राजस्थान के सलूंबर जिले के लसाडिया ब्लॉक में बड़े पैमाने पर पत्थरों का खनन होता है। इस इलाक़े की आबादी में ज़्यादातर लोग मीणा आदिवासी समुदाय से आते हैं। बीते कुछ समय से इलाक़े में चल रही खनन गतिविधियां एक चिंताजनक मुद्दा बन गई हैं, खासकर किशोरी श्रमिकों की भागीदारी के कारण।
लसाडिया ब्लॉक के बेडावल गांव में, महज़ 12 से 20 साल की उम्र में लड़कियां अपने परिवार की आर्थिक सहायता के लिए खान में काम करने को मजबूर हैं। उनके परिवारों की आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर है कि वे अपनी बेटियों को स्कूल भेजने की बजाय उन्हें खदान में काम करने के लिए भेज देते हैं और घर के पुरुष कमाई के लिए पलायन कर जाते है।
खनन का काम करने वाली आशा* बताती हैं कि “हम अपनी बड़ी बहनों जो पिछले कई सालों से खान में काम कर रही हैं, उन्हें देखकर काम करने आए हैं क्योंकि इस काम को करने के लिए पैसे मिलते हैं और उस पैसे से हम हमारी ज़रूरतें पूरी कर सकते हैं। सुबह जल्दी उठकर घर के काम निपटा कर 5 से 6 किलोमीटर पैदल चलकर जाते हैं और वहां पर 7 से 8 घंटे काम करने के बाद वापस चल कर आते हैं।” आशा के साथ काम करने वाली और लड़कियों ने भी इस जानकारी पर सहमति दिखाई।
वे जोड़ती हैं कि उन्हें स्कूल जाने और अपने मास्टर जी से डर लगता है क्योंकि स्कूल बंद होने के बाद उनसे सफाई कराई जाती है। आशा कहती हैं कि “इससे बेहतर है कि हम मेहनत करके काम करेंगे तो खुद के खर्चे का पैसा तो कमा पाएंगे और परिवार के लिए भी कुछ मदद कर पाएंगे।” किशोरियां अपनी कमाई का ज़्यादातर हिस्सा घर का खर्चा चलाने के लिए दे देती हैं।
इस गांव कि लड़कियां खान में तब तक काम करती हैं जब तक कि उनकी शादी नहीं हो जाती है। यहां जो लड़कियां खान में काम नहीं कर रही है, 15 साल के बाद उनकी शादी कर दी जाती है क्योंकि वह कमाई का जरिया नहीं बन पा रही हैं। वहीं, जो खान में काम करती हैं उनकी शादी 20 साल के बाद की जाती है।
किशोरियां शादी नहीं करके, आजाद रहने के लिए भी खान में काम करने को तैयार हैं। घर के खर्चे के बाद उनके पास जो पैसे बच जाते हैं, उसका इस्तेमाल वे बाहर घूमने, मेले में जाने, अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए करती हैं। शादी के बाद आमतौर पर उनके पति उन्हें बाहर काम करने की आज़ादी नहीं देते हैं, जिससे वे अपनी मर्जी से खर्च नहीं कर पाती हैं। उनके लिए खान पर आने-जाने में लगने वाला लगभग डेढ़ से दो घंटे का समय, वह समय है जब वे सबसे अधिक स्वतंत्र महसूस करती हैं क्योंकि इस दौरान वे अपनी सहेलियों के साथ हंस-खेल सकती है।
इस आत्मनिर्भरता और आज़ादी के लिए, इन्हें खानों में ख़तरनाक परिस्थितियों में काम करने, काम के लंबे घंटों और न्यूनतम वेतन जैसे जोखिम उठाने पड़ते हैं। इसके लिए उन्हें दिन की लगभग 200 रुपए दिहाड़ी मिलती है। खदान में फिसलन वाले पत्थरों का खनन होने के चलते उन्हें शारीरिक खतरों से भी जूझना पड़ता है। धूल से उन्हें सांस लेने में समस्या और भारी मशीन से चोट लगने का ख़तरा भी है। घर की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए और जल्दी शादी न करने के लिए उनके पास काम करना ही एक विकल्प है जो उन्हें स्वीकार भी है। लेकिन क्षेत्र में उचित रोजगार अवसरों के अभाव के कारण खान में काम उनका एकमात्र विकल्प बन जाता है।
