मुख्यरूप से ओडिशा और छत्तीसगढ़ में बसने वाली, भुंजिया जनजाति अपनी उन पारंपरिक प्रथाओं का पालन करती हैं जो उनके एकाकी जीवनशैली में योगदान देती हैं। खासतौर पर, इस समुदाय की महिलाएं एकाकी जीवन जीती हैं। बड़े पैमाने पर इनके समाज को देखने पर हम पाते हैं कि इस समुदाय में सत्ता का संतुलन पुरुषों के पक्ष में ही है। महिलाएं आमतौर पर, अपने घरों तक ही सीमित होती हैं और उन्हें केवल लाल बंगला में ही खाने की अनुमति है। यह एक पवित्र रसोई स्थल है जहां इस समुदाय के लोगों के लिए भोजन तैयार किया जाता है। इस जनजाति की भाषा भी अलग है, जिसके कारण अन्य स्थानीय समुदायों और इस जनजाति के बीच के अलगाव की एक और परत जुड़ जाती है।
जब लोक आस्था सेवा संस्था ने गरियाबंद जिले के हटमहुआ गांव में पहली बार समुदाय के लोगों के साथ बैठक आयोजित की तब इस बैठक में उपस्थित महिलाओं ने बातचीत में बिलकुल हिस्सा नहीं लिया था। चूंकि हम बाहरी थे इसलिए हम लोगों के साथ संवाद को लेकर उनके मन में झिझक थी और उनके पास हम पर भरोसा करने का कोई कारण भी नहीं था। समुदाय की महिलाओं के सशक्तिकरण के दौरान, हमने सबसे पहले इस काम में पुरुषों को शामिल किया और उनका भरोसा हासिल किया। हम लोगों ने समुदाय की महिलाओं के साथ भूमि अधिकारों, सरकारी योजनाओं और नेतृत्व जैसे विषयों पर नियमित रूप से बैठकों और प्रशिक्षण सत्रों का आयोजन किया। नतीजतन वे महिलाएं अब धीरे-धीरे हमारे सामने खुलकर बात करने लगीं।
समुदाय से संवाद स्थापित करने के बाद हमने जाना कि वे वर्षों से अपने व्यक्तिगत वन अधिकारों के दावों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उन्हें अपने दावे पेश किए हुए 15 वर्ष हो गये लेकिन अब तक किसी भी तरह की प्रतिक्रिया नहीं मिली है। हम यह समझ गये कि लंबित दावे का समाधान समुदाय, विशेष रूप से महिलाओं के लिए बेहतर जीवन के लिए एक महत्वपूर्ण जरिया होगा। हालांकि, हम यह भी समझ गये थे कि सशक्तिकरण के मार्ग में आने वाली अनगिनत बाधाओं को देखते हुए भूमि पर पहुंच और नियंत्रण को एक दीर्घकालिक लक्ष्य के रूप में देखा जाना चाहिए, जिसके लिए हम पहले उनकी तत्काल जरूरतों को पूरा करके इस रास्ते पर आगे बढ़ सकते हैं। उदाहरण के लिए, उनके पास राशन कार्ड नहीं होने के कारण वे सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन स्कीम – पीडीएस) का भी लाभ नहीं उठा सकते थे। उन्हें मनरेगा के माध्यम से रोज़गार भी नहीं मिल सकता था क्योंकि उनके पास जॉब कार्ड नहीं थे। भुंजिया महिलाओं को विधवा पेंशन जैसे अपने अधिकारों के बारे में या तो पता नहीं था या फिर वे इसका लाभ उठाने में सक्षम नहीं थीं।
इसलिए हमने इन महिलाओं को जिला कलेक्टर के पास जाकर अपने मुद्दों के बारे में बताने के लिए प्रोत्साहित किया और इसके लिए आवेदन तैयार करने में उनकी मदद भी की। यह उनके लिए एक मुश्किल काम था क्योंकि इससे पहले इन महिलाओं ने अपने गांव की सीमा से बाहर ना तो कभी अपने पैर रखे थे। ना ही वे यह जानती थीं कि बाहर की दुनिया कैसी होगी। फिर भी, उन्होंने कलेक्टर के कार्यालय में जाकर उनसे बात करने का साहस जुटाया। कलेक्टर ने उन्हें सकारात्मक प्रतिक्रिया दी और इससे उनका डर और अविश्वास काफी हद तक कम हो गया। हटमहुआ की महिलाओं के अनुभवों को देखकर वे हमारे काम की समर्थक बन गईं और उन्होंने जिले के अन्य गांवों की भुंजिया महिलाओं को हमारे साथ काम करने के लिए तैयार करने में भी हमारी मदद की। 2023 में, गांव के कुछ लोगों को उनके व्यक्तिगत वन अधिकार दावों को मान्यता देने वाले भूमि दस्तावेज मिले। लेकिन यह इस समुदाय के लिए एक शुरुआत भर है क्योंकि महिलाओं ने नेतृत्व की भूमिका में आना और अपने अधिकारों की मांग शुरू कर दी है और दूसरों को भी इसके लिए प्रोत्साहित कर रही हैं।
