राजस्थान के अलवर जिले का पशुपालक गुज्जर समुदाय अपने मवेशियों को चराने के लिए और शहद, जड़ी-बूटियां, फल और जंगल से मिलने वाले अन्य छोटे-मोटे वन उत्पादों के लिए ओरणों (पवित्र वन) का उपयोग करता है।
गुज्जरवास गांव में देवबानी (स्थानीय देवता देवनारायण के नाम पर) नाम का एक ऐसा ही ओरण है जिसमें पीलू, जंगली तुलसी, नीम और गिलोय जैसे देशी पेड़ और जड़ी-बूटियां पाई जाती हैं। इन पौधों और जड़ी-बूटियों का उपयोग पारंपरिक चिकित्सा में ल्यूकोरिया और मलेरिया जैसी बीमारियों के इलाज के लिए शरीर की प्रतिरक्षा को बढ़ाने के लिए किया जाता है।
किसान अपनी भैंसों को सुबह-सुबह ओरण में लेकर जाते हैं और सूर्यास्त तक वहीं रहते हैं। दिन भर उनकी भैसें वहां चरती हैं। खेती और पशुपालन का काम करने वाले जसराम गुज्जर ने हमें वह जगह दिखाई जहां उनकी पत्नी हर दिन उनके लिए दोपहर का खाना लेकर आती हैं। वह अपनी पत्नी को उस जगह का स्थानीय नाम बताते हैं ताकि उन्हें ढूंढ़ने में आसानी हो, और वह हमेशा ही सही जगह पर पहुंच जाती हैं। ओरण के भीतर ही जगहों के कई प्रकार के विभाजन हैं जिनके बारे में केवल स्थानीय लोगों को ही याद है। यह बात अलग है कि किसी बाहर के व्यक्ति को पूरा ओरण एक जैसा ही दिखाई पड़ता है।
अलवर स्थित समाजसेवी संस्था क्रपाविस के संस्थापक अमन सिंह का कहना है कि समुदाय के लोग देवबानी को अपने देवता देवनारायण की पूजा का ही विस्तृत रूप मानते हैं, और यही कारण है कि वे इस ओरण को अपनी आजीविका के स्रोत से कहीं अधिक महत्व देते हैं। ‘स्थानीय लोग बताते हैं कि ओरण के निर्माण के समय विस्तृत अनुष्ठान हुआ था, गांव का प्रत्येक चरवाहा मिट्टी के बर्तन में गर्म दूध लाता था और उस बर्तन को अपने सिर पर रखकर उस भूमि की परिक्रमा करता था; बर्तनों से टपकने वाले दूध से ही देवबानी की सीमाओं को चिन्हित किया गया था।’
इस मानसिक मानचित्र से अतीत में समुदाय के लोगों को काफ़ी मदद मिली। एक बुजुर्ग पशुपालक चैतराम गुज्जर ने कई ऐसे उदाहरण दिये जिनमें उनकी स्मृति के कारण उन्हें वन विभाग और समुदाय के व्यक्तियों के अतिक्रमण का विरोध करने में मदद मिली। उन्होंने बताया कि, ‘कुछ साल पहले, वन विभाग के लोग ओरण में नर्सरी बनाना चाहते थे। उन्होंने हमारे समुदाय की जमीन पर नर्सरी बेड्स बनाने शुरू किए लेकिन गांव के लोगों ने एकजुट होकर उन्हें उखाड़ फेंका। हम जानते हैं कि कौन सा हिस्सा ओरण का है और कौन सा नहीं।’ आगे उन्होंने कहा कि, ‘हमारे समुदाय के लोगों ने भी इस ज़मीन पर खेती करने और घर बनाने की कोशिश की। लेकिन हर बार हम एकजुट होकर ओरण को नुक़सान से बचाने में कामयाब हुए हैं।’
अमन आगे कहते हैं कि, ‘समुदाय के सदस्यों ने अपनी ज़मीन को पहचाना और इस मामले को लेकर सरपंच और पटवारी के पास गये। उन्होंने रेवेन्यू के काग़ज़ात देखे और पाया कि समुदाय की सामूहिक स्मृति क़ानूनी दस्तावेज में दर्ज चिन्हों से मेल खाते हैं।’
जब से ओरान का निर्माण हुआ है, तब से समुदाय के लोगों ने पूरी ताक़त के साथ इसकी सुरक्षा की है। पिछले कुछ वर्षों में, ग्राम सभा ने यहां पेड़ों को नष्ट करने की कोशिश करने वाले लोगों के लिए कड़े जुर्माने का प्रावधान किया है। अब लकड़ी के एक टुकड़े को काटने वाले पर 101 रुपये और एक पेड़ को काटने पर 2,100 का जुर्माना है। इस तरह की घटनाओं की जानकारी देने वालों के लिए 501 रुपये के इनाम का भी प्रावधान है।
ओरणों की सुरक्षा में समुदाय की शक्ति पर जोर देते हुए, चैतराम कहते हैं, “पूरी बस्ती एक हो जाए तो क्या चले एक की?” (पूरे गांव की इच्छा के सामने एक व्यक्ति के लालच की क्या बिसात?)
