मराठवाड़ा का अपनी तरह का एक अनोखा एकल महिला संगठन

जब शब्द नहीं होते हैं तो बनाने पड़ते हैं! निरंतर पॉडकास्ट के सीरीज ‘एकल इन द सिटी’ में हम शहरों और गांवों की कई एकल आवाज़ों से आपकी मुलाकात करवाते रहे हैं। इस बार एपिसोड 4 में एक आवाज नहीं बल्कि मिलिए मराठवाड़ा, महाराष्ट्र के एकल महिला संगठन से। मतलब, एकल महिलाओं का समूह!

इसका क्या मतलब है? क्या होता है जब एकल, समूह में बदलता है?

एकजुटता, बहनापा और बदलाव की धरातल तैयार होती है, जिसकी जमीन पर खड़े काम, आराम, दोस्ती, ज्ञान, समाधान, अस्तित्व, बंधुता, और अधिकार को समझने और सामूहिक रूप से देखने का नजरिया मिलता है, उसकी पहचान और ताकत विकसित होती है।

‘एकल इन द सिटी’ के एपिसोड 4 में हम आपकी मुलाकात करवा रहे हैं, महाराष्ट्र के मराठवाड़ा इलाके के बीड, नांदेड, तुलजापुर, ओसमानाबाद, शिरगापुर, काईजी और अंबाजोगाई की एकल महिलाओं से जिन्होंने हमें संगठित रूप से जीने एवं खुद के लिए खड़े होने की कहानियों से मोह लिया।

इस एपिसोड को संभव बनाने के लिए हम एकल महिला संगठन की महिलाओं का शुक्रिया अदा करना चाहते हैं जिन्होंने खुलकर हमसे बात की। साथ ही मुम्बई स्थित कोरो संस्था का आभार जिन्होंने संगठन की महिलाओं से हमारी पहचान करवाई। भाषा कोई बाधा न बन सके इसलिए सरल एवं सटीक अनुवाद के लिए अनुवादक विद्या का शुक्रिया। इसके साथ ही सम्पदा का बहुत आभार जिन्होंने अपनी आवाज में मराठी फिल्म ‘केशव’ के गानों को हिन्दी में गाकर पूरे एपिसोड को बांध लिया है। यह सच में एक सामूहिक प्रस्तुति है।

यह लेख मूलरूप से द थर्ड आई पर प्रकाशित हुआ था।

हमारे संविधान में क्या-क्या लिखा है?

क्या आप जानते हैं कि हमारे संविधान में 1.4 लाख से अधिक शब्द हैं और यह दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है। क्या आपने कभी इसे पढ़ने और समझने पर विचार किया है? अगर आपका उत्तर हां है तो यह वीडियो आपको भारतीय संविधान की संरचना और सूची को समझने में मदद करेगा।

यह वीडियो मूल रूप से वी, द पीपल अभियान में प्रकाशित हुआ है।

पैरामीट्रिक बीमा क्या है और क्या यह जलवायु संकट से निपटने में मददगार है?

पिछले दो दशकों यानी साल 2000 से 2019 के बीच भारत कुदरती आपदाओं का सामना करने के मामले में तीसरे नंबर पर है। आने वाले समय और ज्यादा भयावह होने का अनुमान है। कई प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति और तीव्रता में बढ़ोतरी होने का पूर्वानुमान है। इससे नुकसान और क्षति अरबों अमेरिकी डॉलर तक पहुंच जाएगी। तब राज्य के खजाने में भुगतान करने के लिए शायद पर्याप्त रकम ना हो।

भारत इस वित्तीय खाई को पाटने के लिए नए तरह के बीमा को सावधानी से आजमा रहा है। इसका नाम है पैरामीट्रिक बीमा। जहां नियमित बीमा योजनाएं क्षतिपूर्ति पर आधारित होती हैं या आपदा होने के बाद नुकसान का मूल्यांकन करती हैं, वहीं पैरामीट्रिक बीमा पहले से तय मापदंडों के सेट पर निर्भर करता है, जो पूरा होने पर तुरंत भुगतान शुरू कर देता है। एएक्सए क्लाइमेट के भारत प्रमुख पंकज तोमर ने कहा, “कोई सर्वेक्षण या मूल्यांकन की लंबी अवधि नहीं है, जो कि फर्क का मुख्य बिंदु है।” यह एएक्सए ग्रुप का उपक्रम है जो बदलते मौसम के हिसाब से समाधान बनाने पर काम करता है।

अहमदाबाद के अंबावाड़ी नगरपालिका में 60 साल की निर्माण मजदूर जशीबेन परमार ने कहा कि अब वह लू के चलते अपनी मजदूरी में होने वाले नुकसान की भरपाई उस दिन कर पाई, जब उन्हें स्वरोजगार महिला संघ (एसईडब्ल्यूए-सेवा) के सदस्यों के लिए चल रही पैरामीट्रिक हीट बीमा योजना के तहत 400 रुपये का भुगतान मिला। इस साल गर्मियों में उत्तर और उत्तर-पश्चिम भारत के ज्यादातर हिस्से भीषण गर्मी और रिकॉर्ड तोड़ तापमान की चपेट में थे। उन्होंने मोंगाबे इंडिया को बताया, “मैंने इस पैसे का इस्तेमाल खाने-पीने और घर चलाने में किया।”

सेवा की ओर से चलाया जा रहा यह कार्यक्रम, हाल के सालों में देश में तेजी से फैल रहे अन्य कार्यक्रमों में से एक है। इसमें बाढ़, गर्मी के बढ़ते प्रकोप और नवीन ऊर्जा संयंत्रों में उत्पादकता में कमी जैसी चीजें शामिल की गई हैं।

लेकिन पैरामीट्रिक बीमा के लाभ इस बात पर निर्भर करते हैं कि जोखिम और नुकसान का हिसाब किस तरह लगाया जाता है। पैरामीट्रिक बीमा के साथ भारत का अनुभव अभी शुरुआती स्टेज में है। जानकारों का भी कहना है कि इसे बदलते मौसम के हिसाब से मौजूदा रणनीतियों को बेहतर करना चाहिए, ना कि उनकी जगह लेनी चाहिए।

भारत में पैरामीट्रिक स्कीम

भारत के हर हिस्से में अब प्राकृतिक आपदाओं का आना आम बात हो गया है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की रिपोर्ट के अनुसार, भारत ने 2022 के पहले नौ महीनों में लगभग हर दिन प्राकृतिक आपदाएं देखीं। 2019 और 2023 के बीच, देश को मौसम संबंधी आपदाओं के कारण 56 बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ।

भारत में आपदा प्रबंधन के लिए पैसों का इंतजाम आमतौर पर राष्ट्रीय या राज्य आपदा प्रतिक्रिया कोष (एसडीआरएफ) और अंतरराष्ट्रीय सहायता से आता है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) को केंद्र सरकार से 75 से 90% तक मदद मिलती है, जबकि बाकी बची राशि राज्य सरकार द्वारा दी जाती है। हालांकि, ये फंड हमेशा तुरंत उपलब्ध नहीं हो पाते हैं। कई राज्य सरकारों ने संकट के समय केंद्र सरकार की ओर से फंड जारी करने में देरी को लेकर अदालत का रुख किया है। कोपेनहेगन विश्वविद्यालय में कानून के प्रोफेसर मोर्टन ब्रोबर्ग ने पैरामीट्रिक बीमा पर 2019 के एक पेपर में लिखा कि अंतरराष्ट्रीय मानवीय सहायता एक और उपयोगी तरीका है, लेकिन यह अप्रत्याशित हो सकता है और “देशों के लिए जोखिम में कमी के मूल्य को या खतरों के प्रबंधन में आने वाली लागत को पूरी तरह से समझना मुश्किल हो जाता है।” 

उत्तराखंड में बाढ़ का एक दृश्य_पैरामीट्रिक बीमा
पैरामीट्रिक बीमा पहले से तय मापदंडों के सेट पर निर्भर करता है। | चित्र साभार: विकिमीडिया कॉमन्स/सीसी बीवाय

इसके विपरीत, पैरामीट्रिक बीमा को मौसम में हो रहे बदलाव से निपटने के लिए मददगार टूल के रूप के रूप में देखा जाता है, क्योंकि यह सरकारों को किसी विनाशकारी घटना के बाद संभावित नुकसान का पहले से आकलन करने में मदद करता है। यह पैरामीटर पूरे होने पर बिना किसी रोक के भुगतान करके नकदी का प्रवाह बनाए रखने में भी मदद कर सकता है, जिससे पुनर्वास और बहाली तेजी से हो सकती है।

नागालैंड भारत का पहला ऐसा राज्य है जिसने पैरामीट्रिक बीमा के जरिए भारी बारिश को लेकर अपने पूरे भौगोलिक क्षेत्र का बीमा कराया है। नागालैंड में मानसून के दौरान भारी बारिश होती है और खास तौर पर राज्य के निचले इलाके बाढ़ की चपेट में आ जाते हैं। साल 2017 में, राज्य बाढ़ से तबाह हो गया था जिसमें 22 लोगों की मौत हो गई थी, 7,700 घर पूरी तरह या आंशिक रूप से नष्ट हो गए थे। तब राज्य की एक-तिहाई आबादी बाढ़ से प्रभावित हुई थी। राज्य सरकार की अपनी आपदा सांख्यिकी रिपोर्ट के अनुसार, 2018 और 2021 के बीच पानी और जलवायु संबंधी खतरों की घटनाएं 337 से बढ़कर 814 हो गईं। नागालैंड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनएसडीएमए) के संयुक्त मुख्य कार्यकारी अधिकारी जॉनी रुआंगमेई ने कहा, “नागालैंड छोटा राज्य है और इस तरह की घटनाओं से होने वाला नुकसान सैकड़ों करोड़ में होता है, जिसकी भरपाई अकेले एसडीआरएफ की ओर से नहीं की जा सकती है।”

जहां नियमित बीमा योजनाएं क्षतिपूर्ति पर आधारित होती हैं या आपदा होने के बाद नुकसान का मूल्यांकन करती हैं, वहीं पैरामीट्रिक बीमा पहले से तय मापदंडों के सेट पर निर्भर करता है

आर्थिक रूप से कुछ सबसे कमजोर आबादी वाले मजदूर संघ भी जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान से उबरने के लिए पैरामीट्रिक बीमा की तरफ जा रहे हैं। पिछले साल स्व-नियोजित महिला संघ ने एड्रिएन आर्शट-रॉकफेलर फाउंडेशन रेजिलिएंस सेंटर और बीमाकर्ता ब्लू मार्बल के साथ समझौते में गुजरात के चार जिलों में अपने 21,000 सदस्यों के लिए हीट इंश्योरेंस योजना शुरू की थी। इस योजना में तापमान की एक सीमा तय की गई थी। इससे ज्यादा तापमान बढ़ने पर हर सदस्य को भुगतान किया जाएगा। बीमा के साथ-साथ, सेवा ने जलवायु अनुकूलन वाली दूसरी तकनीकों को भी लागू किया, जैसे कि सौर ऊर्जा से चलने वाले वाटर कूलर और लचीलापन बढ़ाने के लिए तिरपाल शीट उपलब्ध कराना। सेवा में वेलनेस प्रोग्राम समन्वयक साहिल हेब्बार ने कहा, “2022 में लू के दौरान हमारे कितने सदस्यों को अपना वेतन खोना पड़ा, यह देखने के बाद समाधान खोजना जरूरी था।” केरल में राज्य का सहकारी दुग्ध विपणन संघ केसीएमएमएफ, अपने डेयरी किसानों को गर्मी के कारण कम दूध उत्पादन से होने वाले नुकसान से बचाव के लिए पैरामीट्रिक बीमा का भी इस्तेमाल कर रहा है।

जोखिम का आधार तैयार करने में समस्या

पैरामीट्रिक बीमा योजनाएं समय के साथ किसी दिए गए खतरे की भयावहता और आवृत्ति का अनुमान लगाने के लिए जटिल गणनाओं का इस्तेमाल करती हैं। साथ ही, इसे नुकसान के वाजिब कीमत से जोड़ती हैं, ताकि यह तय किया जा सके कि किस सीमा पर भुगतान शुरू किया जाना चाहिए। ये कारक बीमा कवर की कुल बीमा राशि और लागत (प्रीमियम) भी तय करते हैं। इन सभी गणनाओं के मूल में योजना के तहत आने वाले डेटा का चुनाव करना है।

वारविक विश्वविद्यालय में वैश्विक सतत विकास के एसोसिएट प्रोफेसर निकोलस बर्नार्ड्स ने कहा, “बहुत से विकासशील देशों की सरकारों में अक्सर ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम होती है जिनके पास संबंधित गणना करने के लिए खास कौशल हो। असल में जब मॉडल बहुत जटिल होते हैं तो अक्सर इस बात में बहुत पारदर्शिता नहीं होती है कि मॉडल कुछ मामलों में भुगतान क्यों करता है और बाकी मामलों में नहीं।” 

भारी बारिश और बाढ़ का सामना करने के बावजूद, बीमाकर्ता द्वारा नागालैंड में उन सालों के दौरान कभी भी भुगतान नहीं किया गया, जब उसने राज्य में पैरामीट्रिक बीमा को लागू किया गया था। रुआंगमेई ने कहा, “हमें अहसास हुआ कि पैरामीटर बनाने के लिए इस्तेमाल किया गया डेटा जमीन पर देखी गई असलियत से बहुत अलग था, और सीमा बहुत ज्यादा तय की गई थी। इतनी ज्यादा सीमा पर बहुत बड़ा हिस्सा बह जाता और हम जितना कवर किया गया था, उससे ज्यादा खो देते।” 

नागालैंड ने 2021 से 2023 तक बीमाकर्ता के रूप में टाटा एआईजी और फिर से बीमा करने वाले के तौर पर स्विस रे (जिस पर बीमाकर्ता अपने खुद के जोखिम स्थानांतरित कर सकता है) के साथ पायलट पैरामीट्रिक बीमा समझौता किया। राज्य सरकार ने लगभग पांच करोड़ रुपये के कवरेज के लिए लगभग 70 लाख रुपये के सालाना प्रीमियम का भुगतान किया जिसमें ट्रिगर सीमा शुरू में 290 और 350 मिमी बारिश के बीच तय की गई थी। समझौते में इस्तेमाल किया गया डेटासेट नासा समर्थित सीएचआईआरपीएस उपग्रह का था। लेकिन बाद में सरकार को अहसास हुआ कि ये अनुमान भारतीय मौसम विभाग के ग्रिड किए गए डेटासेट के साथ-साथ उसके अपने मौसम स्टेशनों द्वारा कैप्चर किए गए डेटासेट से अलग थे।

पैरामीट्रिक बीमा को मौसम में हो रहे बदलाव से निपटने के लिए मददगार टूल के रूप के रूप में देखा जाता है।

जब नुकसान होता है, लेकिन योजना की सीमा पूरी नहीं होती है तो इस समस्या को आधार जोखिम कहा जाता है। अगर नुकसान को महंगे प्रीमियम के ऊपर वहन करना पड़ता है तो यह संसाधनों पर और ज्यादा दबाव डाल सकता है। बर्नार्ड्स ने कहा, “खासतौर पर जब वाणिज्यिक बीमाकर्ता शामिल होते हैं तो परस्पर विरोधी हितों की समस्या भी होती है। बीमाकर्ता बहुत सटीक रूप से परिभाषित और आदर्श रूप से ज्यादा कठोर शर्तों से लाभान्वित होते हैं। उपयोगकर्ताओं का हित इसके विपरीत होता है। व्यवहार में इन्हें अक्सर बहुत ज्यादा तकनीकी सवालों के रूप में माना जाता है जिसमें बीमा के संभावित खरीदार सीधे तौर पर शामिल नहीं होते हैं।” 

