असम के किसानों के सामने धर्म और जलवायु का दोहरा धर्मसंकट

अंबुबाची मेले के दौरान गुवाहाटी में कामाख्या मंदिर की एक तस्वीर_जलवायु परिवर्तन अनुकूलन
पूरे असम और भारत से भक्त और संन्यासी अंबुबाची मेले के लिए गुवाहाटी के कामाख्या मंदिर में इकट्ठा होते हैं। | चित्र साभार: पोलाश पटांगिया

अंबुबाची मेला असम में मनाया जाने वाला एक वार्षिक उत्सव है। आमतौर पर इस मेले का आयोजन जून के दूसरे-तीसरे सप्ताह में किया जाता है। इसमें राज्य और देशभर से आने वाले श्रद्धालु हिस्सा लेते हैं। इसके लिए वे गुवाहाटी स्थित कामाख्या मंदिर में इकट्ठा होते हैं। इस दौरान राज्य के शहरी इलाक़ों में जहां औद्योगिक जीवन अपनी रफ्तार से चलता रहता है। वहीं, ग्रामीण इलाकों में लगभग सभी प्रकार की कृषि गतिविधियां रुक जाती हैं।

हाल ही में, चिरांग जिले में काम के दौरान मैंने देखा कि इस दौरान लोग धान की बुआई करने से बच रहे थे। इस परंपरा का पालन विशेषरूप से हिंदू असमिया, बंगाली और संथाली किसान करते देखे गये। उनकी धार्मिक आस्थाओं के अनुसार, अंबुबाची मेले के दौरान धान की रोपनी अशुभ मानी जाती है और ऐसा करने से उस साल ख़राब फसल हो सकती है। इसलिए इस दौरान वे रोपनी की बजाय खेतों में नर्सरी बेड तैयार करना, बीजों के उपचार जैसी अन्य तरह की गतिविधियों में लगे रहते हैं, और मेला खत्म होने के बाद ही बीजारोपण करते हैं।

पहले जब मौसम का अनुमान लगाना आसान था, तब यह व्यवस्था कारगर थी। मध्य-जून से बारिश शुरू हो जाती थी और कभी-कभी तो बाढ़ भी आ जाती थी। जब तक मेला समाप्त होता था, बाढ़ भी कम हो जाती थी और अपने पीछे गीली मिट्टी छोड़ जाती थी जिससे पोखर तैयार करने में मदद मिलती थी। यह रोपणी प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण कदम होता है। लेकिन, जलवायु परिवर्तन के कारण अब स्थितियां पहले जैसी नहीं रह गई हैं। अब मानसून देरी से आता है और मेले के समय लगभग सूखे जैसी स्थिति होती है। जब तक त्योहार ख़त्म होता है, तेज बारिश शुरू हो जाती है। भारी वर्षा वाली यह अवधि फसलों के लिए हानिकारक होती है क्योंकि यह वर्षा, अंकुरों के साथ-साथ मिट्टी को भी बहा ले जाती है।

यह ग्रामीण असम में कृषि समुदायों के लिए एक नई समस्या बन गई है जो अपनी खपत एवं आय दोनों के लिए चावल पर ही निर्भर होते हैं। वे ना तो अपनी सदियों-पुरानी परंपरा को छोड़ सकते हैं और ना ही मौसम की अनिश्चितताओं के अनुकूल स्वयं को ढाल सकते हैं।

पोलाश पटांगिया ऐड एट एक्शन में नॉलेज हब और कम्युनिकेशंस के प्रबंधक के रूप में काम करते हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें: जानें कि कैसे जलवायु परिवर्तन, ओडिशा में मनाये जाने वाले त्योहारों में देरी का कारण बन रहा है।

अधिक करें: लेखक के काम को विस्तार से जानने और उन्हें अपना समर्थन देने के लिए उनसे [email protected] पर संपर्क करें।

असम में किसान खेती के रासायनिक और जैविक दोनों तरीक़े अपना रहे हैं

महिलाओं का एक समूह धान की रोपनी करता हुआ_रासायनिक और जैविक खेती
हालांकि जरूरी नहीं कि यह धारणा सच हो फिर भी सरकार समुदायों को बता रही है कि खेती के प्राकृतिक तरीक़ों से कम उपज हो सकती है। | चित्र साभार: सेस्टा

