‘वाटरमैन ऑफ़ इंडिया’ कहे जाने वाले राजेंद्र सिंह ने आईडीआर से हुई इस खास बातचीत में जलवायु परिवर्तन, जल संरक्षण, पर्यावरण संरक्षण और ग्राम विकास पर विस्तार से बात की है। यहां उनसे जानिए कि कैसे सिर्फ पानी बचाकर गांव आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन सकते हैं।
राजेंद्र सिंह राजस्थान के अलवर ज़िले से संबंध रखने वाले एक जल-संरक्षणवादी और पर्यावरण के जानकार हैं। उन्हें साल 2001 में ‘रेमन मैगसेसे अवार्ड’ और साल 2015 में पानी का नोबेल पुरस्कार कहे जाने वाले ‘स्टॉकहोम वाटर प्राइज़’ से सम्मानित किया गया था। वे तरुण भारत संघ (टीबीएस) के संस्थापक हैं। तरुण भारत संघ 45 वर्ष पुरानी एक ऐसी स्वयंसेवी संस्था है जो बारिश के पानी को इकट्ठा करने के लिए जोहड़1 और अन्य जल संरक्षक ढांचों का निर्माण कर गांवों को आत्मनिर्भर बनाने का काम कर रही है। राजेंद्र ‘राष्ट्रीय जल बिरादरी’ नामक जल से संबंधित संगठनों के एक राष्ट्रीय समूह का मार्गदर्शन करते हैं। इस समूह ने भारत में 100 से अधिक नदियों के कायाकल्प पर काम किया है।
आईडीआर के साथ अपने इस इंटरव्यू में उन्होंने बताया है कि जल संरक्षण पर काम करने के लिए उन्हें किन चीजों ने प्रेरित किया। साथ ही, वे यह भी बता रहे हैं कि एक गांव के लिए सच्ची आत्मनिर्भरता का अर्थ क्या होता है और कैसे महामारी ने विकास के कुछ विनाशकारी प्रभावों को एक हद तक उलट दिया है।
एक दिन मंगू मीना नाम के एक बुजुर्ग किसान ने मुझसे कहा ‘हमें दवाओं की ज़रूरत नहीं है। हमें पढ़ाई-लिखाई की भी ज़रूरत नहीं है। हमें सबसे पहले पानी चाहिए।’ दूसरे गांवों की तुलना में गोपालपुरा के लोग भयानक जल संकट का सामना कर रहे थे। वहां की ज़मीन पूरी तरह से बंजर और उजाड़ थी। मैंने उन्हें बताया कि मैं जल संरक्षण के बारे में कुछ भी नहीं जनता हूं। उस बुजुर्ग किसान ने मुझसे कहा ‘मैं तुम्हें सिखाउंगा।’ अब आप तो जानते हैं कि कम उम्र में हम कैसे होते हैं – कितने सवाल करते रहते हैं। इसलिए मैंने उनसे पूछ डाला कि ‘अगर आप मुझे सिखा सकते हैं तो खुद क्यों नहीं करते?’ आंखों में आंसू भरे उस बुजुर्ग ने मुझसे कहा ‘पहले हम लोग यह काम खुद ही करते थे, लेकिन जब से गांव में चुनाव होने लगे हैं तब से यहां के लोगों ने खुद को कई दलों में बांट लिया है। अब वे सब न तो एक साथ मिलकर काम करते हैं और न ही साझे भविष्य के बारे में सोचते हैं। लेकिन आप किसी पक्ष के नहीं हैं। आप हम सबके हैं।’ मैं उस बुजुर्ग की बात समझ चुका था। हालांकि वे शिक्षित नहीं थे लेकिन बुद्धिमान थे। मैंने जल संरक्षण पर काम करना शुरू कर दिया।
पानी से जुड़ी हर तरह की ट्रेनिंग में मुझे दो दिनों का समय लगा। मंगू काका मुझे गांव के सभी 25 सूखे कुओं पर लेकर गए और धरती की सतह देखने के लिए मुझे उन कुओं में 80 से 150 फ़ीट नीचे उतरने के लिए कहा। मुझे कुएं के भीतर कई क़िस्म की दरारें दिखीं और मैं समझ गया कि सूरज से बचाकर हम पानी कैसे बचा सकते हैं। हालांकि राजस्थान में बारिश या पानी का स्त्रोत सूर्य ही है लेकिन वह पानी का सबसे बड़ा चोर भी है। वाष्पीकरण प्रक्रिया से सूर्य बहुत सारा पानी चुरा भी लेता है। मेरा काम जल इकट्ठा करने के उन अलग-अलग तरीक़ों की खोज करना था जिससे उसे धरती के गर्भ तक पहुंचाया और वाष्पीकरण से बचाया जा सके।
गोपालपुरा में मैंने जोहड़ बनाकर बिल्कुल यही काम किया। सिर्फ़ एक मानसून की बारिश के बाद ही कुओं और भूमिगत जलस्रोतों में जान आने लगी। इस पानी ने सूख चुके छोटे-छोटे झरनों को फिर से जीवंत कर दिया था। इसके लिए हमें केवल इतना करना था कि भूमिगत जल स्रोतों का पानी रिचार्ज होता रहे। धीरे-धीरे यह काम आसपास के अन्य गांवों और फिर राज्यों में फैल गया। इसने 12 नदियों को पुनर्जीवित कर दिया। ये नदियां अब बारहमासी हो चुकी हैं और इनमें हमेशा पानी रहता है।
अब जब गांव में पानी वापस आ गया था तब गांव वालों ने पलायन कर गए लोगों को वापस घर बुलाना शुरू कर दिया – इससे वहां उल्टा पलायन हुआ। उन लोगों ने फिर से ज़मीन पर खेती का काम शुरू कर दिया। पहली फसल के तैयार होने के बाद गांववालों ने अपने सभी रिश्तेदारों को इस बारे में बताया कि कैसे उन्हें पानी मिला और फिर किस तरह उन्होंने खेती शुरू की। उन रिश्तेदारों ने मुझे अपने गांवों में बुलाना शुरू कर दिया। जल संरक्षण कार्य अब गोपालपुरा से निकलकर करौली, धौलपुर, सवाई माधोपुर, भरतपुर और अन्य इलाक़ों में फैलना शुरू हो गया था। मैंने तीन प्रकार की यात्रा शुरू की: पहली यात्रा थी ‘जल बचाओ जोहड़ बनाओ’; ‘ग्राम स्वावलंबन’ (गांव की आत्मनिर्भरता) मेरी दूसरी यात्रा थी; और तीसरी यात्रा थी ‘पेड़ लगाओ, पेड़ बचाओ।’ इन यात्राओं और पहले से मौजूद नेटवर्क के जरिए हमने अपने काम का विस्तार किया।
अपने गांव में पानी वापस आता देख उन्होंने जल संरक्षण पर काम करना शुरू किया और दोबारा खेती करने लगे।
जल्द ही इलाक़े के लोगों को इस काम का असर दिखाई देने लगा। पानी की कमी के चलते करौली में लोग असहाय हो चुके थे और बेरोज़गारी के कारण ग़ैर-क़ानूनी काम करने के लिए बाध्य थे। लेकिन अपने गांव में पानी वापस आता देख उन्होंने जल संरक्षण पर काम करना शुरू किया और दोबारा खेती से जुड़े कामों की तरफ़ बढ़ गए। इस इलाक़े में जंगल दो फ़ीसदी क्षेत्र से बढ़कर 48 फीसदी क्षेत्र में फैल गया था। जो लोग पहले गांव छोड़कर जयपुर के ठेकेदारों के लिए ट्रक-लोडर का काम करते थे, उन्होंने अब उन्हीं ठेकेदारों को अपनी फसल बाज़ार तक पहुंचाने का काम देना शुरू कर दिया। वे अब रोज़गार देने वाले बन गए हैं। वे अब उन्हीं लोगों को रोजगार दे रहे हैं जिनके लिए वे पहले मजदूरी किया करते थे।
जल संरक्षण का सबसे अधिक प्रभाव सूक्ष्म-जलवायु (माइक्रो-क्लाइमेट) पर पड़ा है। पहले अरब सागर से आने वाले बादल हमारे गांवों के ऊपर से गुजरते तो थे लेकिन इनसे बारिश नहीं होती थी। ऐसा इसलिए होता था क्योंकि क्षेत्र में हरियाली कम थी और खदानों और शुष्क क्षेत्रों की गर्मी इन बादलों को संघनित होने और बरसने से रोक देती थी। अब क्षेत्र में हरियाली का प्रतिशत बढ़ चुका है और उनके ऊपर सूक्ष्म-बादल बनने लगे हैं। अरब सागर से आने वाले बादल इन सूक्ष्म-बादलों से मिलकर बारिश करते हैं। हरियाली बढ़ने से मिट्टी और हवा में नमी होने के कारण तापमान में भी कमी आई है। इस तरह हमारे जल संरक्षण के काम ने इलाक़े में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने में भी मदद की है।
सबसे बड़ी चुनौती हमें सरकार से मिली थी। गोपालपुरा में सिंचाई विभाग ने सिंचाई एवं जल निकास अधिनियम 1954 के तहत निषेध लगाने की कोशिश की थी। उनका कहना था कि हमारे काम से ‘उनका’ पानी रुक रहा है। अब जब बारिश का पानी किसी के खेत पर पड़ता है तो वह पानी किसका होता है? किसान का या बांध का? मैंने उनसे कहा ‘अगर किसान के खेत में पड़ने वाला बारिश का पानी किसान का नहीं है तो आपको बारिश को रोक देना चाहिए, पूरे गांव में बारिश मत होने दीजिए।’ हमने किसी दूसरे का पानी नहीं रोका था। हम केवल खेत पर गिरने वाले बारिश के पानी को जमा कर रहे थे। हमारा नारा था ‘खेत का पानी खेत में, गांव का पानी गांव में।’ एक गांव आत्मनिर्भर तभी बन सकता है जब उसके पास अपना पानी हो। और इस पानी से उन्हें ख़ुशी, आत्मविश्वास, गर्व महसूस होता है।
सरकार की वास्तविक समस्या यह थी कि हम बहुत ही कम लागत के साथ बांध बना रहे थे। इसी काम को करने के लिए उनके पास करोड़ों का बजट था और वे ठेकेदारों को काम पर रखते थे। उन्हें डर था कि ऐसा करने से उनका भ्रष्टाचार सबके सामने आ जाएगा।
मुझे लगता है कि कोविड-19 के नकारात्मक प्रभावों के बावजूद इसके कुछ सकारात्मक असर भी हुए हैं। इससे लोगों को तथाकथित विकास से होने वाले विनाश के बारे में पता चला है। सरकार की विकास रणनीतियों से होने वाला विनाश। अभी तक विकास ने केवल विनाश, विस्थापन और आपदा को ही जन्म दिया है। जो लोग विस्थापित हो गए थे और शहरों में काम करने के लिए अपने गांव छोड़ गए थे, कोविड-19 के कारण वे लौटे – यह एक क्रांति है। लेकिन क्रांति अपने आप में पर्याप्त नहीं होगी; परिवर्तन लाने के लिए इस क्रांति को कार्यवाही के साथ जोड़ने की ज़रूरत होती है, तभी कुछ बदल सकता है।
कहने का मतलब यह है कि हमें प्रकृति से ही गांवों में समृद्धि लाने के तरीक़े ढूंढने की ज़रूरत है। हमें मृदा और जल के संरक्षण और प्रबंधन, हर घर में बीज भंडारण, खुद से खाद बनाने आदि जैसे काम करने होंगे। हमें अब और अधिक विकास नहीं चाहिए, हम मानव जाति और प्रकृति को फिर से नया करना चाहते हैं।
भारत वास्तविक अर्थों में गणराज्य तभी बनेगा जब यहां के गांव आत्मनिर्भर और आत्म–नियंत्रित इकाइयों में बदलेंगे।
प्रकृति के पुनर्जीवन से सबके लिए रोज़गार पैदा होगा और आर्थिक आत्मनिर्भरता का रास्ता बनेगा। सरकार द्वारा की जाने वाली बातों से आत्मनिर्भरता नहीं आएगी। आत्मनिर्भरता हवा से नहीं आती है; आत्मनिर्भरता मिट्टी से शुरू होती है। यह तब आती है जब गांव के लोग अपने जीवन की सभी ज़रूरतों के लिए गांव में ही रोज़गार ढूंढ़ लेते हैं और उसे बनाए रखते हैं। इसमें खेती भी शामिल है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि गांव के पास अपना पानी हो। कोई गांव तभी आत्मनिर्भर बन सकता है जब उसके पास अपना पानी हो। और भारत वास्तविक अर्थों में गणराज्य तभी बनेगा जब यहां के गांव आत्मनिर्भर और स्व-नियंत्रित इकाइयों में बदलेंगे।
राष्ट्रीय जल बिरादरी नाम का हमारा एक राष्ट्रीय स्तर का समूह है। यह आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, तेलंगाना और उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में सक्रिय है। लॉकडाउन के दौरान हमने अपनी प्रक्रिया के बारे में लोगों को बताने के लिए टेलीफ़ोन पर बातचीत की और कई वेबिनार आयोजित किए। उनसे कहा कि वे हमारे संदेशों को अपने इलाक़ों तक पहुंचाएं। हम पहले से ही छोटे स्तर पर काम कर रहे हैं; अब हमें अधिक ऊर्जा और मानव संसाधन दोनों की ज़रूरत है। शहरों से वापस लौटे लोग इस काम में शामिल हो सकते हैं।
शहरों में रहने वाले लोगों को यह समझने की ज़रूरत है कि उनके नलों में पानी गांवों से आता है।
शहरों में रहने वाले लोगों को यह समझने की जरूरत है कि उनके नलों में पानी गांवों से आता है। अगर हम इस पानी को छीन लेते हैं तो हम गांवों के लोगों को उनकी आजीविका के साधन से वंचित कर देंगे और उन्हें शहरों में आने के लिए मजबूर होना पड़ जाएगा। शहर में रहने वालों को पानी के उपयोग में अनुशासित होने के साथ-साथ जल संचयन और संरक्षण के बारे में जानने की भी जरूरत है। हमारे शहरों को जल-साक्षरता आंदोलन की तत्काल आवश्यकता है और यह एक ऐसा काम है जो सरकार कर सकती है। भारत का शहरी भविष्य खतरनाक दिशा में बढ़ रहा है। कोविड-19 के कारण हुए रिवर्स माइग्रेशन ने शहरी बुनियादी ढांचे पर दबाव को एक हद तक कम कर दिया है। लेकिन हमें लगातार अपनी शहरी आबादी को शिक्षित करते रहना होगा।
दूसरी ओर भारत के गांवों में रहने वाले लोग जल और जीवन के अन्य तत्वों के बीच के संबंध को हमसे कहीं बेहतर तरीक़े से जानते हैं। वे जानते हैं कि पानी के बिना कुछ भी सम्भव नहीं है और उनके पास जल संरक्षण की इच्छाशक्ति है। वे यह भी समझते हैं कि पानी की बहुत अधिक कमी होने पर उन्हें ही विस्थापित होना पड़ता है। लेकिन उनकी क्षमताओं की भी सीमा है और उन्हें हमारे साथ की ज़रूरत है।
सरकार सब कुछ कर सकती है। सरकार महात्मा गांधी ग्रामीण रोज़गार गारंटी एक्ट (मनरेगा) के 70,000 करोड़ रुपयों का इस्तेमाल उन लोगों को काम मुहैया करवाने में कर सकती है जो अपने गांव वापस लौट चुके हैं। इससे सरकार जल संरक्षण के लिए बुनियादी ढांचा तैयार कर सकती है। साथ ही सरकार स्थानीय संसाधन की उपस्थिति और उपलब्धता के बारे में जानने के लिए लोगों को प्रशिक्षित कर सकती है। रिसोर्स मैपिंग से यह पता लगाया जा सकता है कि किसी गांव में कौन से संसाधन हैं और रोज़गार उत्पादन में इसका उपयोग किस प्रकार किया जा सकता है।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत सरकार को प्राथमिकता के साथ अपनी नदियों को पुनर्जीवित करने की दिशा में काम करना चाहिए। राष्ट्रीय जल बिरादरी ने 100 से अधिक नदियों के पुनर्जीवन के लिए काम किया। नतीजतन इनमें से 12 नदियों में अब बारहों महीने पानी रहता है। हमने पूरे देश में काम कर रहे लोगों को प्रशिक्षण दिया है लेकिन सरकार हम से किसी तरह का संवाद नहीं करती है। अगर वे अपने आत्मनिर्भरता वाले नारे को लेकर गम्भीर होते तो सबसे पहले हम लोगों से बात करते।
टीबीएस के रूप में हमने 10,600 वर्ग किमी भूमि में जल संरक्षण के लिए 11,800 तालाबों और अन्य संरचनाओं का निर्माण किया है। इस काम में हमने सरकार से एक पैसे की भी मदद नहीं ली है। यह काम हमने समुदाय की ताकत का उपयोग करके किया है। हमसे अधिक आत्मनिर्भर कौन होगा? लेकिन सरकार हमसे कभी बात नहीं करती है और वह कभी करेगी भी नहीं।
मैं उस तरह की राजनीति का शिकार नहीं हूं, मैं ऐसी राजनीति से लाभ उठाता हूं, उसे लेकर आगे बढ़ता हूं। जब मैंने जल संरक्षण का काम शुरू किया था तब मैं यह जानता था कि शक्तिशाली लोग इस पर अपना हक़ जताएंगे। समस्या तब होती है जब कोई गुप्त तरीक़े से काम करने की कोशिश करता है। मैं अपने काम को लेकर हमेशा से मुखर था, मैं हमेशा किसी भी तरह का फ़ैसला ग्राम सभा में पूरे समुदाय के लोगों के साथ मिलकर और लिखित में लेता था। हमारे काम में पूरी पारदर्शिता थी। बाद में यदि कोई समस्या खड़ी करता तो पूरा गांव उसके ख़िलाफ़ एकजुट हो जाता था। जब लोग समूहों में बंट जाते हैं तब राजनीति होने लगती है और मैंने कभी भी इस तरह के समूह बनने ही नहीं दिए।
आज के समय भी धर्म का मामला सत्ता और राजनीति के लिए किए जाने वाले इस संघर्ष से अछूता नहीं रह गया है। हर आदमी के धर्म की शुरुआत प्रकृति के सम्मान और पर्यावरण की सुरक्षा के आदर्शों से होती है। किसी भी प्रकार का ईश्वर और कुछ नहीं बल्कि जीवन का निर्माण करने वाले पांच तत्वों का मेल है। ये तत्व हैं पृथ्वी, आकाश, वायु, अग्नि और जल। लेकिन प्रकृति के सम्मान से शुरू होने वाले धर्म धीरे-धीरे संगठन के सम्मान पर केंद्रित हो जाते हैं; वे शक्ति के समीकरण में हिस्सा लेने लगते हैं और राजनीति की युद्धभूमि में बदल जाते हैं।
मैं पूरे आत्मविश्वास से कह सकता हूं कि मैं, राजेंद्र सिंह, ने किसी भी ऐसी समिति या संगठन का निर्माण नहीं किया है जो सत्ता के इस खेल में शामिल हो। मैंने केवल प्रकृति के पुनर्जीवन के लिए काम किया है और अपनी अंतिम सांस तक करता रहूंगा ताकि हमारा गांव, हमारा देश और हमारी यह दुनिया एक बेहतर जगह बन सके।
मेरे जाने के बाद जरूरत पड़ने पर दूसरे लोग इस काम को कर सकते हैं और यदि जरूरत नहीं हुई तो बंद कर सकते हैं। राष्ट्रीय जल बिरादरी एक संगठन नहीं है; यह समुदाय द्वारा बनाया गया एक फ़ोरम है। जब तक समुदाय के लोग चाहेंगे तब तक यह फ़ोरम सक्रिय रहेगा। जब समुदाय इसे बंद करना चाहेगा तब यह बंद हो जाएगा। हालांकि पुनर्जीवन का काम पूरी तरह से सनातन और शाश्वत है। यह कभी नहीं ख़त्म होगा और हर बार हमें एक नई रचना की ओर ले जाएगा।
—
फुटनोट:
इस लेख को अँग्रेजी में पढ़ें।
—
सुषमा अयंगर एक सामाजिक कार्यकर्ता और कच्छ महिला विकास संगठन (केएमवीएस) की संस्थापक हैं। केएमवीएस महिलाओं को इस तरह से सक्षम बनाने पर काम करता है कि वे अपने गांव समुदाय और क्षेत्रीय विकास से जुड़ी पहलों में पूरे आत्मविश्वास के साथ शामिल हो सकें और फ़ैसले लेने में अपनी ज़िम्मेदारी निभा सकें।