पिछले साल अपने पायलट को खत्म करने के बाद से, एनएसडीएमए ने अपने खुद के मौसम और आपदा के बाद के डेटा की जांच करने और अलग-अलग बीमा मॉडलों का अध्ययन करने में एक साल बिताया, ताकि यह तय किया जा सके कि कौन-से पैरामीटर उसकी जरूरतों के लिए सबसे सही होंगे। इस साल फरवरी में, राज्य सरकार ने एक्सप्रेशन ऑफ इंटरेस्ट जारी किया जिसमें इच्छुक बीमाकर्ताओं से भारी बारिश के खिलाफ राज्य का बीमा करने के लिए आगे आने का आह्वान किया गया। इसमें जोर दिया गया कि वह ऐसा समाधान चाहती है जो “ग्राउंड वेदर स्टेशन डेटा की प्रासंगिकता को ज्यादा से ज्यादा महत्व करेगा।”

रुआंगमेई ने कहा, “हमें प्रमुख बीमा कंपनियों और पुनर्बीमा कंपनियों से कई बोलियां मिलीं, जो दिखाती हैं कि इस तरह के कार्यक्रम को वित्तपोषित करने के लिए बीमा बाजार में दिलचस्पी बढ़ रही है।” नागालैंड द्वारा जून तक लगभग 50 करोड़ रुपये के कवरेज के लिए नए बीमाकर्ता और पुनर्बीमाकर्ता के साथ समझौता करने की संभावना थी। 

सेवा को भी 2023 की गर्मियों में अपने पायलट के दौरान आधार जोखिम की समस्या का सामना करना पड़ा, जब कोई भुगतान शुरू नहीं हुआ। तब से इसने नए साझेदारों क्लाइमेट रेजिलिएंस फॉर ऑल और स्विस रे के साथ मिलकर तापमान की सीमा को ज्यादा उपयुक्त सीमा में समायोजित करने, मापदंडों को ढीला करने और तीन राज्यों – महाराष्ट्र, राजस्थान और गुजरात के पचास हजार सदस्यों तक योजना को बढ़ाने का काम किया है। नए डिजाइन के अनुसार, भुगतान शुरू करने के लिए दिन के तापमान को लगातार दो दिनों तक तापमान सीमा से ऊपर रहना चाहिए, जबकि पायलट में यह तीन दिन था। सबसे कम ट्रिगर सीमा तापमान उदयपुर में 41.5 डिग्री सेल्सियस और सबसे ज्यादा बाड़मेर में 45 डिग्री सेल्सियस था।

हेब्बर ने कहा, “हमें पता चल रहा है कि जिस तापमान पर मजदूर काम करते हैं, वह आमतौर पर उपग्रह या मौसम संबंधी डेटा की ओर से दर्ज तापमान से कहीं ज्यादा होता है। अभी के लिए, हमारा डिजाइन और ट्रिगर सिर्फ दिन के तापमान पर निर्भर करता है, लेकिन भविष्य में हम निश्चित रूप से आर्द्रता और रात के तापमान सहित ज्यादा मापदंडों को एकीकृत करना चाहते हैं।”

आलोचक, जलवायु बीमा की बढ़ती लोकप्रियता को ज्यादा आय वाले देशों द्वारा अपने वित्तीय दायित्वों को निजी क्षेत्र पर डाल देने के तरीके के रूप में देखते हैं। 

लेकिन, इसका दायरा बढ़ाकर भी अकेले पैरामीट्रिक बीमा के लाभ जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा पीड़ित लोगों के लिए पर्याप्त नहीं होने की संभावना है। जशीबेन ने इस सीमा को संक्षेप में समझाया। उन्होंने कहा, “हां, मुझे इस योजना से लाभ हुआ है।” “लेकिन मैं गर्मी के कारण 15 दिनों से काम पर नहीं जा पाई और मुझे सिर्फ एक दिन का भुगतान मिला। 400 रुपये ठीक हैं, लेकिन असल में मुझे 4,000 रुपये की जरूरत थी, ताकि मैं जो खो चुकी हूं उसकी भरपाई कर सकूं।” जशीबेन ने कहा कि स्थिर आय नहीं होने से और बहुत ज्याद गर्मी से बढ़ते चिकित्सा बिलों के साथ, वह अपने दोनों बच्चों को स्कूल भेजने के लिए संघर्ष कर रही थी। उन्होंने कहा, “मुझे इस साल अपने खर्चों को पूरा करने के लिए स्थानीय साहूकार से कर्ज लेना पड़ सकता है।”

पैरामीट्रिक बीमा और वैश्विक असमानता

कोपेनहेगन विश्वविद्यालय के ब्रोबर्ग कहते हैं कि 1991 में जब जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन शुरू हुआ था, तभी से जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से निपटने के लिए बीमा को समाधान माना जाता रहा है। लेकिन हाल के सालों में पैरामीट्रिक बीमा की लोकप्रियता ज्यादा आय वाले देशों की इस इच्छा से बढ़ी है कि वे सबसे बुरे असर का सामना कर रहे निम्न और मध्यम आय वाले देशों में इसे अपनाने में मदद करें।

आलोचक जलवायु बीमा की बढ़ती लोकप्रियता को ज्यादा आय वाले देशों द्वारा अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों के तहत अपने वित्तीय दायित्वों को निजी क्षेत्र पर डाल देने करने के तरीके के रूप में देखते हैं। यूएनएफसीसीसी के तहत 27वें कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (कॉप-27) में वैश्विक नुकसान और क्षति कोष की घोषणा से पहले, ज्यादा आय वाले देशों ने बिगड़ती आपदाओं से निपटने के लिए समाधान के रूप में बीमा की वकालत की थी। पैरामीट्रिक बीमा को डिजाइन करने में कई चरण शामिल होते हैं। साथ ही, बीमाकर्ता ज्यादा जोखिम वहन करते हैं। इस वजह से पैरामीट्रिक बीमा के लिए प्रीमियम अन्य बीमा के पारंपरिक रूपों की तुलना में काफी ज्यादा होता है। नागालैंड और सेवा दोनों ही प्रीमियम की लागत को वित्तपोषित करने में मदद के लिए परोपकार के उद्देश्य से दी जाने वाली आर्थिक मदद पर निर्भर हैं। इन लागतों और सीमाओं ने बराबरी की चिंताओं को भी जन्म दिया है कि किस हद तक निम्न और मध्यम आय वाले देशों के लिए जलवायु परिवर्तन के सबसे बुरे प्रभावों के लिए खुद का बीमा कराना उचित है, भले ही इस समस्या को बढ़ाने में उनकी भागीदारी सबसे कम है।

बर्नार्ड्स ने कहा, “जलवायु नुकसान में सिर्फ विनाशकारी घटनाएं ही शामिल नहीं होती हैं। धीमी गति से होने वाली आपदाएं भी होती हैं, जिनमें काम के दौरान लोगों का गर्मी से जूझना या गर्मी, कीटों या अनियमित बारिश जैसी चीजों के कारण खेती की पैदावार कम होना शामिल है। इससे अक्सर बहुत ज्यादा कर्ज की समस्या और विकट हो जाती हैं। इनमें शायद ही कभी बीमा योग्य एकल घटनाएं शामिल होती हैं। लॉस एंड डैमेज फंड को बाद की घटनाओं की भरपाई करने भी करना चाहिए। या तो जलवायु-लचीले बुनियादी ढांचों और आवासों को वित्तपोषित करके या उदार सामाजिक सुरक्षा जैसी चीजों को लागू करने ऐसा करन चाहिए।” 

पैरामीट्रिक बीमा का भविष्य

भारत में बीमा की पहुंच बहुत कम है तथा प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली 90% से ज्यादा दुर्घटनाओं का बीमा नहीं होता है। प्रमुख वैश्विक पुनर्बीमाकर्ता के पूर्व कार्यकारी ने मोंगाबे इंडिया को बताया कि कंपनी ने अलग-अलग आपदाओं के लिए पैरामीट्रिक बीमा लागू करने के प्रस्ताव के साथ कम से कम पांच राज्यों – आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और केरल – से संपर्क किया था, लेकिन उन्हें झिझक का सामना करना पड़ा। पूर्व कार्यकारी ने कहा, “जहां तक बीमा शब्द का सवाल है, तो लोगों में भरोसे की कमी है। राज्य हमेशा बीमा द्वारा भुगतान नहीं किए जाने के किस्से सुनाते हैं, इसलिए सरकारों को यह बताने की जरूरत है कि पैरामीट्रिक बीमा वास्तव में किस तरह काम करता है।”

फिर भी, स्विस रे को उम्मीद है कि भारत में अगले पांच सालों में प्रीमियम में 7.1 प्रतिशत की बढ़ोतरी होगी। नागालैंड के रुआंगमेई को भी उम्मीद है कि जब राज्य अपना नया पैरामीट्रिक बीमा मॉडल लॉन्च करेगा तो बड़े राज्य भी कुछ ऐसा ही करने को तैयार होंगे। “ऐसी योजनाओं को ग्राहक और बीमाकर्ता दोनों के लिए बेहतरीन बनाने की जरूरत है। यह सिर्फ बीमाकर्ता के लाभ के लिए नहीं हो सकता है और यही हम करने की कोशिश कर रहे हैं।”

पैरामीट्रिक बीमा का बाजार भारत में ऐसे समय बन रहा है जब वैश्विक बीमा बाजार जलवायु परिवर्तन के कारण कई बदलावों से गुजर रहा है। अमेरिका में, ऐसी खबरें हैं कि बीमा कंपनियां ज्यादा और अप्रत्याशित जोखिमों के कारण बाजार से निकल रही हैं या अपनी क्षमता कम कर रही हैं।

एकएक्सए क्लाइमेट के तोमर के अनुसार, बीमा कंपनियों के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वे अपने जोखिम मॉडलिंग में जलवायु परिवर्तन के भविष्य के असर को ध्यान में रखें। आमतौर पर, जोखिम मॉडलिंग किसी खास विनाशकारी घटना की वापसी अवधि तय करने के लिए पिछले डेटा का इस्तेमाल करती है। उन्होंने कहा, “पिछले एक दशक में, वापसी अवधि की गणना गड़बड़ा रही है क्योंकि ये घटनाएं ज्यादा बार हो रही हैं।” उन्होंने आगे कहा, “बीमाकर्ताओं और पुनर्बीमाकर्ताओं को अपने मॉडल में जलवायु परिवर्तन के लिए स्पष्ट इनपुट शामिल करने के लिए मजबूर किया जा रहा है, जिसका अनिवार्य रूप से मतलब होगा कि वापसी अवधि की गणना अब सिर्फ पिछले डेटा पर आधारित नहीं है। इसका ना सिर्फ कीमत पर बल्कि जोखिम और बीमाकर्ता इसे वहन करने के लिए तैयार हैं या नहीं, इस पर भी बहुत बड़ा असर पड़ सकता है।”

अर्ष्ट-रॉक फाउंडेशन की वैश्विक नीति और वित्त की उप निदेशक निधि उपाध्याय ने कहा कि भारत में बढ़ते जलवायु प्रभावों के मद्देनजर पैरामीट्रिक बीमा की पहुंच बढ़ रही है, लेकिन यह एकमात्र समाधान नहीं हो सकता है। उन्होंने सेवा की पायलट योजना को डिजाइन करने में मदद की थी।

उन्होंने कहा, “हमारा तरीका इस बात पर विचार करता है कि जोखिम हस्तांतरण – बीमा भाग – को जोखिम में कमी के साथ किस तरह जोड़ा जाए, ताकि गर्मी से निपटने को सुलभ और न्यायसंगत बनाया जा सके। खास तौर पर भारत में, अनौपचारिक क्षेत्र बहुत बड़ा है और औपचारिक रोजगार के बुनियादी ढांचे के बाहर बीमा कवरेज को बढ़ाना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। इसे और अधिक किफायती बनाने के लिए इसका दायरा बढ़ाना अहम है। लंबी अवधि में, इस तरह की पहल को सरकारी सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम या इसी तरह के तहत शुरू करने की जरूरत है, जो भारत के अनौपचारिक क्षेत्र को कवर करता है।”

यह लेख मूलरूप से मोंगाबे डॉट कॉम पर प्रकाशित हुआ था।

क्या युवाओं को दूसरे देशों में श्रम कार्य करने भेजना एक सही फैसला है?

नवंबर 2023 में, भारत सरकार की कौशल विकास और उद्यमिता मंत्रालय (एमएसडीई), ने इज़राइली सरकार के साथ एक त्रिवर्षीय समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं जिसके तहत वो ‘भारतीय श्रमिकों को एक विशिष्ट श्रम बाजार के क्षेत्र, विशिष्ट तौर पर निर्माण (कंस्ट्रक्शन) उद्योग में अस्थायी तौर पर रोजगार मुहैया कराएंगे।’ हमास हमले के बाद, तय किये गये इस समझौते के बाद, प्रवासी श्रमिकों के स्वीकार करने पर इस्राइल की नीति में बदलाव हुआ, जहां उन्होंने हजारों फ़लिस्तिनियों द्वारा आवेदिन किये गये वर्क या श्रम वीज़ा को एक सिरे से रद्द कर दिया है। इसके बजाय, उन्होंने श्रमिकों की कमी से जूझ रहे उद्योगों के लिए, अन्य देशों से भारतीय नागरिकों और अन्य श्रमिकों की भर्ती की, जिनमें निर्माण कार्य से जुड़ी योजनाओं को पढ़ पाने की मामूली क्षमता होना जरूरी था, इसके अलावा उन्हें शटरिंग, कारपेंट्री, सिरेमिक टाईलिंग, प्लास्टरिंग और आइरन बेंल्डिंग जैसे कामों को करने की कुशल जानकारी हो।

राष्ट्रीय कौशल विकास निगम (एनएसडीसी) और जिला श्रम अधिकारी, सामाजिक एवं पारंपरिक मीडिया प्रचार माध्यम की मदद से भर्ती की सुविधा प्रदान करते हैं। भारतीय युवाओं को इज़राइल में काम करने के लिए तैयार करने का काम काफी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे प्रेरित हो कर 18,000 भारतीय पहले ही इज़राइल में काम कर रहे हैं। इनमें लोग खासकर केयरगिवर के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। कुछ अन्य देश भी हैं जो भारत को ऐसे निवेदन भेज रहे हैं। ग्रीस ने भी अपने कृषि क्षेत्र में काम करने के 10,000 किसान श्रमिकों की मांग भारत के सामने रखी है और इटली ने अपनी म्युनिसिपल सेवाओं के लिए भारतीय मजदूरों की सेवा लेने की इच्छा जाहिर की है। विदेशों में भारतीय श्रमिकों की बढ़ती मांग के कारण भारतीय कामगारों को इन देशों में भेज पाने के लिये, सरकारी कागजी प्रक्रिया को और सरल बनाने पर ध्यान दिया जा रहा है। साथ ही इन देशों में कामगारों की कमी से निपटने के लिए भारत से स्किल्ड और सेमी-स्किल्ड मजदूरों की सेवा ले पाने के लिये कई विकसित देशों के साथ द्विपक्षीय समझौते पर सहमति बनायी जा रही है।

इस तरह के स्थापित हो रहे द्विपक्षीय समझौतों से भारतीय शहरी युवाओं को विदेशों में बेहतर श्रेणी के रोजगार के अवसर मिल रहे हैं। भारत के गांवों और कस्बों से बड़ी संख्या में युवा प्रवासी नौकरी और रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन करते हैं। इनमें से कुछ लोग ही ऐसे हैं जिन्हें फुलटाइम नौकरी मिली हुई है; बाकी सभी आंशिक तौर छोटे-मोटे काम से बंधे हुए हैं। और बाकी काफी सारे लोग ऐसे हैं जो बगैर किसी जॉब अथवा कार्य के हैं। अगर हम अपने इन युवा वर्कफोर्स को कुशल ट्रेनिंग दे पायें और उनके भीतर विदेशों में ज़िम्मेदारियां उठाने की दक्षता विकसित कर सकें तो, इस हालात से बेहतर तरीके से निपटा जा सकता है। ऐसा होने से भारतीय शहरों में बेरोजगारी की समस्या में कमी आयेगी, जनसांख्यिकी आंकड़ा भी छोटा होगा, शहर के बुनियादी ढांचों पर दबाव घटेगा और बेहतर कानून और व्यवस्था की मदद से देश में रोजगार को लेकर जो दबाव है वो कम होगा।

