साल तक दीपिका के स्कूल की फीस नहीं दे पाए। स्कूल संचालक को भी शिक्षकों को हटाना और स्कूल बंद करना पड़ा।

महामारी के बाद दीपिका ने नए स्कूल में दाखिला लेना चाहा। लेकिन उसके पुराने स्कूल ने फीस नहीं देने की वजह से उसका ट्रांसफर सर्टिफिकेट यानी टीसी जारी नहीं किया। (टीसी एक ऐसा दस्तावेज है जो छात्रों को स्कूल और कॉलेज छोड़ने पर दिया जाता है।) टीसी के बिना उसके अभिभावक निशुल्क सुविधा वाले किसी सरकारी स्कूल में भी उसका नामांकन नहीं करवा पाए।टीसी अभिभावकों के हाथ बांधने और दीपिका जैसे गरीब बच्चों को शिक्षा से वंचित करने का एक ताकतवर साधन बन गया है। कुछ राज्य ओपन स्कूलों में भी दाखिले के लिए टीसी को अनिवार्य बना रहे हैं, जबकि ओपन स्कूल औपचारिक शिक्षा से वंचित बच्चों के लिए शिक्षा जारी रखने का आखिरी उपाय होते हैं।

हाल ही में कुछ राज्यों के शिक्षा विभागों ने स्कूलों में दाखिले के लिए टीसी की अनिवार्यता को खत्म करने के दिशानिर्देश जारी किए हैं। आदेश ना मानने की स्थिति में सख्त कार्यवाही के प्रावधान हैं। यह आदेश प्राइवेट स्कूलों और गैर-राज्य बोर्डों पर भी लागू होता है।

जैसा कि होना था स्कूल संचालक यह कहते हुए इसका विरोध कर रहे हैं कि इस तरह के आदेश का इस्तेमाल अभिभावक फीस देने से बचने और अपने बच्चों को एक से दूसरे स्कूल में भर्ती करने के लिए करेंगे। कुल मिलाकर यह पूरा मामला बहुत जटिल है। राज्य सरकारों को गरीब और कमजोर तबके के बच्चों के हितों को देखते हुए इस पर तुरंत ध्यान देना चाहिए, और ये सुनिश्चित करना चाहिए कि स्कूल टीसी नहीं दिए जाने को बच्चों को शिक्षा से वंचित करने का हथियार ना बना पाए।

सफ़ीना हुसैन ‘एजुकेट गर्ल्स’ की संस्थापक हैं।

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घरेलू हिंसा के ख़िलाफ़ लड़ रही एक आदिवासी महिला के जीवन का दिन

मैं राजस्थान के उदयपुर ज़िले में खेरवाड़ा में रहती हूं। मैं आजीविका ब्यूरो के साथ मिलकर महिलाओं के 12 उजाला समूहों का प्रबंधन कर रही हूं। हम लोग महिलाओं को सरकारी लाभ दिलवाने में उनकी मदद करने के साथ ही जागरूकता फैलाने और उन्हें उनके अधिकारों के बारे में बताने का काम भी करते हैं। प्रत्येक उजाला समूह की महिलाएं स्वयं यह तय करती हैं कि कौन सा मामला उनके लिए महत्वपूर्ण है। समूह की महिलाओं को उनके हक़ जैसे कि गरीब कल्याण योजना, पीडीएस और अन्य योजनाओं के बारे में बताना मेरे काम का विस्तृत और बड़ा हिस्सा है। मेरा ज़्यादातर काम घरेलू हिंसा के इर्दगिर्द घूमता है। कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान घरेलू हिंसा के मामलों में बहुत अधिक वृद्धि हुई है। मुझे घरेलू हिंसा के मामलों से निपटने के लिए प्रशिक्षित किया गया है और मुझे खुद भी इसका अनुभव है। यहां, घरेलू हिंसा के ज़्यादातर मामलों में शराब शामिल होती है, विशेष रूप से जब हमारे गांव में लॉकडाउन था और बाहर से किसी भी तरह का पैसा नहीं आ रहा था। पुरुषों को संदेह होता रहता है कि उनकी पत्नियों के पास बचत के कुछ पैसे हैं। वे शराब पीने के लिए उन पैसों को उनसे लेना चाहते हैं और इसके लिए उन्हें धमकाते हैं।

