राजस्थान में पानी पर चल रही छोटी सी अर्थव्यवस्था

अलवर, राजस्थान के चोरोटी पहाड़ गांव की रहने वाली दया देवी एक किसान हैं। अपने गांव के कुछ अन्य जमींदार किसानों की तरह उन्होंने अपनी जमीन पर एक बोरवेल लगवाया है। बोरवेल उनके खेतों की सिंचाई करता है और उनके परिवार को पानी उपलब्ध करवाता है। इसके साथ ही, यह उनके लिए आय का एक स्रोत भी है। इससे वे अपने इलाके के छोटे किसानों को, जिनके पास खुद का बोरवेल नहीं है, किराए पर पानी देती हैं। इसके लिए वे 150 रुपये प्रति घंटे की दर पर भुगतान हासिल करती हैं।

दया देवी का मानना है कि ऐसा करने में सबका फायदा है। वे आगे जोड़ती हैं कि “बोरवेल चलाने वाले मालिक बिजली का बिल भी भरते हैं और उसके रखरखाव का खर्च भी उठाते हैं। पानी खरीदने वालों को [बिना किसी झंझट के] अपने खेतों की सिंचाई करने की सुविधा मिलती है।”

दया के परिवार के पास दो दशकों से अधिक समय से बोरवेल है। उन्होंने इस दौरान लगातार भूजल के स्तर को कम होते देखा है। वे कहती हैं, ”हर साल बारिश कम हो रही है। पहले हमें 200 फीट ज़मीन खोदने पर पानी मिलता था, अब पानी के लिए हमें 500 फीट तक खुदाई करनी पड़ती है।”

सिंचाई के लिए बोरवेल के अलावा कुछ अन्य विकल्प भी हो सकते हैं, जैसे ड्रिप सिंचाई। इसके लिए पानी की टंकी की आवश्यकता होती है। दया को इन तरीक़ों की जानकारी भी है, वे कहती हैं कि “ड्रिप इरिगेशन भविष्य है। यदि आप अपने खेत पर 1,000 लीटर का टैंक रखते हैं और इसका उपयोग सिंचाई के लिए करते हैं तो यह बोरवेल से जुड़े पाइप का उपयोग करने की तुलना में सस्ता है, जिसमें एक बीघे की सिंचाई करने में लगभग 12 घंटे लगते हैं।”

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दया देवी एक किसान हैं और अलवर स्थित एक गैर-लाभकारी संस्था इब्तदा द्वारा सहयोग प्राप्त एक स्वयं सहायता समूह की सदस्य हैं।

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अहमदाबाद के कपड़ा कारीगरों पर जलवायु परिवर्तन का असर

शीलाबेन अहमदाबाद के पटड़ नगर की रहने वाली हैं। वे दो कमरों के घर में रहती हैं जिनमें से एक कमरे का उपयोग वे ब्लाउज और स्कर्ट पर पत्थर चिपकाने का काम करने के लिए करती है। एक ब्लाउज का काम पूरा करने में उन्हें दो से तीन घंटे का समय लगता है। एक कपड़े पर उन्हें लगभग 15 से 25 रुपए तक मिल जाते हैं। यह काम उन्हें ठेकेदार से मिलता है और यह नियमित नहीं है।

त्योहारों विशेष रूप से नवरात्रि का समय यह तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है कि उन्हें कितना काम मिलने वाला है। शीलाबेन बताती हैं कि “त्योहारों के मौसम आने से पहले मैं रात के 12 बजे तक काम करती हूं। हमारे पास अतिरिक्त काम होता है और यही समय होता है जब हम थोड़े ज़्यादा पैसे कमा कर अपने लिए कुछ बचा सकते हैं।”

शीलाबेन के लिए, अपने इस छोटे से घर में काम करना आसान नहीं है। उनके जैसे अनगिनत कारीगर यहां ऐसे घरों में रहते हैं जहां आमतौर पर छतें और दीवारें स्थायी नहीं होती हैं। इन घरों में मौलिक सुविधाएं भी नहीं होती हैं। उदाहरण के लिए, जल निकासी की उचित व्यवस्था न होने के कारण मानसून के दिनों में इन घरों में पानी भर जाता है। इसके चलते, कच्चे माल को नुक़सान पहुंचता है।

जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली मौसम में आए चरम बदलाव सीधे इनके घरों को प्रभावित करते हैं। इसका असर इनके काम पर भी होता है। शीलाबेन ने बताया कि “हमारी छतें एस्बेस्टस की बनी होती हैं, इसलिए यह बहुत ज़्यादा गर्म हो जाती हैं। इसके नीचे बैठना मुश्किल हो जाता है लेकिन हमें फिर भी काम करना पड़ता है। मैं अपने काम से होने वाली आमदनी पर कोई समझौता नहीं कर सकती हूं।” घर के अंदर प्रचंड गर्मी के कारण उनके काम करने की क्षमता पर असर पड़ता है। ऐसे में उन्हें इधर-उधर जाकर काम करना और रात में मौसम ठंडा होने पर काम करना पड़ता है।

