अक्तूबर 2019 में असम के सोनापुर गांव में डिमसा कॉपरेटिव सोसायटी की सचिव डैजी ठकुरिया को एक फ़ोन आया। यह फ़ोन उनके और उन महिला किसानों के लिए प्रयासों की एक श्रृंखला की शुरुआत थी जिनके साथ वह काम करती हैं। उन्हें यह फ़ोन उस समाजसेवी संस्था से आया था जिनके साथ काम करके वह मशरूम की खेती के विभिन्न तकनीकों के बारे में सीख रही थीं। इस समाजसेवी संस्था को असम राज्य आजीविका मिशन के निदेशक द्वारा दिल्ली में 2019 के सरस आजीविका मेला में असम फूड स्टॉल का प्रबंधन करने के लिए आमंत्रित किया गया था। उन्हें मेले में शामिल होने वालों के लिए मशरूम से बने स्वादिष्ट व्यंजनों की ज़रूरत थी।
मशरूम विकास फ़ाउंडेशन नाम के एक समाजसेवी संस्था की सह-संस्थापक प्रांजल बरुआ कहते हैं कि “कॉपरेटिव की महिलाओं ने हमें बताया कि उन्हें लारू और पीट्ठा (असम के लोकप्रिय व्यंजन) बनाना आता है।”
मशरूम से बनने वाले लारू और पीट्ठा के बारे में पहले किसी ने नहीं सुना था, लेकिन महिलाओं ने आगे बढ़कर नारियल और खोया के साथ उनकी कई किस्में बनाईं। उन्होंने रंग और स्वाद देने के लिए चुकंदर के रस, गाजर के रस और पालक के रस में लारू को डुबोया। डैजी ने हमें बताया कि “हम लारू और पीट्ठा बनाने से पहले मशरूम को महीन-महीन काट कर सुखा लेते हैं और फिर उन्हें पीस कर लारू और पीट्ठा तैयार करते हैं। हम लोग चिपचिपे चावल और मशरूम को मिलाकर खीर और मोमो भी बनाते हैं।”
असम के व्यंजनों के ये नए स्वरूप बहुत ही लोकप्रिय हुए और व्यापार मेले में इससे लगभग 3,54,000 रुपए की कमाई हुई। प्रांजल ने कहा कि “टाइम्स ऑफ़ इंडिया के एक रिपोर्टर ने लारुओं की तस्वीरें ली जिन्हें बाद में अख़बार के मुख्य पृष्ठ पर प्रकाशित किया गया था। उसके बाद ही जल्द ही लोगों ने स्टॉल पर आकर ‘असम के लड्डू’ की मांग शुरू कर दी और भारी मात्रा में ख़रीदने लगे।” उस साल मेले में उन लोगों ने लगभग 8,000 लारु बेचे थे।
डिमसा कॉपरेटिव सोसायटी की महिला किसान अब अपने लारुओं और पीट्ठा के साथ दिल्ली से केरल जाती हैं और यह अब लोगों के बीच बहुत ही लोकप्रिय हो गया है। समय के साथ मशरूम का इस्तेमाल अन्य चीजों के साथ पीज्जा और पापड़ आदि में भी होने लगा है। डैजी कहती हैं कि “हालांकि शुरुआत में मशरूम की खेती से होने वाली आय बहुत ज़्यादा नहीं थी लेकिन हमने इसे जारी रखा क्योंकि मेले में आने वाले लोग इसे लेकर बहुत उत्साहित थे। इसके अलावा हम मशरूम के स्वास्थ्य लाभों के बारे में भी जानते थे। अब आय बढ़ गई है और हम अन्य महिला किसानों को प्रशिक्षित करने का काम भी कर रहे हैं।”
जैसा कि आईडीआर को बताया गया है।
प्रांजल बरुआ मशरूम डेवलपमेंट फ़ाउंडेशन के सह–संस्थापक हैं; डैजी ठकुरिया डिमसा कॉपरेटिव सोसायटी की सचिव हैं।
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अरुणाचल प्रदेश का राजकीय पक्षी धनेश (हॉर्नबिल) इस राज्य के निशि नामक जनजातीय समूह का सांस्कृतिक प्रतीक है। ऐतिहासिक रूप से निशि जनजाति के लोग सिर पर पहनी जाने वाली विशेष प्रकार की टोपी बनाने के लिए इस पक्षी का शिकार कर उसके पंख और चोंच का इस्तेमाल करते थे। भारी संख्या में शिकार के कारण इसकी आबादी ख़तरे में पड़ गई।
पिछले कुछ सालों में राज्य द्वारा धनेश पक्षी के शिकार को रोकने के प्रयासों में इस जनजाति के लोगों को शामिल करने पर ध्यान केंद्रित किया गया। उन्हें अपनी टोपियों में धनेश की चोंच के बदले प्लास्टिक और फ़ाइबरग्लास के उपयोग के लिए प्रोत्साहित किया गया।
इस इलाक़े में 2011 में वन्यजीव संरक्षण पर काम करने वाले एक गांव के बुजुर्ग सदस्यों वाली एक समाजसेवी संस्था और राज्य के वन विभाग ने घोंसला गोद लेने के कार्यक्रम की शुरुआत की। इस कार्यक्रम के तहत निशि समुदाय के सदस्यों को घोंसला संरक्षण और जागरूकता फैलाने वाली गतिविधियों में शामिल किया गया। इस कार्यक्रम के अंतर्गत धनेश पक्षी के घोंसले और उनके रूस्टिंग साइटों पर निगरानी रखने के लिए निशि सदस्यों को घोंसला रक्षक नियुक्त किया जाता है। इस घोंसला रक्षक का चुनाव गांव के प्रधानों के नामांकन के आधार पर किया जाता है। वे अपने गांव के भीतर और आसपास के घोंसलों का पता लगाते हैं और हर पांच-छः दिनों के अंतराल पर उसकी जांच करते हैं और घोंसले के आसपास होने वाली मानवीय गतिविधियों पर भी नज़र बनाए रखते हैं। वे धनेश संरक्षण की ज़रूरत के बारे में दूसरों को भी शिक्षित करते हैं। इस घोंसला संरक्षक को प्रत्येक माह 12,000 रुपए की तनख़्वाह दी जाती है और वहां के स्थानीय कोऑर्डिनेटर को 17,000 रुपया महीना मिलता है। ताजिक तचांग पक्के-केसांग जिला के किसान और पशुपालक हैं। वह इस इलाक़े में घोंसला गोद लेने वाले कार्यक्रम के कोऑर्डिनेटर भी हैं। उनका कहना है कि जहां इस काम के लिए मिलने वाली तनख़्वाह स्थानीय बेरोज़गार लोगों को आर्थिक सहायता देती है वहीं हॉर्नबिल संरक्षण के लिए काम करने की प्रेरणा इस तथ्य से परे है।