फैक्ट्री में काम करते श्रमिक_विदेश में नौकरी
द्विपक्षीय समझौतों से भारतीय शहरी युवाओं को विदेशों में बेहतर श्रेणी के रोजगार के अवसर मिल रहे हैं। | चित्र साभार: फ्लिकर

रोजगार की तलाश 

इस परिप्रेक्ष्य में, आवास एवं शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्रालय, द्वारा राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन के तहत लॉन्च किये गये दीनदयाल अंत्योदय योजना, कौशल विकास के लिए बेहतर अवसर का सृजन करने की प्रक्रिया में भारी भूमिका अदा कर सकती है। जिससे शहरी युवा को अंतरराष्ट्रीय समेत विभिन्न श्रम बाज़ार में नियोजित किये जाने योग्य बना सकेगी। इसके साथ ही, भारत सरकार की राष्ट्रीय कौशल योग्यता रूपरेखा (एनएसक्यूएफ), जो ज्ञान, योग्यता एवं कौशल का विश्लेषण कर योग्य पात्रों को एक जगह एकत्र करती है, वह भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है।

प्रशिक्षण महानिदेशालय (डीजीटी) ने अपने सभी कार्यक्रमों को नेश्नल स्किल्स क्वॉलिफिकेशंस फ्रेमवर्क के साथ एकरूप करने का प्रयास किया है ताकि दोनों कार्यक्रमों की ट्रेनिंग एक जैसी हो और इसके तहत अभ्यास एवं शिक्षा पाकर हम एक स्टैंडर्ड उच्च स्तरीय कामगारों का निर्माण कर सके जो हर पैमाने पर संतुलित हो। डीजीटी, राष्ट्रीय कौशल विकास निगम (एनएसडीसी) और एडोबी इंडिया ने मिलकर कौशल विकास संबंधी एक त्रिपक्षीय समझौते पर सहमति कायम की है। इन प्रयासों के बदौलत अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय स्तर पर लोग गतिशील होने लगे हैं और वे भारतीय कामगारों की योग्यता को अंतरराष्ट्रीय मानक के अनुसार बना पाने के लिए जरूरी जो अतिरिक्त बेंचमार्किंग है उसे भी पूरा कर एनएसक्यूएफ को भी संतुष्ट कर पा रहे हैं। 

इस संबंध में और बेहतर परिणाम कौशल विकास मंत्रालय जो स्कूलों और यूनिवर्सिटी में अनौपचारिक स्तरीय व्यावसायिक पाठ्यक्रम चलाने का काम करता है, उनके और मानव संसाधन विकास मंत्रालय के बीच तालमेल स्थापित कर पाया जा सकता है। ऐसे प्रयासों का और भी बेहतर परिणाम तब निकल पायेगा अगर एनएसडीसी ने और भी व्यापक स्तर पर व्यावसायिक समूहों में इन कौशल को शामिल कर लिया होता ताकि देश के शहरी युवा अंतरराष्ट्रीय स्तर तक इन क्षेत्रों में कड़ी प्रतिस्पर्धा कर पाने लायक हो जाते।

दुर्भाग्यवश, युवा भारतीयों को युद्ध क्षेत्र में धकेलने के आरोपों की वजह से देशभर में अलग-अलग स्तरों पर भारत-इज़राइल समझौते की आलोचना हो रही है। 15 जनवरी 2024 को, सेंटर फॉर इंडियन ट्रेड यूनियन (सीआईटीयू ने इन प्रयासों की तीख़ी भर्त्सना की और भारतीय श्रमिकों से इज़राइल में इन नौकरी को स्वीकार न करने की अपील की। इसकी सहयोगी, कंस्ट्रक्शन वर्कर्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (सीडब्ल्यूएफआई) ने भारतीय युवाओं का जीवन खतरे में डाले जाने को लेकर अपनी चिंता व्यक्त की है। उन्होंने इन युवाओं को मौत के जाल में धकेले जाने की चिंता व्यक्त की है। उसी तरह से, विभिन्न दलों ने, देश में बड़े पैमाने पर बढ़ रही बेरोजगारी की तरफ सरकारों का ध्यान आकर्षित किया है, जो युवाओं को रेड जोन (खतरे के निशान) के ऊपर जाने को विवश कर रहा है और इस वजह से उन्होंने काम करने के लिये इज़राइल जा रहे भारतीय युवाओं को जरूरी सुरक्षा एवं उदार इंश्योरेंस की सुविधा दिये जाने की वकालत की है।

अन्य देशों में, खासकर खाड़ी के देशों में, भारतीय कामगार मुख्यरूप से श्रम मुहैया कराते हैं, जो कि इन देशों के विकासशील बुनियादी ढांचे और सेवाओं के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण है।

पर ऐसा लगता है कि इस तरह की आलोचनाओं का देश के युवाओं पर कोई असर नहीं पड़ रहा है। रोजगार पाने की इच्छा में, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार और पंजाब के युवा जितनी नौकरी मौजूद थी, उससे कहीं अधिक संख्या में कौशल परीक्षण के लिए नियोजित भर्ती केंद्रों पर पहुंच रहे हैं। इनमें से ज्यादातर लोग बेरोजगार हैं, और जिनके पास रोजगार है भी तो वे भी प्रति महीने 10 से 20 हजार रुपये की मामूली नौकरी कर रहे हैं। उनके लिए, इज़राइल-हमास के बीच युद्ध का होना कोई खास मायने नहीं रखता है। उन्हें इसका फर्क नहीं पड़ रहा है। एक महीने में 1.37 लाख रूपये कमाने के आकर्षण के सामने, जान का खतरा भी कम पड़ रहा है। इज़राइल में रोजगार पाने के लिये कतार में खड़े कुछ आकांक्षी लोगों का कहना है कि वर्तमान में जहां वे काम करते हैं वह उनके घरों से काफी दूर है, और वे साल में सिर्फ एक बार ही अपने घर जा पाते हैं। ऐसे में उनका मानना है कि इज़राइल में नौकरी करने से उनके जीवन में काफी सकारात्मक परिवर्तन आ पाएगा।

दुनिया के कई देशों में भारत भर के कई प्रवासी समुदाय बसे हुए हैं। दिसंबर 2018 में अनुमान लगाया गया कि इनकी संख्या 32.3 मिलियन के करीब है, और 1981 के बाद से अब-तक, इसमें लगभग 20 मिलियन की बढ़त दर्ज की गई है। पश्चिमी देशों और अन्य विकसित देशों में काम करने वाले ये लोग जिनमें महिलायें और पुरुष दोनों ही शामिल हैं, वे सीढ़ी के सबसे उपरी पायदान पर बैठे हैं, ये लोग अपने लिए काफी बेहतर कर पा रहे हैं और अपनी कौशल और सेवाओं के बदौलत अपने देशों की अर्थव्यवस्था में काफी उल्लेखनीय योगदान कर रहे हैं। अन्य देशों में, खासकर खाड़ी के देशों में, भारतीय कामगार मुख्यरूप से श्रम मुहैया कराते हैं, जो कि इन देशों के विकासशील बुनियादी ढांचे और सेवाओं के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण है।

साल दर साल, विदेश में रह रहे भारतीयों द्वारा देश को मिलने वाले धन या प्रेषण (रेमिटेंस) में काफी वृद्धि होते हुए देखी गई है। वर्ष 2017–18 में अमेरिकी डॉलर में कुल विदेशी प्रेषण 69.129 मिलियन डॉलर था। साल 2021-22 आते-आते ये रेमिटेंस अमेरिकी डॉलर में 127 मिलियन तक पहुंच चुका था। विश्व बैंक के अनुमान के अनुसार, आगामी 2023 तक भारत को दुसरे देशों से प्राप्त होने वाला रेमिटेंस अमेरिकी डॉलर में 125 बिलियन तक पहुंच जाएगा। इनमें से 20 से 25 प्रतिशत धन का श्रेय, मध्य-पूर्वी खाड़ी देश में कार्यरत कुशल/अर्ध-कुशल ब्लू कॉलर श्रमिकों को जाता है। 

प्रवासी श्रमिकों के लिये ये एक बड़ी जीत है, जैसा कि कई लोगों ने बताया भी है। ये उन्हें कई तरह का फायदेमंद रोजगार उपलब्ध कराता है जो उन्हें अपने देश में मिलना मुश्किल है, और जिसकी मदद से वे अपने परिवारों की देखभाल कर सकते हैं, अपनी आर्थिक स्थिती मजबूत कर सकते हैं और अंत में गरीबी से बाहर निकल सकते हैं। विदेश में काम करते हुए, एक आम भारतीय मज़दूर कम से कम पांच साल तक वहां रहता है, जहां वे अपना कौशल बेहतर भी करते हैं, जो वापिस घर आने पर यहां नौकरी ढूंढने में उनकी मदद कर सकता है।

दाता देशों की ओर से, ये महत्वपूर्ण होगा कि वे उस देश की उन प्रक्रियाओं के सुदृढ़ीकरण में भी हिस्सा लें, जहां के मजदूर उनके देशों में आकर श्रमदान कर रहे हैं।

भारत से होने वाले श्रम आयात को कई विभिन्न दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है। देखा गया है कि, अपनी विशाल आबादी की बदौलत भारत, कई दशकों से अपने युवा पुरुष एवं महिला श्रम शक्ति के लिए उनके लायक रोजगार को ढूंढ पाने में असफल एवं संघर्षरत रहा है। इस संदर्भ में, देश के बाहर रोजगार की वैकल्पिक व्यवस्था उपलब्ध होने की स्थिति में, शहरी युवाओं को बेरोजगार अथवा अल्प-बेरोजगार रखने का कोई औचित्य नहीं है। देश के भीतर की बेरोजगारी को कम करने का यह काफी सार्थक तरीका है। बढ़ती उम्र वाले देशों में, उद्योगों को चलायमान रखने के लिये प्रवासी श्रमिक, उनके लिये जीवन रेखा बनने का काम करते हैं। जिन देशों को ये सुविधा मिलती है वे भी अपने औद्योगिक एवं आर्थिक गतिविधियों में और सुधार ला पाते हैं, जो प्रवासी श्रमिकों की उपलब्धता के बगैर संभव नहीं हो पाता।

प्रवासी मजदूरों द्वारा भेजे जाने वाले प्रेषित धन से, श्रम उपलब्ध कराने वाले देशों को भी काफी फायदा होता है। भारत में, गल्फ़ कोऑपरेशन काउंसिल (जीसीसी) देशों (बहरीन, कुवैत, ओमान, कतार, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात) जहां मुख्य तौर पर भारतीय प्रवासी मज़दूर के तौर पर अपनी सेवा दे रहे हैं, वहां से भी वर्ष 2021-2022 के दौरान 25 बिलियन अमेरिकी डॉलर की रकम भारत आ रही है। आर्थिक रूप से कमजोर एवं कम समृद्ध उत्तर प्रदेश, और बिहार जैसे राज्यों से वहां जाने वाले श्रमिकों की संख्या, देश के अन्य समृद्ध राज्यों की तुलना में काफी तेजी से बढ़ी है, और इस वजह से उनके जरिये जो आय इन राज्यों को हासिल हुई उससे इन राज्यों को एक अतिरिक्त सुरक्षा कवच उपलब्ध मिला, क्योंकि इन राज्यों के पास अपनी युवा आबादी को देने के लिये न तो उचित रोजगार के अवसर थे और न ही जरूरी आर्थिक शक्ति थी। 

समाधान 

इस पृष्ठभूमि के विपरीत, यह सही है कि नौकरी देने वाला देश पूरे विश्व को मजदूरों को पलायन की सुविधा दे रहा है। जिस प्रकार से भारत के पश्चिमी प्रवासियों की गुणवत्ता एवं उनकी भूमिका को वैश्विक स्तर पर मान्यता प्राप्त हुई है, ठीक उसी तरह से कामगार के कामों के लिए, भारत से विदेश यात्रा कर रहे प्रशिक्षित, कुशल श्रमिकों की भी इन देशों के निर्माण में अपने प्रतिबद्ध एवं शांतिप्रिय योगदान के लिए सराहना की जाती है। इसी संदर्भ में, पश्चिमी देश भी अब भारतीय श्रम को विकल्प के तौर पर अपनाने के लिये तैयार होते दिख रहे हैं।

दाता देशों की ओर से, ये महत्वपूर्ण होगा कि वे उस देश की उन प्रक्रियाओं के सुदृढ़ीकरण में भी हिस्सा लें, जहां के मजदूर उनके देशों में आकर श्रमदान कर रहे हैं। ये जरूरी है कि इन मजदूरों के देशों में उनके लिये सुविधा हो। इसके लिये इन मजदूरों के कल्याण को लागू करने एवं उसे प्राथमिकता देने के लिये समुचित नीतियां और कानून लाया जाये। इसके लिये प्रवासी श्रमिकों के कल्याण एवं उनके अधिकारों का संज्ञान लेने वाली सामंजस्यपूर्ण नीतियां एवं कानून बनाए जाने पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। इसके लिये भारत को चाहिए कि प्रवासी श्रमिकों से संबंधित सवालों के तत्काल जवाब के लिए देश भर से होने वाले मजदूरों के पलायन पर विस्तृत आंकड़े तैयार किए जायें।

यह लेख मूलरूप से ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन हिन्दी पर प्रकाशित हुआ था।

महुआ: जलवायु संकट में भी बचा रह गया एक पारंपरिक भोजन

बंगाल में 1770 के अकाल में महुआ ने कई लोगों की जान बचायी थी। एक रिकॉर्ड के अनुसार, 1873-74 में बिहार के खाद्य संकट में भी ये महुआ ही था जिसने यहां के बहुत लोगों को जीवित रखा था। पहले गांव के लोग 3-4 महीने, एक समय महुआ खाकर रहते थे। इसमें पौष्टिकता भरपूर होती है। हमें लगता है कि यह सब अब पहले की बात है। महुआ का महपिट्ठा, लट्टा, महरोटी, खीर, भूंजा, मड़ुआ का लड्डू, नमकीन बनता है। ज़्यादातर लोग कहते हैं कि बचपन में उन्होंने इसे खाया है। लेकिन अभी भी ये जीवित हैं।

इस साल जून में, गया ज़िला के बाराचट्टी थाना के कोहबरी गांव में सहोदय ट्रस्ट के प्रांगण में, महुआ और मड़ुआ पर ग्रामीण लोगों के साथ एक प्रशिक्षण कार्यक्रम रखा गया, जिसमें डोभी प्रखंड के नक्तैया गांव की दो ग्रामीण महिलाओं – सुमंती देवी और कौशल्या देवी ने सहोदय आकर महुआ से कई तरह के स्थानीय व्यंजन पारंपरिक तरीके से बनाए और हम लोगों को सिखाये। उन्होंने महुआ का महपिट्ठा, महरोटी, लट्टा या लड्डू, खीर, और भूंजा बनाए। महपिट्ठा, और महरोटी, महुआ और मड़ुआ को आटा के साथ मिलाकर, दोनों ओर से पलास के पत्ते चिपकाकर, पानी के भाप से सिंझाये (पकाए)। उसी तरह महुआ को मिट्टी के चूल्हा पर मिट्टी के खपड़ी में सूखा भूनकर, और भूंजा तीसी को मिलाकर और कूटकर, लट्टा और लड्डू बनाये। उसी तरह महुआ को भूंजकर उसमें लहसुन और मिर्च मिलाकर भूंजा बनाया। दूध में महुआ को सिंझाकर लाजवाब खीर भी बनायी। हम सब लोगों और सहोदय के बच्चों ने भी इसे बनाने की प्रक्रिया सीखी। 