बीते तीन दशकों से सुषमा देश भर में लैंगिक न्याय, लोक संस्कृति, पारंपरिक आजीविका, स्थानीय शासन और आपदा पुनर्वास के क्षेत्रों में बड़े बदलाव लाने वाले कार्यक्रमों का नेतृत्व कर रही हैं। सुषमा ने ज़मीनी स्तर पर कई तरह के अभियान चलाए और उन्हें आगे बढ़ाया है। इसमें कच्छ नव निर्माण अभियान जो कि नागरिक संगठनों का एक ज़िला-स्तरीय नेटवर्क है और शिल्पकारों के लिए बनाया गया ख़मीर नाम का मंच भी शामिल हैं। सुषमा ने पिक्चर दिस! पेंटिंग द विमेंस मूवमेंटनाम की एक किताब भी लिखी है।
आईडीआर के साथ अपनी इस खास बातचीत में उन्होंने भारत में नारीवादी आंदोलन के विकास के बारे में बात की है और बताया है कि कैसे इस आंदोलन ने उन्हें कच्छ के सूखा-ग्रस्त इलाक़ों में महिलाओं के साथ काम करने के लिए प्रेरित किया। साथ ही वे इस बात का भी जिक्र करती हैं कि महिलाओं की लैंगिक भूमिकाओं और पितृसत्ता को चुनौती देने वाली योजनाएं क्यों जरूरी हैं। इसके अलावा, वे यह भी समझाती हैं कि एसएचजी (स्व-सहायता समूह) आंदोलनों के आंकड़ा केंद्रित होने के चलते कैसे महिलाओं का सशक्तिकरण अधूरा रह गया है।
मेरा जन्म और पालन-पोषण गुजरात के बड़ौदा ज़िले में हुआ। आज़ादी के तुरंत बाद ही मेरे माता-पिता रहने के लिए शहर में आ गए। मेरे पिता एक माइक्रोबायआलॉजिस्ट थे और उन्होंने बड़ौदा में यहां के शुरूआती पेनिसिलिन संयंत्रों में से एक के साथ अपना काम शुरू कर दिया।
बेशक मेरा बचपन मेरे माता-पिता से बहुत प्रभावित रहा लेकिन इस पर बड़ौदा के सांस्कृतिक परिवेश का भी असर हुआ। ये मेरा सौभाग्य था कि बहुत कम उम्र से ही मुझे ये अनुभव मिलते रहे। मेरे पिता एक सहृदय व्यक्ति थे और उन्होंने मेरी दुनिया को ढ़ेर सारी किताबों और दिमाग़ी कसरतों से भर दिया था। उन्होंने ही मेरे अंदर जिज्ञासा और सवाल पूछने की आदत विकसित की। दूसरी तरफ़ मेरी मां थीं जो हमारे परिवार की ‘कर्ताधर्ता’ थीं। वे एक ऐसी महिला थीं जिन्होंने हर काम का ज़िम्मा अपने ऊपर ले लिया था और वो कभी भी किसी काम के लिए ना कहना नहीं जानती थीं। मेरे जीवन में आई वह पहली नारीवादी थीं लेकिन उन्होंने कभी सार्वजनिक जीवन में कदम नहीं रखा।
मां ने ही मेरा और मेरी बहनों का दाख़िला हमारे भाई के साथ लड़कों वाले स्कूल में करवाया। वे हमें मिशनरी स्कूलों वाली शिक्षा देने के ख़िलाफ़ थीं। उनका मानना था कि उन स्कूलों में लड़कियों को अधिक ‘लड़की’ होने का प्रशिक्षण दिया जाता है। पीछे मुड़कर देखने पर मुझे लगता है कि लड़कों के स्कूल में हुई पढ़ाई ने ही मुझे आगे चलकर महिलाओं और पुरुषों दोनों से जुड़े लैंगिक मुद्दों पर काम करने के लिए प्रेरित किया।
मेरे जीवन पर बड़ौदा का भी बहुत गहरा असर है। 1960 और 70 के दशक में यह विश्वविद्यालयों वाला शहर हुआ करता था। पूरे देश के छात्र, कलाकार और अकादमिक दुनिया के लोगों का यहां जमावड़ा रहता था। जब मैं बड़ी हो रही थी तब सर्दी के मौसम में लगभग हर दिन कॉन्सर्ट, कविता-पाठ और नाटक होता था।
कॉलेज में मैंने अंग्रेज़ी साहित्य चुना और उसके बाद साहित्य और अर्थशास्त्र में मैंने एमए किया। इस समय तक मैं इस साहित्य और किताबों की दुनिया में रहते हुए बेचैनी महसूस करने लगी थी। मुझे ऐसा लगता था जैसे ‘बाहर की दुनिया’ से अलग मैं किसी दूसरी दुनिया में जी रही हूं। यह 1970 और 80 के दशक का शुरुआती दौर था और भारत की राजनीति में भारी उथल-पुथल हो रही थी। आपातकाल, जयप्रकाश नारायण आंदोलन, जॉर्ज फर्नांडिस बड़ौदा डायनामाइट विस्फोट—ऐसा लग रहा था जैसे पूरा देश किसी न किसी मुद्दे पर उबल रहा था। युवा वर्ग कुछ नया ढूंढ रहा था और सड़कों पर उतर आया था। लगभग उसी समय भारत में नारीवादी आंदोलन भी शुरू हो चुका था जो महिलाओं के ‘कल्याण’, ‘उत्थान’ और ‘विकास’ से अलग महिलाओं की पहचान, उनके अधिकार और समाज में उनकी स्थिति और जगह की तरफ़ ध्यान देने की बात कह रहा था।
मैं स्वयं भी राजनीतिक रूप से जागृत एक ऐसे इंसान में बदल रही थी जो सामाजिक गतिविधियों में सक्रियता से भाग लेने के लिए बेचैन थी। साहित्य के प्रति अपने प्रेम और मेरी बढ़ती सामाजिक-राजनीतिक रुचि के बीच की खींचातानी में मैंने पाया कि राजनीतिक पत्रकार बनकर मैं साहित्य से एक्टिविज्म की ओर बढ़ सकती हूं। इसलिए अपने जीवन के अगले ढाई वर्ष मैंने अमेरिका की कॉर्नेल यूनिवर्सिटी में बिताए और वहां डेवलपमेंट कम्यूनिकेशन विषय में मास्टर्स की पढ़ाई की।
एक बार मैं वहां पहुंच गई तो मैंने डेवलपमेंट कम्युनिकेशन की पढ़ाई के अलावा सब कुछ किया। ऐसा पहली बार हो रहा था कि मैं दुनियाभर से आए छात्रों से बात कर रही थी। इस पूरी प्रक्रिया ने मुझे अलग-अलग नज़रियों और वामपंथ समेत अन्य विचारधाराओं से अवगत कराया। इन्हीं दिनों में मुझे ब्राज़ील के शिक्षक पाओलो फ़्रेयर के सिद्धांत के बारे में पता लगा था। उस समय तक मैंने गांधी, अम्बेडकर और विनोबा भावे के कामों के बारे में काफ़ी कुछ पढ़ लिया था। लेकिन यह फ्रेयर थे जिनके तरीकों ने मुझे प्रभावित किया और आने वाले समय में महिलाओं और ग्रामीण समुदायों के लिए किए जाने वाले मेरे कामों के लिए मुझे तैयार किया।
दरअसल अपने अमेरिका प्रवास के दिनों में ही मुझे अहसास हो गया था कि मैं भारत की ग्रामीण महिलाओं के साथ काम करना चाहती हूं। पढ़ाई पूरी करके वापस लौटने के बाद मैं सोच रही थी कि अब मुझे क्या करना है और उसकी शुरूआत कैसे की जा सकती हैं। इसी दौरान मैं सेवा की संस्थापक इलाबेन (भट्ट) का इंटरव्यू लेने अहमदाबाद गई थी। इसी यात्रा में मेरी मुलाक़ात जनविकास के संस्थापकों फिरोज़ कांट्रैक्टर और गगन सेठी से हुई। जनविकास ने हाल ही में भारत के गांवों में जाकर काम करने वाले पेशेवर युवाओं की मदद करने वाले एक सुविधाजनक मंच के रूप में अपना काम शुरू किया था। फिर वे कच्छ जाने और 1989 में कच्छ महिला विकास संगठन की नींव डालने वाले सहायक बन गए। केएमवीएस ने अपना पूरा ध्यान कच्छ की शहरी और ग्रामीण महिलाओं को स्थानीय समूहों में संगठित करने पर केंद्रित किया ताकि वे अपने जीवन, समुदायों और अन्य क्षेत्रों से जुड़े मुद्दों को पहचानने और उनके समाधान में सक्षम हो सकें।
1980 के दशक में भारत तेज़ी से बदल रहा था। दिल्ली स्थित जागोरी और सहेली जैसे महिला संगठनों ने अपने रचनात्मक अभियानों, प्रशिक्षण और संसाधनों के वितरण के ज़रिए महिलाओं को जागरुक करना शुरू कर दिया था। वहीं गुजरात में सेवा ने पहले से ही अनौपचारिक क्षेत्रों में ट्रेड यूनियनों और सहकारी समितियों के साथ मिलकर महिलाओं के साथ काम करना शुरू कर दिया था और ग्रामीण समूहों का निर्माण कर रहा था।
भारत में पहली बार राजस्थान सरकार ने डबल्यूडीपी नाम से महिलाओं के विकास के लिए एक कार्यक्रम की शुरुआत की थी। इस कार्यक्रम में ग्रामीण महिलाओं को उनसे संबंधित मुद्दों पर संगठित किया जाता था। नारीवाद और ग्रामीण सशक्तिकरण से जुड़ने का यह बहुत अच्छा समय था। हालांकि मैंने ऐसा महसूस किया कि महिलाओं से जुड़े मुद्दों का अब भी ग्रामीण विकास के गम्भीर मुद्दों में शामिल होना बाक़ी था। मैं इसी मुद्दे पर काम करना चाहती थी और इसे विस्तार से जानना और समझना चाहती थी।
1985 से 1988 तक लगातार पड़ने वाले सूखे के कारण कच्छ के लोग भारी संख्या में पलायन कर रहे थे और केवल महिलाएं पीछे छूट गई थीं। हालांकि उस समय इस इलाक़े में कई कल्याणकारी संस्थाएं अपना काम कर रही थीं लेकिन सामुदायिक सशक्तिकरण, ख़ासतौर पर महिलाओं के मामले में उनका कोई काम दिखाई नहीं दे रहा था। कच्छ ने मुझे कई तरह से इसके संकेत दिए और मैंने उन संकेतों को समझ लिया।
कच्छ में सूखा पड़ते रहने के कारण आप अक्सर ही महिलाओं को सूखा राहत वाले इलाक़ों में कड़ी मेहनत करते देख सकते हैं। न्यूनतम मज़दूरी पर ये औरतें कड़ी धूप में बेकार के गड्ढे खोदती रहती हैं। इन्हीं दिनों सूखा राहत कार्यक्रम के तहत सरकारी हस्तशिल्प निगम ने कच्छ की स्थानीय शिल्प में निवेश करना और उसकी ख़रीद शुरू कर दी थी। ये सभी उत्पाद कच्छ की औरतें बनाती थीं। जहां एक तरफ़ कच्छ के इन कशीदों वाले उत्पाद की मांग और आपूर्ति की एक बड़ी ऋंखला तैयार हो गई थीं वहीं इनका नियंत्रण बिचौलियों के हाथों में आ गया था। ये सभी बिचौलिए पुरुष ही थे नतीजतन औरतों को उनके श्रम के लिए न के बराबर पैसे मिलते थे।
केएमवीएस में हमें इस बात का अहसास हुआ कि महिलाओं को जल स्त्रोतों और उनकी भूवैज्ञानिक स्थिति का गहरा ज्ञान है।
इससे भी अधिक जल संकट उनकी इस विकट स्थिति का मुख्य कारण था। सरकार द्वारा ट्यूब वेल के माध्यम से जल के मुख्य स्त्रोत से 120 किलोमीटर दूर स्थित गांवों तक पानी पहुंचाने के प्रयास के बावजूद पारम्परिक जल-स्त्रोत अस्त-व्यस्त स्थिति में थे। इस क्षेत्र के पुरुष अपने मवेशियों के साथ पलायन कर रहे थे और जीवन चलाने का बोझ अब पूरी तरह से औरतों पर आ चुका था। फिर भी समाधान के लिए कोई भी इस इलाक़े के लोगों के पास नहीं जा रहा था और महिलाओं के पास तो बिल्कुल भी नहीं। केएमवीएस में हमें जल्द ही इस बात का अहसास हो गया कि इलाक़ों की औरतों को जल स्त्रोतों और उनकी भूवैज्ञानिक स्थिति का गहरा ज्ञान है। इस समस्या का समाधान निकालने को लेकर औरतें अधिक चिंतित थीं और सरकारी अक्षमताओं और भ्रष्टाचार के विरोध को लेकर पुरुषों की तुलना में अधिक गम्भीर थीं। इस तरह पानी वह मुख्य मुद्दा बन गया जिसके इर्द-गिर्द पितृसत्ता और लैंगिक भेदभाव जैसे मुद्दों को लाया गया।
यहां पर एक बात का ज़िक्र करना बहुत ज़रूरी है कि हम लोगों ने जिन समुदायों के साथ मिलकर काम शुरू किया था, उनमें से कुछ समुदायों की औरतों को अपने घर के आंगन से बाहर निकलने तक की अनुमति नहीं थी। ऐसे में महिलाओं के लिए यह समझाना आसान था कि क्यों उन्हें कम मेहनताना मिलता है, क्यों अपने बनाए उत्पादों के लिए पहचान नहीं मिलती लेकिन अपने स्वास्थ्य, ख़ासकर प्रजनन से जुड़े मामलों में वे चुप ही रहतीं थीं।
फिर ऐसे में कोई शुरूआत कहां से करेगा? संगठनों ख़ासकर उनकी महिला सदस्यों से हमारी बातचीत में हमने सीखा कि अपने घर-परिवार में पितृसत्ता के मुद्दों को सामने लाने के लिए पहले महिलाओं को सार्वजनिक जीवन में आना होगा, मिलकर पूरे गांव को प्रभावित करने वाले मुद्दों को उठाना होगा और पुरुषों के आधिपत्य का मुक़ाबला करना होगा।
बदलाव की इस प्रक्रिया को शुरू करने से पहले एक ऐसी जगह बनानी ज़रूरी थी जहां सभी महिलाएं इकट्ठी होकर अपनी मुश्किलों और चुनौतियों पर बात कर सकें। इस तरह सामूहिक प्रयासों, सोच-विचार और खुद से पहचान के लिए एक जगह के रूप में महिला संगठन का जन्म हुआ।
पुरुषों ने महिलाओं के सार्वजनिक क्षेत्र में प्रवेश करने या उनके कोई सार्वजनिक भूमिका निभाने का विरोध किया।
कोई काम करने और फिर उस पर सोच-विचार करने की वह प्रक्रिया, जिससे हमारी समझ बनती है, ने महिलाओं को उनकी सामाजिक हैसियत का अंदाज़ा लगाने में मदद की। इससे महिलाएं यह समझने लग गईं कि उन्हें कैसे और क्यों दबाया जाता है। हालांकि साथ आने का मतलब हमेशा ही समस्याओं के हल खोजना नहीं था। महिला मंडलों और संगठनों ने औरतों को मौक़ा दिया कि वे अपने जीवन और अपनी बदलती दुनिया के बारे में एक-दूसरे से बातचीत कर सकें, एक साथ नाच-गा सकें, ठहाके लगा सकें, बहस कर सकें, आपस में लड़ सकें, अपनी असहमतियों को व्यक्त कर सकें और एक नई पहचान बना सकें। इस पूरी प्रक्रिया में हम सभी के बीच दोस्ती के कई रिश्ते बने। सबसे ज़रूरी बात कि जब मैं कच्छ की औरतों के जीवन का हिस्सा बनने की कोशिश कर रही थी तब मैंने उन्हें भी अपनी अंदरूनी दुनिया का हिस्सा बनने दिया। जब तक आप खुद नहीं खुलते हैं तब तक आप किसी समूह से खुलने और अपनी बातें साझा करने की उम्मीद नहीं कर सकते हैं।
मौज-मस्ती से भरे कई लंबे सत्रों के बाद औरतों ने धीरे-धीरे महिलाओं और पुरुषों और उनकी लैंगिक भूमिकाओं को एक बदल सकने वाली सामाजिक संरचना के रूप में पहचानना शुरू किया। अपनी परिस्थितियों और फैसलों पर सोच-विचार करने के दौरान हमने यह समझने की कोशिश की कि किसी स्थिति विशेष में हमने एक ख़ास तरीक़े से ही व्यवहार क्यों किया होगा। यहां पर सभी को सीखना था कि उन्हें तय सामाजिक पैमानों के मुताबिक़ न तो महसूस करना है, न ही सोचना है और न ही वैसा होना है जैसा होने की उम्मीद उनसे की जाती है।
निश्चित रूप से इसका विरोध भी हुआ। समुदाय के पुरुष सदस्यों ने महिलाओं के सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करने या सार्वजनिक भूमिका निभाने का विरोध किया। मुझे 1990 के दशक के शुरुआती दिन याद आ रहे हैं जब एक गांव की महिलाएं 40 वर्षों से बंद पड़े एक जल-निकाय को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रही थीं। तब गांव के पुरुष नेताओं ने उन महिलाओं पर मुक़दमा दायर कर दिया और अदालत में यह दावा किया कि जल निकाय वाली ज़मीन उन में से ही एक की है। यह महिलाओं के लिए एक यादगार पल बन गया। पुरुषों को मुंहतोड़ जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि पहले उन्हें घरों से बाहर निकलने की अनुमति नहीं थी लेकिन अब इन पुरुषों के कारण वे अदालत तक पहुंच चुकी हैं। आख़िरकार अपने चैंबर में महिलाओं के एक समूह से मिलने के बाद चौंका देने वाला फ़ैसला सुनाते हुए जज ने अदालत के बाहर समझौता करने का आदेश दिया जो कि महिलाओं के पक्ष में गया।
जब मैंने महिलाओं के साथ काम करना शुरू किया तब तक ग्रामीण मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश और देश के अन्य हिस्सों में भी इस तरह के महिला समूहों ने आकार लेना शुरू कर दिया था। ऐसी हज़ारों-लाखों अपरिचित महिलाओं के साथ मिलकर एक नया भविष्य बनाने की साझी कोशिश का भाव अभिभूत करने वाला था।महिला समूहों के बढ़ते प्रभाव ने सरकारों, दानकर्ताओं और नागरिक संगठनों में ख़ासा जोश भर दिया था। इनके कारगर होने के चलते इन समूहों की संख्या बढ़ाना और उन्हें औपचारिक रूप देना ज़रूरी हो गया। इस तरह स्व-सहायता समूहों को तरक्की मिलना शुरू हो गई।
एसएचजी आंदोलन के साथ, लोगों का अधिक ध्यान महिलाओं को समझदार बनाने से हटकर अब आंकड़ों और ठोस आर्थिक उपलब्धियों पर जाने लगा था। कई एसएचजी इन मामलों में काफी सफल भी रहे लेकिन इन महिला आंदोलनों के केंद्र में अब कहीं न कहीं केवल आर्थिक बदलाव ही था। एसएचजी ने महिलाओं को ग़रीबी से निकालने में तो मदद की लेकिन ये सामाजिक-आर्थिक ढांचे में उनकी लैंगिक स्थिति को बदलने में उतने कारगर नहीं रहे। 1980 और 90 के दशक के महिला आंदोलनों में बदलाव की जिन प्रक्रियाओं में निवेश किया गया, महिला सशक्तिकरण के लिहाज़ से देखें तो ये सफल नहीं रहीं। इस तरह ‘महिला सशक्तिकरण’ शब्द तो प्रचलित हो गया लेकिन अब इसे एक संकीर्ण विचार की तरह देखा जाने लगा है। मुझे कभी-कभी ऐसा लगता है जैसे महिलाओं के आंदोलन की आत्मा गुम हो चुकी है।
इसके अलावा, तमाम योजनाओं में महिलाओं को किसी सजावट की तरह इस्तेमाल किया जाता है—मुझे मालूम है मैं आंदोलन का मज़ाक़ सा उड़ा रही हूं—लेकिन अक्सर मुझे ऐसा लगता है जैसे सशक्तिकरण का ठेका महिलाओं को ही दे दिया गया है। लैंगिक भूमिकाएं हों या सामाजिक बदलाव, पुरुष अक्सर जिम्मदारियों से मुक्त नज़र आते हैं। मैं अभी तक नहीं समझ पाई हूं कि एसएचजी जो कि आजीविका सृजन का एक साधन भर है—वह महिलाओं को संगठित कर काम करने वाला एक ख़ास सामुदायिक संस्थान कैसे बन गया? हमारे पास पुरुषों के लिए भी एसएचजी क्यों नहीं है?
