कोयला खदानों से होने वाले प्रदूषण और पशुपालन में क्या संबंध है?

मिट्टी के घर की दीवार से लगकर खड़ी एक बकरी_पशुपालन
गाय और बकरियों से होने वाला दूध उत्पादन अब कम होता जा रहा है। | चित्र साभार: देबोजीत दत्ता

मैं छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में पड़ने वाले पेल्मा गांव का निवासी हूं। मैं एक किसान हूं और पशुपालन भी करता हूं। पिछले कुछ दशकों में हमारे आसपास के कई गांवों में कोयला खनन का काम बहुत ही तेज़ी से हो रहा है। कोयला खनन करने के लिए कंपनियों ने ज़मीनों का अधिग्रहण कर लिया। नतीजतन, लोगों के पास खेती के लिए पर्याप्त ज़मीन नहीं रह गई है। इसके अलावा बड़े पैमाने पर खनन होने के कारण आसपास का पर्यावरण भी बहुत अधिक प्रदूषित हो गया है। इस प्रदूषण का हानिकारक प्रभाव ना केवल यहां रहने वाले इंसानों पर पड़ रहा है बल्कि इलाक़े के पेड़-पौधे और पशु-पक्षी भी इसके प्रभाव से बच नहीं पा रहे हैं।

हमारा गांव उन कुछ गांवों में से एक है जहां के लोगों ने जन आंदोलन, अदालती सुनवाइयों और धरना-प्रदर्शन आदि के ज़रिए कोयला खनन पर रोक लगाने में सफलता हासिल की है। कंपनियों का दावा है कि वे हमें रोज़गार मुहैया करवाएंगी, लेकिन हमें इसमें किसी तरह का फ़ायदा नहीं दिखता है। वे एक परिवार से केवल एक व्यक्ति को रोज़गार देने की बात करते हैं, लेकिन हमारे गांव में खेती के काम में परिवार के प्रत्येक सदस्य की भागीदारी होती है।

हालांकि, यह सच है कि हमें खदानों के आसपास रहने का भारी ख़ामियाजा भुगतना पड़ता है। हमारे आसपास की हरियाली खत्म हो चुकी है। जब हमारे मवेशी घास और वनोपज चरते हैं तो उनके शरीर में कोयला खनन से निकलने वाले हानिकारक और ज़हरीले पदार्थ भी प्रवेश कर जाते हैं।

मवेशियों के स्वास्थ्य पर इन हानिकारक पदार्थों के सेवन का बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ता है और वे कई प्रकार की बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं। इन बीमारियों के कारण गायों और बकरियों से होने वाले दूध के उत्पादन में भारी कमी आने लगी है। नतीजतन, मुझ जैसे पशुपालक के भरोसे अपनी आजीविका चलाने वाले लोगों की आमदनी में भारी कमी आई है।

इस के कारण हमारे सामने आजीविका का एक बड़ा संकट खड़ा हो गया है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि अब खेती में आई कमी के कारण खेतिहर मज़दूरों के पास काम की कमी हो गई है और उनके पास कुछ नया काम सीखने का ना तो विकल्प है और ना ही पर्याप्त साधन हैं। इसके अलावा, आसपास के गांवों में खनन के लिए किए जाने वाले भारी विस्फोटों के कारण हमारे घरों की दीवारों पर भी दरारें पड़ने लगी हैं।

महाशय राठिया जन चेतना, रायगढ़ नाम की एक समाजसेवी संस्था के सदस्य हैं। यह संगठन छत्तीसगढ़ के पेल्मा गांव में स्थित एक सामुदायिक संगठन है। महाशय पेशे से एक पशुपालक हैं।

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छत्तीसगढ़ में हाथियों को जंगली जानवर क्यों नहीं माना जा रहा है?

छत्तीसगढ़ में हाथियों से बचने के लिए लिखी गई चेतावनी_जंगली जानवर
जब समुदाय के लोगों ने कोयला खनन का विरोध करना शुरू कर दिया तब उनसे यह कहा गया कि इस इलाक़े में जंगली जानवर नहीं हैं। | चित्र साभार: आईडीआर

