चूल्हे से एलपीजी तक: एक ज़मीनी कार्यकर्ता जो इस सफ़र को आसान बनाती है

दिल्ली की एक फील्डवर्कर रमा के जीवन के एक दिन की झलक पाने के लिए यह वीडियो देखें। रमा भलस्वा में कूड़ा बीनने वालों की मदद करती हैं। उनके सहयोग से समुदाय ने लकड़ी के चूल्हे से एलपीजी सिलेंडर के इस्तेमाल तक का सफ़र तय किया है। ज़मीनी स्तर पर काम करने का पंद्रह वर्षों का अनुभव रखने वाली रमा की सुबह काम से जुड़े फ़ोनकॉल्स और घर के कामों से शुरू होती है। दिनभर का काम निपटाने के बाद शाम में रमा को किशोर कुमार के गीत सुनते हुए चाइनीज़ फ़ूड ख़ाना पसंद है। इस वीडियो में रमा ने अपने काम की प्रकृति के कारण पेशेवर और व्यक्तिगत, दोनों ही जीवनों में आने वाली चुनौतियों के बारे में बताया है। उनका सपना घरेलू हिंसा और दुर्व्यवहार का सामना करने वाली महिलाओं के लिए एक आश्रयगृह बनाने का है। साथ ही, वे राजनीति में सक्रियता से शामिल होकर क्षेत्र की एमएलए बनना चाहती हैं।

मेरा नाम रमा है और मैं अपने पति और दो बेटों के साथ जहांगीरपुरी में रहती हूं। पहले एक आंगनवाड़ी सहायिका के रूप में और फिर एक आशा कार्यकर्ता के रूप में समुदायों के साथ ज़मीनी स्तर पर काम करते हुए मुझे लगभग पंद्रह वर्ष हो चुके हैं। वर्तमान में, मैं यूनाइटेड स्टेट्स एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (यूएसएआईडी) द्वारा चलाई जा रही स्वच्छ वायु और बेहतर स्वास्थ्य (सीएबीएच) परियोजना की भागीदार संस्था असर के साथ एक परिवर्तन एजेंट के रूप में काम कर रही हूं। इसके अलावा मैं भलस्वा में लोगों को खाना पकाने के स्वच्छ ईंधन को अपनाने में मदद करती हूं। भलस्वा उत्तर पश्चिमी दिल्ली में स्थित और एक लैंडफ़िल से घिरा हुआ इलाक़ा है। यहां रहने वाले लोग मुख्य रूप से कचरा बीनने का काम करते हैं। भलस्वा में ज़्यादातर घरों में खाना पकाने के लिए चूल्हे का उपयोग होता है, जिससे घरेलू वायु प्रदूषण खतरनाक स्तर तक पहुंच सकता है और खाना पकाने वाली महिलाओं के स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है। दूसरी ओर, एलपीजी गैस सिलेंडर एक स्वच्छ विकल्प है। वे न केवल वायु प्रदूषण से निपटने में मदद करते हैं, बल्कि उपयोग में आसान होते हैं और चूल्हे के लिए जलाऊ लकड़ी इकट्ठा करने में लगने वाला समय भी बचता है।

मैं भलस्वा में महिलाओं और पुरुषों के साथ, आग और लकड़ी या कोयले जैसे ईंधन से खाना पकाने के नुकसान के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए काम कर रही हूं। हालांकि, लोग अब भी कई कारणों से इस परिवर्तन को अपनाने से झिझकते हैं जिसमें सबसे मुख्य एलपीजी की ऊंची क़ीमत है। साल 2016 में शुरू की गई, प्रधान मंत्री उज्ज्वला योजना (पीएमयूवाई) खाना पकाने के स्वच्छ तरीकों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए सिलेंडर की लागत पर भारी छूट देती है। हालांकि, भलस्वा में रहने वाले कई लोगों के पास अभी भी योजना का लाभ उठाने के लिए आवश्यक सही दस्तावेज़, जैसे आधार कार्ड और श्रमिक कार्ड वग़ैरह नहीं हैं।

नतीजतन, मेरा काम न केवल खाना पकाने के स्वच्छ तरीक़ों के फ़ायदों पर बात करना है बल्कि पीएमयूवाई योजना को लेकर जागरूकता पैदा करना और इन लाभों को उठाने के लिए आवश्यक दस्तावेज को प्राप्त करने में मदद करना भी है।

सुबह 6:00 बजे: आमतौर पर मेरी नींद फोन की घंटी से खुलती है। अक्सर भलस्वा से हमेशा कोई न कोई यह पूछने के लिए फोन करता है कि मैं उनके पड़ोस में कब आ रही हूं या फिर उसे अपने पीएमयूवाई फॉर्म की स्थिति के बारे में पूछताछ करनी होती है। आज की सुबह भी कुछ अलग नहीं थी। फोन कॉल की अफ़रा-तफ़री के बीच मैं और मेरे पति परिवार के लिए सुबह का नाश्ता बनाने में व्यस्त थे। हम अपने बच्चों के दोपहर के खाने की भी तैयारी करते हैं। मेरा बड़ा बेटा बारहवीं में पढ़ता है और छोटा वाला आठवीं कक्षा में है। मेरे पास एक कुत्ता भी है जिसका नाम टिमसी है। मेरे एक रिश्तेदार ने मेरे जन्मदिन पर मुझे दिया था। उसे खाना खिलाना और सुबह टहलाना भी जरूरी है। मेरे पति ऑटो चलाते हैं। काम पर जाने से पहले वही उसकी देखभाल करते हैं।