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
जसराम गुज्जर ने इस लेख में अपना योगदान दिया है।
अमन सिंह कृषि एवं परिप्रेक्ष्य विकास संस्थान (क्रपाविस) के संस्थापक हैं। चैतराम गुज्जर राजस्थान में एक कृषि-पशुपालक हैं।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
—
अधिक जानें: जानें कि कैसे ओडिशा के कई गांव एक जंगल की रक्षा के लिए एक साथ आए।
अधिक करें: लेखक के काम के बारे में विस्तार से जानने और उन्हें अपना समर्थन देने के लिए उनसे [email protected] पर संपर्क करें।
मेरा जन्म राजस्थान के अलवर ज़िले के रसवाड़ा गांव में हुआ था। हमारे परिवार में मेरे अलावा छह और सदस्य थे – मेरी तीन बहनें, भाई और हमारे माता-पिता। जब मैं आठ साल की थी, तब बेहतर भविष्य की तलाश में मेरा पूरा परिवार गुरुग्राम आकर बस गया। जहां मैंने अपनी स्कूल की पढ़ाई पूरी की और साल 2001 में 18 साल की उम्र में मेरी शादी हो गई।
अब मैं राजस्थान के अलवर में अपने पति, एक बेटे और एक बेटी के साथ रहती हूं। मेरे पति एक दिहाड़ी-मज़दूर हैं – वे इमारतों में सफ़ेदी का काम करते हैं और उनकी रोज़ाना की आमदनी 600 रुपए है। शादी के कुछ ही दिनों बाद, मुझे इस बात का अहसास हो गया था कि अपना घर चलाने के लिए मुझे भी काम करना पड़ेगा। हमारे घर में पानी और साफ-सफ़ाई से जुड़ी साधारण सुविधाएं भी नहीं थीं।
मैंने बहुत कम उम्र में ही यह समझ लिया था कि महिलाओं को अपनी अलग पहचान बनाने की ज़रूरत है। मैंने किशोर लड़कियों को जीवन कौशल से जुड़ी शिक्षा देने के लिए समाजसेवी संस्थाओं के साथ काम करना शुरू किया ताकि उन्हें रोज़मर्रा की ज़िंदगी में शामिल तार्किक सोच और समस्याओं के समाधान के तरीके सीखने में मदद मिले। जल्दी ही मैंने यह भी जान लिया कि इस क्षेत्र में अपने काम को जारी रखने के लिए मुझे आगे पढ़ने की ज़रूरत है; इसलिए अपनी शादी के नौ सालों के बाद मैंने बीए और बीएड की पढ़ाई की। आजकल मैं राजस्थान के अलवर ज़िले में समाजसेवी संस्था इब्तिदा के लिए फ़ील्ड कोऑर्डिनेटर और प्रशिक्षक के रूप में काम कर रही हूं। मैं युवा महिलाओं को करियर से जुड़ी सलाह देने, कम्प्यूटर शिक्षा की सुविधा मुहैया करवाने और खेल-कूद करवाने जैसे काम करती हूं। इसके साथ में नव-विवाहित महिलाओं के लिए चलाए जा रहे इब्तिदा के कार्यक्रम के लिए भी काम करती हैं जहां मैं महिलाओं को संवाद कौशल का प्रशिक्षण देती हूं और उन्हें पोषण ज़रूरतों और प्रजनन स्वास्थ्य से जुड़ी जानकारियां देती हूं। इसके अलावा, मैं इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था में उनके लिए मौके निकालने में उनकी मदद करती हूं और साथ ही कई स्तरों पर होने वाली लैंगिक हिंसा को समझने और उसका मुक़ाबला करने के बारे में भी बताती हूं। जहां मेरे जीवन से मेरे काम में मदद मिली है, वहीं विकास क्षेत्र में मेरे काम के अनुभवों का मेरे जीवन पर भी उतना ही प्रभाव पड़ा है।
