विकलांगता के अनुकूल कार्यस्थल का निर्माण: समावेशिता क्यों मायने रखती है

एक समावेशी नेतृत्वकर्ता ‘हम लोग बनाम वे लोग’ के कथन को केंद्र में रखकर काम नहीं करता है। उन्हें कार्यस्थल में अपने और उन लोगों के बीच मौजूद समानताओं पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए जिनसे उनका संवाद स्थापित होता है।

नाइजीरिया की लेखिका चिमामांडा नगोजी अदिची ने अपने प्रसिद्ध भाषण ‘द डेंजर ऑफ ए सिंगल स्टोरी’ में हम लोगों को किसी व्यक्ति के बारे में कही गई इकलौती बात—स्टीरियोटाइप—को लेकर आगाह किया था। अदिची ने ज़ोर देते हुआ कहा कि ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि स्टीरियोटाइप सच नहीं हैं, बल्कि इसलिए है क्योंकि ये अधूरे हैं—“वे एक कहानी को ही कहानी बना देते हैं।” कार्यस्थल पर विकलांग लोगों के साथ होने वाले हमारे संवाद के संदर्भ में यह एक वास्तविकता है। साथ ही जीवन के अन्य पहलुओं के संदर्भ में भी सच है। अदिची के अनुसार इस इकलौती कहानी का परिणाम यह होता है कि यह लोगों की गरिमा को प्रभावित करती है। “यह हमारी समान मानवता की मान्यता को कठिन बना देता है।” मेरे भाई हरी का उदाहरण लेते हैं। उसने नरसी मोंजी इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट स्टडीज के एमबीए कार्यक्रम में पहला स्थान पाया था। उसे दृष्टि दोष है, और उसने अपनी पढ़ाई ऑडियो कैसेट, स्क्रीन रीडर सॉफ्टवेयर और इंटरनेट के माध्यम से पूरी की। लेकिन जब उसके नौकरी की बात आई तब उसके ‘अंधेपन’ के कारण एक भी नियोक्ता उसे काम पर नहीं रखना चाहता था। उसने 70 इंटरव्यू दिये थे। समस्या यह नहीं थी कि इंटरव्यू लेने वाले सभी लोग उसे एक ऐसे आदमी के रूप में देख रहे थे जिसे दृष्टि दोष है, बल्कि समस्या यह थी कि वे लोग उसकी सिर्फ एक ‘कहानी’ को ही देख रहे थे—उसकी विकलांगता। इस स्थिति ने भय और बेचैनी पैदा कर दी और किसी भी दूसरी ऐसी कहानी को बगल कर दिया जिससे उसके साक्षात्कारकर्ताओं को उसके व्यक्तित्व को समझने, इंटरव्यू आयोजित करने और उस्की क्षमता का आकलन करने में मदद मिल सकती थी।

विकलांगता, शिक्षा तक पहुँच की कमी और गरीबी अक्सर एक दूसरे से जुड़े होते हैं।

उन्होनें उसकी असमानताओं पर इतना अधिक ध्यान केन्द्रित कर दिया कि वे समानताओं को देख ही नहीं सके। हरी को क्रिकेट पसंद है, एक ऐसा खेल जिसे पूरे देश में करोड़ो लोग पसंद करते हैं, और यह बातचीत शुरू करने के लिए एक अच्छा विषय हो सकता था। और उन लोगों में कुछ लोग सिर्फ इतना कह सकते थे कि, “नमस्ते, मैं आज तक किसी भी दृष्टि बाधित आदमी से नहीं मिला हूँ। मैं आपका इंटरव्यू कैसे कर सकता हूँ?”

एनेबल इंडिया का समावेशिता का विचार—सभी को शामिल करने की योग्यता—इस और इस जैसे कई अनुभवों से निकलकर आया है जो विभिन्न संगठनों के नेतृत्वकर्ताओं, प्रबन्धकों और कर्मचारियों से मुझे हासिल हुआ। मैंने महसूस किया कि मतभेदों के बारे में जागरूकता समावेशिता के लिए बाधा नहीं है। सबसे बड़ी बाधा इस बात की अयोग्यता है कि बातचीत के लिए एक आम जगह का निर्माण नहीं हो पाता है जिसके लिए रणनीतिक योजना और निर्माण योग्यता की जरूरत होती है। 

समावेशनीयता का गुणक क्या है?

एक समावेशी नेता बनने के लिए जिसे हम समावेशिता गुणक कहते हैं (IncQ), को विकसित करने की जरूरत होती है—नेताओं के लिए एक सक्षमता ढांचा कि कैसे अपने संगठन में विविध लोगों को शामिल किया जाए। उच्च IncQ वाला एक नेता अपने टीम के सदस्यों से अधिकतम योगदान हासिल कर लेता है और तीन मुख्य सिद्धांतों द्वारा निर्देशित होता है: 

1. परिदृश्य को आंतरिक बनाना 

एक समावेशी नेता जानता है कि सभी लोग एक ही जगह से नहीं आते है और न ही सबके पास एक ही तरह की विशेष सुविधा होती है। वे उन व्यवस्थागत बाधाओं से परिचित होते हैं जो विभिन्न लिंगों, वर्गों या योग्यताओं वाले लोगों के बीच के संवाद पर हावी होता है। वे यह भी जानते हैं कि कैसे ये बाधाएँ एक दूसरे को काटती हैं और फिर इन बाधाओं को दूर करने के लिए सक्रिय रूप से रणनीतियों की योजना बनाते हैं।

उदाहरण के लिए, विकलांगता, शिक्षा तक पहुँच और गरीबी अक्सर एक दूसरे से जुड़े होते हैं। इससे निजात पाने के लिए हम लोगों ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम करने वाले उन नेतृत्वकर्ताओं से बात की जिनके साथ हम लोगों ने काम किया था। हमने उनसे उन विकलांग लोगों को काम पर नियुक्त करने की गुजारिश की जिन्के पास डिप्लोमा की डिग्री थी—ऐसे पदों के लिए जिनके लिए स्नातक के डिग्री की जरूरत होती है। नेताओं ने उन्हें नियुक्त करने का सही फैसला लिया और साथ ही इस परिदृश्य के साथ आने वाली असमानताओं से निबटने के लिए एक स्तर वाले क्षेत्र मुहैया करवाए। अगला चरण इन कर्मचारियों को छात्रवृति प्रदान करना था ताकि वे अपने स्नातक की पढ़ाई पूरी कर सकें। इसी तरह से, सूचना तकनीक (आईटी) क्षेत्र में काम करने वाली ऐसी बहुत सारी कंपनियाँ हैं जो विकलांग लोगों को आसानी से कार्यस्थल पर पहुँचने के लिए संशोधित दो पहिये वाहन खरीदने के लिए उधार देती है। यहाँ दिये गए प्रत्येक उदाहरण में, नेतृत्वकर्ताओं ने ‘बहाने’ से आगे बढ़कर एक स्तर वाले क्षेत्र के निर्माण के लिए अपनी क्षमता का उपयोग किया है।

2. असमानताओं को सामान्य बनाना 

असमानताओं से परे जाने के लिए एक नेतृत्वकर्ता को अपने और उस आदमी के बीच की समानता पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए जिससे वे बात कर रहे हैं। एक समावेशी नेतृत्वकर्ता ‘हम लोग बनाम वे लोग’ के कथन को केंद्र में रखकर काम नहीं करता है। वे उचित भाषा और संवाद को शुरू करने वाली बातों का उपयोग करके संवाद को आसान बनाने की सक्रिय कोशिश करते हैं। हालांकि सभी अन्य बातचीत की तरह ही असमनताओं का यह सामान्यीकरण भी दो-तरफ़ी प्रक्रिया है। विकलांग कर्मचारियों को खुद की वकालत करने वाले माध्यमों और तरीकों (सेल्फ-एडवोकेसी टूल) को अपनाना होगा जो उन्हें उनकी विकलांगता से अलग और परे जाकर उनकी पहचान बनाने में मदद करे। इन तरीकों में शौक़, विशेषताएँ और ऐसी इच्छाएँ शामिल हो सकती हैं जो बदलाव के लिए चिंगारी का काम करें। 

हर आदमी में विकास की क्षमता होती है। एक नेतृत्वकर्ता और प्रबन्धक के रूप में यह हमारी क्षमता की कमी को दर्शाता है कि अक्सर हम इस बात को भूल जाते हैं।

उदाहरण के लिए, जब एक नेतृत्वकर्ता अजय* से मिले, 38 वर्षीय एक ऐसा व्यक्ति जो बौद्धिक विकलांगता से ग्रस्त है और एक शब्दांश में ही बात करता है, इस स्थिति में नेतृत्वकर्ता को यह मालूम नहीं था कि उन्हें क्या कहना है। हालांकि जब अजय ने उन्हें एक ऐसा कार्ड दिया जिसमें उसने खुद को एक क्रिकेट प्रेमी और मिस्टर डिपेंडेबल के रूप में दर्शाया तब नेतृत्वकर्ता ने उससे क्रिकेट के बारे में पूछना शुरू कर दिया। इस विषय के साथ अजय धीरे-धीरे खुलना शुरू हुआ और उसने कुछ वाक्य बोले। नेतृत्वकर्ता अब उसके व्यक्तित्व के बारे में जान सकते थे, जो उस स्थिति में शायद संभव नहीं होता अगर वह ‘बौद्धिक विकलांगता’ शब्द को अपने दिमाग में लेकर चलते। 

एक दूसरे मामले में, एक प्रबन्धक को अपने इंटर्न्स को अमरीकी लहजे में विषय से संबंधित वीडियो से परिचित करवाना था। इसके लिए उन्होने सबसे पहले उसी तरह की सामग्री को भारतीय लहजे में बने वीडियो के माध्यम से दिखाना शुरू किया ताकि बाद में अमरीकी लहजे वाला वीडियो देखना उसके उन इंटर्न के लिए आसान हो जाए जिनके लिए एक गैर-भारतीय लहजा कठिन हो सकता है। यह एक सीखने वाले लोगों को केंद्र में रखकर उठाया गया कदम था जो विभिन्न पृष्ठभूमि से आने वाले लोगों के लिए कारगर साबित हुआ। 

3. बदलती हुई उम्मीदें 

हर आदमी में विकास की क्षमता होती है। हर आदमी में विकास की क्षमता होती है। एक नेतृत्वकर्ता और प्रबन्धक के रूप में यह हमारी क्षमता की कमी को दर्शाता है कि अक्सर हम इस बात को भूल जाते हैं। एक समावेशी नेतृत्वकर्ता एक सराहनात्मक पूछताछ (AI) का उपयोग करता है जो मूल्यांकन का एक ऐसा तरीका है जो कर्मचारियों की कमजोरियों के बजाय उनके ताकत पर केन्द्रित होता है। यह सभी तरह की पृष्ठभूमियों से आए कर्मचारियों पर समान रूप से लागू होता है—चाहे वह आदमी विकलांग हो या नहीं। और यह इस विश्वास के साथ किया जाता है कि आप जिस चीज पर केन्द्रित होंगे वह चीज विकसित होगी। 

जब भी कोई नया कर्मचारी टीम में आता है तब नेतृत्वकर्ता उसके मजबूत पक्ष के बारे में जानता है और उनके द्वारा सामना किए जाने वाली व्यवस्थतात्मक बाधाओं के बारे में समझता है। यहाँ से वे दोनों सह-निर्माण समाधानों की तरफ बढ़ सकते हैं। एक बार जब यह काम पूरा हो जाता है उसके बाद कर्मचारी की क्षमताओं पर ध्यान केन्द्रित करते हुए उन सीमाओं को आगे बढ़ाये जाने की जरूरत है। 

विविध जातीय पहचान, विकलांगता और उम्र वाले लोग-विकलांगता कार्यस्थल
विकलांग कर्मचारियों को खुद की वकालत करने वाले माध्यमों और तरीकों (सेल्फ-एडवोकेसी टूल) को अपनाना होगा जो उन्हें उनकी विकलांगता से अलग और परे जाकर उनकी पहचान बनाने में उनकी मदद करे। | चित्र साभार: फ्लिकर

उदाहरण के लिए एक ऐसे एमएनसी का मामला देखते हैं जिसने इंटेर्नशीप के लिए बौद्धिक विकलांगता वाले एक आदमी को नियुक्त किया। शुरुआत के दिनों में वह इंटर्न ज़्यादातर अपने प्रबन्धकों और उस सहकर्मी से ही बातचीत करता था जिसे उसका दोस्त (बडी) नियुक्त किया गया था। समय के साथ उस इंटर्न को प्रेजेंटेशन में शामिल होने के लिए कहा गया, जिससे उसकी रुचि खुद से प्रेजेंटेशन देने में बढ़ गई। एमएनसी की रणनीति यह थी कि वह उस इंटर्न को उसकी पसंद के किसी भी विषय पर एक छोटे समूह के सामने बोलने के योग्य बना सके। दूसरे चरण में प्रबंधन ने उस इंटर्न को अपनी तरफ से एक विषय दिया जिसपर उसे बोलना था। और अंत में इंटर्न को एक औपचारिक प्रेजेंटेशन तैयार करने के लिए कहा गया जिसे एक बड़े समूह के सामने पेश करना था। 

मीटर को धीरे धीरे बढ़ाने की एमएनसी की इस प्रक्रिया ने इंटर्न को लोगों के सामने बोलने का साहस हासिल करने में मदद की और साथ ही बातचीत से तकनीकी ज्ञान हासिल करने में भी मददगार साबित हुई।

इस तरह के हस्तक्षेप से कर्मचारियों को न केवल उनके तात्कालिक नौकरी में मदद मिलती है बल्कि आगे उनके करियर में भी सहायता प्रदान होती है। इसके अलावा, इस तरह की प्रक्रिया को तैयार करने के लिए पर्यपात कौशल वाला कोई नेतृत्वकर्ता समाज के विभिन्न पहलुओं से आने वाले टीम के सदस्यों के साथ काम करने के लिए विश्वास एकत्रित करता है। 

स्वयंसेवी संस्थाओं के लिए सबक

ये सभी चीजें सबसे अधिक इच्छुक नेतृत्वकर्ताओं और प्रबन्धकों के लिए सीखना आसान नहीं है—इसलिए नहीं क्योंकि वे इसमें अपना समय नहीं लगाना चाहते हैं बल्कि इसलिए क्योंकि अक्सर उनके पास ऐसी कोई भाषा नहीं होती है जिसके इस्तेमाल से वे किसी अपने से अलग आदमी से मिलने पर उनके साथ अपने अपराधबोध, अपनी चिंताओं और असहजताओं के बारे में बात कर सकें। 

