मोवनी बाई ने हाल ही में कोविड-19 टीके का अपना दूसरा डोज़ लिया है लेकिन अपनी मर्ज़ी से नहीं। वउनका कहना है कि उन्होनें सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) द्वारा दिये जाने वाले मुफ्त राशन की सूची से बाहर निकाल देने और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत पंजीकृत कामगारों की सूची से बाहर हो जाने के डर से टीका लगवाया था। हालांकि भारतीय संविधान उन्हें इन दोनों अधिकारों की गारंटी देता है।
मोवनी बाई अकेली ऐसी नहीं है जिसे इस संशय के स्त्रोत की जानकारी नहीं है। उदयपुर के गोगुंडा प्रखण्ड के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में काम करने वाली एक सहायक नर्स आया (एएनएम) ने कहा कि कई लोग इस डर से टीका लेने आए थे कि उन्हें काम नहीं मिलेगा या उन्हें राशन मिलना बंद हो जाएगा। हमनें देखा कि क्षेत्र के ज़्यादातर लोग सरकार द्वारा जारी कोविड-19 संबंधित खबरों और सूचनाओं से अनजान थे। इस तरह की सूचना के लिए वे व्हाट्सऐप फोरवार्ड्स, स्थानीय सरकारी अधिकारियों और स्वयंसेवी संस्थाओं पर भरोसा करते थे। इनमें से कुछ अधिकारी टीकाकरण को बढ़ावा देने के तरीके के रूप में सामाजिक सुरक्षा वाले लाभों को बंद करने वाली धमकी का इस्तेमाल कर रहे हैं। जैसे, किसी एक गाँव में पंचायत अधिकारी ने कहा कि वह पूरे गाँव का टीकाकरण करवाएँगे और मना करने वालों को राशन और मनरेगा का काम देने से इंकार कर देंगे।
हालांकि, टीकाकरण शिविरों और जागरूकता अभियानों के दौरान टीके संबंधित झिझक को मिटाने के लिए इस तरह का तरीका खतरनाक है। वे लोगों के टीका लगवाने से इंकार करने पर भोजन, आजीविका और अन्य सरकारी योजनाओं के अधिकार छीनने की धमकी देकर जबरदस्ती स्वीकृति हासिल करते हैं। ऐसा करने से लोगों का व्यवस्था पर से विश्वास उठने लगता है और पहले से मौजूद फायदों तक उनके पहुँच की संभावना कम हो जाती है। उन्हें स्थानीय निजी झोलाछाप जैसे दूसरे विकल्पों की खोज की तरफ धकेला जाता है। अंत में, यह सामाजिक कल्याण की ज़िम्मेदारी को सरकार से हटाकर पहले से हाशिये पर मौजूद समुदायों पर डाल देता है।
क्षेत्र के स्थानीय स्वयंसेवी संस्थाओं ने इस तरह के आदेशों के खिलाफ आवाज़ बुलंद की। वे स्थानीय समुदायों के साथ मिलकर लोगों को उनके अधिकारों और मिलने वाले लाभों के बारे में जागरूक करने का काम कर रहे हैं। अधिकारीगण, पंचायतों के साथ मिलकर टीका लगवाने के महत्व के बारे में सूचनाएँ प्रसारित कर रहे हैं और समुदायों को प्रोत्साहित कर रहे हैं। वे गोगुंडा प्रखण्ड के सात पंचायतों में काम कर रहे हैं। ऐसी जगहों पर उन लोगों ने ऐसे सभी लोगों की सूची बनाई है जिन्हें उन्होंने टीका लगवाने के लिए राजी कर लिया। जमीन पर किए गए उनके काम के माध्यम से उन्हें यह एहसास हुआ कि प्रभावी संचार विश्वास के इर्द-गिर्द बनता है डर के इर्द-गिर्द नहीं।
शिफ़ा ज़ोया आजीविका ब्यूरो में एक फ़ील्ड फ़ेलो हैं और प्रवासी मजदूर के मुद्दों पर काम कर रही हैं।