मुझे जो सकारात्मक बदलाव दिखाई दे रहा है वो यह है कि स्थानीय स्वशासन को अनिवार्य करने वाले 73वें संशोधन ने पिछले दो दशकों में महिलाओं की स्थिति बदलने में मुख्य भूमिका निभाई है। स्थानीय शासन के मामले में गांव और शहर, दोनों जगह महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी उल्लेखनीय रही है।
एक बात जो मैं अक्सर खुद से और युवाओं से कहती हूं वह यह है कि हमारे सामने चाहे कितना भी अंधेरा क्यों न हो, हमें बस इतना देखना है कि वह कहीं से हमारे भीतर न जाने पाए।
जैसे-जैसे और जितनी महिलाओं ने सार्वजनिक क्षेत्रों में अपनी जगह बनाई है, उतना ही उनके लिए समाज का विरोध तेज होता गया है। इसे समझने के लिए जगह, नस्ल, धर्म, जाति और उम्र से परे महिलाओं और लड़कियों के साथ होने वाली यौन हिंसा के क्रूरतम होते स्वरूप को देखिए। इसका एक बड़ा उदाहरण कर्नाटक में हिजाब पर लगाया गया प्रतिबंध और इसके कारण महिलाओं और लड़कियों के साथ होने वाली हिंसा है।
पिछले दो दशकों में होने वाले महिला आंदोलनों द्वारा हासिल उपलब्धियों और उसकी प्रगति के बारे में आज जब मैं सोचती हूं तो मुझे दो बड़े बदलाव नज़र आते हैं। पहला, ज़्यादातर महिलाओं के समूह और विशेष रूप से एसएचजी केवल आर्थिक परिवर्तन का साधन भर बन चुके हैं। दूसरा, हमारे समाज में साम्प्रदायिक नफ़रत का बढ़ना, महिलाओं के आंदोलनों की उन संभावनाओं को ख़त्म कर रहा है जो उन्हें जाति, वर्ग, लिंग या धार्मिक विश्वासों से परे एक बनाती थीं।
हर दौर की अपनी चुनौतियां होती हैं। उदाहरण के लिए आज हमारे सामने कट्टरता सबसे बड़ी चुनौती है, यह एक ऐसी चीज़ है जिसका सामना हमने इससे पहले कभी नहीं किया था। इसलिए मैं अपना कोई वास्तविक अनुभव नहीं बता सकती हूं। और, मैं अपनी कही बातों को सलाह की बजाय हमारे और हमारे समय की विवेचना की तरह देखती हूं।
हर दिन मैं खुद से और अक्सर युवाओं से भी एक ही बात कहती हूं कि हमारे सामने चाहे कितना भी अंधेरा क्यों न हो हमें बस ये देखना है कि यह हमारे भीतर ना जाने पाए। एक बार अगर ये अंधेरा हमारे भीतर घर कर ले तो सब ख़त्म हो जाता है। इससे बचने के लिए हमें अंदर से बदलते रहना होगा और लगातार अपने अनुभव, विश्वास और प्रेरणा को बनाए रखना होगा। हमारे क्षेत्र में काम करने वाले ज्यादातर लोगों का ध्यान अक्सर बाहरी बदलावों पर इतना केंद्रित होता है कि हम अपने भीतर टटोलना भूल जाते हैं। यहां काम करते हुए अपना सबसे बेहतरीन काम पूरे समर्पण से करते रहने के लिए, हौसला बनाए रखने के लिए और हर तरह के दमन, दबदबे और अन्याय का विरोध करते रहने के लिए लोगों को खुद पर भरोसा रखना चाहिए। इसके लिए हर पल अपने आप के प्रति जागरुक रहने की आदत डालनी होगी।
मुझे लगता है कि हम में से हर एक को आज बढ़ रही असहिष्णुता और नफ़रत का विरोध करने और अपनी गतिविधियों और सोच में अहिंसा की भावना को दोबारा शामिल करना ज़रूरी है।
मैं जिन युवाओं से बात करती हूं, उनमें से ज्यादातर मुझे बताते हैं कि वे किस तरह के दबावों का सामना कर रहे हैं। वे कुछ बड़ा और प्रभावशाली करना चाहते हैं जिससे सोशल मीडिया पर हर दिन अपनी उपलब्धियों के बारे में बता सकें। यह भावना लगातार उनके अंदर एक बेचैनी और कमतर होने का एहसास बनाए रखती है।
इसलिए मैं यहां जो बताना चाहती हूं वो यह है: हमें छोटे-मोटे कामों को करने में झिझक नहीं महसूस करना चाहिए। छोटी चीज़ें सुंदर होती हैं। अगर हम अपने भीतर छोटी-छोटी बातों और ख़्वाहिशों को ज़िंदा रखते हैं तो हमारा दिल बड़ा होता जाता है। इससे हममें बड़प्पन आता है और हम बेहतर इंसान बनते हैं। हमें खुद को याद दिलाते रहना होगा कि बड़ा बदलाव छोटी-छोटी कोशिशों के चलते ही आता है।
लेकिन जब हम बड़ा बनने की इच्छा के दबाव में आ जाते हैं तो हम उतने सहृदय नहीं रह जाते हैं।
मुझे यह भी लगता है कि बतौर नागरिक संगठन हम इस सामूहिक जड़ता से निकलने के लिए अभी जितना काम कर रहे हैं उससे अधिक करने की ज़रूरत है। हमें पहले से हो रहे काम से आगे बढ़ने की ज़रूरत है। शायद हमें कुछ कदम पीछे जाने की ज़रूरत है, नई तरह से सोचने की और उन युवा प्रतिभाओं से जुड़ने की जो गांवों, क़स्बों, शहरों की बस्तियों, विश्वविद्यालयों में हैं। अपना आगे का रास्ता बनाने के लिए हमें वंचित से लेकर सबसे संपन्न लोगों तक सबको अपने साथ लाने की ज़रूरत है।
अगर आज हम अपने समाज में मूल्यों को आगे बढ़ाने वाले नहीं बनते हैं तो भविष्य में पछताएंगे। मुझे लगता है हम सभी को आज बढ़ती असहिष्णुता औऱ नफ़रत का विरोध करना चाहिए और अपने काम करने के तरीक़े और सोच में अहिंसा के विचार को वापस लाना चाहिए। अहिंसा और कुछ नहीं बस प्रेम का होना भर है—जहां प्रेम होगा वहां हिंसा नहीं होगी।
सभ्यताओं ने बदलाव के कई ऐसे दौर देखे हैं जब निराशा और अंधकार हावी हो गए। लेकिन शायद यह अंधेरा घिरता इसलिए है ताकि हम दरारों से आने वाली रोशनी देख सकें।
इस लेख को अँग्रेजी में पढ़ें।
—
मेरा नाम सौविक साहा है। मैं भारत के युवाओं, विशेष रूप से पिछड़े समुदाय के युवाओं के लिए एक सुरक्षित वातावरण बनाने के लिए काम करता हूं।
मैं झारखंड के जमशेदपुर में एक बस्ती में बड़ा हुआ हूं। मेरे पिता फ़ैक्ट्री में काम करते थे और माँ घर पर ही रहकर मेरे और मेरी बहन की देखभाल किया करती थीं। हम लोग निम्न-मध्य वर्गीय परिवार से आते थे इसलिए मेरे बातचीत का दायरा आसपास के दोस्तों और परिवार के सदस्यों तक ही सीमित था। हालांकि जब मैं अपनी आगे पढ़ाई करने कलकत्ता यूनिवर्सिटी गया तो मेरे लिए वह बिल्कुल नया अनुभव था। मुझे विभिन्न पृष्ठभूमि से आने वाले और मुझसे बेहतर जीवन जी रहे लोगों से बातचीत करने और उनके सम्पर्क में आने का मौका मिला। मैं जिस हॉस्टल में रहता था वह छात्र राजनीति का एक मुख्य केंद्र था। इसलिए वहां रहते हुए मेरे अंदर राजनीतिक भागीदारी का एक जुनून पैदा हो गया। नतीजतन मैंने अपने कॉलेज का अधिकांश समय धरने और नुक्कड़ नाटक में बिताने लगा था।
अपनी बीए की पढ़ाई पूरी करने के बाद मैंने शहर के ही एक बैंक में काम करना शुरू कर दिया। लेकिन जल्दी ही 9–5 वाली इस नौकरी से ऊबने लगा और मैंने नौकरी छोड़ दी। मेरे अंदर युवाओं के लिए कुछ करने की प्रबल इच्छा थी। मेरी इसी इच्छा के कारण मैंने प्रवाह द्वारा दिए जाने वाले फ़ेलोशीप चेंजलूम के लिए आवेदन दिया और मेरा चयन हो गया। एक फ़ेलो के रूप में मेरी इस यात्रा से मुझे यह समझने में मदद मिली कि वास्तव में मैं किस प्रकार का काम करना चाहता हूं। और इसलिए 2010 में मैंने जमशेदपुर में पीपल फ़ॉर चेंज की स्थापना की। यह एक ऐसा संगठन है जो विशेष रूप से पिछड़े समुदाय के युवाओं को महत्वपूर्ण जीवन कौशल सिखाता है और उन्हें निजी और सार्वजनिक बदलाव लाने में सक्षम बनाता है।
मुझे संगठनों और इकोसिस्टम में भरोसा है इसलिए मैं कॉमम्यूटिनी – द यूथ कलेक्टिव और वार्तालीप कोअलिशन जैसी जगहों पर वोलन्टीयर के रूप में काम करता हूं। अपने इस विचार को बढ़ाने के लिए मैंने झारखंड के युवाओं के साथ काम कर रहे विभिन्न संगठनों से सहयोग लेकर झारखंड यूथ कलेक्टिव का आयोजन किया। मैंने जमशेदपुर क्वीर सर्कल की भी स्थापना की है। यह शहर में क्वीर युवा और उनके साथियों के लिए एक खुला मंच है जहां उन्हें अपने लिए सुरक्षित और पूर्वाग्रह मुक्त माहौल मिलता है। यहां हम लगभग 500 ट्रांसजेंडर और 700 ऐसे क्वीर युवा का ख़्याल रखते हैं जिन्हें जमशेदपुर जैसे नगरों में अक्सर जानबूझकर दबाया जाता है या उनकी उपेक्षा की जाती है।
सुबह 5.00 बजे: मैं दिन की शुरुआत अपने छोटे से बगीचे में काम करने से करता हूं। यहाँ मैं कुछ सब्ज़ियां और फूल उगाता हूं। मुझे बाग़वानी में मज़ा आता है क्योंकि इससे मेरा मन शांत रहता है और साथ ही मुझे अपने दिन की शुरुआत किसी रचनात्मक काम से करना पसंद है। इसके बाद मैं रसोई में जाकर सबके लिए खाना तैयार करता हूं। मैं अपने माता-पिता के साथ रहता हूं। मेरी माँ लम्बे समय से बीमार हैं इसलिए घर और रसोई के काम की ज़िम्मेदारी मैंने अपने ऊपर ले ली है। घर का सारा काम ख़त्म करने के बाद मैं काम पर जाने की तैयारी करता हूं।
सुबह 7.00 बजे: दफ़्तर जाने से पहले मैं उन स्कूलों का दौरा करता हूं जिनके साथ मिलकर हम समय-समय पर कई तरह के कार्यक्रम आयोजित करते हैं। मैं वहां के प्रधान अध्यापकों और मुख्य सदस्यों से मिलकर चल रहे कार्यक्रमों के बारे में बातचीत करता हूं। इन में से ही एक कार्यक्रम युवाओं के बीच अंतर-सांस्कृतिक मित्रता का भी है। उदाहरण के लिए एक बार हमनें दोस्ती के इस कार्यक्रम में एक मुस्लिम लड़के और ब्राह्मण लड़की की जोड़ी बनाई थी। इस कार्यक्रम के तहत की गई बातचीत के माध्यम से उन्होंने एक दूसरे की निजी और सांस्कृतिक समानताओं और असमानताओं के बारे में विस्तार से जाना। इससे उन्हें अलग दिखने वाले लोगों से मिलने-जुलने की सुविधा मिली। हालांकि पहले इस कार्यक्रम का विरोध किया गया था। एक स्कूल के प्रिंसिपल ने हमारी टीम को उनके स्कूल में हमारे इस कार्यक्रम को बंद करने का निर्देश दिया था। उन्हें उन अभिभावकों से शिकायतें मिल रहीं थी जिन्हें लगता था कि इस तरह के कार्यक्रम उनकी परम्परा और संस्कृति का अपमान हैं।
मुझे इस बात का एहसास हुआ कि युवाओं को सशक्त करने के लिए तैयार किए जाने वाले डिज़ाइन में समाज के इन रक्षकों द्वारा किए जाने वाले हस्तक्षेप को शामिल करने की ज़रूरत है।
हमारे काम में समाज के ऐसे रक्षकों द्वारा किया जाने वाला विरोध मुख्य चुनौती है। हालांकि ऐसी चुनौतियां मेरे और मेरी टीम को बेहतर और अधिक कारगर उपाय ढूँढने में मददगार ही साबित हुई हैं। हमनें कई सालों तक लगातार अभिभावकों और शिक्षकों के साथ बैठकर बातचीत की। इन बैठकों में मुझे यह एहसास हुआ कि युवाओं को सशक्त करने के लिए हमारे द्वारा तैयार किए जाने वाले डिज़ाइन में समाज के इन रक्षकों द्वारा किए जाने वाले हस्तक्षेप को शामिल करने की ज़रूरत है। इसलिए अब हमारे सभी युवा कार्यक्रमों में हितधारकों से सक्रिय संवाद और उनके साथ मिलकर काम करना शामिल है।
सुबह 9.00 बजे: अपनी सुबह की मीटिंग निपटा कर मैं दफ़्तर जाता हूं। वहां मैं अपनी टीम से हमारे चल रहे कार्यक्रमों का ब्योरा लेता हूं। आज की मीटिंग का मुख्य विषय हमारे आने वाले फेलोशीप कार्यक्रम के लिए रणनीति बनाना और पाठ्यक्रम तैयार करना है। यह कार्यक्रम शिक्षा के क्षेत्र में ऐसे युवा नेतृत्व को विकसित करने के उद्देश्य से आयोजित किया गया जिनका काम यह सुनिश्चित करना है कि पूरे झारखंड के बच्चों को अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा उपलब्ध हो रही है। इस काम के लिए कार्यक्रम प्रबंधक, इंटर्न और मैंने साथ बैठकर हर उस विषय पर गहरी चर्चा की जिसे फेलोशीप के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाएगा।
सुबह 11.00 बजे: मैं झारखंड के एक छोटे से शहर जादूगोड़ा में हमारे द्वारा स्थापित सामुदायिक केंद्रों के दौरे के लिए जा रहा हूं जहां मेरी भेंट इस केंद्र को चलाने वाले युवा टीम से होगी। इस टीम ने इस शहर की 100 लड़कियों के साथ एक बैठक आयोजित की है जिसमें उनकी कुछ तात्कालिक समस्याओं और चिंताओं के बारे में बातचीत की जाएगी। भारत का सबसे बड़ा यूरेनियम का खान इसी छोटे से शहर में है। यहां रेडियोधर्मी कचरे के अनुचित निपटान के परिणामस्वरूप कैंसर के मामले बहुत अधिक पाए जाते हैं। हम लोगों ने जादूगोड़ा की युवा लड़कियों के लिए आजीविका के अन्य अवसरों के निर्माण के उद्देश्य को ध्यान में रखकर इन लड़कियों के साथ काम करना शुरू किया। उनके साथ काम करने की प्रक्रिया में उन्हें शिक्षित करना भी शामिल है। हम उन्हें उनके मौलिक अधिकारों से अवगत करवाते हैं और उन्हें वोलन्टीयर बनने का प्रशिक्षण भी देते हैं। इससे उन्हें अपने समुदाय की सेवा करने का मौक़ा मिलता है। समुदाय के लोग ही हमें मिडिल स्कूल और आंगनवाड़ी केंद्र जैसी जगहें उपलब्ध करवाते हैं जहां हम अपनी कक्षाएँ आयोजित करते हैं।
जादूगोड़ा मेरे दफ़्तर से काफ़ी दूर है इसलिए मैंने सार्वजनिक वाहन के बजाय अपने मोटरसाइकल से वहां जाने का फ़ैसला किया है। मुझे फ़ील्ड में अधिक समय की ज़रूरत होती है। इस तरह की मीटिंग मेरे और मेरे टीम के लिए बहुत मददगार साबित होती हैं। इन मुलाक़ातों में हम समुदाय की ज़रूरतों को समझते हैं और उन ज़रूरतों को पूरा करने के लिए युवाओं की मदद करने की कोशिश करते हैं।
शाम 4:00 बजे: जब मैं अपने दफ़्तर लौटता हूं तो उस समय वहां लोगों का जमावड़ा लगा होता है। यह एक आम दृश्य है क्योंकि शाम के समय ढ़ेर सारे युवा हमारे सलाहकारों से बात करने और उनसे अपनी समस्याओं पर चर्चा करने यहां आते हैं।
जब मैं छोटा था तब मुझे ऐसा कभी नहीं लगा कि मेरी जिज्ञासा और उत्सुकता को बढ़ावा दिया गया हो। स्कूल वह जगह थी जहां मुझे मेरे सभी सवालों के जवाब मिलने चाहिए थे लेकिन इसके बदले मुझे वहां ‘बातूनी’ या ‘परेशान करने वाला’ जैसी उपाधियां दी गई। इसलिए मैंने पीपल फ़ॉर चेंज के मुख्यालयों की कल्पना हमेशा एक ऐसी जगह के रूप में की है जहां लोग खुद से और दूसरों से ढ़ेर सारे सवाल-जवाब और पूछताछ कर सकें। यहां युवाओं का हमेशा स्वागत है और वे यहां आकर घूम-फिर सकते हैं, पढ़ाई कर सकते हैं और टीम के सदस्यों के साथ बातचीत करने जैसे काम कर सकते हैं। क्वीर और समाज के अन्य पिछड़े समुदाय के युवाओं के लिए एक सुरक्षित स्थान मुहैया करवाने से मैं भी उन मामलों को गहराई से समझने योग्य हो चुका हूं जो उनके लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं। उदाहरण के लिए क्वीर युवाओं के लिए सबसे अधिक दबाव वाले मुद्दे स्वास्थ्य, आजीविका और रिश्ते हैं। वहीं आदिवासी युवाओं के लिए ज़मीन, जंगल और उनके अधिकार का मुद्दा महत्वपूर्ण है। इस प्रकार हमसे जुड़ा हर एक युवा किसी न किसी रूप में हमारी मदद करता है। ये युवा उनके लिए किए जाने वाले कामों और प्रयासों को बहुआयामी दृष्टिकोण से देखने में हमारी मदद करते हैं। उनसे मिलने वाली जानकारियों से हम अपने तरीक़ों को बेहतर बनाते हैं।
शाम 6:00 बजे: उस दिन का काम ख़त्म होने के बाद मैं दफ़्तर में ही थोड़ी देर आराम करता हूं। मैंने इस दफ़्तर को इस तरह बनाया है कि यहां काम करने वाले लोग यहीं आराम भी कर सकते हैं। उदाहरण के लिए हम नियमित रूप से ओपन-माइक और रात के समय गेम का आयोजन करते हैं। हमनें कुछ बिस्तरों का इंतज़ाम किया है। इससे पहले कि हमारी टीम एक जगह इकट्ठा होकर अगले दिन के काम पर चर्चा करे मैंने इस बिस्तर पर ही थोड़ी देर आराम करने का फ़ैसला लिया है। उसके बाद हमारा आज का दिन ख़त्म हो जाएगा।
रात 8:00 बजे: घर पहुँचने के बाद मैं जल्दी से रात का खाना खाता हूं और थोड़ी देर के लिए अपनी माँ के पास बैठता हूं। आमतौर पर दफ़्तर में बहुत व्यस्त रहने के बाद मैं घर पर काम नहीं करता। कभी-कभी रात के खाने पर अपने दोस्तों को घर बुला लेता हूं या जाकर सिनेमा देख लेता हूं। हालांकि सप्ताह के ज़्यादातर दिनों में मैं घर पर ही अपनी माँ के साथ या अपने कमरे में अकेला समय बिताता हूं।
रात 10:00 बजे: इन दिनों पढ़ रहे किताब के साथ मैं अपने बिस्तर की ओर जाता हूं। काम के बाद दिन के बचे इन कुछ घंटों में मैं अपने दूरगामी लक्ष्यों, उम्मीदों और अपने भविष्य निर्माण के बारे में सोचता हूं। मेरी तात्कालिक आशा ऐसी जगहों के निर्माण को आसान बनाना है जहां युवाओं और उनकी जिज्ञासाओं के लिए पर्याप्त साधन मिल सके। मैं चाहता हूं शैक्षणिक, कॉर्प्रॉट या पारिवारिक किसी भी तरह के वातावरण में युवाओं की आवाज़ को उन्हें प्रभावित करने वाले फ़ैसलों के संदर्भ में सम्मान के साथ सुना जाए। अंत में मेरा सपना युवाओं के नेतृत्व वाली एक ऐसी दुनिया है जो अधिक न्यायपूर्ण और प्यार से भरी हो।
जैसा आईडीआर को बताया गया।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
—
मेरा नाम रीना सेठी है। मैं ओड़िशा के ख़ोरधा ज़िले के पंचगाँव में अपने पति, सास-ससुर और तीन बच्चों के साथ रहती हूँ। मैं इंडसट्री फ़ाउंडेशन के मैनुफ़ैक्चरिंग इकाई के लीफ़-प्रेसिंग विभाग में काम करती हूँ। हम लोग साल के पेड़ की पत्तियों और सीयालि नाम से जानी जाने वाली लताओं से प्लेट और कटोरियाँ बनाते हैं। हमारे ये उत्पाद आजकल व्यापक रूप से उपयोग किए जाने वाले डिसपोज़ेबल प्लास्टिक उत्पादों के इको फ़्रेंडली विकल्प हैं।
मैं अगस्त 2021 में इस यूनिट में शामिल हुई थी। यह पहली बार था जब मुझे कोई औपचारिक नौकरी मिली थी। साथ ही मैं पहली बार अपने घर से बाहर निकलकर भी काम कर रही थी। इसके पहले मैं अपने इलाक़े की किराने वाली दुकानों में बोरिस (सूखे दाल की पकौड़ियाँ) बेचती थी लेकिन वह नियमित आय का साधन नहीं था। मुझे बोरिस बनाने का कच्चा माल ख़रीदने के लिए ऋण की आवश्यकता थी। इसलिए मैंने एक स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) की भी सदस्यता ली थी।
हालाँकि महामारी के कारण सब कुछ ठप्प पड़ गया। मेरे पति किताब की दुकान में काम करते थे। उनकी नौकरी चली गई और हमारे परिवार पर ग़रीबी का पहाड़ टूट पड़ा। हमारी हालत ऐसी हो गई थी कि हम अपने परिवार के लिए ज़रूरत भर अनाज भी नहीं ख़रीद पाते थे।
मेरे पति की नौकरी जाने के कुछ महीने बाद इंडसट्री फ़ाउंडेशन के कुछ लोग हमारे गाँव आए। उन्होंने हमारे एसएचजी से भेंट की और अपने काम के बारे में बताया। मैं जल्द ही उनकी टीम में शामिल हो गई और मशीन ऑपरेटर बनने से पहले कुछ दिनों का प्रशिक्षण हासिल किया। जब से मैंने यह नौकरी शुरू की है मेरी एक निश्चित और नियमित आय है और घर की आर्थिक हालत भी पहले से बेहतर हुई है।
सुबह 4.00 बजे: अपने दिन के शुरुआती कुछ घंटे मैं अपने घर के कामकाज में लगाती हूँ। उसके बाद मैं अपने और परिवार के लिए खाना पकाती हूँ। हमारा परिवार बड़ा है इसलिए मुझे कम से कम चार अलग-अलग प्रकार के व्यंजन पकाने होते हैं। आज खाने में मैं दाल, भात, सब्ज़ी और आम का एक खट्टा-मीठा व्यंजन बना रही हूँ जो ख़ास ओड़िशा में ही बनाया जाता है।
