ओडिशा के किसान चावल छोड़ रागी-बाजरा क्यों उगाने लगे हैं?

मल्कानगिरी ओडिशा के दक्षिणी हिस्से में स्थित एक पहाड़ी जिला है जो आंध्रप्रदेश के बेहद क़रीब है। मल्कानगिरी जहां स्थित है, वहां राज्य के अन्य हिस्सों की तुलना में अधिक वर्षा होती है। राज्य के सभी जिलों की तरह मल्कानगिरी के गांवों में भी रागी, बाजरा (पर्ल मिलेट) और फॉक्सटेल मिलेट जैसे अनाजों की उपज होती थी। लेकिन हरित क्रांति के बाद इस इलाक़े के किसान बेहतर दाम और आमदनी के लिए चावल और गेहूं जैसी नक़दी फसलें उगाने लगे हैं।

मल्कानगिरी के एक किसान मुका पदियामी कहते हैं कि “हमारे पूर्वज खेती के पारम्परिक तरीक़ों का उपयोग कर रागी जैसे तमाम अनाज उपजाते थे। लेकिन बाजार में इनके अच्छे दाम नहीं मिलते थे इसलिए उन लोगों ने ज्यादा एमएसपी वाले चावल और गेहूं की खेती शुरू कर दी।”

मल्कानगिरी चावल जैसी फसलों को उगाने के लिए एक आदर्श जगह थी क्योंकि यहां अच्छी वर्षा होती थी। लेकिन पानी के बहाव के कारण लंबे समय तक ऐसा करना सम्भव नहीं हो सका, जो कि पहाड़ियों के ऊपरी इलाक़ों में रहने वाले किसानों के लिए आम बात है। इसके साथ ही, वर्षा चक्र में भी अंतर आया है और इससे इलाक़े में लम्बे समय तक सूखे की स्थिति पैदा हो जाती है। नतीजतन, पानी की अधिक खपत वाली फसलों को नुक़सान पहुंचता है। ओडिशा मिलेट मिशन (ओएमएम) पर ओडिशा सरकार के कार्यक्रम सचिवालय के साथ काम करने वाली एक समाजसेवी संस्था वासन के कार्यक्रम प्रबंधक अभिजीत मोहंती कहते हैं कि “पानी के बहाव के कारण मिट्टी का कटाव होता है और खेतों की उपजाऊ मिट्टी बह जाती है। पहले इन पहाड़ियों में रहने वाली जनजातियां मोटे अनाज की खेती करती थी जिनकी जड़ें ज़मीन में गहरे होतीं थीं और मिट्टी को पकड़कर रखती थीं। इससे मिट्टी का कटाव नहीं हो पाता था।”

मुका जैसे किसान अब फिर से मोटे अनाजों की खेती की तरफ़ लौट रहे हैं। मुका कहते हैं कि “मैं पिछले कई वर्षों से रागी की खेती कर रहा हूं और बाजरा की खेती करते हुए भी मुझे तीन साल हो गए हैं। जब मैंने रागी और बाजरा की खेती करनी शुरू की तब गांव के लोगों ने मेरा मजाक उड़ाया था। लेकिन अब वे भी मेरे नक़्शे-कदम पर चलने लगे हैं क्योंकि अब हमारे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा है। यहां वर्षा अनियमित होती है, और बाजरे को बहुत कम पानी की जरूरत होती है।”

पिछले कुछ वर्षों में सरकार द्वारा बाजरे की खेती के लिए किए गए प्रोत्साहन से वास्तव में मदद मिली है। ओडिशा के आदिवासी विकास सहकारी निगम द्वारा स्थापित स्थानीय मंडी (बाजार) में मुका जैसे किसान अब एमएसपी पर एक क्विंटल बाजरा के लिए 3,400 रुपये कमा रहे हैं। वे नए और पुराने तरीक़ों को मिलाकर खेती कर रहे हैं। मुका कहते हैं कि “हमारे पूर्वज उतना ही अनाज उगाते थे जितना हमारे घर के लिए पर्याप्त होता था।”

मल्कानगिरी में बाजरा किसानों की नई पीढ़ी उन्नत कृषि विधियां अपना रही है। बेहतर उत्पादकता और उपज के लिए, वे जीवामृत, घनजीवामृत और बीजामृत जैसे जैव-इनपुट का उपयोग करते हैं। बहुत सारी रासायनिक खाद की जरूरत वाली चावल की फसल के विपरीत बाजरे के लिए ज्यादा खाद वगैरह की ज़रूरत नहीं होती है। 