छतों पर सूखता महुआ_पारंपरिक भोजन
प्रतीकात्मक तस्वीर | चित्र साभार: विकीमीडिया कॉमन्स

सहोदय की रेखा ने ग्रामीणों को मड़ुआ के आटा से लड्डू और नमकीन बनाना सिखाया। लड्डू पहले तीसी या घी में भूंजकर, गुड़ के पाग में बनाया जाता है। स्वाद के लिए मूंगफली का दाना मिला सकते हैं। नमकीन भी मड़ुआ के आटे को गूंथदकर छोटे-छोटे टुकड़े निमकी (नमकपारे) के आकार का काटकर, सेंधा नमक मिलाकर, तीसी के तेल में फ्राई किया जाता है। इस तरह आप एक पारंपरिक, पौष्टिक, और जैविक खाद्य पदार्थ को न केवल जीवित रख रहे हैं बल्कि इसका सेवन करके अपने स्वास्थ्य को संरक्षित और मजबूत भी कर रहे हैं और कई बीमारियों से अपने शरीर को बचा रहे हैं। 

जलवायु परिवर्तन और प्रकृति के मूल तत्वों के प्रदूषण के कारण मौसम और तापमान में अनुपातहीन बदलाव ने पूरी पृथ्वी पर जीवन को खतरे में डाल दिया है। कई जीव-जंतु तो विलुप्त हो चुके हैं। इसका असर हमारे स्वास्थ्य, व्यवसाय और खेती पर साफ दिखाई देता है। इसलिए हमें अपने जंगलों और स्थानीय जैव विविधता को बचाने के साथ-साथ इन्हें समृद्ध करने की हर कोशिश करनी चाहिए। हमें खेती के पुराने पारंपरिक जैविक तरीके अपनाने होंगे। प्राकृतिक स्थानीय फल-सब्जियों और औषधियों को फिर से अपने जीवन और समुदाय से जोड़ना होगा। रासायनिक या कृत्रिम रूप से संसाधित खाद्य पदार्थ अपनी थाली से हटाने होंगे। इन सब में हमारे पुराने पेड़ों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होगी। महुआ ऐसा ही एक पेड़ है जिससे हमारे लोग पहले लगभग 2-3 महीने तक प्राकृतिक, जैविक और पौष्टिक खाद्य पदार्थ फूल के रूप में सेवन करते थे, लेकिन अब भूलते जा रहे हैं या लगभग भूल ही गए हैं। इसके बीज के तेल से सब्ज़ी और अन्य व्यंजन बनाते थे। यह तेल गर्मी में लू से बचने में भी काम आता है। बहुत ही कम लोग अभी भी इस ज्ञान, अनुभव और कौशल का उपयोग करते हैं।

महुआ की दो प्रजातियां हैं। एक जो ज़्यादा मीठा होता है, उसको चुनकर और धूप में सुखाकर रखते हैं। व्यंजन बनाने से पहले उसको अंदर से साफ़ करते हैं। इसके फूल अप्रैल महीने में आना शुरू होते हैं और मई के पहले सप्ताह तक सारे फूल झड़ जाते हैं और पेड़ में नई पत्तियों के साथ फल आते हैं। ये फल जून में तैयार होते हैं और झड़ते हैं। इनके फल से बीज निकालकर उससे तेल निकाला जाता है। बीज को स्थानीय भाषा में डोरा कहते हैं। 

इस साल, पिछले साल की तुलना में फूल कम आये हैं। शायद पेड़-पौधे भी किसी साल अपने आप को आराम देते हैं या फिर मौसम में परिवर्तन का असर भी एक वजह हो सकता है। लेकिन सभी पेड़-पौधों की उत्पादन क्षमता पहले से घटी है, ऐसा यहां के स्थानीय किसान सोचते हैं। महुए के पेड़ भी पहले से घटे हैं और अब बहुत कम लोग इसे लगाते हैं क्योंकि ये फल-फूल देने लायक होने में 10-15 वर्ष का समय लेते हैं। महुआ के उपयोग और पेड़ों में कमी, पर्यावरण और जैव विविधता के लिए सकारात्मक नहीं है।

जेठ के महीने में एक त्यौहार आता है जिसका नाम सरहुल है जिसमें महुए के पेड़ की पूजा, महुए से ही बने व्यंजन से होती है। ये पर्यावरण-हितैषी संस्कृति भी अब विलुप्त होती जा रही है। मड़ुआ, मिलेट के जैसे महुआ से भी हमारे समाज, समुदाय, प्रकृति और स्वस्थ्य का गहरा रिश्ता रहा है जो कमजोर हो गया है। हम लोग इससे बने व्यंजन को अपनी थाली में शामिल कर न केवल अपने स्वास्थ्य को ठीक कर रहे हैं बल्कि अपने स्थानीय जैव विविधता पर निर्भर न जाने कितने जीव जंतुओं, और आब-ओ-हवा को जीवित, सुंदर और शुद्ध रखने में सहयोग कर रहे हैं। 

साथ ही, इससे हमारी आर्थिक व्यवस्था भी सुदृढ़ होगी क्योंकि हम लोग अपने घर की कई जरूरतों, जैसे खाना, तेल, लकड़ी, जानवरों के लिए चारा के लिए बाजार पर निर्भरता को कम करेंगे। महुए से कई जैविक खाद्य पदार्थ और व्यंजन बनाकर स्थानीय व्यवसाय करके, इसे एक टिकाऊ जीविका का साधन भी बना सकते हैं। इससे मानव और प्रकृति के अन्य जीवित तत्वों के बीच के सम्बन्ध समृद्ध होंगे और जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने में मददगार साबित होंगे।

यह लेख मूलरूप से युवानिया पर प्रकाशित हुआ था।

देश में कुपोषण की स्थिति भयावह है, पर कितनी?

देश में जब विकसित भारत की संकल्पना को मूर्त रूप दिया जा रहा था, उस समय यह महसूस किया गया होगा कि स्वस्थ भारत के बिना विकसित भारत बेमानी है। यही कारण है कि आज विकसित भारत के नारे से पहले स्वस्थ भारत का नारा दिया जाता है। दरअसल यह स्वस्थ भारत का नारा देश के नौनिहालों को केंद्र में रख कर गढ़ा जाता है क्योंकि जब बच्चे स्वस्थ होंगे तो हम समृद्ध देश की संकल्पना को साकार कर पाने में सक्षम होंगे। लेकिन प्रश्न उठता है कि क्या वास्तव में भारत के बच्चे विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चे कुपोषण मुक्त और स्वस्थ हैं? हालांकि सरकारों की ओर जारी आंकड़ों में कुपोषण के विरुद्ध जबरदस्त जंग दर्शाई जाती है, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि अभी भी हमारे देश के ग्रामीण क्षेत्रों में गर्भवती महिलाएं और पांच साल तक की उम्र के अधिकतर बच्चे कुपोषण मुक्त नहीं हुए हैं।

वर्ष 2022 में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के पांचवें दौर के दूसरे चरण की जारी रिपोर्ट के अनुसार पहले चरण की तुलना में मामूली सुधार हुआ है लेकिन अभी भी इस विषय पर गंभीरता से काम करने की आवश्यकता है। भारत में अभी भी प्रतिवर्ष केवल कुपोषण से ही लाखों बच्चों की मौत हो जाती है। सर्वेक्षण के अनुसार करीब 32 प्रतिशत से अधिक बच्चे कुपोषण के कारण अल्प वजन के शिकार हैं। जबकि 35.5 प्रतिशत बच्चे कुपोषण की वजह से अपनी आयु से छोटे कद के प्रतीत होते हैं। दरअसल बच्चों में कुपोषण की यह स्थिति मां के गर्भ से ही शुरू हो जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकतर महिलाएं एनीमिया की शिकार पाई गई है। जिसका असर उनके होने वाले बच्चे की सेहत पर नजर आता है। रिपोर्ट के अनुसार 15 से 49 साल की आयु वर्ग की महिलाओं में कुपोषण का स्तर 18.7 प्रतिशत मापा गया है।

आंगनबाड़ी में बच्चे_कुपोषण
प्रतीकात्मक तस्वीर | चित्र साभार: फ्लिकर

देश के जिन ग्रामीण क्षेत्रों में कुपोषण की स्थिति चिंताजनक देखी गई है उसमें राजस्थान भी आता है। इन ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक रूप से बेहद कमजोर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों में यह स्थिति और भी अधिक गंभीर है। राज्य के अजमेर जिला स्थित नाचनबाड़ी गांव इसका एक उदाहरण है। जिला के घूघरा पंचायत स्थित इस गांव में अनुसूचित जनजाति कालबेलिया समुदाय की बहुलता हैं। पंचायत में दर्ज आंकड़ों के अनुसार गांव में लगभग 500 घर हैं। गांव के अधिकतर पुरुष और महिलाएं स्थानीय चूना भट्टा पर दैनिक मज़दूर के रूप में काम करते हैं। जहां दिन भर जी तोड़ मेहनत के बाद भी उन्हें इतनी ही मज़दूरी मिलती है जिससे वह अपने परिवार का गुज़ारा कर सकें। यही कारण है कि गांव के कई बुज़ुर्ग पुरुष और महिलाएं आसपास के गांवों से भिक्षा मांगकर अपना गुजारा करते है। समुदाय में किसी के पास भी खेती के लिए अपनी जमीन नहीं है। खानाबदोश जीवन गुजारने के कारण इस समुदाय का पहले कोई स्थाई ठिकाना नहीं हुआ करता था। हालांकि समय बदलने के साथ अब यह समुदाय कुछ जगहों पर पीढ़ी दर पीढ़ी स्थाई रूप से निवास करने लगा है। लेकिन इनमें से किसी के पास ज़मीन का अपना पट्टा नहीं है।

वहीं शिक्षा की बात करें तो इस गांव में इसका प्रतिशत बेहद कम दर्ज किया गया है। यह इस बात से पता चलता है कि गांव में कोई भी पांचवीं से अधिक पढ़ा नहीं है। जागरूकता के अभाव के कारण युवा पीढ़ी भी शिक्षा की महत्ता से अनजान है। गरीबी और जागरूकता की कमी के कारण गांव में कुपोषण ने भी अपने पांव पसार रखे हैं। इस संबंध में गांव की 28 वर्षीय जमुना बावरिया बताती हैं कि गांव के लगभग सभी बच्चे शारीरिक रूप से बेहद कमज़ोर हैं। गरीबी के कारण उन्हें खाने में कभी भी पौष्टिक आहार प्राप्त नहीं हो पाता है। घर में दूध केवल चाय बनाने के लिए आता है। वे बताती हैं कि उनके पति घर में ही कागज़ का पैकेट तैयार करने का काम करते हैं। जिससे बहुत कम आमदनी हो पाती है। ऐसे में वह बच्चों के लिए पौष्टिक आहार का इंतजाम कहां से कर सकती हैं? वे बताती हैं कि गांव के अधिकतर बच्चे जन्म से ही कुपोषण का शिकार होते हैं क्योंकि घर की आमदनी कम होने के कारण महिलाओं को गर्भावस्था में संपूर्ण पोषण उपलब्ध नहीं हो पाता है। जिसका असर जन्म के बाद बच्चों में भी नज़र आता है। वे स्वयं एनीमिया की शिकार हैं।

वहीं 35 वर्षीय अनिल गमेती बताते हैं कि वे गांव के बाहर चूना भट्टा पर दैनिक मज़दूर के रूप में काम करते हैं। जहां उनके साथ उनकी पत्नी भी काम करती है। लेकिन गर्भावस्था के कारण अब वह काम पर नहीं जाती है क्योंकि उसे हर समय चक्कर आते हैं। डॉक्टर ने शरीर में पोषण और खून की कमी बताई है। अनिल कहते हैं कि पहले मैं और मेरी पत्नी मिलकर काम करते थे तो घर की आमदनी अच्छी चलती थी। लेकिन गर्भ और शारीरिक कमज़ोरी के कारण अब वह काम पर नहीं जा पा रही है। ऐसे में घर की आमदनी भी कम हो गई है। अब उन्हें चिंता है कि वह पत्नी को कैसे पौष्टिक भोजन खिला पाएंगे? अनिल कहते हैं कि डॉक्टर ने दवाईयों के साथ साथ विटामिन और आयरन की टैबलेट भी लिख दी थी जो अस्पताल में मुफ्त उपलब्ध भी हो गई, लेकिन साथ ही डॉक्टर ने पत्नी को प्रतिदिन पौष्टिक भोजन भी खिलाने को कहा है जो उन जैसे गरीबों के लिए उपलब्ध करना बहुत मुश्किल है। वे कहते हैं कि इसके अच्छे खाने की व्यवस्था करने के लिए मुझे साहूकारों से कर्ज लेना पड़ सकता है। जिसे चुकाने के लिए पीढ़ियां गुजर जाती हैं।

ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक रूप से बेहद कमजोर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों में स्थिति और भी गंभीर है।

गांव की 38 वर्षीय कंचन देवी के पति राजमिस्त्री का काम करते हैं। वे बताती हैं कि उनके तीन बच्चे हैं। दो लड़कियां हैं जो प्राथमिक विद्यालय में पढ़ती हैं जबकि बेटा गांव के आंगनबाड़ी में जाता है। देखने में उनका बेटा काफी कमज़ोर लग रहा था। वे बताती हैं कि पति की आमदनी बहुत कम है। ऐसे में बच्चों के लिए पौष्टिक खाने की व्यवस्था करना मुमकिन नहीं है। वह आंगनबाड़ी जाता है जहां खाने के अच्छे और पौष्टिक आहार उपलब्ध होते हैं जिसके कारण उसके अंदर इतनी भी ताकत है। कंचन कहती हैं कि गांव में गरीबी के कारण लगभग सभी बच्चे ऐसे ही कमजोर नजर आते हैं। घर की आमदनी अच्छी नहीं होने के कारण परिवार न तो बच्चों का और न ही गर्भवती महिलाओं को पौष्टिक भोजन उपलब्ध करा पाता है। एक अन्य महिला संगीता देवी कहती हैं कि आंगनबाड़ी केंद्र के कारण गांव के बच्चों और गर्भवती महिलाओं को कुछ हद तक पौष्टिक भोजन उपलब्ध हो जाता है। सरकार ने आंगनबाड़ी केंद्र संचालित कर गांव के बच्चों को कमज़ोर होने से बचा लिया है।

वास्तव में देश के ग्रामीण क्षेत्रों में कुपोषण की यह स्थिति भयावह है। जिसे दूर करने के लिए एक ऐसी योजना चलाने की ज़रूरत है जिससे गर्भवती महिलाएं और बच्चों को सीधा लाभ पहुंचे। इस कड़ी में आंगनबाड़ी केंद्र की कार्यकर्त्ता और सहायिका सराहनीय भूमिका अवश्य निभा रही हैं। लेकिन इस बात पर भी गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है कि ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चों को भूख और कुपोषण से मुक्त बनाने के लिए 1975 में शुरू किया गया आंगनबाड़ी अपनी स्थापना के लगभग पांच दशक बाद भी अब तक शत-प्रतिशत अपने लक्ष्य को प्राप्त क्यों नहीं कर सका है? 

यह लेख मूलरूप से चरखा फीचर्स पर प्रकाशित हुआ था।

शहर और गांव की पहचान क्या है और इसे कैसे तय किया जाना चाहिए?