इन सभी कामों में परिवार के सभी सदस्यों की भागीदारी होती है। मुझे लगता है कि उनके सहयोग के बिना प्रति दिन फ़ील्ड में जाकर काम करना मेरे लिए अधिक चुनौतीपूर्ण हो जाता। मुझे वह दिन आज भी याद है जब मैंने पहली बार साल 2011 में आंगनवाड़ी सहायक के रूप में ज़मीनी स्तर पर काम करना शुरू किया था। उस समय मेरा छोटा बेटा केवल एक साल का था। मेरे रिश्तेदार लगातार मुझे इस काम को छोड़ने की सलाह देते थे ताकि मैं अपने बेटे की देखभाल कर सकूं। मेरे भाई ने तो मुझे वेतन के बदले प्रति माह 3 हज़ार रुपये देने का वादा तक कर दिया था। हालांकि, मैंने अपना काम जारी रखा और अपने बच्चे को प्रति दिन अपने साथ काम पर लेकर जाती थी। मैं हमेशा से ही लोगों की मदद करना चाहती थी और मुझे ऐसा लगा कि इस क्षेत्र में योगदान देने का यही एक तरीक़ा है।

आमतौर पर सुबह, मैं अपने लिए आलू पराठा बनाती हूं ताकि शाम में काम पर से वापस लौटने तक मेरा पेट भरा रहे। मैं इसलिए भी ऐसा करती हूं कि क्योंकि मैं फ़ील्ड पर नहीं खा सकती। अपना नाश्ता ख़त्म करने के बाद एक नज़र पिछली रात तैयार की गई अपनी दिनचर्या पर डालती हूं। ज़्यादातर दिनों में मेरे काम में घर-घर जाकर जागरूकता फैलाने, जन जागरूकता सत्रों का आयोजन करना और पीएमयूवाई के लिए आवेदन करने में लोगों की मदद करना शामिल होता है।

मैं कचरा चुनने वालों के साथ काम करती हूं। वे अपना काम सुबह जल्दी शुरू करते हैं और दोपहर तक अपने घर वापस लौटते हैं। इसलिए मुझे अपनी दिनचर्या उनकी उपलब्धता को ध्यान में रखकर ही बनानी होती है। आज मुझे जन जागरूकता सत्र आयोजित करना है और उसके बाद पीएमयूवाई योजना के लिए आवेदन करने में कुछ महिलाओं की मदद करनी है। अपनी दिनचर्या में थोड़ा बहुत फेर-बदल करने के बाद मैं तैयार होकर भलस्वा के लिए निकल जाती हूं।

सुबह 10:00 बजे: सबसे नज़दीकी बस स्टॉप मेरे घर से दस मिनट की पैदल दूरी पर है। पंद्रह मिनट के इंतज़ार के बाद एक बस मिलती है जो मुझे सड़क की दूसरी छोर पर उतारती है। कई बार मुझे यह दूरी पैदल ही पूरी करनी पड़ती है लेकिन आजकल बहुत गर्मी पड़ रही है और मैं जल्दी थकना नहीं चाहती हूं। पंद्रह मिनट के इंतज़ार के बाद मैं बस लेती हूं। बस से उतरने के बाद आगे जाने के लिए रिक्शा लेती हूं। उसी दिशा में जाने वाली दूसरी सवारियों के आने तक मुझे इंतज़ार करना पड़ता है। मैं 11 बजे तक भलस्वा पहुंचती हूं।

भलस्वा एक बहुत बड़ा इलाक़ा है और धर्म और क्षेत्रीयता के आधार पर छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटा हुआ है। उदाहरण के लिए, कुछ क्षेत्रों में केवल पश्चिम बंगाल के लोग रहते हैं वहीं कुछ में केवल मुसलमान परिवार ही रहते हैं। भलस्वा में रहने वाले विभिन्न समूह अलग-अलग भाषाएं बोलते हैं और उनकी अलग-अलग संस्कृतियां हैं, जिन्हें एक बाहरी व्यक्ति के रूप में समझ पाना एक मुश्किल काम है। हालांकि आंगनबाड़ी सहायक और आशा कार्यकर्ता के रूप में मेरे काम की अलग चुनौतियां थीं, लेकिन उसके बावजूद भी जिन समुदायों की मैंने सेवा की, उनके साथ मैं काफी आसानी से और जल्दी मजबूत रिश्ते बना लेती थी। लेकिन भलस्वा में मेरी यात्रा कठिन रही है, ख़ासतौर पर इसलिए कि यहां के समुदायों का समाजसेवी संस्थाओं और बाहर से आए लोगों के साथ अनुभव अच्छा नहीं रहा था। उदाहरण के लिए, कुछ साल पहले, स्वयं को समाजसेवी संस्था बताने वाले एक समूह ने स्थानीय लोगों को पांच सौर रुपये के बदले सिलाई मशीन देने का वादा किया था। लेकिन, उन्हें न तो कभी कोई मशीन मिली और ना ही अपने पैसे। इसलिए मेरा काम सबसे पहले उनका विश्वास हासिल करना था। समुदाय की विविधता के कारण भी यह काम पेचीदा हो गया था।