कानूनी कार्रवाई करने से पहले हम अपने स्तर पर ही पुरुषों को समझाने की कोशिश करते हैं। हम में से दो या तीन महिलाएं जाकर पुरुषों के साथ तर्क करने की कोशिश करती हैं। बहुत सारी महिलाएं अपने पतियों को माफ़ कर देती हैं। लेकिन यदि कोई पुरुष नियमित रूप से घरेलू हिंसा करता है और चेतावनी के बाद भी अपनी पत्नी को मारता-पीटता है तब हम ऐसी औरतों की हमारे साथ चलकर पुलिस में शिकायत दर्ज करवाने में मदद करते हैं। मेरे प्रशिक्षण से मुझे इन मामलों को आगे लेकर जाने की ताक़त भी मिली है। मैं अधिकारियों से बात करती हूं और जरूरत पड़ने पर कानूनी कार्रवाई करने के लिए दबाव बनाती हूं। मैं अपने गांव के लोगों को माइक्रोफाइनेंस कंपनियों से ऋण लेने में मदद करती हूं और मैं एसएचजी की बुककीपर भी हूं। इन सभी कामों के लिए मुझे एक महीने में चार मीटिंग में शामिल होना पड़ता है।

 लॉकडाउन शुरू होने के पहले मैंने सरकारी स्कूल में भी काम किया है। वहां मैं मिड-डे मील बनाने का काम करती थी। मैं तात्कालिकता के आधार पर अपने काम को प्राथमिकता देने की कोशिश करती हूं। अगर कोई बहुत ज़रूरी फ़ोन आ जाता है या किसी आपात की स्थिति में मुझे कोई महिला बुला लेती है तब मुझे अपने स्कूल का काम छोड़ तत्काल उस महिला की मदद के लिए जाना पड़ता है।मुझे व्यस्त रहना पसंद है। घर पर मैं ऊब जाती हूं! मुझे लोगों से बात करना उनके साथ घुलना-मिलना पसंद है। घर पर रहकर अपने पति के साथ बहस में उलझने के बजाय बाहर जाकर काम करना मुझे ज़्यादा पसंद है।

कोकिला महिलाओं के एक समूह में बैठकर एक रजिस्टर में कुछ लिखती हुई_आदिवासी महिला
कोकिला देवी उजाला समूह की मीटिंग में। | चित्र साभार: आजीविका ब्यूरो

सुबह 6.00 बजे: सोकर जागने के बाद मैं हाथ-मुंह धोकर खाना पकाने का काम शुरू करती हूं। मेरे तीन बच्चे हैं – दो बेटे (12 और 11 साल) और एक बेटी है 5 साल की। मेरे सास-ससुर भी मेरे साथ ही रहते हैं। इस तरह से हम सात लोगों का परिवार एक घर में एक ही छत के नीचे रहता है। घर का काम पूरा हो जाने के बाद मैं आमतौर पर स्कूल के लिए निकल जाती हूं। वहां जाकर मैं खाना पकाने में हाथ बंटाती हूं। लॉकडाउन के कारण यह काम अभी बंद है। स्कूल की रसोई बंद है और स्कूल के बचे हुए राशन को हमने राशन की दुकान में दे दिया है। बचा हुआ चावल आंगनवाड़ी को दे दिया गया है जहां से छोटे बच्चों वाले परिवारों को अब भी थोडा-बहुत चावल मिल रहा है।

सुबह 9.00 बजे: मैंने उजाला समूह की कुछ महिलाओं से मिलने जाने की योजना बनाई है। लॉकडाउन के कारण हमारे समूह की होने वाली मीटिंग बंद हो गई है लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर बातचीत जारी है। मैं प्रत्येक घर में जाती हूं और महिलाओं से बात करके उनकी समस्याओं का पता लगाती हूं।

कुछ सप्ताह पहले हमें यह पता चला कि कुछ जरूरतमंद परिवारों को उनके हक़ की चीज़ें नहीं मिली हैं।