गौतम भान, इंडियन इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन सेटलमेंट (आईआईएचएस), बेंगलूरू से जुड़े हैं। वर्तमान में वे एसोसिएट डीन एवं एकेडमिक्स एंड रिसर्च सीनियर लीड के बतौर कार्यरत हैं। वे एलजीबीटीक्यू समुदायों के अधिकारों के लिए भी आवाज़ उठाते रहते हैं। गौतम के प्रमुख शोध कार्यों में दिल्ली में शहरी गरीबी, असमानता, सामाजिक सुरक्षा और आवास पर केंद्रित काम बहुत ही सराहनीय रहा है। फिलहाल, उन्होंने किफायती और पर्याप्त आवास तक लोगों की पहुंच के सवालों पर अपना शोध जारी रखा हुआ है।

गौतम की चर्चित प्रकाशित किताबों में प्रमुख हैं – ‘इन द पब्लिक इंटरेस्ट: एविक्शन्स, सिटिज़नशिप एंड इनइक्वलिटी इन कंटेम्पररी दिल्ली’ (ओरिएंट ब्लैकस्वान, 2017) और बतौर सह-संपादक ‘क्योंकि मेरे पास एक आवाज़ है: भारत में क्वीयर पॉलिटिक्स’ (योडा प्रेस, 2006) शामिल हैं।

द थर्ड आई के शहर संस्करण में गौतम भान के साथ हमने सरकारी नीतियों के बरअक्स वास्तविकता के बीच शहरों के बनने की प्रक्रिया, शहरी गरीबों की पहचान के सवाल, शहरी अध्ययन एवं कोविड महामारी की सीखें और भारत में शहरी अध्ययन शिक्षा के स्वरूप पर विस्तार से बातचीत की है। पेश है इस बातचीत का अंश:

शहर की पहचान कैसे होती है? हम किसे शहर कहते हैं?

इस सवाल का जवाब अगर रूपक में दूं तो भारतीय शहरीकरण को इस एक दृश्य से समझा जा सकता है – एक घर जिसके चारों कोनों के ऊपर सरिया की छड़ें एक ठोस स्तंभ से चिपकी हुई दिखाई देती हैं, और जिसकी बिना पलस्तर की गई लाल ईंट की दीवार भविष्य की ओर देख रही होती है। लगभग आधी दिल्ली ऐसी ही है। क्योंकि घर अभी बना नहीं है, बनता जा रहा है। ज़्यादातर लोग घर में रहते हुए इसे बनाते हैं। और यही हमारा शहरीकरण भी है। आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ते जाना। इसलिए हमारे शहरीकरण के उपाय एवं प्रयासों को भी इसी धीमी चाल की वृद्धि से परिवर्तन लाना होगा।

वैसे, हमारे यहां पर शहर की एक विचित्र तकनीकी परिभाषा है। भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जहां रोज़गार से शहर को परिभाषित किया जाता है – 400 वर्ग किलोमीटर के घनत्व में रहने वाली 5000 जनसंख्या जिनमें से 75% पुरुष गैर-कृषि रोज़गार में हों – इस औपचारिक भाषा में भारत में शहर को परिभाषित किया जाता है।

अब, मैं आपको बताता हूं,

यदि आप इस रोज़गार श्रेणी को हटा दें, तो भारत पहले से ही 60% शहरी क्षेत्र है। ये जो हम कहते रहते हैं ना, “भारत गांव प्रधान देश है। हम केवल 35% शहरी हैं।” नहीं, अब ऐसा नहीं है। और ये कैसी ऊटपटांग सी परिभाषा है जो पुरुषों के रोज़गार के आधार पर शहरों की श्रेणी तय करती है। यह बहुत ही उलझाई हुई परिभाषा है।

भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जहां रोज़गार से शहर को परिभाषित किया जाता है।

लेकिन ऐसा क्यों है? क्योंकि, मूलरूप से, हम शहर को लेकर कभी सहज नहीं हो पाए हैं। आप ट्रेन में बैठे हैं। आपसे किसी ने पूछा, “तुम हो कहां से?” आप कहेंगे, “मैं दिल्ली से हूं।” वे फट से दूसरा सवाल करेंगे, “नहीं, नहीं, असल में कहां से हो, घर कहां है तुम्हारा?” क्योंकि हमारे यहां शहरों से कोई होता नहीं है। यहां लोग सिर्फ आते हैं।

हम (70-80 के दौर में पैदा हुई) वह पहली पीढ़ी हैं जिसने शहर में जन्म लिया है और जिसके ज़ेहन में फौरन गांव नहीं आता। लेकिन, अभी भी इसे मानने में वक्त लगेगा कि लोग शहर के भी होते हैं। शायद एक और पीढ़ी बीत जाने के बाद शहर को लेकर यह सोच पुख्ता हो सके।

अपने फील्ड वर्क के दौरान जब मैं दिल्ली के बवाना औऱ पुश्ता में उन लोगों के साथ काम कर रहा था, जो दिल्ली के अलग-अलग इलाकों से बेदखल कर, वहां पुनर्वासित किए जा रहे थे, तो एक बात मुझे बिलकुल समझ नहीं आई। वे सुलभ शौचालय में शौच का इस्तेमाल करने के लिए रोज़ाना तीन रुपए दे रहे थे। उनका इलाका शहर का एकदम बाहरी इलाका था। उनके सामने सरसों के खेत ही खेत थे। और वे रोज़ शौच के लिए पैसे दे रहे थे।

काम करती हुई महिला श्रमिक_शहरी अध्ययन
ये कैसी ऊटपटांग सी परिभाषा है जो पुरुषों के रोज़गार के आधार पर शहरों की श्रेणी तय करती है। | चित्र साभार: यशस चंद्रा

हैरानी के साथ उनसे पूछा, “आप शौच करने के लिए हर बार तीन रुपए क्यों देते हैं? आप तो वैसे ही एकदम खुले में हैं।” जवाब देनेवालों में वे पुरूष भी शामिल थे जो दिल्ली के बड़े-बड़े इलाकों में अपने को हल्का करने के लिए दीवरों की तरफ खड़े होकर बेझिझक खुले में शौच करते हैं। उन्होंने मुझसे कहा, “हम गांववाले नहीं हैं, शहरी हैं।” पेशाब करने के लिए सुलभ शौचालय को तीन रुपए देकर हम शहरी कहलाते हैं। मैंने ऐसा कुछ पहली बार सुना था।

शहरी और गांववाला होने के इस अंतर को आप कैसे देखते हैं? शहरी गरीब और गांव के गरीब में क्या अंतर है?

शहर के मुकाबले आपका गांव में होना कोई सवालिया निशान नहीं है। शहर में लाखों सवाल हैं – तुम बस्ती में क्यों रहते हो? तुमने इस ज़मीन पर क्यों कब्ज़ा कर रखा है? तुमने यहां झुग्गी कैसे बना ली? इस सवालों के पीछे सरकार यही कहना चाहती है कि तुम यहां कैसे अधिकार मांग सकते हो, अधिकार चाहिए तो अपने गांव जाकर लो। गांव में भूमि सुधार की कम से कम बात तो हो सकती है लेकिन शहर में कोई भूमि सुधार नहीं होता। अब जाकर कहीं-कहीं इसकी शुरुआत हो रही है जैसे उड़ीसा में किया गया है।

अगर आप शहर में गरीब हैं तो आपकी कोई अलग से शिनाख्त, अहमियत या आर्थिक पहचान नहीं होती है। वहीं, आप गांव में गरीब हो सकते हैं और वहां गरीब के रूप में आपकी पहचान स्वीकार्य भी होती है। वहां आप गरीब के रूप में प्रतिष्ठित होते हैं। हमारे यहां लोगों के कल्याण से जुड़ी सारी योजनाएं गांव के लिए होती हैं, जैसे राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार योजना – नरेगा, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य योजना, ग्रामीण सोलर योजना इस तरह की सारी योजनाएं ये सब गांव में सुधार के लिए हैं। ये योजनाएं शहरी गरीब के लिए नहीं है। इन योजनाओं को शहरी नहीं बनाया गया। मतलब गांवों को सारा कल्याण स्कीम दे दो और शहरों को उत्पादन करने दो।

दूसरा गांव को लेकर जो आदर्शवादिता है, रूमानियत है जिसकी वजह से लोग कहते हैं कि ‘असल भारत तो गांव में ही बसता है’, दरअसल, ये दोनों ही बातें गावों और गांववालों के प्रति एक शुद्धता, उन्हें एक खास दर्जेबंदी में रखती हैं। उसके विपरीत शहरी गरीब को एक चालाक की नज़र से देखा जाएगा। उसके प्रति हमेशा यही व्यवहार होगा कि ये कुछ हड़पने के लिए यहां है।

शहरी अस्थाई बस्तियां_शहरी अध्ययन
शहरी गरीब के पास अपना कोई इलाका नहीं, कोई पहचान नहीं, उसे नागरिक होने का भी अधिकार नहीं है। | चित्र साभार: शिवम रस्तोगी

शहर का यहां के गरीबों के प्रति कुछ ऐसा ही रवैया है कि जब तक वे काम करते रहें तब तक वे बहुत अच्छे हैं लेकिन, जैसे ही वे यहां अपना अधिकार मांगने लगें तो वे पराए हो जाते हैं। काम करो, अधिकार की बात मत करो। अपनी सुविधानुसार जब उनका इस्तेमाल करना हो तो लो बिजली ले लो, लेकिन सैनिटेशन के लिए ड्रेन हम नहीं लगाएंगे, पहले कहेंगे बस्ती यहां तक बढ़ा लो, ताकि बाद में उसे तोड़ने का हक भी हमारे पास होगा। 20 साल के लिए बस्ती बनाने के लिए बोल दिया लेकिन पट्टा 10 साल का ही देंगे। शहर अपनी शर्तों पर लगातार उनसे मोल-भाव करता रहता है ताकि कभी वे स्थाई-पन महसूस ही न कर सकें।

 इसका असल चेहरा महामारी में एकदम खुलकर सामने आ गया। यही है शहरी गरीब होने का मतलब। आपका कोई अस्तित्व ही नहीं होता। इसका लब्बोलुबाब ये है कि आप हर तरह की सोच से बाहर हैं। सरकार और सरकारी योजनाओं की सोच से बाहर हैं। आप उस डेटा से भी बाहर हैं जहां एकाउंट में कैश ट्रांसफर किया जाता है। शहरी गरीब के पास अपना कोई इलाका नहीं, कोई पहचान नहीं, उसे नागरिक होने का भी अधिकार नहीं है। इस सबके लिए हमने इतनी ज़्यादा लड़ाई लड़ी है। सरकार के लिए ज़मीन महत्त्वपूर्ण है, वो बस्ती में रहने वाले बाशिंदे नहीं देखती। कोर्ट अतिक्रमण की बात करती है। उन्हें ज़मीन और ज़मीन पर अधिकार दिखाई देता है, लोग दिखाई नहीं देते।

मेरे ख्याल से परेशानी का शुरुआती सबब यही है – शहर में एक गरीब नागरिक के रूप में रहना – जिसका शहर की संरचना में कोई अस्तित्व ही नहीं है। इक्का-दुक्का फैक्ट्रियों में काम करने वाले मज़दूरों या ऑटो चलाने वालों की आवाज़ सुनने को मिल जाएगी। लेकिन, सच तो ये है कि ये फैक्ट्री मज़दूर या ऑटो चलाने वाले हमारे शहरीकरण की पूरी तस्वीर नहीं हैं। एक तो ये सारी आवाज़ें पुरुषों की हैं, उसके ऊपर ये एक बहुत छोटा सा हिस्सा हैं।

हम जानते हैं, हमने पढ़ा है कि शहरों का निर्माण औद्योगिक क्रांति के सिद्धांतों और उसके साथ हुए औद्योगिक शहरीकरण के सिद्धांत पर आधारित है। लेकिन, हमारे यहां औद्योगिक शहरीकरण नहीं है! हमारे शहरी क्षेत्र किसी भी तरह के उद्योग, उद्योग से जुड़े उत्पादन के बिना ही विस्तार पा रहे हैं। वित्तीयकरण के दौर में जहां पूंजी पर अधिकार ही सबकुछ है वहां शहरीकरण किस तरह हो रहा है? अब जिसके पास पूंजी है वही अपनी मनमानी करेगा ऐसे में अव्यवस्थित अर्थव्यवस्था (इंफॉर्मल इकॉनमी) के ज़रिए ही काम होगा – आप डिलीवरी ब्वॉय ही बनाएंगे, ज़िंदगी भर ज़ोमाटो, स्विगी के लिए खाना और सामान पहुंचाने का काम ही करवाएंगे, कंस्ट्रक्शन की जगहों पर काम करवाएंगें। क्योंकि आपने शहर में उनके लिए कोई और रास्ता ही नहीं बनाया है।

न सिर्फ शहर की परिभाषा में अंतर है बल्कि यहां रहने वाले लोगों की पहचान में भी विभेद है। ऐसे में ‘शहरी अध्ययन’ की कक्षा में आप स्टूडेंट्स को शहर की परिभाषा कैसे समझाते हैं? एक शिक्षक होने के नाते शहर को समझने के क्या रास्ते हो सकते हैं?

वास्तव में अपनी कक्षा के शुरुआती सेमेस्टर में हम इन्हीं सवालों से क्लासरूम में बात की शुरुआत करते हैं। पहले कुछ हफ्ते स्टूडेंट्स को यही करना होता है कि वे सवाल करें कि कौन शहरी है, शहर क्या है? हम बच्चों को प्रोत्साहित करते हैं कि वे सवाल पर सवाल करते रहें कि शहर की पहचान कैसे होती है- क्या शहर सामाजिक संबंधों की जगह है, क्या ये एक ऐसी जगह है जहां लोकतंत्र, आधुनिकता और महानगरीय जीवन को लेकर एक निश्चित धारणाएं हैं?

कक्षा में इन सवालों में सबसे खास होता है जाति के सवाल पर बात करना। उनके मन में जो धारणा है कि शहर वो जगह है जहां जाति का कोई महत्त्व नहीं होता, शहर आकर जाति गायब हो जाती है या जहां कोई जाति नहीं पूछता। इसपर बात करना मज़ेदार होता है। खैर, ये सच तो नहीं है लेकिन, उनकी बातें सवाल तो खड़ा करती हैं कि क्या सच में ऐसा है कि शहर में जाति की जकड उतनी गहरी नहीं होती जितनी गांवों में उसकी पकड़ मज़बूत होती है?

भारत में, सरकारी श्रेणियों में गांव और शहर साफतौर पर विभाजित हैं। 

अब हम क्लास में जाति के सवाल पर बात कर रहे हैं। सवाल है कि आप गांव और शहर में जाति आधारित अलगाव का आकलन कैसे करते हैं? इसके लिए किस तरह का डेटा आपके पास है? यहां के स्टुडेंट्स को डेटा विश्लेषण के लिए आधुनिक जीआईएस तकनीक के गुर भी सिखाए जाते हैं। मैं उनसे कहता हूं कि अपनी जीआईएस क्लास में जाइए और शहर के भीतर जाति संरचना का एक नक्शा बना लाइए। वो जाते हैं और वापस आकर कहते हैं कि हम नहीं बना सकते। ऐसा क्यों? तो वे कहते हैं कि इसके लिए कोई डेटा ही नहीं है। इसपर मेरा सवाल यही होता है तो बताओ कि शहर की जातिगत संरचना पर कोई डेटा क्यों नहीं है?

दरअसल, उन्हें यही बताना है कि सवाल पूछो।

सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना की थी न, तो उसका डेटा कहां हैं? अगर, सार्वजनिक नहीं है तो, क्यों सार्वजनिक नहीं है? अब यही सवाल गवर्नेंस की कक्षा में जाकर पूछो कि शहर की जाति जनगणना सार्वजनिक क्यों नहीं है? क्यों हमें ये नहीं पता होना चाहिए कि हमारे यहां किस जाति के कितने लोग हैं, वे क्या करते हैं?