बुद्धिराम ताई पक्के-केसांग ज़िला के सेजोसा गांव के गांवबुरा (ग्राम प्रधान) और एक घोंसला संरक्षक हैं। बुधीराम कहते हैं कि “जब हमने यह काम शुरू किया तब हमारे समुदाय के कुछ लोगों को लगा कि हम यह सब पैसों के लिए कर रहे हैं। लेकिन हम लोग यह सब पक्के-केसांग के बच्चों के भविष्य और अरुणाचल के लिए कर रहे हैं।“
स्थानीय लोगों ने अब हॉर्नबिल की उपस्थिति को बढ़ते पर्यटन से जोड़ना शुरू कर दिया है। इस पक्षी के कारण ही प्राकृतिक पर्यटन और होमस्टे के रूप में यहां के लोगों को रोज़गार मिलता है।
बुद्धिराम मानते हैं कि मानव जाति की अज्ञानता के कारण कई स्वदेशी खाद्य पदार्थ और जानवर विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गए। उन्होंने कहा कि “आज जब मैं बच्चों से पूछता हूं कि क्या उन लोगों ने टोको-पत्ता (लुप्तप्राय ताड़ के पेड़ का पत्ता) देखा है तो उनका जवाब नहीं में होता है। कभी तोको के पेड़ यहां भारी संख्या में पाए जाते थे। सरकार हमसे बिना पेड़ों को नुक़सान पहुंचाए पत्ते काटने के लिए कहती थी लेकिन हमने नहीं सुना। यह पत्ता हमारी संस्कृति का प्रतीक था। बिना किसी प्रतीक के हम अपने बच्चों को अपनी संस्कृति के बारे में क्या और कैसे सिखाएंगे? अगर धनेश (हॉर्नबिल) नहीं बचेगा तो हम अपने भावी पीढ़ी को क्या दिखाएंगे?
“मेरे मरने के बाद जब लोग पूछेंगे कि इस गांवबुरा ने क्या किया तो मेरे पीछे मेरा यह काम बोलेगा।”
बुद्धिराम ताई हॉर्नबिल नेस्ट एडॉप्शन प्रोग्राम के साथ घोंसला संरक्षक (नेस्ट प्रोटेक्टर) के रूप में काम करते हैं। ताजिक तचांग हॉर्नबिल नेस्ट एडॉप्शन प्रोग्राम में एक घोंसला रक्षक और स्थानीय समन्वयक है।
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कर्नाटक के दूरदराज इलाक़ों में रहने वाले आदिवासी समुदायों के लोगों का स्वास्थ्य स्तर बहुत ही ख़राब है। इसके लिए स्वच्छ पेयजल तथा स्वच्छता सुविधाओं, उचित आमदनी दर, सड़क और आवास जैसी बुनियादी सुविधाओं तक इनकी पहुंच की कमी को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। ये सभी कारक उन्हें बीमारी की ओर धकेलते हैं। बावजूद इसके इलाज के लिए ये लोग अपने इलाक़े के सरकारी स्वास्थ्य सेवा केंद्रों के बजाय पारंपरिक आयुर्वेदिक चिकित्सकों पर ज़्यादा भरोसा करते हैं।
कर्नाटक में आदिवासी समुदायों के स्वास्थ्य पर शोध करने वाली पीएचडी शोधार्थी सुशीला केंजूर कोरगा कहती हैं कि “लोगों को ज़िला अस्पताल या तालुक़ा अस्पताल जाने के लिए तैयार करना बहुत ही मुश्किल काम है। पहले इस काम के लिए हम समुदाय के नेताओं की मदद लेते थे। लेकिन उनकी बात भी ये लोग बहुत अधिक गम्भीर बीमारी की हालत में ही मानते थे।” वह आगे बताती हैं कि “दुर्भाग्यवश, अंतिम समय तक इंतज़ार करने का परिणाम कई बार मरीज की मृत्यु के रूप में सामने आता था। कई वर्षों तक ऐसी ही स्थिति रहने से लोगों का सरकारी अस्पतालों पर भरोसा और अधिक कमजोर होता गया।”
सुशीला के सहकर्मी महंतेश एस के का भी अनुभव कुछ ऐसा ही है। उन्होंने हमें बताया कि “जब हम उन्हें अस्पताल ले जाने या स्वास्थ्य जागरूकता से जुड़ी बातें करना शुरू करते थे तब वे अपने घरों के दरवाज़े बंद कर लेते थे और हमसे दूर जंगल में भाग जाते थे।”
चामराजनगर जिले की एक ख़ास घटना को याद करते हुए वह बताते हैं कि “एक व्यक्ति को गैंग्रीन था। हमने उसकी सर्जरी के लिए उसे नज़दीक के सरकारी अस्पताल में भर्ती करवाया लेकिन सर्जरी वाले दिन वह अपनी पत्नी को वहीं छोड़ अस्पताल से भाग गया। बाद में हमें पता चला कि सरकारी अस्पताल में मुफ़्त सुविधा मिलने के बावजूद भी वह निजी अस्पताल में भर्ती हो गया।”सुशीला यहां की स्थानीय समुदाय कोरगा से आती हैं। यह कर्नाटक में विशेष रूप से कमजोर आदिवासी समूहों में से एक है। उन्होंने अपने कई साल सिर्फ़ इस विषय पर शोध में लगाया है कि लोगों के अंदर बैठे इस डर और अविश्वास को कैसे दूर किया जा सकता है। इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ (आईपीएच) और जॉर्ज इंस्टीट्यूट ऑफ ग्लोबल हेल्थ के एक प्रोजेक्ट के तहत सुशीला ने आदिवासी नेताओं, अस्पताल के कर्मचारियों, और जिला- और राज्य-स्तरीय स्वास्थ्य अधिकारियों से मुलाकात की। इस मुलाक़ात का उद्देश्य इन लोगों में इस क्षेत्र में मददगार साबित हो सकने वाले आवश्यक नीति-स्तरीय हस्तक्षेपों की समझ को विकसित करना था।