*गोपनीयता के लिए नामों को बदल दिया गया है।
रेखा नरूका पिछले 6 साल से समाजिक क्षेत्र में काम कर रही हैं।
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गुजरात में अगरिया समुदाय के लोग पारंपरिक नमक श्रमिक हैं जो सैकड़ों वर्षों से कच्छ के छोटे रण में नमक की खेती करते आ रहे हैं। फरवरी 2023 में, समुदाय के कई सदस्यों को इस क्षेत्र से निकल जाने के नोटिस जारी किए गए थे। नोटिस के अनुसार, समुदाय के वे लोग जिन्होंने आधिकारिक सर्वेक्षण और निपटान (ऑफिशियल सर्वे एंड सेटलमेंट – एसएंडएस) प्रक्रिया के अंतर्गत अपना पंजीकरण नहीं कराया था, उन्हें 1972 के वन्य जीवन संरक्षण अधिनियम के तहत, इस अधिसूचित जंगली गधा अभयारण्य में अवैध अतिक्रमणकारी माना गया है।
अगरिया समुदाय के लगभग 90 प्रतिशत लोगों ने 1997 में शुरू हुई इस प्रक्रिया के लिए आवेदन नहीं किया था। इसके पीछे दो कारण थे – पहला, उन्हें इस प्रक्रिया के तहत पंजीकरण को लेकर कोई जानकारी नहीं थी और दूसरा, अगरिया समुदाय सदियों से यहां के जंगली गधों के बीच रहते आ रहे हैं। इस वजह से उन्हें इस बात का कोई आभास नहीं हुआ कि अभयारण्य क्षेत्र होने की वजह से उन्हें अब जमीन और रोजी-रोटी के अधिकार से भी वंचित किया जा सकता है।
पंजीकरण के लिए आवेदन करने वालों में नमक खनन कंपनियां और ऐसे कुछ लोग थे जो अगरिया समुदाय से संबंध नहीं रखते थे। यह अलग बात है कि वर्तमान में ये लोग अब कच्छ के छोटे रण में नमक निर्माण का पूरा काम देखते हैं तथा अगरिया समुदाय के कई लोग, जो यहां कभी जमीन के स्वतंत्र मालिक हुआ करते थे, वे इन कंपनियों में केवल श्रमिक बनकर रह गए हैं। ऐसा भी पाया गया है कि सर्वेक्षण के दौरान, विभिन्न कारणों से दस्तावेज जमा करने की प्रामाणिकता की जांच भी नहीं की गई थी। स्वतंत्रता के बाद से कच्छ के छोटे रण की ज़मीन का कोई सर्वेक्षण नहीं किया गया था।
सेतु अभियान, एक ऐसा संगठन है जो जमीनी स्तर पर स्थानीय प्रशासन को मजबूत करने पर काम करता है, यह कच्छ के छोटे रण में अगरिया समुदाय के साथ उनकी भूमि और काम के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए प्रयासरत है। लेकिन नौकरशाही की वजह से यह सब कर पाना इस संगठन के लिए मुश्किल हो गया है। संगठन ने संबंधित अधिकारियों को कई याचिकाएं और आवेदन भेजे ताकि वे अधिकारियों से इन सब मुद्दों को लेकर मिल सकें लेकिन हर थोड़े समय बाद अधिकारी बदल जाता है और बात आगे नहीं बढ़ पाती है।
देवयतभाई जीवनभाई अहीर, नमक के खेतों में काम करने वाले एक मजदूर हैं जिनका नाम सूची में नहीं है। उन्होंने हमें बताया “अगर वे हमें नमक के खेतों में काम करने की अनुमति नहीं देंगे तो हमें मजबूरन किसी और जगह काम ढूंढने के लिए पलायन करना पड़ेगा। आखिरकार, हमें अपना गुजारा चलाने के लिए कम से कम पांच से दस हज़ार रुपये तो कमाने ही पड़ेंगे।”
कई संगठनों ने, सरकारी एजेंसियों के साथ मिलकर रण में अगरिया और खानाबदोश समुदाय के लोगों की मदद करने की कोशिश की है। इसमें पीने के पानी की व्यवस्था, बच्चों के लिए सामयिक छात्रावास, कार्य स्थल पर स्वास्थ्य खतरों के लिए सही उपचार, सुरक्षा किट, सब्सिडी वाले सौर ऊर्जा से चलने वाले पंप और चिकित्सा शिविर प्रदान करने जैसी सुविधाएं देना शामिल हैं।