बहुत सारे परिवारों के पास राशन या पैसा दोनों ही नहीं था। मैंने महिलाओं को जन धन योजना के तहत उनके खाते में आने वाले पांच सौ रुपए के बारे में बताया। अधिकांश लोगों को इस योजना के बारे में ही कुछ नहीं मालूम था और वे मेरी बातों पर भरोसा नहीं कर पा रहे थे – उन्हें यह बात पच ही नहीं रही थी कि उन्हें यूं ही पैसे भेजे जाएँगे – और कई लोग अपने खाते में आए उस पैसे को देखकर हैरान थे। अपने फ़ोन पर पैसे आने की सूचना मिलने के बावजूद भी लोगों को ऐसा लगता है कि किसी तरह की गलती हुई होगी और यह पैसा किसी और का है। 

कुछ परिवार राज्य सरकार से मिलने वाले 1,000 रुपए और केंद्र सरकार से मिलने वाले 1,500 रुपए के लाभ के भी हकदार हैं। हालांकि कुछ लोगों को अब भी यह पैसा नहीं मिला है। कुछ सप्ताह पहले हमें यह पता चला कि कुछ जरूरतमंद परिवारों को उनके हक़ की चीज़ें नहीं मिली हैं। इसी समय में अच्छी आर्थिक स्थिति वाले परिवारों के खातों में पैसे आ चुके थे। मैंने अपने फ़ोन में ही जन सूचना पोर्टल पर जाकर ऑनलाइन हक़दारों की सूची देखी। कुछ पंचायत सहायक, सरपंच, सरकारी शिक्षक, आशा कार्यकर्ताओं आदि के खातों में पैसे जमा हो चुके थे लेकिन जरूरतमंद परिवारों को कुछ भी नहीं मिला था। इस मामले की गहराई से जांच करने के लिए हम समूहों में ही एक सर्वेक्षण का आयोजन करने वाले हैं।

दोपहर 12.00 बजे: मैंने एक समूह की एक महिला से मुलाक़ात की। इससे पहले मैंने उसकी मदद इस बात का पता लगाने में की थी कि वह इन योजनाओं की हक़दार है या नहीं। अब उसने मुझे खुश होते हुए बताया कि उसे पैसे मिल चुके हैं। हमने लगभग 50 लोगों की मदद की है जिनके खाते में अब जन धन योजना के अंतर्गत पैसे आते हैं। हालांकि वास्तविकता यही है कि इन योजनाओं के तहत मिलने वाले पैसों का हाथ में आना बहुत ही मुश्किल है। बैंक यहां से 5 किमी दूर है और यातायात बंद होने के कारण सभी को पैदल चलकर वहां तक जाना पड़ता है।

कुछ लोगों को लगातार पांच दिनों तक बैंक जाना पड़ा और फिर भी उनके पैसे उन्हें नहीं मिले। एक दिन नामों की सूची बनाई गई। दूसरे दिन उन्हें टोकन देकर लाइन में खड़ा कर दिया गया। सोशल डिसटेंसिंग को बनाए रखने के लिए बैंक ने छोटे-छोटे गोले बना दिए थे जिनमें लोगों को खड़ा होना था। बारी नहीं आने पर उन्हें वापस लौटना पड़ता था और अगले दिन फिर आकर क़तार में खड़े होना पड़ता था। बारी आने के बावजूद भी बहुत सारे लोगों को केवायसी और आधार कार्ड लिंक सी जुड़ी समस्याओं से गुजरना पड़ता था। वरिष्ठ नागरिकों ने मुझे बताया कि कई-कई दिन पैदल चलकर बैंक तक जाना और पंक्ति में कड़े होना उनके लिए बहुत चुनौती भरा काम था।

कोकिला देवी कुछ पौधों की देखरेख करती हुई_आदिवासी महिला
कोकिला देवी कुछ पौधों की देखभाल करते हुए। | चित्र साभार: आजीविका ब्यूरो

