बिहार के सुपौल जिले में कोसी नदी के पूर्वी तटबंध के भीतर बसे गांव हर साल बाढ़ की मार झेलते हैं। तटबंध यानी एक कृत्रिम दीवार, जिसका उपयोग बाढ़ को रोकने अथवा पानी की धारा को सीमित बनाए रखने के लिए किया जाता है। लेकिन जब तटबंध टूटता है तो एक साथ भारी मात्रा में आया पानी बाढ़ का रूप लेकर नुकसान पहुंचाता है।
साल 2022 में प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत आठ करोड़ सैंतीस लाख रुपये की लागत से बलवा पंचायत के गांवों को जोड़ने वाला एक पुल बनाया गया। इस पुल से पहले सुपौल और मधुबनी के दस से पंद्रह गांवों के लोगों को आने-जाने के लिए नाव का सहारा लेना पड़ता था। इस पुल के रखरखाव के लिए अलग से बजट आवंटित किया गया, ताकि यह लंबे समय तक टिका रहे। लेकिन निर्माण के केवल दो सालों के अंदर, यानी 2024 में तटबंध टूट जाने के बाद की बाढ़ से पुल का एक हिस्सा टूटकर नदी में जा गिरा।

यह इलाका कोसी नदी की धारा के बीच में है और ऐसे में बड़ी नदियों में मिलने से विभिन्न क्षेत्रों में पानी का दबाव और भी बढ़ जाता है। पुल टूटने के बाद अब हालात एक बार फिर पहले जैसे हो गए हैं और लोगों को नाव का सहारा लेना पड़ रहा है।

स्थानीय लोग बताते हैं कि कोसी नदी लगातार दिशा बदलती रहती है। इस कारण हर बार यहां के नए इलाके इसकी चपेट में आ जाते हैं। बार-बार आने वाली बाढ़ और नदी के तेज प्रवाह को समझने वाले स्थानीय लोगों का कहना है कि नदी पर पुल टिक पाना मुश्किल है। उनका मानना है कि ऐसे में नाव से यात्रा ही करना बेहतर साधन है। लेकिन उसमें भी बहुत सी ऐसी मुश्किलें हैं, जिनसे पार पाना यहां के लोगों के लिए एक बड़ी चुनौती है।
किराये और समय दोनों का नुकसान
बलवा गांव के भूपेंद्र यादव बताते हैं कि पुल बनने के बाद वह आसानी से सड़क मार्ग पर पैदल अथवा साइकिल से गांव में आ-जा सकते थे। इसमें उनकी किराए की भी बचत होती थी लेकिन अब फिर से नाव का सहारा लेना पड़ रहा है।

भूपेंद्र बताते हैं कि नदी के उस पार गांव वालों की जमीन है, इसलिए खेती के लिए वहां रोज आना-जाना पड़ता है। गरीब और पिछड़ा क्षेत्र होने की वजह से यहां रोजगार के नाम पर सिर्फ खेती ही है। ऐसे में खेतों में आने-जाने के लिए नाव एकमात्र विकल्प तो है लेकिन उसमें भी दिनभर में चालीस से पचास रुपये किराये पर ही खर्च हो जाते हैं। भूपेंद्र बताते हैं कि सरकार को इस समस्या पर ध्यान देना चाहिए और ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए, जिससे स्थानीय लोगों की जेब पर भी अतिरिक्त बोझ न पड़े।
पिपरा खुर्द पंचायत के वार्ड नंबर 8 के रहने वाले रामेश्वर मुखिया बताते हैं कि सड़क न होने की वजह से उनके पास गांव में आने-जाने के लिए नाव ही एकमात्र विकल्प है। लेकिन नावों की संख्या कम होने की वजह से उन्हें घंटों इंतजार करना पड़ता है, जिससे उनका काफी समय बर्बाद होता है।

रामेश्वर बताते हैं कि यहां पूरे दिन में सिर्फ दो-तीन निजी नाव चलती हैं। वे बताते हैं कि प्रशासन को करोड़ों रुपये का पुल बनाने की जगह यहां की स्थानीय जरूरत के अनुसार सरकारी नाव और नाविकों की व्यवस्था करनी चाहिए, जो निःशुल्क होने चाहिए। इससे न केवल स्थानीय लोगों को रोजगार मिलेगा, बल्कि उनके पैसे और समय की भी बचत होगी।
महिलाओं की सुरक्षा का मसला
बलवा गांव की वार्ड नंबर 9 में रहने वाली सीता बताती हैं कि गांव के अधिकांश पुरुष पैसा कमाने के लिए दिल्ली और पंजाब चले जाते हैं। ऐसे में घर की सारी जिम्मेदारी महिलाओं पर ही आ जाती है, जिसमें उन्हें कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।

