धीराराम कपाया वन उत्थान संस्थान चलाते हैं। यह समितियों का एक ऐसा संघ है जो जमीन से जुड़े संसाधनों की सुरक्षा करता है। कपाया राजस्थान के उदयपुर जिले के भील जनजाति से आए हैं। उदयपुर जिले में जंगलों और चारागाहों की सुरक्षा के लिए कई दशक लंबे आंदोलन चले और अब इस इलाके के लोग इसे सामुदायिक संसाधन के रूप में देखते हैं। धीराराम एक कार्यकर्ता और कलाकार दोनों हैं। यह सामाजिक मुद्दों पर जागरूकता फैलाने के लिए लोकगीत लिखते हैं और उन गीतों को गाते हैं। इनकी गीतों का विषय विविध है और इसमें कुपोषण से लेकर पर्यावरण जैसे विषय शामिल हैं।
इस गीत को सुनिए जो इन्होनें पानी और दूसरे प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के बारे में और अपने समुदाय के लोगों को जागरूक करने के लिए बनाया है।
धीराराम कपाया एक कार्यकर्ता और कलाकार हैं और सेवा मंदिर द्वारा स्थापित वन उत्थान संस्थान चलाते हैं।
स्नेहा फिलिप आईडीआर में कंटेंट डेवलपमेंट और क्यूरेशन का काम देखती हैं।
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2011 में मैं एक स्किल डेवलपमेंट कार्यक्रम पर राजस्थान स्किल एंड लाइवलीहुड डेवलपमेंट कार्पोरेशन (आरएसएलडीसी) के साथ काम कर रहा था। यह राजस्थान के 21 जिलों में फैली हुई एक विशाल परियोजना थी जिसके तहत युवाओं को हॉस्पिटैलिटी का प्रशिक्षण दिया जा रहा था। इन इलाकों में एक इलाका जोधपुर जिले में था जहां हम लोग उच्च-जाति के लोगों के साथ काम कर रहे थे। हमनें वहाँ प्रशिक्षण केंद्र तैयार किए लेकिन उसके पहले हमलोगों ने क्षेत्र के समुदायों के साथ सर्वेक्षण के काम में समय नहीं दिया। इसके कारण वहाँ जो कुछ भी हुआ हम उसके लिए तैयार नहीं थे।
हमारा केंद्र तैयार होने के बाद भारी संख्या में लड़के और लड़कियां आने लगे। लेकिन कुछ ही समय में वे समझ गए कि हॉस्पिटैलिटी में काम करने का एक मतलब कमरों और सार्वजनिक जगहों की सफाई करना भी है। जहां एक तरफ वे होटलों में काम करने की संभावना को लेकर उत्साहित थे वहीं वे इस बात से अनजान थे कि इसमें कई तरह के काम शामिल होते हैं—और सभी काम अनिवार्य होते हैं। नब्बे प्रतिशत प्रशिक्षु बीच में ही कार्यक्रम छोड़कर चले गए। इसका कारण सिर्फ इतना था कि उनकी जाति उन्हें साफ-सफाई वाले काम करने की अनुमति नहीं देती है।
ये समुदायों के भीतर की क्रूर सच्चाई है। स्किल डेवलपमेंट कार्यक्रमों को करवाने वाली स्वयंसेवी संस्थाएं इन नियमों के बारे में जानती हैं। लेकिन उन्हें लोगों को रोकने के लिए समुदायों के भीतर जाकर उनके रवैये को बदलने के लिए भी काम करना होगा। इस मामले में वे समुदायों के साथ बैठकर श्रम की गरिमा के बारे में बात कर सकते है।
अजित सिंह अनंत लर्निंग एंड डेवलपमेंट प्राइवेट लिमिटेड के संस्थापक है।
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आज की तारीख में मनसुख पीताम्बर गुजरात में बेला गाँव में बेला छपाई का काम करने वाले इकलौते इंसान हैं। पुराने जमाने में उनका गाँव हैंड-ब्लॉक छपाई के लिए मशहूर था। मनसुख भाई दुखी होकर कहते हैं कि “आज सिर्फ मैं ही बच गया हूँ।”
55 साल की उम्र में भी मनसुख भाई धुलाई, छपाई और रंगाई का काम खुद ही करते हैं। उनका कहना है कि उनकी कला में कल्पना, एकाग्रता और सटीकता की जरूरत होती है। इस तरफ एक मिलीमीटर के भी इधर-उधर होने से दूसरी तरफ काम फैल जाता है इसलिए कपड़े की अंतिम सुंदरता मनसुख भाई के हाथों की सटीकता में है।