भलस्वा के लोगों का भरोसा हासिल करने के लिए मैंने ऐसे लोगों से रिश्ता बनाना शुरू किया जिन्हें इलाक़े में लोग जानते थे और इनमें आशा कार्यकर्ताएं भी शामिल थीं। उन्हीं दिनों, मुझे समाजसेवी संस्थाओं को लेकर समुदाय के मन में बैठे संदेह को दूर करने की दिशा में भी काम करना था। ऐसा करने का एक तरीका लोगों की मदद करने के लिए क्षेत्र में समाजसेवी संस्थाओं के मेरे नेटवर्क का उपयोग करना था। उदाहरण के लिए, मैंने 12 साल की एक विकलांग लड़की को व्हीलचेयर दिलवाने में मदद की। मेरे इस काम में मेरी मदद एक ऐसे समाजसेवी संस्था ने की जिनके साथ मैंने पहले काम किया था। समय के साथ इन दोनों तरीक़ों से मैंने समुदाय के लोगों के साथ जल्द ही अपना रिश्ता बना लिया और कुछ ही दिनों में मेरा फ़ोन भलस्वा की उन महिलाओं के नंबर से घनघनाने लगा जिन्हें मेरे मदद की ज़रूरत थी।

सुबह 11:15 बजे: भलस्वा पहुंचकर मैं वहां की स्थानीय दवा दुकान पर जाती हूं जहां मेरी मुलाक़ात कुछ आशा कार्यकर्ताओं से होती है। उनमें से कुछ से मेरी अच्छी दोस्ती है और साथ देने वाली महिलाओं के ऐसे समूह से मुझे प्रेरणा मिलती है। अपने-अपने दिन से जुड़ी बात करने के अलावा हम लोग समुदाय की ओर से आने वाली विशेष शिकायत पर भी चर्चा करते हैं। उन्होंने मुझे बताया कि कुछ ही दिनों पहले भलस्वा में आये एक परिवार ने उनसे एलपीजी सिलेंडर के लिए संपर्क किया था और उन्होंने उस परिवार को मेरा मोबाइल नंबर दे दिया है।

दवा दुकान पर मैं कुछ अन्य महिलाओं से भी मिली जिन्हें मैंने अपने एजेंडे के अगले आइटम – सामुदायिक जागरूकता सत्र – पर जाने से पहले सिलेंडर प्राप्त करने में मदद की थी।

रमा कुछ कागजात हाथ में लिए एक बेंच पर बैठी किसी से बात कर रही है_घरेलू वायु प्रदूषण
भलस्वा में विश्वास कायम करने के लिए मैंने उन लोगों से रिश्ते बनाने शुरू किये जिन्हें इलाके में लोग जानते थे। चित्र साभार: इंडिया डेवलपमेंट रिव्यू

दोपहर 12:00 बजे: सामुदायिक जागरूकता सत्रों का आयोजन दवा दुकान के बग़ल वाले मंदिर में होता है। आज लगभग 10–15 महिलाएं इकट्ठा हुई हैं। उनमें से ज़्यादातर अपने नवजात बच्चों के साथ आई हैं जिन्हें वे घर पर अकेला नहीं छोड़ सकतीं। एक बार सबके बैठ जाने के बाद मैंने असर द्वारा विकसित टूलकिट निकाला। यह 17 पेज लंबा एक दस्तावेज है जिसमें चित्रों के माध्यम से वायु प्रदूषण और उसके कारणों को समझाया गया है। इसमें लंबे समय तक लकड़ी वाले ईंधन से होने वाले दुष्परिणामों के बारे में भी बताया गया है।

