जो लोग अपने संगठन का अस्तित्व बनाये रखने के लिए बमुश्किल संसाधन जुटा पा रहे हैं, उन्हें इस लेख का शीर्षक किसी संपन्न और धनाढ्य फाउंडेशन का दिखावा लग सकता है। लेकिन यह सच नहीं है। नवसर्जन ट्रस्ट, दलित शक्ति केंद्र और दलित फाउंडेशन का संस्थापक होने के नाते मैं पूरे यकीन से कह सकता हूं कि जब से भारत सरकार ने एफसीआरए पंजीकरण में बदलाव किए हैं, तब से हमारी फंडिंग का पूरा जिम्मा ‘हमसे और हमारे लिए’ के ढर्रे पर आ गया है। एफसीआरए की बंदिशों ने जहां कुछ संगठनों को बंद होने पर मजबूर किया है, वहीं कुछ ‘विश्वसनीय’ माने गए संस्थानों को अपार संसाधन भी दिलाए हैं। इस बदलाव ने मुझे यह एहसास कराया है कि न्याय की लड़ाई में हाशिए पर रहने वाले समुदायों को अब अपने संघर्ष की पूंजी खुद जुटानी होगी।
कई अन्य एक्टिविस्टों की तरह मेरी कहानी भी अपने निजी अनुभवों से जन्मी है। दलितों ने सदियों तक जो हिंसा और अपमान सहा है, उसे एक छोटे लेख में समेटना संभव नहीं है। वर्ष 1986 मेरे लिए एक निर्णायक मोड़ था। उस साल तथाकथित उच्च जाति के लोगों ने निर्ममता से मेरे चार दलित ग्रामीण साथियों की हत्या कर दी थी। इस क्रूरता की वजह केवल इतनी थी कि दलितों ने एक कृषि सहकारी संस्था के माध्यम से संगठित होने का साहस किया था। इस सहकारी संस्था ने सवर्ण जमींदारों पर दबाव बनाया था कि वे उनकी मजदूरी को एक रुपये से बढ़ाकर सात रुपये प्रतिदिन करें। यह संस्था दलितों के लिए उस उत्पीड़न के खिलाफ खड़े होने का एक मंच बन गई थी, जिसका वे सामना करते आए थे। हमने इसी सहकारिता से ताकत बटोरी और एकजुट होकर दोषियों को न्याय के कटघरे तक पहुंचाया।
मैं यह कहानी इसलिए साझा कर रहा हूं ताकि फिलन्थ्रॉपी से जुड़े लोग यह समझ सकें कि गरिमा और न्याय के लिए संघर्ष कोई क्षणिक प्रयास नहीं, बल्कि एक आजीवन संकल्प है। इसकी शुरुआत होती है विश्वास से। सबसे पहले, मुझे अपने मूल्यों और अपने आप पर भरोसा करना जरूरी है। फिर समुदाय को भी मुझ पर भरोसा होना चाहिए। अन्यथा, एक संस्था के प्रमुख के रूप में मुझसे जुड़ी हुई धनराशि विनाशकारी भी साबित हो सकती है। सबसे जरूरी है एक सामूहिक विश्वास, जो इस सोच को जन्म देता है कि साझा प्रयासों और एकता से हम बदलाव की एक प्रभावशाली ताकत बन सकते हैं। यही विश्वास एक ऐसा मजबूत बंधन बनाता है, जिसे फिलन्थ्रॉपी के नित बदलते चलन डिगा नहीं सकते। जब समुदाय में यह भरोसा होता है कि हम सामूहिक रूप से अपनी आवाज उठा सकते हैं, तभी उन्हें यह अहसास भी होता है कि केवल अपने काम, पहल और नेतृत्व से ही गुलामी से मुक्त हो पाना मुमकिन है।

यही वह स्वायत्तता (एजेंसी) है जिसे अक्सर ऐसे संस्थान हासिल नहीं कर पाते, जिनकी सामाजिक परिवर्तन को लेकर प्रतिबद्धता केवल सतही होती है। वे न तो समुदाय पर भरोसा करते हैं और न ही यह स्वीकार करते हैं कि असली ज्ञान लोगों से ही मिलता है। उनके पास संसाधन हो सकते हैं, लेकिन जब तक समुदाय उनपर विश्वास नहीं करता, तब तक उनकी वैधता केवल दिखावटी होती है। इसके उलट, ऐसी संस्थाओं को वे लोग जरूर विश्वसनीय मानते हैं जो व्यवस्था की