लिंग और हिंसा की धारणाओं में परिवर्तन से पुरुषों की मानसिकता को बदलना

2000 में, कोरो की हमारी टीम ने मुंबई के निम्न आय वर्ग वाले समुदायों के युवा पुरुषों के बीच मर्दानगी के भाव की संरचना के विकास को समझने के उद्देश्य से एक कार्य-आधारित शोध परियोजना तैयार की। हमने इसे समझने के लिए एक मौलिक सर्वेक्षण किया और चार साल के इस एंडलाइन सर्वेक्षण में हमें कुछ दिलचस्प निष्कर्ष देखने को मिले।

उन निष्कर्षों पर बात करने से पहले यह समझना महत्वपूर्ण है कि समुदाय के सदस्यों ने यारी दोस्ती कार्यक्रम में महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा पर कैसे विचार दिए। हमारी टीम ने कुल 850 युवा पुरुषों (16 से 34 वर्ष की आयु वर्ग वाले) के साथ मिलकर काम किया था। इनमें से ज़्यादातर पुरुषों का यह मानना था कि औरतों के साथ की जाने वाली हिंसा अपनी मर्दानगी दिखाने का एक तरीक़ा है। इसका मतलब यह है कि अपने साथी के साथ मार-पीट करने से उस पर अपना नियंत्रण बना रहता है, सड़कों पर महिलाओं के साथ छेड़खानी करना ‘मर्दाना’ होने की निशानी होती है और सहमति का असम्मान करना यौन रूप से ‘हावी’ होने का एक तरीका होता है।

ये वे पुरुष थे जिन्हें कभी भी उनके शरीर से जुड़ी शिक्षा नहीं दी गई थी। वे कभी भी ऐसी जगहों पर नहीं थे जहां मर्दानगी के उनके विचार पर किसी तरह का सवाल किया गया हो या फिर जहां वे अपनी असुरक्षाओं के बारे में खुल कर बात कर सकें। उदाहरण के लिए हमारे बेसलाइन सर्वे में भाग लेने वाले अधिकतर प्रतिभागियों का कहना था कि “यहां कोई हिंसा नहीं है/मैं हिंसक नहीं हूं”। उनकी इस मानसिकता को बदलने के लिए हमें उन पुरुषों का भरोसा जीतना पड़ा ताकि वे खुलकर अपने विचार और अपनी सोच हमें बता सकें। इन जगहों पर वे बातचीत कर सकते थे, अपने व्यवहार पर सवाल कर सकते थे और उस व्यवस्था को समझ सकते थे जिनसे उन्हें इन कामों के लिए साहस मिलता था। इन पुरुषों को मर्दानगी, संवेदनशीलता और देखभाल की वैकल्पिक समझ के बारे में बताया गया। बात जब लिंग-आधारित असमानता और हिंसा की आती है तब उनके व्यवहार परिवर्तन की प्रकृति कुछ इस प्रकार थी:

  1. अस्वीकृति: “यहां किसी प्रकार की हिंसा नहीं है।”
  2. कारण/औचित्य: “हो सकता है कि मैं हिंसक हो गया था, लेकिन इसमें मेरी गलती नहीं थी”
  3. हिंसा के साक्ष्य/घटनाओं पर विचार जो उन्होंने देखे हैं या जिनका हिस्सा रहे हैं
  4. आंशिक स्वीकृति: “शिक्षा में असमानता हो सकती है लेकिन यौन अभिव्यक्ति में नहीं”
  5. इस बात से इनकार करना कि लिंग-आधारित असमानता जीवन के सभी पहलुओं में मौजूद है
  6. पिछले बातों का दोहराव
  7. लिंग के प्रति उनके दृष्टिकोण का पुनर्निर्माण

इस कार्यक्रम में शामिल युवकों ने अपने समुदाय के अन्य लोगों से बातचीत करनी शुरू कर दी (जिनमें स्थानीय नेता और परिवार के सदस्य जैसे लोग भी शामिल थे) और उसी रास्ते पर उनका नेतृत्व करने लगे। ऐसा करने से हिंसा की परिभाषा को लेकर उनकी समझ व्यापक हुई और साथ ही वे हिंसा से जुड़ी किसी घटना पर प्रतिक्रिया करने के लिए संसाधनों के उपयोग के बारे में जानने लगे। अगर हम उनके समुदायों के भीतर ही इन लड़कों के लिए एक समर्थन प्रणाली के लिए अभियान नहीं चलाते तो हमें ऐसे परिणाम नहीं मिलते। लिंग के मानदंडों पर सवाल उठाने से मिलने वाली प्रतिक्रिया के कारण समुदाय के सदस्यों के साथ काम करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। हमारे अभियान ‘सोच सही मर्द वही’ का लक्ष्य यही था।

इस पूरी प्रक्रिया में हमने कुछ नया सीखा। विश्वास-निर्माण के इस आर्क और लिंग तथा हिंसा को लेकर लोगों की समझ का विस्तार किए बिना हम लोगों से एक बेसलाइन सर्वे में अपने आत्मीय रिश्तों को लेकर स्पष्ट होने की उम्मीद नहीं कर सकते हैं। और समुदाय में व्याप्त हिंसा का संबंध शक्ति के इस डायनमिक्स को समझने और उसकी पहचान से गहरा जुड़ा हुआ है। एंडलाइन सर्वे के समाप्त होते-होते हमें हिंसा की घटनाओं में वृद्धि देखने को मिली। यहां हमने रिपोर्ट किए गए मामलों में वृद्धि को सकारात्मक परिणाम के रूप में देखा। क्योंकि इसका सीधा मतलब यह था कि लोग न केवल हिंसा को बेहतर ढंग से समझ रहे थे बल्कि इससे निपटने के लिए उनके पास अब पर्याप्त ज्ञान भी था। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि समुदाय के युवा किशोरों और लड़कों ने यह समझ लिया था कि इस मामले में जहां वे समस्या को पैदा करने वाले हो सकते हैं वहीं वे इसे सुलझाने वाले भी हो सकते हैं।

