बिहार के हरियाडीह गांव में काली मंदिर के बाहर गांछ (रेतीले कुंज) में महिलाओं का एक समूह पेड़ों की छांव में बैठकर बीड़ी बना रहा है। गांव की एक निवासी मीरा देवी* बताती हैं कि गांव की सभी महिलाएं यह काम करती हैं। ‘और हमारे पास करने को है ही क्या?’
सुमन देवी इसमें तत्परता से अपनी बात जोड़ती हैं औऱ कहती हैं कि ‘हम जानते हैं कि बीड़ी लोगों की सेहत के लिए ख़राब है, हर तरह की समस्याओं की जड़ है। लेकिन जब तक सरकार हमें कुछ और काम नहीं देती है तब तक हम और क्या करें?’ जब मैंने उनसे पूछा कि क्या वे बीड़ी पीने वाली किसी महिला को जानती हैं? तो वे सब हंसने लगीं। जवाब में रूपल देवी* ने कहा ‘केवल पुरुष ही पीते हैं।’
इनमें से किसी भी महिला को यह याद नहीं है कि उन्होंने बीड़ी बनाना कब शुरू किया था। अपनी-अपनी उम्र तक याद करने में परेशान होती हुई इन महिलाओं ने कहा कि वो बहुत बुरा समय था। लेकिन उन सभी को यह जरूर याद था कि सबसे पहले किस दर पर उन्होंने बीड़ी बेची थी। प्रेरणा देवी* बताती हैं कि ‘मैं तब से बीड़ी बना रही हूं जब 1,000 बीड़ी के 8 रुपए मिलते थे।’ आज उन्हें ठेकेदार 1,000 बीड़ी के 100 रुपए देता है।
यह बात बहुत जल्द ही स्पष्ट हो गई कि इनमें से अधिकांश महिलाएं अनुसूचित जाति से आती हैं औऱ इनमें से कोई ऐसी महिला नहीं थी जिसके परिवार के पास थोड़ी-बहुत ज़मीन हो। गांव में खेती के मौसम में मज़दूरी करने पर अच्छे पैसे मिल जाते हैं लेकिन यह काम मौसमी होता है। नतीजतन, बाक़ी समय इनके पास आजीविका का कोई और ऐसा विकल्प नहीं होता जिससे ये अपना गुज़ारा और घर-परिवार की देखभाल कर सकें।
महिलाओं का दिन सुबह 4 से 6 बजे के बीच शुरू होता है। वे अपना घर साफ़ करती हैं, बर्तन धोती हैं, खाना पकाती हैं और अपने बच्चों को तैयार करती हैं। अपने घर की ज़िम्मेदारियों को पूरा करने के बाद ये बीड़ी बनाने की चीजें इकट्ठा करती हैं और गांछ की ओर निकल जाती हैं।
महिलाएं अपने सामने आने वाली रोज़ाना की चुनौतियों के बारे में भी मुझसे बात करती हैं। रूपा कहती हैं कि ‘हम 1,000 बीड़ी देते हैं लेकिन हमें शायद ही कभी 80 रुपए से ज़्यादा मिलता है। ठेकेदार बहुत ही आसानी से लाल पत्तियों वाली या जरा छोटी-बड़ी हो गई बीड़ियों को लौटा देता है।’ प्रेरणा यहां जोड़ती हैं कि ‘लेकिन वह कभी उन ख़राब बीड़ियों को हमें वापस नहीं लौटाता है और न ही उन्हें हमारे सामने फेंकता है।’ वे यह जानती हैं कि बेहतर गुणवत्ता वाली बीड़ियों को ब्रांडनेम के साथ और बी-ग्रेड बीड़ियों को किसी लेबल के बिना, स्थानीय बाजार में बेचा जाता है।
चूंकी महिलाओं को कच्चा माल तौलकर दिया जाता है न कि गुणवत्ता के आधार पर, इसलिए कई बार उन्हें ऐसी पत्तियां मिल जाती हैं जिनसे बीड़ी नहीं बन सकती है। और अगर वे एक निश्चित तौल में एक हज़ार बीड़ियां नहीं बना पाती हैं तो उन बीड़ियों को ब्लैक में बेचने या चुराने का आरोप भी लगता है।
महिलाएं बताती हैं कि एक ही मुद्रा में बैठकर दिन के आठ से दस घंटे काम करना उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर डालता है। शरीर में दर्द एवं आंखों का कमजोर होना एक आम शिकायत है। दर्द की गोलियां थोड़े समय के लिए ही राहत देती हैं। कभी-कभी एक ही काम करने से वे परेशान हो जाती हैं। सुमन का कहना है कि ‘मन ऊब जाता है। मैं थक जाती हूं। हम एक दिन की छुट्टी ले सकते हैं लेकिन इससे एक दिन की दिहाड़ी का नुक़सान हो जाएगा।’
*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नामों को बदल दिया गया है।
देवाश्री सोमानी 2021 इंडिया फ़ेलो हैं। इंडिया फेलो #ज़मीनीकहानियां के लिए आईडीआर का कंटेंट पार्ट्नर है। मूल लेख यहां पढ़ें।