बेला हैंड-ब्लॉक प्रिंट अपनी विविधता और दक्षता के लिए मशहूर है। कपड़े पर छपाई कला की सबसे पुरानी, सरल और सबसे धीमी रूपों में से एक है। बेला के लोगों के लिए यह केवल एक उपयोगिता का सामान भर नहीं था बल्कि वे कला के इस रूप का उपयोग यादों को सँजोने में, अपने जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं के संकेत के रूप में और यह बताने के लिए प्रयोग करते थे कि वे कौन थे।
हालांकि समय के साथ स्थानीय समुदायों में इस कलात्मक कृति की मांग में कमी दर्ज की गई है। गाँव के लोग अब इसके बदले मशीन से बनने वाली सस्ती चीजों को खरीदने लगे। बेला प्रिंटिंग के काम में बहुत अधिक समय और मेहनत लगने के कारण इस कला को विस्तार का मौका नहीं मिला।
आज की तारीख में बेला प्रिंटिंग की यह कला विलुप्त होने की कगार पर है क्योंकि इस काम को आगे ले जाने वाले युवाओं की संख्या न के बराबर है। लेकिन क्या हम वास्तव में उन्हें इसका दोषी मान सकते हैं? ज़्यादातर युवाओं को इस तरह के पारंपरिक पेशे न केवल अव्यवहारिक लगते हैं बल्कि आर्थिक रूप से भी उन्हें ऐसे सभी काम मुश्किल लगते हैं। दरअसल बेला छपाई के पेशे का भविष्य न होने के कारण कई कलाकार आजीविका के दूसरे स्त्रोतों की तरफ रुख करने के लिए मजबूर हो गए हैं। इन कलाकारों में मनसुख भाई के बड़े भाई और भतीजे भी शामिल हैं।
हालांकि मनसुख भाई अभी तक अडिग हैं। वे कहते हैं कि, “मुझे यह सोचकर दुख होता है कि युवा पीढ़ी इस शिल्प के लंबे इतिहास और इसकी तकनीक से अनजान है। इस पीढ़ी के पूर्वज बेला से आए थे। ये कौशल तभी बच सकती है जब हर पीढ़ी में इसे जानने वाले लोग होंगे। ये हमें हमारी जड़ों तक पहुँचने का रास्ता बताते हैं और ये हमारी साझा विरासत का हिस्सा हैं।”
अन्नाबेल डी’कोस्टा एक भूतपूर्व इंडिया फ़ेलो हैं और उन्होंने गुजरात के कच्छ में खमीर के साथ काम किया है।
इंडिया फ़ेलो आईडीआर में #जमीनीकहानियाँ के कंटेन्ट पार्टनर हैं। मूल लेख को यहाँ पढ़ें।
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1970 के दशक में ओडिशा के नयागढ़ जिले में सुलिया जंगल 30 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैला हुआ था। जंगल के आसपास के छत्तीस गाँव अपनी आजीविका और दूसरी जरूरतों के लिए इसपर निर्भर थे। हालांकि 1980 के दशक की शुरुआत में इन संसाधनों के अनियोजित उपयोग के कारण जंगल का बहुत बड़े स्तर पर क्षरण हुआ। इस क्षेत्र के पाँच छोटे गाँवों—रघुनाथपुर, कुशपांडेरी, बारापल्ला, पांडुसारा और कल्याणपुर—ने एक साथ मिलकर 1980 के दशक के मध्य में इसे बचाने की बहुत अधिक कोशिश की। इन तरीकों में एक तरीका थेंगापाली भी है जिसका साधारण अनुवाद है ‘छड़ी की बारी’ (थेंगा का मतलब छड़ी और पाली मतलब बारी)। इसमें ग्रामीण लोग चौबीसों घंटे बारी-बारी से जंगल की रखवाली करते हैं।