इस सत्र के दौरान, मैं चूल्हे के बहुत लंबे समय तक उपयोग के कारण खाना पकाने वाली महिलाओं के साथ ही परिवार के अन्य सदस्यों पर भी पड़ने वाले हानिकारक प्रभावों के बारे में बताती हूं। इसमें हृदयाघात, फेफड़ों में रुकावट वाली बीमारियां, फेफड़ों का कैंसर और छोटे बच्चों में तीव्र श्वसन संबंधी बीमारियों जैसी स्थितियां शामिल हैं। महिलाएं इन सत्रों में सक्रियता से भाग लेती हैं और प्रश्न-उत्तर के साथ ही अपने अनुभव भी साझा करती हैं। इन सत्रों के माध्यम से मेरा लक्ष्य न केवल वहां उपस्थित लोगों को सूचित करना है बल्कि मैं चाहती हूं कि वे इन जानकारियों को अपने ऐसे अन्य साथियों से भी साझा करें जो अब भी एलपीजी के इस्तेमाल को लेकर संशय में हैं। ऐसे लोग भी हैं जिन्हें चूल्हे पर खाना पकाने की आदत हो चुकी है और वे एलपीजी सिलेंडर के इस्तेमाल को लेकर सशंकित रहते हैं। महिलाओं, विशेष रूप से बुजुर्ग महिलाओं द्वारा की जाने वाली शिकायतों में एक सबसे आम शिकायत यह होती है कि चूल्हे पर पकाया गया खाना अधिक स्वादिष्ट होता है। गलतफ़हमी को दूर करने के लिए, मैं आमतौर पर उन्हें समुदाय की एलपीजी का उपयोग कर रही अन्य महिलाओं से बात करने के लिए प्रोत्साहित करती हूं। ये महिलाएं बताती हैं कि कैसे अब खाना बनाते समय उनकी आंखें नहीं जलती हैं, और कैसे उनकी सांस संबंधी समस्याओं में भी कमी आई है।

एलपीजी सिलेंडर को अपनाने के कारण भलस्वा के लोगों को एक महत्वपूर्ण आर्थिक चुनौती का सामना करना पड़ा है।

एलपीजी सिलेंडर को अपनाने के कारण भलस्वा के लोगों को एक महत्वपूर्ण आर्थिक चुनौती का सामना करना पड़ा है। इनमें से अधिकांश लोगों का पेशा कचरा बीनना है और वे ईंधन के लिए इतने पैसे खर्च करने की क्षमता नहीं रखते हैं। इन सत्रों में अक्सर इसी विषय पर बहस और चर्चा होती है। इसका सामना करने के लिए, मैं अक्सर महिलाओं को एलपीजी के इस्तेमाल से लंबे समय में होने वाले फ़ायदों पर ध्यान केंद्रित करने की सलाह देती हूं। पारंपरिक चूल्हों के लिए लकड़ी और अन्य ईंधन से अपने दैनिक खर्चों का एक हिस्सा बचाकर वे धीरे धीरे एलपीजी रिफिल का खर्च उठाने के लिए पर्याप्त बचत कर सकती हैं। उदाहरण के लिए, प्रति दिन 30 से 40 रुपये की बचत कर लेने से इतने पैसे जमा हो सकते हैं कि महीने के अंत में सिलेंडर रीफ़िल का खर्च उठाया जा सकता है।

इसके अतिरिक्त, मैं उनका ध्यान पीएमयूवाई के तहत मिलने वाले लाभों की ओर आकर्षित करती हूं, जिसे आर्थिक रूप से वंचित परिवारों के लिए एलपीजी गैस सिलेंडर सुलभ बनाने के लिए सरकार द्वारा 2021 में फिर से लॉन्च किया गया था। पीएमयूवाई के तहत, पहला सिलेंडर और इसे लगाने में होने वाला खर्च हाशिए पर रहने वाले लोगों के लिए मुफ्त है, जिसके बाद वे रियायती दरों पर एलपीजी गैस कनेक्शन प्राप्त कर सकते हैं। लाभार्थियों को पहली रिफिल के लिए 1,600 रुपये मिलते हैं, जिसमें 14 किलोग्राम सिलेंडर और इसे लगाने में होने वाला खर्च शामिल है। अगले 12 रिफिल में से प्रत्येक के लिए अतिरिक्त 300 रुपये प्रदान किए जाते हैं। पहले, इन भुगतानों में अक्सर देरी होती थी, लेकिन दोबारा लॉन्च के बाद से, काफी हद तक इसमें सुधार आया है।

पीएमयूवाई के लिए दस्तावेज़ीकरण प्रक्रिया को काफी सरल बना दिया गया है, फिर भी लोगों को सही कागजी कार्रवाई करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है।

इससे पीएमयूवाई तक पहुंचने के लिए आवश्यक कागजी कार्रवाई को पूरा करने के रूप में एक अन्य चुनौती भी सामने आती है। हालांकि पीएमयूवाई के लिए दस्तावेज़ीकरण प्रक्रिया को काफी सरल बना दिया गया है, फिर भी लोगों को सही कागजी कार्रवाई करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। आवश्यक दस्तावेजों में से कुछ में राशन कार्ड, पते का प्रमाण, आधार कार्ड या जाति प्रमाण पत्र शामिल हैं। यदि कोई दूसरे राज्य से दिल्ली आया है – जो भलस्वा में काफी आम है – तो उन्हें निवास प्रमाण पत्र, जैसे बिजली बिल और रेंट एग्रीमेंट की भी आवश्यकता होगी। ऐसे भी मामले हैं जिनमें लोगों के पास किसी भी प्रकार का दस्तावेज नहीं है, और इन स्थितियों में प्रवासी कार्ड या श्रमिक कार्ड भी पर्याप्त है।