मानसून में काम करने की अपनी अलग चुनौतियां हैं। बारिश के मौसम में गोंद को सूखने में अधिक समय लगता है और घर की सीलन कपड़ों को नुक़सान पहुंचाती है। इलाक़े में सीवर पाइप न होने के कारण पानी रिसता है जो आख़िर में काम पर असर डालता है। शीलाबेन आगे बताती हैं कि “मैं मानसून में काम नहीं करती हूं क्योंकि उन दिनों में जितना फायदा होता है, उससे ज़्यादा कपड़ों का नुक़सान हो जाता है। इससे मुझ पर ठेकेदार का भरोसा भी कम होता है।” 

यही काम करने वाली पटड़ नगर की एक अन्य कारीगर मालतीबेन कहती हैं कि “दोपहर में, माला (मनके हार) बनाने वाली हमारे आस-पड़ोस की महिलाएं कभी-कभी काम करने के लिए सामुदायिक मंदिर या छायादार सड़कों के नीचे बैठती हैं। लेकिन हम ऐसा नहीं कर सकते हैं क्योंकि हमारे लिए टुकड़ों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाना आसान नहीं है। पत्थर चिपकाने के बाद कपड़े को सीधा रखकर सुखाने की ज़रूरत होती है।”

इलाके की दूसरी महिलाएं माला-बनाने, दर्ज़ी का काम करने और चम्मचों की पैकेजिंग जैसे काम करती हैं। पत्थर चिपकाने के काम से कम पैसे मिलने के बावजूद रुक्मिणीबेन माला बनाने का ही काम करती हैं। उनका कहना है कि “पत्थर चिपकाने का काम हर कोई नहीं कर सकता है। मैं कपड़े कहां सूखने के लिए डालूंगी? मेरे घर में बैठने और काम करने की जगह नहीं है।”

अनुज बहल एक अर्बन रिसर्चर और व्यवसायी हैं।

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राम मंदिर की ईंटों की कीमत पशुपालकों की आजीविका है

2021 में, राजस्थान सरकार ने भरतपुर जिले में बंध बारेठा वन्यजीव अभ्यारण्य (वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी) के कुछ हिस्सों को डिनोटिफाई किया था। इसे लेकर अधिकारियों का कहना था कि अभ्यारण्य के उन हिस्सों (ब्लॉक्स) के वातावरण में गिरावट के कारण यह फैसला लिया गया है।

लेकिन, अब इस क्षेत्र का खनन गुलाबी पत्थरों के लिए किया जा रहा है। ये पत्थर अयोध्या में राम मंदिर के लिए इस्तेमाल हो रहे हैं। अभ्यारण्य में लोगों की ज़मीन चले जाने की भरपाई करने के लिए, आस-पास के जंगली इलाकों, जैसे करौली जिले की मासलपुर तहसील को अभ्यारण्य में ही शामिल कर लिया गया है।

मासलपुर में लगभग 100 गांव हैं, जहां गुर्जर और मीणा जैसे पशुपालक समुदाय रहते हैं। ये समुदाय इन जंगलो का ओरण (पवित्र बाग) की तरह संरक्षण करते रहे हैं। साथ ही, वे अपनी आजीविका के लिए इन जंगलों पर निर्भर हैं।

भरतपुर की स्थिति भी सही नहीं कही जा सकती है। यहां खनन के कारण वनस्पतियों और जीव-जंतुओं की हालत खराब है। दूसरी तरफ, स्थानीय लोगों को बताया जा रहा है कि खान से उन्हें नौकरियां मिलेंगी। लेकिन वे पूछ रहे हैं कि अगर खान के मालिक और श्रमिक बाहर के हैं तो उन्हें नौकरियां कहां से मिलेंगी?

अमन सिंह राजस्थान में जमीनी स्तर पर काम करने वाले एक समाजसेवी संगठन, कृषि एवं पारिस्थितिकी विकास संस्थान (KRAPAVIS) के संस्थापक हैं।

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कबीर को जीना: संस्कृति और परंपरा को सामाजिक बदलाव तक बढ़ाना

भारत में प्राचीन काल से ही जाति समुदायों की एक पहचान रही है। यह पहचान शायद उनके काम से थी और उनकी आजीविका का साधन भी थी। लोग चाहे उस काम से खुश हों या न हों, उनको वह काम करना ही पड़ता था (या अभी भी करना पड़ता है, नहीं तो सामाजिक दंड दिया जाता है)।

मैं भी एक ऐसी ही जाति – भाट/भांड से आता हूं जो मध्य-राजस्थान में बसती है। भाट/भांड समुदाय का जातिगत काम कविता करना था। इस जाति को जाचक, ढोली और अन्य नाम भी दिए गए हैं। इनका काम आगे चलकर जजमानों के यहां होने वाले शादी-विवाह जैसे मांगलिक कार्यक्रमों में ढोल बजाना भी बना। 