दशकों की कड़ी मेहनत के बाद यहाँ की हरियाली वापस लौट आई। धीरे-धीरे जंगल दोबारा उगने लगा, जंगली जीवन वापस लौट आया और झरनों में पनि वापस लौट आया। लेकिन यह सब बहुत कम समय तक ही रहा। बाकी के 31 गांव जंगल की सुरक्षा के बारे में बिना सोचे समझे इसका दोहन करने लगे। उन्होनें दोबारा गैर-कानूनी तरीके से लकड़ियों को काटना और जंगली जानवरों का शिकार शुरू कर दिया। अपनी आर्थिक शक्ति और उच्च जाति के होने और उच्च जाति के लोगों के साथ संपर्क होने के कारण इन 31 गांवों के पास उन पाँच छोटे गांवों की तुलना में अधिक ताकत थी। इसलिए जंगल की सुरक्षा को बनाए रखने के लिए इन पाँच गांवों ने बृक्ष्य ओ जीवर बंधु परिषद, केशरपुर और जंगल सुरख्या महासंघ, नयागढ़ से मदद की गुहार लगाई। ये दोनों ही समुदाय-आधारित संगठन हैं और आसपास के लोगों में जंगल की सुरक्षा के बारे में जागरूकता फैलाने का काम करते हैं। साथ ही ये आसपास के समुदायों को जंगल की सुरक्षा की जिम्मेदारी उठाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।
1995 में इन दोनों संगठनों ने इस मामले को सुलझाने के लिए 36 गांवों के लोगों के साथ मिलकर कई बैठकें की और हस्तक्षेप किया। एकमत के साथ यह फैसला लिया गया कि सभी गांवों के प्रतिनिधि जंगल की सुरक्षा के लिए एक साथ मिलकर काम करेंगे। ज़िम्मेदारी का एहसास पैदा करने के लिए समिति ने एक ग्राम सभा का आयोजन किया। इस सभा में यह फैसला लिया गया कि 36 गांवों के सभी निवासियों को जंगल का हितधारक बनाया जाएगा। एक साथ मिलकर इन लोगों ने जंगल के संसाधनों के संचालन के लिए कुछ नियम और कानून बनाए। उदाहरण के लिए, समिति की पूर्व अनुमति के बिना जंगल में कोई भी प्रवेश नहीं कर सकता है, जंगल से मिलने वाले सभी संसाधनों को सभी गाँववासियों में बराबर बांटा जाएगा और जंगल-संबंधी किसी भी तरह की समस्या का निवारण यह समिति करेगी।
जब हम लोग अपने सार्वजनिक संसाधन की सुरक्षा के बारे में बात करते हैं तब इस प्रक्रिया में सभी हितधारकों को बिना शामिल किए ऐसा करना असंभव है। दो से अधिक दशकों के बाद समुदायों के बीच समझ और आपसी विश्वास ने ही सुलिया जंगल को फिर से जीवित करने में मदद की है। कुशपांडेरी के एक ग्रामीण का कहना है कि “आप निगरानी वाले कैमरे लगा कर जंगल को नहीं बचा सकते हैं। इसे तभी बचाया जा सकता है जब इसके हितधारकों की आँखें खुली हों।”
नित्यानन्द प्रधान और सास्वतिक त्रिपाठी फ़ाउंडेशन फॉर इकोलॉजिकल सिक्योरिटी में जिला समन्वयक के रूप में काम करते हैं।
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असम के नौगाँव जिले में अनुसूचित जाति के काईबरता समुदाय की मछुआरिनें हर दिन शाम में आसपास के जल स्त्रोतों के पास समूहों में इकट्ठा होती हैं और रात के खाने के लिए मछली पकड़ती हैं। वे इस समय का उपयोग आपस में मेलजोल बढ़ाने, अपनी समस्याओं के बारे में बात करने और गप करने में करती हैं। दिन भर में यही वह समय होता था जो इनका अपना होता था—यह उनके ‘आराम’ का समय था। और इसके बाद वे रात के खाने का इंतजाम करके अपने घर वापस लौट जाति थीं।
सामुदायिक रूप से मछ्ली पकड़ना लंबे समय से इन लोगों की संस्कृति का हिस्सा रहा है। बचपन से ही इन औरतों ने अपनी माँओं को घर का काम खत्म करने के बाद दूसरी औरतों के साथ मछली पकड़ने के लिए जाते देखा है। मछुआरिनों की काई पीढ़ियों के लिए मछली पकड़ने का काम न सिर्फ मुक्ति देने वाला था बल्कि सशक्त बनाने वाला भी था। ऐसा इसलिए था क्योंकि उच्च वर्ग की इनकी समकक्षों को घर से बाहर तक निकलने की आज़ादी नहीं थी और वहीं काईबरता समुदाय की औरतें बाहर जा सकती थीं और परिवार की आय में अपना योगदान दे सकती थीं।