कल ही, एक महिला जिसके पास कोई भी आवश्यक दस्तावेज नहीं था, उसने योजना के बारे में पूछताछ की। मैंने उससे कहा कि वह अभी भी श्रमिक कार्ड के माध्यम से इसका लाभ उठा सकती है। हालांकि, उसके पास कोई श्रमिक कार्ड भी नहीं था, इसलिए वर्तमान में मैं उसे एक श्रमिक कार्ड दिलाने में मदद कर रही हूं। उसके बाद, पीएमयूवाई के लिए आवेदन करने में मैं उसकी मदद करूंगी।

दोपहर 2:00 बजे: एक बार जागरूकता सत्र समाप्त हो जाने के बाद, अधिकांश लोग दोपहर के भोजन के लिए चले जाते हैं। चूंकि मैं आमतौर पर दोपहर का खाना लेकर नहीं आती हूं इसलिए अपने इस समय का उपयोग लोगों को उनके आवेदन पत्र भरने में मदद करने के लिए करती हूं। मैं उन्हें नज़दीक की ही एजेंसी में अपना आवेदन पत्र जमा करवाने के लिए लेकर जाती हूं। आवेदन पत्र की समीक्षा के बाद एजेंसी वाले लोग आवेदक को ज़रूरी टूल ले जाने के लिए बुलाते हैं और उसके बाद उनके घर सिलेंडर पहुंचाया जाता है।

सारे आवेदकों की सूची की एक प्रति मेरे पास भी होती है जिसमें मैं ज़रूरी दस्तावेजों की अनुपलब्धता वाले विशेष मामलों के लिए एक अलग से टिप्पणी लिखती हूं। उनमें से कुछ मामलों का पता बार-बार लगाना पड़ता है ताकि उनके दस्तावेज सही समय पर तैयार हो सकें। मेरी सहेलियां – अन्य आशा कार्यकर्ताएं – भी इस समय मेरे साथ होती हैं। मेरा सारा काम ख़त्म हो जाने के बाद हम कुछ देर बैठते हैं और आपस में बातचीत करते हैं।

दोपहर 4:30 बजे: उस दिन का सारा काम ख़त्म करने के बाद मैं घर के लिए निकल जाती हूं। तब तक शाम के साढ़े चार से पांच का समय हो जाता है। घर लौटने के लिए भी मुझे पहले ई-रिक्शा, बस और फिर पैदल यात्रा करनी पड़ती है। मैं दवा खाने में शौचालय के इस्तेमाल से बचती हूं इसलिए घर जाते ही सबसे पहले मुझे शौचालय जाना पड़ता है। बाहर शौचालय के इस्तेमाल से बचने के लिए मैं जानबूझ कर कम पानी पीती हूं। ख़ासकर गर्मी में यह ज़्यादा चुनौतीपूर्ण हो जाता है और मुझे मतली आने लगती है। लेकिन समय के साथ मुझे अब इसकी आदत हो गई है।

जब तक मैं हाथ-मुंह धोती हूं तब तक मेरा बड़ा बेटा मेरे लिए चाय बना देता है। उस समय तक मेरे पति भी थोड़ी देर के लिए घर आ जाते हैं और हम सब एक साथ बैठकर अपने-अपने दिन के बारे में बातें करते हैं।

शाम 7:00 बजे: कुछ घंटों के आराम के बाद मैं उस दिन के काम की रिपोर्ट तैयार करने के लिए बैठती हूं। जब मैंने असर के साथ काम करना शुरू किया था तब मुझे स्मार्टफोन का इस्तेमाल करना नहीं आता था और मैं केवल लोगों के फ़ोन उठाने और उन्हें फ़ोन करना भर जानती थी। धीरे-धीरे, मैंने कंप्यूटर प्रशिक्षण की कक्षा में नामांकन करवाया और अब मैं अपना रिपोर्ट तैयार करने के लिए अपने फ़ोन में ही एक्सेल का इस्तेमाल कर सकूं। प्रत्येक शाम रिपोर्ट तैयार करने के बाद मैं व्हाट्सएप पर ही अपनी टीम के साथ उसे साझा करती थी। चूंकि मेरी अंग्रेज़ी भी बहुत अच्छी नहीं है इसलिए मैं हिन्दी करने के लिए ट्रांसलेशन टूल का भी इस्तेमाल करती हूं। इस कौशल को हासिल करने में सक्षम होने से मेरा आत्मविश्वास काफी बढ़ा।

दिन का काम ख़त्म होने के बाद, मैं किशोर कुमार का संगीत और कुछ भजन सुनते हुए आराम करती हूं। शाम में, मैं कुछ समय अपने कुत्ते टिमसी के साथ खेलने में भी बिताती हूं।

भले ही दिन भर का मेरा काम थकाने वाला होता है लेकिन इससे मुझे इस बात की ख़ुशी मिलती है कि मैं भलस्वा में छोटा ही सही लेकिन बदलाव लाने में अपना योगदान दे रही हूं। चूंकि, अब महिलाओं को ईंधन के लिए लकड़ी जुटाने में घंटों नहीं लगाने पड़ते इसलिए अब उनके पास मटर बेचने जैसे कामों के लिए समय बच जाता है जिससे उन्हें थोड़ी बहुत अतिरिक्त आमदनी भी हो जाती है। इससे उन्हें अपने एलपीजी के रिफ़िल में भी आर्थिक मदद मिल जाती है।