हाल के वर्षों में, असम में किसानों के बीच खेती के रासायनिक तरीक़ों और संकर (हाइब्रिड) बीजों को लेकर निर्भरता बढ़ी है। ज़मीन पर राज्य एवं केंद्र, दोनों ही सरकारें प्राकृतिक और रासायनिक दोनों ही तरीक़ों को बढ़ावा दे रही हैं। नतीजतन, समुदाय के लोगों के बीच एक भ्रम की स्थिति पैदा हो गई है। उदाहरण के लिए, किसानों में बीज-वितरण के समय कृषि विभाग वर्मीकम्पोस्ट किट भी देता है। हालांकि उसी समय विभाग के लोग नाइट्रोजन-फ़ॉस्फ़ोरस-पोटैशियम (एनपीके) खाद, जिंक और यूरिया के किट भी बांटते हैं।

इसके अलावा, जरूरी नहीं है कि यह धारणा सच ही हो फिर भी सरकार समुदायों को बता रही है कि खेती के प्राकृतिक तरीक़ों से उपज में कमी आ सकती है। उपज मिट्टी के स्वास्थ्य, सिंचाई, बीज की क्षमता और खरपतवार और कीटों की उपस्थिति सहित विभिन्न कारकों पर निर्भर करती है। मामला कुछ भी हो लेकिन किसानों ने इस कथन को स्वीकार कर लिया है और चूंकि उन्हें तुरंत परिणाम चाहिए इसलिए अब वे यूरिया जैसी रासायनिक खादों का अधिक इस्तेमाल करते हैं। 

चिरांग जिले में सेस्टा जिन किसानों के साथ काम करता है, उनका कहना है कि वे कृषि पर रसायनों के नकारात्मक प्रभाव को समझते हैं। वे सभी इस बात को जानते हैं कि इन तरीक़ों से उपजाया गया खाद्य पदार्थ स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है। यही कारण है कि इनमें से कई लोगों ने अपने खेतों को दो भागों में बांट लिया है। ज़मीन के एक टुकड़े पर वे प्राकृतिक तरीक़े से खेती करते हैं और उससे होने वाली उपज को अपने इस्तेमाल में लाते हैं। दूसरे हिस्से में रासायनिक विधियों से खेती की जाती है और उससे उपजने वाले अनाज को बाज़ार में बेच दिया जाता है। 

कौस्तव बोरदोलोई सेस्टा में डिजिटल और संचार विशेषज्ञ के रूप में काम करते हैं, पोलाश पटांगिया सेस्टा के साथ साझेदारी में काम करते हैं और उसके संचार कार्यकारी हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें : इस लेख को पढ़ें और माजुली नदी द्वीप क्षरण के कुछ अनसोचे नतीज़ों के बारे में जानें।

अधिक करें: लेखकों के काम को विस्तार से जानने और उन्हें अपना समर्थन देने के लिए उनसे [email protected] और [email protected] पर सम्पर्क करें।

असम में फ़्रिस्बी का खेल जातीय संघर्ष को रोक रहा है

अपने हाथ में फ़्रिस्बी को पकड़े हुए लोगों का एक समूह_फ़्रिस्बी का खेल 
अल्टीमेट फ़्रिस्बी उन विचारों को लेकर आया जिनकी संघर्ष-ग्रस्त समुदायों को तत्काल आवश्यकता थी। | चित्र साभार: द एंट

असम में बोडो और आदिवासी समुदाय कई दशकों से एक-दूसरे के पड़ोसी हैं। बोडो गांव भूटान की सीमा से लगे हैं। आदिवासियों की आबादी का एक बड़ा हिस्सा दिहाड़ी मज़दूर है और उन्हें काम के लिए बोडो गांवों में जाना होता है जिसके लिए सीमा पार करनी पड़ती है। वहीं, बोडो जनजाति के लोग अपने खेतों में उगने वाली फसलों को बेचकर अपना गुजर-बसर करते हैं इसलिए उन्हें बाजार की ज़रूरत होती है। वहां पहुंचने के लिए उन्हें आदिवासी गांवों से गुजरना पड़ता है।

जब भी इन दोनों समुदायों के बीच हिंसा की कोई घटना होती है तब इनकी जीविका कमाने से जुड़ी सभी गतिविधियां ठप्प पड़ जाती हैं। 2014 में भी ऐसा ही कुछ हुआ था जब चिरांग जिले जैसे कई इलाकों में समुदायों के बीच जातीय संघर्ष हुए थे। इस संघर्ष में कई लोगों की जान चली गई थी। तत्काल प्रभाव से शांति स्थापित करने की जरूरत थी जिसके लिए समुदाय के लोगों को आमने-सामने बैठकर बात करनी थी। यही वह समय था जब खेल-कूद जुड़ाव के सूत्र के रूप में उभर कर आया।