हमारे समुदाय के कुछ लोग अब यह काम छोड़ चुके हैं, कुछ आज भी कर रहे हैं, और कुछ ने इसका स्वरूप बदल दिया है। इसके अनेक कारणों में सबसे बड़ा कारण रहा है – जातिवाद। ऐतिहासिक तौर पर कलाकार समुदाय से होते हुए भी मैं ग्रामीण संस्कृति और सामाजिक बदलावों को जोड़ने के क्षेत्र में आया। 

मैंने भजन और संघर्ष के गीतों को गाकर, अपनी कला में बदलाव किया है। यह लोगों को जागरूक करने और उन्हें अपने हक-अधिकारों के लिए लड़ने में प्रेरित करने वाला रहा है। 

मेरे दो हमउम्र साथी – कार्तिक और ईश्वर, मेरी ही तरह गांव से आते है और संस्कृति, संगीत और कला में रुचि रखते हैं। इन दोनों का जातिगत काम खेती-किसानी था। कलाकार जाति का न होते हुए भी इनको गांव-गांव जाकर ढोल बजाने और गाना गाने में कोई झिझक नहीं है।

हम कोशिश करते हैं कि मीरा, कबीर, रूपा दे, रामसा पीर आदि के विचारों को आज के परिप्रेक्ष्य में रख सकें। युवा, भजन गाने की तरफ कम आते हैं। इसलिए हमारे इस तरीके से प्रभावित होकर, लोगों ने गांव की चौकी (मारवाड़, पाली) में हमें भजन गाने के लिए बुलाया। 

कबीर भगवान को निर्गुण मानते थे। अपने भजन ‘तू का तू’ में वे कहते हैं: 

“इनका भेद बता मेरे अवधू, साँची करनी डरता क्यों,
डाली फूल जगह के माही, जहाँ देखूं वहां तू का तू।”

इसका मतलब है कि भगवान हर जगह हैं, आप में, मुझ में, पत्ते में, डाली में। इसी भजन में कबीर आगे कहते हैं:

“चोरों के संग चोरी करता, बदमाशों में भेड़ो तू,
चोरी करके तू भग जावे, पकड़ने वाला तू का तू।” 

इसका मतलब हुआ कि भगवान जब सब में हैं तो एक चोर में भी है, और जब वो चोर चोरी करके भाग जाता है तो उसे पकड़ने वाले में भी भगवान ही हैं। 

कुछ लोग इसका असल मतलब नहीं समझे और उन्हें लगा कि यह भजन भगवान को चोर कहता है। उन्हें यह पसंद नहीं आया और उन्होंने विरोध किया। हमने लोगों को इस दोहे का असल मतलब समझाया कि भगवान हर जगह हैं। तब उन्होंने हमारा साथ दिया। कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्होंने भजन का मतलब खुद से समझा और विरोध करने वालों को समझाने में हमारी सहायता की। लोग कबीर, मीरा, बुल्ले शाह आदि के शब्दों को नकार नहीं सकते क्योंकि ये सभी इन इलाकों से ही हैं।  

महिलाएं भी पितृसत्ता के कारण मंडली में शामिल नहीं होतीं थीं। उन्होंने भी हमारी मंडली में भाग लिया क्योंकि हम गीत के शब्द समझाते हैं और लैंगिक भेदभाव के ख़िलाफ़ भी बोलते हैं।  

इस तरह यह हमारा सांस्कृतिक माध्यमों के जरिए लोगों को अधिकार और समानता, प्यार, करुणा, सद्भावना से परिचित करने का एक तरीक़ा है। 

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क्यों जैसलमेर के किसानों को सोलर प्लांट नहीं चाहिए

जैसलमेर के ओरण (पवित्र बगीचा) को स्थानीय लोगों द्वारा पारंपरिक रूप से सामान्य भूमि के रूप में माना जाता रहा है। जैसलमेर में ज़्यादातर घुमंतू और चरवाहे समुदाय के लोग रहते हैं जो इस विशाल भूमि की देखभाल करते हैं और इलाके के समृद्ध जैव-विविधता का ध्यान भी रखते हैं। इसके बदले में, यह भूमि इन्हें अपने गायों और भैंसों के लिए चारे उपलब्ध करवाती है। हाल ही में, अक्षय ऊर्जा का उत्पादन करने के लिए भूमि के इन बड़े हिस्सों में सौर संयंत्र स्थापित किए गए हैं।

आम धारणा के विपरीत, इन संयंत्रों से स्थानीय लोगों को नौकरियां नहीं मिल रही हैं – यहां के ज़्यादातर कामों की प्रकृति तकनीकी है और समुदाय के लोग इन कामों के लिए प्रशिक्षित नहीं हैं। स्थानीय लोगों को इन संयंत्रों में सुरक्षा गार्ड आदि जैसे कम-वेतन वाले काम ही मिल सकते हैं। इसके अलावा, ये संयंत्र घास की पैदावार को बर्बाद कर रहे हैं जिसका उपयोग यहां के स्थानीय लोग अपने मवेशियों के चारे के रूप में करते हैं। कुछ किसान सोलर फ़र्म में काम कर रहे कर्मचारियों को घी और दूध बेच कर अपनी आजीविका चला रहे हैं। लेकिन घी और दूध का उत्पादन भी मवेशियों के अच्छे और पौष्टिक भोजन पर ही निर्भर होता है।