समय के साथ इलाके की बिगड़ती परिस्थितिकी के कारण आसपास के जल स्त्रोत या तो ख़त्म हो गए या प्रदूषित हो गए। नतीजतन, इन मछुआरिनों का सामाजिक जीवन धीरे-धीरे गायब हो गया। अब उनके पास सामुदायिक रूप से मछली पकड़ने और दूसरी औरतों के साथ आराम के कुछ पल बिताने के लिए कोई जगह नहीं बची है। अब वे एक दूसरे से सिर्फ स्वयं-सहायता समूह (एसएचजी) की बैठकों में ही मिल सकती हैं। स्थानीय जलवायु में आए परिवर्तनों ने उनके जीवन के महत्वपूर्ण हिस्से और सदियों की उनकी परंपरा को मौलिक रूप से बदल दिया है।
जब मैं 2015 में उस समुदाय में गई थी तब मैंने देखा था कि कई एसएचजी इनकी परंपरा के पुनर्जन्म के उद्देश्य से आसपास के कुछ जल स्त्रोतों के कायाकल्प का काम कर रहे थे। वे पैसे इकट्ठा कर रहे थे और सफाई अभियानों का आयोजन कर रहे थे। लेकिन यह केवल एक शुरुआत भर है और उन्हें उम्मीद है कि जल्द ही सरकार उनकी मदद करेगी।
सरमिस्ठा दास 2010 से तेजपुर विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में अध्यापन का काम कर रही हैं।
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उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र के राकेश राव की उम्र पचास वर्ष है। वह गंगोत्री शहर में आने वाले तीर्थ यात्रियों और गंगा के स्त्रोत देखने आने वाले पर्यटकों के लिए गाइड का काम करते हैं। इसी जगह पर अक्टूबर 2020 में मेरी और मेरे एक सहकर्मी की मुलाक़ात इनसे हुई थी।
राकेश ने हमें इस इलाके में होने वाले स्थानीय विकास की कुछ मजेदार कहानियाँ सुनाईं। उन्होने बताया कि 1991 के पहले, उनके गाँव के कुछ ही लोगों के पास पैसे थे। उनके परिवार के लोग एक दिन में सिर्फ दो जग पानी का ही इस्तेमाल करते थे क्योंकि उन्हें पानी लाने के लिए नीचे बहुत दूर चलकर नदी तक जाना पड़ता था। ज़्यादातर घरों की छतें फूस से बनी थीं और वे अक्सर ही जल जाया करती थीं।
1991 में, गढ़वाल के गांवों को बदलने वाली दो परिवर्तनकारी शक्तियाँ आईं: भारतीय अर्थव्यवस्था का उदारीकरण, और एक विनाशकारी भूकंप। इस भूकंप में पूरे उत्तराखंड में लगभग 700 लोग मारे गए और 40,000 से अधिक घरों को नुकसान पहुंचा। राकेश के गाँव के ज़्यादातर घर बर्बाद हो चुके थे, लेकिन उन्हें पुनर्निर्माण के लिए सरकार से 15,000 रुपए मिले थे।
नकद पैसे और उदारीकरण के बाद तेजी से हो रहे आर्थिक विकास ने गाँव के लोगों का जीवन भी तेजी से बदल दिया। राकेश के अनुसार, 2020 में लोग अपनी गायों को 1991 की तुलना में बेहतर घरों में रखते हैं। गाँव में अब पानी की व्यवस्था है जिससे लोगों का वह समय बच जाता है जो पहले पानी लाने के काम में लगता था। साथ ही अब घरों में पानी का इस्तेमाल पहले से अधिक मात्रा में होने लगा है। घर के छतों की सामग्री बेहतर होने से अब आग भी कम लगती है। बेहतर सड़क और परिवहन होने के कारण अब लोगों को बाहर से आने वाली सामग्रियाँ आसानी से मिल जाती हैं।
राकेश ने खुद का जीवन भी बदलते देखा है। उसकी एक बेटी और दो बेटे हैं और औपचारिक रूप से तीनों के पास नौकरी है। उसका परिवार अब भी खेती करता है लेकिन जीविका के लिए अब इस पर निर्भर नहीं है।
माइकल हेनरी कनाडा के नागरिक हैं और इन्होनें 2019–20 में आईडीइनसाइट के साथ काम किया था।
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रबारी राजस्थान और गुजरात के कुछ हिस्सों में निवास करने वाली पशुपालकों की एक खानाबदोश जनजाति है। इन्हें रेवारी, रैका, देवसी या देसाई के नाम से भी जाना जाता है। इस समुदाय का काम बकरियों, भेड़, गाय, भैंस और ऊँट जैसे विभिन्न पशुओं को पालना है।