सुबह 6.30 बजे: मेरे दिन की शुरुआत सुबह 6.30 बजे होती है। जब तक मैं सोकर उठती हूं तब तक मेरे पति अपना योग और पूजा ख़त्म कर चुके होते हैं और हम दोनों के लिए चाय भी तैयार रखते हैं। उस दिन के काम की ज़रूरत के हिसाब से हम सब अपने-अपने हिस्से के काम बांट लेते हैं ताकि किसी को भी देर न हो। जैसे कि मेरे पति सब्ज़ियां काट देते हैं और मैं सुबह का नाश्ता तैयार कर लेती हूं। मेरा बेटा कपड़े धोने और इस्तरी करने के काम में कभी-कभी मदद कर देता है। इसके बाद बच्चे स्कूल के लिए तैयार होते हैं। जिस दिन मेरी बेटी को स्कूल नहीं जाना होता है, उस दिन वह खाना तैयार करने में मेरी मदद कर देती है। अपनी व्यस्तता के आधार पर या तो मेरे पति या मेरा बेटा मेरा स्कूटर झाड़-पोंछ देते हैं और मेरे लिए दोपहर के खाने का डब्बा तैयार कर देते है।
साल 2016 में जब मेरे पति बीमार पड़ गए और हमारे पास आय का कोई स्रोत नहीं था, तब उन्हें परिवार में मेरे योगदान के महत्व का पता चला।
लेकिन हमेशा से ऐसा नहीं था। शादी के लगभग 15 सालों तक घर के सभी कामों की जिम्मेदारी मेरे कंधों पर ही थी। साल 2016 में जब मेरे पति बीमार पड़ गए और हमारे पास आय का कोई स्रोत नहीं था, तब उन्हें परिवार में मेरे योगदान के महत्व का पता चला। मैंने अस्पताल और घर के खर्चे पूरे किए और अकेले ही पूरा घर सम्भाला। तभी उन्हें समझ में आया कि अगर मैं परिवार को आर्थिक रूप से सहारा दे सकती हूं, तो उन्हें भी घर के कामों में मेरी मदद करनी चाहिए और एक दूसरे को बराबर समझना चाहिए। उन्होंने यह भी समझा कि उनकी पत्नी केवल अपने लिए नहीं बल्कि सब के लिए कमा रही है।मेरे सास-ससुर को मेरा काम करना पसंद नहीं था और उन्होंने इसका विरोध किया। जब मेरे पति ने घर के कामों में मेरी मदद करनी शुरू की तब उन्होंने पति को फटकार लगाई और कहा कि वे मेरे इशारों पर नाचते हैं। लेकिन मेरे पति अपनी बात पर अड़े रहे। मैं जिन नवविवाहिताओं के साथ काम करती हूं, उनके घरों में भी ऐसा ही बदलाव देखना चाहती हूं।
सुबह 10.00 बजे: दफ्तर पहुंचने के बाद मैं अपने दिनभर के काम की योजना बनाती हूं। मैं नवविवाहित महिलाओं के कार्यक्रम में शामिल महिलाओं के समूह के साथ बैठक करती हैं। मैं इस समय ऐसे चार समूहों के साथ काम कर रहीं हूं जिनमें कुल 69 महिलाएं शामिल हैं।इनमें से तीन समूहों की शुरुआत मई 2023 में ही हुई है।