सुबह 8.00 बजे: इस समय हमारे घर में सब बहुत व्यस्त रहते हैं। मेरे बच्चे स्कूल जाने की तैयारी में लगे हैं और मेरे पति गाँव में ट्यूबवेल लगवाने जाने की तैयारी कर रहे हैं। आजकल वह हमारे गाँव के सरपंच के साथ मिलकर काम करते हैं और आधार कार्ड और पैन कार्ड जैसे सरकारी काग़ज बनवाने वाले लोगों की मदद करते हैं।
मैं सबसे पहले अपने सास-ससुर को सुबह का नाश्ता देती हूँ। मेरे ससुर की उम्र 80 साल है और वह डायबिटीज के मरीज़ हैं। उन्हें हार्ट और बीपी की समस्या भी रहती है। उनके लिए समय पर दवाइयाँ लेना ज़रूरी है। उन्हें नाश्ता करवाने के बाद मैं अपना नाश्ता ख़त्म करती हूँ।
दोपहर 12.30 बजे: उत्पादन यूनिट में हम लोग दो शिफ़्ट में काम करते हैं। मैं दिन के दूसरे शिफ़्ट में दोपहर 1 बजे से 7 बजे तक काम करती हूँ, इसलिए मुझे इस समय तक दफ़्तर पहुँचना होता है। घर से यूनिट तक पैदल जाने में मुझे लगभग आधे घंटे का समय लगता है।
जब मैं इंडसट्री में शामिल हुई थी तब मुझे ‘6वाई प्रशिक्षण’ दिया गया था। इस प्रशिक्षण में मैंने ऐसे विभिन्न कौशल (सॉफ़्ट स्किल) हासिल जिनका इस्तेमाल नई नौकरी में किया जा सकता है। मैंने लिंग प्रशिक्षण भी लिया जहां मैंने एक औरत के रूप में अपने अधिकारों के बारे में जाना।
प्रशिक्षण के बाद मैं उन भेदभावों के प्रति अधिक जागरूक हो गई जिनका सामना काम वाली जगहों पर मुझे और मेरे आसपास की औरतों को करना पड़ता है।
प्रशिक्षण के बाद मैं उन भेदभावों के प्रति अधिक जागरूक हो गई जिनका सामना काम वाली जगहों पर मुझे और मेरे आसपास की औरतों को करना पड़ता है। मुझे एक घटना बहुत अच्छी तरह से याद है। उच्च-जाति के हमारे एक पड़ोसी ने अपने दलित समुदाय के पड़ोसी की बहु का बलात्कार कर दिया था। मैं भी दलित समुदाय से ही आती हूँ। हमेशा की तरह इस मामले को भी दफ़ना दिया गया। जब भी एक दलित के रूप में, एक औरत के रुप में हमें किसी तरह की समस्या होती है तो उसे नज़रअन्दाज़ कर दिया जाता है। लेकिन मेरे प्रशिक्षण ने मुझे इनकी पहचान करने के काबिल बनाया है।अपने पति के साथ मिलकर मैंने बलात्कार पीड़ित उस स्त्री को पुलिस में शिकायत करने के लिए तैयार किया। अंत में उस बलात्कारी को तीन साल की क़ैद हुई।
दोपहर 1.00 बजे: जब मैं कारख़ाने पहुँचती हूँ तो सबसे पहले कच्चे माल (सूखी पत्तियाँ) का स्टॉक चेक करती हूँ। मशीन में सूखी पत्तियों को डालने के लिए एक अलग विभाग है। कुल छः मशीनें हैं और सभी ऑपरेटरों को एक -एक मशीन दी गई है। हर मशीन में दो डाई हैं—एक 15-इंच की प्लेट के लिए और दूसरी 12-इंच की प्लेट के लिए। दोनों ही मशीनों को एक साथ चलाया जा सकता हैं। जब मैं इसकी जाँच कर लेती हूँ कि कच्चा माल मशीन में लोड किया जा चुका है तब मैं अपने सुरक्षा उपकरण- एप्रन, टोपी और कोविड-19 के कारण मास्क पहन कर तैयार हो जाती हूँ। ये सब पहन लेने के बाद मैं मशीन चालू करती हूँ। मशीन का तापमान 70–80 डिग्री सेल्सियस होना चाहिए। अगर तापमान बहुत ऊँचा या कम होगा तो दोनों ही स्थितियों में प्लेट की तीन परतें एक दूसरे से नहीं चिपक पाएँगी। मशीन को गर्म होने में आधे घंटे का समय लगता है। जैसे ही मशीन गर्म हो जाती हैं मैं उसमें सूखे पत्ते डालना शुरू कर देती हूँ जो प्लेट बनकर निकलती हैं।
दोपहर 2.30 बजे: डेढ़ घंटे लगातार काम करने के बाद हम दोपहर के खाने के लिए रुकते हैं। मशीन को अस्थाई रूप से बंद करने के लिए एक इमरजेंसी स्विच है। हम खाना खाने जाने से पहले उस स्विच को दबा देते हैं। मशीन वाला कमरा और खाने वाला कमरा अलग-अलग है। मशीन के पास एक बूँद पानी भी नहीं पहुँचना चाहिए। लीफ़ प्रेसिंग विभाग में हम कुल 12 लोग हैं। हर शिफ़्ट में छः औरतें होती हैं। अक्सर हम दोपहर का खाना साथ में खाते हैं और खाते वक़्त बातचीत करते हैं। आज मैं अपना खाना लेकर आई हूँ। मैंने अपने लिए सुबह ही खाना बना लिया था। अक्सर ऐसा होता है कि जल्दी-जल्दी के चक्कर में मैं अपना खाने का डब्बा घर पर ही भूल जाती हूँ और फिर मुझे अपने बच्चों को फ़ोन करके डब्बा मँगवाना पड़ता है।
दोपहर 3.00 बजे: दोपहर का खाना ख़त्म करने के बाद हम लोग मशीन वाले कमरे में वापस लौट जाते हैं। आज मेरी एक सहकर्मी की तबियत कुछ खराब लग रही है इसलिए मुझे उसकी मशीन पर नज़र रखने का कहकर वह शौचालय गई है। दो मशीनों की ज़िम्मेदारी एक साथ उठाना सच में बहुत मुश्किल काम है। उसके वापस आ जाने से मुझे राहत मिल गई है।
जब से मैंने यहाँ काम करना शुरू किया है तब से मैंने लोगों को विकल्प के रूप में साल और सियाली के पत्तों के उपयोग और इसके लाभ के बारे में जागरूक करने का काम भी शुरू कर दिया है।
हम सभी काम करते वक़्त बहुत अधिक सावधानी बरतते हैं लेकिन कभी-कभी हमसे गलती हो जाती है। अगर प्लेट या कटोरे में किसी तरह की समस्या है और क्वालिटी चेक में इसे ख़ारिज कर दिया जाता है तो हमें इसे दोबारा मशीन पर चढ़ाना होता है। हम स्वीकृत और ख़ारिज दोनों ही तरह के उत्पादों के लिए दो अलग-अलग ढ़ेर बनाते हैं। क्वालिटी चेक में सफल उत्पाद स्थानीय बाज़ारों, छोटी-छोटी दुकानों या भुवनेश्वर के होल्सेल एक्सपोर्ट सेलर को बेच दिए जाते हैं। मेरे गाँव के लोग प्लास्टिक का बहुत अधिक इस्तेमाल करते हैं। इसलिए मैं कभी-कभी ख़ारिज ढ़ेर में से कुछ कटोरियाँ और प्लेट लेकर अपने घर में इस्तेमाल करती हूँ या फिर अपने पड़ोसियों को देती हूँ। जब से मैंने यहाँ काम करना शुरू किया है तब से मैंने लोगों को विकल्प के रूप में साल और सियाली के पत्तों के उपयोग और इसके लाभ के बारे में जागरूक करने का काम भी शुरू कर दिया है। अभी कुछ दिन पहले ही मैं अपने बच्चों को बता रही थी कि हिंदू पुराणों के अनुसार मंदिरों में पारंपरिक रूप से साल और सियाली की पत्तियों का ही इस्तेमाल होता है न कि प्लास्टिक का। उदाहरण के लिए पूरी में भगवान जगन्नाथ मंदिर का प्रसाद साल के पत्तों में तैयार किया जाता है। वहीं सियाली की पत्तियों का संबंध भगवान कृष्ण से है। भगवान कृष्ण ने अपना भौतिक शरीर सियाली के पत्तों से बने बिस्तर पर ही त्यागा था।
शाम 5.30 बजे: शाम की चाय के बाद मैं कुछ घंटों के लिए कुर्सी पर बैठती हूँ। आमतौर पर प्रेसिंग मशीन चलाते समय खड़ा ही रहना पड़ता है। मैं अपनी कई सहकर्मियों से उम्र में बड़ी हूँ और मुझे बहुत देर तक लगातार खड़े होने में कठिनाई होती है इसलिए मैंने कुर्सी की माँग की थी। और जब से मैंने कुर्सी पर बैठना शुरू किया है मेरे कुछ सहकर्मियों ने मुझे यह कहकर चिढ़ाना शुरू कर दिया है कि “रीना तो वीआईपी हो गई है।”
रात 8.00 बजे: घर लौटते ही मैं सबके लिए रात का खाना तैयार करती हूँ और हम सब एक साथ बैठकर खाते हैं। दिन भर में यही एक ऐसा समय होता है जब हमारा पूरा परिवार साथ बैठकर खाना खाता है और अपने-अपने दिन के बारे में बताता है। मैं अपने बच्चों, पति और सास-ससुर से बातचीत करती हूँ। मैं उन्हें दिन भर की घटनाओं के बारे में बताती हूँ।
रात 10.00 बजे: मैं अपने सास-ससुर से उनकी ज़रूरतों के बारे में पूछती हूँ और अपने बच्चों को सोने के लिए भेजती हूँ। रसोई और घर की सफ़ाई करने के बाद मेरा दिन ख़त्म होता है। मुझे यूनिट में समय बिताना और काम करना पसंद है। शुरुआत में मैं काम और घरेलू ज़िम्मेदारियों के बीच के संतुलन को लेकर चिंतित थी। लेकिन अब तक सब कुछ बहुत ही अच्छे और सहजता से चला आ रहा है।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया है।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
—
मेरा नाम अटिबेन वर्सत है और मैं पहाड़िया (पांचाल) गाँव की रहने वाली हूँ। यह गाँव गुजरात के अरावली ज़िले के मेघराज प्रखंड में पड़ता है। मैं 2016 से वर्किंग ग्रुप फ़ॉर विमेन एंड लैंड ओनर्शिप के साथ पैरालीगल कर्मचारी के रूप में काम कर रही हूँ। यह संस्था महिलाओं को ज़मीन का मालिकाना हक़ दिलवाने के लिए आवश्यक प्रक्रियाओं जैसे लैंड रिकॉर्ड में उनका नाम जुड़वाने में मदद करती है।
लगभग 13 साल पहले मैंने मानव संसाधन विकास केंद्र के साथ मिलकर काम करना शुरू किया था। तब मैं बच्चों ख़ासकर लड़कियों के शिक्षा से जुड़े प्रोजेक्ट पर काम करती थी। लेकिन जब मुझे पता चला कि उन्हें महिलाओं के भूमि अधिकार जैसे मामलों में काम करने वाले लोगों की ज़रूरत है तो मैंने तुरंत इस पद के लिए अपना आवेदन दे दिया।
मुझे याद है कि मेरे दादा जी के गुजर जाने के बाद मेरी दादी को अपनी ही सम्पत्ति के काग़ज हासिल करने में बहुत अधिक परेशानी हुई थी। उनकी ऐसी हालत देखकर ही मैंने विधवा औरतों के साथ काम करने का फ़ैसला किया। हमारे समाज में अक्सर विधवाओं को उनकी सम्पत्ति से जुड़े अधिकारों से वंचित रखा जाता है क्योंकि उनके पास अपना अधिकार साबित करने के लिए किसी भी तरह का ठोस काग़ज या सबूत नहीं होता है। सम्पत्ति में अधिकार मिल जाने से विधवा औरतों को अपने बच्चों के पालन-पोषण और उनकी शिक्षा में आसानी हो जाती है। साथ ही उन्हें कई तरह के सरकारी लाभ भी मिलते हैं। इसलिए मेरा ज़्यादातर काम हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के तहत आता है जो महिलाओं को उनकी सम्पत्ति का अधिकार दिलवाता है।
अपने प्रशिक्षण में मैंने सीखा कि लैंड रिकॉर्ड को कैसे पढ़ा जाता है, इससे जुड़े क़ानून कौन से हैं और सम्पत्ति को लेकर किस तरह की गतिविधियों की आवश्यकता होती है और लैंड रिकॉर्ड क्यों महत्वपूर्ण है। इसी क्रम में मैंने यह भी जाना कि नौकरी से औरतों को एक निश्चित समय के लिए वित्तीय और आर्थिक सुरक्षा मिल है लेकिन सम्पत्ति के एक छोटे से टुकड़े पर भी उनका अधिकार उनके और उनके परिवार के भविष्य को सुरक्षित करता है।
सुबह 4.30 बजे: मैं सुबह जल्दी उठकर अपने मवेशियों को चारा देती हूँ और उनकी साफ़-सफ़ाई करने के बाद दूध दुहती हूँ। उसके बाद मैं घर की सफ़ाई, चाय और नाश्ता बनाने जैसे काम निबटाती हूँ। फिर मैं दोपहर के खाने का डब्बा तैयार कर अपने बच्चों को स्कूल भेजने के बाद कपड़े और बर्तन धोने का काम ख़त्म करती हूँ। इसके बाद मुझे परिवार के अन्य सदस्यों के लिए दोपहर का खाना भी पकाना होता है। सम्पत्ति के अधिकार से जुड़े कामों की मेरी समझ घर से ही शुरू होती है।
तब वे औरतें अक्सर मुझसे पूछती थीं कि “आप हमें ज़मीन के मालिकाना हक़ की महत्ता के बारे में बता रही हैं, लेकिन क्या आपका नाम आपके घर की सम्पत्ति वाले काग़जों पर है?” इसके बाद ही मैंने अपने पिता की सम्पत्ति के काग़जो पर अपना नाम जुड़वाया और यही प्रक्रिया अपने ससुराल में भी शुरू की। मेरे ससुराल में सम्पत्ति को लेकर कई तरह के विवाद हैं जो कुछ रिश्तेदारों के मृत्यु प्रमाण-पत्र खो जाने से और अधिक जटिल हो गए हैं। इसलिए अभी हम लोग दस्तावेज़ों पर किसी नए सदस्य का नाम जोड़ने से पहले मेरे ससुर और उनके बच्चों में सम्पत्ति के बँटवारे का काम कर रहे हैं।
इससे मुझे अपना ही उदाहरण देने में आसानी होती है। अब मैं अधिक आत्म-विश्वास के साथ औरतों को उनके अधिकारों के बारे में बताती हूँ। मैं उन्हें अपना फ़ोन नंबर देकर आती हूँ ताकि ज़रूरत पड़ने पर वह मुझे फ़ोन कर सकें या स्व भूमि केंद्र पर मुझसे मिलने आ सकें। स्व भूमि केंद्र में हम पैरालीगल कर्मचारी ज़मीन के मालिकाना हक़ से जुड़े मामलों में औरतों की मदद करते हैं और उन्हें उनके अधिकार दिलवाने के तरीक़े ढूँढते हैं।
दोपहर 12.00 बजे: इस समय अक्सर अपने काम की ज़रूरतों के अनुसार मैं स्व भूमि केंद्र या पंचायत के दफ़्तर या लोगों के बीच जाने के लिए निकलती हूँ। मेरे पास अपनी कोई गाड़ी नहीं है और बस-टेम्पो के आने जाने का समय भी तय नहीं होता है इसलिए मुझे एक जगह से दूसरी जगह पर पहुँचने में एक से डेढ़ घंटे का समय लगता है। मैं कई गाँवों में जाती हूँ और उनमें कुछ गाँव 10 से 15 किमी तो कुछ गाँव 20 से 25 किमी दूर होते हैं। पंचायत और तलाती (राजस्व अधिकारी) का दफ़्तर भी मेरे घर से 30 से 40 किमी दूर है। मैं एक दिन में कम से कम 30 से 40 किमी का सफ़र तय करती हूँ। इसके लिए मुझे कई बार बस और रिक्शा बदलना पड़ता है।
मेरी दिनचर्या उस दिन के काम पर निर्भर करती है। दफ़्तर शुरू होने के पहले कुछ घंटे मैं दस्तावेज़ों की जाँच में लगाती हूँ। औरतें अक्सर आकर मुझे अपनी समस्याएँ बताती हैं। मैं उन्हें विभिन्न तरह के काग़ज़ों जैसे सम्पत्ति के काग़ज, सतबारा उतारा (7/12 इक्स्ट्रैक्ट) और उनके पति के मृत्यु प्रमाण पत्र के बारे बताती हूँ। परिवार के सम्पत्ति पर अपना अधिकार हासिल करने के लिए औरतों को इन दस्तावेज़ों की ज़रूरत होती है। बिना मृत्यु प्रमाणपत्र के एक विधवा अपनी पारिवारिक सम्पत्ति पर अधिकार हासिल नहीं कर सकती है। मैं पंचायत के दफ़्तर जाकर इन औरतों के पतियों के मृत्यु प्रमाण पत्र के बारे में पूछती हूँ। अगर मृत्यु प्रमाण पत्र उपलब्ध नहीं होता है तब उस स्थिति में मुझे अन्य जानकरियाँ हासिल करनी पड़ती हैं—जैसे मृत्यु के समय उस व्यक्ति की उम्र, मृत्यु का वर्ष और मृत्यु का कारण। इन सूचनाओं के आधार पर पंचायत से एक दस्तावेज मिलता है जिसे लेकर ज़िला दफ़्तर जाना पड़ता है। इस प्रक्रिया के दो माह बाद मृत्यु प्रमाण पत्र मिलता है। प्रमाण पत्र के मिलने के बाद ही सम्पत्ति पर औरतों के अधिकार को हासिल करने की आगे प्रक्रियाएँ शुरू होती हैं।
अगर मृत्यु प्रमाण पत्र उपलब्ध होता है तब सतबारा उतारा जैसे दस्तावेज हासिल की प्रक्रिया आसान हो जाती है। गुजरात सरकार की एनीआरओआर नाम की एक वेबसाइट है। हम पैरालीगल कर्मचारियों को इस वेबसाइट के इस्तेमाल का प्रशिक्षण दिया जाता है। इसलिए हमें इस वेबसाइट से सतबारा उतारा जैसे काग़ज़ निकालना आता है और इसकी प्रति भी वैध मानी जाती है। लेकिन यह सिर्फ़ एक दस्तावेज है। बाक़ी के दस्तावेज़ों को जुटाने में बहुत ज़्यादा समय लगता है। जब सभी दस्तावेज उपलब्ध हो जाते हैं तब क़ानून के अनुसार भूमि स्वामित्व की आवेदन प्रक्रिया को पूरा होने में 70 से 90 दिन का समय लगता है।
दोपहर 3:00 बजे: औरतों के लिए भूमि से जुड़े अधिकारों पर काम करने के क्रम में सबसे बढ़ी बाधा लोगों की सोच होती है। आज की ही बात है मैं एक महिला के मामले को लेकर एक सरकारी कर्मचारी से मिली। उसने मुझसे कहा कि विधवाओं को सम्पत्ति का अधिकार हासिल करने के लिए क़ानून का सहारा लेने के बजाय दोबारा शादी कर लेनी चाहिए। विधवाओं के ससुराल वालों को यह चिंता सताती है कि अगर कोई विधवा दोबारा शादी करेगी तो सम्पत्ति पर उसके दूसरे पति का भी अधिकार हो जाएगा। उन्हें यह भी लगता है कि सम्पत्ति में हिस्सा मिल जाने के बाद वे घर का काम करना बंद कर देंगी या घर से भाग जाएँगी। नतीजतन ससुराल वाले इन विधवाओं को उनके माता-पिता के घर वापस भेज देते हैं। इसलिए मेरे काम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा ससुराल वालों को शांत करना और इसके पीछे के कारणों को समझने में उनकी मदद करना भी है।
आमतौर पर मैं विधवा के ससुराल वालों से बातचीत करके यह समझने का प्रयास करती हूँ कि कौन उसके सबसे नज़दीक है। मैं उन्हें सम्पत्ति पर इन औरतों के अधिकार की ज़रूरत के बारे में विस्तार से बताती हूँ। मैं उन्हें विश्वास दिलाती हूँ कि अगर वह घर से भाग जाएगी तो सम्पत्ति अपने साथ लेकर नहीं भागेगी इसलिए चिंता की कोई बात नहीं है। एक बार जब सास-ससुर इस बात को समझ जाते हैं तब वे घर के बड़ों से इस विषय पर बात करते हैं। आमतौर पर घर के ये बड़े सदस्य विधवाओं की मदद के ख़िलाफ़ होते हैं। जब घर के बड़े सदस्य आसानी से नहीं मानते हैं तो गाँव के मुखिया या सरपंच को उस विधवा औरत की ओर से परिवार वालों से बात करने के लिए कहा जाता है।
पिता या पति के जीवित रहते ही अगर औरतों का नाम सम्पत्ति के काग़ज़ों में जोड़ दिया जाए तो इस तरह की समस्याओं से बचा जा सकता है। हम लोग औरतों को इसके फ़ायदे बताते हैं। यहाँ अगर कोई औरत विधवा हो जाती है तो उसे सामाजिक नियमों के अनुसार एक महीने तक घर के अंदर ही रहना पड़ता है। मृत्यु प्रमाण पत्र की ज़रूरत और उसकी जानकारी के अभाव में आगे जाकर इन महिलाओं का जीवन कठिन हो जाता है। और अंत में अगर ये औरतें मृत्यु प्रमाण पत्र हासिल करने के प्रयास में लगती हैं तब उन्हें नोटरी शुल्क सहित कई तरह के ख़र्च उठाने पड़ते हैं। इन काग़ज़ी कार्रवाई को पूरा होने में बहुत समय लगता है और उन औरतों को इसके लिए महीनों इंतज़ार करना पड़ता है। इन सभी मुश्किलों से बचने का कोई रास्ता नहीं है।
शाम 4.30 बजे: आज गुरुवार है। आज के दिन तलाती को प्रखंड-स्तर वाले दफ़्तर में अनिवार्य रूप से बैठना पड़ता है। मैंने यह जानने के लिए दफ़्तर में फ़ोन किया कि वह उपलब्ध है या नहीं। उनके उपलब्ध होने की सूचना मिलने के बाद मैंने क्लर्क को बताया कि मैं कुछ औरतों को उनके दफ़्तर भेज रही हूँ। इसके बाद मैंने उन औरतों को बताया कि उन्हें कौन से ज़रूरी काग़ज़़ लेकर तलाती के दफ़्तर जाना है और साथ ही वहाँ जाकर उन्हें बताना है कि वे स्व भूमि केंद्र से आई है। स्पष्ट बातचीत ज़रूरी है क्योंकि तलाती मेघराज प्रखंड के पाँच गाँवों का प्रभारी है और उसके पास समय की कमी होती है। भूमि स्वामित्व प्रक्रिया में तलाती की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। गाँव में होने वाले जन्म और मृत्यु से जुड़े आँकड़ों जैसे 18 विभिन्न प्रकार के दस्तावेज़ों को सम्भालने की ज़िम्मेदारी तलाती की होती है। इसके अलावा वह इन दस्तावेजों को सत्यापित भी कर सकता है।