जड़ें हिलाने के बजाय सिर्फ सतह पर ही सुधार दिखाना चाहते हैं। ये संस्थाएं इस भय से ग्रस्त रहती हैं कि कहीं उन्हें राज्य या सत्ताधारी दलों के विरुद्ध न समझा जाए। अनुकूल छवि बनाए रखने की होड़ में वे अपने संसाधनों का उपयोग एकजुटता की जगह चैरिटी, यानी दान पर केंद्रित करती हैं। वे जवाबदेही, पारदर्शिता और प्रभावशीलता जैसे ‘मूल्य’ तो अपनाती हैं, लेकिन करुणा, गरिमा और सत्य जैसे मूल्यों को पीछे छोड़ देती हैं। कुछ खोने का डर, चाहे वह सरकारी मान्यता हो या आर्थिक सहायता, नैतिक रूप से हानिकारक होता है। फिलन्थ्रॉपी भय के माहौल में फल-फूल नहीं सकती, विशेषकर तब जब उसका उद्देश्य ही लोगों को भयमुक्त और सशक्त बनाना हो।
बहुत लोगों के लिए यह मानना मुश्किल हो सकता है, लेकिन मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव से यह पूरे विश्वास से कह सकता हूं कि बिना पैसों के भी हम बहुत सारा और ज्यादा चुनौतीपूर्ण काम पूरा कर पाए हैं। यह बात नई नहीं है कि पैसे अक्सर अपने साथ नियंत्रण और कई शर्तें लाता है। यह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हमारी प्राथमिकताओं को भी बदलने का माद्दा रखता है, जिससे हमारा ध्यान भटक सकता है। इसके उलट, पिछले चार महीनों में नवसर्जन को हमारे समुदाय से 16 लाख रुपये का योगदान प्राप्त हुआ है। यह उन तमाम कोशिशों के खिलाफ एक प्रत्यक्ष प्रतिक्रिया है, जिसे समुदाय और हमारे सहयोगी राज्य द्वारा दलित चेतना को व्यवस्थित रूप से समाप्त करने की एक सोची-समझी योजना के रूप में देख रहे हैं। संसाधनों का यह जुटान विश्वास, एकजुटता और प्रतिरोध का प्रतीक है। यह सामाजिक न्याय पर आधारित फिलन्थ्रॉपी है, जो किसी भी जन आंदोलन की मजबूती के लिए अनिवार्य तत्व है।
सामाजिक न्याय एक ऐसे परिप्रेक्ष्य में काम करता है, जहां राज्य, फंडिंग संस्थाएं, संगठन, समुदाय और व्यक्तिगत कार्यकर्ता व एक्टिविस्ट जैसे कई हितधारकों के बीच शक्ति असमान रूप से बंटी होती है। यह तभी फल-फूल सकता है जब हम केवल पैसों की बजाय विश्वास और करुणा जैसे अडिग मूल्यों के आधार पर आगे बढ़ें। हमें नहीं भूलना चाहिए कि जिन धनाढ्य और समृद्ध लोगों के पास अत्यधिक संसाधन हैं, उन्होंने अक्सर समस्याओं को हल करने की जगह उन्हें बढ़ाया ही है। जैसा कि गांधी ने कहा था, ‘ये दुनिया सबकी जरूरतों के लिए तो काफी है, लेकिन एक भी इंसान के लालच के लिए नाकाफी है।’
जब हमने अपनी सामर्थ्य पर विश्वास करना शुरू किया, तो हमें एकजुटता और करुणा का अनुभव हुआ, जो कि गरिमा के मूल स्तंभ हैं। मैं यह अनुभव उन सभी के साथ एकजुटता और आशा की भावना के साथ साझा कर रहा हूं, जो मानवाधिकार और सामाजिक न्याय के कार्यों के लिए तेजी से सिमटते आर्थिक संसाधनों के बीच रास्ता तलाशने की कोशिश कर रहे हैं।
जब हम खुद को देखेंगे और अपने ऊपर भरोसा रखेंगे, तो हमें यह साफ दिखाई देगा कि दुनिया को बदलने के लिए हम काफी हैं। यही हमारी असली ताकत है।
यह लेख मूल रूप से अलायंस पर प्रकाशित हुआ था, जिसे आप यहां पढ़ सकते हैं।
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