इस बातचीत में उन्होंने पाया कि समुदाय के सदस्यों की मुख्य चिंता स्वास्थ्य केंद्रों पर उनके साथ किया जाने वाला बर्ताव और स्वास्थ्यकर्मियों का व्यवहार था। उन्हें अक्सर ऐसा महसूस होता था कि एक ग़ैर-आदिवासी समुदाय के सदस्य की तुलना में उनके इलाज में अधिक समय लगता है। इसके अलावा भाषाई समस्या के कारण उन्हें अस्पताल के कर्मचारियों से बातचीत करने और अपनी बीमारी के बारे में विस्तार से बताने में भी दिक्कतों का सामना करना पड़ता था। यह उनके लिए एक डरावनी और अनजान जगह थी। ऐसे कई मामले थे जहां अस्पताल में आदिवासी लोगों की मदद के लिए आईपीएच की तरफ़ से उनका प्रतिनिधि सदस्य वहां तैनात किया गया था। ऐसे मामलों में समुदाय के लोगों को सरकारी अस्पतालों में अपना इलाज करवाने में सुरक्षित महसूस हुआ।
सुशीला और उनके सहयोगियों ने अब एक प्रस्ताव पर काम किया है जो उन्होंने सरकार को सौंपा हैं। प्रस्ताव में स्थानीय आदिवासी समुदायों के एक स्वास्थ्य नेविगेटर की चौबीसों घंटे उपस्थिति को जिला और तालुका अस्पतालों में अनिवार्य बताया गया है। कर्नाटक सरकार राज्य के आठ जिलों में नीति को लागू करने की योजना बना रही है।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
महंतेश एस के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ में रिसर्च ऑफिसर हैं; सुशीला केंजूर कोरगा बेंगलुरु के इंस्टिट्यूट ऑफ़ पब्लिक हेल्थ में रिसर्च एसोसिएट और ट्राइबल लीडरशिप प्रोग्राम 2022 में फेलो हैं।
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साल 2012 में मैं छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले के जारगांव में मनरेगा से जुड़ा काम कर रही थी। उसी दौरान पांच औरतों ने मेरे पास आकर मुझसे मदद मांगी। उन्होंने मुझे बताया कि वे सभी आदिवासी समुदाय से आती हैं और या तो विधवा हैं या उनके पतियों ने उन्हें छोड़ दिया है। अपना भविष्य सुरक्षित करने के लिए वे औरतें उस ज़मीन पर मालिकाना हक़ का दावा करना चाहती थीं जिसपर वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत लम्बे समय से खेती कर रही थीं।
पंचायत स्तर पर इसके लिए आवेदन देने के बावजूद गांव के शक्तिशाली लोगों ने उनके आवेदन ख़ारिज कर दिए। उन लोगों का कहना था कि “ये औरतें हैं, ये ज़मीन का क्या करेंगी?” हालांकि वास्तविकता यह थी कि इन औरतों की ज़मीन सिंचाई स्त्रोत के नज़दीक थी जिसका मतलब था कि उन्हें पानी की कमी नहीं थी। और ये शक्तिशाली लोग इन ज़मीनों को हड़पने के तरीक़े खोज रहे थे।
जब कोई व्यक्ति ज़मीन पर अपने हक़ (या पट्टा) के लिए आवेदन देता है तब इसकी जांच वन अधिकार समिति द्वारा की जाती है जो एक सामवेशी निकाय है। इस समिति में 10 से 15 लोग होते हैं। इनमें दो तिहाई अनुसूचित जनजाति का प्रतिनिधित्व होना चाहिए और एक तिहाई महिला सदस्यों का। जब मैंने इन पांचों के साथ बैठकर ज़मीन के काग़ज़ जमा करने शुरू किए तब मुझे पता चला कि पंचायत के लोगों सहित वहां किसी को यह बात पता नहीं थी कि कौन-कौन से लोग वन अधिकार समिति के सदस्य हैं। इसलिए हमने पूरे गांव में उन्हें खोजना शुरू किया। एक आदमी से दूसरे आदमी तक जाते हुए अंत में हमने पाया कि इन पांच औरतों में से दो औरतें इस समिति की सदस्य थी। ये औरतें अपने दस्तावेज़ों पर स्वयं ही हस्ताक्षर कर सकती थीं! इन महिलाओं को बेशक इसके बारे में कुछ भी पता नहीं था और न ही वे अपनी भूमिकाओं और ज़िम्मेदारियों को लेकर जागरूक थीं।
इसके बाद समिति के अन्य सदस्यों का पता लगाने, उनसे हस्ताक्षर करवाने और वन अधिकार समिति के हिस्से के रूप में पंचायत में इसे औपचारिक रूप से दर्ज करवाने में दो महीने का समय लग गया। ऐसा केवल इसलिए सम्भव हो सका क्योंकि हम लोग लगातार इस काम में लगे हुए थे और ग्राम सभा और पंचायत में महिलाओं के अधिकारों की वकालत कर रहे थे।
यह मेरी जानकारी में होने वाले उन कई मामलों में से एक है जहां क़ानून महिलाओं के पक्ष में है लेकिन समुदाय इसके सही कार्यान्वयन में बाधा बनता है। समुदायों और सरकारी अधिकारियों के बीच जागरूकता पैदा करके ही इस स्थिति को बदला जा सकता है।
निसार बेगम लोक आस्था सेवा संस्थान में एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं।