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“मैं किसे सिखाउंगी?” वे सब मुझसे यही कहते हैं कि ‘कौन यह गंदा काम करेगा?’” मूहिया देवी ने मुझसे यह उस समय कहा जब मैं फूस के छत वाले उनके छोटे से कच्चे घर के सामने बैठी थी। “वे खून और इस गंदगी को बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं।” मूहिया देवी बिहार के जमुई ज़िले के सरारी गांव में रहने वाली एक 60 वर्षीय बुजुर्ग महिला हैं जिनका संबंध मांझी समुदाय (एक अनुसूचित जाति) से है। उनके अनुसार वह पिछले 50 वर्षों से दाई का काम कर रही हैं।
दाई या ट्रेडिशनल बर्थ अट्टेंडेंट (टीबीए) आमतौर पर एक औरत होती है जो अपने समुदाय में प्रसव, प्रसवोत्तर और नवजात शिशु की देखभाल का काम करती है। मांझी समुदाय से ही आने वाली पूजा देवी कहती है कि “हमारी जाति का यही काम है।” बीस साल की पूजा जमुई के ही एक दूसरे गांव हसडीह की रहने वाली है। उसने अपने परिवार की तीन पीढ़ियों की महिलाओं को दाई का काम करते देखा है।
हो सकता है कि बिहार में उन्हें दाई के नाम से जाना जाता हो लेकिन टीबीए कई सदियों से पूरे भारत भर में पाई जाती हैं और अपने समुदाय की बहुत महत्वपूर्ण इकाई होती हैं। समय के साथ इस काम ने एक जाति-आधारित पेशे का रूप ले लिया है। दाईयों को औरतों के शरीर के सम्पर्क में रह कर काम करना पड़ता है। वे प्रसव के दौरान शरीर से निकलने वाले द्रव और अन्य प्रकार की गंदगी साफ़ करती है। इस काम को “अपवित्र” माना जाता है और इसलिए जाति व्यवस्था के तहत इसकी ज़िम्मेदारी दलित समुदायों पर है।
हालांकि मुझसे बातचीत करने वाली सभी दाईयां इस काम से जुड़े पारम्परिक ज्ञान को लेकर मुखर थीं और उनका मानना था कि वे “भलाई का काम” कर अपने समुदाय के लोगों की मदद करती हैं। लेकिन साथ ही उन्हें यह कहने में भी किसी तरह का संकोच नहीं हो रहा था कि यह काम गंदगी से जुड़ा हुआ है।
जमुई के मसौदी गांव की मांझी टोला में रहने वाली लालजित्या देवी पिछले 40 वर्षों से दाई का काम करती आ रही हैं। उन्होंने हमें बताया कि “घर पर प्रसव करवाना एक बहुत गंदा काम है। सफ़ाई की पूरी ज़िम्मेदारी मुझ पर ही होती है। प्रसव के दौरान और उसके बाद मुझे बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। मेरी भूख मर जाती है। मुझे बिल्कुल अच्छा महसूस नहीं होता है।”
दूसरों की तरह मूहिया देवी को प्रसव करवाने का काम अपवित्र नहीं लगता है। वह कहती हैं “अगर मुझे लगता कि यह काम अश्लील है तो मैं कैसे करती?” लेकिन वह इस बात से इनकार नहीं करती हैं कि यह अरुचिकर या घिनौना हो सकता है। “मैं घर के पुरुष सदस्यों से शराब की कुछ घूँट देने के लिए कहती हूं। इससे मुझे लगातार जागते रहने, सर्दी-जुकाम से लड़ने और मानसिक संतुलन बनाए रखने में मदद मिलती है। मूहिया देवी ने कहा कि “शराब नहीं पीने पर घृणा होने लगेगी।”
मूहिया देवी कहती है कि “हमारे लिए काम का मतलब या तो ये है या फिर दिहाड़ी मज़दूरी।” दाई का काम करने से पैसे की कमाई होती है और आजकल हर एक प्रसव या मालिश के काम के लिए 500 से 2,000 रुपए मिलते हैं। इसके अलावा कभी-कभी एक साड़ी, कुछ किलो दाल या चावल भी मिल जाता है। लेकिन इसकी अस्थायी प्रकृति हमेशा ही बदलती रहती है। वह कहती है कि “प्रसव का काम होने पर मेरी कमाई हो जाती है। जब प्रसव का काम नहीं रहता है तो मैं नहीं कमा पाती हूं। बिना काम वाले दिनों में मैं यूं ही बेकार बैठी रहती हूं।”
इंडियाफ़ेलो आईडीआर की #ज़मीनीकहानियां का कंटेंट पार्ट्नर है। इस कहानी का एक लंबा संस्करण पहली बार यूथ की आवाज़ पर प्रकाशित हुआ था।
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