मैं साल 2024 के मध्य तक द आज़ादी प्रोजेक्ट से जुड़ी थी। यह एक समाजसेवी संस्था है जो हाशिये के समुदायों से आने वाली महिलाओं को नेतृत्व कौशल और मनो-सामाजिक सहायता प्रदान करती है। अपने जुड़ाव के दौरान मैं दक्षिण-पूर्वी दिल्ली के कालिंदी कुंज इलाके में स्थित एक प्रवासी शिविर में रहने वाली रोहिंग्या महिलाओं के साथ काम करती थी। एक सहायक के रूप में मैंने इन महिलाओं की खास जरूरतों और मांगों के आधार पर साक्षरता, सिलाई और दूसरे अलग-अलग तरह की कक्षा सत्र आयोजित किए। हालांकि, हमारे यह सत्र अक्सर उन बाहरी कारणों के चलते बाधित होते थे जिनसे लोगों का जीवन सीधे तौर पर प्रभावित होता है।
रोहिंग्या समुदाय के लिए बने कैंपो में बुनियादी सुविधाओं की कमी है। समुदाय के सामने सबसे गंभीर समस्या पानी की है। दिल्ली जल बोर्ड (डीजेबी) की जल आपूर्ति लाइन बस्ती तक नहीं पहुंचती है, इसलिए वे नगर पालिका के पानी के टैंकरों पर निर्भर हैं। पानी के ये टैंकर भी किसी तय समय पर इन इलाकों में नहीं पहुंचते हैं।
अगर इन टैंकरों के आने का समय पहले से तय होता तो महिलाएं भी कक्षा में नियमित रूप से भाग ले पातीं। अभी जैसे ही टैंकर आता है, हमारी कक्षा की महिलाएं तुरंत अपने घर लौट जाती हैं। इस दौरान जितनी बाल्टियां वे ले जा सकती हैं, लेकर और पानी लेने के लिए लंबी कतार में लग जाती हैं। इस वजह से महिलाओं के लिए अपने प्रशिक्षण पर ध्यान देना बहुत मुश्किल हो गया है। महिलाओं का पूरा ध्यान पानी को घर ले जाने और उससे कपड़े धोने, नहाने और खाना पकाने जैसे दैनिक कार्यों में केंद्रित हो गया है।
अगर महिलाओं को यह पता होता है कि टैंकर एक तय समय पर या उसके आसपास आने वाला है, जैसे दोपहर 2 बजे, तो वे कक्षाओं में नहीं आती हैं। उन्हें यही चिंता लगी रहती है कि यदि वे चूक गईं तो इसके बाद पूरे दिन पानी नहीं भर पाएंगी। उदाहरण के लिए, अगर सुबह एक अंग्रेजी साक्षरता की क्लास है तो हमारी टीम पहले से ही इस बात के लिए तैयार रहती है कि बस्ती की महिलाएं उन्हें कॉल करके बोलेंगी, “आज हम नहीं आ सकते हैं क्योंकि पानी का टैंकर अभी तक यहां नहीं आया है।”
हीना* रोहिंग्या समुदाय की एक सदस्य हैं जिन्होंने हमारी ही कक्षाओं में पढ़ना और लिखना सीखा है। हीना अब समुदाय के तमाम मुद्दों की वकालत करती है। वे कहती हैं, “अल्लाह का शुक्र है कि महिलाओं को पढ़ने में सहजता होने लगी है। लेकिन यह बेहतर होगा अगर हमारे पास नियमित पानी और बिजली की आपूर्ति के साथ-साथ शौचालय भी एक ही जगह पर हों।” वे आगे कहती हैं, “अगर उन्हें इन बुनियादी ज़रूरतों के बारे में चिंता न करनी पड़े तो ज्यादा महिलाएं कक्षा में आएंगी और सक्रिय रूप से भाग लेंगी।”
*गोपनीयता के लिए नाम बदल दिए गए हैं।
सारा शेख आज़ादी प्रोजेक्ट की पूर्व कार्यक्रम समन्वयक हैं।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी की रहने वाली नूर जहान साठ साल की हैं। 22 साल पहले वह अपने बेटे को खोने के बाद पश्चिम दिल्ली के विकासपुरी इलाक़े में रहने आ गई। उनका बेटा उनके परिवार का इकलौता कमाने वाला सदस्य था। अपने नए शहर में उन्हें घरेलू सहायिका के रूप में काम मिल गया जहां उन्हें बर्तन धोने, घर और बाथरूम की साफ़-सफ़ाई का काम करना होता है। ऐसे भी घर थे जहां वह इस शहर में आने के बाद से ही लगातार काम कर रही थीं।
लेकिन मार्च 2020 में कोविड-19 के कारण लगने वाले लॉकडाउन के साथ ही सब कुछ बदलना शुरू हो गया। नूर जहां को उनकी उम्र के कारण काम से निकाल दिया गया। जब वह उस महीने के 15 दिन के अपने काम के बदले एक घर में पैसे लेने गई तो उनके मालिक ने उन्हें घर में घुसने तक नहीं दिया। नूर जहां बताती हैं कि “मैंने वहाँ 20 साल से अधिक समय तक काम किया था लेकिन मेरी उम्र अधिक होने की वजह से उन्होंने मुझे वापस काम पर लौटने से मना कर दिया।” उनका कहना है कि अधिक उम्र के लोगों पर इस वायरस का असर जल्दी होता है और बूढ़े लोगों से यह बीमारी जल्दी और आसानी से फैल सकती है।
जब वह दूसरी जगह काम माँगने गईं तो उन्हें लोगों ने बिना मोलभाव के केवल 1,500 रुपए दिए। ऐसा शायद इसलिए क्योंकि उसी काम के लिए कम उम्र के लोग भी कोशिश कर रहे थे। नूर जहां के पास लगभग दो साल से कोई भी काम नहीं है।
लॉकडाउन के लगते ही दक्षिण-पूर्वी दिल्ली के सरिता विहार इलाक़े में एक घर में सालों से काम करने वाली शीला को भी उसके मालिकों ने काम पर आने से मना कर दिया—“उन्होंने मुझसे कहा कि तुम बूढ़ी हो; तुम्हें कोविड-19 हो जाएगा इसलिए तुम काम पर आना बंद कर दो।” सब कुछ ठीक होने के बाद भी शीला को उन लोगों ने काम पर वापस नहीं बुलाया। जबकि उसी घर में खाना बनाने वाली लड़की को फिर से काम पर रख लिया क्योंकि वह उम्र में छोटी थी। शीला को सरिता विहार के ही एक अपार्टमेंट में काम मिल गया था लेकिन खांसी होने के कारण उसे पहले ही दिन काम से निकाल दिया गया।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
नूर जहां पश्चिमी दिल्ली में घरेलू सहायिका के रूप में काम करती है; वह मज़दूर संघों के लिए काम करने वाले एक फ़ेडरेशन दिल्ली श्रमिक संगठन का भी हिस्सा है। शीला भी दक्षिण दिल्ली में घरेलू सहायिका के रूप में काम करती है।
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