कई अन्य समुदायों की तरह रबारी समुदाय भी तलाक़ को वर्जित मानते हैं। पंचायत सदस्य और समुदाय के अन्य बुजुर्ग तलाक से संबंधित फैसलों में शामिल होते हैं। इस समुदाय में तलाक़ को रोकने के लिए कई तरह की परम्पराएँ हैं। इनमें से एक में यह उन परिवारों पर शुल्क लगाता है जिसमें तलाक़ की घटना होती है। चाहे वह पत्नी का परिवार हो या पति का, तलाक का फैसला करने वाला पहला पक्ष दूसरे पक्ष को मुआवजा शुल्क का भुगतान करता है। तलाक़ लेने वाले पक्ष को समुदाय के सभी पुरुष सदस्यों के लिए भोजन की व्यवस्था भी करनी होती है। कानूनी अलगाव के एवज में अक्सर दो परिवारों के बीच पशुधन, विशेष रूप से ऊंटों का आदान-प्रदान भी होता है।
विवाह की समाप्ति के प्रतीक के रूप में, पति अपनी पगड़ी से कपड़े का एक छोटा टुकड़ा काटकर पत्नी के परिवार को देता है।
इरम शकील लेंड-ए-हैंड इंडिया नाम के एक स्वयंसेवी संस्था के साथ कार्यरत हैं। यह संस्था व्यावसायिक शिक्षा को मुख्यधारा की शिक्षा के साथ एकीकृत करने की दिशा में काम करती है।
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दक्षिणी राजस्थान में उदयपुर जिले के आसपास की कभी बंजर पड़ी जमीन अब सुरक्षित और विकसित है। पिछले 25 वर्षों में इन आम ज़मीनों को उनके आसपास के गांवों द्वारा बहुत ही सावधानी से चारागाहों में बदल दिया गया है।
इसे बनाए रखने के लिए हर घर अपना योगदान देता है और होने वाले फायदे को भी आपस में सब बराबर बांटते हैं। अपनी जमीन पर दूसरों के अतिक्रमण (दूसरे गांवों या आवारा चरने वाले पशुओं और बकरियों) से बचाव को सुनिश्चित करने के लिए झडोल प्रखण्ड में सुल्तान जी का खेरवारा के गाँव के निवासियों ने एक अनोखी रणनीति को विकसित किया है। इस गाँव में कुल 450 घर हैं। अपनी ज़मीन की रक्षा के लिए ग्रामीणों ने चौकीदारी का फ़ैसला किया। जिसके लिए उन्होंने हर दिन एक अलग घर के एक सदस्य को निगरानी के काम पर भेजना शुरू कर दिया।
उन्होनें एक मजेदार तरीका भी विकसित किया है ताकि इस बात का पता लगाया जा सके कि चारागाहों पर निगरानी की बारी कौन से घर की है। निगरानी करने वाले आदमी को एक छड़ी दी जाती है जिसे वह हमेशा अपने पास रखता है। जब उनकी बारी खत्म हो जाती है तब वह उस छड़ी को अपने पड़ोसी के घर के बाहर रख देता है जो इस बात का संकेत होता है कि अगली बारी उनकी है। इस तरह से, यह छड़ी एक घर से दूसरे घर तक जाती है और ग्रामीणों को यह बताती है कि इस बार गाँव के चीजों की सुरक्षा की बारी उनकी है।
आएशा मरफातिया पहले इंडिया डेवलपमेंट रिव्यू में संपादकीय सहयोगी थीं।
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पारंपरिक मिट्टी के ढांचे के बजाय (बाएं) ओडिशा के हाडागरी गांव में बनाए जा रहे नए घर ईंट और कंक्रीट (दाएं) से बने हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि ये घर प्रधान मंत्री ग्रामीण आवास योजना (पीएमएवाई-जी) के अंतर्गत बने हैं जिसमें कुछ निश्चित सामग्रियों का इस्तेमाल अनिवार्य है।
गर्मियों में तापमान आमतौर पर 40 डिग्री सेल्सियस के पारे को पार कर जाता है। और पारंपरिक मिट्टी के घरों का निर्माण इस तरह से किया जाता है जिसमें गर्मी बाहर ही रह जाती है और अंदर का हिस्सा ठंडा रहता है। गांव के कुछ लोगों को इस बात की चिंता है कि कंक्रीट से बने उनके नए घर आने वाली गर्मियों में बहुत अधिक गर्म हो जाएंगे और रहने लायक नहीं रहेंगे। हालांकि, अगर वे पीएमएवाई-जी के तहत मिलने वाले वित्तीय सहायता को प्राप्त करना चाहते हैं तो उन्हें इन ‘आधुनिक’ घरों को ही बनाना होगा।