शाम 3.00 बजे: मुझे एक महिला ने फ़ोन किया है जिसे अपने घर पर ही कुछ समस्या है। जब से लॉकडाउन शुरू हुआ है मैंने घरेलू हिंसा से जुड़े लगभग 10-12 मामले निपटाए हैं। मैं उस महिला से मिलने उसके घर गई। चूंकि उसका पति घर पर ही है इसलिए मैं उससे चुपके से उसके घर के पीछे वाले हिस्से में जाकर मिली और उससे बात की। मैंने बिना किसी टोकाटाकी के चुपचाप उसकी बातें सुनीं। मैंने समूह की कुछ अन्य महिलाओं से इसकी स्थिति के बारे में बातचीत की और बाद में हमने उस महिला को समझाया और उसे उस मामले के क़ानूनी पहलुओं के बारे में विस्तार से बताया। हमने उससे बिना डरे अपनी समस्याएं हमसे बताने के लिए कहा। हमसे उससे यह भी पूछा कि वह इस समस्या से कैसे निपटना चाहती है। हमारे काम को देखकर बहुत सारी महिलाएं हमसे जुड़ती हैं।

अक्सर महिलाओं को इस बात का डर सताता है कि यदि उनके पति जेल चले गए तो वे ज़िंदा नहीं बचेंगी। लेकिन धीरे-धीरे हमें इस बात का अहसास हो रहा है कि हम हमेशा के लिए किसी भी डर के साथ नहीं जी सकते हैं। और इसलिए हम अब अपनी आवाज़ उठा रहे हैं।

हम लोग जिस तरह का काम कर रहे हैं उसका विरोध स्वाभाविक है। बहुत सारे लोग मुझे शांति से काम नहीं करने देते हैं। कुछ पुरुषों ने मेरे पति को यह कहकर भड़काने की कोशिश की कि “तुम्हारी पत्नी दूसरे शादीशुदा जोड़ों के बीच समस्या खड़ी कर रही है।” कुछ ने तो मुझे धमकाया भी। एक बार मैं मनरेगा के आवेदनों का पता लगाने के लिए पंचायत के दफ़्तर गई थी। तभी एक पंचायत सेवक ने मेरे पति से जाकर यह कहा कि उसने मुझे किसी दूसरे पुरुष के साथ देखा था। वह आदमी झूठ बोल रहा था इसलिए मैंने अपने पति से कहा कि वह मुझ पर भरोसा करे और यह भी स्पष्ट कर दिया कि मैं अपना काम बंद नहीं करुंगी।

मैं और मेरे पति ने बहुत कम उम्र में ही शादी करने का फ़ैसला कर लिया था लेकिन बाद में मारपीट शुरू हो गई। एक बार स्थिति इतनी ज़्यादा ख़राब हो गई कि मुझे बीच रात में जंगल के रास्ते होते हुए अपने माता-पिता के घर जाना पड़ा। उनका घर मेरे घर से 15 किमी दूर है। अपने परिवार के साथ मिलकर मैंने अपने पति के ख़िलाफ़ कुछ शिकायतें दर्ज करवाईं। मामला सुलझने के बाद मैं फिर से उसके साथ रहने लगी लेकिन कुछ दिनों बाद वही सब दोबारा होने लगा। इस बार अपने बच्चों के कारण मैंने अपने माता-पिता के घर जाने से मना कर दिया। मैं परिणाम का इंतज़ार करुंगी लेकिन समूहों की महिलाओं और मेरे सहकर्मियों ने इन सबसे निपटने में मेरी मदद की है।

मैं महिलाओं के दर्द, उनकी समस्याओं को साझा करती हूं और उन्हें सुलझाने में उनकी मदद करना चाहती हूं। इस गांव के कोने-कोने में महिलाएं हिंसा का शिकार होती हैं और जहां मैं इसे रोक पाती हूं वहां मुझे बहुत ख़ुशी होती है। अगर महिलाएं खुश रहती हैं तो पूरा परिवार खुश रहता है। हम मेहनत करते हैं, हम अपने बच्चों को स्कूल भेजते हैं, दिन भर मज़दूरी करते हैं और उसके बाद घर वापस लौटकर अपने घर की देखभाल करते हैं। इसके बावजूद भी हमें बुनियादी सम्मान नहीं मिलता है, लेकिन एक साथ मिलकर हम इससे लड़ रहे हैं।