महिलाओं और उनके परिवारों को समझाने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है। उन्हें इस बात का यक़ीन दिलाना जरूरी है कि मैं बिना किसी पूर्वाग्रह के केवल उनके लिए वहां पर हूं और मैं उनकी परिस्थितियों को समझती हूं। मैं उन्हें अपने जीवन का उदाहरण देती हूं ताकि उन्हें यह एहसास हो सके कि मुझे उनकी हालत के बारे में पता है। मैं उन्हें यह भी समझाती हूं कि परिवर्तन के धीमी प्रक्रिया है ताकि जब उनके घरों में पितृसत्तात्मक संरचना उनके जीवन को मुश्किल बनाएं तो वे जल्दी निराश न हों। व्यवहार में बदलाव लाने के लिए नियमित बातचीत और छोटे-छोटे कदम उठाने की ज़रूरत होती है।
मैं महिलाओं के जीवन से जुड़े मुद्दों को उठाती हूं और उनके समाधान निकालने में उनकी मदद करती हूं।
मैं महिलाओं के जीवन से जुड़े मुद्दों को उठाती हूं और उनके समाधान निकालने में उनकी मदद करती हूं, ताकि उन्हें भरोसा हो सके कि मैं उनकी मदद कर पाने में सक्षम हूं। उदाहरण के लिए, एक बातचीत के दौरान मैंने उनसे पूछा कि कौन सी सामान्य शारीरिक घटना है जिससे महिलाएं निपटती हैं, तो उनका जवाब था ‘ल्यूकोरिया‘ जो कि सही भी है। लेकिन वे इसके कारण और इससे निपटने के तरीकों के बारे में नहीं जानती थीं। परिवार के लोग इसके लिए डॉक्टरी सलाह नहीं लेते हैं और लड़कियों को इतनी समझ नहीं होती कि वे इसके लक्षणों को पहचान सकें। मैं उन्हें उनके सामने आने वाली विभिन्न चुनौतियों के बारे में परिवार के लोगों से बातचीत करने और ज़रूरत पड़ने पर इलाज करवाने के तरीक़ों के बारे में सिखाती हूं।
मैं बहुओं और उनकी सासों को एक साथ बुलाकर उनसे बातचीत करती हूं। इन बैठकों का मुख्य उद्देश्य विशेष रूप से सासों को समझाना होता है। आमतौर पर अपनी बहुओं के जीवन के सभी फ़ैसले सासें ही लेती हैं। मुझे अक्सर ही उनके और कभी-कभी उनके पतियों के प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है। वे मुझसे पूछते हैं कि मैं इन युवा महिलाओं को क्या सिखाने वाली हूं। मैं उनकी पूरी बात को शांति के साथ सुनती हूं और खुले दिमाग़ के साथ सभी मुद्दों पर बातचीत करती हूं।
सास पूछती है कि “आप मेरी बहू को क्या सिखाएंगी? उसके बदले उस समूह में आप मुझे ही क्यों नहीं शामिल कर लेती हैं?” मैं उन्हें समझाती हूं कि उनका जीवन अब उस पड़ाव को पार कर चुका है और उन्होंने अपने जीवन में बहुत कुछ हासिल कर लिया है। मैं संवेदनशीलता और समझ के उनके स्तर पर जाकर उनसे बातचीत करती हूं और पूछती हूं कि “आपके बच्चों की शादी हो चुकी है, आपने अपना पूरा जीवन काम करने में लगा दिया। आप घर के सभी फ़ैसले लेती हैं, आपको ऐसे किसी समूह की जरूरत नहीं है। अब आपकी बहू को सीखने की ज़रूरत है कि घर कैसे चलाया जाता है। उसे सीखने की ज़रूरत है कि वह आपका सम्मान करे और आपसे किसी भी तरह की बहस या लड़ाई-झगड़ा न करे। आप नहीं चाहती हैं कि आपकी बहू आपके साथ राज़ी-ख़ुशी से रहे?”