उस समान भाषा को खोजने के लिए पहले एक नेता और सहयोगी को स्व-समावेशी होने की जरूरत होती है। इसमें अपनी जगह के बारे में जागरूकता प्राप्त करके अपने बारे में सहज महसूस करना शामिल है, जो उन कठिनाइयों के साथ आता है। इसमें अपनी समस्याओं और चिंताओं के बारे में खुलकर बोलने की योग्यता शामिल है—चाहे वह समस्या निजी हो या पेशेवर। एक कार्यस्थल वास्तविक अर्थों में तभी समावेशी हो सकता है। 

संगठनों के साथ काम करने वाले सूत्रधारों के रूप में हमारा काम विभिन्न स्तरों पर इन बातचीत के लिए जगह बनाना है। इसके लिए हमें संगठन बनाने वाले विभिन्न तत्वों की एक सूक्ष्म समझ बनाने की जरूरत होती है—तभी हम उपकरण, विधियों और रणनीतियों के साथ सामने आ सकते हैं। यहाँ वर्षों में हासिल किए कुछ अनुभव के बारे में बता रही हूँ:

1. एक समावेशी कार्यस्थल का अर्थ नेतृत्वकर्ता से अधिक होता है 

जहां समावेशी कार्यस्थल बनाने के लिए नेतृत्वकर्ताओं से बात करना और उन्हें शिक्षित करना एक आवश्यक काम है वहीं इस विचार का पूरे संगठन में समान रूप से प्रवाह भी उतना ही महत्वपूर्ण है। विभिन्न स्तरों पर उस बदलाव को लागू करने के लिए नेतृत्व की भूमिका एक लागूकर्ता के रूप में होनी चाहिए। इसमें ऐसे व्यक्ति शामिल हैं जो एक विकलांग सहकर्मी की जरूरतों के साथ सहज हैं और उनकी जरूरतों को समझते हैं। साथ ही विकलांग लोगों को अपनी विकलांगता से परे जाकर अपनी दूसरी पहचान बनाने में सक्षम होना होगा। 

2. ‘पीसटाइम’ बातचीत दूर तक जाती है

हम लोगों ने देखा है कि विकलांग और शारीरिक रूप से स्वस्थ कर्मचारियों के बीच उपयोगी बातचीत उस समय होती है जब वे इसे ‘पीसटाइम’ में करते हैं—एक अनौपचारिक, बिना काम वाले माहौल में। उदाहरण के लिए, एक शारीरिक रूप से स्वस्थ आदमी स्कूल में जब किसी विकलांग आदमी के साथ पढ़ाई करता है या वे दोनों एक साथ स्वयंसेवक के रुप में काम करते हैं तो ऐसा संभव है कि वे विकलांगता और योग्यता की सोच से परे जाकर एक टिकाऊ संबंध बनाने में सक्षम हों। पीसटाइम ऐसे अवसर देता है जहां एक दूसरे को जानने और स्वीकार करने की प्रक्रिया सही तरीके से होती है।

3. सूत्रधारों को आत्म-निरीक्षण करते रहने की जरूरत है

विकलांगों के बारे में बातचीत में भेद्यता की जगह की मांग होती है। यह विकलांगों, विकलांगों के साथ काम करने वाले स्वयंसेवी सूत्रधारों और नेतृत्वकर्ताओं के संपर्क बिन्दु पर भाग लेने वाले सहभागियों के लिए भी सच है। संबंध बनाना, एक-दूसरे का ध्यान रखना और एक दूसरे के लिए सुरक्षात्मक बनना आसान है। हालांकि एक सूत्रधार के रूप में हमें अपने उन कामों के प्रति सावधान रहना चाहिए जो इस तरह की भावनाओं से पैदा होते हैं। 

हमारी सुविचारित सुरक्षा एक व्यक्ति की अपनी सीमाओं को आगे बढ़ाने और रोजगार की प्रतिस्पर्धी दुनिया के लिए तैयार करने में सक्षम होने के रास्ते में खड़ी हो सकती है। 

यह एक अधिक समतामूलक दुनिया के निर्माण के हमारे अपने विचार से एक भटकाव है। इसलिए हमें लगातार अपनी गतिविधियों का मूल्यांकन करने की जरूरत है। क्योंकि अदिची के शब्दों में वह समतामूलक दुनिया—‘एक प्रकार का स्वर्ग’—हमारे अपराधबोध या दया से नहीं उभरेगा बल्कि व्यक्ति विशेष के एकल कथन को अस्वीकार करने से तैयार होगा। 

*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नामों को बदल दिया गया है।

गायत्री गुलवाड़ी से मिले सहयोग के साथ। 

लोचदार आजीविका निर्माण पर सबक और दृष्टि को उजागर करने वाली 14-भाग वाली शृंखला में यह पांचवां लेख है। लाईवलीहूड्स फॉर ऑल, आईकेईए फ़ाउंडेशन के साथ साझेदारी में दक्षिण एशिया में अशोक के लिए रणनीतिक केंद्र बिन्दु वाले क्षेत्रों में से एक है।

इस लेख को अँग्रेजी में पढ़ें।

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शादी की कीमत

मध्य प्रदेश के एक गैर-अधिसूचित जनजाति (डीएनटी) के बंछाड़ा समुदाय की औरतें पारंपरिक रूप से सेक्स-वर्क से जुड़ी रही हैं। वे कम उम्र में ही काम करना शुरू कर देती हैं और अपने परिवारों की सबसे कमाऊ सदस्य होती हैं। पुरुष सदस्यों को आमतौर पर अनौपचारिक क्षेत्रों जैसे निर्माण से जुड़े काम मिलते हैं। जिनमें उन्हें रोजाना बहुत कम दिहाड़ी मिलती है। 

सेक्स-वर्क के साथ कलंक का भाव जुड़ा होता है जिसके कारण महिलाओं और पुरुषों दोनों के लिए दूसरे तरह के रोजगार ढूंढ पाना मुश्किल हो गया है। समुदाय की एक सदस्य अंजलि* बताती है कि “इसके कारण हालत ऐसी हो जाती है कि जीवन से जुड़े हर पहलू में औरतों के ऊपर बहुत बोझ हो जाता है”, शादी में भी इसके कारण ऐसी ही समस्या होती है। 

अंजलि आगे बताती है कि “जब एक पुरुष की शादी होती है तो दूल्हे के परिवार को 2 से 2.5 लाख तक रुपये देने पड़ते हैं और यह पैसे दूल्हे की बहन कमा कर लाती है”। इस तरह की शर्तें ग्राम पंचायत की ही एक इकाई जाति पंचायत द्वारा तय की जाती है जिसका काम विशेष जाति के आचरणों को निर्धारित करना है। उसी तरह अगर दुल्हन उस शादी के बंधन से बाहर निकलना चाहती है तब उसे या उसके परिवार को दूल्हे के परिवार से मिलने वाली राशि का दोगुना भुगतान करना पड़ता है। दोनों ही मामलों में महिलाओं को ही भुगतना पड़ता है। 

कानूनी तौर पर इस प्रथा को चुनौती देना आसान नहीं होता। पुलिस-कचहरी जाने का कोई मतलब नहीं होता क्योंकि जाति पंचायत समुदाय के रहन-सहन का तरीका तय करती है। अंजलि का कहना है कि “सब कुछ के बावजूद हमारी जवाबदेही अभी भी पंचायत के प्रति है, क्योंकि हमें यहीं रहना है।”

*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नाम बदल दिया गया है। 

अंजलि एक स्वयंसेवी संस्थान की कर्मचारी है जो यौन हिंसा और बंधुआ मजदूरी के पीड़ितों के लिए काम करती है। देबोजीत आईडीआर में समपादकीय सहयोगी हैं। यह लेख अंजलि के साथ किए गए संवाद को आधार बनाकर लिखा गया है।

इस लेख को अँग्रेजी में पढ़ें। 

अधिक जानें: बाल विवाह के लिए समुदाय आधारित दृष्टिकोण के बारे में जानें।

कम समय, हजारों कहानियाँ: जमीन पर काम कर रहे एक पत्रकार की डायरी

मैं एक स्ट्रिंगर हूँ—एक फ्रीलैंस पत्रकार जो उत्तर प्रदेश के उन्नाव शहर में हाइपरलोकल मुद्दों पर पत्रकारिता करता है। मैं स्थानीय सभी ख़बरों पर रिपोर्टिंग करता हूँ। मेरे पास उन दूसरे पत्रकारों की तरह काम के चुनाव का विकल्प नहीं है जो किसी खास बीट की खबर पर ही रिपोर्टिंग करते हैं। एक स्वतंत्र पत्रकार सभी तरह की ख़बरों पर काम करता है—अपराध, राजनीति, और भी बहुत कुछ। हमें जैसे ही किसी घटना की खबर मिलती है हम जितनी जल्दी हो सके उस घटना-स्थल पर पहुँचने की कोशिश करते हैं और उसी समय स्टोरी को दर्ज करते हैं। और चूंकि हम लोग खुद भी यहीं के रहने वाले हैं इसलिए हमें इस बात की समझ होती है कि किसी भी विशेष मुद्दे का समुदाय पर कैसा असर पड़ेगा।

बचपन में मैं बहुत ज्यादा टीवी देखता था—अधिकतर दूरदर्शन। हर शाम 7 बजे जब मैं लखनऊ से प्रसारित होने वाले समाचारों के पत्रकारों को देखता था और सोचता था कि, “एक दिन मैं भी टीवी पर आऊँगा।” लेकिन मेरा पेशेवर जीवन टीवी पत्रकार के रूप में नहीं शुरू हो पाया। जब मैं अपने इंटरमिडिएट की पढ़ाई पूरी कर रहा था तब मेरी मुलाक़ात एक ऐसे पत्रकार से हुई जिन्होनें मुझे अखबारों में लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। मुझे लगा कि यह एक अच्छा काम है और मुझे इसके लिए कोशिश करनी चाहिए, इसलिए मैंने डेली न्यूज एक्टिविस्ट के लिए काम करना शुरू कर दिया। प्रिंट मीडिया के साथ मेरा अनुभव मजेदार था—खबर वाली जगहों पर जाना, लोगों से बात करना, अपने हाथों से कहानी की रिपोर्टिंग करना और इसे प्रकाशित करवाना। यह सब 2014 की बात है। उसके बाद से मैंने कई मीडिया घरों के साथ काम किया है—समाचार डेस्क पर बैठकर, एक संवाददाता के रूप में, एक एंकर के रूप में। मैंने स्थानीय, राज्य संबंधी और राष्ट्रीय स्तर की खबरों पर लखनऊ और दिल्ली से पत्रकारिता की है।

एक पुरुष पत्रकार तीन महिलाओं के साथ एक माइक के साथ बोल रहा है_जमीनी पत्रकारिता उन्नाव
अगर आपका नेटवर्क मजबूत नहीं है तब आपको समाचार बनने लायक घटनाओं की जानकारी नहीं मिलेगी और आप समय पर घटना को दर्ज करने और उस पर रिपोर्ट बनाने का काम नहीं कर पाएंगे। | चित्र साभार: जितेंद्र मिश्रा आज़ाद

जब 2020 की शुरुआत में कोविड-19 से जुड़े मामले वैश्विक रूप से दर्ज होने लगे थे, तब मैं लखनऊ के आमने सामने न्यूज के साथ काम कर रहा था। बीबीसी पर कोविड-19 से जुड़ी ख़बरों पर मेरी लगातार नजर बनी हुई थी और मैं जानता था कि पूरी दुनिया में स्थिति बदतर होती जा रही है। इसलिए 20 जनवरी को मैंने मुख्यमंत्री कार्यालय से संपर्क किया और उनसे लखनऊ में कोविड-19 से जुड़ी तैयारियां शुरू करने की बात कही। यह भारत में कोविड से जुड़े मामले मिलने से बहुत पहले की बात है। और जब कोविड-19 भारत पहुँच गया और स्थिति बदतर होने लगी तब मेरी तनख़्वाह भी रुक गई। मुझे लखनऊ में रहकर काम करने में कठिनाई होने लगी। इसलिए मैंने अपने गाँव वापस लौट जाने का फैसला किया। अब मैं टीवी9 भारतवर्ष नाम के राष्ट्रीय न्यूज चैनल के लिए एक स्ट्रिंगर के रूप में काम करता हूँ।  

सुबह 7:00 बजे: सुबह जागने के बाद सबसे पहले किसी भी नई खबर या अपडेट के लिए मैं अपना व्हाट्सएप देखता हूँ। एक स्ट्रिंगर के लिए यह बहुत जरूरी है कि उसके पास एक मजबूत स्थानीय नेटवर्क हो। यही एकमात्र तरीका है जिससे आपके पास स्थानीय घटनाओं और मामलों से जुड़ी खबरें तुरंत पहुँचती हैं। अगर आपके पास एक मजबूत नेटवर्क नहीं है तो आपको ख़बर बनने लायक घटनाओं के बारे में पता नहीं चलेगा और आप समय पर न तो स्टोरी तैयार कर पाएंगे न ही उसे रिपोर्ट कर पाएंगे। 

मैं स्थानीय अख़बारों, स्थानीय प्रधानों (गाँव के प्रमुख) और पंचायत के प्रतिनिधियों के संपर्क में रहता हूँ। विभिन्न प्रशासनिक कार्यालयों के अधिकारी—पुलिस विभाग, जिला अधिकारी और अन्य अधिकारियों के पास मेरा मोबाइल नंबर है और जब भी कुछ नया होता है तब वे मुझे फोन करते हैं। स्वतंत्र पत्रकारों के बीच में भी मेरा एक मजबूत नेटवर्क है। घटना स्थल पर सबसे पहले पहुँचने वाला स्ट्रिंगर बाकी अन्य पत्रकारों के साथ ख़बर साझा करता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मैं घटना स्थल पर समय पर नहीं पहुँच सकता। अगर ऐसा होता है तब मैं उन्नाव में काम करने वाले दूसरे स्वतंत्र पत्रकारों पर भरोसा कर सकता हूँ। 

एक मजबूत नेटवर्क उस स्थिति में सबसे ज्यादा मददगार साबित होता है जब आप जांच के समय अफवाह और तथ्य को अलग-अलग करने का काम करते हैं।

