जब आंगनवाड़ी में बच्चे ही नहीं होंगे तो हम वहां क्या करेंगे?

मैं पिछले 7 सालों से हिमाचल प्रदेश के सोलन जिले में आंगनवाड़ी कार्यकर्ता के रूप में काम कर रहीं हूं। आंगनवाड़ी केंद्र में एक बार नामांकित होने के बाद प्रत्येक बच्चे की पढ़ाई के साथ-साथ उसकी आयु के अनुरूप विकास जैसे ऊंचाई, वजन व सीखने की क्षमता आदि की नियमित तौर पर जांच की जाती है। जो बच्चे अपनी आयु के हिसाब से विकसित नहीं हो पाते, उनके लिए अतिरिक्त पोषण का ध्यान रखा जाता है। नियमित तौर पर बच्चों को सुबह का नाश्ता व दिन में गरम भोजन दिया जाता है जो मैं आंगनवाड़ी सहायिका की मदद से करती हूं। हम इन सभी पहलुओं पर प्रशिक्षित होते हैं।

लेकिन भारत सरकार की नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 आने के बाद काफी कुछ बदला है। 

इस नीति के आने से पहले छ: वर्ष पूरा होने तक बच्चे आंगनवाड़ी केंद्र में ही आते थे और उसके बाद ही वे विद्यालय में नामांकित होते थे। मेरे अपने आंगनवाड़ी केंद्र में पहले लगभग 25 से 30 बच्चे आते थे।

लेकिन अब इसकी वजह से अभिभावकों द्वारा अपने बच्चों को तीन साल पूरे होने के बाद सीधे या तो निजी विद्यालयों में नामांकित कर दिया जाता है या फिर सरकारी विद्यालयों में प्री-प्राइमरी कक्षा में भेज दिया जाता है।

इसका सीधा असर मेरी तरह अन्य सभी आंगनवाड़ी केंद्रों पर पड़ा है। अब मेरे पास महज 7-8 बच्चे ही नामांकित हैं और इनमें से भी कुछ बच्चे अपनी आयु के अनुसार प्री-प्राइमरी कक्षा में जाने के लिए तैयार हैं। अब अगर केंद्र में बच्चे ही नहीं आएंगे तो फिर हम लोग वहां क्या करेंगे?

क्या प्री-प्राइमरी कक्षा में बच्चों के पोषण पर इतना जोर दिया जाएगा?

अगर सरकार हम आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को शिक्षा विभाग में सम्मिलित करके प्री-प्राईमरी की कक्षाओं के लिए नियुक्त कर दे, तो इससे न केवल सरकार को प्री-प्राइमरी कक्षा के बच्चों के लिए प्रशिक्षित कार्यकर्ता मिल जाएंगी बल्कि हमारे भविष्य के संकट का भी समाधान हो पाएगा।  

कविता 7 साल से एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता के तौर पर काम कर रहीं हैं।

आईडीआर पर इस ज़मीनी कहानी को आप हमारी टीम की साथी जूही मिश्रा से सुन रहे थे।

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हिमाचल की एक परंपरा जो पर्यावरण संरक्षण की राह में बाधा है

हिमाचल प्रदेश में बढ़ते पर्यटन और उसके लिए लगातार चल रहे निर्माण कार्य का असर अब दिखाई देने लगा है। मेरे ज़िले सोलन और उसके आसपास के इलाक़ों में भूमि के कटाव की वजह से यहां पेड़ों की संख्या कम होती जा रही है। अब इन सबका असर जिले में बढ़ते औसत तापमान से महसूस भी किया जाने लगा है।

मैं और मेरे कुछ मित्र, पिछले कुछ सालों से अपने गांव के आसपास के जंगलों में पौधे लगाते आ रहे हैं। हमारी कोशिश यही है कि एक नया घना जंगल तैयार हो सके। इसके लिए हम हर साल पौधों की व्यवस्था वन विभाग के माध्यम से करते हैं। पौधे रोपने के समय हम गांव के बच्चों की मदद लेते हैं ताकि वे भी इसका महत्व और जरूरत समझ सकें।

लेकिन इलाक़े की कुछ परंपराएं और मान्यताएं हमारी राह की बाधा बनने लगी हैं। जैसे पीपल के पेड़ की पूजा किए जाने के अलावा, उसके युवा हो जाने पर उसका विवाह भी किया जाता है। धूमधाम से भारी खर्चे में किए जाने वाले इस विवाह की ज़िम्मेदारी उसी व्यक्ति को उठानी पड़ती है जिसने वह पौधा रोपा हो। इसी वजह से, भारी ज़रूरत के बाद भी इलाक़े में लोग पीपल का पौधा लगाने से बचते हैं। मैं और मेरे कुछ साथी, लगातार इस प्रयास में रहते हैं कि पर्यावरण को संरक्षित करने के लिए जितने संभव हों उतने पेड़ लगाए जा सकें। अब इस प्रयास में इस तरह की चुनौतियों से निपटना भी शामिल हो गया है।

इंद्रेश शर्मा, आईडीआर हिन्दी की संपादकीय टीम का हिस्सा हैं तथा लगभग 13 वर्षों से विकास सेक्टर से जुड़े हैं।

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