इन दिनों मैं सबसे अधिक कमजोर औरतों के साथ ही काम कर रही हूँ क्योंकि केंद्रों से आने वाले पैरालीगल कर्मचारियों ने तलाती दफ़्तर से अपना एक रिश्ता विकसित कर लिया है। इससे हमारा समय बचता है और हम एक दिन में ज़्यादा लोगों की मदद कर पाते हैं। जब से मैंने इस क्षेत्र में काम करना शुरू किया है तब से आज तक चीजें बेहतर हुई हैं लेकिन आज भी सरकारी कर्मचारियों के साथ काम करना बहुत मुश्किल है। वे अक्सर कई तरह के बहाने बनाते हैं जैसे आज हमारे पास फ़ॉर्म नहीं है, अगले सप्ताह आना” या कभी कह देते हैं कि “हमारे पास मुहर नहीं है बाद में आना।” उनके इन रवैयों से पूरी प्रक्रिया लम्बी हो जाती है और औरतों को भूमि का अधिकार मिलने में देरी हो जाती है।
रात 9.00 बजे: हालाँकि मैं शाम 6 बजे तक घर वापस लौट जाती हूँ लेकिन मुझे सभी काम ख़त्म करते करते बहुत देर हो जाती है। जब तक मैं घर लौटती हूँ बच्चे स्कूल से वापस आ चुके होते हैं और उन्हें भूख लगी होती है। घर का काम निबटाते निबटाते मैं उन लोगों से बातें करती हूँ, चाय और रात का खाना तैयार करती हूँ। ये सब करते-करते रात के 9 बज जाते हैं। यह समय मवेशियों को चारा देने और उनकी देखभाल करने का होता है। इन कामों में घर के लोग मेरी मदद करते हैं। जब मेरे पति जीवित थे तब मैं अपना ज़्यादा समय खेती के कामों में लगाती थी। अब मैं खेती का काम सिर्फ़ उन दिनों में ही कर पाती हूँ जब मुझे दफ़्तर नहीं जाना होता है। मवेशियों की देखभाल के समय में ही मैं अपनी भाभी से बातचीत भी कर लेती हूँ।
मेरे सास-ससुर के साथ मेरे संबंधों में बहुत उतार-चढ़ाव आए। शुरुआत में मैं जब दफ़्तर जाने लगी तब उनके मन में कई तरह का डर था। जब मैं काम और प्रशिक्षण के लिए अहमदाबाद और अन्य शहरों में ज़ाया करती थी तब वे कहते थे कि “ हमें नहीं मालूम कि यह ऐसा कौन सा काम करती है कि इसे घर से इतने लम्बे समय तक दूर रहना पड़ता है।” लेकिन जब मैंने परिवार के अंदर ही काम शुरू किया तो चीजें बदलने लगीं। उदाहरण के लिए, मैंने सबसे पहले अपने पति के दादी का नाम सम्पत्ति के काग़ज़ में जुड़वाया। हालाँकि इस काम को अंजाम देना मुश्किल था क्योंकि परिवार के सदस्य किसी भी तरह के काग़ज़ पर हस्ताक्षर नहीं करना चाहते थे। इसलिए मैंने सभी सदस्यों को कई-कई बार घर बुलाकर उनसे बातचीत की और उन्हें इसके फ़ायदे बताए। इससे उन्होंने मेरे काम का महत्व समझा। मेरे काम का परिणाम देखकर हमारे आसपास के लोगों ने भी इसमें रुचि लेनी शुरू कर दी। दिन भर का सारा काम ख़त्म करने के बाद मैं रात में लगभग 11 बजे बिस्तर पर जाती हूँ। बिस्तर पर लेटे-लेटे भी मैं अगले दिन के काम और अपनी दिनचर्या के अलावा उन लोगों के बारे में सोचती हूँ जिन्हें मेरे मदद की ज़रूरत है। अब मैं इस काम में इतनी कुशल हो चुकी हूँ कि अगर कोई बीच रात में जगाकर भी कुछ पूछे तो मैं उसे सही उपाय बता सकती हूँ।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
इस लेख को अँग्रेजी में पढ़ें।
—
मेरा नाम नील जेटली है। मैं अपने ही शहर शिलांग में राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (नेशनल एड्स कंट्रोल ऑर्गनायज़ेशन या एनएसीओ) में प्रोजेक्ट मैनेजर हूँ। इसके अलावा मैं मेघालय यूसर्स फ़ोरम का अध्यक्ष भी हूँ। मैं एक ठीक होने वाला व्यसनी भी हूँ। मैंने 16 सालों तक नशे का सेवन किया। लेकिन अब नॉर्काटिक्स अनॉनमस में नशे की आदत छुड़वाने के 12-चरण वाले कार्यक्रम को पूरा कर लिया है और आने वाले दिसम्बर में मुझे नशा मुक्त हुए पूरे दस साल हो जाएँगे।
मैं जानता था कि अगर मैं ख़ुद नशामुक्त नहीं हो पाया तो मैं दूसरों की मदद नहीं कर पाऊँगा।
अपने सबसे बुरे दिनों में मैं एक भूखा, बेरोज़गार और बिना किसी लक्ष्य के जीने वाला आदमी था जिसके सिर पर छत भी नहीं थी। यही वह समय था जब मुझे लगा कि मुझे अपने जीवन को बदलना है। मैं जानता था कि अगर मैं ख़ुद नशामुक्त नहीं हो पाया तो मैं इस काम में दूसरों की मदद नहीं कर पाऊँगा। इसलिए भले ही नशामुक्त होने की मेरी प्रक्रिया धीमी थी लेकिन यह निश्चित थी। और पूरी तरह से नशामुक्त होने के बाद मैं उन लोगों के लिए काम करना चाहता था जो अब भी नशे की लत में डूबे हुए थे।
2015 में एनएसीओ ने मुझे इस क्षेत्र में काम करने का मौक़ा दिया। उन्होंने मुझे आउटरीच कर्मचारी की नौकरी दी और कई वर्षों तक मैंने इसी पद पर रहकर अपना काम किया। आज की तारीख़ में मैं उनके एचआईवी/एड्स कार्यक्रम के लिए एक प्रमाणित सलाहकार की हैसियत से काम करता हूँ। इसके साथ ही मैंने मेघालय यूसर्स फ़ोरम की शुरुआत की जो नशीली पदार्थों के सेवन और मानसिक स्वास्थ्य संबंधी मामलों में युवाओं की मदद के लिए बनाया गया एक समुदाय-आधारित संगठन है।
एनएसीओ के प्रोजेक्ट मैनेजर के रूप में मैं 400 से अधिक लोगों के मामलों पर काम करता हूँ। ये सभी लोग 18 से 45 वर्ष के बीच की उम्र के हैं। हम उन्हें मुफ़्त चिकित्सीय जाँच, दवाएँ और सलाह देते हैं। हम शराब आदि की लत छोड़ने में भी उनकी मदद करते हैं। दूसरी तरफ़ फ़ोरम में मैं अपना ज़्यादातर समय साथ काम कर रहे युवाओं के स्वास्थ्य और क़ानूनी अधिकारों को हासिल करने में लगाता हूँ। इसके अलावा मैं राशन कार्ड जैसे ज़रूरी दस्तावेज़ों को ठीक करवाने, मुफ़्त इलाज की जानकारी देने आदि में भी उनकी मदद करता हूँ ताकि उन्हें उनका अधिकार मिले।
अपने निजी अनुभव और इन युवा लड़के-लड़कियों के साथ किए गए काम से मैंने महसूस किया है कि नशीली पदार्थों के सेवन से जुड़े मुद्दे को अलग नज़रिए से देखने की ज़रूरत है। नशीली पदार्थों के सेवन और उसकी लत को मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे के रूप में देखा जाना चाहिए और नशे की लत से उबरने के लिए मानसिक और भावनात्मक साथ की ज़रूरत होती है। एक दूसरी बड़ी समस्या नशे से जुड़ा कलंक है जिससे निबटने की ज़रूरत है। एचआईवी/एड्स, नशे की लत और मानसिक अस्वस्थता से अब भी कलंक की भावना जुड़ी हुई है। सामाजिक कारकों से पैदा होने वाले मुद्दों के बजाय लोग अब भी इसे निजी विफलता मानते हैं।
ऐसे भी युवा थे जिन्होंने अपनी जान ले ली, यह एक ऐसी घटना थी जिसे टाला जा सकता था।
इस दृष्टिकोण से सामने आने वाले परिणामों को कोविड-19 के दौरान देखा गया। चूँकि लॉकडाउन अचानक लगाया गया था इसलिए स्वास्थ्य कर्मचारी ऐसे युवाओं को भी नियमित रूप से दवाइयाँ या सेवाएँ नहीं दे पा रहे थे जो उनपर पूरी तरह से निर्भर थे। इसके परिणाम स्वरूप हमारे कुछ युवाओं ने आत्महत्या कर ली। यह एक ऐसी परिस्थिति थी जिसे टाला जा सकता था।
आज की तारीख़ में हमारे पास 11-12 साल के ऐसे बच्चे हैं जिन्होंने नशे की सूईयाँ लेनी शुरू कर दी है और इनमें से ज़्यादातर बच्चों ने इससे पहले कभी सिगरेट भी नहीं पी थी। अपने काम से मैं लोगों को यह समझना चाहता हूँ कि ऐसा क्यों होता है और इसे ख़त्म करने के लिए हम क्या कर सकते हैं।
सुबह 2 बजे: मुझे पुलिस स्टेशन से फ़ोन आया और उन्होंने बताया कि एक लड़का दुकान से सामान चोरी करते हुए पकड़ा गया है और उनका ऐसा मानना है कि वह नशे की लत वाला इंसान है। चूँकि फ़ोरम में मेरा काम क़ानून लागू करवाना है इसलिए ऐसी कोई घटना होने पर आमतौर पुलिस, एंटी-नारकोटिक्स टास्कफ़ोर्स और ज़िला बाल संरक्षण आयुक्त के लोग मुझसे सम्पर्क करते हैं।
उसके बाद मैं थाने जाकर उस नाबालिग की तरफ़ से मामले में हस्तक्षेप करता हूँ। हमारे साथ कुछ ऐसे वकील भी जुड़े हुए हैं जो घटना में शामिल सभी पक्षों के बीच मामले की समझ को स्पष्ट करने में मदद करते हैं। आमतौर पर अगर पकड़ा गया नाबालिग इलाज करवाने या हमारे कार्यक्रम में शामिल होने के लिए तैयार हो जाता है तो उस स्थिति में उनके ख़िलाफ़ किसी तरह की क़ानूनी कार्रवाई नहीं होती है।
कभी-कभी युवा लड़के और लड़कियाँ आधी रात में मुझसे सम्पर्क करते हैं। ऐसा अक्सर उस स्थिति में होता है जब या तो उनका परिवार उनके साथ मारपीट करता है या फिर स्थानीय लोग उन्हें परेशान करते हैं या फिर उन्हें घर से निकाल दिया गया होता है। इन स्थितियों में हम उनके रहने-खाने और इलाज की व्यवस्था में मदद करते हैं।
चूँकि लोग मुझे अक्सर ही बीच रात में फ़ोन करते हैं इसलिए मेरा फ़ोन कभी भी स्विच ऑफ़ नहीं होता है।
सुबह 10 बजे: मैं अपने दफ़्तर जाकर कुछ काग़ज़ी काम निबटाता हूँ। फ़ोरम में हम कई तरह का काम करते हैं। इन कामों में हमें हमेशा ज़्यादा सुविधाओं, और अधिक कार्यक्रमों और मज़बूत नेटवर्क के लिए लोगों से हमेशा लड़ाई करते रहनी पड़ती है। मेघालय में नशे की लत से जूझ रहे और मानसिक रूप से बीमार युवाओं के लिए इनमें से कुछ भी उपलब्ध नहीं है। संसाधन की कमी का दूसरा अर्थ सीमित फ़ंडिंग भी है। दरअसल फ़ोरम द्वारा किए जाने वाले ज़्यादातर कामों के लिए मैं अपनी तरफ़ से भुगतान करता हूँ। इसमें हमारे सदस्यों के परिवहन का खर्च, लड़के-लड़कियों को सदर अस्पताल ले जाने का खर्च और ऐसे ही कई खर्च शामिल हैं। हालाँकि मैं इसे इस तरह देखता हूँ कि एक बार मुझ जैसे बेघर को दूसरा मौक़ा मिला था। इसलिए अगर मैं सक्षम हूँ तो मैं भी दूसरों के लिए ऐसा ही करना चाहूँगा।
सबसे बड़ी बात यह है कि मैं ड्रग से होने वाली मौतों की संख्या को कम करना चाहता हूँ। और इसके लिए हमें और अधिक पैसों की ज़रूरत है। उदाहरण के लिए शिलांग के ज़्यादातर अस्पतालों में नालोक्सोन नहीं होता है। यह एक ऐसी दवाई है जिसका इस्तेमाल ओवरडोज़ के प्रभाव को कम करने के लिए किया जाता है। इस दवा की मदद से होने वाली मौतों को रोका जा सकता है इसलिए हम चाहते हैं कि यह व्यापक स्तर पर उपलब्ध हो। इसके लिए हम अलाइयन्स इंडिया से जुड़े जिन्होंने मुफ़्त में यह दवा उपलब्ध करवाई। अब मेरे पास दवाएँ उपलब्ध हैं और हर बार आपात की स्थिति में जब पुलिस या एम्बुलेंस वाले मुझे फ़ोन करते हैं तब मैं उनकी मदद कर पाता हूँ। भविष्य में मैं अधिक फंड की व्यवस्था करना चाहता हूँ ताकि भारी मात्रा में इस दवा का इंतज़ाम किया जा सके। दवा की अधिक मात्रा होने से इसे सभी 108 एम्बुलेंसों में उपलब्ध करवाया जा सकता है और लोगों को इसके इस्तेमाल के बारे में बताया भी जा सकता है।
दोपहर 12 बजे: मैं अपने टीम के सदस्यों के साथ मिलकर राज्य एड्स नियंत्रण समाज (एड्स कंट्रोल सोसायटी) और स्थानीय एंटीरेट्रोवाइरल उपचार (एआरटी) केंद्रों से सम्पर्क करता हूँ और यह सुनिश्चित करता हूँ कि हमारे किशोरों को दवाएँ और अन्य ज़रूरी संसाधन मिले। कोविड-19 लॉकडाउन के कारण यह सम्पर्क ज़रूरी हो गया है क्योंकि मणिपुर, नागालैंड, मिज़ोरम और कुछ दूसरे राज्यों से आने वाले छात्र भी यहाँ फँसे हुए थे। चूँकि इन छात्रों का पंजीकरण उनके शहर के एआरटी केंद्रों में था इसलिए उन्हें उनकी दवाइयाँ यहाँ नहीं मिल पा रही थी। जब हमने यह सब देखा तब मेरे सह-संस्थापक और मैंने मिलकर स्थानीय केंद्रों से सम्पर्क साधा और उन लोगों को दवाएँ पहुँचाई जिन्हें इनकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी।
दोपहर 2 बजे: दोपहर में मैं कुछ आउटरीच कर्मचारियों के साथ फ़ील्ड में जाता हूँ। इस शहर में कुल 10 ड्रग अस्पताल हैं और हमारी कोशिश रहती है कि हम सप्ताह में एक बार सभी अस्पतालों का दौर करें। इन अस्पतालों का दौरा इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यहाँ इलाज करवा रहे लड़के-लड़कियों के पास इतने पैसे नहीं होते हैं। पैसे नहीं होने के कारण वे हमारे पास आकर हमारी सेवाएँ नहीं ले पाते हैं इसलिए हम सूचनाओं को उन तक पहुँचाने का काम करते हैं।
हमारा लक्ष्य इस जीवन को पीछे छोड़ने में इन युवाओं की मदद करना है।
फ़ील्ड में हम आमतौर पर सलाह देने का काम करते हैं। हम सुरक्षित इंजेक्शन के तरीक़ों, कई लोगों के लिए एक ही नीडल का इस्तेमाल नहीं करने के महत्व के बारे में बताते हैं और साथ ही ओपीयोड सब्स्टिट्यूशन थेरेपी (ओएसटी) को बढ़ावा देने की सलाह देते हैं। यहाँ हमारा लक्ष्य इस जीवन को पीछे छोड़ने में इन युवाओं की मदद करना और उनके उपचार और देखभाल में एक कदम आगे बढ़ाना है। इसके लिए हमारे पास स्थानीय नारकोटिक्स अनॉनमस (एनए) भी है जिसमें बहुत सारे किशोर-किशोरियों ने सदस्यता ली है। कभी-कभी एनए के सदस्य विभिन्न इलाक़ों के दौरे पर हमारे साथ जाते हैं और नशे की लत से जूझ रहे लोगों और स्थानीय नेताओं से मिलकर उनसे जानकारी बाँटते हैं।
शाम 5 बजे: फ़ोरम में हम क़ानून प्रवर्तन में काम करने वाले लोगों के साथ नियमित प्रशिक्षण का आयोजन करते हैं। इन सत्रों में हम पुलिस अधिकारियों से नशे की लत और इस लत से पीड़ित लोगों के व्यवहार के बारे में बातचीत करते हैं। साथ ही हम उनसे यह पूछते हैं कि नशे की लत से पीड़ित आदमी के लक्षण कैसे होते हैं और इन लोगों तक पहुँचने के सुरक्षित तरीक़े क्या हैं। कोविड-19 के दौरान इन कार्यशालाओं को रोक देना पड़ा था। लेकिन हमें आशा है कि इसे दोबारा जल्द ही शुरू किया जाएगा क्योंकि यह सड़कों पर पुलिस कर्मचारियों के व्यवहार में आने वाले बदलाव का एक अभिन्न हिस्सा है।
शाम 7 बजे: शाम में मैं अक्सर हमारे कार्यक्रमों से मिलने वाले आँकड़ों को देखने और हमारे अगले कदम के बारे में सोचने का काम करता हूँ। उदाहरण के लिए, कल हमारे दफ़्तर में एक कार्यक्रम है। इस कार्यक्रम का उद्देश्य हेपटाईटिस-सी के बारे में लोगों को शिक्षित करना है। शनिवार को हम मानव अधिकार के विषय पर एक कार्यक्रम का आयोजन करने वाले हैं। ये सभी कार्यक्रम शिक्षा-संबंधी हैं और हमारी पूरी कोशिश रहती है कि हम अधिक से अधिक संख्या में ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन कर सकें। लेकिन हम इन्हें चलाने के लिए दान और अनुदानों पर निर्भर रहते हैं। इन कामों को निबटाने के बाद आमतौर पर रात के 9 बजे मेरा दिन ख़त्म होता है।
अपने काम और जीवन को पीछे मुड़कर देखने पर मुझे लगता है कि मैंने कुछ चीजें सीखी हैं। इसमें से पहली चीज़ नारकोटिक्स अनॉनमस जैसे कार्यक्रमों की महत्ता है जिनके कारण आज मैं नशामुक्त, जीवित और दूसरों की मदद करने के लायक़ हूँ। पूरी दुनिया में नशा मुक्ति की लड़ाई में एनए ने मुख्य खिलाड़ी की भूमिका निभाई है। हमें भारत में भी इसकी बहुत ज़्यादा ज़रूरत है लेकिन इसके लिए हमें फंड की भी ज़रूरत है। इसके अलावा मैं ज़ोर देते हुए यह बात कहना चाहूँगा कि मानसिक स्वास्थ्य और नशे की लत दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। और इसलिए इन लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है। अंत में, मुझे लगता है कि नशे की लत से जूझ रहे लोगों ख़ासकर किशोर और नाबालिगों के साथ काम करते समय उन्हें दंडित करने से ज़्यादा महत्वपूर्ण है उनका समर्थन करना।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
—
अरुणा रॉय एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) की संस्थापक हैं। उनकी कड़ी मेहनत और कुशल नेतृत्व के कारण ही 2005 में सूचना का अधिकार (आरटीआई) अधिनियम लागू हुआ। यह एक ऐसा ऐतिहासिक अधिनियम है जिसने आम नागरिकों को संस्थानों से पारदर्शिता और जवाबदेही की मांग का अधिकार दिलवाया।
पिछले चार दशकों में वह आम लोगों से जुड़े कई आंदोलनों में सबसे आगे रही हैं। इसमें काम का अधिकार अधिनियम भी शामिल है जिसके तहत मनरेगा और भोजन का अधिकार जैसे अधिनियम अस्तित्व में आए। सामुदायिक नेतृत्व के लिए साल 2000 में उन्हें मैगसेसे पुरस्कार दिया गया। आईडीआर के साथ अपने इस इंटरव्यू में रॉय भागीदारी आंदोलनों की शुरुआत और उन्हें बनाए रखने, बदलाव लाने में संघर्ष की भूमिका और सामूहिक आवाज़ की शक्ति के बारे में बात कर रही हैं। इस इंटरव्यू में उन्होनें भारत के लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार की महत्ता के बारे में बताया है। साथ ही इस पर भी अपने विचार दिये हैं कि नागरिक समाज को इस अधिकार को बनाए रखने के लिए क्यों संघर्ष करना चाहिए। अंत में अरुणा रॉय का कहना है कि हम एक ऐसे स्वतंत्र और खुले समाज की उम्मीद में हैं जहां युवा संवैधानिक नैतिकता की सीमाओं के भीतर रहकर बिना किसी भय के काम कर सकें।
मेरा जन्म भारत की आज़ादी से एक साल पहले हुआ था। इससे मैं पूरी तरह से उस नए और उभरते देश की यात्रा से जुड़ गई जिसे हम इंडिया या भारत कहते हैं। मैं दिल्ली में पली-बढ़ी हूँ। मेरा परिवार प्रगतिशील और शिक्षित था—मेरी माँ ने गणित और भौतिकी की पढ़ाई की है और मेरे पिता 10 साल की उम्र में शांतिनिकेतन में थे। मेरी दादी ने सीनियर कैम्ब्रिज तक की पढ़ाई की थी। समानता के मुद्दे हमारे रोज़मर्रा जीवन का हिस्सा थे। वर्ग, जाति या साक्षरता के स्तर को बिना ध्यान में रखे हमारे घर आने वाले सभी लोग एक साथ बैठकर एक ही कप में चाय पीते थे। उस समय मुझे बिलकुल ऐसा नहीं लगता था कि यह एक ‘आम बात’ नहीं थी। मैंने बचपन से ही सभी त्योहार मनाए हैं और सभी महान लोगों की कहानियाँ सुनते हुए बड़ी हुई हूँ।
मुझे शास्त्रीय नृत्य और संगीत सीखने के लिए चेन्नई में कलाक्षेत्र भेजा गया था, और उसके बाद कई अन्य विद्यालयों में। मैंने अँग्रेजी साहित्य की पढ़ाई की है और 1967 में दिल्ली विश्वविद्यालय के इंद्रप्रस्थ कॉलेज से एमए किया। मैंने अपने ही कॉलेज में एक साल तक पढ़ाने का काम किया और उसके बाद 1968 में केंद्रशासित प्रदेशों के कैडर के हिस्से के रूप में सिविल सर्विसेस में काम करना शुरू कर दिया। मैं पहले पॉण्डिचेरी में थी और उसके बाद दिल्ली में। राजस्थान के ग्रामीण इलाकों के गरीबों के साथ काम करने के लिए मैंने 1975 में अपनी नौकरी छोड़ दी।
जीवन भर मेरे लिए काम करने के कई कारण रहे हैं। मेरी माँ बहुत अधिक प्रतिभाशाली और निपुण महिला थीं। हालांकि वह कभी भी सामाजिक जीवन का हिस्सा नहीं बनीं। इस वजह से वह दुखी भी रहा करती थीं क्योंकि उनका मानना था कि महिलाएं किसी भी मामले में पुरुषों से कम नहीं हैं। लेकिन पुरुषों की दुनिया में महिलाओं को हमेशा एक घरेलू सामान के रूप में ही देखा गया। मेरी माँ के लिए यह बहुत कष्टदायक था। मेरे अंदर यह बात गहरी बैठ गई कि एक महिला के लिए उसके घरेलू जीवन से बाहर भी उसकी एक जिंदगी होनी चाहिए।
आप कह सकते हैं कि मेरी पहली राजनीति नारीवाद थी। जाति की राजनीति मेरी दूसरी राजनीति थी।