शहरी विकास और श्रमिक_शहरी अध्ययन
भारत में, सरकारी श्रेणियों में गांव और शहर साफतौर पर विभाजित हैं। | चित्र साभार: शिवम रस्तोगी

अब यही सवाल इकॉनोमिक्स की क्लास में लेकर जाओ। वहां वे सवाल करते हैं कि शहर के भूगोल को आर्थिक आधार पर देखने का क्या मतलब होता है? अर्थशास्त्रियों के लिए शहर वो जगह है जहां पूंजी है। शहरी अर्थशास्त्रियों के लिए शहर ज़मीन और उस पर काम करने वाले मजदूरों के बीच की सांठगांठ है जिसे वे अपनी भाषा में समूह अर्थशास्त्र कहते हैं। कक्षा में स्टूडेंट्स को ये सब बताते हुए हम कहते हैं कि “इस बात को समझने की कोशिश करो कि महानगर से जुड़ा एनसीआर आर्थिक क्षेत्र क्यों है, बावजूद वहां नगरपालिका का कोई हस्तक्षेप नहीं होता?” लेकिन फिर यह भी पूछें कि अनौपचारिक अर्थव्यवस्था के भीतर समूह अर्थशास्त्र क्या है? क्या यह ठीक उसी तरह काम करता है जिस तरह इसमें बड़ी कंपनियां और पूंजी के सिद्धांत काम करते हैं?

गवर्नेंस की क्लास में शहर एक सरकारी श्रेणी हो जाता है। वैधानिक शहर या जनगणना का शहर क्या होता है? नगर पंचायत क्या है? क्या ये गांव के लिए है या ये शहर के लिए ही है सिर्फ? इन श्रेणियों को देखकर क्या समझ आता है? इस पर स्टूडेंट्स कहते हैं, “ये सब अलग-अलग नहीं है, ये तो सब एक विस्तार हैं जो बनते-बदलते रहते है, ये सब एक-दूसरे में मिले हुए हैं।” यहां मेरा जवाब होता है, “नहीं, बिलकुल नहीं। नरेगा सिर्फ गांवों में मिलता है। ये विस्तार वाला नज़रिया सुनने में अच्छा लग सकता है लेकिन सरकारी कागज़ों में नरेगा उन्हीं जगहों पर मिलता है जो सरकारी श्रेणी के अनुसार गांव कहलाते हैं।”

एक शहरी अध्ययन से जुड़े शिक्षक होने के नाते मुझे ये बात सुनने में बहुत सुंदर लग सकती है कि सब एक ही हैं, गांव और शहर अलग-अलग थोड़े हैं वे तो एक ही नदी की धारा हैं। लेकिन, ये सच नहीं है। भारत में, सरकारी श्रेणियों में गांव और शहर साफतौर पर विभाजित हैं। आपको ये मानना ही होगा और इसे इसी तरह देखना है।

शहर और गांव के प्रति हमारी बहुत सारी धारणाओं को कोविड महामारी ने बिलकुल ध्वस्त कर दिया है।

क्योंकि इससे बहुत फर्क पड़ता है कि आपके यहां पंचायत है या नगरपालिका। आप प्रॉपर्टी टैक्स देते हैं कि नहीं। आपको राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) की सुविधा मिलती है कि राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन (एनयूएचएम) की। आपको नरेगा के तहत काम मिलता है कि कुछ भी नहीं मिलता?

अब, यहां से स्टूडेंट्स फिर पर्यावरण विज्ञान की क्लास में जाते हैं। वहां प्रोफेसर कहेंगे कि, “हमें इन श्रेणियों से कोई फर्क नहीं पड़ता। क्या शहर है क्या गांव है। क्योंकि हवा और पानी के लिए कोई कैटगरी नहीं होती। आप इन्हें सिर्फ इन स्रोतों के भूगोल के ज़रिए ही समझ सकते हैं। बैंगलोर का पानी कावेरी से आ रहा है। इस पानी के रूट को समझो ये ही पानी का भूगोल है।” तो, शहर की कोई एक परिभाषा नहीं है। आप कहां खड़े होकर किस नज़रिए से सवाल पूछ रहे हैं उसी के आधार पर इसका जवाब दिया जा सकता है।

शहर और गांव के प्रति हमारी बहुत सारी धारणाओं को कोविड महामारी ने बिलकुल ध्वस्त कर दिया है। तमाम शहरी अध्ययन एवं शोध के बावजूद शहरों में रोज़ी-रोटी और ज़िंदा रहने का संकट गहराता जा रहा है। क्या आपको लगता है कि हम अपने शहरों को सही तरह नहीं जान पाए हैं?

कोविड को हमने एक स्वास्थ्य संकट के रूप में देखकर उसकी बहुत ही सतही, संकीर्ण और गलत पहचान की। अगर हम इसे स्वास्थ्य के साथ-साथ आजीविका के संकट के रूप में देखते तो शायद हमारी स्ट्रैजी कुछ और होती। यहां ‘गलत पहचान’ (मिसरिकग्निशन) शब्द फ्रांसीसी राजनीतिक दार्शनिक एटिन बलिबार की देन हैं। इसका अर्थ ‘ठीक से न समझने या कुछ न समझने से’ कहीं ज़्यादा हमारे समाज की सत्ता की संरचना की सच्चाई से जुड़ा है – आप किसकी नज़र से देख रहे हैं, उसे किस ढंग से बता रहे हैं। इसलिए, हम जिस ‘गलत-पहचान’ की बात यहां कर रहे हैं वो इस संदर्भ में है कि ‘घर से काम करने की, घर पर रहने की’ जिस सुविधा के आधार पर हम ये बात कहते हैं वो एक खास तरह के शहर की कल्पना पर आधारित है। शहर की एक ऐसी कल्पना जो हकीकत में बिल्कुल अलग है।

मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि यही हमारे ‘अर्बन स्टडीज़: शहरी अध्ययन’ की भी समस्या है। आप उस शहर के बारे में बात करते हैं जो आपकी कल्पनाओं में, आपके दिमाग के भीतर है। जहां हर किसी के पास एक औपचारिक नौकरी है, हर कोई दफ्तर जाता है। सभी एक व्यवस्थित अर्थव्यवस्था का हिस्सा हैं। उनके पास लौटने के लिए घर है। असल में आप उस शहर के बारे में बात नहीं करते जो वास्तव में आपके पास है।

सोचिए, भारत में काम करने वाले दस मज़दूरों में से आठ किसी व्यवस्थित अर्थव्यवस्था से नहीं जुड़े हैं। वे अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में काम करते हैं। उन आठ में से भी चार सार्वजनिक जगहों पर काम करते हैं जैसे – सड़कों पर, कचरे फेंकने के स्थानों पर, निर्माण स्थलों पर, परिवहन और बस स्टेशनों पर काम करते हैं। यहां ‘घर से काम करने का’ लॉजिक सरासर बेबुनियाद है क्योंकि उनका कोई ऑफिस नहीं है। दूसरा, जिसे बाद में लोगों ने समझा और इसपर चर्चा भी की कि भारत में दो-तिहाई परिवार 1.5 स्क्वायर फीट के घरों में रहते हैं। ऐसे में आपस में दूरी बनाए रखने की बात ही उनके लिए बेईमानी है।

महामारी के इस समय में बड़ा सवाल इस बात को समझना कि शहरीकरण के इतिहास के बारे में हम कहां से खड़े होकर बात कर रहे हैं। हमें सिएरा लियोन, केन्या और उन अंतरराष्ट्रीय शहरों के अनुभवों को जानने और समझने की कोशिश करनी चाहिए जिन्होंने हमारे जैसे संदर्भों में इबोला जैसी महामारी का सामना किया है। लेकिन, हम तो सुपरपावर हैं और हम सिर्फ लंदन या न्यूयॉर्क के शहरों को ही देखेंगे। हम नहीं सीखेंगे सिएरा लियोन से जिसने इबोला के दौरान शानदार सामुदायिक क्वारंटाइन के मॉडल विकसित किए थे।

उदाहरण के लिए, मुम्बई में चॉल या किसी गली में बने घरों को ही ले लीजिए। इसमें एक प्वाइंट से दूसरे प्वाइंट के बीच जो चार-पांच घर होते हैं उनके अलावा इस बीच की जगह का इस्तेमाल कोई नहीं करता है। इन घरों के लोग वहां अपने कपड़े धोते हैं, बर्तन साफ करते हैं, बच्चे वहां खेलते हैं। उन्हें हम एक समूह कह सकते हैं, किसी एक यूनिट की तरह। कोविड के दौरान कई समुदायों ने ऐसी जगहों के दोनों प्वाइंट – ऐसे अहातों या गलियों के शुरुआत में और गली जहां खत्म हो रही है वहां साबुन और पानी रखना शुरू कर दिया। अगर, क्वारंटाइन करना है तो वो समूह अपनी जगहों पर इंसानियत के साथ क्वारंटाइन तो कर सकता है। हमारे शहरों को देखते हुए यही सही लॉजिक है कि क्वारंटाइन ज़ोन घर न होकर गली को बनाया जाए। मुख्य बात यही है कि ग्लोबल साउथ के शहर जिसकी एक भिन्न तरह की संरचना होती है, जिसका अपना एक अलग ही इतिहास है उसे देखते हुए ये नहीं कहा जा सकता कि ‘घर पर रहें, घर पर रहकर काम करें।’

आईआईएचएस में एक संस्था के रूप में आप ग्लोयबल साउथ या शहरी अध्ययन की प्रक्रिया को कैसे देखते हैं? इसे अध्ययन में कैसे शामिल किया जाता है?

हमारे यहां शहर या शहरीकरण के विचार पर अमेरिकन और यूरोपीय औद्योगिक शहरीकरण की छाप बहुत गहरी है, जो मूलरूप से ग्लोबल साउथ के शहरों की असलियत से बहुत अलग हैं। इस बात के एहसास ने ही आईआईएचएस और ग्लोबल साउथ थियोरी के जन्म की नींव रखी। मैं जब कैलिफोर्निया विश्वविद्य़ालय, बर्कले में पीएचडी कर रहा था, तब हमें यूरोपीय औद्योगिकीकरण के समय हुए शहरीकरण या नगरीकरण के उदाहरण के आधार पर ही शहरी सिद्धांत पढ़ाया जाता था। हालांकि, ‘ब्लैक लाइव्स मैटर मूवमेंट’ को देखकर तो पता चलता है कि शहरीकरण के वे सिद्धांत खुद नॉर्थ अमेरिका के देशों में ही कारगर साबित नहीं हुए। आईआईएचएस, का बहुत सारा काम और मेरा खुद का काम इस बात को स्थापित करने में खर्च होता है कि ग्लोबल साउथ (लातिन अमेरिका, एशिया, अफ्रीका) के शहरों के इतिहास में कई तरह की विशिष्टताएं एवं समानताएं हैं। ग्लोबल साउथ शहरी इतिहास का हमारे वर्तमान शहरों के निर्माण में बहुत बड़ा हाथ है।

उदाहरण के लिए, एक बड़ा सच यह है कि हमारे शहर उत्तर-औपनिवेशिक काल की देन हैं। इसमें हमारी स्थानीयता भी शामिल है। जैसे, नई दिल्ली और पुरानी दिल्ली दोनों एक दूसरे से बिलकुल भिन्न है। दोनों ही इलाकों की अपनी विरासत है, चिन्ह हैं। देखा जाए तो हमारे शहर मुख्य रूप से अनियोजित ही रहे हैं, है ना? वे आर्थिक व्यवस्था एवं स्थानीयता के रूप में बिल्कुल अनियोजित हैं। दिल्ली में हर चार में से तीन व्यक्ति सुनियोजित कॉलोनियों के बाहर रहते हैं। इनके नामकरण को ही देख लीजिए – अनधिकृत कॉलोनी, नियमित कर दी गई अनधिकृत कॉलोनियां, शहरी गांव, ग्रामीण गांव, स्लम एरिया, जेजे क्लस्टर… इसके बावजूद हम योजनाओं के बारे में ऐसे बात करते हैं जैसे कि सबकुछ हमारे नियंत्रण में है।

दिल्ली मास्टर प्लान 2021 में एक ऐसे क्षेत्र को ‘शहरीकरण के योग्य क्षेत्र’ के रूप में रेखांकित किया गया है जहां प्लान तैयार होने की तारीख के दिन भी एक-एक इंच ज़मीन पर पहले से ही निर्माण हो चुका था। ये वो इलाका है जिसपर ब्लू लाइन मेट्रो चलती है और जिसे हम पश्चिमी दिल्ली कहते हैं। तो, जो इलाके पूरी तरह से बन चुके हैं, जहां आपकी मेट्रो चल रही है उसे आप शहरीकरण के नाम पर भविष्य की योजनाओं में शामिल कर रहे हैं।

दूसरा, हमें ग्लोबल साउथ के बाशिंदो की मानसिकता को भी समझने की ज़रूरत है। कई लोगों को उनके रोज़मर्रा के जीवन और महामारी से आए संकट में बहुत ज़्यादा नाटकीय बदलाव दिखाई नहीं दे रहा था। बहुमत शहरी भारतीयों के लिए इस तरह के संकट और रोज़मर्रा से जुड़ी परेशानियों में बहुत ज्यादा अंतर नहीं था। कुछ भारतीयों के लिए ज़रूर ये किसी तिलिस्म के टूटने और वास्तविकता का सामना करने जैसा था लेकिन अधिकांश के लिए महामारी से निकले संकट का अनुभव नया नहीं था। यही वजह है कि 2020 में जब हाइवे पर लोगों की भीड़ उमड़ने लगी और सभी पत्रकार हाइवे पर पैदल अपने घर लौट रहे मज़दूरों से पूछते कि ‘आप क्यों ऐसे जा रहे हैं?’ उनका जवाब होता कि ‘जाना है तो जाना है’। उनकी हिकारत भरी निगाहें उल्टा सवाल कर रही होतीं कि ‘क्या हो गया? यह आपके लिए इतना चौंकाने वाला क्यों है? हम हमेशा से इसी तरह मोल-भाव करते रहे हैं। हमें हमेशा से यही करना पड़ता है।’

इसके पीछे की मंशा यही थी कि कोविड से लोग मर रहे हैं। बिना कोविड के भी लोग मर रहे हैं। फिर भूख और रोज़ी-रोटी की कमी से भी मर रहे हैं। हमारा काम मौत से बचना है। हमारा काम कोविड से मरना नहीं है। मरना नहीं है तो फिर चलना ही हमारे पास एकमात्र उपाय है। यही मेरी सबसे अच्छी संभावना है – वापस गांव लौट जाना। गांव, जहां दो वक्त की रोटी तो इज़्ज़त से मिलेगी।

यह लेख मूलरूप से द थर्ड आई पर प्रकाशित हुआ था।

फूलों का गांव: महाराष्ट्र का एक गांव जो गन्ना छोड़कर गेंदा उगाता है

माली बनते हैं या पैदा होते हैं? इस प्रसिद्ध सवाल का जवाब जानने के लिए महाराष्ट्र के सतारा में जाएं और निकमवाड़ी गांव के गुलदाउदी और गेंदे के फूलों के खेतों पर नज़र डालें। जहां तक नजर डालो, वहां तक फूलों के रंग-बिरंगे खेत फैले हुए हैं, जिन पर पीले और नारंगी रंग के कालीन बिछे हुए हैं। लगभग दो दशक पहले, कृष्णा नदी बेसिन के इस गांव के किसान केवल दो नकदी फसलें, गन्ना और हल्दी उगाते थे, जिससे औसत उत्पादक का बस गुजारा भर हो पाता था।

गन्ने की फसल_फूलों का गांव
पहले गन्ना और हल्दी बहुतायत में उगाई जाती थी। | चित्र साभार: हिरेन कुमार बोस

हालांकि ये दोनों अब भी उगाई जाती हैं, लेकिन फूल निकमवाड़ी में खुशी और समृद्धि ला रहे हैं।