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अधिक जानें: पढ़ें कि कैसे सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में विश्वास का पुनर्निर्माण ग्रामीण क्षेत्रों में टीके को लेकर उत्पन्न झिझक से निबटने में मदद कर सकता है।
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कौशल कुमार बिहार में सारण जिले के एक फेरीवाले हैं और गाँव-गाँव घूमकर बर्तन बेचते हैं। उन्होनें ग्राम वाणी के सामुदायिक मीडिया प्लैटफ़ार्म मोबाइल वाणी के अजय कुमार से बात की। अपनी इस बातचीत में उन्होनें बताया कि वह थक गए हैं और अपने काम को बदलना चाहते हैं यानी कोई दूसरा काम करना चाहते हैं। लेकिन दूसरे तरह के कामों में लगे हुए उनके दोस्तों का कहना है कि यह बेकार की बात है। उन सभी के अपने-अपने छोटे व्यापार हैं और कोविड़-19 महामारी की शुरुआत से ही इन सबकी बिक्री बुरी तरह से कम हो गई है।
कौशल का कहना है कि स्थिति गंभीर है। हर चीज की कीमत बहुत अधिक है और जनता के पास महंगी चीजें खरीदने के पैसे नहीं हैं। बिक्रेताओं की संख्या बढ़ने के कारण मांग से ज्यादा आपूर्ति की स्थिति पैदा हो गई है। इससे कौशल जैसे लोग मुश्किल में आ गए हैं। जहां पहले वह हर दिन 500 रुपए या उससे अधिक कमा लेते थे वहीं अब यह राशि घटकर 100–500 रुपए हो गई है।
मुद्रास्फीति और महामारी के कारण प्रतिस्पर्धा में हुई वृद्धि का कौशल जैसे रेहड़ी-पटरी वालों पर बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ा है।
ग्राम वाणी एक सामाजिक तकनीकी कंपनी है जो समुदायों को अपनी आवाज़ में कहानियाँ बनाने, आवाज बुलंद करने और साझा करने में सक्षम बनाती है। अजय कुमार 2016 से मोबाइल वाणी में एक स्वयंसेवी के रूप में काम कर रहे हैं।
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अधिक जानें: पढ़ें कि महामारी ने कैसे महिला उद्यमियों को प्रभावित किया।
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“हमें थोड़ा सा ही मुफ़्त राशन मिलता हैं—5 किलो चावल या 5 किलो आटा प्रति व्यक्ति। केवल इतना ही। हमें किसी अन्य प्रकार की मदद या दूसरे प्रावधानों के तहत लाभ नहीं मिलता हैं।” अपने परिवार को पिछले साल जून से मिल रही सहायता के बारे में झारखंड के हज़ारीबाग़ की एक प्रवासी कार्यकर्ता रौनक परवीन का ऐसा कहना है।
रौनक उन प्रवासी कामगारों में से हैं जो 2020 के लॉकडाउन के दौरान अपने गाँव लौटने के लिए मजबूर हो गए थे और बाद में कोविड-19 महामारी के चलते उनकी नौकरी को नुकसान पहुंचा था। रौनक के परिवार के सदस्यों के पास उनका राशन कार्ड था पर उन्होंने देखा कि बहुत सी महिलाओं के पास राशन कार्ड नहीं होने के कारण उन्हें राशन सहायता नहीं मिल पाती थी।
रौनक ने यह भी देखा कि कई महिलाएँ बेरोज़गार थीं। आजीविका के लिए किसी भी तरह का अवसर न होने के कारण वे अपने जीवन यापन और अपना घर चलाने के लिए संघर्ष कर रही थीं। रोज़गार का एकमात्र प्रमुख स्रोत मौसमी खेतिहर मज़दूर के रूप में काम करना था—एक ऐसा पेशा जहाँ फसल की पैदावार अच्छी न होने या प्राकृतिक आपदा का मतलब हो सकता है किसी भी तरह के काम न होना। ऐसी स्थिति बावजूद इसके है कि रौनक सहित कुछ महिलाएँ शिक्षित हैं और पढ़ाने का काम कर सकती हैं।