इलाके के कई समुदायों में हर तरह के खेल की खासी लोकप्रियता थी। इसलिए यहां काम करने वाले कई स्थानीय और समाजसेवी संगठनों ने सोचा कि इसका फायदा उठाना चाहिए। बोडो और आदिवासियों को एक ही छत के नीचे लाने के लिए इन्होंने कुश्ती जैसे स्वदेशी खेलों का इस्तेमाल किया क्योंकि दोनों ही समुदायों के लोग पहले से ही इसे खेलना जानते थे। लेकिन एक खेल अल्टीमेट फ्रिस्बी भी था – एक ऐसा खेल जिसे स्थानीय लोगों ने कभी नहीं खेला था – जो बहुत जल्दी बहुत अधिक लोकप्रिय हो गया।

यह विदेश से आया एक खेल है। 2015 में मैंने अपने एक दोस्त से सुना कि अनीष मुखर्जी जो एक गांधी फ़ेलो हैं, इस खेल में पारंगत हैं। साथ ही, यह भी पता चला कि वे असम में समुदायों के साथ काम करना चाहते हैं। हमने उनसे सम्पर्क किया और इस पर चर्चा की कि क्या और कैसे यह खेल समुदायों के बीच के तनाव को ख़त्म करने में मददगार साबित हो सकता है?

चिरांग के लोगों के लिए अल्टीमेट फ़्रिस्बी एक एकदम नया खेल था। यह अपने साथ ऐसे मौके लेकर आया था जिनकी संघर्ष-ग्रस्त समुदायों को तत्काल आवश्यकता थी।उदाहरण के लिए, इसे लड़के एवं लड़कियों को एक साथ मिलकर खेलना था और उम्र की सीमा भी नहीं थी। जल्दी ही मां और बेटे, भाई और बहन एक साथ फ़्रिस्बी खेल रहे थे। इस खेल में कोई रेफ़री नहीं होता है इसलिए टीम के सदस्यों को सामूहिक रूप से मध्यस्थता करनी पड़ती थी और खेल के दौरान उभरे मुद्दों को हल करना होता था।

जातीय शत्रुता वाले क्षेत्र में यह एक महत्वपूर्ण अभ्यास था। इस खेल में एक ‘स्पिरिट सर्कल’ की अवधारणा भी है – हर बार खेल शुरू करने से पहले, खिलाड़ी रणनीति बनाने के लिए एक साथ मिलते हैं जिससे उनके बीच संवाद को बढ़ावा मिलता है। यह फुटबॉल जैसे किसी खेल के साथ सम्भव नहीं था जिनके बारे में समुदाय की अपनी अवधारणा है। फ़्रिस्बी लिंग, धर्म और भाषाई पहचान के मानदंडों से अछूता था और फैसिलिटेटर खेल के नियमों में सुधार कर सकते थे।

उदाहरण के लिए हमने एक नियम बनाया है जिसके अनुसार प्रत्येक टीम को तीन मातृभाषाओं और तीन धर्मों का प्रतिनिधित्व करना होता है। इससे खेलने वालों को जो कभी अपने गांव से बाहर नहीं गए थे, उन्हें अपनी टीम में लोगों को शामिल करने के लिए उनके पास जाने और उन्हें समझाने पर मजबूर होना पड़ा।

जेनिफर लियांग असम में ग्रामीण विकास के क्षेत्र में काम करने वाली एक समाजसेवी संस्था द एंट की सह-संस्थापक हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें: जानें किस तरह कुश्ती ने असम में युवा बोडो लोगों के बीच शराब की लत से लड़ने में मदद की।

अधिक करें: जेनिफ़र लियांग के काम को विस्तार से जानने और उन्हें अपना समर्थन देने के लिए उनसे [email protected] पर सम्पर्क करें।

खोमलैनै कुश्ती बोडो जनजाति को शराब की लत से लड़ने में मदद करता है

दो युवा लड़के पारंपरिक बोडो पोशाक में भीड़ के सामने कुश्ती कर रहे हैं_खोमलैनै
खोमलैनै, जो खेल अनुशासन के हिस्से के रूप में धूम्रपान और शराब पीने पर प्रतिबंध लगाता है, शराब के खिलाफ एक उपयोगी हस्तक्षेप है। | चित्र साभार: मिजिंग नरज़री

2009 में जब भूतपूर्व मुक्केबाज़ मिजिंग नरज़री खोमलैने (पारंपरिक बोडो कुश्ती) के कोच बने थे तब इस खेल को खेलने वाले लोगों की संख्या बहुत अधिक नहीं थी। वह सिमलगुरी गांव के लोगों में इसके प्रति आकर्षण पैदा करने के लिए वहां के स्कूलों और खुले मैदानों में खोमलैने करके दिखाते थे। लेकिन गांव के ज़्यादातर लोग इस बात को समझ नहीं पा रहे थे कि उनके बच्चों को एक ऐसे खेल में अपने हाथ-पैर तुड़वाने की क्या ज़रूरत है जिससे स्थाई कमाई भी नहीं होगी।