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मैं गुजरात के कच्छ ज़िले का एक बाटिक कारीगर हूं। बाटिक मोम प्रतिरोधी रंगाई और ब्लॉक प्रिंटिंग की एक तकनीक है। मेरा परिवार पिछले छः पीढ़ियों से इस काम को कर रहा है। शुरुआत में मैंने पारिवारिक व्यापार में मदद करते हुए इस कला को सीखा। बहुत बाद में जाकर मैंने बाटिक उत्पादन की अपनी समझ को विस्तृत किया। इस शिल्प से जुड़ी अपनी समझ को विकसित करने के लिए मैंने स्कूल और सोशल मीडिया वाले तरीक़े अपनाए।
साल 2009 में मैं कला रक्षा विद्यालय से जुड़ा। यह एक डिज़ाइन संस्थान है जहां मुझे अन्य पारंपरिक कारीगरों के साथ-साथ प्रतिष्ठित डिजाइन स्कूलों के शिक्षकों के साथ बातचीत करने का अवसर मिला। मैंने डिज़ाइन, कलर ग्रेडेशन, प्रोडक्ट फ़िनिशिंग, प्रदर्शन आदि पर होने वाली कक्षाओं में भाग लिया और अपने शिल्प को लेकर नई अंतर्दृष्टि हासिल की।
स्कूल में बिताए मेरे समय से मेरे अंदर रंगों और डिज़ाइन के साथ प्रयोग करने का विश्वास बढ़ा। इसने मेरे दिमाग को भी खोल दिया और मुझे उन सभी रंगों, बनावटों और पैटर्नों को सराहने और उनसे प्रेरणा लेने का मौका दिया, जिनसे मैं अपने दैनिक जीवन में घिरा हुआ था। इसके बाद जल्द ही मैंने बनावटों के साथ नए नए प्रयोग शुरू कर दिए। इन सारी गतिविधियों ने अंतत: मुझे 2016 में इंस्टाग्राम तक पहुंचा दिया। यहां मैंने अपने डिज़ाइन की प्रेरणाओं और नवाचारों के बारे में पोस्ट करना शुरू कर दिया। अपने विचारों को अपने तक ही सीमित रखने के बजाय मैं इसे इस उम्मीद में लोगों के साथ बांटना चाहता था कि दूसरे लोग भी इससे प्रेरित होंगे।
यदि आप सोशल मीडिया का इस्तेमाल ढंग से करते हैं तो आप इससे बहुत कुछ सीख सकते हैं। दुनिया भर के अन्य बाटिक उत्पादकों द्वारा अपनाई जा रही तकनीकों को सीखने के लिए मैं नियमित रूप से यूट्यूब पर ट्यूटोरियल देखता हूं। उदाहरण के लिए मुझे कपड़े से मोम हटाने की एक नई प्रक्रिया का पता चला। हमारे द्वारा मोम हटाने के लिए उपयोग किया जाने वाला तरीक़ा बहुत ही मुश्किल और थकाऊ है। हम कपड़े को उबलते गर्म पानी में डुबोने के लिए लकड़ी के दो टुकड़ों का उपयोग करते और फिर कपड़े को मोड़ देते हैं जिससे सारा मोम निकल जाता है। एक बार में हम कपड़े की पांच गुना लम्बाई को गर्म पानी में 10 मीटर के एक यार्ड के साथ डुबाते हैं। पानी और मोम के अतिरिक्त वजन के अलावा कपड़े के वजन से हमारे शरीर पर बहुत दबाव पड़ता है।
इसलिए मैंने ऑनलाइन वैकल्पिक तरीकों को खोजने का फैसला किया। मुझे इंडोनेशिया में इस्तेमाल की जाने वाली एक तकनीक के बारे में पता चला। इस तकनीक में कारीगर पानी में कपड़े की सिर्फ़ एक लम्बाई डुबाते हैं और कपड़े को घुमाए बिना धीरे-धीरे मोम को हटा देते हैं। जब मैंने पहली बार अपने साथ काम करने वालों को यह वीडियो दिखाया, तो उन लोगों ने इसमें रुचि नहीं दिखाई। उनका कहना था कि यह प्रक्रिया अधिक समय लेने वाली है। जितने समय में वे 10 कपड़े का मोम हटाते हैं इस प्रक्रिया के इस्तेमाल से उतने ही समय में केवल तीन टुकड़े ही तैयार हो सकते हैं। हालांकि उनमें से जब कुछ ने इस नई विधि से काम करने की कोशिश की तो उन्हें यह पसंद आया क्योंकि इसमें बहुत अधिक शारीरिक मेहनत नहीं थी। धीरे-धीरे दूसरे लोगों ने भी इस तरीक़े का इस्तेमाल शुरू कर दिया। तब से मैं नियमित रूप से दुनिया भर के कारीगरों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली प्रक्रियाओं और विधियों के बारे में जानने के लिए ऑनलाइन अध्ययन में अपना समय लगाता हूं। अपने शिल्प को बेहतर बनाने के लिए इंटरनेट और सोशल मीडिया का उपयोग करने के कई लाभ हैं।
शकील खत्री रैंबो टेक्सटाइल्स और नील बाटिक के मैनेजिंग पार्ट्नर हैं। नील बाटिक 200 मिलियन आर्टिज़न्स के साथ काम करता है जो आईडीआर की #ज़मीनीकहानियां के लिए कंटेंट पार्ट्नर है।