वह कहती हैं, “अचानक रात में कभी अस्पताल जाने या किसी इमरजेंसी में नदी पार करने में कितनी मुश्किल होती है, यह बस हम ही जानते हैं।”
वह बताती हैं कि सरकार ने कोसी तटबंध के भीतर बसे लोगों को जमीन देने का वादा किया था, लेकिन वह अब तक अधूरा है। जिन लोगों को जमीन मिली भी, वे वहां सिर्फ रह सकते हैं। उनकी खेती की जमीन अब भी उनके पुराने गांव में ही है, जो तटबंध के अंदर आता है।
युवाओं की चिंताएं
बलवा गांव के नीतीश, जो एक छात्र हैं, रोजाना 20 रुपये खर्च करके सुपौल पढ़ने जाते हैं। उनके स्कूल की मासिक फीस 500 रुपये है। लेकिन केवल नाव के सफर में उनके हर महीने तकरीबन 600 रुपये खर्च हो जाते हैं। पिछड़ा इलाका होने की वजह से यहां अब भी पढ़ाई को उतनी अहमियत नहीं दी जाती। फिर भी दसवीं के बाद नीतीश जैसे कई बच्चे आगे की पढ़ाई के लिए सुपौल का रुख करते हैं।

बलवा गांव के 28 वर्षीय बिपुल बताते हैं कि सरकार टूटे हुए पुल को ठीक नहीं कर रही है। अगर यह ठीक हो जाता है, तो लोगों को इससे बहुत लाभ होगा और उनका बहुत समय बचेगा। यहां नावों की संख्या भी बहुत कम हैं। प्रशासन को मौजूदा स्थिति को समझते हुए जल्द कुछ ठोस कदम उठाने चाहिए।

बिपुल बताते हैं कि टूटा हुआ पुल भी अपने आप में एक बड़ा खतरा है, क्योंकि इससे गाड़ियों के दुर्घटनाग्रस्त होने की बहुत संभावना बनी रहती है। कम से कम इसे पूरी तरह बंद कर दिया जाना चाहिए। उन्होंने हाल ही में बरेली, उत्तर प्रदेश का उदाहरण दिया, जहां गूगल मैप के कारण एक टूटे पुल से गाड़ी गिरने पर तीन लोगों की जान चली गयी थी। इस तरह की घटनाओं को देखते हुए स्थानीय लोग चिंता में हैं।
विशेषज्ञों की राय
नदी विशेषज्ञ दिनेश कुमार मिश्रा बताते हैं कि कोसी परियोजना का लक्ष्य सवा दो लाख हेक्टेयर जमीन बचाना था। लेकिन इसके कारण चार लाख हेक्टेयर जमीन का नुकसान हुआ।

कोसी नवनिर्माण मंच के संस्थापक महेंद्र यादव बताते हैं कि सरकार ने 1987 में कोसी विकास प्राधिकरण बनाया, लेकिन इसमें कोई खास काम नहीं हुआ। चूंकि यहां बाढ़ की वजह से इतना नुकसान होता है, इसलिए ऐसे उपाय लाए जाने चाहिए जो यहां की स्थिति के मुताबिक कारगर साबित हो सकें। बिहार सरकार की आपदा प्रबंधन रिपोर्ट के मुताबिक, 2022-23 में सड़कों और पुलों की मरम्मत के लिए 35.16 करोड़ रुपए और 2023-24 में 100 करोड़ रुपए आवंटित किए गए थे।
व्यावहारिक उपायों की जरूरत
कोसी नदी के क्षेत्र में बाढ़ एक पुरानी समस्या है और इसी वजह से इसे ‘बिहार का शोक’ नाम कहा जाता है। कोसी बाढ़ नियंत्रण नीति पर पीएचडी कर चुके डॉ. राहुल यादुका बताते हैं कि कोसी नदी पर कंक्रीट संरचना नहीं टिक सकती। यह नदी सबसे अधिक बार धारा बदलती है। चूंकि यह क्षेत्र इसके मध्य में आता है, इसलिए यहां बार-बार बाढ़ आती है, जिससे हजारों लोग प्रभावित होते हैं। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि सरकार फिर भी ऐसी परियोजनाओं पर करोड़ों रुपये खर्च करती है। यादुका बताते हैं कि सरकार को जलमार्गों को बढ़ावा देना चाहिए, क्योंकि ऐसी जगहों पर रहने वाले लोग इन पर अधिक निर्भर हैं।
सुपौल जिले का स्थानीय निवासी होने के नाते मेरा यह मानना है कि यहां के लोग हमेशा से बाढ़ की तमाम चुनौतियों के साथ गुजर-बसर करते रहे हैं। वर्तमान समय में विकास जरूरी है, लेकिन एक ही समाधान हर जगह के लिए लागू नहीं किया जा सकता। नीति निर्माण में स्थानीय संदर्भों और सामुदायिक भागीदारी को महत्व देना भी जरूरी है। इसलिए यहां नाव व्यवस्था, तैराकी प्रशिक्षण, जलवायु अनुकूल खेती जैसे विषयों पर ज्यादा ध्यान दिए जाने की जरूरत है।
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