महेंद्र रोकड़े कोरो के कार्यक्रमों के निदेशक हैं। नितिन कांबले कोरो में प्रोग्राम मैनेजर हैं।

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अधिक जानें: सामुदायिक प्रतिक्रिया का मुकाबला करते हुए लिंग प्रोग्रामिंग को लागू करने के कड़े कदम के बारे में यह लेख पढ़ें।

एक चुनौतीपूर्ण राह: जेंडर प्रोग्रामिंग से मिलने वाली प्रतिक्रिया से निपटना

हम लोगों ने 2012 में मुंबई की एक बड़ी अनौपचारिक बस्ती डोंबिवली में काम करना शुरू किया। वाचा किशोर लड़कियों को उनके अपने जीवन के साथ-साथ उनके समुदायों के जीवन में बदलाव लाने के लिए सशक्त बनाने में विश्वास रखता हैं।  और इसलिए हमारा कार्यक्रम लड़कियों को अपने मन की बात कहने में सक्षम बनाने पर केंद्रित होता है—हम एजेंसी के निर्माण के लिए कौशल-आधारित प्रशिक्षण देते हैं और लड़कियों का समर्थन करते हैं ताकि वे स्थानीय मुद्दों से जुड़े प्रोजेक्ट पर काम कर सकें। इस प्रक्रिया के माध्यम से लड़कियां अपने भीतर लोच विकसित करती हैं। हालांकि वे यह भी समझती हैं कि परिवर्तन धीरे-धीरे आएगा और ऐसा करने से उन्हें समुदाय के लोगों की प्रतिक्रियाओं का सामना भी करना होगा।

इसलिए किसी नए इलाक़े में जाते ही हम आंगनबाड़ी केंद्र जैसे सार्वजनिक जगहों के इस्तेमाल के लिए स्थानीय राजनेताओं से अनुमति लेते हैं। डोंबिवली में हमें यह अनुमति मिल गई थी और लड़कियों ने यह तय किया कि उनके समुदाय का प्रोजेक्ट इलाक़े के शौचालयों की जांच और उनकी स्थिति पर काम करेगा। इलाक़े की 5,000 लड़कियों और औरतों के लिए केवल चार शौचालय थे और वे भी उपयोग लायक़ नहीं थे। उन शौचालयों में दरवाज़ों की जगह पर्दे लगे थे, खिड़कियां टूटी हुई थीं, कूड़ेदान नहीं थे, न तो पानी के लिए नल था और न ही रौशनी के लिए ट्यूबलाइट या बल्ब।

लड़कियों ने 100 घरों का सर्वे करने की योजना बनाई थी लेकिन 60 लोगों के इंटरव्यू के बाद ही स्थानीय नेताओं को उनके इस प्रोजेक्ट के बारे में मालूम चल गया और उन्होंने इसे बंद करवा दिया। उन्हें इस बात की चिंता था कि इससे उनके इलाक़े की कमियां सार्वजनिक हो जाएंगी और उनकी वास्तविकता सबके सामने आ जाएगी। हमें धमकी दी गई कि हम अपना काम बंद कर दें और स्थानीय सार्वजनिक जगह के इस्तेमाल की हमारी अनुमति को भी रद्द कर दिया गया। फिर इन लड़कियों के समर्थन की एक धीमी प्रक्रिया की शुरुआत हुई। वहीं स्थानीय नेताओं की भावनाओं का ख़्याल भी रखा गया और सुनिश्चित किया गया कि भविष्य में वे न भड़कें। एक स्वयंसेवी संस्था के रूप में अक्सर हमारी स्थिति एक तनी रस्सी पर चलने जैसी हो जाती है। हम अक्सर लड़कियों को अपनी एजेंसी का प्रयोग करने में मदद करने, अपरिहार्य प्रतिक्रिया से निपटने और काम की शुरुआत में हमारी मदद करने वाले स्थानीय अधिकारियों को प्रबंधित करने के बीच फंसे होते हैं।

हालांकि इस मामले में हमने अपनी परियोजना के काम को अस्थाई रूप से रोक दिया लेकिन लड़कियों की मांओं को इसके बारे में पता चला और उन्होंने इसे आगे बढ़ाने का फ़ैसला किया। उन्हें समर्थन देने के लिए हमने उनके साथ कई बैठकें की लेकिन इस बार हम सामने से शामिल नहीं हो सके थे। हमने लड़कियों को शौचालयों की स्थिति और कम उपयोग किए गए बजट पर डेटा प्राप्त करने के लिए आरटीआई दायर करने में मदद की। अंतत: कल्याण डोंबिवली नगर निगम से सम्पर्क साधकर लड़कियों ने शौचालय बनवाया। इस पूरी प्रक्रिया में तीन से चार साल का समय लगा क्योंकि हमें स्थिति को इस तरह से सावधानी पूर्वक सम्भालना था ताकि हमें अपना काम रोकना न पड़ जाए। ऐसा नहीं करने से हम अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाते। यह कुछ ऐसा है जो हमें किसी भी समुदाय के साथ काम करते समय ध्यान में रखना पड़ता है। क्योंकि बदलते लिंग मानदंडों से सम्भावित नतीजों को सही दिशा में आगे ले जाना और यथास्थिति को चुनौती देना ज़्यादातर स्वयंसेवी संस्थाओं के काम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता है। 

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अधिक जानें: जानें कि लैंगिक भेदभाव को दूर करने के लिए काम करने वाले संगठनों को अक्सर समुदायों के भीतर प्रतिरोध का सामना कैसे करना पड़ता है, और इससे निपटने के लिए वे क्या कर सकते हैं।

अधिक करें: स्टेफी फर्नांडो से [email protected] पर और यगना परमार से [email protected] पर सम्पर्क कर उनके काम के बारे में विस्तार से जानें और उन्हें समर्थन दें।