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मैं पिछले एक दशक से भी ज़्यादा समय से महाराष्ट्र के उस्मानाबाद ज़िले के बमानी गांव में खेतिहर मज़दूर के रूप में काम कर रही हूं। मेरा गांव मराठवाड़ा के सूखा-प्रभावित इलाक़े में आता है। कई सालों से सूखा पड़ने के कारण यहां के किसानों को भारी नुक़सान हो रहा है। उनके खेतों में काम करने की वजह से इसका सीधा असर मेरी अपनी आय पर भी पड़ता है। मैं दिन का 200 रुपए कमाती हूं जो मेरे परिवार और बच्चे के भविष्य के लिए काफ़ी नहीं है। हाल के दिनों में मैंने अपने गांव की कई औरतों को जैव कृषि से जुड़ते देखा है। उन्होंने स्वयं शिक्षण प्रयोग (एसएसपी) से लिए गए प्रशिक्षण के बाद यह काम शुरू किया है। यह एक स्वयंसेवी संस्था है जो ग्रामीण महिला उद्यमियों के साथ मिलकर काम करती है। एसएसपी के एक एकड़ खेती मॉडल से प्रभावित होकर महिलाओं ने अपने परिवार के लोगों से ज़मीन के एक छोटे से टुकड़े पर अपने मालिकाना हक़ की मांग की। इस हक़ के मिलने के बाद उन्होंने खेती से जुड़े फ़ैसले लेने शुरू कर दिए। उन्होंने पौष्टिक फसल उगानी शुरू कर दीं और अब उनके परिवार को अनाज ख़रीदने के लिए बाज़ार पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है। समय के साथ उनकी फसल पैदावार में भी वृद्धि हुई है और उन्होंने उसे बेचकर पैसे कमाने भी शुरू कर दिया है। इन औरतों की आय में वृद्धि दिख रही है और साथ ही उनके परिवार का स्वास्थ्य भी बेहतर हुआ है। इसलिए मैंने भी कोशिश करने के बारे में सोचा।
अपना मन बना लेने के बाद, इस साल की शुरुआत में मैंने अपनी सास से बात की। उन्हें अपनी माँ से विरासत में कुछ ज़मीन मिली है लेकिन उन्होंने इसमें से मुझे कुछ भी देने से मना कर दिया। उनके मना करने के बाद मैंने कॉपरेटिव से 60,000 रुपए का कर्ज लिया और उसमें अपनी बचत के 2.4 लाख रुपए मिलाकर आधि एकड़ ज़मीन ख़रीद ली। अन्य औरतों की तरह मैंने भी अपनी ज़मीन में कई तरह के फसल उगाने का फ़ैसला किया। इन फसलों में सोयाबीन, मूंग, उरद और सब्ज़ियां शामिल थीं। मैंने घर के लोगों के लिए पौष्टिक विविधता वाले फसल उगाए और नक़दी फसल के रूप में सोयाबीन को चुना।हालांकि कई सालों तक खेतों में काम करने के बावजूद मुझे जल्द ही इस बात का अहसास हो गया कि मैं खेती की कई चुनौतियों के बारे में अब भी कुछ नहीं जानती थी। दूसरों के खेतों में काम करते समय मैं केवल उनके कहे अनुसार काम करती थी।
इस साल मैंने सोयाबीन की खेती की जिसका एक हिस्सा घोंघों की वजह से बर्बाद हो गया। मुझे सिर्फ़ बची हुई फसल को ही बेचकर काम चलाना पड़ा। मैं अब केमिकल-मुक्त जैवकीटनाशकों के प्रयोग से फसलों को कीटों से सुरक्षित रखने के तरीक़ों के बारे में सीख रही हूं। इसके अलावा अपनी आय के स्त्रोत बढ़ाने के लिए मैंने कृषि-संबद्ध व्यवसाय, जैसे वर्मीकम्पोस्ट या डेयरी फार्मिंग शुरू करने के लिए एसएसपी की मदद से ऋण भी लिया है।
मेरे पास ज़मीन का बहुत छोटा सा टुकड़ा है इसलिए इस पर उगाई गई फसल मेरे अपने परिवार के लिए पर्याप्त है। लेकिन अपने बच्चे की स्कूली शिक्षा और उसके खर्च के लिए मुझे और ज़्यादा काम करने की ज़रूरत है।
रेखा पंत्रे महाराष्ट्र के बमानी गांव की एक किसान है।
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2000 में, कोरो की हमारी टीम ने मुंबई के निम्न आय वर्ग वाले समुदायों के युवा पुरुषों के बीच मर्दानगी के भाव की संरचना के विकास को समझने के उद्देश्य से एक कार्य-आधारित शोध परियोजना तैयार की। हमने इसे समझने के लिए एक मौलिक सर्वेक्षण किया और चार साल के इस एंडलाइन सर्वेक्षण में हमें कुछ दिलचस्प निष्कर्ष देखने को मिले।
उन निष्कर्षों पर बात करने से पहले यह समझना महत्वपूर्ण है कि समुदाय के सदस्यों ने यारी दोस्ती कार्यक्रम में महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा पर कैसे विचार दिए। हमारी टीम ने कुल 850 युवा पुरुषों (16 से 34 वर्ष की आयु वर्ग वाले) के साथ मिलकर काम किया था। इनमें से ज़्यादातर पुरुषों का यह मानना था कि औरतों के साथ की जाने वाली हिंसा अपनी मर्दानगी दिखाने का एक तरीक़ा है। इसका मतलब यह है कि अपने साथी के साथ मार-पीट करने से उस पर अपना नियंत्रण बना रहता है, सड़कों पर महिलाओं के साथ छेड़खानी करना ‘मर्दाना’ होने की निशानी होती है और सहमति का असम्मान करना यौन रूप से ‘हावी’ होने का एक तरीका होता है।
ये वे पुरुष थे जिन्हें कभी भी उनके शरीर से जुड़ी शिक्षा नहीं दी गई थी। वे कभी भी ऐसी जगहों पर नहीं थे जहां मर्दानगी के उनके विचार पर किसी तरह का सवाल किया गया हो या फिर जहां वे अपनी असुरक्षाओं के बारे में खुल कर बात कर सकें। उदाहरण के लिए हमारे बेसलाइन सर्वे में भाग लेने वाले अधिकतर प्रतिभागियों का कहना था कि “यहां कोई हिंसा नहीं है/मैं हिंसक नहीं हूं”। उनकी इस मानसिकता को बदलने के लिए हमें उन पुरुषों का भरोसा जीतना पड़ा ताकि वे खुलकर अपने विचार और अपनी सोच हमें बता सकें। इन जगहों पर वे बातचीत कर सकते थे, अपने व्यवहार पर सवाल कर सकते थे और उस व्यवस्था को समझ सकते थे जिनसे उन्हें इन कामों के लिए साहस मिलता था। इन पुरुषों को मर्दानगी, संवेदनशीलता और देखभाल की वैकल्पिक समझ के बारे में बताया गया। बात जब लिंग-आधारित असमानता और हिंसा की आती है तब उनके व्यवहार परिवर्तन की प्रकृति कुछ इस प्रकार थी:
इस कार्यक्रम में शामिल युवकों ने अपने समुदाय के अन्य लोगों से बातचीत करनी शुरू कर दी (जिनमें स्थानीय नेता और परिवार के सदस्य जैसे लोग भी शामिल थे) और उसी रास्ते पर उनका नेतृत्व करने लगे। ऐसा करने से हिंसा की परिभाषा को लेकर उनकी समझ व्यापक हुई और साथ ही वे हिंसा से जुड़ी किसी घटना पर प्रतिक्रिया करने के लिए संसाधनों के उपयोग के बारे में जानने लगे। अगर हम उनके समुदायों के भीतर ही इन लड़कों के लिए एक समर्थन प्रणाली के लिए अभियान नहीं चलाते तो हमें ऐसे परिणाम नहीं मिलते। लिंग के मानदंडों पर सवाल उठाने से मिलने वाली प्रतिक्रिया के कारण समुदाय के सदस्यों के साथ काम करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। हमारे अभियान ‘सोच सही मर्द वही’ का लक्ष्य यही था।
इस पूरी प्रक्रिया में हमने कुछ नया सीखा। विश्वास-निर्माण के इस आर्क और लिंग तथा हिंसा को लेकर लोगों की समझ का विस्तार किए बिना हम लोगों से एक बेसलाइन सर्वे में अपने आत्मीय रिश्तों को लेकर स्पष्ट होने की उम्मीद नहीं कर सकते हैं। और समुदाय में व्याप्त हिंसा का संबंध शक्ति के इस डायनमिक्स को समझने और उसकी पहचान से गहरा जुड़ा हुआ है। एंडलाइन सर्वे के समाप्त होते-होते हमें हिंसा की घटनाओं में वृद्धि देखने को मिली। यहां हमने रिपोर्ट किए गए मामलों में वृद्धि को सकारात्मक परिणाम के रूप में देखा। क्योंकि इसका सीधा मतलब यह था कि लोग न केवल हिंसा को बेहतर ढंग से समझ रहे थे बल्कि इससे निपटने के लिए उनके पास अब पर्याप्त ज्ञान भी था। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि समुदाय के युवा किशोरों और लड़कों ने यह समझ लिया था कि इस मामले में जहां वे समस्या को पैदा करने वाले हो सकते हैं वहीं वे इसे सुलझाने वाले भी हो सकते हैं।
महेंद्र रोकड़े कोरो के कार्यक्रमों के निदेशक हैं। नितिन कांबले कोरो में प्रोग्राम मैनेजर हैं।
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हम लोगों ने 2012 में मुंबई की एक बड़ी अनौपचारिक बस्ती डोंबिवली में काम करना शुरू किया। वाचा किशोर लड़कियों को उनके अपने जीवन के साथ-साथ उनके समुदायों के जीवन में बदलाव लाने के लिए सशक्त बनाने में विश्वास रखता हैं। और इसलिए हमारा कार्यक्रम लड़कियों को अपने मन की बात कहने में सक्षम बनाने पर केंद्रित होता है—हम एजेंसी के निर्माण के लिए कौशल-आधारित प्रशिक्षण देते हैं और लड़कियों का समर्थन करते हैं ताकि वे स्थानीय मुद्दों से जुड़े प्रोजेक्ट पर काम कर सकें। इस प्रक्रिया के माध्यम से लड़कियां अपने भीतर लोच विकसित करती हैं। हालांकि वे यह भी समझती हैं कि परिवर्तन धीरे-धीरे आएगा और ऐसा करने से उन्हें समुदाय के लोगों की प्रतिक्रियाओं का सामना भी करना होगा।
इसलिए किसी नए इलाक़े में जाते ही हम आंगनबाड़ी केंद्र जैसे सार्वजनिक जगहों के इस्तेमाल के लिए स्थानीय राजनेताओं से अनुमति लेते हैं। डोंबिवली में हमें यह अनुमति मिल गई थी और लड़कियों ने यह तय किया कि उनके समुदाय का प्रोजेक्ट इलाक़े के शौचालयों की जांच और उनकी स्थिति पर काम करेगा। इलाक़े की 5,000 लड़कियों और औरतों के लिए केवल चार शौचालय थे और वे भी उपयोग लायक़ नहीं थे। उन शौचालयों में दरवाज़ों की जगह पर्दे लगे थे, खिड़कियां टूटी हुई थीं, कूड़ेदान नहीं थे, न तो पानी के लिए नल था और न ही रौशनी के लिए ट्यूबलाइट या बल्ब।
लड़कियों ने 100 घरों का सर्वे करने की योजना बनाई थी लेकिन 60 लोगों के इंटरव्यू के बाद ही स्थानीय नेताओं को उनके इस प्रोजेक्ट के बारे में मालूम चल गया और उन्होंने इसे बंद करवा दिया। उन्हें इस बात की चिंता था कि इससे उनके इलाक़े की कमियां सार्वजनिक हो जाएंगी और उनकी वास्तविकता सबके सामने आ जाएगी। हमें धमकी दी गई कि हम अपना काम बंद कर दें और स्थानीय सार्वजनिक जगह के इस्तेमाल की हमारी अनुमति को भी रद्द कर दिया गया। फिर इन लड़कियों के समर्थन की एक धीमी प्रक्रिया की शुरुआत हुई। वहीं स्थानीय नेताओं की भावनाओं का ख़्याल भी रखा गया और सुनिश्चित किया गया कि भविष्य में वे न भड़कें। एक स्वयंसेवी संस्था के रूप में अक्सर हमारी स्थिति एक तनी रस्सी पर चलने जैसी हो जाती है। हम अक्सर लड़कियों को अपनी एजेंसी का प्रयोग करने में मदद करने, अपरिहार्य प्रतिक्रिया से निपटने और काम की शुरुआत में हमारी मदद करने वाले स्थानीय अधिकारियों को प्रबंधित करने के बीच फंसे होते हैं।
