हाल के वर्षों में यह स्पष्ट हो चुका है कि सिर्फ़ महिलाओं के सशक्तिकरण से ही लैंगिक समानता नहीं लाई जा सकती है। महिलाओं के शिक्षा स्तर और शादी के समय उनकी उम्र सरीखे विभिन्न विकास संकेतकों में सुधार के बावजूद, ऐसे कई क्षेत्र रह गए हैं जिनमें सुधार की बहुत ज़रूरत है। तेज़ी से अब यह माना जाने लगा है कि गहराई तक जड़ जमा चुके भेदभावपूर्ण लैंगिक मानदंडों पर संवाद शुरू करने के लिए पुरुषों, खासतौर पर लड़कों के साथ काम करना अधिक कारगर होता है। स्कूलों के भीतर और बाहर, छोटे लड़कों से संबंधित कई कार्यक्रम भारत भर में शुरू किए गए हैं। लैंगिक समानता हासिल करने के लिए कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में भी कई कार्यक्रम शुरू किए गए हैं। परिवार नियोजन और मांओं के स्वास्थ्य कार्यक्रमों में, अब बच्चों के पिताओं को भी शामिल किया जाने लगा है। महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा पर बात करने के साथ-साथ ‘टॉक्सिक मैस्क्युलिनिटी’ पर भी बात होने लगी है। लोग समझने लगे हैं कि यदि पुरुष लैंगिक भेदभाव की समस्या का हिस्सा हैं तो उन्हें इसके समाधान का भी हिस्सा होना पड़ेगा।
लैंगिक समानता ही एकमात्र ऐसा कारण नहीं है जिसके लिए पुरुषों को ध्यान के दायरे में लाया गया है। भारत के कई गांवों में किसानों की आत्महत्या एक बड़ी घटना बन गई है। ऐसा माना जाता है कि ख़राब फसल, कर्ज न चुका पाना और परिवार के पालक न बन पाना आदि जैसे कारक भी इसमें अपना योगदान देते हैं। इस तेज़ी से बदलती दुनिया में पुरुषों को कई तरह की मजबूरियों का सामना करना पड़ता है। उनकी ये मजबूरियां लैंगिक अपेक्षाओं से गहरे प्रभावित होती हैं। यह विभाजन तेजी से स्पष्ट होता जा रहा है। महिलाओं की बदलती भूमिकाओं, आकांक्षाओं और क्षमता के अलावा, पुरुषों को दूसरे कई तरह के परिवर्तनों का सामना करना पड़ता है। आर्थिक व्यवस्था, आजीविका के अवसर और पारंपरिक सामाजिक संबंध तेजी से बदलाव से गुजर रहे हैं। कई पुरुष इस गतिशील वातावरण के साथ तालमेल बैठा चुके हैं और तरक्की की तरफ बढ़ रहे हैं लेकिन बहुतों के लिए यह सम्भव नहीं है। इस तरह की असफलताएं समाज में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ने लगी हैं। लड़कों में स्कूल की पढ़ाई जारी रखने और शैक्षणिक उपलब्धियां हासिल करने की दर कम होती जा रही है और पुरुष हिंसा में भी किसी प्रकार की कमी नहीं आई है।
हमारे काम का फोकस ग्रामीण समुदायों में महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा और बहिष्कार पर था। इस ‘अनुचित’ स्थिति के बारे में चिंतित होने वाले पुरुषों को ढूंढ़ पाना भी सम्भव है।
मुझे लिंग समानता के क्षेत्र में और पुरुषों के साथ काम करते हुए दो दशक से भी ज़्यादा का समय हो चुका है। हमने उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाक़ों में इस काम को केवल एक सरल सवाल के साथ शुरू किया था: क्या समुदाय के पुरुष ऐसे कार्यक्रम में शामिल होंगे जिससे केवल महिलाओं को ही लाभ मिलेगा? हमने पाया कि महिलाओं की स्थिति में इस तरह सुधार लाना वास्तव में संभव है। इसे विन-विन अप्रोच कहा जा सकता है। हमारे काम के केंद्र में ग्रामीण समुदायों में महिलाओं पर की जाने वाली हिंसा और बहिष्कार था। इस ‘अनुचित’ स्थिति के बारे में चिंतित होने वाले पुरुषों को ढूंढ़ पाना भी सम्भव है। हम जानते थे कि सबसे पहले परिवार के पुरुषों तथा उनकी व्यक्तिगत भूमिकाओं एवं अन्य सदस्यों के साथ उनके रिश्तों में बदलाव लाने की ज़रूरत है। शुरूआती हिचक के बावजूद महिलाओं एवं लड़कियों ने इन बदलावों को स्वीकार करना शुरू कर दिया।