मैं हमेशा से ही समाज और समाज की उन महिलाओं की मदद करना चाहती थी जिन्हें आर्थिक तंगी के कारण अपनी ज़रूरतों और इच्छाओं को दबाना पड़ता है। भविष्य में मैं चुनाव लड़कर सांसद बनना चाहती हूं ताकि इन समुदायों के लिए बड़े स्तर पर काम कर सकूं। मैं घरेलू हिंसा झेल रही महिलाओं के लिए एक आश्रयगृह भी शुरू करना चाहती हूं।

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें

सफ़ाई कर्मचारियों के बिना दिल्ली दिल्ली नहीं रह सकेगी

मैं दिल्ली के उत्तर-पश्चिम जिले की भलस्वा लैंडफ़िल में पिछले बारह सालों से सफाई कर्मचारी के तौर पर काम करती हूं। शादी से पहले और लैंडफिल के पास रहने से पहले, मैं कूड़ा इकट्ठा करने और उसे स्क्रैप मार्केट में बेचने के लिए जहांगीरपुरी से यहां आया करती थी।

पहले हमारी आय बेहतर होती थी। हम ई-कचरे को छांटने और बेचने से 500-600 रुपये तक कमा लेते थे; अब हम 200-250 रुपये ही कमाते हैं। इस कमाई में हम अपने बच्चों को शिक्षा कैसे दें सकेंगे, सिलेंडर और बिजली का बिल कैसे भरेंगे, कपड़े कैसे खरीदेंगे, और कैसे अच्छा जीवन जिएंगे?

पहले हमारे पास सूखा और गीला, दोनों तरह का कूड़ा एक साथ आता था जिनकी हम छंटाई करते थे। लेकिन अब सूखे और गीले कचरे को हम तक आने से पहले ही अलग कर दिया जाता है, और कीमती स्क्रैप जैसे कि ई-कचरे और इसके धातु भागों को हमारे क्षेत्र में प्रवेश करने से पहले ही कचरा ट्रकों द्वारा ले जाया जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि नगर पालिकाओं का उन प्राइवेट कंपनियों के साथ समझौता होता है जिनके पास ये ट्रक होते हैं। अब इन कंपनियों का कचरे पर एकाधिकार हो गया है।

अनौपचारिक कचरा श्रमिक होने के कारण हमे पक्की सैलरी नहीं मिलती है। हम रोज़ जो कचरा इकट्ठा करते है और बेचते है, उसी से अपनी आजीविका चलाते है। हमने दिल्ली नगर पालिका से भी हमें काम पर रखने के लिए कहा है, लेकिन इसकी बजाय सरकार भलस्वा डंपिंग ग्राउंड को बंद करने पर ध्यान केंद्रित कर रही है।

हम कचरे को अलग करके, प्रदूषण कम कर रहे हैं और अपनी नदियों और नालों को साफ रखने में मदद कर रहे हैं। हमारे बिना, दिल्ली दिल्ली नहीं होगी।

सायरा बानो सफाई सेना की सदस्य हैं जो दिल्ली में अनौपचारिक कचरा श्रमिकों का संघ है।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें: दिल्ली में रिसाइकिलिंग की चुनौतियों के बारे में अधिक जानने के लिए यह लेख पढ़ें।

अधिक करें: सायरा बानो के काम को विस्तार से जानने और उन्हें अपना सहयोग देने के लिए उनसे [email protected] पर संपर्क करें।

प्लास्टिक कचरा: आग में जला नहीं सकते और पानी में गलता नहीं

सायरा बानो दिल्ली में भलस्वा लैंडफिल के पास रहती हैं। यह शहर की दूसरी सबसे बड़ी डंपिंग साइट है। सायरा कचरा बीनने का काम करती हैं जिसका मतलब है कि वे एक अनौपचारिक श्रमिक हैं। वे और उनके आस-पड़ोस के कई परिवार अपनी आजीविका के लिए भलस्वा में आने वाले कचरे को छांटने और बेचने का काम करते हैं। ये लोग देश की कचरा रिसाइकिलिंग की अनौपचारिक प्रक्रिया का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।

सायरा बानो के घर के आसपास प्लास्टिक रैपर और रबर चप्पलों के ढेर देखे जा सकते हैं। वे कहती हैं कि ‘पहले हम सर्दियों में इन्हें जलाकर आग सेंकते थे या फिर इनसे निपटने के लिए इन्हें यूं ही बाक़ी कचरे के साथ जला देते थे। लेकिन जागरूकता अभियान में हमें यह बताया गया कि प्लास्टिक को जलाने से हमारे स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है क्योंकि हम फिर उसी हवा में सांस लेते हैं। लेकिन हम इन रैपरों को बेच नहीं सकते हैं और अब जला भी नहीं सकते हैं। हम सड़क पर झाड़ू लगाकर इन्हें किनारे एक जगह पर इकट्ठा कर देते हैं।’ जिस प्लास्टिक से चिप्स के रैपर बनते हैं, उस तरह के प्लास्टिक को रिसाइकल करना कठिन होता है क्योंकि यह कई परतों वाला प्लास्टिक (मल्टीलेयर प्लास्टिक) होता है और इनमें खाने-पीने की चीजों के टुक्ड़े भी रह जाते हैं। इसके अलावा, ये प्रसंस्करण मशीनरी को बाधित भी करते हैं और इसलिए इस प्रकार के प्लास्टिक के रिसाइकिल प्रक्रिया महंगी पड़ती है।