‘फूलांचा गांव’ की पुष्पित कथा

इसकी शुरुआत 2005 में हुई। धर्मराज गणपत देवकर, जिनकी आयु अब 60 वर्ष है, के नेतृत्व में मुट्ठी भर किसानों ने एक कृषि अधिकारी की सलाह पर ध्यान दिया और विश्वास की एक कठिन छलांग लगाते हुए पहली क्यारी में गेंदा के पौधे लगाए। यह 170 से ज्यादा घरों वाला गांव आज ‘फुलांचा गांव’ (फूलों का गांव) के नाम से प्रसिद्ध है, जिसमें 200 एकड़ से ज्यादा भूमि पूरी तरह से फूलों की खेती के लिए समर्पित है। दोपहर की धूप में चमकते फूलों की ओर इशारा करते हुए, 37 वर्षीय किसान विशाल निकम कहते हैं – “यहां किसी भी मौसम में आइये, झेन्दु (गेंदा) और बहुरंगी शेवंती (गुलदाउदी) के फूलों से लदे हरे-भरे खेत देखने को मिलेंगे।”

फूलों के खेत में एक महिला_फूलों का गांव
फुलांचा गांव यानि फूलों का गांव पूरे साल खूबसूरत फूलों से भरा रहता है। | चित्र साभार: हिरेन कुमार बोस

निकमवाड़ी और उसके आस-पास के गांवों में ‘पूर्णिमा व्हाइट’, ‘ऐश्वर्या येलो’ और ‘पूजा पर्पल’ जैसी आठ किस्म की संकर गुलदाउदी उगाई जाती हैं। गुलदाउदी एक सर्दियों की फसल है, जिसका मौसम दिसंबर से मार्च तक, 120 दिनों का होता है। बारहमासी गेंदा वर्ष भर उगता है। इलाके में फैली सैकड़ों नर्सरियों में से एक, ‘ओम एग्रो टेक्नोलॉजी नर्सरी’ के शालिवान साबले कहते हैं – “’पीताम्बर येलो’, ‘बॉल’ और ‘कलकत्ता येलो’ ग्राहकों की पसंदीदा छह किस्मों में से हैं। हम सालाना करीब 20 लाख पौधे बेचते हैं।”

मैरीगोल्ड रश और कुरकुरे नोट्स

प्रकृति की सुन्दरता अद्भुत है – यह उपहार सोने के बराबर है। लेकिन इस खजाने को निकालने के लिए, किसी भी कृषि पद्धति की तरह, बहुत ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है – पौधे लगाना, निराई करना, सिंचाई करना और सुबह से शाम तक फूल तोड़ना। और फिर शाम को बाज़ार के लिए निकलने से पहले पिक-अप ट्रकों में फूल भरना। हालांकि दिन के आखिर में, पैसा ही सुखदायक मरहम बनता है।

बाजार में बिकने के लिए जाते फूल_फूलों का गांव
इन फूलों को टोकरियों में भरकर अलग-अलग जगहों पर भेजा जाता है। | चित्र साभार: हिरेन कुमार बोस

प्रति एकड़ लगभग 10 टन की औसत वार्षिक उपज के साथ, निकमवाड़ी के किसान सालाना लगभग 10 लाख रुपये कमाते हैं, जो गन्ने और हल्दी से होने वाली आय से कहीं ज्यादा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि कई किसानों ने पानी की अधिक खपत वाली गन्ने की फसल को छोड़ दिया है। किसानों में चीनी मिलों के प्रति अविश्वास गहरा होने के कारण, हाल के वर्षों में गन्ने का रकबा कम हो गया है। उनका कहना है कि चीनी मिल उनकी उपज का वजन करने में धोखाधड़ी करती हैं तथा समय पर भुगतान नहीं करती हैं।

संजय भोंसले (55) ‘पूर्णिमा व्हाइट’ गुलदाउदी के अपने खेत की देखभाल से कुछ समय के लिए छुट्टी लेते हुए कहते हैं – “गन्ना मिलें लोगों को उनके पैसे के लिए 18 महीने से ज़्यादा इंतज़ार करवाती हैं। फूल उगाना फ़ायदेमंद है, क्योंकि हमें हर हफ़्ते भुगतान मिलता है।” निकमवाड़ी के किसान ड्रिप सिंचाई पद्धति का उपयोग करते हैं, जिसके अंतर्गत वे बावड़ियों से पानी प्राप्त करते हैं, जिसका पुनर्भरण कृष्णा नदी से आने वाली नहरों द्वारा होता है। इस तरह के बागवानी नवाचार खेतों को अधिक टिकाऊ, पर्यावरण-अनुकूल और स्वस्थ बना सकते हैं, तथा प्रकृति के साथ मानव के जटिल अंतर्संबंधों की रक्षा कर सकते हैं। आठ एकड़ के मालिक संतोष देवकर कहते हैं – “आजकल केवल मुट्ठी भर परिवार ही बड़े खेत के मालिक हैं, जो गन्ना उगाते हैं।” फूलों के बाज़ार में उतार-चढ़ाव के कारण वे एक एकड़ में गन्ना उगाते हैं।

फूल बाज़ार का पदानुक्रम

पुष्प अर्थव्यवस्था में पदानुक्रम चलता है। गुलाब, गुलनार और जरबेरा जैसे फूल अपनी आकर्षक कीमतों के मामले में प्रीमियम स्थान पर हैं, इसके बाद रजनीगंधा और ग्लेडियोलस जैसे बल्बनुमा फूल आते हैं।

फूलों के खेत में काम करती एक महिला_फूलों का गांव
महाराष्ट्र 1990 में पुष्प कृषि नीति बनाने वाला पहला राज्य है। | चित्र साभार: हिरेन कुमार बोस

गेंदा और गुलदाउदी सबसे निचले पायदान पर हैं। लेकिन निकमवाड़ी में फूलों की भारी मात्रा के कारण इसकी भरपाई हो जाती है। रोज सात पिकअप ट्रकों पर करीब 12 टन फूल, 100 किलोमीटर दूर पुणे के गुलटेकड़ी बाजार भेजे जाते हैं। हालांकि यह गांव मंदिर शहर वाई और जिला मुख्यालय सतारा के करीब है, लेकिन किसान पुणे को प्राथमिकता देते हैं, जहां मांग ज्यादा है। गणेश उत्सव से लेकर दिवाली और गुड़ी पड़वा तक त्योहारों के सीजन में मांग चरम पर होती है।

कृषि अधिकारी विजय वारले का कहना था कि निकमवाड़ी के किसान गुलदाउदी से प्रति एकड़ लगभग 2.5 लाख रुपये कमाते हैं, जबकि गेंदा से प्रति एकड़ लगभग 2 लाख रुपये की कमाई होती है। महाराष्ट्र में फूल एक फलता-फूलता व्यवसाय है, जहां 13,440 हेक्टेयर भूमि पर फूलों की खेती होती है। यह 1990 के दशक में फूलों की खेती की नीति बनाने वाला पहला राज्य भी है।

निकमवाड़ी, बाकी से बहुत आगे

पड़ोसी गांवों ने भी फूलों की खेती शुरू कर दी है, लेकिन जो बात निकमवाड़ी को अलग करती है, वह यह है कि यहां हर घर में फूल उगाए जाते हैं, चाहे किसी के पास दो-चार गुंठा (1000 वर्गफीट) हो, या कई एकड़।

बेचने के लिए तैयार फूल_फूलों का गांव
फिर इन फूलों को पैक करके मंदिरों और घरों तक पहुंचाया जाता है। चित्र साभार: हिरेन कुमार बोस

यह उनकी सहभागिता की भावना और सामूहिक दृष्टिकोण ही है, जो निकमवाड़ी को एक आदर्श गांव बनाता है। वे एकल फसल उत्पादन के नुकसान से भी अवगत हैं। छोटे-छोटे क्षेत्रों में गन्ना और हल्दी जैसी नियमित फसलें उगाने के अलावा, बहुत से किसान फूलों के खेतों में अजवायन भी उगाते हैं, एक ऐसी जड़ी-बूटी जिसकी विदेशों और भारतीय महानगरों में बहुत मांग है। संजय भोंसले, जिनका पांच एकड़ का खेत बहु-फसल का एक उदाहरण है, कहते हैं – “हम रसोई के लिए धनिया और बेचने के लिए अजवायन की खेती करते हैं। हम 1.5 लाख रुपये खर्च करते हैं और उपज से आय 3.5 लाख रुपये होती है।”

यह लेख मूलरूप से विलेज स्क्वायर पर प्रकाशित हुआ था।

हीरेन कुमार बोस महाराष्ट्र के ठाणे स्थित पत्रकार हैं। वे सप्ताहांत में किसानी भी करते हैं। 

यह बजट पर्यावरण के लिहाज से कितना अनुकूल है?

पिछले महीने संपन्न हुए आम चुनावों में मिले झटकों के बाद केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने मंगलवार को अपना सातवां बजट पेश किया। यह मौजूदा सरकार का पहला बजट था। इस दौरान उनके सामने दोहरी चुनौती थी – गठबंधन में शामिल सहयोगी दलों की उम्मीदों को जगह देना और बढ़ती हुई बेरोजगारी का हल खोजना। इन चुनौतियों के बावजूद, उन्होंने बजट में पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए कई घोषणाएं की। हालांकि, उनमें से कई ऐसी घोषणाएं हैं जिन पर पहले से काम हो रहा है। 

अपने बजट भाषण में सीतारमण ने नौ मुख्य प्राथमिकताओं को रेखांकित किया। इनमें खेती को मौसम के अनुकूल बनाकर उपज बढ़ाना, शहरी विकास को आगे बढ़ाना, ऊर्जा सुरक्षा और मध्यम, लघु व सूक्ष्म उद्यमों (एमएसएमई) पर ध्यान देते हुए विनिर्माण और सेवाओं को बढ़ाना शामिल है।

नई दिल्ली स्थित गैर-लाभकारी संगठन आईफॉरेस्ट के मुख्य कार्यकारी अधिकारी चंद्र भूषण ने कहा कि घोषणाओं की संख्या अंतरिम बजट जैसी ही है। हालांकि, चार प्राथमिकताएं – ऊर्जा सुरक्षा, टिकाऊ खेती, एमएसएमई पर ध्यान और शहरी विकास भविष्य के लिए अहम हैं। ये क्षेत्र पर्यावरण के लिहाज से भी काफी महत्वपूर्ण हैं।

इन उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए वित्त मंत्री ने कई ऐसी घोषणाएं की जो पहले से ही चल रही हैं। उदाहरण के लिए, जलवायु वित्त के लिए वर्गीकरण का काम कम से कम दो सालों से चल रहा है। इसके अलावा प्रधानमंत्री सूर्य घर मुफ्त बिजली योजना की घोषणा फरवरी में ही की जा चुकी है। वहीं, कार्बन मार्केट बनाने की प्रक्रिया 2022 से जारी है। साथ ही, एडवांस्ड अल्ट्रा सुपर क्रिटिकल थर्मल पावर प्लांट के लिए साल 2016 में पायलट अध्ययन शुरू किए गए थे। यही नहीं, एक करोड़ किसानों को प्राकृतिक खेती के तरीकों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करने की योजना की घोषणा भी पिछले आम बजट में की जा चुकी है।

प्राकृतिक आपदाओं को कम करने और उनके हिसाब से ढल जाने की कोशिशों पर बजट में जोर है। साथ ही, बजट में बिहार, असम, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और सिक्किम जैसे बाढ़ प्रभावित राज्यों में बाढ़ प्रबंधन और पुनर्निर्माण के लिए प्रावधान भी शामिल हैं। इसका उद्देश्य कुदरती आपदाओं के दुष्प्रभाव को कम करना और इन क्षेत्रों के पुनर्निर्माण में मदद करना है।

एनर्जी ट्रांजिशन पर जोर

इससे पहले, 22 जुलाई को संसद में आर्थिक सर्वेक्षण पेश हुआ था। इसमें देश में एनर्जी ट्रांजिशन की चुनौती और इससे जुड़े समझौतों को शामिल किया गया था। सर्वेक्षण में कहा गया था कि यह काफी चुनौती भरा लक्ष्य है। इसमें भारत की खास स्थिति को रेखांकित किया गया, जहां सरकार को सस्ती उर्जा भी उपलब्ध करानी है ताकि देश विकसित देशों की कतार में खड़े होने की अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा कर सके। दूसरी तरफ पर्यावरण को देखते हुए कार्बन उत्सर्जन कम करने के तरीकों को भी बढ़ावा देना है। सर्वेक्षण में भंडारण क्षमता, जरूरी खनिजों, परमाणु ऊर्जा, साफ-सुथरे कोयले की तरफ धीरे-धीरे बढ़ना और ज्यादा कुशल तकनीकों के महत्व पर जोर दिया गया है।

इन जटिलताओं को देखते हुए वित्त मंत्री ने उचित एनर्जी ट्रांजिशन के तरीकों पर नीति दस्तावेज पेश करने की घोषणा की जो रोजगार, विकास और टिकाऊ पर्यावरण की जरूरतों के हिसाब से है।

चंद्र भूषण ने बताया, “मुझे उम्मीद है कि देश में व्यापक विचार-विमर्श के बाद ही यह नीति लायी जाएगी। क्योंकि विभिन्न राज्यों में ऊर्जा सुरक्षा और ट्रांजिशन की चुनौतियां अलग-अलग हैं।”

कोयला खनन_बजट
बजट में खेती को मौसम के अनुकूल बनाकर उपज बढ़ाना, शहरी विकास को आगे बढ़ाना, ऊर्जा सुरक्षा और उद्यमों पर ध्यान देते हुए विनिर्माण और सेवाओं को बढ़ाना शामिल है। | चित्र साभार: पिक्साबे

केंद्रीय मंत्री सीतारमण ने छतों के जरिए सौर ऊर्जा, पंप स्टोरेज और परमाणु ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए योजनाओं की घोषणा की। सरकार छोटे व उन्नत रिएक्टर बनाने और परमाणु ऊर्जा से जुड़ी नई तकनीकों के विकास के लिए निजी क्षेत्र से हाथ भी मिलाएगी।

उन्होंने बहुत ज़्यादा जरूरी खनिजों (क्रिटिकल मिनरल) के लिए मिशन शुरू करने की घोषणा की। इसके जरिए घरेलू स्तर पर उत्पादन, इन खनिजों को दोबारा इस्तेमाल करने के लायक बनाने और दूसरे देशों में इन खनिजों के लिए खनन पट्टे लेने पर ध्यान दिया जाएगा। सरकार खनन के लिए अपतटीय ब्लॉक की पहली किश्त की नीलामी शुरू करेगी। परमाणु और नवीन ऊर्जा क्षेत्रों के लिए लिथियम, तांबा, कोबाल्ट और दुर्लभ अर्थ एलिमेंट जैसे अहम खनिजों की अहमियत को पहचानते हुए मंत्री ने ऐसे 25 खनिजों पर सीमा शुल्क से पूरी तरह छूट देने का प्रस्ताव रखा।

मंत्री ने ऐसे उद्योगों के लिए ‘ऊर्जा कुशलता’ से ‘उत्सर्जन लक्ष्यों’ की तरफ बढ़ने के लिए रोडमैप बनाने का ऐलान भी किया जिनमें ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करना बहुत मुश्किल है।

उन्होंने सूक्ष्म और लघु उद्योगों की अहमियत को पहचाना और बताया कि पीतल और सिरेमिक सहित 60 पारंपरिक क्लस्टरों का एनर्जी ऑडिट किया जाएगा। इन उद्योगों में साफ-सुथरी ऊर्जा के इस्तेमाल को बढ़ावा देने और ऊर्जा कुशलता से जुड़े उपायों को लागू करने में मदद के लिए वित्तीय सहायता दी जाएगी। उन्होंने कहा कि अगले चरण में इस योजना का विस्तार 100 और क्लस्टरों तक किया जाएगा।

जलवायु परिवर्तन से बचाव के लिए धन जुटाने पर जोर

आर्थिक सर्वेक्षण में जलवायु वित्त (क्लाइमेट फाइनेंस) की अहमियत पर कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन की लड़ाई में सबसे कठिन है सस्ते दर पर पूंजी की व्यवस्था। 