यह उन मूलभूत सिद्धांतों में से एक है जिसपर मैं अपना जीवन जीती हूँ—एक औरत के पास ऐसी एक जगह होनी चाहिए जहां वह आज़ादी के साथ अपनी बात कह सके। आप कह सकते हैं कि मेरी पहली राजनीति नारीवाद थी। जाति की राजनीति मेरी दूसरी राजनीति थी। मेरे पिता, दादा-दादी और परदादाओं ने भेदभाव के खिलाफ लड़ाइयाँ लड़ीं, विशेष रूप से जाति से जुड़े भेदभाव के खिलाफ। जाति, छुआछूत और जाति-व्यवस्था की जिद और भेदभाव को समझना मेरे बचपन के दिनों का हिस्सा था। मैं विभाजन के बाद की दिल्ली में रहकर बड़ी हो रही थी इसलिए धार्मिक भेदभाव, हिंसा और इनसे होने वाली तबाहियाँ मेरी भावनात्मक स्मृति का हिस्सा थीं।
मैं सिविल सर्विस में गई क्योंकि मुझे लगा कि शायद यही वह जगह है जहां आप समाज में व्याप्त भेदभाव और असमानता को कम करने के लिए सक्रिय रूप से काम कर सकते हैं। सिविल सर्विस की नौकरी छोड़ने के बाद मैंने राजस्थान के तिलोनिया में सोशल वर्क एंड रिसर्च सेंटर (या बेयरफुट कॉलेज) नाम की एक स्वयंसेवी संस्था के साथ काम शुरू किया।
उन नौ सालों में मैंने शिक्षा से हासिल अपने ज्ञान को भूलने का काम किया। मैंने अंतर-सांस्कृतिक संचार और गरीबी, जाति और लिंग को उन लोगों की नजरों से देखना शुरू किया जो भेदभाव से पीड़ित थे। मैंने यह भी जाना कि वह कौन सी चीज है जो गरीबों को आगे बढ़ने से रोकती है। मैंने बेहद बुद्धिमान कामकाजी-वर्ग की महिलाओं और पुरुषों से सीखा।
मैंने विशेष रूप से नौरती नामक एक महिला से बहुत कुछ सीखा। नौरती पिछले 40 सालों से मेरी दोस्त है। वह दलित है और उसकी उम्र मुझसे थोड़ी कम है। जब हम पहली बार मिले थे तब वह एक दिहाड़ी मजदूर थी। उसने पढ़ाई-लिखाई की और मजदूरों की नेता बन गई। बाद में आगे जाकर उसने अनुचित न्यूनतम मजदूरी के लिए आंदोलन किया। वह औरतों के अधिकार के लिए लड़ने वाली एक लोकप्रिय नेता, एक कंप्यूटर ऑपरेटर और एक सरपंच भी है। मैं न्यूनतम मजदूरी से जुड़े उसके अभियानों का हिस्सा थी। मैंने जागरूकता कार्यक्रमों के माध्यम से कानून के बारे में उसे बताना शुरू किया और उसने लोगों को जोड़ने का काम किया। अंतत: 1983 में, सर्वोच्च न्यायालय ने न्यूनतम मजदूरी के मामले में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया—संजीत रॉय बनाम राजस्थान सरकार—संविधान की धारा 14 और धारा 23 के तहत। नौरती एक कॉमरेड है और हम लोगों ने एक साथ मिलकर सती और बलात्कार के खिलाफ लड़ाइयाँ लड़ी हैं। इसके अलावा हमनें एक साथ मिलकर आरटीआई, मनरेगा और अधिकार-आधारित अन्य कार्यक्रमों के लिए भी काम किया है। वह एक बहुत ही बहादुर महिला है। हम आज भी आपस में अच्छे दोस्त हैं और एक दूसरे को बराबर मानते हैं।
तिलोनिया में मुझे सहभागी प्रबंधन के लिए एक संगठन जैसी किसी एक इकाई की जरूरत महसूस हुई। कार्यान्वयन के लिए समानता के साथ लोकतान्त्रिक तरीकों का निर्माण करना बहुत जरूरी है। आप भागीदारी की सुविधा कैसे देते हैं और नॉन-निगोशिएबल क्या हैं? पहला सिद्धान्त यह है कि आपको सुनना पड़ेगा और असहमति को स्वीकार करना पड़ेगा। आपको यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि आम सहमति की स्थिति तक पहुँचने के लिए आपको कुछ चीजें छोड़ देनी होंगी। ऐसा तभी होगा जब इसके लिए एक ख़ाका मौजूद हो।
जैसे-जैसे मैं अपनी राजनीति में आगे बढ़ी मुझे एहसास हुआ कि मैं एक डेवलपमेंट-वाली नहीं बनना चाहती थी। मैं संवैधानिक अधिकारों की पहुँच के लिए होने वाले संघर्षों का एक हिस्सा बनना चाहती थी। मजदूरों के साथ काम करने के लिए मैं राजस्थान के केंद्रीय क्षेत्रों में गई और वहाँ मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) बनाया। इस काम में शंकर सिंह और निखिल डे जैसे दोस्तों ने मेरा साथ दिया जो इन मुद्दों पर मेरी ही तरह की सोच रखने वाले लोग हैं। एमकेएसएस एक संघर्ष-आधारित संगठन है। इसका दफ्तर देवडूंगरी में मिट्टी की एक झोपड़ी में है और यह किसी भी तरह का संस्थागत अनुदान नहीं लेता है। कई अन्य अभियानों की तरह आरटीआई अभियान की परिकल्पना भी इसी जगह तैयार हुई थी। इसी जगह से हमनें आरटीआई के लिए मुहिम शुरू किया था। यह एक लंबी यात्रा है। इस समय हम लोग जवाबदेही कानून के लिए संघर्ष कर रहे हैं । हम लोग अभी राजस्थान में 33 जिलों की यात्रा पर हैं और सरकार को अपने चुनावी वादे लागू करने के लिए कह रहे हैं। मैं अब भी काम करती हूँ और संघर्षों में हिस्सा लेती हूँ।
एक वित्तपोषित आंदोलन की अपनी सीमाएं होती हैं। महात्मा गांधी ने कहा था कि जब आप अपने ही लोगों से लड़ते हैं तब आपको इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि आपकी आलोचना इस बिन्दु पर न की जाए कि यह लड़ाई या संघर्ष निजी स्वार्थों द्वारा वित्तपोषित है। किसी संघर्ष या लड़ाई के लिए वित्तीय सहायता उन्हीं लोगों की तरफ से मिलनी चाहिए जिसका वह प्रतिनिधित्व करती है।
या फिर आंदोलन और अभियानों के समर्थकों द्वारा मिलनी चाहिए। समानता का अभियान किसी तरह की कोई परियोजना नहीं है।
सहभागी आंदोलनों और अभियानों पर उन सभी प्रकार की सामंती और सामाजिक संरचनाओं का असर पड़ता है जिनका पालन आम लोग करते हैं। इसके अलावा सरकार लोगों को जेल में डाल सकती है, माफिया लोगों के साथ मार-पीट कर सकती हैं। यह बता पाना असंभव है कब क्या होगा। इसलिए इस तरह की किसी भी परियोजना के परिणाम की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है।
जब आप लोगों के साथ काम करते हैं तब तीन तरह के काम होते हैं: सेवा, निर्माण और संघर्ष। सेवा कल्याण होता है—भूखे लोगों को खाना देना या बीमार की सेवा करना। निर्माण का मतलब विकास है—स्कूल चलाना या औरतों के लिए कौशल कार्यक्रम आयोजित करना। एमकेएसएस का काम मोटामोटी तीसरे क्षेत्र यानि कि संघर्ष की श्रेणी में आता है। इसकी विस्तृत परिभाषा में यह लगभग हमेशा ही एक ऐसा राजनीतिक काम होता है जो लोकतान्त्रिक सहभागिता के ढांचे में रहकर संवैधानिक अधिकारों की मांग करता है। एक स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए काम के ये तीनों ही तरीके आवश्यक है। एमकेएसएस और नर्मदा बचाओ आंदोलन जैसे संगठनों द्वारा किए जाने वाले अधिकार-आधारित कामों के लिए बहुत अधिक बजट की जरूरत नहीं होती है। यह ऐसी चीजों पर टिकी रह सकती हैं जिन्हें हम क्राउडफंडिंग कहते हैं।
एमकेएसएस और मेरा ऐसा मानना है कि समानता के लिए किए जाने वाले सभी संघर्ष की जड़ राजनीतिक समझ में निहित होती है।
एमकेएसएस और मेरा ऐसा मानना है कि समानता के लिए किए जाने वाले सभी संघर्ष की जड़ राजनीतिक समझ में निहित होती है। यहाँ राजनीतिक होने का अर्थ सरकारी सत्ता हासिल करना नहीं है बल्कि अपने संवैधानिक अधिकारों के बारे में जानना है। मौलिक अधिकारों और राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के आधार पर इस देश का संविधान मुझे इस लड़ाई का अधिकार देता है और यह लड़ाई मेरे लिए जरूरी भी है। इस लड़ाई में हम लोग न्यायपालिका, विधायिका या कार्यपालिका का विरोध नहीं करते हैं। लेकिन हमारी मांग यह है कि इन्हें लोगों के लिए काम करना चाहिए, खासकर संवैधानिक मानकों के संदर्भ में।
एमकेएसएस में हमें मानदेय के रूप में न्यूनतम कृषि मजदूरी मिलती है। हम करीब 20 लोग हैं और इस तरह से लगभग 31 वर्षों से काम कर रहे हैं। हमारा जीवन भी उन्हीं लोगों की तरह है जिनका हम प्रतिनिधित्व करते हैं। इससे हम उनके संघर्षों को समझ पाते हैं और उसका अनुभव ले पाते हैं।
हम लोगों के योगदान का स्वागत नकद और अन्य दोनों ही रूपों में करते हैं। हम मानते हैं कि हमें उन लोगों से ही पैसे मांगना चाहिए जिनके लिए हम काम करते हैं। पहली बात यह है कि मांगने के काम में एक तरह की विनम्रता होती है—लोगों के बिना हमारा कोई अस्तित्व नहीं है और उनका योगदान उनके लिए सम्मान लेकर आता है। इससे वे अपने उस समस्या को करीब से अपना पाते हैं। दूसरा पहलू यह है कि जब वे हमें आर्थिक योगदान देते हैं तब वे हमारा मूल्यांकन करते हैं और हम उनके प्रति जवाबदेह होते हैं। अगर हम काम नहीं करेंगे तो हमें उनका साथ नहीं मिलेगा।
लोगों की भागीदारी उनके आर्थिक योगदान से अधिक महत्वपूर्ण है।
लेकिन लोगों की भागीदारी उनके आर्थिक योगदान से अधिक महत्वपूर्ण है। 1996 में आरटीआई के लिए ब्यावर में किया गया 40-दिन लंबा धरना इस बात का प्रतीक है, और यह लोगों की भागीदारी की एक कहानी भी है।1
हम लोग 400 गांवों में लोगों से समर्थन मांगने गए थे। प्रत्येक परिवार ने न सिर्फ हमें 5 किलो अनाज दिया बल्कि चार से छ: दिनों तक हमारे साथ धरने पर भी बैठे। शहर के लोगों के लिए यह एक बड़ी खबर बन गई थी। सब लोग धरना वाली जगह पर जमा हो गए थे। हम सब ऊर्जा से भरे हुए लोग अपना खाना-पीना भी वहीं कर रहे थे। इस दौरान कई सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी होता रहता था, जैसे हमने कविता पाठ किया, बाबा साहब अंबेडकर का जन्मदिन और मजदूर दिवस भी मनाया। इस आंदोलन की शुरुआत भ्रष्टाचार और सत्ता में बैठे लोगों की मनमर्जी के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए हुआ था। इसने मजदूर वर्ग के लिए आरटीआई की मांग को सरकार के सामने रखा था।
और धीरे-धीरे इस आंदोलन का विस्तार हुआ और यह बात स्पष्ट हुई कि यह मांग लोकतांत्रिक कामकाज के लिए कितनी जरूरी है और साथ ही कि यह एक संवैधानिक मूल्य है। मेरे एक दोस्त एस आर संकरन ने मुझसे कहा कि “यह एक परिवर्तनकारी कानून है, क्योंकि आरटीआई के माध्यम से आप मानव अधिकार, आर्थिक अधिकार, सामाजिक अधिकार और ऐसे कई अधिकार हासिल कर सकते हैं।” संकरन एक भारतीय प्रशासनिक अधिकारी (आईएएस) हैं।
लोगों ने इस बात को समझा कि भ्रष्टाचार और मनमानी शक्तियों से लड़ने के लिए पारदर्शिता एक महत्वपूर्ण तरीका है। लेकिन अगर ब्यावर में किया गया वह धरना लंबे समय तक नहीं टिकता और वहाँ के स्थानीय निवासी एवं व्यापार संघ उस धरने को आर्थिक और राजनीतिक समर्थन नहीं देते तो यह संभव नहीं हो पाता। यह सामुदायिक आवाज़ की ताकत है। यह लोगों का किसी मुद्दे पर एक साथ आना है। जब हम किसी मुद्दे को अपना लेते हैं तब यह हमारी अपनी लड़ाई बन जाती है। और जब यह बदलाव आ जाता है तब लोग उस संघर्ष में अंत तक आपके साथ खड़े होते हैं।
कुछ एसी चीजें हैं जिनपर समझौता नहीं किया जा सकता है। पहला, आपकी अपनी पारदर्शिता और जवाबदेही हमारे सार्वजनिक जीवन का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होना चाहिए। मेरा जन्म और मेरी शिक्षा ऐसे परिवार में हुई जो विशेष अधिकार वाले वर्ग से आता है। लेकिन मैं ऐसे लोगों के साथ काम करती हूँ जो पूरी तरह से वंचित हैं।
विशेष अधिकार पाने की स्थिति में रहने वाले आदमी को अपनी ईमानदारी और सत्यनिष्ठा के साथ बातचीत में पारदर्शिता रखनी चाहिए। मसलन, ब्यावर के धरनास्थल पर हमने एक बोर्ड लगाया हुआ था जिसपर हर दिन मिलने वाले दान का ब्योरा लिखा जाता था।
दूसरा, आपको बराबर बनना होगा न कि बराबरी की सिर्फ बात करनी होगी। हम सब को यह समझना होगा कि सब लोग बराबर है, और सोचने का, बात करने का और अपना अस्तित्व बनाए रखने का अधिकार सभी को है। दुविधा उस समय होती है जब आप ऐसे लोगों से बात करते हैं जिनके मौलिक सिद्धान्त आपसे मेल नहीं खाते।
मान लीजिये मैं किसी ऐसे आदमी के साथ बातचीत कर रही हूँ जो जाति में विश्वास करता है। तब उस स्थिति में मुझे अपनी बातचीत इस विषय के साथ शुरू करनी होगी कि जाति कैसे पूरी तरह से एक अतार्किक अवधारणा है। लेकिन जब तक हम संवाद की स्थिति में नहीं जाते हैं तब तक हमारा वास्तविक जुड़ाव, दोस्ती, भागीदारी और विकास नहीं होगा।
दलित और गरीब लोगों से मैंने सीखा है कि समानता का मतलब होता है संघर्ष और उसका सामना करने की ताकत।
हम विरोध, असहमति और सार्वजनिक जगहों पर जाने के अपने अधिकार खोते जा रहे हैं। फिर ऐसे लोकतंत्र का क्या मतलब रह जाता है जब आप सार्वजनिक रुप से अपनी बात लोगों को नहीं सुना सकते हैं और न अपनी बात कहने के लिए आपके पास सार्वजनिक जगहें हैं। लोकतन्त्र में हमारे पास विरोध का अधिकार होना चाहिए और नहीं है तो उसकी मांग करनी चाहिए। इस अधिकार के होने से ही हम अपनी बात सब तक पहुंचा सकते हैं।
भारतीय लोकतन्त्र की समस्या यह है कि करोड़ों मतदाताओं के होने के बावजूद भी शीर्ष पर बैठकर फैसले लेने वाले लोगों की संख्या कम होती जा रही है और उनका दायरा संकुचित होता जा रहा है। नीचे के लोगों की आवाज़ सुनाई देनी बंद हो गई है। करोड़ों लोगों को प्रभावित करने वाले फैसले न तो संसद में लिए जाते हैं न ही केबिनेट में बल्कि ये फैसले कुछ लोग ही लेते हैं। एमकेएसएस का मानना है कि सड़क ही हमारी संसद है और सड़क ही वह कमरा है जहां हम नीतियाँ बनाते हैं। यही वह जगह है जहां हम विरोध के लिए और बातचीत करने के लिए जाते हैं। जब आप सड़क पर होते हैं तब आप ऐसे लोगों से बात करते हैं जो आपके अभियान या आंदोलन का हिस्सा नहीं हैं। एक नागरिक समाज आंदोलन के लिए ऐसी ही उत्तेजना की जरूरत होती है। हम लोगों ने सर्वोच्च न्यायालय में एक पीआईएल दर्ज किया था कि हमें जंतर मंतर पर जाने का अधिकार वापस दिया जाए। और जुलाई 2018 में हम इसे वापस पाने में सफल हुए।
हमारी पीढ़ी बहुत भाग्यशाली थी—हमसे अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार नहीं छीना गया था। हम वह सब कुछ कह सकते थे जो हम कहना चाहते थे। आज, हम एक ऐसी शासन प्रणाली हासिल करने के लिए खाका बनाने की शुरुआती स्तर पर हैं जो बोलने की आज़ादी देता है। यह किसी भी लोकतन्त्र के लिए एक जरूरी चीज है।
अन्य हितधारकों को शामिल करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। आरटीआई आंदोलन ने अपने साथ सभी को शामिल किया था—मीडिया, शिक्षा जगत के लोग, वकील और अन्य। मनरेगा ज्यां द्रेज़, जयती घोष, प्रभात पटनायक जैसे अर्थशास्त्रियों के बिना संभव नहीं होता। इनके अलावा इस मुहिम में वे लोग भी थे जिन्होनें जिन्होंने सरकार के ‘कोई पैसा नहीं’ के लगातार विरोध का मुकाबला करने के लिए राजकोषीय तर्कों का इस्तेमाल किया। आरटीआई कानून का मसौदा न्यायाधीश पी बी सावंत ने बनाया था जो सर्वोच्च न्यायालय के भूतपूर्व न्यायाधीश और प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष थे।
आज नागरिक समाज निशाने पर है क्योंकि यह न्याय और समानता की आवाज़ को बुलंद करता है।
अगर आप किसी चीज की सफलता चाहते हैं तब उसमें आपको विभिन्न स्तरों के लोगों को शामिल करना होगा। उन्हें अपने विचारों को लेकर प्रभावित करना पड़ेगा—यह काम सार्वजनिक संवाद के माध्यम से होना चाहिए। आज नागरिक समाज निशाने पर है क्योंकि यह न्याय और समानता की आवाज़ को बुलंद करता है। हमें यह भी समझना होगा कि नागरिक समाज एक बड़ी शब्दावली है; इसमें सिर्फ आंदोलनकारी ही नहीं हैं। व्यावहारिक रूप से यह भारत की सम्पूर्ण जनता को अपने अंदर शामिल करता है। राज्य और बाज़ार के अलावा बाकी सभी लोग नागरिक समाज हैं। हमारे पास जो है उसे बचाए रखने के लिए हमें लड़ना होगा।
सभी की भलाई के लिए अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार एक मौलिक जरूरत है। कोई भी ऐसी व्यवस्था जो इसे दबाने या खत्म करने की कोशिश करती है वह न केवल लोकतान्त्रिक या संवैधानिक अधिकारों को नकारती है बल्कि मानव अधिकारों को भी अस्वीकार करती है। यह जीने के अधिकार और स्वतन्त्रता के अधिकार को नकारती है। इसलिए आज हम में से कई सारे लोगों की मुख्य चिंता भारत का लोकतन्त्र, वैश्विक लोकतन्त्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर होने वाला प्रहार है, और बहुत सारे युवाओं को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा है।
पिछले सात सालों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और समानता जैसे महत्वपूर्ण अधिकारों में कमी आई है। यह जीवन का बहुत ही ज़रूरी हिस्सा है और साथ ही वास्तविक लोकतन्त्र की सबसे महत्वपूर्ण गारंटी भी। आज हमें वह सबकुछ वापस हासिल करना चाहिए जो हम खो चुके हैं, और उन चीजों को बचाए रखना चाहिए जो बेहतर भविष्य के लिए हमारे पास है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि आप सेवा संघर्ष या निर्माण की प्रक्रिया का हिस्सा हैं या नहीं। चाहे आप एक छोटा संगठन है या बड़ा, आप महिला हैं या पुरुष। इससे भी फर्क नहीं पड़ता है कि आप कहाँ रहते हैं। स्वतन्त्रता और आजादी के लिए बोलने और अभिव्यक्त करने की आजादी का अधिकार मौलिक है।
यह नया और समकालीन भारत है। युवाओं को वापस इस अधिकार को हासिल करने के लिए बहुत बड़ा संघर्ष करना पड़ेगा। आरटीआई बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसने देश भर में और इसके 80 लाख उपयोगकर्ताओं में इस आश्वासन की भावना को लाने का काम किया है कि हम संप्रभु हैं। आरटीआई ही वह अभियान है जो सार्वजनिक नैतिकता पर विमर्श स्थापित कर पाया है। मनरेगा ने सोशल ऑडिट लाकर पूरे बोर्ड में पारदर्शिता और जवाबदेही के विचार को फैलाने का काम किया है। इन दो बड़े अभियानों का मैं हिस्सा हूँ, और इन दोनों ही अभियानों ने न केवल भागीदारी को बढ़ावा दिया बल्कि एक नैतिक सिद्धान्त को लागू होने लायक नीति में भी बदल दिया। और यह महत्वपूर्ण है। क्योंकि अगर आप उन सिद्धांतो को लागू होने लायक, व्यावहारिक, वास्तविक नहीं बना पाते हैं तो वे केवल कागजों पर ही रह जाएंगे।
युवाओं को यह समझना होगा कि ‘मेरा काम’ और ‘तुम्हारा काम’ जैसी कोई चीज नहीं होती है।
युवाओं को यह समझना होगा कि ‘मेरा काम’ और ‘तुम्हारा काम’ जैसी कोई चीज नहीं होती है। बात सिर्फ काम को पूरा करने की है। यह मुद्दा हमारे निजी मुद्दों से अधिक महत्वपूर्ण होना चाहिए। हम सब किसी भी मुद्दे को जीवित बनाए रखने वाला यंत्र हैं। हम सभी चाहते हैं कि हमारी अपनी पहचान हो और हमें स्वीकार किया जाये—यह एक मानवीय स्थिति है। लेकिन इसकी कीमत क्या है? यह समझना महत्वपूर्ण है कि आपकी निजी भलाई आम भलाई में ही निहित होती है।