और जब भी मैं किसी नई जगह पर जाता हूँ तब मैं वहाँ के स्थानीय लोगों से बातचीत करता हूँ और उन्हें अपना मोबाइल नंबर देता हूँ। मैं उनसे कहता हूँ कि वे मेरा नंबर अपने मोबाइल में दर्ज कर सकते हैं और जरूरत पड़ने पर या इलाके में कुछ ऐसा घटने पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं जिसे ख़बरों में आना चाहिए या जिसकी रिपोर्टिंग होनी चाहिए। एक मजबूत नेटवर्क उस स्थिति में सबसे ज्यादा मददगार साबित होता है जब आप जांच के समय अफवाह और तथ्य को अलग-अलग करने का काम करते हैं। हाल ही में मेरे साथ बिलकुल ऐसा ही हुआ जब मैं उन्नाव में दो दलित लड़कियों की मौत पर रिपोर्टिंग कर रहा था। जहां बहुत सारे पत्रकार इस विषय पर रिपोर्टिंग कर रहे थे कि उन लड़कियों को बलात्कार के बाद मार दिया गया, वहीं मैंने स्थानीय पुलिस, डॉक्टरों और परिवार के सदस्यों से बातचीत करके सभी तथ्यों को इकट्ठा किया। इन तथ्यों के आधार पर मैंने यह रिपोर्ट बनाई कि लड़कियों की मौत जहर खाने से हुई थी। यह जरूरी है कि हम अपनी रिपोर्ट तथ्यों और सबूतों के आधार पर बनाएँ और भावनाओं और अफवाहों के प्रभाव में न आयें, विशेष रूप से आजकल जब सभी तरह की अफवाहें व्हाट्सएप और सोशल मीडिया के माध्यम से बहुत ही तेजी से फैलती हैं। 

सुबह 8:30 बजे: मैं सुबह का नाश्ता करने के बाद मोटरसायकल से उन्नाव के लिए निकल जाता हूँ। मैं शहर से लगभग 15 किलोमीटर की दूरी पर रहता हूँ इसलिए मुझे रोज ही शहर से गाँव जाना पड़ता है। शहर पहुँचने के बाद सबसे पहले मैं जिला अस्पताल जाता हूँ, और उसके बाद पुलिस अधीक्षक और जिला अधिकारी के कार्यालयों का दौरा करता हूँ। इन कार्यालयों से मैं विभिन्न कहानियों पर रिपोर्ट बनाता हूँ— दुर्घटनाएँ, जमीन से जुड़े मामले और अन्य मामले। इन सभी जगहों पर जाकर मैं मामले से प्रभावित आदमी और अधिकारियों से बात करता हूँ और सभी महत्वपूर्ण और प्रासंगिक सूचनाओं को लिख लेता हूँ। मैं इन रिपोर्ट को वहीं खड़े-खड़े अपने फोन में लिख लेता हूँ और उन्हें टीवी9 के समाचार डेस्क को भेज देता हूँ। मैं उन लोगों के फोन नंबर भी मांग लेता हूँ जिनसे मेरी बात हुई है ताकि आगे किसी ख़बर की जरूरत पड़ने पर मैं उनसे दोबारा संपर्क कर सकूँ।

एक पत्रकार एक ऑटो में दो आदमियों के साथ हाथ में नोटबुक लिए बात कर रहा है_जमीनी पत्रकारिता उन्नाव
चुनी गई ख़बरों पर स्ट्रिंगर का अधिकार नहीं होता है और न ही प्रकाशित हुई ख़बरों के अंतिम स्वरूप पर। | चित्र साभार: जितेंद्र मिश्रा आज़ाद

किसी किसी दिन मैं आठ रिपोर्ट बनाता हूँ। हालांकि मेरी बनाई गई सभी रिपोर्ट प्रकाशित नहीं होती हैं। ख़बरों को प्रकाशित करने और उनके चुनाव का फैसला समाचार डेस्क करती है। चुनी गई ख़बरों पर स्ट्रिंगर का अधिकार नहीं होता है और न ही प्रकाशित हुई ख़बरों के अंतिम स्वरूप पर। कभी-कभी मुझे बुरा लगता है जब एक अच्छी रिपोर्ट को समाचार डेस्क प्रकाशित नहीं करता है लेकिन उस स्थिति में मैं खुद से कहता हूँ कि मैं अगली बार और अच्छा करूंगा। और भी कई तरह की चुनौतियाँ हैं। जैसे कि, हमारी कोई निश्चित मासिक आय नहीं है। हमें सिर्फ उन ख़बरों के ही पैसे मिलते हैं जो प्रकाशित होती हैं, न कि हमारे द्वारा भेजी गई सभी ख़बरों के। इन कहानियों को भेजने से मिलने वाले पैसों से मोटरसायकल के तेल का खर्च भी मुश्किल से निकल पाता है। इन ख़बरों तक पहुँचने और जानकारियाँ जुटाने में इससे ज्यादा खर्च होता है। और इन ख़बरों की बाईलाईन में उस आदमी का नाम जाता है जो समाचार डेस्क पर बैठकर इन्हें एक साथ लाने का काम करता है; हमारा नाम कभी-कभी लेख के अंत में दे दिया जाता है। लेकिन रिपोर्टिंग मेरा जुनून है और इसलिए मैं यह काम करता हूँ। 

दोपहर 1:00 बजे: इस समय उत्तर प्रदेश में चुनाव हो रहे हैं, इसलिए मैं और दिनों की अपेक्षा ज्यादा व्यस्त हूँ। सभी सामान्य समाचारों के अलावा मुझे चुनाव से जुड़ी सभी ख़बरों की रिपोर्टिंग भी करनी पड़ती है। मुझे राजनीतिक दलों की रैलियों में जाना पड़ता है जहां मैं मतदाताओं और दलों के प्रतिनिधियों से बात करता हूँ। एक पत्रकार के रूप में मुझे यह लगता है कि नागरिकों से जुड़े मुद्दों पर ध्यान देना जरूरी है—वे क्या हैं, क्या उनका समाधान हो गया, पिछले पाँच वर्षों में क्या प्रगति हुई है, सत्ता में बैठे राजनीतिक दल ने कौन सी राहतें मुहैया की हैं? हमें प्रासंगिक स्थानीय खबरों के बारे में बात करनी चाहिए और किसी विशेष प्रत्यासी के समर्थन या विरोध में माहौल बनाने का काम नहीं करना चाहिए। 

इस बार मतदाता खुलकर नहीं बता रहे हैं कि वे किसे अपना मत देंगे। पिछले तीन चुनावों में हम लोगों ने हर बार एक दल के पक्ष में जनता का लहर देखा ही—पहले बीएसपी, उसके बाद समाजवादी पार्टी और फिर बीजेपी। लेकिन इस चुनाव में हमें किसी भी एक दल के पक्ष में स्पष्ट बहुमत नहीं दिखाई पड़ रहा है। 

जनता को केवल राशन दे देने भर से विकास का काम पूरा नहीं होता है।

चुनावी रैलियों और अभियानों की रिपोर्टिंग करने के अलावा मैं उन्नाव जिले में पुरवा विधान सभा क्षेत्र से जुड़ी एक कहानी पर भी काम कर रहा हूँ। कुछ महीने पहले, मैं चुनाव आयुक्त की वेबसाइट पर कुछ शोध कर रहा था और मेरी नजर इस बात पर गई कि इस विधान सभा क्षेत्र में बीजेपी ने आज तक एक भी सीट पर जीत दर्ज नहीं की है। मेरी रुचि इस बात में जगी कि ऐसा क्यों है और मैंने इस पर आगे खोजबीन करने का मन बना लिया ताकि पता लगा सकूँ कि इससे जुड़ी कोई मजेदार रिपोर्टिंग बन सकती है या नहीं। इसलिए मैंने पुरवा का दौरा किया और वहाँ के स्थानीय लोगों से बातचीत की, खासकर उन बुजुर्गों से जो कई दशकों से मतदान कर रहे हैं। उन लोगों ने मुझे बताया कि पुरवा के लोग आज भी पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं जैसी मौलिक सुविधाओं के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यहाँ न तो एक भी अच्छा अस्पताल है न ही उच्च शिक्षा संस्थान। यह एक ऐसी चीज है जिस पर अगली आने वाली सरकार को ध्यान देना चाहिए। जनता को केवल राशन दे देने भर से विकास का काम पूरा नहीं होता है।

शाम 6:00 बजे: घर पहुँचते ही मेरे फोन की घंटी बजी और मुझे खबर मिली कि हाईवे पर एक दुर्घटना हो गई है। मैं तुरंत वापस मुड़ा और घटना स्थल की तरफ निकल गया। आमतौर पर इस तरह की खबरें देर रात में आती हैं—बीच रात में या सुबह के 2 बजे करीब। इससे फर्क नहीं पड़ता है कि मेरे पास किस समय फोन आ रहा है; फोन आते ही मैं उस समय कर रहे अपने काम को बीच में छोडकर रिपोर्ट की फ़ाइल तैयार करने घटना स्थल पर जाने के लिए निकल जाता हूँ। अगर इन घटनाओं में किसी की मौत हो जाती है तब मुझे पोस्ट-मोर्टेंम रिपोर्ट के लिए अस्पताल भी जाना पड़ता है। 

मैं इस काम को इसलिए कर रहा हूँ ताकि वहाँ तक पहुँचने का रास्ता मिल सके जहां मैं पहुँचना चाहता हूँ और तब तक करता रहूँगा जब तक मेरी रुचि खत्म नहीं हो जाएगी। 

मेरी दिनचर्या अनिश्चित है और मुझे अपने परिवार के साथ बहुत कम समय मिलता है। शुरुआत में जब मैंने काम करना शुरू किया था तब मेरे पिता को लगता था कि मैंने गलत पेशा चुन लिया है। उनका कहना था कि, “तुमने इंटरमिडिएट की पढ़ाई पूरी कर ली है, तुम कंप्यूटर क्यों नहीं सीख लेते हो और उसके बाद इधर-उधर घूमने के बजाय एक अच्छी सी नौकरी क्यों नहीं ढूंढते हो?” अब जब लोग उन्हें मेरे काम के बारे में बताते हैं तब उन्हें राहत मिलती है। मेरे दोस्तों को लगता है कि मेरा काम सबसे अच्छा है क्योंकि मैं कहीं भी जा सकता हूँ, लोगों से मिल सकता हूँ और उनकी समस्याओं के बारे में बात कर सकता हूँ। लेकिन एक स्ट्रिंगर के काम में बहुत अधिक दबाव होता है, जिसमें मान्यता और मिलने वाले पैसे न के बराबर होते हैं। मैं इस काम को इसलिए कर रहा हूँ ताकि वहाँ तक पहुँचने का रास्ता मिल सके जहां मैं पहुँचना चाहता हूँ और तब तक करता रहूँगा जब तक मेरी रुचि खत्म नहीं हो जाएगी। 

जैसा कि आईडीआर को बताया गया। 

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भारत के वित्तीय सेवाओं से जुड़े मुद्दों को उठाना इतना मुश्किल क्यों है

भारत सामाजिक और आर्थिक रूप से हाशिये पर जी रहे अपने लोगों तक आसानी से पहुँचने के लिए वित्तीय सेवाओं में नवाचार कर रहा है। उदाहरण के लिए यह सामाजिक कल्याण योजनाओं से सीधे बैंक खातों (नकद या इन हैंड सेवाओं के बजाय) में धन का हस्तानांतरण करके यूनीफाइड पेमेंट इंटरफेस (यूपीआई) जैसे तरीकों को बढ़ावा देता है। साथ ही यह सामाजिक कल्याण से जुड़े फ़ायदों के लिए हाल ही में शुरू किए गए ई-आरयूपीआई प्लैटफ़ार्म के माध्यम से डिजिटल टोकन भी मुहैया करवाता है। लेकिन जब लक्षित लोगों को इन सेवाओं तक पहुँचने में कठिनाई होती है तब वे खराब उपभोक्ता संरक्षण और शिकायत निवारण तंत्र (जीआरएम) के साथ जूझते हैं। इस तरह के अनुभवों से इस नए समाधान पर से उनका विश्वास घटता है और उनके लाभ को प्रभावित करता है। 

ग्राम वाणी जहां दोनों ही लेखक काम करते हैं और सावर्जनिक वित्त और नीति के लिए राष्ट्रीय संस्थान (एनआईपीएफ़पी) ने 2020–21 में बैंकिंग सेवाओं के संबंध में उपलब्ध जीआरएम की पहुँच, प्रभावशीलता और समावेशिता को सामने लाने के लिए एक शोध किया था। इस शोध को बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और तमिल नाडु में ग्राम वाणी के मोबाइल वाणी सामुदायिक मीडिया प्लैटफ़ार्म पर किए गए सर्वेक्षण के आधार पर संचालित किया गया था। इस सर्वेक्षण में 900 से अधिक लोगों ने जवाब दिया था जिसमें 80 प्रतिशत लोग 18–35 वर्ष की आयु सीमा वाले थे और जिनकी मासिक आय 5,000 रूपये से कम थी। 

शिकायत निवारण प्रणाली कैसे काम करती है?

हमारे सर्वेक्षणों ने इस तरफ इशारा किया कि बैंकिंग सेवाओं के साथ विभिन्न प्रकार के मुद्दों के बावजूद 69 प्रतिशत लोगों ने अपनी शिकायतें दर्ज नहीं कारवाई। 20 प्रतिशत लोग ऐसा इसलिए नहीं कर पाये क्योंकि वे नहीं जानते थे कि शिकायत कैसे दर्ज कारवाई जाती है।

बैंकिंग लोकपाल सेवाओं को प्राप्त शिकायतों में से केवल 10 प्रतिशत शिकायतें ही ग्रामीण इलाकों से है।

भारतीय नियामक प्राधिकरणों ने अपनी वित्तीय सेवाओं के लिए दो-स्तरीय शिकायत निवारण प्रणाली की स्थापना की है। पहले स्तर में वित्तीय संस्थानों के पास उपयोगकर्ताओं की शिकायतों पर काम करने के लिए औपचारिक माध्यम का होना आवश्यक है जिसे अक्सर ‘आंतरिक समाधान फोरम’ के नाम से जाना जाता है। दूसरे स्तर पर, क्षेत्र-विशिष्ट लोकपाल, उपभोक्ता निवारण फोरम या दीवानी अदालतों जैसे बाहरी विकल्प होते हैं। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने बैंकों, गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफ़सी) और डिजिटल भुगतान सेवा प्रदाताओं के लिए लोकपाल सेवाएँ शुरू की हैं। पीड़ित उपयोगकर्ता पत्रों या ऑनलाइन माध्यमों से अपने मुद्दे उठा सकते हैं। 

सामाजिक-आर्थिक रूप से हाशिये पर रहने वाले और ग्रामीण समुदायों में इन प्रणालियों की जानकारी और इनके इस्तेमाल के प्रति जागरूकता न्यूनतम स्तर पर है। आरबीआई के लोकपाल सेवाओं के 2019–20 के वार्षिक रिपोर्ट में यह बताया गया है कि बैंकिंग लोकपाल सेवाओं को प्राप्त शिकायतों में से केवल 10 प्रतिशत शिकायतें ही ग्रामीण इलाकों से आई है। ज़्यादातर शिकायतें ऑनलाइन दर्ज की गई थीं जो इस बात की तरफ इशारा करती हैं कि इस सुविधा का ज्यादा लाभ ऐसे समुदायों के सदस्य उठाते हैं जिन्हें डिजिटल सुविधाएं उपलब्ध हैं। जहां एक तरफ हमारे सर्वेक्षण में भाग लेने वाले हर पाँच में से एक उत्तरदाता को यह नहीं पता था कि शिकायत कहाँ करनी है वहीं अन्य उत्तरदाताओं ने शिकायत न करने के कई कारणों के बारे में हमें बताया। इस मामले में भी 30 प्रतिशत लोगों ने बैंक के अधिकारियों के साथ उनकी बातचीत से पैदा हुए असंतोष को ही शिकायत न करने का कारण बताया। 

उपयोगकर्ता शिकायत क्यों नहीं करते हैं?