वित्त मंत्री ने कहा कि सरकार टैक्सनॉमी लेकर आएगी जिससे पता चलेगा कि कौन सा क्षेत्र पर्यावरण के दायरे में आता है। इससे जलवायु परिवर्तन के हिसाब से ढलने और उससे पार पाने के लिए धन की व्यवस्था करने में मदद मिलेगी। हालांकि, वित्त मंत्रालय कम से कम तीन सालों से टैक्सोनॉमी तैयार करने की दिशा में काम कर रहा है। हालांकि, इसका मसौदा आज तक सार्वजनिक नहीं किया गया है।

आने वाले भविष्य में जैव विविधता और पानी जैसे पर्यावरण से जुड़े दूसरे मुद्दों को भी जलवायु परिवर्तन में शामिल करना होगा।

इस पर क्लाइमेट बॉन्ड्स इनिशिएटिव की दक्षिण एशिया प्रमुख नेहा कुमार कहती हैं कि बजट मे इसकी घोषणा करना स्वागत योग्य कदम है। उन्होंने आगे कहा कि सरकार उम्मीद है अब तक किये काम को ही आगे बढ़ाएगी। उन्होंने कहा, “मुझे उम्मीद है कि इस काम को नए सिरे से शुरुआत से करने की बजाए मौजूदा ढांचे पर काम किया जाएगा, जिसमें बेहतरीन तरीकों को शामिल किया गया है और देश की प्राथमिकताओं का भी ध्यान रखा गया है।” कुमार वित्त मंत्रालय के उस टास्क फोर्स का हिस्सा रही हैं जिसने टैक्सनॉमी पर काम किया है। 

टैक्सनॉमी को लेकर उन्होंने कहा कि यह स्पष्ट है कि अभी फोकस जलवायु परिवर्तन को रोकने और उस हिसाब से ढलने पर है, लेकिन आने वाले भविष्य में जैव विविधता और पानी जैसे पर्यावरण से जुड़े दूसरे मुद्दों को भी इसमें शामिल करना होगा। टैक्सनॉमी में ट्रांजिशन भी शामिल होना चाहिए। पिछला मसौदा अभी तक सार्वजनिक नहीं किया गया। इस मसौदे में ऊर्जा और परिवहन और खेती-बाड़ी को शामिल किया गया था।

शहरों में सुधार के लिए वित्तीय मदद

आर्थिक सर्वेक्षण में शहरों को भविष्य के हिसाब से आर्थिक केंद्र के तौर पर विकसित करने की बात की गयी है। इसे वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में दोहराया है। उन्होंने जोर दिया कि यह बदलाव आर्थिक और ट्रांजिट प्लानिंग और टाउन प्लानिंग योजनाओं के जरिए होना चाहिए। साथ ही, शहरों के आस-पास के क्षेत्रों का व्यवस्थित तरीके से विकास किया जाएगा।

वित्त मंत्री ने स्टांप ड्यूटी में कमी जैसे शहरी सुधारों पर जोर दिया जिसे शहरी विकास योजनाओं का अनिवार्य हिस्सा बनाया जाएगा। केंद्र सरकार भूमि प्रशासन, प्लानिंग, प्रबंधन और भवन उपनियमों में सुधारों की पहल करेगी और उन्हें आगे बढ़ाएगी। इसके लिए सरकार को आर्थिक प्रोत्साहन भी देगी जैसे राज्यों को दिए जाने वाले 50 साल के ब्याज मुक्त कर्ज का बड़ा हिस्सा इन सुधारों के आधार पर आवंटित किया जाएगा।

इसके अलावा, उन्होंने सौ बड़े शहरों में पानी की आपूर्ति, गंदे पानी को साफ करना और ठोस कचरे के व्यवस्थित निपटान से जुड़ी परियोजनाओं को बढ़ावा देने के बारे में बात की। इस साफ किये गए पानी से सिंचाई और स्थानीय जलाशयों को फिर से भरने की भी बात की गयी। 

सभी परिवर्तन सिर्फ शहर तक सीमित नहीं रहते जैसे कि जलवायु परिवर्तन। इसलिए एक क्षेत्र के हिसाब से सोचने की जरूरत है। 

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ अर्बन अफेयर्स के पूर्व निदेशक हितेश वैद्य ने बजट की व्यावहारिकता पर खुशी जताई। जहां पिछली पहलों में शहरों को ‘स्मार्ट’ या ‘गैर-स्मार्ट’ के रूप में बांटा गया था, वहीं यह बजट नया नजरिया अपनाता है, जिसमें बड़े, मध्यम और छोटे शहरों पर ध्यान दिया दया है। इसे वे सकारात्मक बदलाव मानते हैं।

वैद्य ने कहा कि सरकार अब इस बात पर जोर दे रही है कि परियोजना बनाने से पहले सुधार किया जाना चाहिए। उन्होंने भवन उपनियमों और प्लानिंग से जुड़े ढांचे को नया बनाने की जरूरत पर प्रकाश डाला। उन्होंने बजट में शहरी क्षेत्रों और उनकी खास तरह की चुनौतियों को मान्यता दिए जाने की ओर भी ध्यान दिलाया। यह बजट शहरी नियोजन के लिए क्षेत्रीय नजरिए को अपनाना है। उन्होंने कहा कि यह जरूरी है क्योंकि सभी परिवर्तन सिर्फ शहर तक सीमित नहीं रहते जैसे कि जलवायु परिवर्तन। इसलिए एक क्षेत्र के हिसाब से सोचने की जरूरत है। 

हालांकि वे इन घोषणाओं के जमीनी असर को लेकर सशंकित हैं। उन्होंने कहा कि शहरों के लिए ज्यादा टाउन प्लानर जरूरी हैं। उन्होंने कहा, “हम सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं, कहीं ये योजनाएं जमीन पर कैसे लागू की जाती हैं उसका भी मूल्यांकन जरूरी है। “

खेती-बाड़ी से जुड़े वादों की जांच

हाल के सालों में, किसान अपनी उपज के लिए बेहतर कीमत की मांग को लेकर कई बार सड़कों पर उतरे हैं। चूंकि, देश की 65% आबादी खेती-बाड़ी पर निर्भर है, इसलिए वित्त मंत्री के बजट भाषण में बताए गए नौ उद्देश्यों में खेती-बाड़ी को सबसे पहले रखा गया है। 

वित्त मंत्री ने उपज बढ़ाने और जलवायु-अनुकूल फसल की किस्मों के विकास पर ध्यान देने की घोषणा की। उन्होंने कहा, “हमारी सरकार उपज बढ़ाने और जलवायु-अनुकूल किस्मों के विकास के लिए कृषि अनुसंधान व्यवस्था की व्यापक समीक्षा करेगी।”

केंद्रीय मंत्री ने खेती से जुड़ी ऐसे 109 नए किस्म के फसल का जिक्र किया। इसके अलावा, सरकार का लक्ष्य अगले दो सालों में एक करोड़ किसानों को प्राकृतिक खेती के गुर सिखाना है। इसमें प्रमाणन और ब्रांडिंग से भी मदद दी जाएगी। इसके अलावा, दस हजार जैव-इनपुट संसाधन केंद्र स्थापित किए जाएंगे।

वहीं, टिकाऊ खेती पर काम करने वाली बेंगलुरु स्थित सामाजिक कार्यकर्ता कविता कुरुगंती ने कृषि के लिए बजट घोषणाओं की आलोचना की। उन्होंने कहा कि वे मौजूदा परिस्थितियों से मेल नहीं खाती हैं और उनके लिए आवंटन भी कम है। उन्होंने दलील दी कि सरकार बड़े-बड़े वादे करती है, लेकिन उन्हें लागू करने का दस्तावेजीकरण खराब तरीके से किया जाता है। 

कुरुगंती ने फसल की नई किस्मों पर जोर दिए जाने पर चिंता जताई। उन्होंने कहा कि जैविक और गैर-जैविक समस्याओं से पार पाने वाली पारंपरिक किस्मों की उपेक्षा की जा रही है। उन्होंने कहा कि सरकार का ध्यान बाढ़ या सूखा रोधी फसल की तरफ है। पर यह सही नहीं है क्योंकि एक ही क्षेत्र में कुछ दिन सूखे की स्थिति रहती है तो कुछ दिन बाढ़ की। ऐसा लगता है कि सरकार ट्रांसजेनिक और जीन में बदलाव करके तैयार फसलों पर ध्यान केंद्रित करेगी, जिसके बारे में उनका मानना ​​है कि अनुसंधान की आड़ में बड़ी कंपनियों को फायदा पहुंचाया जाएगा। कुरुगंती ने प्राकृतिक खेती से जुड़े घोषणा की भी आलोचना की। उन्होंने बताया कि 2023-24 के बजट में भी इसी तरह की घोषणा की गई थी। पर पिछले वादे का क्या हुआ उसका कोई लेखा-जोखा नहीं है। 

यह लेख मूलरूप से मोंगाबे हिंदी पर प्रकाशित हुआ था।

कैसे जलवायु परिवर्तन ने ईंट भट्ठा मज़दूरों को कर्ज़ में डुबो दिया है?

जलवायु परिवर्तन मज़दूरों की ज़िंदगी पर सबसे क्रूर प्रभाव डालता है और 2024 के पूर्वानुमान बता रहे हैं कि हीटवेव, सूखे और अनिश्चित मॉनसून की चरम मौसमी घटनायें इस सेक्टर को बहुत प्रभावित करेंगी। मार्च के पहले हफ्ते में ही देश के कई हिस्सों में तापमान 41 डिग्री के बैरियर को पार कर गया और अब आने वाले दिनों में ईंट भट्टा क्षेत्र में काम करने वालों को इसकी तपिश झेलनी होगी।

उत्तर प्रदेश के जिला प्रयागराज के रहने वाले महेश (मास्टर फायरमैन) ने कहा, भट्ठों में अत्यधिक गर्म तापमान होने के बावजूद दस्ताने, मास्क, जूते और अन्य ज़रूरी प्रावधानों में कमी से उनके स्वास्थ्य पर असर पड़ा है। 

महेश ही नहीं बल्कि भट्ठे पर रहने वाले पथाई मज़दूरों और उनके परिवार की स्थिति भी प्रभावित है क्योंकि इनके रहने के हालात अच्छे नहीं हैं। परिवार की कमाई और स्वास्थ्य के साथ बच्चों की पढ़ाई पर भी इस हालात का असर पड़ता है।

बुनियाद ईंट भट्टा क्षेत्र की समस्याओं पर करीबी नज़र रखे है। ग्लोबल वॉर्मिंग निश्चित ही इस क्षेत्र के वजूद के लिये संकट है। उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ के अनुभवी ईंट भट्ठा मालिक द्वारिका प्रकाश मोर के लिए, अनियमित मौसम पैटर्न (जलवायु परिवर्तन का संकेत) भविष्य में होने वाला ख़तरा नहीं है; वे एक तात्कालिक और गहन चुनौती हैं। पांच दशकों के अनुभव के साथ, उन्होंने उद्योग को कई तूफानों का सामना करते देखा है। लेकिन अब कहते हैं कि बेमौसम बदलावों ने अभूतपूर्व परेशानी ला दी है। 

ईंट निर्माण का काम मौसम पर निर्भर

ईंट निर्माण प्रकृति की लय के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है। सर्दियों के गिरते तापमान में ईंट बनाने का काम शुरू होता है, जिसमें मजदूर ईंटों को आकार देने का काम करते हैं, और उन्हें खुली हवा में सूखने के लिए छोड़ देते हैं। गर्मियों में फायरिंग यानी जलाई की प्रक्रिया शुरू हो जाती है, जहां भट्टियों में ईंटों को सख्त किया जाता है। लेकिन, जलवायु परिवर्तन के कारण अब ऐसे बदलाव महसूस हो रहे हैं, जो पहले ना कभी देखे गये हैं, और ना सुने गये हैं। 

दोधारी तलवार है जलवायु परिवर्तन

द्वारका प्रकाश मोर जैसे लोगों के लिये यह हताश करने वाला है। वे कहते हैं, “बारिश से काफी नुकसान होता है। ईंटें जल्दी नहीं सूखतीं, जिससे उनकी गुणवत्ता पर असर पड़ता है। बरसात के दिनों में मजदूर काम नहीं कर पाते, जिससे एक सीजन में 25,000 – 30,000 रुपये का नुकसान होता है। मुझे प्रति सीजन 10-15 लाख ईंटों का नुकसान उठाना पड़ता है, यही आंकड़ा लाख तक पहुंच सकता है अगर बारिश लगातार होती रहे जैसा कि पिछले तीन वर्षों से हो रहा है। हम जिस आर्थिक बोझ का सामना कर रहे हैं, वह बहुत बड़ा है।”

ईंट भट्ठे पर ईंटे बनाते श्रमिक-जलवायु परिवर्तन
एक तरफ़ ईंट उद्योग जलवायु संकट का शिकार है, दूसरी तरफ़ जलवायु संकट में इसका योगदान भी है। | चित्र साभार: सुरेश के नायर

जलवायु संकट ईंट भट्ठा उद्योग के लिए दोधारी तलवार है। एक तरफ़ यह उद्योग जलवायु संकट का शिकार है, दूसरी तरफ़ जलवायु संकट में इसका योगदान भी है। वैश्विक उत्पादन में 13% का योगदान करते हुए, भारत ईंटों के मामले में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है, जो सालाना 200 बिलियन इकाइयों का निर्माण करता है। इस व्यापक उत्पादन के परिणामस्वरूप प्रत्येक वर्ष लगभग 35-40 मिलियन टन पारंपरिक ईंधन की खपत होती है।

आजीविकाएं प्रभावित, मजदूर भारी कर्ज में डूबते जा रहे हैं

ईंट भट्ठों पर काम करने वाले मजदूर हर साल छह से आठ महीने की अवधि के लिए पलायन करते हैं। श्रमिकों की आर्थिक स्थिति उन्हें भट्ठा ठेकेदारों के माध्यम से भट्ठा मालिकों से कर्ज लेने के लिए मजबूर करती है। इसके अतिरिक्त, वे किराने के सामान और दवाओं के लिए भट्ठे में और क़र्ज़ लेते हैं। यह सारा क़र्ज़ उनकी कुल कमाई से कट जाता है। शेष उनकी बचत के रूप में कार्य करता है।

“बारिश के बिना, हम एक सीज़न में 70,000 से एक लाख रुपये कमाते हैं। लेकिन इस साल खराब मौसम के कारण मैं दो महीने से बेकार हूं। हमने 2 लाख ईंटें बनाई थीं। वे सभी बारिश में नष्ट हो गईं।” बांदा के एक पथेरा, राम प्रताप के शब्द अनगिनत अन्य लोगों की भावनाओं को जताते हैं जो स्वयं इस समस्या से जूझ रहे हैं।

जब श्रमिक काम फिर से शुरू होने का इंतजार कर रहे थे, उनके ख़ान-पान का कर्ज बढ़ता जा रहा था। वे कहते हैं, “सिर्फ इसलिए कि हमारे पास काम नहीं है, हम खाना बंद नहीं कर सकते, हमें रोजमर्रा की जिंदगी के लिए कर्ज लेना पड़ता है।”

एक मज़दूर संघ कार्यकर्ता, राम प्रकाश पंकज, इस कार्यबल पर जलवायु संकट की सामाजिक लागत पर प्रकाश डालते हैं। “ईंट भट्ठा मजदूर बड़े पैमाने पर प्रवासी हैं, उनके बच्चे अक्सर उनकी खानाबदोश जीवनशैली का खामियाजा भुगतते हैं। निरंतर शिक्षा तक पहुंच इन बच्चों के लिए एक सपना बन जाता है, स्थान में हर बदलाव के साथ उनका भविष्य डगमगा जाता है।” वे जोड़ते हैं कि “केवल 10,000 रुपये बचाए हैं। मैं एक गरीब आदमी हूं और मुझे यह सब सहना होगा।”

यह लेख मूलरूप से बुनियाद के सामुदायिक अख़बार बुनियादी खबर पर प्रकाशित हुआ था।