किब्बर गांव का अनोखा पंचायत चुनाव

अगर महामारी नहीं आती तो लोबज़ांग टंडुप चंडीगढ़ में सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहे होते। लेकिन 17 जनवरी 2021 को उनके कंधे पर अचानक से एक ज़िम्मेदारी आ गई। किब्बर में पंचायत चुनाव होने वाले थे और अगले पांच वर्षों तक किब्बर के पंचायत चुनाव की क़िस्मत का फ़ैसला करने में लोबजांग को मुख्य भूमिका निभानी थी। किब्बर गांव समुद्र तल से 4,200 मीटर की उंचाई पर स्थित है और दुनिया की सबसे उंचाई पर बसे मानव बस्तियों में से एक है। किब्बर पंचायत हिमाचल प्रदेश के लाहौल–स्पीती जिले के एक उपखंड स्पीति में 13 पंचायतों में से एक है। यहां रहने वाले ज़्यादातर लोग खेती और पशुपालन का काम करने वाले समुदायों से आते हैं और इस इलाक़े की जनसंख्या घनी नहीं है। इसके अलावा यह साल में लगभग छः माह बर्फ़ से ढंका रहता है।

अपने मनोरम दृश्यों के लिए प्रसिद्ध इस सुदूर गाँव की चुनाव प्रणाली बहुत ही अनोखी है। इसमें पंचायत नेताओं का फैसला ‘टॉस’ नामक लकी ड्रा के आधार पर किया जाता है। यह स्थानीय समस्या के समाधान के रुप में उभर कर आया था। किब्बर गांव के सबसे बुजुर्ग लोगों में से एक फुंटसोग नामगैल का कहना है कि “कई सालों तक लोग अपने रिश्तेदारों को ही अपना मत देते थे। अगर आपके पास अपने विस्तृत परिवार का साथ हो तो आप चुनाव जीत सकते थे। प्रत्येक चुनाव में लोग कई दलों में बंट जाते थे। लेकिन यह हमारे जैसे छोटे समुदाय के अनुकूल नहीं है।”

मैं इस गांव के लोगों के एक समूह का हिस्सा था जो इस साल इस प्रक्रिया में मदद करने के लिए इकट्ठा हुए थे। मंदिर में देवता से अनुमति लेने के बाद चुनाव की कार्यवाही शुरू की गई। उसके बाद, चुनाव पर काम कर रहे समुदाय के सदस्यों को गांव के प्रत्येक घर से एक सदस्य के साथ नामों की सूची बनाने के लिए बगल के कमरे में भेज दिया गया। नामों वाली पर्चियां बनाई गईं। हर पर्ची पर एक नाम लिखा हुआ था और फिर उन पर्चियों को जौ के आटे से बनी लोइयों में छुपाकर गोलियां बना ली गई। इन गोलियों को एक प्लेट में रख दिया गया।

तय समय पर गांव के लोग मुख्य रूप से पुरुष उस मंदिर के बाहर जमा हो गए। जैसे ही लोबजांग को प्लेट से लकी चिट निकालने के लिए बुलाया गया वैसे ही वहां जमा सभी लोग एक साथ खड़े हो गए। लोबजांग ने एक लोई उठाई और उसमें से पर्ची निकालने लगे। लोग कंधो से उचक-उचक कर लोबजांग को देखने की कोशिश में लगे हुए थे। उस पर्ची में “टंडुप छेरिंग, गस्सा” लिखा हुआ था। टंडुप छेरिंग (जिन्हें गस्सा के नाम से भी जाना जाता है) को किब्बर पंचायत के उप-प्रधान के पद पर निर्विरोध रूप से चुन लिया गया। और उनके चारों ओर एक खटक (औपचारिक दुपट्टा) लपेटा गया।लोबजांग चुनाव की इस प्रक्रिया को लेकर क्या सोचते हैं? उनका कहना है कि “मैं अंतिम बार साल 2005 के चुनाव में उपस्थित था। उस समय मैं कक्षा 5 में पढ़ता था। मुझे आज भी याद है कि कैसे परिस्थिति असहज हो गई थी। पहले मुझे लगता था कि पर्ची वाला यह तरीक़ा बहुत अच्छा समाधान है। अब मुझे लगता है कि इसमें सभी को हिस्सा न लेकर सिर्फ़ उन लोगों को भाग लेना चाहिए जो पंचायत के लिए काम करना चाहते हैं। अगर हम किसी ऐसे आदमी को चुन ले जिसे इसमें किसी तरह की रुचि नहीं तो फिर क्या होगा? जब तक उन्हें अपनी ज़िम्मेदारियों का एहसास होगा तब तक उनका कार्यकाल समाप्त होने की कगार पर पहुंच जाएगा।”

अजय बिजूर लद्दाख में नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन (एनसीएफ़) के हाई-एल्टीट्यूड प्रोग्राम में असिस्टेंट प्रोग्राम हेड के रूप में काम करते हैं। कलजांग गुरमेट हिमाचल प्रदेश में एनसीएफ़ इंडिया के साथ प्रोजेक्ट असिस्टेंट के रूप में काम करते हैं।

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अधिक करें: अजय बिजूर और कलजांग गुरमेट के काम को विस्तार से जानने और सहयोग करने के लिए उनसे क्रमश: [email protected] और [email protected] पर सम्पर्क कर सकते हैं।

“हमारी जाति का यही पेशा है”

“मैं किसे सिखाउंगी?” वे सब मुझसे यही कहते हैं कि ‘कौन यह गंदा काम करेगा?’” मूहिया देवी ने मुझसे यह उस समय कहा जब मैं फूस के छत वाले उनके छोटे से कच्चे घर के सामने बैठी थी। “वे खून और इस गंदगी को बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं।” मूहिया देवी बिहार के जमुई ज़िले के सरारी गांव में रहने वाली एक 60 वर्षीय बुजुर्ग महिला हैं जिनका संबंध मांझी समुदाय (एक अनुसूचित जाति) से है। उनके अनुसार वह पिछले 50 वर्षों से दाई का काम कर रही हैं।