विडंबना यह है कि एक तरफ राज्य सरकार इस समुदाय के जीवन को बेहतर बनाने की कोशिश कर रही है, वहीं दूसरी तरफ उन्हें उनकी ज़मीन से वंचित भी कर रही है। 2020 की एक रिपोर्ट के अनुसार, यहां के जंगली गधे फल-फूल रहे हैं लेकिन अगरिया समुदाय के लिए यही बात नहीं कही जा सकती है।
महेश ब्राह्मण, सेतु अभियान के साथ कार्यक्रम समन्वयक के रूप में काम करते हैं और कई वर्षों से नमक के खेतों में काम करने वाले श्रमिकों के लिए काम कर रहे हैं। उदिशा विजय एक इंडिया फेलो हैं जो सेतु अभियान के साथ भुज, कच्छ में बेहतर स्थानीय शासन पर काम कर रही हैं।
इस लेख का एक संस्करण इंडिया फेलो पर प्रकाशित हुआ था।
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गर्मियों में झारखंड के गुमला जिले में पिछले कुछ सालों से औसत तापमान 40-42 डिग्री सेल्सियस रहने लगा है। यह ब्रॉयलर, या मांस उत्पादन के लिए पाले गए चिकन (मुर्ग़ों) के लिए ठीक नहीं है। मुर्ग़ा पालन के लिए आदर्श तापमान 25 डिग्री सेल्सियस होता है। बड़े फार्म तापमान को कम रखने और अपनी पॉल्ट्री के स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए फॉगर्स और कूलरों का उपयोग करते हैं। लेकिन 500-600 मुर्गियों वाले, छोटे पॉल्ट्री किसान इन तकनीकों का खर्च नहीं उठा सकते हैं। उनके लिए न केवल इन्हें खरीदना बल्कि इन्हें चला पाना भी महंगा है, क्योंकि इनमें बहुत अधिक बिजली की खपत होती है।
गुमला ग्रामीण पोल्ट्री एसएस सहकारी समिति लिमिटेड, जिसकी सभी सदस्य महिलाएं हैं, उन्हें कई ऐसे तरीक़ों के बारे में बताया जाता है जिससे वे अपने शेड को ठंडा रख सकते हैं। इन तरीक़ों में शेड की एस्बेस्टस छत और दीवारों पर पुआल या बोरियां रखना और दिन में दो से तीन बार पानी छिड़कना शामिल रहता है। इसमें समस्या यह है कि यदि पुआल को बांधकर न रखा जाए तो वह तेज हवा में उड़ जाता है। इसके अंदरूनी हिस्से को ठंडा करने के लिए पक्षियों और शेड के फर्श पर भी पानी छिड़का जाता है। लेकिन ये उपाय भी तापमान को केवल 2-3 डिग्री तक ही कम कर पाते हैं।
अगर किसान अपने इन शेडों को ठंडा नहीं रखेंगे तो ऐसे में गर्मी बढ़ने के साथ मुर्ग़ियां मरने लगेंगी। हर साल गर्मियों में, औसतन एक फार्म पर लगभग 5-7 प्रतिशत मुर्ग़ियां मर जाती हैं। पहले यह मृत्यु दर 1-2 प्रतिशत थी। इसके अलावा भी कई समस्याएं हैं जैसे मुर्गियों को खाना खाने में बहुत गर्मी लगती है जिस वजह से उनका वजन कम हो जाता है। उनका वजन जो सर्दियों में औसतन 2 किलो होता है, गर्मियों में घटकर 1.8 किलो रह जाता है। कम वजन का मतलब है कम आय। पहले एक पोल्ट्री किसान जहां हर साल 50,000 रुपए कमाता था (उत्पादक शुल्क के रूप में), अब 40,000 रुपए ही कमा पाता है। बहुत गर्म शेड की वजह से हमें ज्यादा मुर्गियों के झुंड को पालने में मुश्किल आती है। बिना ठंडक वाले शेड में, भीड़ और गर्मी के असर से बचते हुए केवल 600 (1.25 वर्ग फुट में एक पक्षी) मुर्ग़ियां ही रखी जा सकती हैं, जबकि एक वातानुकूलित शेड में 800-1,000 मुर्ग़ियां (प्रति वर्ग फुट में एक पक्षी) आ सकती हैं।