एक अन्य प्रासंगिक मुद्दा यह है कि सौर संयंत्र उन विभिन्न जानवरों की प्रजातियों को नुकसान पहुंचा रहे हैं जिनके लिए ये ओरण उनका घर हैं। ओरण पारिस्थितिक रूप से विविध हैं और लुप्तप्राय या महत्वपूर्ण के रूप में सूचीबद्ध कई प्रजातियों को सुरक्षा प्रदान करते हैं। पश्चिमी राजस्थान में, ये जंगल गंभीर रूप से लुप्तप्राय सोन चिरैया या गोडावण (ग्रेट इंडियन बस्टर्ड) का घर हैं, जिनमें से लगभग 150 ही बचे हैं। सौर और पवन ऊर्जा परियोजनाओं के हिस्से के रूप में बिछाई गई कई हाई-टेंशन बिजली की तारें ओरण से होकर गुजरती हैं। बिजली की ये तारें पक्षियों के लिए ख़तरा हैं और इनसे टकराने से पक्षियों की मृत्यु के कई मामले सामने आए हैं। ओरण भूमि के नुकसान ने चल रहे संरक्षण प्रयासों को भी बाधित किया है।

वर्तमान में, ओरण भूमि पर इन संयंत्रों की स्थापना को लेकर राजस्थान में पर्याप्त मात्रा में आंदोलन किया जा रहा है। समुदाय के लोग सोलर प्लांट के निर्माण के विरोध में नहीं हैं लेकिन वे चाहते हैं कि इससे होने वाले नुक़सान एवं प्रभावों पर ढंग से बात की जाए और उनकी गंभीरता को समझा जाए। इसलिए यदि ओरण का कुल क्षेत्रफल 100 बीघा है तो उसमें से केवल 25 बीघा का इस्तेमाल ही सोलर प्लांट के निर्माण के लिए किया जाना चाहिए। पिछले सप्ताह 15 ओरणों के लगभग 30 समुदायिक नेता KRAPAVIS द्वारा आयोजित वर्कशॉप में शामिल हुए थे जहां उन्होंने ओरणों से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर बातचीत की।

2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने घोषणा की थी कि ओरण को जंगल माना जाता है लेकिन स्थानीय सरकारों ने इन्हें जंगल माने जाने की इस मुहिम में तेज़ी नहीं दिखाई और उन्हें जंगल की श्रेणी में नहीं माना गया। इसके अतिरिक्त सोलर पावर परियोजनाओं को पर्यावरणीय प्रभाव के मूल्यांकनों से बाहर रखा गया है। नतीजतन, बड़ी कम्पनियों को स्थानीय लोगों और पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में बिना जाने ही अपनी परियोजनाओं को स्थापित करने में आसानी होती है।

अमन सिंह राजस्थान में जमीनी स्तर पर समाजसेवी संगठन, कृषि एवं पारिस्थितीकी विकास संस्थान (KRAPAVIS) के संस्थापक हैं।

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कोई उस्मानाबाद की महिला किसानों से व्यापार सीखे!

अन्य महिलाओं के साथ चर्चा में अर्चना माने_महिला किसान
खेती एवं खेती से जुड़े व्यापारों ने मुझे और मुझ जैसी कई महिला किसानों को समृद्धि, स्वास्थ्य, भोजन तथा जल सुरक्षा हासिल करने में मदद की। | चित्र साभार: अर्चना माने

कोई भी नौकरी आपको एक दिशा देती है। यह किसी गोले की परिधि में आपको सीमित करती है। बात यह भी है कि नौकरियों की संख्या सीमित है। वहीं, दूसरी तरफ़ व्यापार सूरज की रौशनी की तरह है जो हर दिशा में फैलती है। एक खेतिहर किसान के रूप में जैविक तरीक़ों से खेती शुरू करने के पहले ही साल में मुझे लगभग 70,000 रुपए की आमदनी हुई थी। आज 13 वर्षों बाद, मेरे पास 4.5 एकड़ ज़मीन और खेती से जुड़े पांच व्यापार हैं जिनमें वर्मीकम्पोस्ट, मुर्गीपालन और गाय तथा बकरी जैसे मवेशियों का पालन शामिल है। मेरी वार्षिक आमदनी 10 लाख रुपए है। 

खेती एवं खेती से जुड़े व्यापारों ने मुझे और मुझ जैसी कई महिला किसानों को समृद्धि, स्वास्थ्य, भोजन तथा जल सुरक्षा हासिल करने में मदद की है। इसने हमारे बच्चों का भविष्य भी सुरक्षित किया है। यह रासायनिक खेती से कम महंगा है। हालांकि यह सच है कि शुरू करने के बाद लाभ कमाने में थोड़ा समय लगता है लेकिन लम्बे समय में इससे होने वाला लाभ अधिक है।