मल्टीलेयर प्लास्टिक को विघटित होने (गलने) में काफी समय लगता है और इनसे निकलने वाले रंग पानी में दुर्गंध पैदा करते हैं। सायरा बानो कहती हैं, “यह कचरा हमारी नालियों को रोक कर रहा है और आखिर में नदियों और समुद्रों तक पहुंचकर उन्हें भी प्रदूषित कर रहा है।” लेकिन साथ ही, सायरा बानो एक समाधान भी सुझाती हैं। वे कहती हैं कि ‘इन रैपरों में अपने उत्पाद बेचने वाली कंपनियों को इनकी रिसाइकिलिंग की जम्मेदारी भी उठानी चाहिए। उन्हें लोगों से बात करनी चाहिए और इसका समाधान निकालना चाहिए।’

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

सायरा बानो सफाई सेना की सदस्य हैं जो दिल्ली में अनौपचारिक कचरा श्रमिकों का संघ है।

अधिक जानें: जानें कि अहमदाबाद के कपड़ा कारीगरों पर जलवायु परिवर्तन का क्या असर हो रहा हैं।

अधिक करें: सायरा बानो के काम को विस्तार से जानने और उन्हें अपना सहयोग देने के लिए उनसे [email protected] पर संपर्क करें।

जेल वापसी का आदेश

2020 में, COVID-19 के बढ़ते मामलों को देखते हुए अन्य जगहों के साथ-साथ जेलों में भी भीड़ कम करने की आवश्यकता महसूस हुई। इसके मद्दे नज़र सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति ने दिल्ली में 3,000 से अधिक अंडरट्रायल कैदियों और दोषियों को अंतरिम जमानत या पैरोल पर रिहा कर दिया। कोर्ट ने 25 मार्च 2023 को पैरोल पर रिहा हुए सभी को 15 दिन के भीतर वापस लौटने का आदेश दिया है।

तीन साल लम्बा समय होता है। इस दौरान बेल पर बाहर निकले लोगों के जीवन में कई तरह के बदलाव आ चुके हैं। दिल्ली के उत्तर पश्चिम जिला के रोहिणी इलाक़े में रहने वाले नागेंद्र को नौकरी के लिए एक साल तक संघर्ष करना पड़ा। उसने बताया कि “मुझे एक पार्ट-टाइम नौकरी ढूँढने में एक साल लग गया। निजी क्षेत्रों में नौकरी के लिए जाने पर वे लोग सबसे पहले सत्यापन (वेरिफ़िकेशन) करते हैं; इससे उन्हें मेरी पृष्ठभूमि के बारे में पता चल जाता है।” जब वह इस पार्ट-टाइम नौकरी और साइबर कैफ़े में अपनी नौकरी के साथ संघर्ष कर रहा है उसी बीच उसके वह चाचा लकवाग्रस्त हो गए जिन्होंने जेल में रहने के दौरान उसे आर्थिक और भावनात्मक सहारा दिया था। इसका सीधा अर्थ अब यह है कि 12 लोगों वाले अपने संयुक्त परिवार के लिए अब वह और उसका भाई ही कमाई का एकमात्र स्त्रोत रह गए हैं।

नौकरी पाने में इसी तरह की चुनौतियों का सामना करने के बाद, दिल्ली के पश्चिम जिले के नांगलोई में रहने वाले शुभंकर ने पहले नमक बेचने का काम शुरू किया और फिर दुकान लगाने के लिए पैसे उधार लिये। अब उसे जेल वापस लौटना है और परिवार को उसका व्यापार चलाने में मुश्किल होगी।

उसका कहना है कि “मेरे पिता कोविड-19 से संक्रमित हो गए थे और उनकी हालत ठीक नहीं है। उनके हाथ में इन्फेकशन है और उनकी उँगलियों ने काम करना बंद कर दिया है। अपने घर में मैं ही एकलौता कमाने वाला हूं। मैंने अपने परिवार में किसी को भी जेल वापस लौटने वाली बात नहीं बताई है। मैं उन्हें परेशान नहीं करना चाहता हूं।”

शुभंकर अपने काम के लिए लिए गए कर्ज को ना लौटा पाने को लेकर चिंतित है। “अब जब मैं आत्मसमर्पण करता हूं और उधार लिए गए पैसे नहीं लौटाता हूं तो लोग मुझे धोखेबाज़ समझेंगे। फिर कभी कोई मेरी मदद नहीं करेगा।”