यह अनिश्चितता महामारी के दौरान और ज्यादा बढ़ गई जिसके कारण गाँव की महिलाएँ आय के सुरक्षित स्रोतों पर ज़ोर दे रही हैं। रौनक ने अपने गाँव की अन्य महिलाओं के साथ एक अनौपचारिक बचत समूह शुरू करने का फैसला किया। समूह के लगभग 150 सदस्य प्रत्येक रविवार को मिलते हैं, और हर सप्ताह अपने सामूहिक बचत बॉक्स में 100 रुपये जोड़ते हैं। इस समूह के सदस्य इस राशि को किसी भी समय उधार के रूप में ले सकते हैं। अधिकतम निकासी सीमा 5,200 रुपये की है और प्रत्येक सदस्य ज़्यादा से ज़्यादा हर वर्ष इतनी ही राशि की बचत कर पाएगा। पिछले कुछ महीनों से बचत की इस राशि को घटाकर 10 रुपये प्रति व्यक्ति कर दिया गया है। रोज़गार के अवसरों की कमी और कुछ मामलों में मानसून की शुरुआत के चलते काम के नुकसान के कारण महिलाएँ उस अनुपात में बचत नहीं कर पाई हैं।
रौनक एक औपचारिक स्व-सहायता समूह को स्थापित करने के लिए भी काम कर रही हैं जो सरकारी लाभ और योजनाओं का लाभ उठाने में सक्षम होगा। तब तक यह बचत समूह अपने सदस्यों को उनके परिवार के स्वास्थ्य और त्योहार के खर्च जैसी तात्कालिक जरूरतों को पूरा करने में उनकी मदद कर रहा है और साथ ही उन्हें सामूहिकता की शक्ति के बारे में भी सिखा रहा है।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
रौनक परवीन ने झारखंड के हज़ारीबाग से स्नातक की पढ़ाई की है।
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अधिक जानें: एक ऐसे स्वयंसेवक के काम के बारे में पढ़ें जो प्रवासी मज़दूरों को राहत मुहैया करवाने और व्यवस्थागत परिवर्तन की वकालत करती है।
यह फीचर पहली बार द थर्ड आई की भारत के सार्वजनिक स्वास्थ्य और इसके संभावित भविष्य में नारीवादी जांच के हिस्से के रूप में सामने आया था। इस बारे में और अधिक पढ़ने के लिए यहाँ जाएँ।
भारत में लगभग 80 प्रतिशत डॉक्टर शहरी आबादी की जरूरतों को पूरा करने में लगे हैं। ग्रामीण भारत में आज भी लोग मौलिक स्वास्थ्य सेवाओं तक आसानी से नहीं पहुँच पाते हैं। यह समस्या काफी लंबे समय से चली आ रही है। शहरी-ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा विभाजन के अलावा, ग्रामीण इलाकों में ही स्वास्थ्य सेवा की पहुँच में असमानता है। यह एक ऐसा विषय है जिस पर ज़्यादातर लोगों का ध्यान नहीं जाता है। बिहार के मुजफ्फरपुर और गया जिले में ज़मीनी समूहों की महिलाओं ने अपना अनुभव साझा किया। उन्होनें बताया कि ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं तक लोगों की पहुँच को तय करने में जाति की भूमिका महत्वपूर्ण है।