मेरे माता-पिता भी किसान थे और उनकी चुनौतियों को देखकर मैं खेती-किसानी के काम में नहीं जाना चाहती थी। उनके पास किसी प्रकार की औपचारिक शिक्षा नहीं थी और लोगों ने इसका बहुत फ़ायदा उठाया। उन्हें अपने ही एक रिश्तेदार से अपनी ज़मीन वापस लेने के लिए 12 साल तक अदालत में मुक़दमा लड़ना पड़ा जिससे उनकी हालत ख़स्ता हो गई। उनके पास 2.5 एकड़ वाली ज़मीन का एक टुकड़ा था जो हमारे गांव से बहुत दूर था और इस ज़मीन का लगभग आधा एकड़ हिस्सा पूरी तरह से बंजर था।

स्वयं शिक्षण प्रयोग (एसएसपी) के साथ प्रशिक्षण लेने के बाद ही मुझे ज़मीन और जानवरों के मालिक होने की क्षमता का एहसास हुआ। महिलाएं खेत में काम करते समय बहुत अधिक समय और मेहनत लगाती हैं। फिर, उन्हें भी किसान और उद्यमी की पहचान क्यों नहीं मिलनी चाहिए? एसएसपी के साथ किसानों के लिए एक सखी और मेंटॉर के रूप में मैंने लगभग 50 गांवों की अनगिनत महिलाओं को उनके परिवार से एक एकड़ ज़मीन का मालिकाना हक़ प्राप्त करने के लिए की जाने वाली बातचीत में मदद की है। जब उनके पास अपनी कोई जमीन नहीं होती है, तो हम उन्हें पैसे के लिए या अन्य किसानों से फसल के बंटवारे के लिए जमीन पट्टे पर देने में मदद करते हैं। अगर उन्हें खेती के लिए जमीन नहीं मिलती है, तो मैं उन्हें मुर्गीपालन, पशुपालन, वर्मीकम्पोस्ट या एजोला जैसे जैविक कीटनाशकों जैसे विविध कृषि-व्यवसाय शुरू करने के लिए तैयार करती हूं।

इस मॉडल से हमें प्रवास को रोकने में भी मदद मिली। सखी गोदावरी डांगे के बेटे के पास कृषि में स्नातक की डिग्री है और उसे एक सरकारी नौकरी मिल सकती है। लेकिन उसने खेती करना चुना क्योंकि उसे इसके फ़ायदे दिखाई दे रहे हैं। प्रशिक्षक एवं किसान वैशाली बालासाहेब घूघे ने शहर में नर्सरी की अपनी नौकरी छोड़ दी ताकि वह अपनी बॉस खुद बन सके। अब उसके पास अपना खुद का खेती से जुड़ा व्यापार है और अपने प्रशिक्षण के सत्रों के लिए खुद के दो कमरे भी हैं। उसके पति और बेटे उसके व्यापार को बढ़ाने में उसकी मदद करते हैं। महामारी के दौरान जब प्रवासी अपने गांवों को वापस लौट रहे थे तब उसने कइयों को अपने खेत के उत्पादों की पैकेजिंग और ट्रांसपोर्टिंग का काम दिया था। 

खेती और उससे जुड़े व्यवसाय शुरू करने से न केवल महिलाओं को फायदा हुआ है बल्कि उनके आसपास का पूरा समुदाय लाभान्वित हुआ है।

अर्चना माने स्वयं शिक्षण प्रयोग में कृषि की मेंटर-ट्रेनर हैं।

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जेल वापसी का आदेश

2020 में, COVID-19 के बढ़ते मामलों को देखते हुए अन्य जगहों के साथ-साथ जेलों में भी भीड़ कम करने की आवश्यकता महसूस हुई। इसके मद्दे नज़र सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति ने दिल्ली में 3,000 से अधिक अंडरट्रायल कैदियों और दोषियों को अंतरिम जमानत या पैरोल पर रिहा कर दिया। कोर्ट ने 25 मार्च 2023 को पैरोल पर रिहा हुए सभी को 15 दिन के भीतर वापस लौटने का आदेश दिया है।

तीन साल लम्बा समय होता है। इस दौरान बेल पर बाहर निकले लोगों के जीवन में कई तरह के बदलाव आ चुके हैं। दिल्ली के उत्तर पश्चिम जिला के रोहिणी इलाक़े में रहने वाले नागेंद्र को नौकरी के लिए एक साल तक संघर्ष करना पड़ा। उसने बताया कि “मुझे एक पार्ट-टाइम नौकरी ढूँढने में एक साल लग गया। निजी क्षेत्रों में नौकरी के लिए जाने पर वे लोग सबसे पहले सत्यापन (वेरिफ़िकेशन) करते हैं; इससे उन्हें मेरी पृष्ठभूमि के बारे में पता चल जाता है।” जब वह इस पार्ट-टाइम नौकरी और साइबर कैफ़े में अपनी नौकरी के साथ संघर्ष कर रहा है उसी बीच उसके वह चाचा लकवाग्रस्त हो गए जिन्होंने जेल में रहने के दौरान उसे आर्थिक और भावनात्मक सहारा दिया था। इसका सीधा अर्थ अब यह है कि 12 लोगों वाले अपने संयुक्त परिवार के लिए अब वह और उसका भाई ही कमाई का एकमात्र स्त्रोत रह गए हैं।