तनाया जगतियानी इंडिया डेवलपमेंट रिव्यू (आईडीआर) में संपादकीय विश्लेषक हैं।
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अधिक जानें: शहरी क्षेत्रों के आसपास रहने वाले जनजातीय समुदायों द्वारा अपनी जमीन की कीमत और क्षमता को समझने से संबंधित मुद्दों के बारे में पढ़ें।
मुंबई के बाहरी इलाके में दहानु खाड़ी से लगे धकती दहानु नाम का एक छोटा सा गाँव है। आदिवासी बहुल इस गाँव के लोगों की आमदनी का मुख्य स्त्रोत मछली पकड़ना है। हर सप्ताह वे अपनी मछलियों को दहानु के शहरी इलाकों में बेचते हैं। मुंबई तक बेहतर रेल-संपर्क होने के कारण इस इलाके की आबादी तेजी से बढ़ रही है। लगभग एक दशक पहले तक इस इलाके के लोगों को खाड़ी में उपलब्ध मछलियों की प्रचूर मात्रा पर गर्व था। समुदाय की एक बुजुर्ग महिला अनघा* का कहना है कि, “उन दिनों में हम लोग एक ही समय में ढेर सारी मछलियाँ पकड़ लेते थे…अब हम बहुत ही कम मात्रा में मछली पकड़ पाते हैं।”
तेजी से हो रहे शहरीकरण के कारण समुद्रस्तर में कमी आई है जिसके कारण खाड़ी में मछलियों की संख्या कम हो गई है। गाँव की महिलाएं शिकायत करते हुए बताती हैं कि गैर-स्थानीय मछुआरे अपनी बड़ी-बड़ी जालें और विकसित औज़ार लेकर आते हैं और एक ही बार में ढेरों मछलियाँ पकड़ लेते हैं। उनके ऐसा करने से खाड़ी की प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र बिगड़ रही है। इसके अलावा उद्योगों से निकले अपशिष्ट (जैसे नजदीकी थर्मल पावर प्लांट से निकलने वाला फ़्लाई ऐश) खाड़ी में ही बहा दिये जाते हैं। इससे समुद्र का पानी प्रदूषित हो जाता है और समुद्री जीवन और पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचता है। इसके अलावा सरकार ने क्षेत्र में विकास को तेज करने के लिए वाधवन परियोजना का प्रस्ताव दिया है। इस परियोजना का उद्देश्य विकास के लिए क्षेत्र में बन्दरगाह का निर्माण करना है।
यह पूछे जाने पर कि वह कभी-कभार ही मछली पकड़ने क्यों जाती है और आमदनी के लिए अन्य छोटे कामों पर क्यों निर्भर रहती है, गौरी* ने कहा, “और कहाँ से पैसे आएंगे? हम बड़ी मुश्किल से थोड़ी सी मछलियाँ पकड़ पाते हैं।”
गौरी अकेली नहीं है। गाँव की ही एक दूसरे मछुआरिन ने बताया कि आमदनी के लिए वह और उसके पति अब पुताई का काम, गाड़ी चलाना और ऐसे ही दूसरे काम ढूँढने लगे हैं। मछली पकड़ने से होने वाली आमदनी में आई कमी के कारण माता-पिता अब अपने बच्चों को मछली पकड़ने के पेशे के बजाय निजी या सरकारी नौकरियों में भेजना चाहते हैं। हालांकि मछली पकड़ने से होने वाली कम आमदनी का बुरा प्रभाव उनके बच्चों के लिए उपलब्ध शिक्षा के अवसरों पर भी पड़ रहा है। कॉलेज जाने के इच्छुक होने के बावजूद भी युवा पीढ़ी एक ऐसे चक्र में फंसी है जिससे निकलने में वह असमर्थ हैं। नतीजतन भविष्य में आजीविका के अवसर सीमित हो जाते हैं।
* गोपनीयता बनाए रखने के लिए नाम बदल दिये गए हैं।
अस्मा साएद वर्तमान में ट्रान्स्फ़ोर्मिंग इंडिया इनिशिएटिव, एक्सेस लाइवलीहुड्स से पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा इन सोशल एंटरप्रेन्योरशिप की पढ़ाई कर रही हैं।
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