ये संख्या पूरी तरह से इस ओर इशारा करते हैं कि शिकायत पंजीकरण की वर्तमान प्रणाली समावेशी, आसानी से पहुँच में आने वाली या उपयोगकर्ताओं को ध्यान में रख कर बनाई गई प्रणाली नहीं है। हमनें उन कुछ प्राथमिक कारणों की खोज की है जिनकी वजह से लोग वर्तमान में प्रयुक्त होने वाले वित्तीय शिकायत प्रणाली का उपयोग नहीं करते हैं:

1. खराब व्यवहार वाले बैंक अधिकारी, काम न करने वाली स्वचालित टेलर मशीनें (एटीएम) 

जहां पैसों का डिजिटल लेनदेन व्यापक रूप से उपलब्ध हैं वहीं नकद आज भी वित्तीय लेनदेन के केंद्र में बना हुआ है—जिसके लिए बैंक या एटीएम तक जाने की जरूरत होती है। हालांकि, कई उत्तरदाताओं ने यह बताया कि बैंक के अधिकारी उनके साथ अच्छा बर्ताव नहीं करते हैं जिसके कारण उन्हें बैंक जाने में डर लगता है या वे वहाँ जाना टाल देते हैं। अन्य लोगों ने कहा कि उन्हें बैंक या एटीएम के माध्यम से अपने खातों से पैसे निकालने में मुश्किल होती है।

एक औरत मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते हुए_बिल & मेलिंडा गेट्स फ़ाउंडेशन/संजीत दास-शिकायत निवारण प्रणाली बैंक
शिकायत निवारण तंत्र का मूल्यांकन लिंग के आधार पर किया जाना चाहिए ताकि यह समझा जा सके कि महिलाओं और अन्य लिंगों के लिए उन्हें कैसे सुलभ बनाया जा सकता है। | चित्र साभार: बिल & मेलिंडा गेट्स फ़ाउंडेशन/संजीत दास

2. महिलाओं के लिए डिजिटल पहुँच का अभाव

बैंकिंग सुविधाओं का महिला उपयोगकर्ताओं तक पहुँचने के लिए हम लोगों ने उन उत्तरदाताओं से संपर्क किया जिन्होनें ग्राम वाणी के महिला-केन्द्रित मंचों के माध्यम से जवाब दिया था। लेकिन अक्सर परिवार के पुरुष सदस्य ही फोन उठाते थे। ज़्यादातर मामलों में जब महिलाओं ने फोन उठाया तब उन्होनें अपने बैंक के खातों से जुड़ी शिकायतों के बारे में बताने के लिए परिवार के पुरुष सदस्य को फोन दे दिया। भले ही व्यापक आर्थिक विकास में महिलाओं के वित्तीय समावेशन की भूमिका पर काफी चर्चा हो रही है लेकिन इसे हासिल करने के लिए वित्तीय सेवाओं को महिलों की जमीनी हकीकत में निहित सूक्ष्म समाधानों की जरूरत है। और भारत में लैंगिक आधार पर महिलाओं के पास मोबाइल की उपलब्धता और डिजिटल साक्षरता को देखते हुए डिजिटल समाधान सबसे उपयुक्त समाधान नहीं हो सकते हैं। 

3. जटिल, तेजी से बदलती हुई तकनीक 

कई उत्तरदाताओं ने बैंकिंग मुद्दों के कारण उन्हें नहीं मिलने वाली कल्याणकारी लाभों से संबंधित शिकायतों को उठाने के लिए मदद की मांग की। जब हम लोगों ने इन उत्तरदाताओं से बातचीत की तब हमें इस बात का एहसास हुआ कि ज़्यादातर लोग अपने बैंक खातों में आने वाले लाभों की जटिलता को नहीं समझ पाये हैं। लगभग 15 प्रतिशत शिकायतें ऐसी थी जिनका बैंकिंग मुद्दों से कोई लेनादेना नहीं था बल्कि उन मामलों में उपयोगकर्ता किसी खास कल्याणकारी योजना का लाभ उठाने के योग्य नहीं था। इसके अलावा, एक्सेस चैनल, प्रपत्रों की भाषा और शिकायत दर्ज करने की प्रक्रिया के अन्य पहलू तकनीकी हैं। यह कम वित्तीय साक्षरता वाले लोगों के लिए जीआरएम को मुश्किल बनाता है, खासकर जब वित्तीय उपकरण और सेवाएं तेजी से बदल रही हैं।

4. जटिल प्रक्रिया, न्यूनतम सफलता दर 

बैंकिंग-संबंधित शिकायत निवारण पर एनआईपीएफ़पी द्वारा प्रशिक्षित मोबाइल वाणी के स्वयंसेवकों ने ऐसे 235 सर्वेक्षण उत्तरदाताओं से संपर्क किया जो अपने बैंकिंग की समस्या के लिए शिकायत दर्ज करवाने में सहायता चाहते थे। लेकिन उनमें से कईयों ने विपरीत या नकारात्मक प्रभाव के डर से प्रक्रिया को जारी रखने से मना कर दिया। इसलिए स्वयंसेवकों ने सिर्फ उन्हीं 74 उत्तरदाताओं के लिए सरकारी पोर्टल पर ऑनलाइन प्रक्रिया के तहत शिकायत दर्ज करने की शुरुआत की जिन्होनें सहमति जताई थी। जब हम लोगों ने 30 दिनों बाद दोबारा उनसे संपर्क किया तब उनमें से केवल एक उत्तरदाता ने अपने शिकायत के संबंध में बैंक से फोन आने की बात बताई। इसके बाद स्वयंसेवकों ने 42 उपयोगकर्ताओं के लिए आरबीआई लोकपाल में शिकायत दर्ज कारवाई। फिर भी शिकायत ऑनलाइन शुरू करने के 60 दिनों के बाद भी केवल 6 उपयोगकर्ताओं को अपने शिकायत के संबंध में प्रतिक्रियाएँ मिली थीं।

प्रशिक्षित और डिजिटल रूप से साक्षर लोगों के लिए भी इन सरकारी पोर्टलों पर शिकायत दर्ज करना एक जटिल काम है।

2019–20 की आरबीआई की वार्षिक रिपोर्ट में बताया गया है कि पंजीकृत शिकायतों में से लगभग 32 प्रतिशत को खारिज कर दिया गया था क्योंकि उनकी व्याख्या अच्छी तरह से नहीं की गई थी। मोबाइल वाणी के स्वयंसेवकों ने यह बात स्पष्ट की कि प्रशिक्षित और डिजिटल रूप से साक्षर लोगों के लिए भी इन सरकारी पोर्टलों पर शिकायत दर्ज करना एक जटिल काम है। इसके लिए आपके पास स्मार्टफोन/इंटरनेट से जुड़े उच्च स्तर का कौशल चाहिए ताकि आप इन पोर्टलों तक पहुँच सकें। आवेदन पत्रों को सही ढंग से समझने के लिए वित्तीय शब्दावलियों की गहरी जानकारी होनी चाहिए, शिकायत को विस्तार से बताने की योग्यता होनी चाहिए और एक ऐसा मोबाइल होना चाहिए जिसपर वन-टाइम पासवर्ड (ओटीपी) प्राप्त किया जा सके। और बेशक उपयोगकर्ता के पास शिकायत दर्ज करने का समय भी होना चाहिए।

भारत के सामाजिक कल्याण वितरण की एक रिपोर्ट से यह बात सामने आई है कि ज़्यादातर लोगों को बिना किसी बाहरी मदद के यह व्यवस्था और प्रणाली जटिल लगती है, जो इस क्षेत्र में नागरिक समाज के हस्तक्षेप की जरूरत को पैदा करता है।

सभी तक पहुँचने वाली शिकायत निवारण प्रणाली का निर्माण कैसे करें

शिकायत निवारण को लेकर किए गए हमारे सर्वेक्षणों के परिणाम और अनुभव यह बताते हैं कि उपयोगकर्ताओं की पहुँच इस प्रणाली से जुड़ी सूचनाओं तक आसानी से होनी चाहिए। चूंकि लोगों को इस बात का डर होता है कि शिकायत करने से उन्हें बैंक के अधिकारियों द्वारा परेशान किया जा सकता है, इसलिए उन्हें एक ऐसे मंच की जरूरत होती है जहां वे अपनी पहचान छुपाकर बिना किसी आशंका के शिकायत दर्ज कर सकते हैं। 

शिकायतों को दर्ज करने के लिए लिखित संचार माध्यम के अलावा आवाज़-आधारित (वॉइस-बेस्ड) इंटरफेस भी मुहैया करना चाहिए ताकि अधिक से अधिक उपयोगकर्ताओं को शामिल किया जा सके। जीआरएम का मूल्यांकन लिंग के आधार पर भी किया जाना चाहिए ताकि इस बात को समझा जा सके कि औरतों और अन्य लिंग के लोगों के लिए इसे कैसे अधिक से अधिक पहुंचाया जा सकता है। 

कल्याण वितरण के लिए ई-आरयूपीआई जैसी सुविधाओं की शुरुआत के साथ ही, ये बदलाव वित्तीय क्षेत्र में शिकायत निवारण को प्रासंगिक और सब तक पहुँचने लायक बनाने के लिए एक शुरुआती बिन्दु की तरह काम कर सकता है। साथ ही उपयोगकर्ताओं के विश्वास को बढ़ा सकता है और वित्तीय सेवाओ को ऊंचाई पर ले जाने में मददगार हो सकता है। 

शोएब रहमान और मतिउर रहमान के योगदान के साथ।

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मुनाफे की भाषा

राजू उत्तर प्रदेश से आया हुआ एक प्रवासी मजदूर है। वह पिछले पाँच सालों से मदुरई में एक बेल्ट बेचने वाले के रूप में काम कर रहा है। वह ‘सेठ’ के लिए काम करने वाले पंद्रह लोगों में से एक है। सेठ नागपुर से छँटे हुए डिज़ाइनर बेल्ट लाने वाला बिचौलिया है जिन्हें मदुरई में बेचा जाता है। राजू हर सुबह 5 बजे जागता है, और हर दिन अपने बैग में चमड़े का सामान भरकर सुबह 7 बजे से दोपहर 12 बजे तक सड़कों पर घूमता है। यही वह समय है जब राजू के मुख्य ग्राहक (पर्यटक) खरीददारी के लिए बाहर निकलते हैं। थोड़ी देर के आराम के बाद मीनाक्षी मंदिर के आसपास शाम 4 बजे के लगभग वह दोबारा अपने काम में लग जाता है।  

राजू की कोई तनख्वाह नहीं है, इसके बदले उसकी पूरी कमाई उस कमीशन पर निर्भर है जो वह कमाता है। प्रत्येक बेल्ट की कीमत 90 रुपए होती है, लेकिन राजू उन्हें बड़े ब्रांड के नाम के साथ ऊंची कीमतों पर बेचता है, जिससे उसे फायदा होता है। राजू बताता है कि, उसकी हर दिन की कमाई 500–700 रुपए है जो पीक सीजन में दोगुनी हो जाती है लेकिन गर्मी और बरसात में आधी।  

यह पूछे जाने पर कि वह अपने गाँव से यहाँ क्यों चला आया, राजू ने कहा कि, “क्या आपकी शादी हो गई है? जब परिवार की ज़िम्मेदारी आती है तब सबसे आलसी आदमी को भी काम करना पड़ता है। मेरी एक छोटी सी बेटी है और उसके अच्छे भविष्य के लिए मैं काम कर रहा हूँ।”

आगे वह बताता है कि, “यह सिर्फ मेरा जीवन नहीं है बल्कि दूसरे शहरों से आए सभी प्रवासी मजदूरों की हालत एक जैसी है। दक्षिण भारत के बिचौलियों को हिन्दी नहीं आती है। इसलिए वे उत्तर भारत से आए ग्राहकों के लिए हिन्दी बोलने वाले प्रवासी मजदूरों को काम पर रखते हैं। मदुरई के स्थानीय इलाकों के लोग कभी भी इन उत्तर भारत से आए फेरीवालों से अपना सामान नहीं खरीदते हैं। लेकिन पर्यटक कम कीमत वाले ब्रांडेड चीजों के प्रति आकर्षित होते हैं। ‘सेठ लोग’ इस बाजार के मौके का फायदा उठाकर मुनाफा कमाते हैं।”

सास्वतिक त्रिपाठी फ़ाउंडेशन फॉर इकोलॉजिकल सिक्योरिटी में जिला समन्वयक (डिस्ट्रिक्ट कोर्डिनेटर) के रूप में काम करते हैं। 

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अधिक जानें: पढ़ें कि प्रवासी मजदूरों के जीवन को समझने से उनकी जरूरतों को बेहतर ढंग से पूरा करने में कैसे मदद मिल सकती है। 

अधिक करें: उनके काम को और अधिक समझने और उनका समर्थन करने के लिए लेखक से [email protected] पर संपर्क करें।

लोगों का हम पर से भरोसा उठ गया है

राजस्थान के उदयपुर जिले में गोगुंडा प्रखण्ड की आशा कार्यकर्ता सीता* ने बताया कि “2005 से, मैं आशा कार्यकर्ता (मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता) के रूप में काम कर रही हूँ। गाँव में जब भी कोई बीमारी होती थी लोग मुझसे संपर्क करते थे। लेकिन कोविड-19 के बाद लोगों का हम पर से भरोसा उठ गया है।”

महामारी की दूसरी लहर के दौरान दक्षिणी राजस्थान के इस इलाके में बहुत सारे मामले सामने आए थे (चूंकि बहुत लोगों की जांच नहीं हुई थी इसलिए ये सभी मामले आधिकारिक रूप से रिपोर्ट नहीं किए गए)। यहाँ तक कि सबसे दूर-दराज वाले गांवों में भी हर घर में दो से तीन लोग बीमार थे। हालांकि, जब आशा कार्यकर्ता मेडिकल किट लेकर उनके पास पहुंचती थीं तब वे बीमारी से इंकार कर देते थे। सीता ने कहा कि वह जहां भी गईं, शुरुआत में गाँव वाले लोग बीमार दिखने के बावजूद “कोई बीमार नहीं है” या “यहाँ सब ठीक है” कहकर टाल देते थे। एक अन्य आशा कार्यकर्ता रोमी* का कहना है कि “एक बार एक आदमी ने मुझे डंडे से धमकाते हुए गाँव से भागने के लिए कहा था”।

इसके उलट, स्थानीय स्वयंसेवी संस्थानों के कार्यकर्ता उन समुदायों के लोगों के पास जाते थे और बीमार मरीजों की पहचान करके उन्हें घर पर ही की जाने वाली देखभाल के लिए समझाते और दवाइयाँ मुहैया करवाते थे। कुछ जगहों पर, लोगों ने उन स्वयंसेवियों से खुले आम यहाँ तक कहा कि वे “सरकार वाली दवाई” (सरकार द्वारा मुहैया कि जाने वाली दवा) नहीं लेंगे लेकिन “संस्था वाली दवाई” (स्वयंसेवी संस्थानों द्वारा दी जाने वाली दवा) से उन्हें आराम हुआ है।

पिछले कुछ सालों में, आशा कार्यकर्ताओं ने सामुदायिक स्वास्थ्य देखभाल में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और वे सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली और आम लोगों के बीच की कड़ी के रूप में काम कर रही है। फिर ऐसी स्थिति कहाँ से आ गई कि गाँव के लोग हाथ में डंडा लेकर उन्हें बाहर भगा रहे हैं, और समुदाय के बीमार दिखने वाले सदस्य भी उनकी मदद लेने से इंकार कर देते हैं?