नौकरी पाने में इसी तरह की चुनौतियों का सामना करने के बाद, दिल्ली के पश्चिम जिले के नांगलोई में रहने वाले शुभंकर ने पहले नमक बेचने का काम शुरू किया और फिर दुकान लगाने के लिए पैसे उधार लिये। अब उसे जेल वापस लौटना है और परिवार को उसका व्यापार चलाने में मुश्किल होगी।

उसका कहना है कि “मेरे पिता कोविड-19 से संक्रमित हो गए थे और उनकी हालत ठीक नहीं है। उनके हाथ में इन्फेकशन है और उनकी उँगलियों ने काम करना बंद कर दिया है। अपने घर में मैं ही एकलौता कमाने वाला हूं। मैंने अपने परिवार में किसी को भी जेल वापस लौटने वाली बात नहीं बताई है। मैं उन्हें परेशान नहीं करना चाहता हूं।”

शुभंकर अपने काम के लिए लिए गए कर्ज को ना लौटा पाने को लेकर चिंतित है। “अब जब मैं आत्मसमर्पण करता हूं और उधार लिए गए पैसे नहीं लौटाता हूं तो लोग मुझे धोखेबाज़ समझेंगे। फिर कभी कोई मेरी मदद नहीं करेगा।”

नागेंदर प्रोजेक्ट सेकेंड चांस में एक फील्ड वर्कर भी हैं, जो दिल्ली में जेल सुधार पर केंद्रित एक समाजसेवी संस्था है। शुभंकर दिल्ली में अपना व्यापार करने वाले एक सूक्ष्म उद्यमी हैं।

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ओड़िशा में मछली पालन बना आजीविका का नया साधन

 हाथों में मछली का चारा_मछली पालन
पिछले छह महीनों में, समानंद और उनकी पत्नी ने मछली का चारा बेचकर लगभग 50,000 रुपये कमाए हैं। | चित्र साभार: अभिजीत मोहंती

कई सालों तक मल्कानगिरी की आदिवासी बस्तियां लगभग खाली थीं। ओडिशा के इस दक्षिणी जिले के गांवों के युवा पड़ोसी राज्य आंध्र प्रदेश के शहरों में बेहतर अवसरों की तलाश में जाते रहे हैं। लेकिन 2020 में कोविड-19 महामारी के साथ ही सब कुछ बदल गया। दरअसल नौकरियां दुर्लभ हो गईं और लोगों को अपने गांव वापस लौटना पड़ा। इसी बीच चमत्कारिक रूप से मत्स्यपालन से जुड़े कामों ने युवा आदिवासियों को घर पर लाभ कमाने वाली आजीविका खोजने में मदद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। एक तटीय राज्य होने के नाते, मछली ऐतिहासिक रूप से ओडिशा में लोगों के जीवन और आजीविका का अभिन्न अंग रही है। हालांकि मल्कानगिरी जमीन से घिरा हुआ है और समुद्र से दूर है। यहां कई नदियां और तालाब हैं जिनमें अंतर्देशीय मछली पालन की अपार संभावनाएं हैं। लेकिन इसमें एक समस्या है। 

राज्य मत्स्य विभाग के एक कनिष्ठ मत्स्य तकनीकी सहायक कैलाश चंद्र पात्रा कहते हैं, “छोटे पैमाने के किसान महंगा चारा खरीदने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं।” यह बदले में कम उपज देता है। इस चुनौती से निपटने के लिए मत्स्य विभाग ने मछली चारा उत्पादन कार्यक्रम शुरू किया है। 

चित्रकोंडा प्रखंड के सिंधीगुगा गांव के समानंद कुआसी इस कार्यक्रम में शामिल होने वालों में से एक थे। उनका कहना था कि “इसने मुझे आशा दी। मुझे मछली चारा उत्पादन इकाई स्थापित करने के लिए 1,38,300 रुपये मिले।” वह और उनकी पत्नी साईबाती अब मछली के चारे का उत्पादन कर रहे हैं और इसे उचित मूल्य पर किसानों को बेच रहे हैं। 2021 में इकाई की स्थापना के बाद से दंपति ने 30 क्विंटल से अधिक चारा उत्पादन किया है। 