मुर्ग़ियों के एक झुंड को मनचाहे वजन तक लाने में भी अधिक समय लगता है क्योंकि उनके वजन बढ़ने की गति धीमी होती है। इससे भी हमारी आय में गिरावट आती है। पहले हमारे पास हर साल, छह से सात प्रजनन चक्र करने का समय होता था और अब हम औसतन पांच ब्रीडिंग चक्र ही कर पाते हैं। हर चक्र में लगभग 40 दिन लगते हैं। प्रत्येक चक्र के बाद, शेड को साफ किया जाता है, सफेदी की जाती है और 15-20 दिनों के लिए उसे ऐसे ही छोड़ दिया जाता है। मुर्गियों के एक झुंड को पालने में जितना अधिक समय लगता है, उन्हें उतना ही अधिक भोजन और पानी देना पड़ता है, जिसमें फिर से अतिरिक्त समय, पैसा और प्रयास लगता है। इस मौसम में पानी पीने के बर्तन को सामान्य दिनों की तुलना में, दिन में तीन की बजाय चार से पांच बार भरना पड़ता है। इससे महिलाओं का काम और भी बढ़ जाता है। इनमें से कुछ को तो पानी भरने के लिए लंबी दूरी तय करनी पड़ती है। यहीं नहीं, पक्षियों में पानी की कमी को पूरा करने के लिए पानी में ग्लूकोज भी मिलाया जाता है।
हममें से कुछ लोगों ने शेड को ठंडा रखने को लेकर सेल्को फाउंडेशन के साथ काम किया है। हमने सोलर एग्ज़ॉस्ट पंखे और लाइटें लगाई हैं और अपनी छतों पर चूने की परत से पुताई की है। लेकिन एग्ज़ॉस्ट पंखे पूरे दिन चलते हैं इसलिए रात में सोलर लाइटें नहीं जल पाती हैं। इन उपायों से कुछ मदद मिली है। इस बार मेरे (सरिता के) फार्म की 600 मुर्गियों में से केवल 20 ही मरी हैं और उनका वज़न भी बहुत कम नहीं हुआ है। एक और हालिया पहल में एस्बेस्टस छतों को ‘ठंडी छतों‘ से बदलना शामिल हुआ है, जो न केवल गर्मी के असर को कम करने में मदद करती है बल्कि सर्दियों के दौरान गर्मी को भी रोकती है।
सरिता देवी ‘गुमला ग्रामीण पोल्ट्री एसएस सहकारी समिति लिमिटेड’ के बोर्ड की सलाहकार है और उनकी इस समिति की सभी सदस्य महिलाएं हैं। अखिलेश कुमार वर्मा ‘झारखंड महिला स्वावलंबी पोल्ट्री सहकारी संघ लिमिटेड’ के प्रबंधक हैं।
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अधिक जानें: इस आलेख में पढ़ें कि जलवायु परिवर्तन किस तरह ग्रामीण आजीविका को प्रभावित कर रहा है।
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कर्नाटक के चिक्काबल्लापुरा जिले में स्थित डोड्डाम्मना केरे झील, 400 साल से अधिक पुरानी है। यह एक मानव निर्मित झील है और यह विजयनगर साम्राज्य के शासनकाल में बनाई गई 4000 झीलों में से एक है। साम्राज्य द्वारा विकसित जल भंडारण और संचयन प्रणाली के लिए महत्वपूर्ण होने के अलावा इन झीलों से पशुपालन और खेती में भी मदद मिलती थी। हालांकि, जल निकायों को ऐसे प्रबंधकों की भी ज़रूरत थी जो इनकी और इनसे जुड़े कामकाज की देखरेख कर सकें, इस तरह नीरुगंती (जल प्रबंधक) का पेशा अस्तित्व में आया।
सदियों तक इन्हीं नीरुगंतियों ने पीढ़ी दर पीढ़ी जल प्रबंधन के ज्ञान को आगे बढ़ाने का काम किया। वे अपने समुदाय की आजीविका और बेहतरी के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। इसके अलावा इन झील से खेती वाली ज़मीन तक सिंचाई का पानी पहुंचाने की ज़िम्मेदारी भी इनकी ही होती है। पेशे से नीरुगंती रहे 70 वर्षीय वेंकटप्पा बताते हैं कि ‘पानी हमेशा से एक सामुदायिक संसाधन है और इसे प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुलभ होना चाहिए। इसलिए हम जल प्रवाह को नियंत्रित करते हुए यह सुनिश्चित करते हैं कि किसी भी प्रकार का कुप्रबंधन ना हो।’