दाई या ट्रेडिशनल बर्थ अट्टेंडेंट (टीबीए) आमतौर पर एक औरत होती है जो अपने समुदाय में प्रसव, प्रसवोत्तर और नवजात शिशु की देखभाल का काम करती है। मांझी समुदाय से ही आने वाली पूजा देवी कहती है कि “हमारी जाति का यही काम है।” बीस साल की पूजा जमुई के ही एक दूसरे गांव हसडीह की रहने वाली है। उसने अपने परिवार की तीन पीढ़ियों की महिलाओं को दाई का काम करते देखा है।

हो सकता है कि बिहार में उन्हें दाई के नाम से जाना जाता हो लेकिन टीबीए कई सदियों से पूरे भारत भर में पाई जाती हैं और अपने समुदाय की बहुत महत्वपूर्ण इकाई होती हैं। समय के साथ इस काम ने एक जाति-आधारित पेशे का रूप ले लिया है। दाईयों को औरतों के शरीर के सम्पर्क में रह कर काम करना पड़ता है। वे प्रसव के दौरान शरीर से निकलने वाले द्रव और अन्य प्रकार की गंदगी साफ़ करती है। इस काम को “अपवित्र” माना जाता है और इसलिए जाति व्यवस्था के तहत इसकी ज़िम्मेदारी दलित समुदायों पर है।

हालांकि मुझसे बातचीत करने वाली सभी दाईयां इस काम से जुड़े पारम्परिक ज्ञान को लेकर मुखर थीं और उनका मानना था कि वे “भलाई का काम” कर अपने समुदाय के लोगों की मदद करती हैं। लेकिन साथ ही उन्हें यह कहने में भी किसी तरह का संकोच नहीं हो रहा था कि यह काम गंदगी से जुड़ा हुआ है। 

जमुई के मसौदी गांव की मांझी टोला में रहने वाली लालजित्या देवी पिछले 40 वर्षों से दाई का काम करती आ रही हैं। उन्होंने हमें बताया कि “घर पर प्रसव करवाना एक बहुत गंदा काम है। सफ़ाई की पूरी ज़िम्मेदारी मुझ पर ही होती है। प्रसव के दौरान और उसके बाद मुझे बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। मेरी भूख मर जाती है। मुझे बिल्कुल अच्छा महसूस नहीं होता है।”

दूसरों की तरह मूहिया देवी को प्रसव करवाने का काम अपवित्र नहीं लगता है। वह कहती हैं “अगर मुझे लगता कि यह काम अश्लील है तो मैं कैसे करती?” लेकिन वह इस बात से इनकार नहीं करती हैं कि यह अरुचिकर या घिनौना हो सकता है। “मैं घर के पुरुष सदस्यों से शराब की कुछ घूँट देने के लिए कहती हूं। इससे मुझे लगातार जागते रहने, सर्दी-जुकाम से लड़ने और मानसिक संतुलन बनाए रखने में मदद मिलती है। मूहिया देवी ने कहा कि “शराब नहीं पीने पर घृणा होने लगेगी।”

मूहिया देवी कहती है कि “हमारे लिए काम का मतलब या तो ये है या फिर दिहाड़ी मज़दूरी।” दाई का काम करने से पैसे की कमाई होती है और आजकल हर एक प्रसव या मालिश के काम के लिए 500 से 2,000 रुपए मिलते हैं। इसके अलावा कभी-कभी एक साड़ी, कुछ किलो दाल या चावल भी मिल जाता है। लेकिन इसकी अस्थायी प्रकृति हमेशा ही बदलती रहती है। वह कहती है कि “प्रसव का काम होने पर मेरी कमाई हो जाती है। जब प्रसव का काम नहीं रहता है तो मैं नहीं कमा पाती हूं। बिना काम वाले दिनों में मैं यूं ही बेकार बैठी रहती हूं।”

इंडियाफ़ेलो आईडीआर की #ज़मीनीकहानियां का कंटेंट पार्ट्नर है। इस कहानी का एक लंबा संस्करण पहली बार यूथ की आवाज़ पर प्रकाशित हुआ था।

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संतुलित आहार को बढ़ावा देती कोरकू लोगों की पोषण रैली

अनाज वाली पालकी के साथ कोरकू समुदाय की महिलाएं-पोषण कोरकू

सितम्बर 2021 के पहले सप्ताह में मध्य प्रदेश के खंडवा ज़िले में अवलिया गांव की निवासी रेती बाई काम पर जा रही थी। रास्ते में उसकी नज़र अपने ही गांव के ढ़ेर सारे लोगों पर पड़ी जो एक पालकी के साथ-साथ चल रहे थे। कोरकू लोगों के पारंपरिक गीतों और नृत्यों के बाद प्रसाद बांटा गया जैसे कोई त्योहार हो। कोरकू प्रजाति की रेती बाई लगभग 70 साल की एक बुजुर्ग महिला है। उसने अपने समुदाय और गांव में दशकों से होने वाले कई आयोजन और त्योहार देखे हैं लेकिन ऐसा कुछ कभी नहीं देखा था। यह पोषण माह के अंतर्गत आयोजित पोषण रैली था और उस पालकी में स्थानीय लोगों द्वारा उगाए गए जौ, चावल, गेहूं और कई तरह की सब्ज़ियां थीं।

उसने तय किया कि वह भी इस आयोजन में हिस्सा लेना चाहती है।पोषण माह कोई नई अवधारणा नहीं है। भारत भर में आंगनबाड़ी के लोग पिछले कुछ सालों से बच्चों, किशोरों और गर्भवती महिलाओं के बीच संतुलित आहार को बढ़ावा देने के लिए इस तरह का आयोजन करते आ रहे हैं। खंडवा में 2021 में होने वाला आयोजन अलग था क्योंकि इसे कोरकू त्योहारों का रूप दिया गया था। इस आयोजन में धार्मिक उत्सव में स्थानीय देवताओं की तरह ही पालकी में पोषक खाद्य पदार्थो को लेकर घूमा जा रहा था। यह उनका आयोजन बन गया। खंडवा में इस कार्यक्रम के आयोजन में मदद करने वाली स्पंदन समाज सेवा समिति की सीईओ और संस्थापक सीमा प्रकाश ने बताया कि इसके पीछे समुदाय के लोगों को उनके आहार से जुड़ी बातचीत में शामिल करने का विचार था।