मिजिंग कहते हैं “मुझे आज भी याद है जब एक महिला ने मुझसे पूछा था कि “पिछली बार कब किसी ने पारंपरिक बोडो पोशाक में खेल खेलकर अपना जीवन चलाया था?” तब मेरे पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था।”

तब से अब तक खोमलैने ने लम्बी दूरी तय की है। सिमलागुरी के कई युवाओं को इस खेल के अनुशासन और शारीरिक फ़िटनेस के कारण भारतीय सेना और पुलिस बल में नौकरी मिली है।हालांकि गांव में खोमलैने का केवल इतना ही महत्व नहीं है। पारम्परिक रूप से शराब बनाने वाले बोडो जनजाति के घरों में भी पहले ऐसी स्थिति नहीं थी। मिजिंग कहते हैं “शराब हमेशा से हमारी संस्कृति का हिस्सा रही है और हम इसका इस्तेमाल पूजा से लेकर अंत्येष्टि तक में करते हैं। लेकिन ऐसे अवसरों पर बच्चों को शराब पीने की अनुमति नहीं होती थी। इनमें से कुछ आयोजन विशेष रूप से व्यस्क लोगों के लिए होते थे। हालांकि चीज़ें धीरे-धीरे बदलने लगीं। व्यस्क लोगों के साथ बच्चे भी शामिल होने लगे और उन्होंने भी शराब पीना शुरू कर दिया।”

इस बदलाव के लिए आंशिक रूप से उपभोक्तावाद में वृद्धि को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। चिरांग जिले ने अब पूरी तरह से ‘पिकनिक स्पॉट’ का रूप ले लिया है और यहां किराए पर रहने की जगह मिल जाती है। यह जिला शराब पीने का अड्डा बन चुका है। दूसरा कारण सिमलागुरी की भूटान से निकटता है, जहां शराब भारत की तुलना में सस्ती है। जश्न मनाने के किसी भी अवसर पर लोग केवल 30 मिनट की दूरी पर स्थित नेपाल-भूटान सीमा के दूसरी ओर चले जाते हैं। 

ऐसी स्थिति में, खेल अनुशासन के हिस्से के रूप में धूम्रपान और शराब पीने पर प्रतिबंध लगाने वाला खोमलैनै एक उपयोगी हस्तक्षेप है। यह खेल उन माता-पिताओं को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है जो शराब के नशे की लत से लड़ने के लिए बेचैन हैं और उन बच्चों को अपनी ओर खींच रहा है जिन्हें अपने हमउम्रों का जीवन बेहतर दिखाई पड़ता है। हालांकि ऐसा बहुत कुछ है जो यह खेल सिमलागुरी और असम के लोगों के लिए कर सकता है। लेकिन इसके लिए इसे सरकारी सहयोग और समर्थन की ज़रूरत है।

मिजिंग का कहना है कि “भारतीय खेल प्राधिकरण (एसएआई) अब हमारे गाँव के बोडो बच्चों को खेल उपकरण प्रदान करके उनका समर्थन करता है। वे हमारे बच्चों को हॉस्टल भी मुहैया करवाते हैं। यह सब कुछ बहुत अच्छा है लेकिन मुझे लगता है कि हमारे केंद्रों की तरह ही समुदाय द्वारा संचालित केंद्रों के लिए भी हमारे पास फंड होता तो बहुत अच्छा होता। एसएआई केवल प्रतिभा के आधार पर ही गांव के बच्चों का चुनाव करती है। उनके लिए सभी एक बराबर हैं। हम समझते हैं कि परिवार की आय आदि भी एक खिलाड़ी के जीवन को सींचने में अपना योगदान देने वाले कई कारकों में से एक है। मैं एक ऐसा हॉस्टल बनवाना चाहता हूं जहां बोडो जनजाति के गरीब परिवारों के बच्चे रह सकें, अभ्यास कर सकें और अपने उस समय का उपयोग पढ़ाई में लगा सकें जिसे वे अभी घर के कामों में लगाते हैं। इस दिनचर्या से उन्हें शराब से दूर रहने में भी मदद मिलेगी।”

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

मिज़िंग नरज़री ट्राइबल लीडरशीप प्रोग्राम 2022 में फ़ेलो हैं और असम में चिरां स्पोर्ट्स सेंटर के संस्थापक हैं।

अधिक जानें: जानें कि कश्मीर के एक गांव में लोग सड़क के बदले कुश्ती का एक मैदान क्यों चाहते थे।

अधिक करें: अधिक जानने और इनका समर्थन करने के लिए मिजिंग नरज़री से [email protected] पर सम्पर्क करें।