इससे पहले आंध्र प्रदेश में एक प्रवासी श्रमिक के रूप में, समानंद अपनी मामूली कमाई से कुछ भी बचाने में असमर्थ थे और अक्सर “उनके घरेलू खर्च भी पूरे नहीं पड़ते थे।” पिछले छः महीने से समानंद और उसकी पत्नी ने मछली बेचकर लगभग 50,000 रुपए से अधिक की धनराशि कमाई है। वह कहते हैं कि “मुझे अब दोबारा आंध्र जाने की ज़रूरत नहीं है।”

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अभिजीत मोहंती भुवनेश्वर स्थित पत्रकार हैं। यह एक लेख का संपादित अंश है जो मूल रूप से विलेज स्क्वायर पर प्रकाशित हुआ था।

अधिक जानें: जानें किस तरह तालाबों में की जाने वाली खेती ने महाराष्ट्र में अंगूर के किसानों की आय में वृद्धि की है।
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जन आधार कार्ड: महिलाओं की शिक्षा में नई बाधा?

साड़ी से सिर ढकी महिला कागज के एक टुकड़े पर लिख रही है_जन आधार
राजस्थान राज्य मुक्त विद्यालय को कक्षा 10 की परीक्षा के लिए पंजीकरण के लिए जन आधार कार्ड की आवश्यकता है। | चित्र साभार: एजुकेट गर्ल्स

राजस्थान के पाली जिले के ओडो की ढाणी गांव की रहने वाली नीलम* की उम्र 23 साल है। उनकी शादी 17 साल की उम्र में हो गई थी। अपनी शादी में छह साल तक शोषण झेलने के बाद 2022 में उन्होंने अपने पति को तलाक दे दिया। तब से, नीलम अपनी चार साल की बेटी को लेकर अपने माता-पिता के साथ रह रही हैं।

नीलम आगे पढ़ना चाहती हैं और आर्थिक रूप से सुरक्षित होना चाहती हैं। उनका कहना है कि “मैं 10वीं और 12वीं क्लास की परीक्षा पास करना चाहती हूं। मैंने केवल 8वीं कक्षा तक की ही पढ़ाई की है क्योंकि मेरे गांव के स्कूल में उससे आगे की पढ़ाई नहीं होती है। माध्यमिक प्रमाणपत्र होने पर मैं आंगनवाड़ी कर्मचारी या नरेगा साथी (सुपरवाइज़र) जैसी नौकरियों के लिए आवेदन दे सकती हूं। यहां तक कि किसी स्वयं-सहायता समूह में ख़ज़ांची बनने के लिए भी 10वीं कक्षा के प्रमाणपत्र की ज़रूरत होती है।”

नीलम वर्तमान में एक लर्निंग कैम्प में पढ़ रही हैं और 10वीं की बोर्ड परीक्षा देने के लिए तैयार हैं। हालांकि परीक्षा के लिए पंजीकरण करने की प्रक्रिया एक अलग ही चुनौती – जन आधार कार्ड के साथ आई है।

2019 में राजस्थान सरकार ने जन आधार कार्ड को राज्य द्वारा संचालित जन कल्याणकारी योजनाओं के वितरण को सुव्यवस्थित और एकीकृत करने के उद्देश्य के साथ लॉन्च किया था। परिवार की महिला मुखिया के नाम पर पंजीकृत, जन आधार कार्ड परिवार और एक व्यक्ति के लिए एक पहचान दस्तावेज के रूप में भी कार्य करता है। 2022 से, राजस्थान राज्य ओपन स्कूल द्वारा प्रशासित 10वीं कक्षा की परीक्षा सहित राज्य सरकार की कई योजनाओं से लाभान्वित होने और कई पंजीकरण प्रक्रियाओं के लिए कार्ड को अनिवार्य बना दिया गया है। हालांकि यह कई लोगों के लिए शिक्षा पाने में बाधा भी बन रहा है, विशेषकर नीलम जैसी तलाकशुदा महिलाओं के लिए जो स्कूल में दोबारा नामांकन करवाकर पढ़ने की कोशिश कर रही हैं। 

शादी हो जाने के बाद परिवार के जन आधार से महिलाओं का नाम हटा दिया जाता है और उनके ससुराल के कार्ड में जोड़ दिया जाता है। तलाक के बाद, उन्हें अपने परिवार के जन आधार पर अपना नाम फिर से दर्ज कराना होगा, जो एक अलग काम है और इसके लिए दर-दर भटकना पड़ता है।

फरज़ाना, लड़कियों को उनकी माध्यमिक शिक्षा पूरी करने में मदद करने वाली समाजसेवी संगठन एजुकेट गर्ल्स के साथ काम करती हैं। उनका कहना है कि “मैं नीलम के साथ कई बार ग्रामीण स्थानीय सरकारी इकाई यानी कि पंचायत समिति और सब-डिविज़नल मजिस्ट्रेट ऑफिस गई। हमने कई अधिकारियों से उसकी स्थिति के बारे में बातचीत की। हमने सरपंच और पंचायत सचिव से एक-एक आवेदन पत्र भी लिखवाए और उन्हें लेकर तहसीलदार के दफ़्तर गए। तहसीलदार से सत्यापित करवाने के बाद आवेदन दोबारा पंचायत सचिव के पास गया। हमें एक एफ़िडेविट जमा करवाना था जिस पर यह लिखा होना था कि नीलम की शादी के बाद उसका नाम परिवार के जन आधार कार्ड से हटवा दिया गया था लेकिन चूंकि अब वह अपने माता-पिता के साथ ही रहती है तो उसका नाम दोबारा जोड़ा जाए।”