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

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जल ही जीवन है

धीराराम कपाया वन उत्थान संस्थान चलाते हैं। यह समितियों का एक ऐसा संघ है जो जमीन से जुड़े संसाधनों की सुरक्षा करता है। कपाया राजस्थान के उदयपुर जिले के भील जनजाति से आए हैं। उदयपुर जिले में जंगलों और चारागाहों की सुरक्षा के लिए कई दशक लंबे आंदोलन चले और अब इस इलाके के लोग इसे सामुदायिक संसाधन के रूप में देखते हैं। धीराराम एक कार्यकर्ता और कलाकार दोनों हैं। यह सामाजिक मुद्दों पर जागरूकता फैलाने के लिए लोकगीत लिखते हैं और उन गीतों को गाते हैं। इनकी गीतों का विषय विविध है और इसमें कुपोषण से लेकर पर्यावरण जैसे विषय शामिल हैं।

इस गीत को सुनिए जो इन्होनें पानी और दूसरे प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के बारे में और अपने समुदाय के लोगों को जागरूक करने के लिए बनाया है।  

धीराराम कपाया एक कार्यकर्ता और कलाकार हैं और सेवा मंदिर द्वारा स्थापित वन उत्थान संस्थान चलाते हैं।

स्नेहा फिलिप आईडीआर में कंटेंट डेवलपमेंट और क्यूरेशन का काम देखती हैं। 

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चौकीदारी की छड़ी

दक्षिणी राजस्थान में उदयपुर जिले के आसपास की कभी बंजर पड़ी जमीन अब सुरक्षित और विकसित है। पिछले 25 वर्षों में इन आम ज़मीनों को उनके आसपास के गांवों द्वारा बहुत ही सावधानी से चारागाहों में बदल दिया गया है। 

इसे बनाए रखने के लिए हर घर अपना योगदान देता है और होने वाले फायदे को भी आपस में सब बराबर बांटते हैं। अपनी जमीन पर दूसरों के अतिक्रमण (दूसरे गांवों या आवारा चरने वाले पशुओं और बकरियों) से बचाव को सुनिश्चित करने के लिए झडोल प्रखण्ड में सुल्तान जी का खेरवारा के गाँव के निवासियों ने एक अनोखी रणनीति को विकसित किया है। इस गाँव में कुल 450 घर हैं। अपनी ज़मीन की रक्षा के लिए ग्रामीणों ने चौकीदारी का फ़ैसला किया। जिसके लिए उन्होंने हर दिन एक अलग घर के एक सदस्य को निगरानी के काम पर भेजना शुरू कर दिया।

उन्होनें एक मजेदार तरीका भी विकसित किया है ताकि इस बात का पता लगाया जा सके कि चारागाहों पर निगरानी की बारी कौन से घर की है। निगरानी करने वाले आदमी को एक छड़ी दी जाती है जिसे वह हमेशा अपने पास रखता है। जब उनकी बारी खत्म हो जाती है तब वह उस छड़ी को अपने पड़ोसी के घर के बाहर रख देता है जो इस बात का संकेत होता है कि अगली बारी उनकी है। इस तरह से, यह छड़ी एक घर से दूसरे घर तक जाती है और ग्रामीणों को यह बताती है कि इस बार गाँव के चीजों की सुरक्षा की बारी उनकी है। 

आएशा मरफातिया पहले इंडिया डेवलपमेंट रिव्यू में संपादकीय सहयोगी थीं। 

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लोगों का हम पर से भरोसा उठ गया है

राजस्थान के उदयपुर जिले में गोगुंडा प्रखण्ड की आशा कार्यकर्ता सीता* ने बताया कि “2005 से, मैं आशा कार्यकर्ता (मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता) के रूप में काम कर रही हूँ। गाँव में जब भी कोई बीमारी होती थी लोग मुझसे संपर्क करते थे। लेकिन कोविड-19 के बाद लोगों का हम पर से भरोसा उठ गया है।”