महामारी की पहली लहर के दौरान, आशा कार्यकर्ता ‘कोरोना निगरानी टीम’ का हिस्सा थीं। इनका काम अपने गाँव वापस लौटने वाले प्रवासी मजदूरों के क्वारंटाइन को सुनिश्चित करना था। साथ ही जो लोग अपने घरों में क्वारंटाइन नहीं हो सकते थे, उन्हें क्वारंटाइन केन्द्रों में भर्ती करवा दिया जाता था। इन केन्द्रों पर पीने का साफ पानी और शौचालय आदि जैसी मौलिक सुविधाएं नहीं थीं। समुदायों के लोगों ने सरकार के एजेंडों के सूत्रधार के रूप में देखे जाने वाले आशा कार्यकर्ताओं पर संदेह करना शुरू कर दिया। दूसरी लहर के कारण यह संदेह कई गुना बढ़ गया। कोविड-19 और टीका संबंधी गलत धारणाओं और सूचनाओं ने लोगों के मन में आशा कार्यकर्ताओं के प्रति अविश्वास और डर पैदा कर दिया।

*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नामों को बदल दिया गया है। 

प्रियान्शु कृष्णमूर्ति उदयपुर में बेसिक हेल्थकेयर सर्विसेज में इंडिया फ़ेलो हैं।

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अधिक जानें: यह भी पढ़ें कि प्राथमिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को क्या चाहिए और महामारी से निबटने के लिए उन्हें किस प्रकार बेहतर सहायता दी जा सकती है।

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समावेशी समुदायों को बनाना नागरिक समाज का कर्तव्य है

अक्सर तीसरे क्षेत्र के रूप में देखे जाने वाले नागरिक समाज ने सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य (एमडीजी) और टिकाऊ विकास लक्ष्य (एसडीजी) को आकार देने में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। साथ ही यह नीति, योजना और निष्पादन के क्षेत्रों में राज्य और बाज़ारों के प्रमुख किरदारों के साथ काम करना भी जारी रखता है। 

पिछले कुछ दशकों में नागरिक समाज ने कुछ नई भूमिकाएँ निभानी भी शुरू कर दी हैं जैसे नीतियों और कार्यक्रमों को बनाने के लिए किसी विषय से संबंधित क्षेत्रीय ज्ञान और अनुभव के आधार पर विशेषज्ञ के रूप में अपनी सेवा देना। इसके अलावा प्रशिक्षण देकर क्षमता निर्माता के रूप में, इंक्यूबेटर के रूप में, सामाजिक समस्याओं को दूर करने के लिए डिज़ाइन और पायलट समाधानों में मदद करना। 

इन सभी भूमिकाओं के लिए एक सामान्य विषय है। एक सूत्रधार, संयोजक, नवप्रवर्तनकर्ता या वकील के रूप में सभी राज्य और बाजार से जुड़े हुए हैं जिससे उन्हें बेहतर मानव विकास और कल्याण के लिए अच्छा काम करने में मदद मिलती है। 

जहां यह बहुत जरूरी है, इन दो हितधारकों पर अधिक ध्यान केन्द्रित करने के कारण समुदायों को समावेशी और प्रगतिशील बनने में मदद करने के आदेश को कम प्राथमिकता दी गई है। 

एसडीजी हासिल करने के लिए समावेशी समुदाय महत्वपूर्ण हैं 

एसडीजी हासिल करने के लिए केवल शासन और बाज़ारों में सुधार ही पर्याप्त नहीं है; इसके लिए समुदायों को समावेशी होने की जरूरत होती है। लिंग, जाति, वर्ग और धर्म के आधार पर लोगों को बाहर रखने वाले समुदायों के साथ एसडीजी को हासिल करने के लिए राज्य, बाजार और नागरिक समाज द्वारा किए गए सभी प्रयास हमेशा ही कम पड़ेंगे। 

कुछ वर्षों की प्रगति के बाद 2018 में लैंगिक अंतर वास्तव में बहुत अधिक बढ़ गया।

नागरिक समाज में ज़्यादातर लोग इस बात से सहमत होते हैं कि समुदायों को निश्चय ही समावेशी और जीवंत होना चाहिए; हालांकि प्रमुख सोच यही है कि समुदाय के लिए अपनी सीमाओं को संबोधित करना ही सबसे अच्छा उपाय है। इस सोच में निश्चय रुप से प्रतिभा शामिल है, हालांकि जैसा इतिहास से स्पष्ट है जरूरी नहीं है कि ऐसा होता ही है। जहां प्रगति संभव है वहीं यह अपरिहार्य नहीं है। इसके लिए कई हितधारकों द्वारा लंबे समय तक व्यवस्थित और निरंतर प्रयासों की जरूरत होती है। और कुछ मामलों में हमें विपरीत स्थिति भी दिखती है या फिर ऐसा होता है कि प्रगति को रोक दिया जाता है। 

कुछ वर्षों की प्रगति के बाद 2018 में लैंगिक अंतर वास्तव में बहुत अधिक बढ़ गया। वैश्विक लैंगिक अंतराल रिपोर्ट 2018 के अनुसार मापे गए चार स्तंभों में से केवल एक—आर्थिक अवसर—ने 2018 में लैंगिक अंतर में कमी दिखाई। अन्य तीन स्तंभों—शिक्षा, स्वास्थ्य और राजनीति—ने वास्तव में कमी में वृद्धि को देखा था। 

नागरिक समाज समुदायों को और अधिक समावेशी और प्रगतिशील बनने में मदद करने के पहलू को नज़रअंदाज क्यों करता है?

इसका एक कारण विकासवादी हो सकता है। जहां नागरिक समाज सरकार और बाज़ार से अलग होकर स्वतंत्र बनने में सक्षम हो गया, वहीं यह इसके साथ विकसित होने के कारण इसने समुदाय के साथ घनिष्ठ संबंध भी बना लिया है। इसलिए समुदाय और नागरिक समाज के बीच का भेद अक्सर अस्पष्ट होता है। 

कांटेदार तार_फ्लिकर-समावेशी समुदाय नागरिक समाज
नागरिक समाज समुदाय की ताकतों पर ध्यान केन्द्रित करना पसंद करता है, वहीं अपने बहिष्करण ढांचे और अभ्यासों को नज़रअंदाज करने का चुनाव करता है। | चित्र साभार: फ्लिकर

इससे नागरिक समाज के लिए अक्सर अस्तित्ववाद संबंधित दुविधा पैदा हो जाती है, और इसलिए यह अपने बहिष्करण ढांचे और अभ्यासों को नज़रअंदाज करने का चुनाव करते हुए समुदाय की ताकतों पर ध्यान केन्द्रित करना पसंद करता है। उदाहरण के लिए, अगर कोई स्वयंसेवी संस्था अपने टीकाकरण कार्यक्रम को बेहतर बनाने के लिए सरकार के साथ काम कर रही है तब इसका लक्ष्य सार्वभौमिक पहुँच से अधिक संबंधित होता है न कि इस बात से कि कुछ समूह और समुदाय सेवा से वंचित क्यों रह गए या उन तक कम सेवा और सुविधा क्यों पहुंची। इसी तरह, शिक्षा के क्षेत्र में आमतौर पर ध्यान समग्र स्तर पर सीखने के परिणामों में सुधार लाने के काम पर होता है, जबकि इस तथ्य की अनदेखी की जाती है कि पहुँचने वाले लाभ जातीय और धार्मिक समूहों के बीच महत्वपूर्ण रूप से अलग हो सकते हैं। 

आंशिक रूप से ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जाति, लिंग, पितृसत्ता और ऐसे ही कई विषयों से जुड़े मुद्दों को हल करने की कोशिश करने से कुछ संभावित लाभों की भरपाई हो सकती है, जो हस्तक्षेप की पहुँच या परिणामों की गुणवत्ता में सुधार कर सकते हैं, खासकर कम समय अंतराल से मध्यम समय अंतराल में। 

लेकिन क्या हम समुदायों को और अधिक समावेशी बनने में उनकी मदद करने के अवसर से चूक रहे हैं?

ऐसे कई उदाहरण हैं जहां नागरिक समाज संगठनों ने राज्य या बाज़ारों द्वारा समुदायों तक सेवा वितरण की पहुँच और गुणवत्ता में सुधार लाने के क्षेत्र में काम किया है। लेकिन साथ ही उसी समुदाय के अंदर सामाजिक नियमों, पितृसत्तात्मक व्यवहारों और भेदभाव से निबटने के अवसर से चूक गए हैं। 

दलित समाज के 94 प्रतिशत बच्चे एएनएम के रूप में जमीन पर काम कर रहे कार्यकर्ताओं द्वारा किए जाने वाले भेदभाव का शिकार होते हैं।

2006 में राजस्थान में आए बाढ़ के दौरान ऐसा दर्ज किया गया था कि ‘दूसरों को प्रदूषित’ करने के डर के कारण दलितों को ‘राहत शिविरों’ से निकलने के लिए कहा गया था। 2008 में बिहार में कोसी में आने वाले बाढ़ के दौरान ऐसा पाया गया कि राहत कार्य के दौरान राहत शिविरों में अलगाव और प्रमुख जतियों वाले शिविरों में अन्य लोगों को वंचित करना एक नियम जैसा था। कुछ मामलों में राहत शिविरों में दलित परिवारों का पंजीकरण नहीं किया गया था। 2007 में बिहार में आए बाढ़ के दौरान दलितों के साथ हिंसा की खबरें भी सामने आई थीं।

ये एक-आध घटनाएँ नहीं हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश, तमिल नाडु और राजस्थान, इन पाँच राज्यों के लगभग 531 गांवों से लिए गए नमूनों के आधार पर किए गए अध्ययन से यह सामने आया कि सरकार की मिड डे मील योजनाओं और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के बँटवारे में उच्च जातियों के अभिभावकों द्वारा भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता है। 

एक दूसरे शोध से यह बात सामने आई कि दलित समाज के 94 प्रतिशत बच्चे एएनएम के रूप में जमीन पर काम कर रहे कार्यकर्ताओं द्वारा किए जाने वाले भेदभाव का शिकार होते हैं क्योंकि ये लोग इन बच्चों तक स्वास्थ्य सेवाएँ पहुंचाने के लिए इनके घरों के भीतर नहीं जाते हैं। 

एक और पायलट अध्ययन से इस बात के प्रमाण मिले हैं जो यह संकेत देते हैं कि कुछ खास किस्म की नौकरियों में प्रवेश के समय दलित समाज की महिलाओं के साथ भेदभाव किया जाता है और उनका बहिष्कार होता है। व्यवसायों की शुद्धता और प्रदूषण की धारणा के कारण सफाई कर्मचारी के समुदायों से संबंध रखने वाली महिलाओं को रसोइया या नौकरानी के रूप में काम पर नहीं रखा जाता है। 

नागरिक समाज को इसे बदलने की जरूरत है 

केवल एक बेहतर शासन और बाजार ही प्रगति करने और एसडीजी तक पहुँचने के लिए पर्याप्त नहीं होगा। पिछले दशकों में भारत की जीडीपी (सकल-घरेलू उत्पाद) लगभग छ: प्रतिशत तक बढ़ा है; हालांकि महिला श्रम बल की भागीदारी में 1999–2000 में 34 प्रतिशत से 2011–12 में 27 प्रतिशत तक की गिरावट आई है। जहां इसके कई कारण हैं, वहीं पितृसत्तात्मक बर्ताव, एजेंसी और नियंत्रण में कमी और निम्न स्तर ऐसे मुख्य कारक हैं जिनका योगदान अधिक है। 

वास्तव में, बढ़े हुए आर्थिक सशक्तिकरण से उन महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ समुदाय और व्यक्तिगत प्रतिक्रिया के उदाहरण भी हो सकते हैं जो अपनी एजेंसी का प्रयोग करती हैं और लैंगिक सामाजिक-सांस्कृतिक मानदंडों को चुनौती देती हैं। प्रमाण दिखाते हैं कि वित्तीय संसाधनों तक महिलाओं की पहुँच में वृद्धि वैवाहिक हिंसा को बढ़ावा दे सकती है। प्रतिक्रिया के अन्य मामलों में स्कूलों से लड़कियों को निकाल देना, उनकी शादियाँ करवा देना और यहाँ तक कि ऑनर किलिंग (सम्मान की रक्षा के लिए जान से मार देना) आदि शामिल हैं। 

नागरिक समाज को वर्तमान की अपनी भूमिका से आगे बढ़कर कुछ करने की जरूरत है।

जितना हम चाहेंगे, समुदाय में सुधार स्वत: घटित नहीं होगा। नागरिक समाज को वर्तमान की अपनी भूमिका से आगे बढ़कर कुछ करने की जरूरत है। और समुदाय के साथ इसके घनिष्ठ संबंधों को देखते हुए ऐसा करने के लिए यह अच्छी तरह से तैयार है। यह समुदाय के नेताओं, समूहों और व्यक्ति विशेष के साथ साझेदारी स्थापित करके इस बदलाव को लाने का काम कर सकता है। 