साल 2019 में छत्तीसगढ़ के रायगढ़ ज़िले में एक जन सुनवाई आयोजित की गई। इस सुनवाई में स्थानीय पर्यावरण पर महाराष्ट्र स्टेट पावर जेनरेशन कंपनी लिमिटेड की कोयला खदानों के प्रभावों पर चर्चा की गई। इस प्रस्तावित खदान के अन्तर्गत कुल 14 गांव हैं और इस भूमि पर खनन प्रक्रिया करने का सीधा मतलब था – इलाक़े के घने जंगलों की कटाई। इन क्षेत्रों में रहने वाले समुदायों ने अपने स्वास्थ्य और क्षेत्र में रहने वाले जंगली जानवरों पर इसके प्रभाव के साथ, वन भूमि के नुकसान पर चिंता जताते हुए इसका विरोध किया था। लोगों का कहना है कि इस क्षेत्र में ऐसे भी मानव-वन्यजीव संघर्ष के कई मामले सामने आते रहते हैं। हालांकि, लोगों ने यह भी कहा कि अधिकारियों के कहे अनुसार इस क्षेत्र में कोई भी जंगली जानवर नहीं रहता है।

इस गांव का बच्चा-बच्चा यह जानता था कि वे ग़लत कह रहे हैं। इस मामले में हमने ऐसे ही एक प्रभावित गांव पेल्मा के एक किसान बंसीधर से बातचीत की। बंसीधर का कहना है कि  ‘हर साल हाथी हमारी फसल ख़राब कर देते हैं। पिछले ही साल हाथियों ने चावल की मेरी 150 बोरियों को बर्बाद कर दिया था और मुझे भारी नुक़सान झेलना पड़ा था’।

मैं कई दशक से एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में इन गांवों में काम कर रहा हूं। मैंने खनन से जुड़ी ऐसी कई पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन रिपोर्टें देखी हैं जिनमें रोचक तरीक़ों से हाथी के मुद्दों से बचने या उन्हें भ्रमित करने का प्रयास किया गया है। इन रिपोर्ट में कभी यह कहा जाता है कि जानवर आते तो हैं, लेकिन ऐसा बहुत कम होता है और वे आसपास के जंगलों में नहीं रहते हैं। इससे खनन कंपनियों को खुली छूट मिल जाती है।

वास्तविकता यह है कि हाथी इन इलाक़ों में अक्सर आते-जाते रहते हैं और यहां तक कि वन विभाग के अधिकारियों ने भी उनकी उपस्थिति की पुष्टि की है। पेल्मा के लगभग हर दूसरे घर की दीवार पर रंग-बिरंगे रंगों से चेतावनी लिखी हुई है। इस चेतावनी में कहा गया है कि ‘हाथियों से घिरे इन इलाक़ों में अपने घरों से बाहर ना सोयें, ख़ासकर तब जब आपके घरों में चावल, महुआ या अन्य वनोपज रखा हुआ है।’

एक बार यहां से गुजरते हुए मैं एक घर के बाहर रुक गया और ऐसी ही एक चेतावनी वाली तस्वीर खींच ली। बाद में, मैं उस तस्वीर को लेकर ज़िला वन अधिकारी के पास गया। मैंने उनकी रिपोर्ट पर सवाल उठाया जिसमें उन्होंने कहा था कि इन जंगलों में कोई जंगली जानवर नहीं रहता है। मैंने उन्हें बताया कि यह उनके अपने विभाग द्वारा लगाये गये चेतावनी के इन चित्रों को खंडित करता है। मैंने उनसे पूछा, ‘सर, आप कृपया मुझे यह बता दीजिए कि हाथी हैं या नहीं? या आपको लगता है कि गांव वालों को जब जानवरों को देखने की इच्छा होती है तो वे दूसरे जंगलों से उन्हें बुला लेते हैं?’

मेरी यह बात सुनकर अधिकारी को बहुत अधिक ग़ुस्सा आ गया लेकिन हमारी इस बातचीत का कोई नतीजा निकल नहीं पाया। साल 2022 में, इलाक़े में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की विशेषज्ञ सलाहकार समिति ने खनन शुरू करने के लिए पर्यावरण मंजूरी (ईसी) दे दी। इसके बाद समुदाय के लोगों को इस मामले पर गौर करने के लिए राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण में अपील दायर करनी पड़ी। आख़िरकार, फरवरी 2024 में, स्थानीय लोगों द्वारा उठाए गए स्वास्थ्य और पर्यावरण संबंधी वैध चिंताओं की अनदेखी जैसे कानूनी उल्लंघनों को देखते हुए ईसी को रद्द कर दिया गया।

राजेश कुमार त्रिपाठी जन चेतना रायगढ़ नामक एक संगठन चलाते हैं। यह संगठन छत्तीसगढ़ के आदिवासी क्षेत्रों में काम करता है।

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