एक महीने तक तमाम सरकारी दफ़्तरों में जाने और कर्मचारियों से मिलने के बाद हम आखिरकार नीलम का नाम उसके परिवार के जन आधार कार्ड में जुड़वाने में सफल हुए। लेकिन तब तक राजस्थान राज्य मुक्त विद्यालय में पंजीकरण की समयसीमा वर्तमान सत्र के लिए खत्म हो चुकी थी और अब यह 2023 के जून महीने में दोबारा खुलेगी। इसका मतलब यह है कि नीलम अपनी परीक्षा 2024 के अप्रैल में ही दे पाएगी।

*गोपनीयता के लिए नाम बदल दिया गया है।

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

फरज़ाना एजुकेट गर्ल्स के साथ मिलकर महिलाओं की शिक्षा के लिए काम करती हैं; नीलम एजुकेट गर्ल्स द्वारा आयोजित लर्निंग कैंप में पढ़ रही हैं।

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अधिक करें: फरज़ाना के काम के बारे में विस्तार से जानने और उन्हें अपना सहयोग देने के लिए उनसे [email protected] पर सम्पर्क करें।

 

जैसलमेर में बारिश होना अच्छी ख़बर क्यों नहीं है

बीते कई सालों से राजस्थान की बारिश अप्रत्याशित हो गई है। पहले चार महीने की (जिसे चौमासा कहा जाता है) लगातार बारिश होती थी। यह बारिश जून के अंतिम सप्ताह में शुरू होकर सितम्बर तक होती थी। अब मानसून देरी से आता है और जब आता है तो बाढ़ आ जाती है। एक तरफ़, सर्दी का मानसून—जिसमें सर्दियों में 15 से 20 दिनों तक बारिश होती है—अब समाप्त हो चुका है। दूसरी तरफ़, थार के रेगिस्तानी इलाके में अक्सर ही बाढ़ आने लगी है और जैसलमेर जैसे ज़िलों में हरियाली आ गई है जहां पहले रेगिस्तान था। इस तरह के बदलावों ने समुदायों की फसल और खानपान के तरीके को भी बदल दिया है।

परंपरागत रूप से, जैसलमेर जिले में रहने वाले समुदाय सर्दियों के मौसम में खादिन (कृषि के लिए सतही जल संचयन के लिए बनाई गई एक स्वदेशी प्रणाली) में चना उगाया करते है। चने की फसल सर्दियों के मानसून के दौरान कम बारिश पर निर्भर करती है, और अत्यधिक वर्षा इसके विकास के लिए हानिकारक होती है। इसलिए, जैसलमेर की जलवायु में बदलाव और सिंचाई नहरों की स्थापना के साथ, चने की लोकप्रियता में कमी आ रही है और गेहूं सर्दियों की पसंद की फसल के रूप में उभरा है क्योंकि यह चने की तुलना में अधिक पानी की मांग करता है। आजकल, जैसलमेर में, भूजल की कमी जैसे दीर्घकालिक प्रभावों के बावजूद लोग गेहूं के खेतों की सिंचाई के लिए बोरवेल और नलकूपों का उपयोग कर रहे हैं। वास्तव में, 600 से 1,200 फीट की गहराई तक खोदे गए बोरवेल को देखना कोई असामान्य बात नहीं है।

गेहूं के अलावा, समुदायों ने उन नकदी फसलों की ओर रुख किया है जो इन क्षेत्रों में लगभग अनुपस्थित थीं। आज जैसलमेर में किसानों के बाजार मूंगफली और प्याज जैसी फसलों से भरे हुए हैं। गेहूं, प्याज और कपास ने बाजार पर कब्जा कर लिया है और पारंपरिक खाद्य फसलों जैसे बाजरा (मोती बाजरा) वगैरह गायब हो चुके हैं। अप्रत्याशित बारिश के पैटर्न के कारण भी खाने की कुछ किस्में थाली से ग़ायब हो चुकी हैं। ओरान (पवित्र उपवन) सेवन और तुम्बा जैसी जंगली घासों से भरे होते थे जो मानसून के दौरान उगते थे। यहां बसने वाले समुदाय के लोग सेवन घास के दानों का उपयोग रोटी बनाने के लिए करते थे। लेकिन अब ऐसा नहीं है क्योंकि घास को उगने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिलता है।

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अमन सिंह राजस्थान में जमीनी स्तर पर काम करने वाले एक समाजसेवी संगठन, कृषि एवं पारिस्थितिकी विकास संस्थान (KRAPAVIS) के संस्थापक हैं।

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