“अभी तक इस तरह के कार्यक्रमों का आयोजन समुदाय के लोगों के भागीदारी के बिना ही आंगनबाड़ी केंद्रों में सरकार और एनजीओ द्वारा करवाए जाते रहे हैं। इन आयोजनों को लेकर समुदाय के लोगों के बीच यही धारणा थी कि यह सरकार या एनजीओ का आयोजन है।” इस सोच को बदलने के लिए यह फ़ैसला लिया गया कि आयोजन में इस्तेमाल होने वाली अधिकतर सब्ज़ियां और अनाज गांव से ही लिया जाएगा। प्रकाश आगे कहती हैं “हम लोगों को यह भी दिखाना चाहते थे कि एक संतुलित आहार के लिए आवश्यक सभी चीज़ें उनके अपने ही हाथ में, अपने आसपास ही मौजूद है।”

युवा लड़कियों और बच्चों ने चीजों को इकट्ठा करने का काम किया। चावल उगाने वाले लोग चावल लेकर आए, बाजरा उगाने वाले बाजरा और फिर दाल आई, लौकी, अंडे और बाक़ी सब कुछ; केवल सजवन और शलगम बाहर से लाया गया था क्योंकि ये खंडवा में नहीं उगाए जाते हैं। सब कुछ मिलाकर खिचड़ी तैयार हुई जिसे रेती जैसे समुदाय के बुजुर्गों ने पकाया था। इन बुजुर्गों के लिए यह अवसर पोषण से जुड़े अपने ज्ञान को अपनी अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का था। 2021 में पोषण माह के इस स्वरूप को खंडवा के 15–20 गांवों के आंगनबाड़ी केंद्रों में आयोजित किया गया जहां से यह आसपास के गांवों में भी पहुंचा। लेकिन ऐसा अनुमान है कि 2022 में इस उत्सव में 50 से अधिक गांवों के लोग हिस्सा लेंगे।

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

रेती बाई स्पंदन समाज सेवा समिति के साथ अवलिया गांव में जागरूकता पहल पर काम करती हैं; सीमा प्रकाश स्पंदन समाज सेवा समिति की संस्थापक और सीईओ हैं। 

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पुराने डेटा के आधार पर हो रहा है भोजन के अधिकार का फ़ैसला

मार्च 2022 में मेरी बात राजस्थान के सिरोही ज़िले के पिंडवारा गांव के भरत कुमार से हुई। उनसे बात करके मैंने जाना कि उन्हें राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (नेशनल फ़ूड सिक्योरीटी एक्ट या एनएफ़एसए) 2013 के तहत मिलने वाला अनाज नहीं मिल पाता है। भरत ने बताया कि हक़दारों की सूची में उनका और उनके परिवार के सदस्यों का नाम शामिल करवाने के लिए उन्होंने कई आवेदन दिए लेकिन हर बार उनका आवेदन अस्वीकृत हो गया।

इस समस्या से निपटने के लिए भरत ने राजस्थान सम्पर्क में एक शिकायत दर्ज करवाई। राजस्थान सम्पर्क जवाबदेही आंदोलन के माध्यम से नागरिकों के लिए राज्य सरकार के पास अपनी शिकायतें दर्ज कराने के लिए एक केंद्रीकृत पोर्टल है। सिरोही के खाद्य और नागरिक आपूर्ति विभाग के इंफ़ोर्समेंट इंस्पेक्टर ने शिकायत के जवाब में कहा कि राज्य के एनएफ़एसए सूची में नए नामों को जोड़ने के लिए प्रयोग किया जाने वाला पोर्टल बंद था। पोर्टल के बंद होने के कारण ही भरत के मामले में उपयुक्त कार्रवाई करना सम्भव नहीं था।

असंतोषजनक जवाब मिलने के कारण शिकायत को आगे विभाग के ज़िला आपूर्ति अधिकारी (डीएसओ) के पास भेजा गया। डीएसओ के जवाब में यह कहा गया था कि विभाग की नीति के अनुसार खाद्य सुरक्षा सूची में नए नामों को जोड़ने पर रोक लगी थी जिसके कारण भरत के मामले में कार्रवाई असम्भव थी। डीएसओ ने अपने जवाब में एक नोटिस का संदर्भ दिया था। इस नोटिस में कहा गया था कि राजस्थान में, भारत सरकार एनएफएसए के तहत अधिकतम 4.46 करोड़ लोगों को अधिकार प्रदान करती है और किसी भी नए आवेदन को इस समय स्वीकार नहीं किया जा रहा है। यह मामला पोर्टल के ‘तकनीकी’ कारणों से बंद होने के मुद्दे से बिल्कुल भिन्न था।

भोजन का अधिकार संवैधानिक अधिकार होने के बावजूद एनएफएसए सूची में नए नाम नहीं जोड़ने का कारण यह है कि राज्य को 2011 की जनगणना के जनसंख्या आंकड़ों के आधार पर केंद्र द्वारा खाद्यान्न आवंटित किया जाता है। यह डेटा 10 वर्ष से अधिक पुराना है। और वर्तमान जनसंख्या अनुमानों के तहत राजस्थान में लगभग 54 लाख लोग एनएफएसए के तहत मिलने वाले लाभों से वंचित हैं। वास्तव में यह स्थिति भोजन के अधिकार की गारंटी देने वाले राष्ट्रीय कानून और कई न्यायिक निर्णयों का उल्लंघन करती है।

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अधिक जानें: पढ़ें कि कैसे राजस्थान का एक सामाजिक कार्यकर्ता समुदायों को उनके अधिकार दिलवाने में मदद करता है।

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रेगिस्तान में बाढ़ महिलाओं की आकांक्षाओं को बहा ले जा रहा है