मेरी इन बातों से उन्हें यह भरोसा हो जाता है कि मैं उनकी बहुओं को कुछ ऐसा नहीं सिखाने वाली हूं जो उनकी नजर में ‘ग़लत’ है बल्कि मैं उसे कुछ ऐसा सिखाने वाली हूं जिससे उनके पूरे घर को फायदा होगा।
मैं समूह की महिलाओं के साथ निजी स्तर पर जुड़कर समझ बनाती हूं ताकि वे मुझसे अपनी समस्याओं के बारे में खुलकर बात कर सकें। कभी-कभी वे अपनी सासों से बहुत परेशान रहती हैं। यहां तक कि उनके सास और पति भी मुझसे उनकी शिकायत करते हैं। ऐसी स्थिति में मेरा काम बिना किसी हस्तक्षेप के उन सभी की बातों को सुनना होता है। मैं उन्हें एक दूसरे की बातें नहीं बताती हूं क्योंकि इससे झगड़े की सम्भावना बढ़ सकती है। कभी-कभी मुझे मध्यस्थता भी करनी पड़ती है। अगर पति का कोई नजरिया है और वह उसके बारे में बताता है, तो मैं पत्नी को भी समझाने की कोशिश करती हूं। इस तरह मैं एक संतुलन बनाते हुए परिवार के सदस्यों के साथ भरोसेमंद रिश्ता क़ायम रखती हूं।
दोपहर 12.00 बजे: मेरी दोपहर अलग-अलग तरह से बीतती है। कभी मैं कौशल प्रशिक्षण देने के लिए फ़ील्ड में जाती हूं, तो कभी मैं नई जुड़ने वाली महिलाओं के लिए स्वागत बैठक जैसा कुछ करते हैं।हम अपनी संस्था और उसके द्वारा किए जाने वाले काम के बारे में जानकारी देते हैं। परिवार के लोगों को नवविवाहित लड़कियों द्वारा किए जा रहे कामों का महत्व समझाने के लिए हम उन्हें लैंगिक शिक्षा पर केंद्रित विडियो दिखाते हैं। उदाहरण के लिए, ‘घर की मुर्गी दाल बराबर’ नाम का वीडियो महिलाओं द्वारा किए जाने वाले कामों की आर्थिक महत्व को दिखाता है और बताता है कि अगर पैसों में देखा जाए तो उनके काम की क़ीमत कम से कम 32,000 रुपए है। हमारा उद्देश्य महिलाओं के काम को प्रत्यक्ष बनाना है। इससे पुरुषों को महिलाओं के कामों की सराहना करने में मदद मिलती है, और वे उनकी सहायता भी करना शुरू कर देते हैं ताकि घर के पूरे काम की जिम्मेदारी केवल महिलाओं के कंधे पर न पड़े।
परिवार के लोग महिलाओं को प्रशिक्षण के लिए तभी भेजते हैं जब प्रशिक्षण के दौरान सिखाई जाने वाली बातें उन्हें पसंद आती हैं।
इसके बाद मैं दोपहर का खाना खाती हूं और अपना प्रशिक्षण ज़ारी रखती हूं। यदि कोई बहुत लम्बे समय से अनुपस्थित है तो मैं उनके घर जाकर इसके कारण का पता लगाती हूं। परिवार के लोग महिलाओं को प्रशिक्षण के लिए तभी भेजते हैं जब प्रशिक्षण के दौरान सिखाई जाने वाली बातें उन्हें पसंद आती हैं। यदि इस प्रशिक्षण से उनके घर की व्यवस्था में थोड़ा-बहुत भी फेरबदल आने लगता है तो वे महिलाओं को भेजना बंद कर देते हैं। मुझ पर महिलाओं को भटकाने के आरोप भी लगे हैं। ऐसी परिस्थितियों में मेरा काम होता है कि मैं महिलाओं को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करूं और उन्हें अपनी पहचान बनाने के लिए कहूं, ताकि वे अपनी आवाज़ उठा सकें और परिवार के लोगों के साथ रहते हुए अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए ज़रूरी कदम उठा सकें। मैंने उनसे कहा है कि मेरी कही गई बातों को घर पर बताने की बजाय उन्हें अपनी समझ बनाने की और समस्याओं से अपने तरीक़े से निपटने की ज़रूरत है।
कार्यक्रम में, हम हिंसा को लेकर समुदाय के दृष्टिकोण को व्यापक बनाने का भी प्रयास करते हैं। यह एक आम समझ है कि हिंसा केवल एक ही प्रकार की होती है – शारीरिक। लेकिन महिलाओं को केवल शारीरिक हिंसा का ही सामना नहीं करना पड़ता है, बल्कि वे मानसिक, यौन और आर्थिक हिंसा का भी शिकार होती हैं। मैं उन्हें बताती हूं जब आप किसी को गाली देते हैं, कोई जातीय टिप्पणी करते हैं, छेड़ते हैं या बिना मर्ज़ी के किसी को छूते हैं तो इन सभी परिस्थितियों में आप हिंसा कर रहे होते हैं।