पुरुष अब अपने घरों में ज़्यादा समय दे रहे थे – वे रसोई के कामों में, पानी भरने में और बच्चों की देखरेख में हाथ बंटा रहे थे। पत्नियों को अपने पतियों के साथ की नई अंतरंगता अच्छी लग रही थी और वे अपनी सखियों को प्रोत्साहित कर रही थीं कि वे भी अपने पतियों को पुरुषों के इस समूह में शामिल करवाएं। अपने पिता से बचने एवं सावधान होने की बजाय छोटे बच्चों को अब उनके साथ खेलने में अच्छा लग रहा था। इन पुरुषों को भी अब पहले से कम ग़ुस्सा आता था और उन्होंने बताया कि अब वे अपने ग़ुस्से को अलग-अलग तरीक़ों से क़ाबू करते हैं।
हमने चौंकाने वाले कुछ अन्य बदलाव भी देखे। एक अध्ययन में हमने इन पुरुषों में आने वाले बदलावों को न केवल उनकी कहानियों से बल्कि उनके घर की महिला सदस्यों तथा करीबी पुरुष दोस्तों की मदद से भी समझने का प्रयास किया था। उनके पुरुष दोस्तों ने बताया कि उस व्यक्ति विशेष से उनका संबंध पहले से बेहतर हुआ है। हमने देखा कि पुरुष घर के अंदर और बाहर अन्य पुरुषों के साथ कई तरह के रिश्तों से जुड़ा होता है। ये सामाजिक एवं स्थिति संबंधी रिश्ते आयु, जाति, धर्म, जातीयता, बोली, शैक्षणिक उपलब्धि, संगठनात्मक पद आदि से जुड़े होते हैं और पद क्रम के हिसाब से भी होते हैं। ऐसे सामाजिक मानदंड हैं जो तय करते हैं कि पुरुष एक-दूसरे के साथ कैसे संबंध रखेंगे। इनमें से किसी भी सामाजिक या स्थितिगत मापदंडों के आधार पर ‘वरिष्ठता’ की स्थिति में प्रत्येक पुरुष इस बात के प्रति सजग रहता है कि उसके ‘अधीनस्थ’ पुरुष सीमाओं का उल्लंघन तो नहीं कर रहे हैं।
हमने पुरुषों की दुनिया के बारे में जानना और उनकी अपेक्षाओं तथा रिश्तों को समझना शुरू किया। सामाजिक रूप से एक लड़के का पुरुष बनना एक जटिल प्रक्रिया है क्योंकि समाज उन्हें अनगिनत उम्मीदों और अपेक्षाओं के बारे में बताता है। लड़कों को इन सभी भूमिकाओं और अपेक्षाओं पर खरा उतरना होता है। हम सब यह जानते हैं कि लड़कों से मज़बूत बनने और चोट लगने पर न रोने की उम्मीद की जाती है। इसके साथ ही पुरुष क्रोध, नापसंदगी और नफ़रत के अलावा अन्य किसी भी तरह की भावना नहीं दर्शा सकते हैं। यह पुरुषों की ‘प्रतिस्पर्धी’ दुनिया में जीवित रहने के लिए, लड़कों को प्राप्त होने वाले प्रशिक्षण और कंडीशनिंग का हिस्सा है। हालांकि, पुरुषों की दुनिया खेल का एक सपाट मैदान नहीं है और इसमें सामाजिक ऊंच-नीच पूरे विस्तार के साथ मौजूद होता है। हमारे साथ काम करने वाले ज़्यादातर पुरुष गरीब, ग्रामीण इलाक़ों में रहने वाले और उपजातियों से संबंध रखने वाले थे। एक विशेष जाति या वर्ग का पुरुष होने के नाते उन्हें कई तरह का नुक़सान उठाना पड़ता था। नतीजतन, ऐसे पुरुषों में महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव और अन्याय के ख़िलाफ़ सहानुभूति थी। इस तरह दूसरे के पिछड़ेपन और पुरुष के तौर पर अपने विशेषाधिकारों को समझ सकने की यह क्षमता सामाजिक संबंधों की उनकी समझ को बदलने में महत्वपूर्ण साबित हुई।
गरीब पुरुषों के साथ काम करने के बाद, हमने यह महसूस किया कि उनके जीवन में विशेषाधिकार एवं नुक़सान की अलग परतें हैं। हमें उनके नुक़सान के प्रति सहानुभूति प्रकट करने की ज़रूरत थी ताकि वे अपने से अधिक पिछड़ों (यानी महिलाओं) के प्रति सहानुभूति प्रकट कर सकें। हमें इस बात का एहसास हुआ कि समानता केवल वंचितों और पीड़ितों की ‘मांग’ ही नहीं हो सकती है बल्कि इसमें मौजूदा असमान सामाजिक व्यवस्था से फ़ायदा ले रहे लोगों की भी भूमिका आवश्यक है। ऐसा नहीं होने पर समानता स्थापित करने के सभी प्रयास प्रतिस्पर्धा और विपरीत प्रतिक्रिया की ओर लेकर जाएंगे क्योंकि असमान सामाजिक व्यवस्था से फ़ायदा उठाने वाले शायद ही कभी खुद इन्हें त्याग सकेंगे।
पुरुषों और किशोरों के पास पर्याप्त भावनात्मक या सामाजिक तरीके नहीं होते हैं तो वे अपनी असफलताओं से कैसे निपटें?