हालांकि इस मामले में हमने अपनी परियोजना के काम को अस्थाई रूप से रोक दिया लेकिन लड़कियों की मांओं को इसके बारे में पता चला और उन्होंने इसे आगे बढ़ाने का फ़ैसला किया। उन्हें समर्थन देने के लिए हमने उनके साथ कई बैठकें की लेकिन इस बार हम सामने से शामिल नहीं हो सके थे। हमने लड़कियों को शौचालयों की स्थिति और कम उपयोग किए गए बजट पर डेटा प्राप्त करने के लिए आरटीआई दायर करने में मदद की। अंतत: कल्याण डोंबिवली नगर निगम से सम्पर्क साधकर लड़कियों ने शौचालय बनवाया। इस पूरी प्रक्रिया में तीन से चार साल का समय लगा क्योंकि हमें स्थिति को इस तरह से सावधानी पूर्वक सम्भालना था ताकि हमें अपना काम रोकना न पड़ जाए। ऐसा नहीं करने से हम अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाते। यह कुछ ऐसा है जो हमें किसी भी समुदाय के साथ काम करते समय ध्यान में रखना पड़ता है। क्योंकि बदलते लिंग मानदंडों से सम्भावित नतीजों को सही दिशा में आगे ले जाना और यथास्थिति को चुनौती देना ज़्यादातर स्वयंसेवी संस्थाओं के काम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता है।
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अधिक करें: स्टेफी फर्नांडो से [email protected] पर और यगना परमार से [email protected] पर सम्पर्क कर उनके काम के बारे में विस्तार से जानें और उन्हें समर्थन दें।
अगर महामारी नहीं आती तो लोबज़ांग टंडुप चंडीगढ़ में सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहे होते। लेकिन 17 जनवरी 2021 को उनके कंधे पर अचानक से एक ज़िम्मेदारी आ गई। किब्बर में पंचायत चुनाव होने वाले थे और अगले पांच वर्षों तक किब्बर के पंचायत चुनाव की क़िस्मत का फ़ैसला करने में लोबजांग को मुख्य भूमिका निभानी थी। किब्बर गांव समुद्र तल से 4,200 मीटर की उंचाई पर स्थित है और दुनिया की सबसे उंचाई पर बसे मानव बस्तियों में से एक है। किब्बर पंचायत हिमाचल प्रदेश के लाहौल–स्पीती जिले के एक उपखंड स्पीति में 13 पंचायतों में से एक है। यहां रहने वाले ज़्यादातर लोग खेती और पशुपालन का काम करने वाले समुदायों से आते हैं और इस इलाक़े की जनसंख्या घनी नहीं है। इसके अलावा यह साल में लगभग छः माह बर्फ़ से ढंका रहता है।
अपने मनोरम दृश्यों के लिए प्रसिद्ध इस सुदूर गाँव की चुनाव प्रणाली बहुत ही अनोखी है। इसमें पंचायत नेताओं का फैसला ‘टॉस’ नामक लकी ड्रा के आधार पर किया जाता है। यह स्थानीय समस्या के समाधान के रुप में उभर कर आया था। किब्बर गांव के सबसे बुजुर्ग लोगों में से एक फुंटसोग नामगैल का कहना है कि “कई सालों तक लोग अपने रिश्तेदारों को ही अपना मत देते थे। अगर आपके पास अपने विस्तृत परिवार का साथ हो तो आप चुनाव जीत सकते थे। प्रत्येक चुनाव में लोग कई दलों में बंट जाते थे। लेकिन यह हमारे जैसे छोटे समुदाय के अनुकूल नहीं है।”
मैं इस गांव के लोगों के एक समूह का हिस्सा था जो इस साल इस प्रक्रिया में मदद करने के लिए इकट्ठा हुए थे। मंदिर में देवता से अनुमति लेने के बाद चुनाव की कार्यवाही शुरू की गई। उसके बाद, चुनाव पर काम कर रहे समुदाय के सदस्यों को गांव के प्रत्येक घर से एक सदस्य के साथ नामों की सूची बनाने के लिए बगल के कमरे में भेज दिया गया। नामों वाली पर्चियां बनाई गईं। हर पर्ची पर एक नाम लिखा हुआ था और फिर उन पर्चियों को जौ के आटे से बनी लोइयों में छुपाकर गोलियां बना ली गई। इन गोलियों को एक प्लेट में रख दिया गया।
तय समय पर गांव के लोग मुख्य रूप से पुरुष उस मंदिर के बाहर जमा हो गए। जैसे ही लोबजांग को प्लेट से लकी चिट निकालने के लिए बुलाया गया वैसे ही वहां जमा सभी लोग एक साथ खड़े हो गए। लोबजांग ने एक लोई उठाई और उसमें से पर्ची निकालने लगे। लोग कंधो से उचक-उचक कर लोबजांग को देखने की कोशिश में लगे हुए थे। उस पर्ची में “टंडुप छेरिंग, गस्सा” लिखा हुआ था। टंडुप छेरिंग (जिन्हें गस्सा के नाम से भी जाना जाता है) को किब्बर पंचायत के उप-प्रधान के पद पर निर्विरोध रूप से चुन लिया गया। और उनके चारों ओर एक खटक (औपचारिक दुपट्टा) लपेटा गया।लोबजांग चुनाव की इस प्रक्रिया को लेकर क्या सोचते हैं? उनका कहना है कि “मैं अंतिम बार साल 2005 के चुनाव में उपस्थित था। उस समय मैं कक्षा 5 में पढ़ता था। मुझे आज भी याद है कि कैसे परिस्थिति असहज हो गई थी। पहले मुझे लगता था कि पर्ची वाला यह तरीक़ा बहुत अच्छा समाधान है। अब मुझे लगता है कि इसमें सभी को हिस्सा न लेकर सिर्फ़ उन लोगों को भाग लेना चाहिए जो पंचायत के लिए काम करना चाहते हैं। अगर हम किसी ऐसे आदमी को चुन ले जिसे इसमें किसी तरह की रुचि नहीं तो फिर क्या होगा? जब तक उन्हें अपनी ज़िम्मेदारियों का एहसास होगा तब तक उनका कार्यकाल समाप्त होने की कगार पर पहुंच जाएगा।”