महामारी की दूसरी लहर के दौरान दक्षिणी राजस्थान के इस इलाके में बहुत सारे मामले सामने आए थे (चूंकि बहुत लोगों की जांच नहीं हुई थी इसलिए ये सभी मामले आधिकारिक रूप से रिपोर्ट नहीं किए गए)। यहाँ तक कि सबसे दूर-दराज वाले गांवों में भी हर घर में दो से तीन लोग बीमार थे। हालांकि, जब आशा कार्यकर्ता मेडिकल किट लेकर उनके पास पहुंचती थीं तब वे बीमारी से इंकार कर देते थे। सीता ने कहा कि वह जहां भी गईं, शुरुआत में गाँव वाले लोग बीमार दिखने के बावजूद “कोई बीमार नहीं है” या “यहाँ सब ठीक है” कहकर टाल देते थे। एक अन्य आशा कार्यकर्ता रोमी* का कहना है कि “एक बार एक आदमी ने मुझे डंडे से धमकाते हुए गाँव से भागने के लिए कहा था”।

इसके उलट, स्थानीय स्वयंसेवी संस्थानों के कार्यकर्ता उन समुदायों के लोगों के पास जाते थे और बीमार मरीजों की पहचान करके उन्हें घर पर ही की जाने वाली देखभाल के लिए समझाते और दवाइयाँ मुहैया करवाते थे। कुछ जगहों पर, लोगों ने उन स्वयंसेवियों से खुले आम यहाँ तक कहा कि वे “सरकार वाली दवाई” (सरकार द्वारा मुहैया कि जाने वाली दवा) नहीं लेंगे लेकिन “संस्था वाली दवाई” (स्वयंसेवी संस्थानों द्वारा दी जाने वाली दवा) से उन्हें आराम हुआ है।

पिछले कुछ सालों में, आशा कार्यकर्ताओं ने सामुदायिक स्वास्थ्य देखभाल में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और वे सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली और आम लोगों के बीच की कड़ी के रूप में काम कर रही है। फिर ऐसी स्थिति कहाँ से आ गई कि गाँव के लोग हाथ में डंडा लेकर उन्हें बाहर भगा रहे हैं, और समुदाय के बीमार दिखने वाले सदस्य भी उनकी मदद लेने से इंकार कर देते हैं?

महामारी की पहली लहर के दौरान, आशा कार्यकर्ता ‘कोरोना निगरानी टीम’ का हिस्सा थीं। इनका काम अपने गाँव वापस लौटने वाले प्रवासी मजदूरों के क्वारंटाइन को सुनिश्चित करना था। साथ ही जो लोग अपने घरों में क्वारंटाइन नहीं हो सकते थे, उन्हें क्वारंटाइन केन्द्रों में भर्ती करवा दिया जाता था। इन केन्द्रों पर पीने का साफ पानी और शौचालय आदि जैसी मौलिक सुविधाएं नहीं थीं। समुदायों के लोगों ने सरकार के एजेंडों के सूत्रधार के रूप में देखे जाने वाले आशा कार्यकर्ताओं पर संदेह करना शुरू कर दिया। दूसरी लहर के कारण यह संदेह कई गुना बढ़ गया। कोविड-19 और टीका संबंधी गलत धारणाओं और सूचनाओं ने लोगों के मन में आशा कार्यकर्ताओं के प्रति अविश्वास और डर पैदा कर दिया।

*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नामों को बदल दिया गया है। 

प्रियान्शु कृष्णमूर्ति उदयपुर में बेसिक हेल्थकेयर सर्विसेज में इंडिया फ़ेलो हैं।

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अधिक जानें: यह भी पढ़ें कि प्राथमिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को क्या चाहिए और महामारी से निबटने के लिए उन्हें किस प्रकार बेहतर सहायता दी जा सकती है।

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डर नहीं, विश्वास

मोवनी बाई ने हाल ही में कोविड-19 टीके का अपना दूसरा डोज़ लिया है लेकिन अपनी मर्ज़ी से नहीं। वउनका कहना है कि उन्होनें सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) द्वारा दिये जाने वाले मुफ्त राशन की सूची से बाहर निकाल देने और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत पंजीकृत कामगारों की सूची से बाहर हो जाने के डर से टीका लगवाया था। हालांकि भारतीय संविधान उन्हें इन दोनों अधिकारों की गारंटी देता है।