यदि हम अपने समाज के लिए एक अधिक परिवर्तनशील भविष्य बनाना चाहते हैं तो हमें यह समझना होगा कि कैसे समानता की हमारी चाह को ‘आधिपत्यपूर्ण पुरुषत्व’ (हेजेमोनिक मैस्क्युलिनिटी) के विचार से मिलने वाली चुनौती का सामना करना पड़ता है। इसके मूल में ‘प्रभुत्व की इच्छा’ या ‘किसी भी क़ीमत पर जीत’ की भावना निहित होती है। यह भावना लगभग सभी पुरुषों में पर्याप्त रूप से उपस्थित होती है। सफल पुरुषों में इसे ‘अच्छे’ लक्षण के रूप में देखा जाता है। लेकिन सभी पुरुष सफल नहीं हो सकते हैं, जिसके चलते ये इच्छाएं अधूरी रह जाती हैं या असफल होने पर बेकार हो जाती हैं। आज के बदलते सामाजिक और आर्थिक परिवेश के कारण आंशिक रूप से सफल पुरुषों की संख्या बढ़ रही है। लेकिन जब पुरुषों एवं किशोरों के पास पर्याप्त भावनात्मक या सामाजिक तरीके नहीं होते तो वे अपनी असफलताओं से कैसे निपटें?
यदि हमें असफलताओं से निपटने में पुरुषों की मदद करनी है तो हमें सफलता के वैकल्पिक मॉडल की ज़रूरत है। हमें लड़कों की परवरिश के तरीक़े बदलने होंगे और इसे केवल वंचित परिवारों के लड़कों पर ही लागू नहीं करना है। हमें एक साथ, एक ही समय पर लड़कों, अभिभावकों और शिक्षकों के साथ काम करने की ज़रूरत है। हमें समानुभूति पैदा करने, विभिन्न प्रकार की सफलताओं का जश्न मनाने और प्रतिस्पर्धा पर सहयोग को बढ़ावा देने के अलग-अलग तरीकों की खोज करनी होगी। घर पर लड़के और लड़कियों, दोनों को अपनी और दूसरों की देखभाल करना सीखना होगा। लड़कियों को पालने के सफल मॉडल का आशय उन्हें लड़कों की तरह पालना नहीं हो सकता।
अगर हम लगातार लैंगिक भेदभाव, पुरुष हिंसा की बढ़ती दर, रोज़मर्रा के लैंगिक भेदभाव (सेक्सिजम), और ‘समस्या खड़ी करने वाले’ पुरुषों और लड़कों पर बात करना चाहते हैं, तो इस सवाल का जवाब ‘सफलता’ को फिर से परिभाषित करने में निहित है। हमें नेतृत्व के वैकल्पिक मॉडल विकसित करने होंगे जिनमें पुरुष अपनी शक्ति घटने की चिंता किए बग़ैर दूसरों को अवसर प्रदान कर सकें। हमें उन ‘सफलताओं’ का भी जश्न मनाना चाहिए जिनके साथ भौतिक संपदा या दूसरों पर अधिकार जैसे भाव नहीं जुड़े हैं। ऐसा करने के लिए, हमें उन पुरुषों के साथ आने की जरूरत है जो अन्य पुरुषों पर अधिकार रखते हैं। इस तरह के साथ से पुरुषों पर दोष या आरोप लगाए बिना, उन्हें यह समझने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए कि उनकी अपनी ‘सफल मर्दानगी’ खुद को और दूसरों को कैसे नुकसान पहुंचा सकती है। हमारा अनुभव कहता है कि इस प्रक्रिया में शामिल होने की इच्छा रखने वाले पुरुष होते हैं। इस तरह महिलाओं और पुरुषों के बीच, और पुरुषों और अन्य लिंगों के बीच संबंध आखिरकार सुधरते हैं और बड़े सामाजिक और संस्थागत परिवर्तन अपनी जड़ पकड़ते हैं।
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