“हमारे गाँव में उप-स्वास्थ्य केंद्र वहाँ नहीं है जहां इसे होना चाहिए। यह उच्च जाति के राजपूतों के प्रभुत्व वाले इलाके में है। निम्न जाति के लोगों के लिए वहाँ पहुँचना मुश्किल है क्योंकि वे लोग छूआछूत में विश्वास करते हैं। जब अनुसूचित जाति का कोई व्यक्ति अपने बच्चे को लेकर टीका लगवाने वहाँ जाता है तब राजपूत समुदाय के लोग उन्हें नीची नजर से देखते हैं। ऐसी जगह पर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं होना चाहिए था, इसे उस जगह बनाया जाना चाहिए जहाँ सब पहुँच सकें,” मुजफ्फरपुर जिले की निराला ने कहा।
गया जिले की ललिता अपनी बात जोड़ते हुए कहती है कि, “हमारा गाँव सदर-अस्पताल से 5-6 कीलोमीटर दूर है। वहाँ के आसपास के लोगों को समय पर हर सुविधा मिलती है। सिर्फ हाशिये की जाति के लोग ही पीछे छूट गए हैं। कभी-कभी, डॉक्टर निम्न जाति के लोगों का इलाज करते हैं। उनमें से कई गरीबी रेखा से नीचे आने के कारण अनुदान में मिलने वाली दवाओं के हकदार भी होते हैं। लेकिन इन मामले में अक्सर ऐसा होता है कि डॉक्टर दवा लिख देते हैं और फिर कहते हैं कि दवाईयाँ अस्पताल में उपलब्ध नहीं है और बाहर से खरीदनी पड़ेगी। हालांकि अगर उसी दिन उच्च जाति का कोई मरीज इलाज के लिए आता है तो उसे बिना किसी परेशानी के बेहतर इलाज और वही दवाईयाँ मिल जाती हैं।”
द थर्ड आई एक नारीवादी थिंक टैंक है जो लिंग, सेक्शुआलिटी, हिंसा, तकनीक और शिक्षा के मुद्दों पर काम करता है।
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अधिक जानें: पढ़ें कि कैसे हम आदिवासी समुदायों को शामिल करते हुए भारत के स्वास्थ्य संबंधी लक्ष्यों को हासिल कर सकते हैं।
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मध्य प्रदेश के बंछाड़ा समुदाय की मेघा* का कहना है कि “हमारे लिए शिक्षा हासिल करना दूसरों की तुलना में दोगुना मुश्किल है।”
गैर-अधिसूचित जनजाति के बंछाड़ा समुदाय का जातिगत पेशा सेक्स वर्क है। समुदाय की ज़्यादातर लड़कियां जीवन में कभी-भी स्कूल का मुँह तक नहीं देख पाती हैं और उन्हें जवान होते ही सेक्स के धंधे में धकेल दिया जाता है।
मेघा आगे बताती है कि सेक्स के धंधे में काम करने वाली महिलाओं का कामकाजी जीवन बहुत छोटा होता है और 26 से 27 की उम्र के बाद उनके लिए काम खोजना मुश्किल हो जाता है। ऐसी औरतों को औपचारिक क्षेत्रों में काम नही मिल सकता है। सेक्स के धंधे और जातीय भेदभाव से जुड़े कलंक के कारण अनौपचारिक क्षेत्रों में भी काम मिलना असंभव ही है। मेघा का कहना है कि, “अगर उन्हें घरेलू कामकाज करने वाले मजदूर के रूप में काम मिल भी जाता है तो भी उन्हें यौनकर्मियों के समुदाय से आए लोगों के रूप में ही देखा जाता है। अक्सर उन्हें अपने मालिकों से गालियाँ सुननी पड़ती हैं।”
इस समुदाय की कई औरतें शिक्षा को इस समस्या का समाधान मानती हैं। उन्हें ऐसा लगता है कि इससे उन्हें ऐसी नौकरियाँ मिलने में आसानी होगी जिन्हें समाज का बड़ा तबका सम्मान की नज़र से देखता है। हालांकि, परिवार के सदस्यों और समुदाय के बाकी लोगों को इस बात के लिए तैयार करना एक मुश्किल काम है। क्योंकि सदियों से बंछाड़ा समुदाय के लिए उनकी जवान लड़कियां कमाई का मूल स्त्रोत रही हैं।