हालांकि, हम कुछ बदलावों को देख रहे हैं 

अगर आप आज की तारीख में जातीय गतिशीलता को देखते हैं तब आप पाएंगे कि इसमें से कुछ आर्थिक वृत में बदल चुका है। पहले कृषि (ग्रामीण भारत के लिए आजीविका का मुख्य स्त्रोत) में कुछ खास जातियाँ ही किराए पर जमीन लेती थीं वहीं दूसरी जातियाँ मजदूरों के रूप में काम करती थीं। लेकिन नए अवसरों के आने के बाद आर्थिक प्रारूप बदल गया है। गैर-कृषि पेशे सामने आए हैं और लोग इन्हें चुन सकते हैं। 

मजदूरों की कमी को देखते हुए उच्च जाति वाले समुदायों के लोगों ने साझा फसलों के लिए निम्न जाति के किसानों को अपनी ज़मीनें देनी शुरू कर दी है। 

हालांकि इस विकास को सामाजिक और राजनीतिक दुनिया में बदलाव के रूप में नहीं देखा गया। सामाजिक संवाद आज भी सीमित है—भिन्न जतियों के बीच होने वाली शादियाँ आज भी दुर्लभ हैं; और एक दूसरे के सामाजिक सम्मेलनों में भी लोगों का शामिल होना उसी तरह है। राजनीति में भी यही हाल है, जहां राजनीतिक बनावट आज भी जाति-आधारित है चूंकि इसका मुख्य उद्देश्य शक्ति और संसाधनों का विलय है। 

इन क्षेत्रो में बदलाव लाना मुश्किल है; हालांकि यह महत्वपूर्ण है कि इन मुद्दों को स्पष्ट किया जाये और नागरिक समाज उनपर काम करने पर विचार करे। समुदायों को समावेशी और प्रगतिशील बनाने में मदद करना हमारे केंद्रीय कार्यसूची का हिस्सा होना चाहिए। 

नागरिक समाज सरकार के साथ अपने काम करने के तरीके पर भी समान दृष्टिकोण को अपना सकता है। कई तरह के विभाजनों का सामना करने के बावजूद—उदाहरण के लिए पैमाने पर उपस्थित लेकिन सीमित निष्पादन क्षमता; जवाबदेही व्यवस्था और असमान शक्ति संरचनाओं का सह-अस्तित्व; और निहित स्वार्थों का प्रबंधन करते हुए कल्याण को अधिकतम करने का इरादा—नागरिक समाज यह मानता है कि उसे सरकार के सभी अच्छे-बुरे हिस्सों से निबटना है। और यह एक ऐसा दृष्टिकोण है जिसे वह समुदाय के साथ काम करते वक्त अपना सकता है।

समुदाय के साथ संबंधों को संतुलित करने और दोबारा परिभाषित करने के तरीकों की खोज-प्रक्रिया में कई तरह की चुनौतियाँ होंगी। इसके लिए हमें नए ज्ञान और उपकरणों की जरूरत के साथ-साथ असफलताओं और नाकामयाबियों से उबरने के लिए अतिरिक्त संसाधनों और तंत्रों की जरूरत भी होगी। लेकिन इससे हमें इस तथ्य से विचलित नहीं होना चाहिए कि नागरिक समाज के लिए इस दिशा में आगे बढ़ना एक आवश्यक मामला है। 

अस्वीकरण: डॉक्टर रेड्डीज फ़ाउंडेशन सामाजिक क्षेत्र में कम चर्चित विषयों पर शोध और प्रसार के लिए आईडीआर का समर्थन करती है।

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“हमारे पास सबमें फिट होने वाली एक ही आकार की संचार रणनीति नहीं हो सकती है”

पश्चिम अफ्रीका के बेनीन में एम&सी सातची (एक संचार एजेंसी) ने साइटसेवर्स (एक स्वयंसेवी संस्था) के साथ मिलकर कोविड-19 पर सामाजिक और व्यावहारिक परिवर्तन संचार (एसबीसीसी) के डिज़ाइन पर काम किया है। यह रचनात्मक संपत्ति एक टेलीविज़न विज्ञापन (टीवीसी) था जिसे पहले एम&सी सातची ने छ: स्थानीय भाषाओं में सबटाइटल के साथ प्रसारित किया था। अन्य सम्पत्तियों में रेडियो, बिलबोर्ड, पोस्टर, पर्चे और स्वास्थ्य कर्मियों के साथ-साथ धार्मिक और पारंपरिक नेताओं के लिए प्रशिक्षण पुस्तिका भी शामिल थी। मिलाजुला कर चलने वाले और आसानी से उपलब्ध डिज़ाइन के सुझावों पर साइटसेवरों ने अपनी सलाह दी। इन सलाहों के साथ टीवीसी ने एक सांकेतिक भाषा वाले दुभाषिये की मदद की और अलग रंग में गाए शब्दों की आवाज़ को बढ़ा दिया। उन्होनें पर्दे पर दिखने वाले संकेतक के आकार और उसकी स्थिति के साथ ही संकेतक के चेहरे पर मास्क का उपयोग भी किया था जिससे कि वह अपने चेहरे के हावभाव और मुंह कि गति में कमी ला सके।

इसका परिणाम यह निकला कि इस डिज़ाइन ने उन लोगों की मदद की जिनके सुनने की क्षमता खत्म हो गई थी, जो बहरे थे, जिनके काम करने की याददाश्त के साथ दिक्कत थी, या गति के साथ तालमेल नहीं बैठा सकते थे या फिर डिस्लेक्सिया जैसी बीमारी से पीड़ित थे। टीवीसी के लिए आधिकारिक मंजूरी मिलने से पहले स्वास्थ्य मंत्रालय के प्रतिनिधि ने एक्सिसिबिलिटी का समर्थन कर दिया था। एम&सी सातची के प्रतिनिधि ने कहा कि, “इस अपेक्षाकृत समावेशी अभियान ने इस आधार पर बड़ी हिस्सेदारी प्रदान की है कि हमें समावेशन को ध्यान में रखते हुए संचार की प्रक्रिया को कैसे विकसित करना चाहिए। यह भविष्य में हमारे अभियानों की शुरुआती बिन्दु को तैयार करेगा जिसमें हम अपने पिछले काम के आधार पर इनका निर्माण करते हैं और साथ ही संचार प्रदान करने में आगे बढ़ने के ऐसे तरीकों की तलाश करते हैं जो समावेशी हैं।”

कोविड-19 के प्रति हमारी प्रतिक्रिया ने हमें क्या सिखाया?

सेवा वितरण के क्षेत्र में काम न करने वाली एक नागरिक समाज संगठन के रूप में ब्रेकथ्रू में हम लोगों ने कोविड-19 के प्रति अपनी सामुदायिक प्रतिक्रिया पर अंतहीन बहसें की हैं। मेरी ज़ूम स्क्रीन के उस काल डब्बे के पीछे से आने वाली आवाज़ें गुस्से और हताशा से भरी थीं। मेरे सहकर्मी ने कहा कि “हम विभिन्न स्तरों पर बहुत सारी महामारी के साथ लड़ रहे हैं क्योंकि तकनीक और सोशल मीडिया ने बहुत ही तेज गति से गलत सूचनाओं को लोगों तक पहुंचाने का काम किया है। इससे हमें उन समुदायों के साथ तालमेल बैठाने में मुश्किल हो गई है आ जिनके साथ काम करने में हमें मतौर पर मजा आता था। अब वे लोग हमें शक की नज़रों से देखने लगे हैं क्योंकि हम टीका और उपचार की बात कर रहे हैं।”

नतीजतन, हमने यह फैसला किया कि चूंकि हम लोग फिर से शुरुआत कर रहे हैं इसलिए हमारा ध्यान महामारी पर संवाद वाले क्षेत्र और संवाद को विषय-संबंधित करने पर होगा। इसके अलावा हम इस पर भी ध्यान देंगे कि हमारा यह संवाद उन लोगों की प्रतिध्वनि हो जिनके साथ हम काम करते हैं। यह सबकुछ उस महत्वपूर्ण अनुभव पर आधारित था जो हमने संकट के दौर में पिछले 18 महीनों में हासिल किया था। अगर हम लोग उस समुदाय के साथ लगातार बातचीत नहीं करेंगे जिनके लिए हम सेवाओं को तैयार कर रहे हैं और साथ ही ऐसे विषयों को लक्ष्य नहीं बनाएँगे जो उन लोगों के लिए प्रासंगिक है तो ऐसा हो सकता है कि वे गलत सूचनाओं और गलत ख़बरों का हिस्सा बनने लगें।

क्या हमनें वास्तव में इस बात का ध्यान रखा है कि संचार सामाजिक व्यवहार परिवर्तन का निर्माण प्रभावशाली ढंग से कर सकता है?

सरकारों, नागरिक समाज संगठनों, दानकर्ताओं, राजनीतिक नेताओं, डॉक्टरों और वैज्ञानिकों ने इस संकट पर भारी प्रतिक्रिया दी है। और इन प्रतिक्रियाओं में से ज़्यादातर हिस्सा प्रोटोकॉल, उपचार और टीके के बारे में है। महामारी के हर पहलू को लेकर सूचनाओं का एक ढ़ेर चारों तरफ बिखरा हुआ है। लेकिन क्या उस संचार के विकास को लेकर हम लोग रणनीतिक या समावेशी हो पाए? क्या हमनें वास्तव में इस बात पर ध्यान दिया कि संचार सामाजिक व्यवहार परिवर्तन का निर्माण प्रभावशाली ढंग से कर सकता है?

अतीत से सीखना

अपने पिछले अनुभवों से हमने सीखा है कि संचार में निर्मित सामुदायिक जुड़ाव और सामाजिक परिवर्तन रणनीतियाँ 1990 और 2000 के दशक में बड़े पैमाने पर टीकाकरण लाभ से लेकर इबोला तक, और पोलियो की चुनौती को पूरा करने जैसे कामों में महत्वपूर्ण साबित हुई हैं।

अगर आप पश्चिमी अफ्रीका में इबोला के मामलों को देखते हैं तो आप पाएंगे कि सबसे सफल संचार रणनीतियों में से कुछ सामुदायिक जुड़ाव और सबसे अधिक जोखिम का सामना कर रहे समूहों के लिए लक्षित स्वास्थ्य संचार थे। प्रकोप की शुरुआत में, गलत सूचना और मिथकों से लड़ने के प्रयास बहुत मजबूत नहीं थे, और इसलिए हानिकारक समाधानों को सही समाधानों के रूप में पेश किया गया था।लेकिन बाद में रेडियो पर ‘इबोला ऑवर’ जैसे कार्यक्रमों का इस्तेमाल मिथकों को तोड़ने और स्वास्थ्य संबंधी स्पष्ट और सही जानकारी देने के लिए बहुत कारगर साबित हुआ। लाइबेरियन वकालत समूहों ने उन लोगों तक पहुँचने के लिए फेसबुक पर स्थानीय भाषाओं में इबोला के बारे में ऑडियो घोषणाएँ पोस्ट कीं जो अँग्रेजी नहीं समझते हैं या फिर पढ़ नहीं सकते हैं। स्थिति का विश्लेषण करने और स्थानीय समुदायों के साथ सहयोग में सुधार करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने गिनी में स्थानीय मानववैज्ञानिकों के साथ काम किया। उन्होनें पाया कि इबोला के उपचार ने अब तक सिर्फ बायोमेडिकल पहलुओं पर ही ध्यान केंद्रित किया था और समुदाय, समाज और संस्कृति जैसे मानकों की अवहेलना की थी। नतीजतन, उन्होनें स्थानीय समुदायों की आशंकाओं, चिंताओं और पारंपरिक मान्यताओं को गंभीरता से लेना शुरू कर दिया। उन्होनें पाया कि स्थानीय लोग ‘आइसोलेशन केन्द्रों’ को ‘डेथ चैंबर’ समझते हैं जहां से कोई भी जिंदा वापस नहीं लौटता है। एक बहुत ही सरल उपाय बताते हुए मनोवैज्ञानिकों ने सुझाव दिया कि इसे बदलकर ‘उपचार केंद्र’ कर दिया जाये। इसके अलावा प्रभावित समुदायों को वायरस की रोकथाम और प्रबंधन को प्रभावी ढंग से संप्रेषित करने के लिए एक बहु-मोडल रणनीति पर भी ध्यान केंद्रित किया गया था।

एक आंगनबाड़ी कार्यकर्ता टेलीकाउन्सेलिंग के लिए लाभार्थी महिलाओं के एक समूह को स्मार्टफोन से वीडियोकॉल करते हुए_गेट्स आर्काइव/सौम्या खंडेलवाल-कोविड-19 संचार
संचारकर्ताओं के लिए यह बहुत जरूरी था कि वे दर्शकों के चश्में से देखें और उनकी जरूरतों, अनुभूतियों और आत्म-प्रभाव को समझने की कोशिश करे। | चित्र साभार: © गेट्स आर्काइव/सौम्या खंडेलवाल

ऐसा लगता है कि कोविड-19 के शुरू होने पर इबोला के प्रकोप से मिलने वाले अनुभव वैश्विक समुदाय में मुश्किल से ही प्रसारित हुए थे। इस दौर में मैंने एक नई शब्दावली ‘इन्फोडेमिक’ के बारे में जाना जो विविध और बहुअर्थी है। सोशल मीडिया प्लैटफ़ार्म के इस विशाल प्रभाव ने अफवाहों और संदिग्ध सूचनाओं को बढ़ावा दिया है। एल्गोरिदम ने सामग्री प्रचार और सूचना प्रसार के काम में मदद की है। इसने महामारी के शुरुआती दिनों से ही बेतुकी बातों को आकार देने में उनकी मदद की है। इसके उदाहरणों में बिल गेट्स को एक प्रयोगशाला में वायरस की उत्पत्ति से जोड़ने वाली गलत सूचना और भारत में दूसरी लहर और वैक्सीन रोलआउट के रूप में टीके से नपुंसकता पैदा होने वाली अफवाहें शामिल हैं। अफवाहों और गलत सूचनाओं के इस मेल से पैदा होने वाले डर के कारण लोगों ने स्वास्थ्य कर्मियों पर हमले भी कर दिये। कई संगठनों ने इनमें से कुछ मिथकों को तोड़ने और सोशल मीडिया पोस्ट और फिल्मों के माध्यम से झूठी सूचनाओं का मुकाबला करने पर ध्यान केंद्रित किया। उदाहरण के लिए बीबीसी मीडिया एक्शन द्वारा प्रसारित काउंटडाउन जैसी फिल्म।

हमारा शोध हमें क्या बताता है?