नागेंदर प्रोजेक्ट सेकेंड चांस में एक फील्ड वर्कर भी हैं, जो दिल्ली में जेल सुधार पर केंद्रित एक समाजसेवी संस्था है। शुभंकर दिल्ली में अपना व्यापार करने वाले एक सूक्ष्म उद्यमी हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

—  

अधिक जानें: जानें कि असम में एक ‘अवैध अप्रवासी’ के रूप में हिरासत में लिए गए व्यक्ति की खराब लिखावट के कारण उसकी जमानत याचिका कैसे रद्द हो गई।

अधिक जानें: लेखकों के काम को विस्तार से जानने और उन्हें अपना सहयोग देने के लिए उनसे [email protected] पर सम्पर्क करें।

ट्रांसजेंडर महिलाएं क्यों रह जाती हैं बेरोज़गार

ज्योत्सना एक ट्रांसजेंडर है और दिल्ली के वज़ीरपुर इलाके में रहती हैं। उनका पूरा दिन अपनी आजीविका चलाने के लिए ट्रैफ़िक सिग्नल पर लोगों से पैसे मांगने में बीत जाता है। वे थोड़ी अतिरिक्त कमाई के लिए आसपास के इलाक़ों के उन घरों में चली जाती हैं जहां शादी-ब्याह या बच्चे के जन्म पर कोई आयोजन हो रहा हो।

ट्रांस समुदाय के बाक़ी लोगों की तरह ज्योत्सना को भी कोई औपचारिक रोज़गार नहीं मिल पा रहा है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि वे अपनी शैक्षणिक योग्यता को प्रमाणित नहीं कर सकती हैं। पारिवारिक दुर्व्यवहार के कारण 2003 में उन्हें अपना गाज़ियाबाद वाला घर छोड़ना पड़ा। परिणामस्वरूप, 10वीं तक पढ़ाई करने के बावजूद उनके पास इससे जुड़े दस्तावेज नहीं हैं कि वे नौकरी के लिए इन्हें दिखा सकें।

हालांकि, ज्योत्सना को लगता है कि उनकी यह बेरोज़गारी कई वजहों से है। वे कहती हैं कि “देखिए, ‘मैट्रिक पास’ होना एक चीज़ है। नौकरी देने वाले लोग हमें देखते हैं और फिर काम पर रखने से मना कर देते हैं। यहां तक कि पिछड़े समुदायों द्वारा किए जाने वाले छोटे-मोटे काम भी हमें नहीं मिलते हैं क्योंकि हम दिखने में अलग हैं।”

आम आबादी में जहां 75 फ़ीसदी लोगों को साल भर में छह महीने से अधिक समय के लिए काम मिल पाता है, वहीं ट्रांस समुदाय में यह आंकड़ा केवल 65 फ़ीसदी है। ट्रांस लोगों के साथ उनके ‘स्त्रैण व्यवहार’, समाज में ट्रांस दर्जे, यौन व्यापार के साथ वास्तविक या कथित जुड़ाव, उनके एचआईवी संक्रमित होने से जुड़ी सच्ची-झूठी धारणाएं, कपड़े पहनने का तरीका और शारीरिक रूप-रंग सरीखी कई बातें जुड़ी होती हैं। इन्हीं के कारण उन्हें अपने परिवारों, पड़ोसियों, समुदायों और सार्वजनिक और निजी संस्थानों द्वारा अलग-अलग तरह से किए जाने वाले भेदभाव का सामना करना पड़ता है।

अजान एक ट्रांस पुरुष हैं। वे ट्वीट फ़ाउंडेशन के दक्षिण दिल्ली शेल्टर के प्रबंधक के तौर पर काम करते हैं। यह ट्रांस लोगों द्वारा संचालित एक समुदायिक संगठन है। अजान का अपना अनुभव यह कहता है कि ट्रांस महिलाओं के लिए रोज़गार खोजना कहीं ज्यादा मुश्किल है क्योंकि पसंद से ‘स्त्रीत्व’ के चुनाव को बड़ा ‘विचलन’ माना जाता है। इसलिए एक ट्रांस पुरुष के तौर पर समाज में हाशिए पर होने के बावजूद रोज़गार हासिल करने की उनकी संभावनाएं किसी ट्रांस महिला की तुलना में अधिक होती हैं।

अन्वेशी गुप्ता ने हक़दर्शक में विकास और प्रभाव के लिए सहायक प्रबंधक के रूप में काम किया है। हर्षिता छतलानी हक़दर्शक की जूनियर रिसर्चर और कंटेंट क्रिएटर हैं। यह मूलरूप से हकदर्शक के ब्लॉग पर प्रकाशित एक लेख के संपादित अंश हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें: जानें कि एक समुदाय के जातिगत पूर्वाग्रह के कारण राजस्थान में एक कौशल कार्यक्रम कैसे विफल हो गया।

अधिक करें: अन्वेषी से [email protected] पर और हर्षिता से [email protected] से सम्पर्क करें और उनके काम के बारे में विस्तार से जानें एवं अपना सहयोग दें।