अपनी पहचान बनाने के संघर्ष में विमुक्त घुमंतू जनजातियां

ऐतिहासिक रूप से, एनटी-डीएनटी समुदायों या विमुक्त जनजातियों को समाज, सरकार, कानूनों और नीतियों द्वारा हाशिए पर रखा गया है, जिनमें बंजारे, सपेरे, और मदारी जैसे कई घुमंतू समुदाय भी शामिल हैं। इन समुदायों के ऐतिहासिक संदर्भ और सामाजिक स्थिति को समझने से उनके संघर्षों की गहराई और निरंतरता का पता चलता है। ब्रिटिश शासन के दौरान, इन पर ‘जन्म से चोर’ होने का ठप्पा लगा दिया गया, जो आज भी पुलिस प्रशिक्षण में मौजूद है। घुमंतु समुदायों को गांवों से बाहर रखा जाता था और उन्हें काम और सम्मान से वंचित किया गया था।

आज भी, ये समुदाय अपनी पहचान और अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इनके पारंपरिक व्यवसाय जैसे शिकार, मनोरंजन और देसी दवा आदि या तो गैरकानूनी घोषित कर दिये गए या समय के साथ उनकी मांग कम हो गई, इससे वे और भी हाशिए पर चले गए हैं। सरकारी योजनाएं उनकी जरूरतों को ध्यान में नहीं रखती, और उन्हें आरक्षण या सामाजिक और आर्थिक उन्नति के अन्य अवसरों से वंचित रखा जाता है। इनकी बिखरी हुई और कम जनसंख्या, सरकार तक उनकी आवाज पहुंचने को और मुश्किल बना देती है। इन्हीं संदर्भों में विभिन्न घुमंतू और विमुक्त जनजाति समुदायों के मंच ‘घुमंतु साझा मंच’ के सदस्य अपनी चुनौतियों को उजागर कर रहे हैं और उन्हें मुख्यधारा में लाने, उनकी पहचान के महत्व, उनके बच्चों को बेहतर शिक्षा और उज्ज्वल भविष्य तय करने के लिए जरूरी बदलावों पर चर्चा कर रहे हैं।

इस वीडियो को बनाने में ज्ञान सिंह, मोइन कलंदर और घुमंतू साझा मंच के अन्य सदस्यों ने योगदान दिया है।

नूर मुहम्मद ‘घुमंतू साझा मंच’ की अगुवाई करते हैं।

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आरा-तारी की सुई से आजीविका बुनता कलंदर समुदाय

आरा-तारी एक खास तरह की कढ़ाई का काम है। इसे हमारे कलंदर समुदाय के लोगों ने अपनी जीविका चलाने के लिए सीखा है। कलंदर समुदाय, घुमंतू या विमुक्त जनजातियों के अंतर्गत आता है। पहले हमारे परिवार के पुरुष भालू का तमाशा दिखाकर लोगों का मनोरंजन करते थे और उसी से आजीविका कमाते थे। मगर वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 लागू होने के बाद यह काम बंद हो गया। इसके बाद टोंक की कलंदर बस्ती की महिलाओं और लड़कियों ने परिवार की मदद करने के लिए आरा-तारी का काम सीखना शुरू किया।

साल 2006 में मेरे ससुर, जो एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं, उन्होंने वाइल्डलाइफ एसओएस की मदद से इस आरा-तारी केंद्र की स्थापना की। इस नए कौशल को सीखने के बाद हमें जीविका का एक नया साधन मिला क्योंकि हमारा पुराना काम छिन चुका था। घर की आर्थिक स्थिति बेहद खराब हो चुकी थी। हम में से अधिकतर ने पांचवीं या आठवीं कक्षा तक पढ़ाई की है, फिर हम काम पर लग गए। ज्यादातर परिवारों में किसी न किसी को अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी है ताकि छोटे भाई-बहन पढ़ाई जारी रख सकें। मैंने भी अपने छोटे भाई-बहनों की पढ़ाई पूरी करवाई और अन्य कई लोगों ने भी ऐसा ही किया।

अब हम सिर्फ पैसे नहीं कमा रहे, बल्कि अपने परिवार और समुदाय से सम्मान भी पा रहे हैं, क्योंकि हम परिवार की आर्थिक मदद कर रहे हैं। इस काम से हमें प्रति पीस 300 से 400 रुपये तक की कमाई हो जाती है। हमें यह काम बेहद पसंद है, खासकर जब हम इसे एक साथ करते हैं। केंद्र में आमतौर पर दस से बारह लोग साथ काम करते हैं। कोई सेठ कच्चा माल लाता है जिसे फैक्ट्री में तैयार किया जाता है और हमें इसके बदले मजदूरी मिलती है। हम डिजाइन चुनते हैं, उत्पाद बनाते हैं, और फिर उसे वापस कर देते हैं। वे कपड़ा इकट्ठा करते हैं और हमें भुगतान करते हैं, जिससे हमारे परिवारों की जिंदगी थोड़ी आसान हो जाती है।

अब यह काम हमारे समुदाय में फैल चुका है। अगर इसी तरह के केंद्र अन्य बड़े घुमंतू समुदायों में भी स्थापित किए जाएं तो और युवाओं को रोजगार मिलेगा और हमारे समुदाय में बड़ा बदलाव आएगा। युवा खाली नहीं बैठेंगे, इधर-उधर घूमने या झगड़े में अपना समय बर्बाद नहीं करेंगे। वे काम करेंगे, पैसे कमाएंगे और सम्मान के साथ अपने परिवार की आर्थिक मदद करेंगे। पहले जब हम तंबुओं या झुग्गियों में रहते थे, जहां न घर थे न शिक्षा, तब से अब तक काफी बदलाव आया है। हमारे भालू छिन जाने के बाद हमारे पास कोई काम नहीं बचा था, और आज भी कई लोग बिना काम के संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन आरा-तारी केंद्र जैसे प्रयासों से हमारी स्थिति में सुधार आ रहा है, और हमें उम्मीद है कि यह बदलाव और भी तेजी से आएगा।

नूरजहां कलंदर आरा-तारी का काम करती हैं और अपना परिवार चलाने में मदद करती हैं।
नूर मुहम्मद कलंदर, अपने समुदाय के हक के लिए आवाज उठाते हैं और घुमंतू साझा मंच के नाम से एक संगठन चलाते हैं।

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