जून 2021 के अंतिम सप्ताह में ब्रेकथ्रू में हमनें इसे लेकर एक डिपस्टिक शोध किया कि कैसे कोविड-19 उन क्षेत्रों में महिलाओं और लड़कियों को बुरी तरह से बिना भेदभाव के प्रभावित कर रहा है जहां हम काम करते हैं। हमने महसूस किया कि ग्रामीण, वंचित समुदायों में लोगों के लिए टीकाकरण के बाद के लक्षणों जैसी अवधारणाओं को समझना मुश्किल है क्योंकि बुखार आना बीमारी का संकेत देता है, न कि इस बीमारी से लड़ने के लिए एंटीबॉडी बनाने की प्रक्रिया को बताता है। उत्तर प्रदेश के एक गाँव में रहने वाले रामशरण ने बताया कि “शुरुआत में गाँव के लोग टीका लगवाने के लिए तैयार थे लेकिन हमनें सुना कि टीका लगवाने के बाद बहुत सारे लोग बीमार हो जा रहे हैं। इसलिए हमनें सोचा कि अगर बहुत सारे लोगों के साथ ऐसा हो रहा है तब हमें टीका क्यों लगवाना चाहिए?” हमारे अध्ययन के परिणाम में भी यह बात स्पष्ट है कि डिजिटल पंजीकरण के कारण बहुत कम संख्या में औरतों ने टीका के लिए पंजीकरण करवाया है क्योंकि उनके पास मोबाइल या कंप्यूटर की उपलब्धता नहीं है। साथ ही जब घर के कामों की ज़िम्मेदारी की बात आती है तो परिवार में एक स्पष्ट पदानुक्रम होता है जहां काम के लिए सबसे पहले औरतों को ही आगे आना पड़ता है। अगर वह बीमार हो जाती है तो उससे उम्र में बड़ी लड़कियां उन जिम्मेदारियों को उठाती हैं। घर के मर्द या लड़के सिर्फ उन्हीं स्थितियों में घर का काम करते हैं जब परिवार की सभी औरतें एक साथ बीमार हो जाती हैं।

हम क्या कर सकते हैं?

अब जब हम कोविड की दूसरी लहर से आगे बढ़ते हैं और चीजों के पुनर्निर्माण की शुरुआत करते हैं तब हमें यह सोचना चाहिए कि हम कोविड-19 पर होने वाले संवाद को कैसे बेहतर कर सकते हैं? मैंने इस मुद्दे पर कुछ विशेषज्ञों से बात की है। बीबीसी मीडिया एक्शन की कार्यकारी निदेशक प्रियंका दत्ता ने कहा कि संवाद के विकास के लिए अपेक्षाकृत अधिक रणनीतिक, मानव-केन्द्रित सोच को अपनाना महत्वपूर्ण है। उनका सवाल है कि “क्या हम महामारी पर साक्ष्य-आधारित, आकर्षक और प्रभावशाली सामाजिक और व्यवहार परिवर्तन वाले संवाद लोगों तक पहुंचा सकते हैं?”

संचार और परिवर्तन केंद्र-भारत (सीसीसी-आई) की उप निदेशक संजीता अग्निहोत्री ने कहा कि एक एकीकृत, सटीक और विश्वसनीय संदेश को साझा करना महत्वपूर्ण है। वह आगे कहती हैं कि “इन संदेशों को विभिन्न श्रोताओं के अनुसार बदलना (भी) आवश्यक है।”

जैसा कि प्रियंका कहती हैं, हमें सामान्य सूचनाओं से आगे बढ़ना होगा और उन लोगों के नजरिए से संवाद को देखना शुरू करना होगा जिनकी सोच जटिल है और जिनकी जरूरतें परतदार हैं और जिनपर कोविड-19 का बहुत बुरा असर पड़ा है। एसबीसीसी द्वारा किए जाने वाले तैयारी के प्रयास स्वास्थ्य प्रणाली को मजबूत करने के लिए एक अभिन्न अंग के रूप में काम करता है और एक आपातकालीन सावर्जनिक स्वास्थ्य संकट से निबटने के इसकी क्षमता को बढ़ा सकता हैं। इस तरह के संचार का निर्माण विभिन्न हितधारकों की पहचान करने, उनकी भूमिकाओं को समझने और किसी समस्या को हल करने के लिए उन्हें एक साथ जोड़ने की आवश्यकता को दर्शाता है—उदाहरण के लिए, टीकों की आवश्यकता के बारे में बात करने के लिए ऐसे स्थानीय लोगों को लेकर आना जिनका प्रभाव इलाके में बहुत अधिक है। एसबीसीसी यह भी सुनिश्चित करता है कि विभिन्न हितधारकों के बीच संरचनाएं और नेटवर्क स्थापित किए गए हैं, जिसके परिणामस्वरूप नीति निर्माताओं और गैर-लाभकारी संस्थाओं, चिकित्सा आपूर्ति के वितरकों और सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के बीच सफल समन्वय प्रयास होते हैं। ये और इसके अलावा अन्य शुरुआत स्वास्थ्य प्रणालियों के समग्र परिवर्तन में योगदान कर सकती हैं, जिससे वे अच्छी तरह से काम कर सकें और आवश्यक होने पर आपात स्थिति से निबटने में सक्षम हो सकें।

हमें टीके लेने सहित कोविड-19 उपयुक्त व्यवहार को अपनाने के प्रति लोगों के दृष्टिकोण को समझने पर ध्यान देना चाहिए।हमें ग़लत सूचनाओं से निबटने हेतू लोगों को तैयार करने के लिए सामूहिक रूप से और अधिक प्रयास करना चाहिए, जिसमें कल्पना से तथ्य बताना सीखना और दोस्तों और परिवार के साथ साझा करने से पहले डेटा की सत्यता की जांच करना शामिल है।

प्रत्येक व्यक्ति के पास दुनिया को देखने के लिए एक अलग दृष्टि होती है।

क्या विभिन्न समुदायों को लगता है कि उनके पास व्यक्तिगत और सामूहिक कौशल और कोविड-19 उपयुक्त व्यवहार अपनाने की क्षमता है? संजीता और प्रियंका दोनों ने हाशिए के समुदायों की विशिष्ट जरूरतों को पूरा करने के लिए संचार को तैयार करने के बारे में बात की। प्रत्येक व्यक्ति के पास दुनिया को देखने के लिए एक अलग दृष्टि होती है। संचारकों के लिए जरूरी है कि वे उस दृष्टि को समझें और दर्शकों की ज़रूरतों, धारणाओं और आत्म-प्रभावकारिता पर भी ध्यान दें। संजीता ने यह भी बताया कि हमारे हस्तक्षेपों को किस तरह से संशोधित किया जा सकता है ताकि यह पता लगाया जा सके कि लोग अपने व्यवहार परिवर्तन के किस स्तर पर हैं: क्या वे परिवर्तन के लाभों को स्वीकार करने की स्थिति में हैं? क्या उन्होंने ऐसा कोई कदम उठाया है जिससे पता चलता है कि वे इसके लिए तैयार हैं? या वे पूर्व-महामारी मुक्ति वाले दिनों में लौट रहे हैं?

ब्रेकथ्रू में मेरे सहकर्मियों का ऐसा मानना है कि कोविड-19 से संबंधित संचार पूरी तरह से आम जनता के नजरिए से नहीं तैयार किया जा सकता है। क्या हमारे पास समस्याओं के प्रतिच्छेदन को लेकर पर्याप्त साक्ष्य नहीं हैं? दुनिया भर में असमान रूप से पीड़ित अल्पसंख्यकों और प्रवासियों से लेकर महिलाओं और लड़कियों को संयुक्त राज्य अमेरिका में सफेद उच्च और मध्यम वर्गों की तुलना में संक्रमण के उच्च जोखिम का सामना करना पड़ रहा है। आप इसे किसी भी तरह से देखें, संचार तब प्रभावी होता है जब इसे उन दर्शकों के अनुरूप बनाया जाता है, जिन तक आप पहुँचने का लक्ष्य रखते हैं।

रणनीतिक एसबीसीसी में बहुत बड़ा काम किया जाना है जो समुदायों को सूचित, सशक्त बना सकता है और उन्हें जोड़ने का काम कर सकता है। इसे समुदायों के सहयोग से तैयार किया जाना चाहिए और सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के संगठनों के साथ साझेदारी में वितरित किया जाना चाहिए। हमें यह भी पता लगाने की जरूरत है कि महामारी से उभरने वाले कई अंतर-संबंधी मुद्दों में संचार कैसे भूमिका निभा सकता है—लिंग आधारित हिंसा में वृद्धि, मानसिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताएं, और बहुत कुछ। हमारे पास सबमें फिट होने वाली एक ही आकार की संचार रणनीति नहीं हो सकती है। हमें रेडियो पर अपना ‘कोरोना ऑवर’ चाहिए।

ब्रेकथ्रू ग्लोबल अलायंस फॉर सोशल एंड बिहेवियर चेंज का सदस्य है।

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भुज की बहनों से मिलें 

पिछले 22 वर्षों से मैं गुजरात के कच्छ क्षेत्र के कुछ दूरदराज़ के गाँवों में स्वयंसेवी संस्था कच्छ महिला विकास संगठन (केएमवीएस) के साथ काम कर रही हूँ। कच्छ भारत का सबसे बड़ा ज़िला है और उसमें विविधता बहुत है—यहाँ कई समुदाय, भाषा, कपड़े, भोजन और धर्म हैं और यही कच्छ की ताकत है। हम ज़िले भर में काम करते है, कच्छ के लंबे और घुमावदार तट के करीबी गाँवों से लेकर भारत-पाक सीमा के करीबी गाँवों तक, जो कच्छ के रण के आंतरिक हिस्से में हैं।

मैंने स्वयं सहायता समूह के नेता के रूप में केएमवीएस के साथ अपनी यात्रा शुरू की, और बाद में एक अर्धन्यायिक (पैरालीगल) के रूप में प्रशिक्षण लिया। पिछले छह वर्षों से मैं संगठन के साथ पूर्णकालिक पैरालीगल के रूप में काम कर रही हूँ। केएमवीएस में हम घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं को न्याय दिलवाने के लिए सहायता करते हैं। हम कानूनी प्रक्रिया के माध्यम से या झगड़ों को सुलझाने के लिए विश्वसनीय मध्यस्थों के रूप में काम कर के उनकी और उनके परिवारों की सहायता करते हैं।

हमारा काम यहीं खत्म नहीं होता। हम कच्छ पुलिस के साथ भी काम करते हैं। हमने 2010 में ‘हैलो सखी’ हेल्पलाइन शुरू की थी। यह हेल्पलाइन भुज के महिला पुलिस थाने से संचालित है और यह हमें अधिक महिलाओं तक पहुँचने में मदद करती है। इससे पहले, हम विभिन्न गाँवों की यात्रा करते थे और महिलाओं की सीमित संख्या तक ही अपनी सेवाएँ पहुँचा पाते थे। हम अभी भी अधिकारों और महिलाओं के हक़ों पर सेमिनार आयोजित करने के लिए, और महिलाओं (विशेष रूप से विधवाओं) की सरकारी योजनाओं और सेवाओं तक पहुँच बढ़ाने के लिए गाँवों में यात्रा करते हैं, लेकिन हेल्पलाइन के द्वारा हम तत्काल सहायता भी प्रदान कर पाते हैं।

अब मैं 400 से अधिक महिलाओं को केएमवीएस में पैरालीगल बनने के लिए प्रशिक्षित कर चुकी हूँ।

जब मैंने 20 साल की उम्र में केएमवीएस में काम करना शुरू किया था, तब मैंने सातवीं कक्षा से आगे की पढ़ाई नहीं की थी। मेरे गाँव के स्कूल में इससे आगे की शिक्षा संभव नहीं थी, इसलिए चाहने के बावजूद मैं आगे पढ़ाई नहीं कर सकी। अब मैं 400 से अधिक महिलाओं को केएमवीएस में पैरालीगल बनने के लिए प्रशिक्षित कर चुकी हूँ। इसी वर्ष में मैंने दसवीं कक्षा पूरी करने के बारे में सोचा, जब मेरे पर्यवेक्षक ने सुझाव दिया कि मैं परीक्षा देकर अपना प्रमाण पत्र प्राप्त कर सकती हूँ। संगठन ने सोचा की इससे मुझे मदद मिलेगी, और साथ ही जो युवा मेरी देख-रेख में काम करते हैं उन्हें भी प्रेरणा मिलेगी। 42 साल की आयु होने के कारण मैं झिझक रही थी; आखिरी बार मैंने औपचारिक रूप से पढ़ाई बहुत साल पहले की थी। लेकिन मेरे सहयोगियों ने मेरा हौसला बढ़ाया और कुछ महीनों तक कठिन मेहनत के बाद, मैं उत्तीर्ण हुई।

अब मेरा ज्यादातर समय भुज के ऑफिस में या बाहर फ़ील्ड में बीतता है।

सुबह 7:30 बजे: मेरा काम आमतौर पर सुबह 10 बजे शुरू होता है, जब मैं पड़ोसी गाँवों का दौरा करने के लिए या सीधे कार्यालय जाने के लिए अपने स्कूटर पर निकलती हूँ। लेकिन आज के जैसे दिन, जब हैलो सखी हेल्पलाइन पर कॉल सुनने के लिए कोई भी उपलब्ध नहीं है, तो मैं इसके बजाय पुलिस स्टेशन जाती हूँ।

मुझे याद है कि जब मैंने शुरुआत की थी, तो मैंने कभी बस में यात्रा नहीं की थी। कल्याणपुर में, जिस गाँव में मैं पली-बढ़ी हूँ, महिलाएँ अपने घरों की दहलीज से बाहर कदम नहीं रखती थीं। मैं मुसलमान हूँ और मेरे समुदाय में महिलाओं को अकेले और बिना घूँघट के बाहर जाने की अनुमति नहीं है। आश्रित और कम दुनिया देखे हुए जीवन की आदत होने के कारण मैं केएमवीएस से जुड़ने में संकोच कर रही थी।

लेकिन जब केएमवीएस की महिलाओं ने अपने काम के बारे में बताया, तो मैंने उनसे जुड़ने की हिम्मत जुटाई। शुरुआत में मेरे पति के परिवार के सदस्य बैठकों के वक़्त मेरे पीछे पीछे आते थे, यह देखने के लिए कि मैं कहाँ जा रही हूँ, मैं क्या कर रही हूँ। मेरी सास ने भी मेरे साथ आने पर ज़ोर दिया। लेकिन कुछ बैठकों के बाद उन्होंने स्वीकार किया कि सामूहिक काम रचनात्मक है और हमारी बहनों से बहुत कुछ सीखने को मिलता है। समय के साथ, मैं अपने परिवार का विश्वास और समर्थन हासिल कर पाई। अब जबसे लॉकडाउन हुआ है, तबसे मैं हर दूसरे दिन अपना काम पूरा करने के लिए अपने स्कूटर से पड़ोसी गाँवों की यात्रा करती हूँ।