हम देख रहे हैं कि धार्मिक अल्पसंख्यकों, दलितों और हाशिये के अन्य समुदायों के खिलाफ हमले बढ़ते जा रहे हैं। हाशिये पर जी रहे लोगों के उत्पीड़न के खिलाफ बोलने वाले और उनकी आवाज़ को बुलंद करने वाले नागरिक समाज पर आक्रमण हो रहे हैं। असहमतियों को दूर करने के लिए बहस और बातचीत के बदले हिंसा ने आम प्रतिक्रिया का रूप ले लिया है। लेकिन इसे और बदतर बनाने वाली चीज है हिंसा के इन अपराधियों को सत्ता द्वारा सामने और पीछे से मिलने वाला समर्थन। हमें अहिंसा को बढ़ावा देने की जरूरत है। आपसी मेलजोल, साहस और जीवन के प्रति सम्मान से ही अहिंसा का जन्म होता है। यह एक महान भारतीय विरासत है, जिसका क्षय हो रहा है। हमें विचारों और संवादों के आदान-प्रदान के लिए फोरम बनाने की जरूरत है। संवैधानिक लोकतंत्र का मतलब यही होता है।
मैं एक ऐसे आजाद समाज की कल्पना करती हूँ जिसमें युवा संवैधानिक नैतिकता की चारदीवारी के भीतर रहकर बिना किसी डर के वह सबकुछ कर सकें जो वे करना चाहते हैं।
मैं उन हजारों लोगों की कर्जदार हूँ जिन्होनें मेरे विकास में अपना योगदान दिया है। मुझे आश्वासन दिया है कि मानवता में अच्छाई है। और हम सभी को एक दूसरे को बराबर मानते हुए अपनी अपनी जिम्मेदारियों को निभाना है। मैंने यह भी समझा कि इसी रास्ते को अपनाकर हम विशेष अधिकार प्राप्त वर्गों और वंचित लोगों के बीच की खाई को भर सकते हैं। मुझे उम्मीद है कि मैं कभी भी सत्ता के सामने सच बोलने से पीछे नहीं हटूँगी।
इस साक्षात्कार को अँग्रेजी में पढ़ें।
—
फुटनोट:
1. अरुणा रॉय विद द एमकेएसएस कलेक्टिव। ‘हमारा पैसा हमारा हिसाब: ब्यावर एंड जयपुर धरनास, 1996’, द आरटीआई स्टोरी: पावर टू द पीपल। नई दिल्ली: रोली बुक्स, 2018।
—
मेरा नाम निरुपमा जना है। मैं ओड़िशा के बालासोर ज़िले में पड़ने वाले बलियापल गाँव की रहने वाली हूँ। मेरे माता-पिता भी शिल्पकार ही थे। उन्होंने स्थानीय हस्तशिल्प और शिल्पकारों को सहायता देने वाले एक सामाजिक उद्यम कदम हाट से प्रशिक्षण लिया था और उनके लिए टोकरियाँ बनाते थे। मैं और मेरा भाई अक्सर अपने माता-पिता के ऑर्डर पूरा करने के लिए उनके काम में मदद किया करते थे। इसलिए हम दोनों ने बहुत छोटी उम्र में ही तरह-तरह के डिज़ाइन वाली टोकरियाँ बनाना सीख लिया था।
मैंने बालासोर में एफ़एम विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में एमए की पढ़ाई पूरी की है। मैं वकील बनाना चाहती थी और बीकॉम की पढ़ाई करना चाहती थी लेकिन मेरे पिता के पास मेरी शिक्षा के लिए उतने पैसे नहीं थे। एमए पूरा करने के कुछ ही दिनों बाद मेरी शादी हो गई। मैंने 2017 में केवल 20 शिल्पकारों के साथ मिलकर कदम के लिए काम करना शुरू किया था। आज कुल 180 महिला शिल्पकार मुझसे जुड़ी हैं जो आसपास के कई गाँवों में मेरे लिए काम करती हैं। हम झोले, रोटी रखने वाले डब्बे, गमले और बहुत कुछ बनाते हैं। हम अपने उत्पाद प्राकृतिक कच्चा माल जैसे बांस और सबाई घास से तैयार करते हैं।
सुबह 4.00 बजे: मैं अपना दिन घर के कामों से शुरू करती हूँ। मेरे साथ मेरी माँ और दो बहनें रहती हैं। मेरी दोनों बहनें स्कूल जाती हैं। मेरी माँ को डायबिटीज़ है इसलिए मैं सुबह सबसे पहले उन्हें कुछ खाने के लिए देती हूँ ताकि वह समय पर अपनी दवाईयाँ ले सकें। उसके बाद मैं घर की सफ़ाई और दोपहर के खाने का इंतज़ाम करती हूँ। मुझे आज करंज और सुरुदिया गाँव जाना है और मैं खाने के समय तक वापस नहीं लौट पाऊँगी।
सुबह 7.00 बजे: घर का सारा काम ख़त्म करने के बाद मैं सुई और सबाई घास लेकर बैठती हूँ। मुझे झोलों का बचा हुआ काम पूरा करना है। प्रोडक्शन टीम के लोग कुछ दिनों बाद इन झोलों को लेने आने वाले हैं। बहुत छोटी उम्र से ही मैं सुईयों के साथ काम करती आ रही हूँ। मैंने सातवीं कक्षा से ही अपने माता-पिता की उनके काम में मदद करनी शुरू कर दी थी। जब दूसरे बच्चे बाहर खेलते थे तब मैं अपनी माँ से छुपकर उन झोलों या टोकरियों पर काम करने लग जाती जिन्हें वह बाहर छोड़ गई थीं। मेरे माता-पिता, मेरे भाई और मुझे बांस और सबाई घास से तरह तरह की कुर्सियाँ और मचियाँ बनाना अच्छा लगता है। एक शिल्पकार के रुप में मेरी यात्रा यहीं से शुरू हुई थी।
शादी के बाद मैंने अपनी पति की छोटी सी दुकान में ही बिना पैसों के काम करना शुरू कर दिया था। मेरी दूसरी बेटी के पैदा होने के बाद मेरे पति ने दूसरी शादी कर ली। जब मेरी माँ ने मेरी समस्या देखी और पाया कि मैं घंटो तक बिना पैसे के काम करती हूँ तब उन्होंने पायल मैडम (कदम की सह-संस्थापक) से मुझे कुछ काम देने के लिए कहा। इस तरह 2016 में मुझे मेरा पहला ऑर्डर मिला था। अपने पहले ऑर्डर में मुझे लगभग 30 दिनों में 1,000 टोकरियाँ बनानी थीं। उन दिनों मेरे पास केवल 20 ही शिल्पकार थीं जो सुरुदिया गाँव की रहने वाली थीं। उन लोगों ने मेरे पिता के साथ काम किया था और जब मैंने उन्हें अपने साथ काम करने के लिए कहा तब वे खुश हो गई। दुर्भाग्य से हम लोग समय पर अपना काम पूरा नहीं कर पाए लेकिन उसके बाद से मेरी टीम ने वापस पीछे मुड़कर नहीं देखा।
सुबह 9.00 बजे: जब मैं अपनी बेटी को स्कूल के लिए तैयार होते देखती हूँ तब मुझे एहसास होता है कि मैं पिछले दो घंटे से लगातार काम कर रही हूँ। मेरी बड़ी बेटी इस बात को समझती है कि मैं पूरे दिन बहुत ज़्यादा मेहनत करती हूँ इसलिए वह मुझे परेशान नहीं करती है। वह अपना और अपनी बहन दोनों के लिए टिफ़िन का डब्बा तैयार करती है और वे दोनों स्कूल चले जाते हैं। मुझे अपनी बेटियों पर बहुत ज़्यादा गर्व है और मैं चाहती हूँ कि वे अपनी पढ़ाई पूरी करें।
सुबह 10.00 बजे: मुझे करंज और सुरुदिया जाने के लिए तैयार होना है। दोनों गाँव एक दूसरे के पास ही है लेकिन मेरे घर से वहाँ जाने में एक घंटा लगता है। एक समूह के प्रधान के रूप में मैं आसपास के सात गाँवों के शिल्पकारों के साथ काम करती हूँ। मुझे हर दिन बाहर नहीं जाना पड़ता है लेकिन सप्ताह में एक बार मैं हर गाँव का दौरा कर लेती हूँ ताकि काम का निरीक्षण कर सकूँ और समय पर काम ख़त्म हो सके। चूँकि ये गाँव मेरे घर से दूर हैं इसलिए मैं अपनी स्कूटी से जाऊँगी। मैंने ऋण लेकर अपनी ये स्कूटी ख़रीदी थी जिसका लगभग ज़्यादा हिस्सा मैंने चुका दिया है।
आजकल हम लोग झोलों के एक बड़े निर्यात के ऑर्डर पर काम कर रहे हैं। इन झोलों को बनाने के लिए हम सबई घास को प्राकृतिक रंगों से रंगते हैं जो केवल बरसात के मौसम में ही मिलता है। आमतौर पर मैं बालासोर के नज़दीक वाले गाँव में साल में एक बार लगने वाले हाट (बाज़ार) से एक साथ ही सारा घास ख़रीद लेती हूँ। उसके बाद मैं ज़रूरत के हिसाब से विभिन्न गाँवों के शिल्पकारों को घास पहुँचाती हूँ। बचा हुआ घास पूरे साल किसी एक शिल्पकार के घर पर अच्छे से रखा जाता है।
हालाँकि इस साल बारिश बहुत कम हुई थी और घास के रंग पर इसका असर पड़ा था। ताजी काटी गई घास की क़ीमत कम होती है लेकिन इस साल हमें घास ख़रीदने के लिए थोड़ा इंतज़ार करना पड़ा था और यह महँगा भी था।
सुबह 11:00 बजे: मैं सुरुदिया पहुँच गई हूँ। मुझे आता देख बाहर खेल रहे बच्चें चिल्लाने लगते हैं: ‘निरू दीदी आ गई’। मुझे शिल्पकारों से मिलना है। विभिन्न गाँवों में शिल्पकारों के समूहों के लिए मैंने एक नेता चुना है। ज़्यादातर शिल्पकार अपने घर से ही काम करते हैं इसलिए मैं उनके नेता को अपने आने की सूचना पहले ही दे देती हूँ। इससे मेरे आने तक सभी शिल्पकार अपने उत्पादों के साथ एक जगह इकट्ठा हो जाते हैं।
इस निर्यात ऑर्डर को पूरा करने के लिए 120 से अधिक शिल्पकार काम कर रहे हैं। हालाँकि सभी के कौशल का स्तर एक जैसा नहीं है और कुछ लोग तेज काम करते हैं वहीं कुछ के काम करने की गति धीमी है। और कभी-कभी तो रंग ख़राब हो जाते हैं। सबई घास का रंग एक समस्या हो सकती है—सभी उत्पादों में एक सा रंग बनाए रखना हमारे लिए मुश्किल है। इस ऑर्डर को लेकर मैं थोड़ी परेशान हूँ क्योंकि सभी शिल्पकारों को रंगीन झोले ही तैयार करने हैं।
दोपहर 1:00 बजे: हम लोग थोड़ी देर आराम करते हैं और फिर दोपहर का खाना साथ में खाते हैं। इनमें से ज़्यादातर शिल्पकार मुझे तब से जानते हैं जब मैं बच्ची थी। वे सभी मुझे अपने परिवार का सदस्य मानते हैं और मुझे भी उनके साथ बहुत अच्छा लगता है। किसी भी तरह की समस्या आने पर ये शिल्पकार आमतौर पर मेरे पास आते हैं और मुझे अपनी बात बताते हैं। कभी कभी इन्हें शादी या परिवार के किसी सदस्य के श्राध के लिए पैसों की ज़रूरत होती है।
जब लोगों ने देखा कि मेरे साथ काम करने वाली शिल्पकारों को हमेशा काम मिलता है और उनके पैसे भी समय पर आ जाते हैं तब उन्होंने कहा कि वे भी अपने परिवार और दोस्तों सहित मुझसे जुड़ना चाहते हैं।
मैं ख़ुद उन्हें पैसे उधार नहीं दे सकती हूँ लेकिन मैं गाँव में बहुत सारे दुकानदारों को जानती हूँ; कभी-कभी मैं उनसे आग्रह करती हूँ कि वे इन शिल्पकारों को पैसे या सामान उधार दे दें। जब इन शिल्पकारों को बैंक से ऋण लेने की ज़रूरत होती है तब मैं उनके साथ बैंक भी जाती हूँ। जब मैंने काम शुरू किया था तब मेरे पास केवल 20 शिल्पकारों की टीम थी। जब लोगों ने देखा कि मेरे साथ काम करने वाली शिल्पकारों को हमेशा काम मिलता है और उनके पैसे भी समय पर आ जाते हैं तब उन्होंने कहा कि वे भी अपने परिवार और दोस्तों सहित मुझसे जुड़ना चाहते हैं। जब कोई नया हमारी टीम में शामिल होता है तब मैं उसे घास की चोटी बनाने का काम देती हूँ। अगली बार जाने पर जब उस टीम की मुखिया मुझसे कहती है कि उस नए शिल्पकार का काम अच्छा है तब हम उसे झोलों या टोकरियों पर काम करने के लिए कहते हैं। संतोषजनक काम न होने की स्थिति में हम उसे कुछ और दिनों तक अभ्यास करने के लिए कहते हैं।
दोपहर 3.00 बजे: मैं करंज गाँव में भी शिल्पकारों द्वारा तैयार किए जा रहे उत्पादों के निरीक्षण के लिए ही आई हूँ। झोले अच्छे दिख रहे हैं और इनकी गुणवत्ता दिए गए मानकों के अनुरूप है। इसलिए मैंने उत्पादन टीम से कहा है कि वे गुणवत्ता जाँच के लिए कोलकाता दफ़्तर से अपने कर्मचारी को भेज दें। जब उनके निरीक्षण में हमारा उत्पाद सफल हो जाएगा तब पैकेजिंग और निर्यात के लिए उन्हें गोदाम ले ज़ाया जाएगा।
शाम 6.00 बजे: घर पहुँचने के बाद मैं जल्दी से सब के लिए रात का खाना तैयार करती हूँ। हम साथ बैठकर खाना खाते हैं और अपने-अपने दिन के बारे में बातें करते हैं। मुझे यह समय सबसे अच्छा लगता है क्योंकि इस वक्त मैं अपनी माँ और बेटियों के साथ होती हूँ। अपनी बेटियों को सुलाकर मैं वापस झोले का काम पूरा करने बैठ जाती हूँ। मैं तब तक काम करती हूँ जब तक मुझे थकान महसूस नहीं होती है। कभी-कभी काम करते करते रात के दस या बारह बज जाते हैं। सुई हाथ में लेने के बाद मैं तब तक नहीं उठती जब तक काम पूरा न हो जाए। मुझे यह काम करने में मज़ा आता है; यह मेरा जुनून है। इस काम ने कठिन समय से निकलने में ही मेरी मदद नहीं की है बल्कि इससे मेरे परिवार और दोस्तों का दायरा भी बहुत बड़ा हो गया है। यह एक समुदाय बन चुका है।
इस काम के कारण मैं दूसरी अन्य महिलाओं से भी मिलती हूँ जिनके जीवन में ऐसी ही कठिनाइयाँ है। मुझे पहले लगता था मैं अकेली हूँ जिसे ये कठिनाई है। लेकिन अब मुझे उस बात का एहसास है कि ऐसी बहुत सारी औरतें हैं जो परेशानी से गुजर रही हैं और उन्हें इस काम से समर्थन मिल रहा है।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
—
मेरा नाम किसनी काले है। मैं 29 साल की हूँ और मेरा घर मंगराली है जो महाराष्ट्र के भंडारा ज़िले में एक छोटा सा गाँव है। मैं पेंच में ग्रीन ऑलिव रिसॉर्ट के हॉस्पिटैलिटी विभाग में काम करती हूँ।तीन महिने पहले मुझे इस विभाग का कप्तान नियुक्त किया गया है। हॉस्पिटैलिटी की दुनिया में मेरी यात्रा 2017 में शुरू हुई थी जब मैंने पेंच में प्रथम के हॉस्पिटैलिटी कार्यक्रम में हिस्सा लिया था। उस साल प्रथम टीम में काम करने वाली भारती मैडम इस कार्यक्रम और नौकरी के बारे में उन लोगों से बात करने हमारे गाँव आई थीं जो काम के लिए गाँव से बाहर जाना चाहते थे। मैंने एक सत्र में हिस्सा लिया था जिसमें हमें इस काम की जानकारी और प्रशिक्षण के बारे में बताया गया और मुझे इस काम में रुचि थी। अपने प्रशिक्षण से पहले मैं अपने परिवार के खेत में काम करने के साथ साथ थोड़ा बहुत सिलाई का काम भी करती थी।
मैं दिन में 12–13 घंटे काम करती थी लेकिन मुझे बुरा नहीं लगता था क्योंकि मैं कुछ सीख कर जीवन में आगे बढ़ना चाहती थी।
प्रथम में अपने दो महीने के प्रशिक्षण के दौरान मैंने मेहमानों से सहजता और आत्मविश्वास के साथ बात करना सीखा। इसके अलावा मैंने उनके सामने अपनी बात रखने और हॉस्पिटैलिटी के विभिन्न पहलू जैसे टेबल सर्विस और कमरे के साफ़-सफ़ाई के बारे में भी जाना। मेरे साथ 20 लोगों ने प्रशिक्षण लिया था। प्रशिक्षण ख़त्म होने के बाद मैंने चंद्रपूर के एनडी होटल में एक प्रशिक्षु सहायक के रूप में काम शुरू कर दिया। उस होटल में छः महीनों के दौरान मैंने खाना और पानी परोसने, मेहमानों से बात करने के अलावा और भी कई तरह के काम किए। चूँकि मैं इस काम में नई थी इसलिए मुझे मेहमानों से खाने का ऑर्डर लेने का काम नहीं मिला था। मैं दिन में 12–13 घंटे काम करती थी लेकिन मुझे बुरा नहीं लगता था क्योंकि मैं कुछ सीख कर जीवन में आगे बढ़ना चाहती थी। दरअसल होटल उद्योग में एक कहावत है: आने का समय है लेकिन जाने का समय नहीं है।
एनडी होटल के बाद वाली नौकरियों में मैंने बैंक्वेट संभालना और रूम सर्विस का काम सीखा। जल्द ही मुझे सीनियर कप्तान बना दिया गया था। सीनियर कप्तान के नाते मैं खाने का ऑर्डर लेती थी, कर्मचारियों के प्रबंधन का काम करती थी और ग्राहकों से बातचीत करती थी। इस तरह के कौशल होने के कारण ही 2020 में मुझे ग्रीन ऑलिव रिज़ॉर्ट में कप्तान की नौकरी मिल गई।
सुबह 7.00 बजे: चूँकि महामारी का प्रकोप अब भी है इसलिए हर सुबह मेरा काम कर्मचारियों के शरीर का तापमान, मास्क और सेनीटाइज़र की जाँच करना होता है। इसके बाद ही हमारा दिन शुरू होता है। एक कप्तान के रूप में मेरी ज़िम्मेदारी अपने 12–13 सहकर्मियों को उस दिन का काम समझाने की होती है। मैं सूची में आरक्षण के आधार पर उस दिन सुबह नाश्ते, दोपहर के खाने और रात के खाने में आने वाले मेहमानों की संख्या देखती हूँ। इसके बाद रसोई और सफ़ाई कर्मचारियों द्वारा किए जाने वाले कामों की स्थिति का जायज़ा लेना और उस दिन पहले से तय कार्यक्रमों की ज़िम्मेदारी लेना भी मेरे काम का हिस्सा होता है। टीम के सभी सदस्यों के इकट्ठा हो जाने के बाद मैं उन में से हर एक को उनका काम सौंपती हूँ।
सुबह होने वाली हमारी बैठक के बाद हम नाश्ते की तैयारी में लग जाते हैं। मैं रिसेप्शन जाकर उस दिन चेक-इन और चेक-आउट करने वाले मेहमानों की संख्या का पता लगाती हूँ। इस आधार पर हम लोग नाश्ते के लिए आने वाले लोगों की संख्या का अनुमान लगाते हैं। एक अनुमानित संख्या मिल जाने के बाद हम खाने वाले हॉल की साफ़-सफ़ाई का काम शुरू होता है और रसोई में काम कर रहे लोगों को इसकी जानकारी दी जाती है।
सुबह 11.30 बजे: नाश्ते की भीड़ छँट जाने के बाद हम दोपहर के खाने की तैयारी में लग जाते हैं। दोपहर के खाने के लिए मेनू नहीं होता है (खाना बफे शैली में परोसा जाता है), और होटल के मेहमान सीधे बैंक्वेट हॉल में आकर खाना खाते हैं। इसलिए मैं खाना खाने वाले मेहमानों की संख्या और उनके ठहरने वाले कमरे की जानकारी वाली एक सूची तैयार करती हूँ। मेहमानों की गिनती करने के दौरान मैं अपने सहकर्मियों और रसोई में कर्मचारियों के कामों पर भी ध्यान रखती हूँ ताकि सब कुछ व्यवस्थित ढंग से चलता रहे।
बैंक्वेट में दोपहर के खाने के दौरान ही हमें रूम सर्विस वाले कर्मचारियों को काम पर लगाना पड़ता है। उनका काम यह देखना है कि अपने कमरे में ही खाना मँगवा कर खाने वाले मेहमानों को समय पर सारी सुविधाएँ मिल रही हैं या नहीं। सहकर्मियों का एक दूसरा समूह मेहमानों को होटल द्वारा दिए जाने वाले विभिन्न प्रकार के पैकेज की जानकारी देना और उनके सवालों का जवाब देने के काम में लगा रहता है। मैं इन दोनों ही प्रकार के सहकर्मियों के कामों का निरीक्षण करती हूँ।
दोपहर 1.00 बजे: मेहमान के दोपहर का खाना खाने या बाहर जाने के दौरान हम लोग कमरे की सफ़ाई से जुड़ा सारा काम निबटाते हैं। इसमें कमरे और बाथरूम की सफ़ाई, चादर और तकिए के खोल को बदलना और कमरे में मौजूद चाय-कॉफ़ी और खाने की चीजों को फिर से रखने का काम शामिल होता है। कोविड-19 के कारण हाउसकिपींग और सेनेटाईजेशन का काम और भी ज़्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। हम कोविड-19 से जुड़े सभी सरकारी निर्देशों का पालन करते हैं जिसमें काम के समय सभी कर्मचारियों का दस्ताने पहनना, सेनेटाईजर का इस्तेमाल, और उचित दूरी शामिल है।
दोपहर 3.00 बजे: हर दिन दोपहर 3 बजे से 7 बजे तक का समय हमारे आराम का समय होता है। इस दौरान मैं अपने दोपहर का खाना खाती हूँ और अपने कमरे में जाकर आराम करती हूँ। इससे भी ज़्यादा ज़रूरी मेरे लिए इस समय अपनी बेटी नव्या को फ़ोन करना होता है। मैं हर दिन शाम 4 बजे उसे फ़ोन करती हूँ। वह पिछले आठ सालों से गाँव में मेरे माँ-पिता के साथ रह रही है और हर दिन दोपहर इस समय बेसब्री से मेरे फ़ोन का इंतज़ार करती है। लगभग एक घंटे तक हम दोनों हर चीज़ के बारे में बात करते हैं—जैसे कि हम दोनों ने उस दिन क्या किया, हमने क्या खाया या ऐसी कोई भी नई बात जो हमें एक दूसरे को बतानी होती है। मैं अपने काम से जुड़ी हर बात उसे बताती हूँ। वह हॉस्पिटैलिटी की दुनिया में होने वाले कामों के बारे में सब कुछ जानती है और अब तो वह बड़ी होकर होटल प्रबंधन के क्षेत्र में काम भी करना चाहती है!