जब मैं छोटी थी तो मैंने अपनी मां को इन सबसे गुजरते देखा था। मेरे पिता अक्सर उन्हें दूसरी शादी कर लेने की धमकी देते थे क्योंकि हम चार बहनें थीं और मेरे पिता को बेटा चाहिए था। मुझे अपनी मां की दुर्दशा तब समझ में आई जब मैंने भी पितृसत्तात्मक उत्पीड़न का अनुभव किया।जब आप अपने जीवन में हिंसा का अनुभव कर चुके होते हैं तो उस स्थिति में आप चुपचाप बैठकर किसी और को पीड़ित होता नहीं देख सकते हैं। इसलिए अब मैं जहां भी हिंसा होता देखती हूं, चाहे मेरे घर में या फ़िर आस-पड़ोस में, मैं उसके खिलाफ़ आवाज़ उठाती हूं। उदाहरण के लिए, घर पर मैं उन महिलाओं के मामलों को तेज आवाज़ में पढ़ती हूं जिनके साथ मैं काम करती हूं ताकि मेरे परिवार के सदस्य भी सीख सकें। इससे न केवल उनके व्यवहार में बल्कि मेरे सास-ससुर के बर्ताव में भी बदलाव आया है।
शाम 6.30 बजे: पूरा दिन काम करने के बाद मैं घर वापस लौटती हूं। मेरे दोनों बच्चे मुझसे पहले घर पहुंचने की कोशिश करते हैं ताकि रात का खाना वे तैयार कर सकें। मेरी बेटी सब्ज़ी बनाती है और मैं चपाती। हम बर्तन धोने का काम अपनी-अपनी थकान और व्यस्तता के आधार पर आपस में बांट लेते हैं। हमारा शाम का अधिकांश समय इन्हीं कामों में चला जाता है। मेरी बेटी डॉक्टर बनना चाहती है लेकिन उसे इंजेक्शन से डर लगता है और इंजेक्शन लेने के समय वह चिल्लाना शुरू कर देती है। मेरा बेटा सीमा सुरक्षा बल में शामिल होना चाहता है क्योंकि उसे वर्दियों से प्यार है; मैं उसे लगातार कहती रहती हूं कि उसे इस बारे में एक बार फिर से सोचना चाहिए।
सारा काम ख़त्म होने के बाद मैं और मेरी बेटी साथ बैठकर टीवी पर ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ नाम का धारावाहिक देखते हैं। इसमें जीवन के सुख और दुख दोनों दिखाते हैं। हमें यह अपने जीवन जैसा लगता है और इस धारावाहिक को देखे बिना हमें अपना दिन अधूरा लगता है। मुझे पुराने गाने सुनना भी पसंद है, इससे मुझे अच्छा महसूस होता है। मैं कम्प्यूटर की पढ़ाई करने की कोशिश कर रही हूं और अपने इस कोर्स के लिए समय निकालना चाहती हूं। लेकिन दिन ख़त्म होते-होते मैं इतना थक चुकी होती हूं कि रात के 11-12 बज़े तक मुझे नींद आ जाती है।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
—
हमारा परिवार राजस्थान के अलवर जिले के चोरोटी पहाड़ गांव में रहता है। यहां हमारे पास 0.75 बीघा (0.47 एकड़) जमीन है। तीन साल पहले तक हम खेती, दूध के व्यापार और मेरे पति की मज़दूरी के सहारे अपना गुज़ारा करते थे। लेकिन मेरे पति की नौकरी छूटती रहती थी और केवल खेती से होने वाली कमाई हमारे लिए पर्याप्त नहीं थी। हमें हमारे बेटे की पढ़ाई-लिखाई का खर्च भी उठाना था।
मैं एक स्वयं सहायता समूह की सदस्य हूं जिसे अलवर स्थित एक समाजसेवी संगठन इब्तदा ने बनाया है। 2020 में मैंने इस समूह से 10,000 रुपये का ऋण लेकर अपनी ख़ुद की एक दुकान शुरू की थी। आसपास की महिलाओं ने मुझसे कहा कि मुझे दुकान में महिलाओं के कपड़े जैसे साड़ी, ब्लाउज़ और पेटीकोट वगैरह रखना चाहिए ताकि वे अलवर जाकर साड़ी लेने की बजाय मुझसे ही खरीद सकें।
आमतौर पर महिलाओं के लिए बाहर सफर करना मुश्किल होता है। यहां तक कि अगर उनके पति के पास मोटरसाइकिल होती भी थी तो भी उन्हें अपने पति पर निर्भर रहना पड़ता था कि वे काम से छुट्टी लें और उन्हें लेकर जाएं। सार्वजनिक परिवहन सीमित और महंगा है। मेरी दुकान से खरीदारी करने से उनके 50 से 100 रुपये तक बच जाते हैं जो उन्हें अलवर आने-जाने पर खर्च करने पड़ते।