मल्कानगिरी के समुदायों के लिए, बाजरा की खेती एक से अधिक तरीकों से उनकी आजीविका में मदद पहुंचा रही है। यहां वर्षा पर आधारित खेती करने वाले किसान आय के अन्य स्त्रोत के रूप में पशुपालन करते हैं। बाजरे की फसल के अवशेष पशुओं के चारे के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।

जैसा कि आईडीआर को बताया गया।

अभिजीत मोहंती वाटरशेड सपोर्ट सर्विसेज एंड एक्टिविटीज नेटवर्क (वासन), भुवनेश्वर में प्रोग्राम मैनेजर हैं। मुका पदियामी ओडिशा मिलेट मिशन (ओएमएम) द्वारा सहयोग प्राप्त एक प्रगतिशील बाजरा किसान-सह-प्रशिक्षक है।

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ओड़िशा में मछली पालन बना आजीविका का नया साधन

 हाथों में मछली का चारा_मछली पालन
पिछले छह महीनों में, समानंद और उनकी पत्नी ने मछली का चारा बेचकर लगभग 50,000 रुपये कमाए हैं। | चित्र साभार: अभिजीत मोहंती

कई सालों तक मल्कानगिरी की आदिवासी बस्तियां लगभग खाली थीं। ओडिशा के इस दक्षिणी जिले के गांवों के युवा पड़ोसी राज्य आंध्र प्रदेश के शहरों में बेहतर अवसरों की तलाश में जाते रहे हैं। लेकिन 2020 में कोविड-19 महामारी के साथ ही सब कुछ बदल गया। दरअसल नौकरियां दुर्लभ हो गईं और लोगों को अपने गांव वापस लौटना पड़ा। इसी बीच चमत्कारिक रूप से मत्स्यपालन से जुड़े कामों ने युवा आदिवासियों को घर पर लाभ कमाने वाली आजीविका खोजने में मदद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। एक तटीय राज्य होने के नाते, मछली ऐतिहासिक रूप से ओडिशा में लोगों के जीवन और आजीविका का अभिन्न अंग रही है। हालांकि मल्कानगिरी जमीन से घिरा हुआ है और समुद्र से दूर है। यहां कई नदियां और तालाब हैं जिनमें अंतर्देशीय मछली पालन की अपार संभावनाएं हैं। लेकिन इसमें एक समस्या है। 

राज्य मत्स्य विभाग के एक कनिष्ठ मत्स्य तकनीकी सहायक कैलाश चंद्र पात्रा कहते हैं, “छोटे पैमाने के किसान महंगा चारा खरीदने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं।” यह बदले में कम उपज देता है। इस चुनौती से निपटने के लिए मत्स्य विभाग ने मछली चारा उत्पादन कार्यक्रम शुरू किया है। 

चित्रकोंडा प्रखंड के सिंधीगुगा गांव के समानंद कुआसी इस कार्यक्रम में शामिल होने वालों में से एक थे। उनका कहना था कि “इसने मुझे आशा दी। मुझे मछली चारा उत्पादन इकाई स्थापित करने के लिए 1,38,300 रुपये मिले।” वह और उनकी पत्नी साईबाती अब मछली के चारे का उत्पादन कर रहे हैं और इसे उचित मूल्य पर किसानों को बेच रहे हैं। 2021 में इकाई की स्थापना के बाद से दंपति ने 30 क्विंटल से अधिक चारा उत्पादन किया है। 

इससे पहले आंध्र प्रदेश में एक प्रवासी श्रमिक के रूप में, समानंद अपनी मामूली कमाई से कुछ भी बचाने में असमर्थ थे और अक्सर “उनके घरेलू खर्च भी पूरे नहीं पड़ते थे।” पिछले छः महीने से समानंद और उसकी पत्नी ने मछली बेचकर लगभग 50,000 रुपए से अधिक की धनराशि कमाई है। वह कहते हैं कि “मुझे अब दोबारा आंध्र जाने की ज़रूरत नहीं है।”

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अभिजीत मोहंती भुवनेश्वर स्थित पत्रकार हैं। यह एक लेख का संपादित अंश है जो मूल रूप से विलेज स्क्वायर पर प्रकाशित हुआ था।

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