इसके अलावा भी कई तरह की समस्याएँ हैं। सरकार द्वारा जारी किए गए सर्क्युलर के बावजूद, कई विद्यालय अब भी प्रवेश के लिए पिता का नाम और उससे जुड़े दस्तावेजों की मांग अनिवार्य रूप से करते हैं। बंछाड़ा समुदाय के बच्चों को अक्सर अपने पिता का नाम मालूम नहीं होता है। मेघा कहती है कि, “यह हमारे लिए एक दुष्चक्र है। आपको सेक्स कार्य के अलावा कोई दूसरा काम नहीं मिल सकता है क्योंकि आपके पास शिक्षा नहीं है। और आपको शिक्षा नहीं मिल सकती है क्योंकि यह व्यवस्था इसी तरह काम करती है।”
*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नाम बदल दिया गया है।
मेघा एक स्वयंसेवी संस्थान के लिए काम करती है जो यौन हिंसा और बंधुआ मजदूरी के पीड़ितों के साथ काम करता है। देबोजीत आईडीआर में समपादकीय सहयोगी हैं। यह लेख मेघा के साथ किए गए संवाद को आधार बनाकर लिखा गया है।
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अधिक जानें: युवा लड़कियों के स्कूल न जाने के पीछे के कारण को जानने के लिए यह लेख पढ़ें।
वंतीममिडी आंध्र प्रदेश में विशाखापत्तनम के पास एक छोटा सा गाँव है। पूर्वी घाटों के किनारे बसा हुआ यह गाँव 792 मीटर की ऊंचाई पर है। जल-स्त्रोतों से घिरे होने के बावजूद भी वंतीममिडी के लोगों को पानी की कमी के गंभीर संकट का सामना करना पड़ता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह गाँव जल स्त्रोत के ऊपरी हिस्से में स्थित है जिसके कारण गाँव वाले पानी के स्त्रोत तक नहीं पहुँच पाते हैं। इसके नजदीक एक बारहमासी पानी का झरना भी है – जो कि गर्मी के महीनों में भी पानी का एक अच्छा स्त्रोत है – लेकिन इसका बहाव गाँव की विपरीत दिशा में है। इसके कारण, पूरे वंतीममिडी समुदाय के 71 घरों में रहने वाले 250 लोग प्रति दिन सिर्फ 195 लीटर पानी ही खर्च करते हैं। यह खर्च एक औसत भारतीय परिवार के पानी के खर्च से 85 लीटर कम है।
नेटिव पिक्चर आईडीआर पर #ज़मीनीकहानियाँ का कंटेन्ट पार्टनर है। आप मूल कहानी यहाँ देख सकते हैं और यहाँ नेटिव पिक्चर से और भी बहुत कुछ देख सकते हैं।
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अधिक जानें: यहाँ इस बारे में पढ़ें कि हमें समुदायों, पारिस्थितिकी और आजीविका के बीच एक एकीकृत दृष्टिकोण की आवश्यकता क्यों है।
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बिजनेस कोर्रेस्पोंडेंट या एजेंट देश भर के गांवों में घर-घर जाकर लोगों को मौलिक बैंकिंग सेवाएँ दे रहे हैं। जिन लोगों का बैंक खाता उनके आधार कार्ड से जुड़ा है वे एक बिजनेस कोर्रेस्पोंडेंट के पास जाकर एक चरण वाले बायोमेट्रिक सत्यापन के माध्यम से बहुत ही आसानी से अपने खाते के बैलेंस की जानकारी या नकद निकासी जैसे काम पूरा कर सकते हैं।
हालांकि, राजस्थान में माजवारी गाँव में तीन बिजनेस कोर्रेस्पोंडेंट हैं। बावजूद इसके वहाँ के लोग 3 कीलोमीटर पैदल चलकर गोगुंडा के नजदीकी बैंक शाखा जाना पसंद करते हैं।