कहते हैं ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’लेकिन पढ़ाएं कहां से?” राजस्थान के बाड़मेर ज़िले की खारंतिया गांव की एक बुजुर्ग महिला ने हमसे पूछा। 

पश्चिमी राजस्थान का बाड़मेर जिला अपने इलाके, तापमान, पानी में नमक के स्तर और थार रेगिस्तान से नज़दीक होने के कारण राज्य के सबसे चरम जलवायु वाली परिस्थितियों का एक जीवंत उदाहरण है। बाड़मेर ज़िले से लूनी नदी होकर गुजरती है जो इस रेगिस्तान की सबसे लम्बी नदी है। 2021 में अपने फ़ील्डवर्क के लिए मुझे खारंतिया गांव की यात्रा करनी पड़ी। यह गांव नदी के तट पर बसा है और हर बार मानसून में बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हो जाता है। बाढ़ के कारण यूं तो सभी का जीवन और आजीविका दोनों ही प्रभावित होते है लेकिन इसका सबसे अधिक असर औरतों और युवा लड़कियों पर पड़ता है।

समुदाय के सदस्य विशेष रूप से मानसून के दौरान शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, और बुनियादी सार्वजनिक सेवाओं जैसे परिवहन, बिजली और अन्य सुविधाओं तक पहुंच की कमी को लेकर बहुत मुखर थे। दरअसल मानसून के दिनों में लूनी का जल-स्तर बढ़ने से खारंतिया साल में कई महीनों के लिए आसपास के शहरों से कट जाता है।

गांव में कॉलेज जाने वाली पहली-पीढ़ी की करिश्मा का कहना है कि “ससुराल नहीं जाना है, पहले पढ़ना हैजॉब करनी है।”
करिश्मा और उनकी बहन पूजा याद करते हुए बताते हैं कि बाढ़ के समय सड़कों पर सीने तक पानी भर जाता था और वे उसे पार करके स्थानीय स्कूल में पढ़ने जाते थे। कोविड-19 के आने से पहले से ही उनकी कक्षाएं रद्द होती हैं और उन्हें परीक्षाओं में आने वाली बाधाओं से जूझना पड़ता है।

बाढ़ के कारण लड़कियां पढ़ाई बीच में हो छोड़ देती हैं। इसके अलावा इस इलाक़े में बेटियों की शादियां 18 साल और उसके आसपास कर दी जाती हैं। शादी के निर्णय के समय उनकी आर्थिक स्वायत्ता या भावनात्मक तैयारी को भी नज़रअन्दाज़ कर दिया जाता है। कम उम्र में शादी से बचने और अपनी स्वतंत्रता हासिल करने के लिए, स्कूल जाने वाली लड़कियों पर खुद को जल्दी से कुछ बनाने का बहुत अधिक दबाव होता है। इसके लिए वे सरकारी नौकरी या किसी अच्छी निजी कम्पनी में नौकरी हासिल करने की कोशिश में लगी रहती हैं। हालांकि अब भी खारंतिया में 10वीं की पढ़ाई पूरी करने वाली लड़कियों की संख्या बहुत कम है। मनरेगा साथी बनने के लिए न्यूनतम योग्यता 10वीं तक की पढ़ाई है।

इस गांव में एक स्वास्थ्य केंद्र भी है जो बाढ़ और सुदूर इलाक़े में स्थित होने के कारण उपयोग में नहीं रहता है। यहां कई वर्षों से किसी भी सरकारी डॉक्टर की नियुक्ति नहीं हुई है। कुछ निजी डॉक्टरों ने यहां अपना अस्पताल या क्लिनिक शुरू किया था लेकिन इन्हीं कारणों से वे भी इस जगह को छोड़ कर चले गए। भारी बारिश और बाढ़ के कारण एएनएम का दौरा भी नियमित रूप से नहीं होता है और ये चार-पांच महीनों में एक या दो बार आते हैं।

एक अन्य स्थानीय महिला ने बताया कि “गर्भवती महिलाओं को बहुत दूर-दूर जाना पड़ता है डिलीवरी के लिए, रास्ते में कुछ भी हो सकता है।”

दीपानिता मिश्रा फाउंडेशन फॉर इकोलॉजिकल सिक्योरिटी के लर्निंग, मॉनिटरिंग एंड इवैल्यूएशन विभाग में प्रोजेक्ट मैनेजर के पद पर कार्यरत हैं।

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अधिक जानें: इस लेख को पढ़ें और जानें कि युवा लड़कियां स्कूल क्यों नहीं जा रही हैं।

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कच्छ के एक बाटिक शिल्पकार की दुविधा

शकील खत्री, एक बाटिक शिलकर कपड़े पर प्रिंट करने के लिए हैंड ब्लॉक का उपयोग करते हैं-बाटिक कच्छ

मैं गुजरात के कच्छ ज़िले के खत्री नामक शिल्पकार समुदाय से संबंध रखता हूँ। मेरे परिवार के लोग पिछले छह पीढ़ियों से बाटिक का काम करते हैं। बाटिक एक पारम्परिक ब्लॉक-प्रिंटिंग शिल्प है जिसमें मोम की मदद से रंगाई का काम किया जाता है।

कुछ दशक पहले तक इस इलाक़े में बाटिक का काम करने वाले ढ़ेर सारे शिल्पकार थे। लेकिन समय के साथ उनमें से ज़्यादातर शिल्पकारों ने अपने कारख़ाने बंद कर दिए और अब इस काम को करने वाले केवल थोड़े ही शिल्पकार रह गए हैं। इसके पीछे कई कारण हैं। खत्री समुदाय बहुत अधिक प्रतिस्पर्धी होता है—नतीजतन कई शिल्पकारों को अपने उत्पादों की क़ीमत कम करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। एक समय के बाद गुणवत्ता से समझौता किए बिना क़ीमत को कम करना सम्भव नहीं होता है। और इसलिए ही वे निम्न गुणवत्ता वाले उत्पाद बनाने लग गए। जब ऐसा होने लगा तो धीरे-धीरे उनके ग्राहक आने बंद हो गए और अंत में उन्हें अपनी दुकान बंद करनी पड़ गई। इस प्रतिस्पर्धा के कारण कई कारख़ाने ठप्प पड़ गए।