लता नेताम छत्तीसगढ़-आधारित समाजसेवी संस्था लोक आस्था सेवा संस्थान की संस्थापक हैं।
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साल 2012 में मैं छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले के जारगांव में मनरेगा से जुड़ा काम कर रही थी। उसी दौरान पांच औरतों ने मेरे पास आकर मुझसे मदद मांगी। उन्होंने मुझे बताया कि वे सभी आदिवासी समुदाय से आती हैं और या तो विधवा हैं या उनके पतियों ने उन्हें छोड़ दिया है। अपना भविष्य सुरक्षित करने के लिए वे औरतें उस ज़मीन पर मालिकाना हक़ का दावा करना चाहती थीं जिसपर वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत लम्बे समय से खेती कर रही थीं।
पंचायत स्तर पर इसके लिए आवेदन देने के बावजूद गांव के शक्तिशाली लोगों ने उनके आवेदन ख़ारिज कर दिए। उन लोगों का कहना था कि “ये औरतें हैं, ये ज़मीन का क्या करेंगी?” हालांकि वास्तविकता यह थी कि इन औरतों की ज़मीन सिंचाई स्त्रोत के नज़दीक थी जिसका मतलब था कि उन्हें पानी की कमी नहीं थी। और ये शक्तिशाली लोग इन ज़मीनों को हड़पने के तरीक़े खोज रहे थे।
जब कोई व्यक्ति ज़मीन पर अपने हक़ (या पट्टा) के लिए आवेदन देता है तब इसकी जांच वन अधिकार समिति द्वारा की जाती है जो एक सामवेशी निकाय है। इस समिति में 10 से 15 लोग होते हैं। इनमें दो तिहाई अनुसूचित जनजाति का प्रतिनिधित्व होना चाहिए और एक तिहाई महिला सदस्यों का। जब मैंने इन पांचों के साथ बैठकर ज़मीन के काग़ज़ जमा करने शुरू किए तब मुझे पता चला कि पंचायत के लोगों सहित वहां किसी को यह बात पता नहीं थी कि कौन-कौन से लोग वन अधिकार समिति के सदस्य हैं। इसलिए हमने पूरे गांव में उन्हें खोजना शुरू किया। एक आदमी से दूसरे आदमी तक जाते हुए अंत में हमने पाया कि इन पांच औरतों में से दो औरतें इस समिति की सदस्य थी। ये औरतें अपने दस्तावेज़ों पर स्वयं ही हस्ताक्षर कर सकती थीं! इन महिलाओं को बेशक इसके बारे में कुछ भी पता नहीं था और न ही वे अपनी भूमिकाओं और ज़िम्मेदारियों को लेकर जागरूक थीं।
इसके बाद समिति के अन्य सदस्यों का पता लगाने, उनसे हस्ताक्षर करवाने और वन अधिकार समिति के हिस्से के रूप में पंचायत में इसे औपचारिक रूप से दर्ज करवाने में दो महीने का समय लग गया। ऐसा केवल इसलिए सम्भव हो सका क्योंकि हम लोग लगातार इस काम में लगे हुए थे और ग्राम सभा और पंचायत में महिलाओं के अधिकारों की वकालत कर रहे थे।
यह मेरी जानकारी में होने वाले उन कई मामलों में से एक है जहां क़ानून महिलाओं के पक्ष में है लेकिन समुदाय इसके सही कार्यान्वयन में बाधा बनता है। समुदायों और सरकारी अधिकारियों के बीच जागरूकता पैदा करके ही इस स्थिति को बदला जा सकता है।
निसार बेगम लोक आस्था सेवा संस्थान में एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं।
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