कर्नाटक के दूरदराज इलाक़ों में रहने वाले आदिवासी समुदायों के लोगों का स्वास्थ्य स्तर बहुत ही ख़राब है। इसके लिए स्वच्छ पेयजल तथा स्वच्छता सुविधाओं, उचित आमदनी दर, सड़क और आवास जैसी बुनियादी सुविधाओं तक इनकी पहुंच की कमी को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। ये सभी कारक उन्हें बीमारी की ओर धकेलते हैं। बावजूद इसके इलाज के लिए ये लोग अपने इलाक़े के सरकारी स्वास्थ्य सेवा केंद्रों के बजाय पारंपरिक आयुर्वेदिक चिकित्सकों पर ज़्यादा भरोसा करते हैं।
कर्नाटक में आदिवासी समुदायों के स्वास्थ्य पर शोध करने वाली पीएचडी शोधार्थी सुशीला केंजूर कोरगा कहती हैं कि “लोगों को ज़िला अस्पताल या तालुक़ा अस्पताल जाने के लिए तैयार करना बहुत ही मुश्किल काम है। पहले इस काम के लिए हम समुदाय के नेताओं की मदद लेते थे। लेकिन उनकी बात भी ये लोग बहुत अधिक गम्भीर बीमारी की हालत में ही मानते थे।” वह आगे बताती हैं कि “दुर्भाग्यवश, अंतिम समय तक इंतज़ार करने का परिणाम कई बार मरीज की मृत्यु के रूप में सामने आता था। कई वर्षों तक ऐसी ही स्थिति रहने से लोगों का सरकारी अस्पतालों पर भरोसा और अधिक कमजोर होता गया।”
सुशीला के सहकर्मी महंतेश एस के का भी अनुभव कुछ ऐसा ही है। उन्होंने हमें बताया कि “जब हम उन्हें अस्पताल ले जाने या स्वास्थ्य जागरूकता से जुड़ी बातें करना शुरू करते थे तब वे अपने घरों के दरवाज़े बंद कर लेते थे और हमसे दूर जंगल में भाग जाते थे।”
चामराजनगर जिले की एक ख़ास घटना को याद करते हुए वह बताते हैं कि “एक व्यक्ति को गैंग्रीन था। हमने उसकी सर्जरी के लिए उसे नज़दीक के सरकारी अस्पताल में भर्ती करवाया लेकिन सर्जरी वाले दिन वह अपनी पत्नी को वहीं छोड़ अस्पताल से भाग गया। बाद में हमें पता चला कि सरकारी अस्पताल में मुफ़्त सुविधा मिलने के बावजूद भी वह निजी अस्पताल में भर्ती हो गया।”सुशीला यहां की स्थानीय समुदाय कोरगा से आती हैं। यह कर्नाटक में विशेष रूप से कमजोर आदिवासी समूहों में से एक है। उन्होंने अपने कई साल सिर्फ़ इस विषय पर शोध में लगाया है कि लोगों के अंदर बैठे इस डर और अविश्वास को कैसे दूर किया जा सकता है। इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ (आईपीएच) और जॉर्ज इंस्टीट्यूट ऑफ ग्लोबल हेल्थ के एक प्रोजेक्ट के तहत सुशीला ने आदिवासी नेताओं, अस्पताल के कर्मचारियों, और जिला- और राज्य-स्तरीय स्वास्थ्य अधिकारियों से मुलाकात की। इस मुलाक़ात का उद्देश्य इन लोगों में इस क्षेत्र में मददगार साबित हो सकने वाले आवश्यक नीति-स्तरीय हस्तक्षेपों की समझ को विकसित करना था।
इस बातचीत में उन्होंने पाया कि समुदाय के सदस्यों की मुख्य चिंता स्वास्थ्य केंद्रों पर उनके साथ किया जाने वाला बर्ताव और स्वास्थ्यकर्मियों का व्यवहार था। उन्हें अक्सर ऐसा महसूस होता था कि एक ग़ैर-आदिवासी समुदाय के सदस्य की तुलना में उनके इलाज में अधिक समय लगता है। इसके अलावा भाषाई समस्या के कारण उन्हें अस्पताल के कर्मचारियों से बातचीत करने और अपनी बीमारी के बारे में विस्तार से बताने में भी दिक्कतों का सामना करना पड़ता था। यह उनके लिए एक डरावनी और अनजान जगह थी। ऐसे कई मामले थे जहां अस्पताल में आदिवासी लोगों की मदद के लिए आईपीएच की तरफ़ से उनका प्रतिनिधि सदस्य वहां तैनात किया गया था। ऐसे मामलों में समुदाय के लोगों को सरकारी अस्पतालों में अपना इलाज करवाने में सुरक्षित महसूस हुआ।
सुशीला और उनके सहयोगियों ने अब एक प्रस्ताव पर काम किया है जो उन्होंने सरकार को सौंपा हैं। प्रस्ताव में स्थानीय आदिवासी समुदायों के एक स्वास्थ्य नेविगेटर की चौबीसों घंटे उपस्थिति को जिला और तालुका अस्पतालों में अनिवार्य बताया गया है। कर्नाटक सरकार राज्य के आठ जिलों में नीति को लागू करने की योजना बना रही है।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
महंतेश एस के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ में रिसर्च ऑफिसर हैं; सुशीला केंजूर कोरगा बेंगलुरु के इंस्टिट्यूट ऑफ़ पब्लिक हेल्थ में रिसर्च एसोसिएट और ट्राइबल लीडरशिप प्रोग्राम 2022 में फेलो हैं।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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