एक बुजुर्ग चाचा का कहना है कि “बैंक ही ठीक है। मुझे इन एजेंट पर भरोसा नहीं है।” उनके संदेह का कारण क्या है? धोखाधड़ी का डर।
आप सोचकर देखिये कि एक दिन आपके एक सप्ताह के वेतन के बराबर पैसा आपके खाते से कट जाता है—आप नहीं जानते हैं कि यह पैसा कहाँ गया या किसने ऐसा किया। बिलकुल ऐसा ही कमला बाई* के बैंक खाते के साथ हुआ। कमला बाई ने दो दिन पहले अपना बैंक खाता विवरण गोगुंडा में एक बिजनेस कोर्रेस्पोंडेंट से अपडेट करवाया था और उसमें 7 जनवरी 2021 को 1900 रुपए का लेनदेन दिखाया गया। हालांकि, उनका दावा था कि उस तारीख को उन्होनें किसी भी तरह का लेनदेन नहीं किया था।
इसके लिए उन्होनें अपने बैंक से संपर्क किया। बैंक के अधिकारियों ने यह कह कर उन्हें लौटा दिया कि यह लेनदेन उनके बायोमेट्रिक्स विवरण के सत्यापन के बाद ही हुआ है। इस विषय में थोड़ी और खोजबीन के बाद यह बात सामने आई कि यह लेनदेन आधिकारिक रूप से बैंक के साथ पंजीकृत बिजनेस कोर्रेस्पोंडेंट द्वारा नहीं किया गया था, और इसलिए बैंक, उनके पासबुक में दर्ज विवरण के आधार पर उस एजेंट का पता नहीं लगा पाया। फिर कमला बाई को याद आया कि अपने भामाशाह कार्ड विवरण को अपडेट करने के लिए उन्होनें एक एजेंट को अपना बायोमेट्रिक दिया था। इसके बाद उस संदिग्ध एजेंट का पता लगाया गया और उससे कमला बाई के खाते से गायब हुए पैसे के बारे में पूछताछ की गई। कानूनी कार्रवाई की धमकी के बाद एजेंट ने धोखाधड़ी की बात मान ली और पैसे वापस करने के लिए तैयार हो गया।
दुर्भाग्यवश, देश भर में हजारों लोग ऐसे ही एजेन्ट पर निर्भर होने के कारण धोखा खाते हैं। कठिन निवारण प्रणाली के साथ अपर्याप्त जांच लोगों को एजेन्टों से चौकन्ना करती है। बिजनेस कोर्रेस्पोंडेंट कई तरह की सेवाएँ प्रदान करते हैं। इसलिए एकल चरण बायोमेट्रिक सत्यापन लोगों के लिए अन्य सत्यापनों और बैंकिंग लेनदेन के बीच अंतर के काम को मुश्किल बना देता है। इस प्रक्रिया में संरचनात्मक सुधारों के अलावा, देश के दूर-दराज इलाकों में डिजिटल और वित्तीय साक्षरता में सुधार की तत्काल आवश्यकता है।
*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नाम बदल दिया गया है।
सिंधुजा पेनुमार्ती राजस्थान में एक जमीनी स्तर के वित्त संगठन श्रम सारथी के साथ काम करती हैं और 2020 इंडिया फ़ेलो रही हैं।
इंडिया फ़ेलो आईडीआर पर #ज़मीनीकहानियाँ का सहयोगी है। मूल कहानी यहाँ पढ़ें।
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अधिक पढ़ें: महिलाओं को डिजिटल वित्तीय सेवाओं का उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित करने वाले लैंगिक दृष्टिकोण की आवश्यकता के बारे में पढ़ें।