अजय बिजूर लद्दाख में नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन (एनसीएफ़) के हाई-एल्टीट्यूड प्रोग्राम में असिस्टेंट प्रोग्राम हेड के रूप में काम करते हैं। कलजांग गुरमेट हिमाचल प्रदेश में एनसीएफ़ इंडिया के साथ प्रोजेक्ट असिस्टेंट के रूप में काम करते हैं।
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अधिक करें: अजय बिजूर और कलजांग गुरमेट के काम को विस्तार से जानने और सहयोग करने के लिए उनसे क्रमश: [email protected] और [email protected] पर सम्पर्क कर सकते हैं।
“मैं किसे सिखाउंगी?” वे सब मुझसे यही कहते हैं कि ‘कौन यह गंदा काम करेगा?’” मूहिया देवी ने मुझसे यह उस समय कहा जब मैं फूस के छत वाले उनके छोटे से कच्चे घर के सामने बैठी थी। “वे खून और इस गंदगी को बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं।” मूहिया देवी बिहार के जमुई ज़िले के सरारी गांव में रहने वाली एक 60 वर्षीय बुजुर्ग महिला हैं जिनका संबंध मांझी समुदाय (एक अनुसूचित जाति) से है। उनके अनुसार वह पिछले 50 वर्षों से दाई का काम कर रही हैं।
दाई या ट्रेडिशनल बर्थ अट्टेंडेंट (टीबीए) आमतौर पर एक औरत होती है जो अपने समुदाय में प्रसव, प्रसवोत्तर और नवजात शिशु की देखभाल का काम करती है। मांझी समुदाय से ही आने वाली पूजा देवी कहती है कि “हमारी जाति का यही काम है।” बीस साल की पूजा जमुई के ही एक दूसरे गांव हसडीह की रहने वाली है। उसने अपने परिवार की तीन पीढ़ियों की महिलाओं को दाई का काम करते देखा है।
हो सकता है कि बिहार में उन्हें दाई के नाम से जाना जाता हो लेकिन टीबीए कई सदियों से पूरे भारत भर में पाई जाती हैं और अपने समुदाय की बहुत महत्वपूर्ण इकाई होती हैं। समय के साथ इस काम ने एक जाति-आधारित पेशे का रूप ले लिया है। दाईयों को औरतों के शरीर के सम्पर्क में रह कर काम करना पड़ता है। वे प्रसव के दौरान शरीर से निकलने वाले द्रव और अन्य प्रकार की गंदगी साफ़ करती है। इस काम को “अपवित्र” माना जाता है और इसलिए जाति व्यवस्था के तहत इसकी ज़िम्मेदारी दलित समुदायों पर है।
हालांकि मुझसे बातचीत करने वाली सभी दाईयां इस काम से जुड़े पारम्परिक ज्ञान को लेकर मुखर थीं और उनका मानना था कि वे “भलाई का काम” कर अपने समुदाय के लोगों की मदद करती हैं। लेकिन साथ ही उन्हें यह कहने में भी किसी तरह का संकोच नहीं हो रहा था कि यह काम गंदगी से जुड़ा हुआ है।
जमुई के मसौदी गांव की मांझी टोला में रहने वाली लालजित्या देवी पिछले 40 वर्षों से दाई का काम करती आ रही हैं। उन्होंने हमें बताया कि “घर पर प्रसव करवाना एक बहुत गंदा काम है। सफ़ाई की पूरी ज़िम्मेदारी मुझ पर ही होती है। प्रसव के दौरान और उसके बाद मुझे बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। मेरी भूख मर जाती है। मुझे बिल्कुल अच्छा महसूस नहीं होता है।”
दूसरों की तरह मूहिया देवी को प्रसव करवाने का काम अपवित्र नहीं लगता है। वह कहती हैं “अगर मुझे लगता कि यह काम अश्लील है तो मैं कैसे करती?” लेकिन वह इस बात से इनकार नहीं करती हैं कि यह अरुचिकर या घिनौना हो सकता है। “मैं घर के पुरुष सदस्यों से शराब की कुछ घूँट देने के लिए कहती हूं। इससे मुझे लगातार जागते रहने, सर्दी-जुकाम से लड़ने और मानसिक संतुलन बनाए रखने में मदद मिलती है। मूहिया देवी ने कहा कि “शराब नहीं पीने पर घृणा होने लगेगी।”
मूहिया देवी कहती है कि “हमारे लिए काम का मतलब या तो ये है या फिर दिहाड़ी मज़दूरी।” दाई का काम करने से पैसे की कमाई होती है और आजकल हर एक प्रसव या मालिश के काम के लिए 500 से 2,000 रुपए मिलते हैं। इसके अलावा कभी-कभी एक साड़ी, कुछ किलो दाल या चावल भी मिल जाता है। लेकिन इसकी अस्थायी प्रकृति हमेशा ही बदलती रहती है। वह कहती है कि “प्रसव का काम होने पर मेरी कमाई हो जाती है। जब प्रसव का काम नहीं रहता है तो मैं नहीं कमा पाती हूं। बिना काम वाले दिनों में मैं यूं ही बेकार बैठी रहती हूं।”
इंडियाफ़ेलो आईडीआर की #ज़मीनीकहानियां का कंटेंट पार्ट्नर है। इस कहानी का एक लंबा संस्करण पहली बार यूथ की आवाज़ पर प्रकाशित हुआ था।
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