इस स्थिति के पीछे का एक कारण और भी है। 2001 में कच्छ में आए भूकम्प के बाद मुंद्रा पोर्ट का निर्माण किया गया। सरकार ने भी 10 वर्ष तक आयकर की छूट की घोषणा कर दी, नतीजतन कई कम्पनियों ने इस इलाक़े में अपनी फैक्टरियां स्थापित कर लीं। इससे रोज़गार के नए अवसरों का निर्माण हुआ। युवा पीढ़ियों की पहली पसंद इन फैक्टरियों में मिलने वाला रोज़गार बन गया, क्योंकि उन्हें कम शारीरिक मेहनत में ही अच्छी तनख़्वाह भी मिलती है। शिल्पकारी से जुड़े काम में बहुत अधिक मेहनत होती है और इसके कारण युवा पीढ़ी शिल्प को अपना करियर बनाने से कतराते हैं।

इन सबके अलावा, बाटिक उत्पादन एक खर्चीली प्रकिया है। इसलिए इस काम को शुरू करने वाले किसी भी व्यक्ति को कड़ी मेहनत और बहुत अधिक धन निवेश के लिए तैयार होना पड़ता है। उदाहरण के लिए रंगों वाले केमिकल की क़ीमत में 25 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हो गई है और कपड़े की क़ीमत हर साल प्रति मीटर 10 रुपए बढ़ जाती है। बाटिक के काम में बहुत अधिक मात्रा में मोम का इस्तेमाल किया जाता है जो एक पेट्रोलियम उत्पाद है। इसलिए जब भी पेट्रोलियम की क़ीमत बढ़ती है मोम भी महंगा हो जाता है। एक साल पहले मोम की क़ीमत 102 रुपए प्रति किलो था। आज इसका मूल्य 135 रुपए प्रति किलो तक पहुंच गया है और इस पर ऊपर से 18 प्रतिशत जीएसटी भी लगता है। यह सब मिलकर हमारे लिए बहुत महंगा हो जाता है।

पहले जब शिल्पकारों की संख्या बहुत अधिक थी तब हमारा एक यूनियन था। उसकी मदद से हमें मोम ख़रीद पर सरकार से सब्सिडी मिलती थी। जैसे ही हमारी संख्या कम हुई हमारा यूनियन भंग हो गया और अब हमें सब्सिडी की सुविधा नहीं मिल सकती है।शिल्पकारों का एक बड़ा समूह ही सब्सिडी की मांग कर सकता है। हालांकि अब हम में से बहुत कम लोग बच गए हैं और परिस्थितियां ऐसी हैं कि किसी नए व्यक्ति के लिए बाटिक जैसे प्रतिस्पर्धी और बहुत अधिक मेहनत वाले व्यापार में शामिल होने के लिए शून्य के बराबर प्रोत्साहन बचा है। यह कुछ-कुछ कैच-22 जैसी स्थिति है।

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शकील खत्री रैंबो टेक्सटाइल्स और नील बाटिक के मैनेजिंग पार्ट्नर हैं। नील बाटिक 200 मिलियन आर्टिज़न्स के साथ काम करता है जो आईडीआर की #ज़मीनीकहानियां के लिए कंटेंट पार्ट्नर है।

अधिक जानें: पढ़ें कि भारत को अपने शिल्पकारों के समुदायों को सशक्त करने की ज़रूरत क्यों हैं।

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प्यार या अवैतनिक काम? एक ट्यूशन टीचर की दुविधा

छात्रों से घिरे फर्श पर बैठे शिक्षक-ट्यूशन ओड़िशा

ओड़िशा के गांवों में सामुदायिक शिक्षण की अवधारणा बहुत अधिक लोकप्रिय है। इसके तहत अभिभावक अपने बच्चों को अपने ही समुदाय के एक शिक्षक के पास भेजते हैं। बच्चे अपनी स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद वहां जाकर कुछ नया सीखते हैं। आमतौर पर, एक गांव या समुदाय में एक या उससे अधिक सामुदायिक शिक्षक होते हैं। यह अभिभावकों का अपने समुदाय के लोगों पर गहरे विश्वास का नतीजा है। इसके अलावा यह एक तथ्य भी है कि जब माता-पिता काम पर होते हैं तब किसी ऐसे की ज़रूरत होती है जो उनके छोटे-छोटे बच्चों की देखभाल करे और उन्हें पढ़ाए।

थिंकज़ोन नाम के एक शैक्षणिक स्वयंसेवी संस्था में अपने काम के रूप में मैंने देखा है कि इन सामुदायिक शिक्षकों में ज़्यादातर महिलाएं हैं। ये गांव के विभिन्न घरों की बेटियां या बहुएं हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोगों का मानना है कि महिलाएं बच्चों के देखभाल के काम में स्वाभाविक रूप से अच्छी होती हैं। यह एक ऐसा काम है जिसे महिलाएं अपनी पढ़ाई या काम से जुड़ी अपनी दिनचर्या को प्रभावित किए बिना ही कर सकती हैं। शिक्षकों से बात करने पर, अविवाहित युवा महिलाओं ने कहा कि वे अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए सामुदायिक ट्यूशन में हिस्सा लेती हैं। वहीं विवाहित महिलाओं ने बताया कि इससे उनके निजी ख़र्चों के लिए कुछ अतिरिक्त पैसे आ जाते हैं।

कटक ज़िले में बलिसाही गांव की सौभाग्यलक्ष्मी कहती है कि “पूरा गांव मेरे परिवार की तरह है, और इस गांव का हर परिवार मुझे अपनी बहू की तरह ही सम्मान देता है। इसी भरोसे के कारण माता-पिता अपने बच्चों को मेरे पास भेजते हैं।”