मोवनी बाई अकेली ऐसी नहीं है जिसे इस संशय के स्त्रोत की जानकारी नहीं है। उदयपुर के गोगुंडा प्रखण्ड के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में काम करने वाली एक सहायक नर्स आया (एएनएम) ने कहा कि कई लोग इस डर से टीका लेने आए थे कि उन्हें काम नहीं मिलेगा या उन्हें राशन मिलना बंद हो जाएगा। हमनें देखा कि क्षेत्र के ज़्यादातर लोग सरकार द्वारा जारी कोविड-19 संबंधित खबरों और सूचनाओं से अनजान थे। इस तरह की सूचना के लिए वे व्हाट्सऐप फोरवार्ड्स, स्थानीय सरकारी अधिकारियों और स्वयंसेवी संस्थाओं पर भरोसा करते थे। इनमें से कुछ अधिकारी टीकाकरण को बढ़ावा देने के तरीके के रूप में सामाजिक सुरक्षा वाले लाभों को बंद करने वाली धमकी का इस्तेमाल कर रहे हैं। जैसे, किसी एक गाँव में पंचायत अधिकारी ने कहा कि वह पूरे गाँव का टीकाकरण करवाएँगे और मना करने वालों को राशन और मनरेगा का काम देने से इंकार कर देंगे। 

हालांकि, टीकाकरण शिविरों और जागरूकता अभियानों के दौरान टीके संबंधित झिझक को मिटाने के लिए इस तरह का तरीका खतरनाक है। वे लोगों के टीका लगवाने से इंकार करने पर भोजन, आजीविका और अन्य सरकारी योजनाओं के अधिकार छीनने की धमकी देकर जबरदस्ती स्वीकृति हासिल करते हैं। ऐसा करने से लोगों का व्यवस्था पर से विश्वास उठने लगता है और पहले से मौजूद फायदों तक उनके पहुँच की संभावना कम हो जाती है। उन्हें स्थानीय निजी झोलाछाप जैसे दूसरे विकल्पों की खोज की तरफ धकेला जाता है। अंत में, यह सामाजिक कल्याण की ज़िम्मेदारी को सरकार से हटाकर पहले से हाशिये पर मौजूद समुदायों पर डाल देता है।  

क्षेत्र के स्थानीय स्वयंसेवी संस्थाओं ने इस तरह के आदेशों के खिलाफ आवाज़ बुलंद की। वे स्थानीय समुदायों के साथ मिलकर लोगों को उनके अधिकारों और मिलने वाले लाभों के बारे में जागरूक करने का काम कर रहे हैं। अधिकारीगण, पंचायतों के साथ मिलकर टीका लगवाने के महत्व के बारे में सूचनाएँ प्रसारित कर रहे हैं और समुदायों को प्रोत्साहित कर रहे हैं। वे गोगुंडा प्रखण्ड के सात पंचायतों में काम कर रहे हैं। ऐसी जगहों पर उन लोगों ने ऐसे सभी लोगों की सूची बनाई है जिन्हें उन्होंने टीका लगवाने के लिए राजी कर लिया। जमीन पर किए गए उनके काम के माध्यम से उन्हें यह एहसास हुआ कि प्रभावी संचार विश्वास के इर्द-गिर्द बनता है डर के इर्द-गिर्द नहीं। 

शिफ़ा ज़ोया आजीविका ब्यूरो में एक फ़ील्ड फ़ेलो हैं और प्रवासी मजदूर के मुद्दों पर काम कर रही हैं।  

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अधिक जानें: पढ़ें कि कैसे सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में विश्वास का पुनर्निर्माण ग्रामीण क्षेत्रों में टीके को लेकर उत्पन्न झिझक से निबटने में मदद कर सकता है। 

अधिक करें: उनके काम के बारे में और अधिक जानने के लिए आजीविका ब्यूरो के टीम के सदस्य से [email protected] पर संपर्क करें।  