मैंने केवल एक दर्जन साड़ियों के साथ शुरुआत की थी। जब मैंने इनकी मांग बढ़ते देखी तो मैंने इसे 20 तक बढ़ा दिया। मैं अपने बेटे के साथ खरीदारी करने के लिए अलवर जाने से पहले, महिलाओं से पूछती हूं कि उन्हें क्या चाहिए। शुरू में वे 250 से 300 रुपये की कीमत वाली साड़ियां ही मंगवातीं थीं, अब वे मेरी दुकान से फैंसी साड़ियां खरीदती हैं। जब मुझे किसी ग्राहक की कोई खास मांग समझ में नहीं आती है तो मैं उनसे मेरे लिए एक नोट लिखने को कहती हूं, जिसे मैं अलवर के दुकानदार को दिखा सकूं।
मैंने खिलौने रखना भी शुरू कर दिया है क्योंकि महिलाएं अक्सर अपने बच्चों के साथ आती हैं जो इनकी मांग करते हैं। आगे चलकर हम बच्चों के लिए स्नैक्स और सॉफ्ट ड्रिंक्स भी रखना शुरू कर देंगे। इसके अलावा, मेरा बेटा कहता रहता है कि दिल्ली में साड़ियां सस्ती हैं और हमें वहां जाना चाहिए। हम यह योजना बना रहे हैं कि जब हमारे पास पर्याप्त पैसा होगा तो हम दिल्ली से साड़ियां मंगवाया करेंगे।
मुनिया देवी राजस्थान के चोरोटी पहाड़ गांव में रहने वाली एक किसान और साड़ी विक्रेता हैं।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
—
अधिक जानें: जानें कि कैसे उस्मानाबाद में महिला किसान अपने कृषि-संबद्ध व्यवसायों में विविधता ला रही हैं।
अलवर, राजस्थान के चोरोटी पहाड़ गांव की रहने वाली दया देवी एक किसान हैं। अपने गांव के कुछ अन्य जमींदार किसानों की तरह उन्होंने अपनी जमीन पर एक बोरवेल लगवाया है। बोरवेल उनके खेतों की सिंचाई करता है और उनके परिवार को पानी उपलब्ध करवाता है। इसके साथ ही, यह उनके लिए आय का एक स्रोत भी है। इससे वे अपने इलाके के छोटे किसानों को, जिनके पास खुद का बोरवेल नहीं है, किराए पर पानी देती हैं। इसके लिए वे 150 रुपये प्रति घंटे की दर पर भुगतान हासिल करती हैं।
दया देवी का मानना है कि ऐसा करने में सबका फायदा है। वे आगे जोड़ती हैं कि “बोरवेल चलाने वाले मालिक बिजली का बिल भी भरते हैं और उसके रखरखाव का खर्च भी उठाते हैं। पानी खरीदने वालों को [बिना किसी झंझट के] अपने खेतों की सिंचाई करने की सुविधा मिलती है।”
दया के परिवार के पास दो दशकों से अधिक समय से बोरवेल है। उन्होंने इस दौरान लगातार भूजल के स्तर को कम होते देखा है। वे कहती हैं, ”हर साल बारिश कम हो रही है। पहले हमें 200 फीट ज़मीन खोदने पर पानी मिलता था, अब पानी के लिए हमें 500 फीट तक खुदाई करनी पड़ती है।”
सिंचाई के लिए बोरवेल के अलावा कुछ अन्य विकल्प भी हो सकते हैं, जैसे ड्रिप सिंचाई। इसके लिए पानी की टंकी की आवश्यकता होती है। दया को इन तरीक़ों की जानकारी भी है, वे कहती हैं कि “ड्रिप इरिगेशन भविष्य है। यदि आप अपने खेत पर 1,000 लीटर का टैंक रखते हैं और इसका उपयोग सिंचाई के लिए करते हैं तो यह बोरवेल से जुड़े पाइप का उपयोग करने की तुलना में सस्ता है, जिसमें एक बीघे की सिंचाई करने में लगभग 12 घंटे लगते हैं।”
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
दया देवी एक किसान हैं और अलवर स्थित एक गैर-लाभकारी संस्था इब्तदा द्वारा सहयोग प्राप्त एक स्वयं सहायता समूह की सदस्य हैं।
—
अधिक जानें: जानें कि कैसे राजस्थानी समुदाय पानी से जुड़ा एक खेल खेलते हैं जिससे उन्हें भूजल के संरक्षण और इस्तेमाल के तरीक़े सीखने में मदद मिलती है।