हालांकि समुदाय के बच्चों की देखभाल और उनकी शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं की इस महत्वपूर्ण भूमिका की कोई ख़ास क़ीमत नहीं है। सौभाग्यलक्ष्मी की तरह ही अन्य महिलाएं भी अपने समुदाय के बच्चों को बहुत ही कम शुल्क या कभी-कभी बिना किसी शुल्क के पढ़ाती हैं। चूंकि वे समुदाय का हिस्सा होती हैं इसलिए बच्चे किसी न किसी तरह से उनके संबंधी होते हैं। नतीजतन पैसों की बात करना सही नहीं माना जाता है। अभिभावक भी यही मानते हैं कि शिक्षक जो भी कर रहे हैं वह उनका कर्तव्य है, और उन्हें इसके लिए वेतन नहीं लेना चाहिए। बातचीत में एक अभिभावक ने कहा “वह ट्यूशन टीचर नहीं है; वह मेरी बेटी जैसी है जो सिर्फ़ मेरे बच्चे की देखभाल कर रही है।” इससे उन महिलाओं को कठिनाई होती है जिनके लिए शिक्षण का काम आय का एक स्त्रोत होता है। सौभाग्यलक्ष्मी ने आगे बताया, “अभिभावक नियमित रूप से ट्यूशन का शुल्क नहीं देते हैं। वे अपनी सुविधा के अनुसार मुझे पैसे देते हैं। कभी-कभी तो मुझे चार महीने में एक बार पैसा मिलता है। मैं इस गांव की बहू हूं और एक बहू के लिए पैसे की मांग करना अच्छा नहीं माना जाता है। इसके अलावा अपने रिश्तेदार से पैसे मांगना भी स्वीकार्य नहीं होता है।”

इतिश्री बेहेरा अपने राज्य ओड़िशा में थिंकज़ोन नाम के एक शैक्षणिक स्वयंसेवी संस्था के साथ काम करती हैं।

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अधिक जानें: जानें कि बच्चों की शिक्षा अभिभावकों से क्यों शुरू होती है।

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रुस-यूक्रेन युद्ध: हिमाचल में सेब के किसानों पर कैसे पड़ा असर

तुलसी राम शर्मा हिमाचल प्रदेश के ठियोग ज़िले में सेब की खेती करते हैं। उन्होंने हमें बताया कि “इस समय हम दोहरी मार झेल रहे हैं। ख़राब मौसम और खाद की कमी ने हम किसानों और बागवानों की कमर तोड़ दी है।” हिमाचल प्रदेश में मुख्य रूप से सब्ज़ियों और सेब की खेती होती है। लेकिन पिछले दिनों खाद की उपलब्धता में आई भारी कमी ने कई किसानों की आजीविका पर बुरा असर डाला है। यह मामला भारत और चीन के बीच बिगड़ते संबंधों से जुड़ा है और चल रहे रुस-यूक्रेन युद्ध का भी असर इस पर पड़ा है। प्रसिद्ध कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र सिंह का कहना है कि यह आपदा युद्धग्रस्त यूक्रेन से होने वाली आपूर्ति में आई बाधा का परिणाम है जो यूरिया उर्वरकों का दुनिया का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता है।

हालांकि हिमाचल प्रदेश स्टेट कोऑपरेटिव मार्केटिंग एंड कंज्यूमर्स फेडरेशन (हिमफेड) ने किसानों एवं बागवानों को राज्य के कृषि एवं बाग़वानी विश्वविद्यालयों द्वारा विकसित किए गए जैविक खाद उपलब्ध करवाने की मुहिम शुरू की है। लेकिन इस बढ़ते संकट के सामने ये सभी प्रयास अपर्याप्त साबित हो रहे हैं। 

राज्य की कुल आबादी का लगभग 69 प्रतिशत हिस्सा कृषि एवं बाग़वानी का काम करता है। जिसका मतलब यह है कि इस कमी से लगभग 9.61 लाख किसान और 2.5 लाख बागवान सीधे रूप से प्रभावित हो रहे हैं। फूल आने से पहले सेब के पौधों को नाईट्रोजन की ज़रूरत होती है। इस ज़रूरत को खाद से पूरा कर दिया जाता है वहीं गेहूं की अच्छी फसल के लिए यूरिया उर्वरक आवश्यक है। दोनों की भारी कमी का मतलब है गेहूं की कमजोर फसल और गर्मी के कारण सेब के फूलों का समय से पहले तैयार हो जाना।

बागवानी विशेषज्ञ डॉ एस पी भारद्वाज ने हमें बताया कि सर्दियों के मौसम में निष्क्रिय पौधे वसंत में दोबारा जीवंत हो जाते हैं। आमतौर पर इसी समय खाद के माध्यम से इन पौधों को पोषक तत्व दिए जाते हैं। ऐसा करके पौधों को अगले फसल चक्र के लिए तैयार किया जाता है। हालांकि उर्वरकों की कमी से पूरा का पूरा फसल चक्र बाधित हो गया है।

बढ़ते तापमान और अपर्याप्त बारिश साथ-साथ लम्बे समय तक शुष्क रहने वाले मौसम भी हिमाचल के किसानों के इस दुख का कारण हैं। मौसम ब्यूरो के डेटा के मुताबिक, मार्च 2022 पिछली सदी का सबसे गर्म मार्च रहा। फलने-फूलने के लिए कम तापमान की आवश्यकता वाली सेब की फसलों को ऐसे कठोर मौसम में बहुत नुकसान होता है। हिमाचल में सेब का सालाना कारोबार 4,500 करोड़ रुपये से अधिक है। लेकिन यदि परिस्थितियां ऐसी ही प्रतिकूल बनी रहीं तो इससे राज्य की आर्थिक सेहत पर असर पड़ना तय है।

रमन कांत एक फ्रीलांस पत्रकार, कॉलमनिस्ट और लेखक हैं और शिमला में रहते हैं।

यह एक लेख का संपादित अंश है जो मूल रूप से 101 रिपोर्टर्स पर प्रकाशित हुआ था।

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