धोखाधड़ी का डर

बिजनेस कोर्रेस्पोंडेंट या एजेंट देश भर के गांवों में घर-घर जाकर लोगों को मौलिक बैंकिंग सेवाएँ दे रहे हैं। जिन लोगों का बैंक खाता उनके आधार कार्ड से जुड़ा है वे एक बिजनेस कोर्रेस्पोंडेंट के पास जाकर एक चरण वाले बायोमेट्रिक सत्यापन के माध्यम से बहुत ही आसानी से अपने खाते के बैलेंस की जानकारी या नकद निकासी जैसे काम पूरा कर सकते हैं।

हालांकि, राजस्थान में माजवारी गाँव में तीन बिजनेस कोर्रेस्पोंडेंट हैं। बावजूद इसके वहाँ के लोग 3 कीलोमीटर पैदल चलकर गोगुंडा के नजदीकी बैंक शाखा जाना पसंद करते हैं।

एक बुजुर्ग चाचा का कहना है कि “बैंक ही ठीक है। मुझे इन एजेंट पर भरोसा नहीं है।” उनके संदेह का कारण क्या है? धोखाधड़ी का डर। 

आप सोचकर देखिये कि एक दिन आपके एक सप्ताह के वेतन के बराबर पैसा आपके खाते से कट जाता है—आप नहीं जानते हैं कि यह पैसा कहाँ गया या किसने ऐसा किया। बिलकुल ऐसा ही कमला बाई* के बैंक खाते के साथ हुआ। कमला बाई ने दो दिन पहले अपना बैंक खाता विवरण गोगुंडा में एक बिजनेस कोर्रेस्पोंडेंट से अपडेट करवाया था और उसमें 7 जनवरी 2021 को 1900 रुपए का लेनदेन दिखाया गया। हालांकि, उनका दावा था कि उस तारीख को उन्होनें किसी भी तरह का लेनदेन नहीं किया था।

इसके लिए उन्होनें अपने बैंक से संपर्क किया। बैंक के अधिकारियों ने यह कह कर उन्हें लौटा दिया कि यह लेनदेन उनके बायोमेट्रिक्स विवरण के सत्यापन के बाद ही हुआ है। इस विषय में थोड़ी और खोजबीन के बाद यह बात सामने आई कि यह लेनदेन आधिकारिक रूप से बैंक के साथ पंजीकृत बिजनेस कोर्रेस्पोंडेंट द्वारा नहीं किया गया था, और इसलिए बैंक, उनके पासबुक में दर्ज विवरण के आधार पर उस एजेंट का पता नहीं लगा पाया। फिर कमला बाई को याद आया कि अपने भामाशाह कार्ड विवरण को अपडेट करने के लिए उन्होनें एक एजेंट को अपना बायोमेट्रिक दिया था। इसके बाद उस संदिग्ध एजेंट का पता लगाया गया और उससे कमला बाई के खाते से गायब हुए पैसे के बारे में पूछताछ की गई। कानूनी कार्रवाई की धमकी के बाद एजेंट ने धोखाधड़ी की बात मान ली और पैसे वापस करने के लिए तैयार हो गया।    

दुर्भाग्यवश, देश भर में हजारों लोग ऐसे ही एजेन्ट पर निर्भर होने के कारण धोखा खाते हैं। कठिन निवारण प्रणाली के साथ अपर्याप्त जांच लोगों को एजेन्टों से चौकन्ना करती है। बिजनेस कोर्रेस्पोंडेंट कई तरह की सेवाएँ प्रदान करते हैं। इसलिए एकल चरण बायोमेट्रिक सत्यापन लोगों के लिए अन्य सत्यापनों और बैंकिंग लेनदेन के बीच अंतर के काम को मुश्किल बना देता है। इस प्रक्रिया में संरचनात्मक सुधारों के अलावा, देश के दूर-दराज इलाकों में डिजिटल और वित्तीय साक्षरता में सुधार की तत्काल आवश्यकता है। 

*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नाम बदल दिया गया है।

सिंधुजा पेनुमार्ती राजस्थान में एक जमीनी स्तर के वित्त संगठन श्रम सारथी के साथ काम करती हैं और 2020 इंडिया फ़ेलो रही हैं।

इंडिया फ़ेलो आईडीआर पर #ज़मीनीकहानियाँ का सहयोगी है। मूल कहानी यहाँ पढ़ें।

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