पंजीकरण अभियान के एक काउंटर पर एक औरत। काउंटर की दो तरफ दो औरतें हैं और तीसरी औरत उनके पीछे बैठी हुई है। वे चारों तरफ से पोस्टर और पुस्तिकाओं से घिरी हुई हैं_केएमवीएस-महिला घरेलू हिंसा
अब भी ऐसी बुजुर्ग महिलाएं हैं जिन्हें अपनी बहु-बेटियों के घरों से बाहर निकलने, किसी भी महिला संगठन से जुड़ने और किसी भी मामले में आवाज़ उठाने पर एतराज होता है। | चित्र साभार: केएमवीएस

सुबह 8 बजे: एक बार महिला पुलिस स्टेशन पहुँचने के बाद मैं हेल्पलाइन पर कॉल का जवाब देती हूँ, जो कि प्रतिदिन सुबह 8 बजे से 9 बजे के बीच चलती है, यहाँ तक कि दिवाली और ईद की छुट्टियों में भी। मैं फोन करने वाले व्यक्ति से उनका विवरण—नाम, गाँव, उम्र, बच्चों की संख्या—का ब्यौरा लेती हूँ। साथ ही जिस मुद्दे का वह सामना कर रहे हैं उसका विवरण भी लेती हूँ। कच्छ के सभी दस तालुकों (ब्लॉक) में हमारे कार्यालय हैं, इसलिए फोन जहाँ से आ रहा है उसके अनुसार मैं उस तालुका के पैरालीगल और काउंसलर से संपर्क करती हूँ और उन्हें स्थिति से अवगत करवाती हूँ। आमतौर पर हम कॉल करने वालों को हमारे कार्यालयों में आने के लिए कहते हैं, लेकिन यदि वे नहीं आ सकते तो हम उनसे मिलने जाते हैं।

चूँकि मैं भुज में रहती हूँ, अगर कोई मामला पास में है, तो मैं खुद उसमें शामिल होती हूँ। हम आम तौर पर महिलाओं और उनके परिवारों के बीच सभी मामलों को सबकी सहमति बना कर हल करने का प्रयास करते हैं। लेकिन अगर महिला को फिर भी खतरा महसूस होता है या वह खतरे में है, तो हम मामले को पुलिस के पास ले जाते हैं।

सुबह 10 बजे: जब मैं पुलिस थाने में थी मुझे मेरे मोबाइल पर फोन आया। मैं औसतन लगभग 200 गाँवों के साथ काम करती हूँ, और चूँकि लोग मुझे अच्छी तरह से जानते हैं, इसलिए वे कभी-कभी हेल्पलाइन के बजाय सीधे मेरे फोन पर कॉल करते हैं।

मैंने फोन का जवाब दिया—रामलाल*, पास के गाँव का एक व्यक्ति, अपनी बेटी लक्ष्मी* की ओर से फोन कर रहा है। वह मुझे बताता है कि लक्ष्मी के ससुर ने कल रात उसे घर से निकाल दिया। उसने परिवार के लिए चाय बनाते समय थोड़ा ज़्यादा दूध डाल दिया था। उसके ससुर नाराज़ हो गए, और मौका मिलते ही उसे पीट कर घर से बहार निकाल दिया। लक्ष्मी अब अपने माता-पिता के घर पर है और इसलिए रामलाल मुझसे उसकी मदद करने और हस्तक्षेप करने का अनुरोध करता है।

सुबह 11.30 बजे: मैं उनके घर पहुँचती हूँ, और लक्ष्मी से बात करने बैठती हूँ। हम इस घटना पर चर्चा करते हैं, और मैं उसे बताती हूँ कि उसके ससुर को उसके साथ ऐसा व्यवहार करने का कोई अधिकार नहीं है। जब उससे इस सब में उसके पति की भूमिका के बारे में पूछा गया, तो उसने बताया कि उसके पति ने अपने पिता को रोकने की कोशिश की लेकिन वो असफल रहा। हम तय करते हैं कि यह सबसे अच्छा होगा यदि वे दोनों (पति और पत्नी) कुछ समय के लिए परिवार के बाकी लोगों से अलग रहें, ताकि लक्ष्मी अपने ससुर से कुछ दूर रह सके। उनकी अनुपस्थिति में उसके पति का भाई अपने माता-पिता की देखभाल करने के लिए सहमत हुआ।

जब इस तरह की स्थितियों को पुलिस में ले जाया जाता है, तो वह महिला के लिए अतिरिक्त तनाव का कारण बन सकता है। अक्सर इस मुद्दे को परामर्श के माध्यम से हल करना आसान होता है। हालाँकि आपातकालीन स्थितियों मे हम पुलिस की 181 महिलाओं की हेल्पलाइन वैन का उपयोग करते हैं, ताकि महिलाओं तक जल्दी पहुँच सकें और उन्हें तत्काल खतरे से बाहर निकाला जा सके।

दोपहर 2 बजे: मैं भुज में कुछ प्रशासनिक काम करवाने के लिए वापस कार्यालय जाती हूँ, और मेरी निगरानी में काम करने वाले कुछ पैरालीगल्स से बात करती हूँ। उनमें से कुछ, जो अन्य कंपनियों या होटलों में नौकरी करते हुए पैरालीगल के रूप में काम करते हैं, वे महामारी के कारण अपनी आय और बचत को लेकर चिंतित हैं। एक महिला को अपने 17 वर्षीय बेटे को काम करने के लिए कहना पड़ा, क्योंकि उसका पति, एक प्रवासी कामगार, लॉकडाउन के दौरान उन तक नहीं पहुँच पाया।

हम हर साल जनवरी में पैरालीगल के एक नए कैडर को भर्ती करते हैं। ऐसा करने के लिए हम एक गाँव से दूसरे गाँव जाते हैं। वहाँ हम महिलाओं से बात करते हैं, उन्हें हमारे काम के बारे में बताते हैं, और उन्हें हमारे साथ जुड़ने के लिए कहते हैं। हम आम तौर पर गाँव के साथ एक संबंध स्थापित करने के लिए गाँव के सरपंच या आशा कार्यकर्ता के साथ पहले बातचीत करते हैं, और उनकी मदद से यह पहचान करते हैं कि कौनसी महिलाएँ हमसे जुड़ने में दिलचस्पी ले सकती हैं।

वर्षों से परिवारों के साथ काम करने के कारण हम एक मध्यस्थ के रूप में अपनी भूमिका स्थापित करने में सक्षम रहे हैं।

एक बार जब नए पैरालीगल का काम शुरू होता है, तो मैं उन्हें घरेलू हिंसा, यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (पीओसीएसओ) अधिनियम, बाल हिरासत कानून, लिंग, महिलाओं के अधिकार, और इसी तरह की बातों पर प्रशिक्षित करती हूँ। हम प्रचलित सामाजिक मानदंडों और मानसिकता पर भी चर्चा करते हैं। अभी भी बहुत सारी बुज़ुर्ग महिलाएँ हैं जो अपनी बेटियों और बहुओं को घर से बाहर निकलने, महिलाओं के समूह का सदस्य बनने और सामाजिक कल्याण के मुद्दों पर अपनी आवाज़ उठाने पर आपत्ति जताती हैं। हमें उन्हें समझाने और उन्हें आश्वस्त करने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है कि हम कुछ भी गलत नहीं कर रहे हैं। पितृसत्तात्मक मानदंड महिलाओं को उनके घर छोड़ने से रोकते हैं, लेकिन हम उन्हें सलाह देते हैं, उनके डर को दूर करने में मदद करते हैं। हम परिवर्तन को अपनाने के लिए उन्हें प्रोत्साहित करते हैं कि वे अभी तक जिसमें उन्हें सहूलियत लगती थी या जिसकी उन्हें आदत थी, उस विचारधारा को छोड़ें।

शाम 4 बजे: मेरा फोन फिर से बजता है—इस बार, यह एक महिला है जो अपने पति की शराब की लत के बारे में चिंतित है और इसकी वजह से वह उसके साथ कैसा व्यवहार करेगा उसे लेकर परेशान है। वर्षों से परिवारों के साथ काम करने के कारण हम एक मध्यस्थ के रूप में अपनी भूमिका स्थापित करने में सक्षम रहे हैं; हम आँख बंद करके महिलाओं का साथ नहीं देते, लेकिन हम उन्हें बता देते हैं कि वे वास्तविक, निष्पक्ष सहायता के लिए हम पर भरोसा कर सकती हैं। ऐसा करने से हम घर के अन्य सदस्यों का विश्वास अर्जित कर पाए हैं, और यही कारण है हम झगड़ों को सुलझाने में मदद कर पाते हैं।

मैं उस महिला को सलाह देती हूँ, उसे आश्वस्त करती हूँ कि अगर उसे खतरा महसूस होता है, तो हम एक काउंसलर और पैरालीगल को भेजेंगे।

शाम 5 बजे: दिन का काम खत्म करने से पहले मैं हमारे पैरालीगल्स के लिए प्रशिक्षण सत्रों के अगले सेट की योजना बनाने में कुछ समय बिताती हूँ। इस बारे में सोचने से मुझे केएमवीएस के साथ अपने शुरुआती दिनों का ख़याल आता है। जब मैंने काम करना शुरू किया था, तो मुझे महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा, महिलाओं के अधिकारों और हमारे संगठन के बारे में जागरूकता सत्र आयोजित करने के लिए गाँव-गाँव जाना पड़ता था। गाँव भर की महिलाओं के साथ जुड़ने में मुझे जो मदद मिली थी उसका कारण यह था कि मैं उनकी तरह ही एक गाँव की लड़की थी, जिसने पहले कभी अपने घर से बाहर कदम नहीं रखा था।

हम अपने अधिकारों और क्षमता के बारे में जानने से ही पितृसत्तात्मक मानदंडों को पीछे छोड़ सकते हैं जो हमें अपने घरों में बाँध के रखते हैं। अगर मैं बाहर न निकली होती या नई चीज़ें न आज़माई होतीं, तो मैं आज जहाँ हूँ, वहाँ न होती। मैं खुद से भुज नहीं जा पाती, एक प्रबंधक के रूप में काम न कर पाती, खुद बैठकें न कर पाती, और अपनी बहनों को उनकी आवाज़ ढूँढने में मदद भी न कर पाती। एक समय पर हमें ‘भुज वली बहनें’ भी कहा जाता था और अपने काम के माध्यम से मैं कच्छ भर में 5,000 से अधिक बहनों के साथ जुड़ी हुई हूँ।

*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नाम बदले गए हैं। 

जैसा कि आईडीआर को बताया गया है।

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डर नहीं, विश्वास

मोवनी बाई ने हाल ही में कोविड-19 टीके का अपना दूसरा डोज़ लिया है लेकिन अपनी मर्ज़ी से नहीं। वउनका कहना है कि उन्होनें सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) द्वारा दिये जाने वाले मुफ्त राशन की सूची से बाहर निकाल देने और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत पंजीकृत कामगारों की सूची से बाहर हो जाने के डर से टीका लगवाया था। हालांकि भारतीय संविधान उन्हें इन दोनों अधिकारों की गारंटी देता है।

मोवनी बाई अकेली ऐसी नहीं है जिसे इस संशय के स्त्रोत की जानकारी नहीं है। उदयपुर के गोगुंडा प्रखण्ड के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में काम करने वाली एक सहायक नर्स आया (एएनएम) ने कहा कि कई लोग इस डर से टीका लेने आए थे कि उन्हें काम नहीं मिलेगा या उन्हें राशन मिलना बंद हो जाएगा। हमनें देखा कि क्षेत्र के ज़्यादातर लोग सरकार द्वारा जारी कोविड-19 संबंधित खबरों और सूचनाओं से अनजान थे। इस तरह की सूचना के लिए वे व्हाट्सऐप फोरवार्ड्स, स्थानीय सरकारी अधिकारियों और स्वयंसेवी संस्थाओं पर भरोसा करते थे। इनमें से कुछ अधिकारी टीकाकरण को बढ़ावा देने के तरीके के रूप में सामाजिक सुरक्षा वाले लाभों को बंद करने वाली धमकी का इस्तेमाल कर रहे हैं। जैसे, किसी एक गाँव में पंचायत अधिकारी ने कहा कि वह पूरे गाँव का टीकाकरण करवाएँगे और मना करने वालों को राशन और मनरेगा का काम देने से इंकार कर देंगे। 

हालांकि, टीकाकरण शिविरों और जागरूकता अभियानों के दौरान टीके संबंधित झिझक को मिटाने के लिए इस तरह का तरीका खतरनाक है। वे लोगों के टीका लगवाने से इंकार करने पर भोजन, आजीविका और अन्य सरकारी योजनाओं के अधिकार छीनने की धमकी देकर जबरदस्ती स्वीकृति हासिल करते हैं। ऐसा करने से लोगों का व्यवस्था पर से विश्वास उठने लगता है और पहले से मौजूद फायदों तक उनके पहुँच की संभावना कम हो जाती है। उन्हें स्थानीय निजी झोलाछाप जैसे दूसरे विकल्पों की खोज की तरफ धकेला जाता है। अंत में, यह सामाजिक कल्याण की ज़िम्मेदारी को सरकार से हटाकर पहले से हाशिये पर मौजूद समुदायों पर डाल देता है।  

क्षेत्र के स्थानीय स्वयंसेवी संस्थाओं ने इस तरह के आदेशों के खिलाफ आवाज़ बुलंद की। वे स्थानीय समुदायों के साथ मिलकर लोगों को उनके अधिकारों और मिलने वाले लाभों के बारे में जागरूक करने का काम कर रहे हैं। अधिकारीगण, पंचायतों के साथ मिलकर टीका लगवाने के महत्व के बारे में सूचनाएँ प्रसारित कर रहे हैं और समुदायों को प्रोत्साहित कर रहे हैं। वे गोगुंडा प्रखण्ड के सात पंचायतों में काम कर रहे हैं। ऐसी जगहों पर उन लोगों ने ऐसे सभी लोगों की सूची बनाई है जिन्हें उन्होंने टीका लगवाने के लिए राजी कर लिया। जमीन पर किए गए उनके काम के माध्यम से उन्हें यह एहसास हुआ कि प्रभावी संचार विश्वास के इर्द-गिर्द बनता है डर के इर्द-गिर्द नहीं। 

शिफ़ा ज़ोया आजीविका ब्यूरो में एक फ़ील्ड फ़ेलो हैं और प्रवासी मजदूर के मुद्दों पर काम कर रही हैं।  

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