शाम 7.00 बजे: हम रात के खाने की तैयारी के लिए होटल वापस जाते हैं। इस समय का काम दोपहर के खाने के समय किए जाने वाले काम के जैसा ही होता है। यह हमारे उस दिन का अंतिम सत्र होता है जो शाम से शुरू होकर देर रात तक चलता है। यह समय दरअसल इस पर निर्भर करता है कि उस शाम होटल ने क्या-क्या कार्यक्रम आयोजित किए हैं। आमतौर पर हमारा काम रात के 11-11.30 तक ख़त्म हो जाता है।
रात 11.30 बजे: मैं होटल के उस कमरे में जाती हूँ जहां मेरे अलावा कुछ और लोग भी रहते हैं। काम पर हम आपस में पेशेवर रिश्ता रखते हैं लेकिन इस कमरे में हम एक दूसरे के दोस्त बन जाते हैं। एक कप्तान के रूप में मैंने इस रिश्ते की गरिमा बनाए रखी है ताकि मेरी टीम के लोग मेरा सम्मान करें। अगर कोई ढंग से काम नहीं करता है तब मैं उसे प्यार से समझाती हूँ। मैं कभी इन लोगों पर चिल्लाती नहीं हूँ।
मैं होटल में आने वाले मेहमानों को यह बताना चाहती हूँ कि उन्हें होटलों में काम करने वाले लोगों का सम्मान करना चाहिए
जब मैं होटल उद्योग में अपने काम के बारे में सोचती हूँ तब मुझे गर्व महसूस होता है। मैं पहले बहुत शर्मीले स्वभाव की इंसान थी लेकिन अब मैं हर दिन नए लोगों से मिलती और बात करती हूँ। मैं बिना किसी दूसरे पर निर्भर हुए अपने परिवार का ख़्याल रख सकती हूँ और अपनी बेटी के लिए आदर्श बन सकती हूँ। दरअसल मेरे गाँव में लोग अब यह मानने लगे हैं कि मेरा काम अच्छा काम है। लॉकडाउन में सभी होटल बंद हो गए थे इसलिए मुझे अपने गाँव वापस लौटना पड़ गया था। उन दिनों मैं अपने परिवार के खेतों में दोबारा काम करने लगी थी। इसके अलावा आर्थिक रूप से मुश्किल में फँसे लोगों की मदद करने के लिए मैंने मुफ़्त में ही उनके कपड़े भी सिले थे। उन लोगों से बातें करते समय मैं उन्हें अपने होटल की तस्वीरें दिखाती थी और उन्हें अपने काम के बारे में बताया करती थी। जब वे मेरा काम समझ गए तब उन्हें यह कम्पनी के काम और सरकारी नौकरी से बेहतर लगने लगा!
आज मैं जानती हूँ कि मुझे अपना जीवन हॉस्पिटैलिटी उद्योग में ही बनाना है। मैं अपना ख़ुद का रेस्तराँ भी खोलना चाहती हूँ ताकि मैं इस उद्योग में ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को रोज़गार दे सकूँ जैसे मुझे मिला है। मैं होटल में आने वाले मेहमानों को यह बताना चाहती हूँ कि उन्हें होटलों में काम करने वाले लोगों का सम्मान करना चाहिए—हम भी शहर में रहने वाले लड़के और लड़कियों जैसे ही हैं—और हम लोगों से भी उसी तरह बात की जानी चाहिए।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
इस लेख को अँग्रेजी में पढ़ें।
मेरा नाम ललिथा तरम है। मैं महाराष्ट्र के गोंडिया ज़िले के जब्बरखेड़ा गाँव की रहने वाली हूँ। मैं पाओनी प्रोड़्यूसर कलेक्टिव में जनरल मैनेजर के पद पर काम करती हूँ। यह एक किसान उत्पादक कम्पनी (फ़ार्मर प्रोड़्यूसर कम्पनी या एफ़पीसी) है जिसके कुल सदस्यों की संख्या 5,000 है। इसकी सभी सदस्य महिलाएँ हैं जो क्षेत्र के 125 गाँवों की निवासी हैं। गोंडिया एक आदिवासी इलाक़ा है और यहाँ के ज़्यादातर लोग खेती और इससे जुड़े काम करते हैं। हम धान, चना, दाल, मिर्च और महुआ उगाते हैं। जब महिलाएँ एफ़पीसी की सदस्य बन जाती हैं तो इससे उन्हें अपनी आय बढ़ाने और बचत का मौक़ा मिलता है। हमारी एफ़पीसी अपने सदस्यों को कई तरह की सुविधाएँ देती है। उदाहरण के लिए इन सुविधाओं में कम ब्याज दर पर मिलने वाला ऋण, फसलों को बेचने के लिए बाज़ार के सम्पर्क सूत्र मुहैया करवाना और खेती संबंधी चीजें जैसे कि कम क़ीमत पर मिलने वाले बीज और खाद आदि शामिल हैं।
मैंने 2014 में पाओनी प्रोड़्यूसर कलेक्टिव की सदस्यता ली थी। कुछ सालों बाद मैंने आसपास के 5-6 गाँवों के लिए क्षेत्रीय समन्वयक (एरिया कोर्डिनेटर) के रूप में काम करना शुरू कर दिया। यहाँ मेरी ज़िम्मेदारी क्षेत्र की महिलाओं को सदस्य बनाना था। इस दौरान कम्पनी कुछ नए व्यापार भी शुरू कर रही थी। मैंने इस मौक़े का फ़ायदा उठाकर उन गाँवों में मुर्गी पालन और खाद के व्यापार का प्रबंधन अपने हाथों में ले लिया जहां मैं पहले से काम कर रही थी। मई 2020 में मुझे जनरल मैनेजर बना दिया गया। इस पद पर रहकर मुझे पाओनी प्रोड्यूसर कलेक्टिव में टीम प्रबंधन, नियुक्ति, प्रशासन, बोर्ड प्रबंधन और ऐसे कई कामों की ज़िम्मेदारी उठानी पड़ती है।
सुबह 4.00 बजे: मैं सुबह जागने के बाद योग से अपना दिन शुरू करती हूँ। मुझे योग करने में सचमुच बहुत मज़ा आता है! इससे मुझे दिन भर खड़े होकर काम करने में मदद मिलती है। मेरा दिन बहुत ही भागदौड़ वाला होता है और मुझे अक्सर एक जगह से दूसरी जगह जाना पड़ता है। योग ख़त्म करने के बाद मैं कुछ घंटे घर के कामों में लगाती हूँ।
सुबह 9.30 बजे: मैं अपने दफ़्तर के लिए निकलती हूँ। मेरा दफ़्तर मेरे घर से दो किलोमीटर की दूरी पर है। आमतौर पर मैं दफ़्तर जाने के लिए स्कूटी (दोपहिया वाहन) का इस्तेमाल करती हूँ लेकिन आजकल यह ख़राब है। इसलिए आज मुझे पैदल ही जाना पड़ता है। दफ़्तर पहुँचने के बाद सबसे पहले मैं उस दिन के कामों का ब्योरा लेती हूँ।
सुबह 10.30 बजे: कम्पनी हर महिने अपने बोर्ड की बैठक बुलाती है। इन बैठकों में बोर्ड के सदस्यों द्वारा कम्पनी से जुड़े कई तरह के फ़ैसले लिए जाते हैं। अगले सप्ताह हमारी बोर्ड मीटिंग होने वाली है और मेरा काम उस बैठक से पहले सारी चीजों को व्यवस्थित करना है। इसमें एक ऐसी तारीख़ तय करने का काम होता है जिस दिन बोर्ड के अधिक से अधिक सदस्य उपस्थित हों। इसके अलावा एजेंडा तय करना (साथ ही टीम के अन्य सदस्यों और बोर्ड के सदस्यों के सुझाव लेना) और बोर्ड के सदस्यों को बैठक के दौरान लिए जाने वाले फ़ैसलों की जानकारी देना भी शामिल है।
उदाहरण के लिए पिछले कुछ महीनों से हमारी सदस्यों ने तूर और मसूर दाल की खेती शुरू की है। और हम उनकी मदद करेंगे ताकि वे बाज़ार में अपनी फसल को अच्छी क़ीमत पर बेच सकें। इसके लिए हमें विभिन्न विक्रेताओं से उनकी क़ीमत पूछनी होगी और उनके साथ मोलभाव करना पड़ेगा। एक तरफ़ बोर्ड इस बात का फ़ैसला करता है कि किस विक्रेता को और कितनी क़ीमत पर फसल बेची जाएगी। वहीं दूसरी तरफ़ मैं अपना समय ज़रूरी जानकारियाँ जैसे बिक्री के लिए उपलब्ध दाल की कुल मात्रा, विभिन्न विक्रेताओं से मिलने वाली क़ीमतों की सूची आदि इकट्ठा करने में लगी रहती हूँ।
कभी-कभी मुझे बोर्ड के बैठक में लिए गए फ़ैसलों की जानकारी टीम के अन्य सदस्यों और हितधारकों तक पहुँचाने का काम भी करना पड़ता है। पिछले साल हमें कई कड़े फ़ैसले लेने पड़े थे। कोविड-19 के कारण व्यापार मंदा था इसलिए हमें कुछ कर्मचारियों को काम से निकालना पड़ा। जनरल मैनेजर की हैसियत से उन कर्मचारियों से बात करने की ज़िम्मेदारी मेरी थी जिन्हें हम निकालने वाले थे। उनमें से कुछ ने मुझ पर बहुत अधिक दबाव बनाया क्योंकि वे दुखी थे। मैंने उन्हें समझाया कि यह फ़ैसला उनके काम की समीक्षा के बाद लिया गया है। और इस आधार पर वे एफ़पीसी में अपनी भूमिका के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं।
दोपहर 12.00 बजे: बोर्ड की बैठक में कई विषय के साथ ही मुर्गी पालन व्यापार के बारे में भी बात होगी। कुछ महीने पहले हुए वार्षिक आम सभा में हमें बताया गया कि मुर्गी पालन का हमारा व्यापार घाटे में चल रहा है। इस व्यापार में हम अपने सदस्यों को चूज़े मुहैया करवाते हैं जिन्हें वे पालने के बाद बाज़ार में बेचते हैं। हालाँकि हमारे द्वारा बेची जाने वाली नस्ल कावेरी की माँग में कमी आई है। मुर्गियों को तीन महीनों के अंदर बेच देना चाहिए, लेकिन इन्हें बेचने में चार से पाँच महीने का समय लगने से सदस्यों को नुक़सान हो रहा था। इसलिए हम लोगों ने अधिक माँग वाली नई नस्लों सोनाली और असिल बेचने का फ़ैसला किया। हमारे मुर्गी पालन व्यवसाय का प्रबंधक आज दफ़्तर आया है और हम लोग साथ मिलकर बोर्ड मीटिंग की तैयारी करेंगे। हम बोर्ड के सदस्यों को इन नस्लों के बारे में निम्न जानकारियाँ देंगे: चूज़ों का ख़रीद मूल्य, पालन का खर्च और निवेश से मिलने वाला अनुमानित लाभ।
दोपहर 2.30 बजे: मैं आमतौर पर अपना सुबह का समय दफ़्तर में बिताती हूँ। दोपहर में मुझे अक्सर बाहर निकलकर अपने फ़ील्ड के कर्मचारियों या हितधारकों से मिलकर उनकी समस्याओं के बारे में बातचीत करनी होती है।
जब सदस्य दुखी हो जाते हैं या उन्हें ग़ुस्सा आता है तब मैं शांत रहने की पूरी कोशिश करती हूँ और उनके ग़ुस्से का जवाब नहीं देती हूँ।
मुझे पास के गाँव में रहने वाली एक हितधारक से मिलने के लिए दफ़्तर से निकलना पड़ा है। वह दुखी है क्योंकि इस साल हम उसे ऋण नहीं दे सकते हैं। कोविड-19 के कारण एफ़पीसी उस मात्रा में अपने हितधारकों को ऋण नहीं दे पा रहा है क्योंकि हमें विभिन्न वित्तीय संस्थाओं से उस मात्रा में धन नहीं मिल पा रहा है। मैंने इन बाधाओं के बारे में उसे बताने की पूरी कोशिश की। लेकिन वह अब भी दुखी है और उसने मुझसे काफ़ी ग़ुस्से में बात की। जब सदस्य दुखी हो जाते हैं या उन्हें ग़ुस्सा आता है तब मैं शांत रहने की पूरी कोशिश करती हूँ और उनके ग़ुस्से का जवाब नहीं देती हूँ। वे कम्पनी के सदस्य हैं और उनका सम्मान करना मेरा कर्तव्य है। लेकिन मुझे यह स्पष्ट करना पड़ता है कि मुझे कम्पनी द्वारा तय किए गए नियमों और शर्तों का पालन करना पड़ता है।
शाम 4.00 बजे: मैं ऐसे सदस्यों से मिलती हूँ जिन्होंने अपने ऋण अभी तक नहीं चुकाए हैं। इस साल सभी लोगों के जीवन में कई तरह की चुनौतियाँ आई हैं इसलिए हम लोग अपने सदस्यों पर ऋण चुकाने के लिए बहुत अधिक दबाव नहीं डाल रहे हैं। लेकिन हम उधार चुकाने की समय सीमा को लगातार बढ़ाते नहीं रह सकते हैं इसलिए हमने उन सदस्यों को चेतावनी पत्र भेजने शुरू कर दिए हैं जिन्होंने हमसे उधार लिए हैं।
बैठक काफ़ी विवादास्पद हो गया है। कई लोगों ने अपनी आवाज़ें ऊँची कर ली है और उनमें से कई लोगों ने कम्पनी छोड़ने की धमकी भी दी है। लेकिन कभी-कभी आगे बढ़ने से पहले आपको लोगों की बेईज्जती सहनी पड़ती है। अब मुझे यह काम करते हुए कई साल हो गए हैं। इसलिए अपने अनुभव के आधार पर मैं उनके सवालों का जवाब देने में और कम्पनी की स्थिति स्पष्ट करने में सक्षम हूँ। मैं उस प्रशिक्षण का लाभ भी उठाती हूँ जो मुझे वीमेन बिज़नेस लीडर्स प्रोग्राम नाम के मिनी-एमबीए कार्यक्रम के दौरान मिला था। इस कार्यक्रम का आयोजन एएलसी इंडिया द्वारा किया गया था।
शाम 6.00 बजे: मैं अपने परिवार के लिए रात का खाना तैयार करने घर वापस लौटती हूँ। मेरे परिवार में मेरा किशोर बेटा और बेटी, मेरे पति और सास-ससुर हैं। खाना बनाते समय ही मैं अपने बच्चों से भी बातचीत करती हूँ। पिछले एक साल से वे ऑनलाइन ही पढ़ाई कर रहे हैं। यह उनके लिए बहुत बड़ा बदलाव है।
कभी-कभी मैं अपना व्यापार शुरू करने के बारे में सोचती हूँ ताकि मैं पैसा कमाकर अपने बच्चों को पढ़ा सकूँ।
इस साल हम सभी को कई तरह के बदलावों का सामना करना पड़ा है। हमारे एफ़पीसी में हमें अपने कार्यकर्ताओं को वेतन देने में भी मुश्किल हुई है क्योंकि व्यापार मंदा है। जब मैं जनरल मैनेजर बनी थी तब मेरा वेतन बढ़कर प्रति माह 5,000 रुपए हो गया था। लेकिन इतना पैसा मेरे परिवार के लिए काफ़ी नहीं है। मुझे अपना काम बहुत अच्छा लगता है। लेकिन मैं इस बात को भी नज़रअन्दाज़ नहीं कर सकती हूँ कि इतने कम पैसों में मेरी और मेरे परिवार की ज़रूरतें पूरी नहीं होती हैं। कभी-कभी मैं अपना व्यापार शुरू करने के बारे में सोचती हूँ ताकि मैं पैसा कमाकर अपने बच्चों को पढ़ा सकूँ। मैंने बकरियों के इलाज के लिए पारा-वेट (अर्धन्यायिक-पशु चिकित्सक) का प्रशिक्षण लिया है। और चूँकि मेरे पास व्यापार योजना के विषय में भी प्रशिक्षण है इसलिए मैं उद्यम की दुनिया में ऐसे अवसर तलाशती रहती हूँ जिससे मैं बिना किसी मुश्किल के अपने परिवार का पालन-पोषण कर सकूँ।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
—