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मार्च 2021 की एक सुबह जब ज़्यादातर भारत कोविड-19-अनिवार्य लॉकडाउन के तहत बंद था, तब असम के सिवसागर जिले के एक गाँव में 31 वर्षीय प्रतिमा* को एक रात अंडे खाने का मन हुआ। लेकिन दिक्कत यह थी कि उसके पास घर में नकद पैसे नहीं थे। गाँव का एटीएम मशीन शायद ही कभी काम करता था और निकटतम बैंक कुछेक गाँव की दूरी पर था। लेकिन प्रतिमा के घर पर बत्तख थे। उस इलाके के अन्य परिवारों की तरह ही उसका परिवार भी बत्तख किसान है।
इस समस्या को सुलझाने के लिए वह स्थानीय समुदाय के एक सदस्य के पास गई। उसने चीजों की अदला-बदली के लिए दृष्टि नाम के एक स्वयंसेवी संस्था के बनाए गए आवेदन फॉर्म पर खुद को एक बत्तख विक्रेता के रूप में पंजीकृत करवा लिया।
प्रतिमा ने जिस महिला समुदाय सदस्य से संपर्क किया था उसे आवेदन पत्र को भरने का प्रशिक्षण दृष्टि से मिला था। उसने प्रतिमा की मदद दूसरे गाँव के एक ऐसे निवासी से जुड़ने में की जिसने अपना पंजीकरण मुर्गे के अंडे के विक्रेता के रूप में कराया था। कुछ ही घंटों में प्रतिमा एक दर्जन अंडे के बदले अपने बत्तख को बेच सकती थी।
कोविड-19 की शुरुआत और आमदनी में तेजी से आ रही गिरावट के साथ चीजों की अदला-बदली वाली व्यवस्था देश के कई नकदी-गरीब क्षेत्रों में फिर से प्रचलन में आ गया है। हालांकि यह नकद का विकल्प नहीं है लेकिन चीजों की अदला-बदली वाली व्यवस्था समुदायों को संभले रहने में मददगार साबित हो रही है। यह व्यवस्था विशेष रूप से उस वक़्त फायदेमंद साबित हुई जब किसान और कारीगर पैसे या बाज़ार तक पहुँच के बिना अपने उत्पादों के साथ घरों में फंसे हुए थे।
असम में चीजों की अदला-बदली की यह व्यवस्था कोई नई बात नहीं है। राज्य के दूर-दराज इलाकों में लोग सदियों से चीजों की अदला-बदली कर रहे हैं। दरअसल, चीजों की अदला-बदली वाली व्यवस्था वाला मेला जोनबील मेला 15वीं शताब्दी से राज्य में होने वाला एक वार्षिक आयोजन रहा है। हालांकि डिजिटल प्रणाली की शुरुआत ने इस प्रथा को विस्तार दिया है। खास कर औरतों को इससे बहुत अधिक फायदा हुआ है। क्योंकि इसने चीजों को बेचने के लिए बाज़ार तक जाने की उनकी जरूरत को ख़त्म कर दिया है और अब उन्हें नकद रखने की भी जरूरत नहीं पड़ती है।
वे चीजों की अदला-बदली की अवधारणा को लेकर नई सोच भी विकसित कर रहे हैं। जैसे कि, जब रेखा* को अपनी बेटी के लिए फ्रॉक चाहिए थी तब उसने एप्लीकेशन के माध्यम से विनिमय के लिए टेडी बीयर बुना था। जमीला* कई महीनों से अपने बाल कटवाने के बाद उन्हें संभाल कर रख रही है। उसकी योजना इनके बदले एक पुराना इस्तेमाल किया गया फोन लेने की है।
*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नाम बदल दिया गया है।
देबोजीत आईडीआर में संपादकीय सहयोगी हैं। स्मरिणीता आईडीआर की सह-संस्थापक और सीईओ हैं। इस कहानी को दृष्टि से बातचीत के आधार पर लिखा गया है।
लोचदार आजीविका निर्माण पर सबक और दृष्टि को उजागर करने वाली 14-भाग वाली शृंखला में यह चौथा लेख है। लाईवलीहूड्स फॉर ऑल, आईकेईए फ़ाउंडेशन के साथ साझेदारी में दक्षिण एशिया में अशोक के लिए रणनीतिक केंद्र बिन्दु वाले क्षेत्रों में से एक है।
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