वे आगे जोड़ते हैं कि ‘पहले, पानी का उपयोग नयायपूर्ण तरीके से किया जाता था और किसान इसके बंटवारे को लेकर एकजुट थे। हम पशुओं के पीने के लिए पानी बचाते थे। हम लोगों ने झील की भौगोलिक स्थिति और भूमि की निकटता के आधार पर ऊंचे क्षेत्रों में अधिक और निचले क्षेत्रों में जल का प्रवाह कम रखते थे। यहां तक कि जल का स्तर कम होने के बावजूद, हम यह सुनिश्चित करते थे कि सभी किसानों को पर्याप्त जल मिले।’
वर्षा के आधार पर, नीरुगंती किसानों को विभिन्न फसलों की खेती और स्थानीय उपभोग के लिए उपयुक्त कम जल-लागत वाली और स्वदेशी किस्मों को चुनने की सलाह देते थे। झील व्यवस्था की देखरेख भी नीरुगंती के निर्देशन में ही किया जाता था। इसमें विशेष रूप से टैंक से गाद निकालना, कटाव को कम करने और पानी को साफ करने की प्रक्रिया में सुधार लाने के लिए किनारों पर पर पौधे लगाना और फीडर चैनल का रखरखाव करना शामिल है।
जैसा कि वेंकटप्पा कहते हैं ‘यदि नीरुगंती का नियंत्रण समाप्त हो जाएगा तो ना तो झीलों में पानी बचेगा और ना ही किसानों के लिए फसल।’ जहां, झीलों की कैस्केडिंग प्रणाली (एक बड़े जलाशय में बहने वाले छोटे टैंकों का एक नेटवर्क जो भविष्य की खपत के लिए वर्षा जल को संग्रहीत कर सकता है) को इस क्षेत्र की जीवन रेखा के रूप में जाना जाता है, वहीं नीरुगंती इसकी जीवन शक्ति है।
लेकिन गांवों में अब प्रशासनिक प्रणालियों में नीरुगंती नहीं हैं, इसलिए इन जल प्रबंधकों का महत्व धीरे-धीरे कम हो रहा है, जिससे पारंपरिक ज्ञान प्रणालियों को खोने का ख़तरा बढ़ता जा रहा है। इससे जल-संबंधी विवादों में भी वृद्धि हुई है और पानी के स्थायी उपयोग के लिए खतरा पैदा हो गया है।
कैटलिन ब्लड मिच चार्टर स्कूल में कार्यकारी निदेशक हैं। अभिराम नंदकुमार एपीमोलर-मार्सक में एक वरिष्ठ लेखक हैं।
यह मूल रूप से नेटिव पिक्चर पर प्रकाशित एक लेख का संपादित अंश है।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
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अधिक जानें: उत्तर प्रदेश में खेती पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के बारे में जानने के लिए इस लेख को पढ़ें।
उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले में थारू आदिवासी पारंपरिक घरों में रहते हैं। इन घरों की छतें (छप्पर) फूस से बनी होती हैं और दीवारें पेड़ के तनों और मिट्टी से बनाई जाती हैं। जंगल से इकट्ठी की गयी, घर बनाने की यह सामग्री गर्मियों के दौरान हमारे घरों को ठंडा रखती थीं। जंगलों ने हमें हमारा घर बनाने के लिए संसाधन उपलब्ध कराए और बदले में हमने इसकी रक्षा की।
लेकिन, 1977 में दुधवा नेशनल पार्क के निर्माण के बाद से वन विभाग ने जंगलों तक हमारी पहुंच प्रतिबंधित कर दी है। इसने हमारे आवास को बड़े पैमाने पर बदल दिया है। घास तक पहुंच की कमी के कारण, अब हमारे घरों में टिन की छतें हैं।
इसके अलावा, नेशनल पार्क में पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए, विभाग ने आधुनिक कॉटेज बनाए हैं जिन्हें वे थारू हट (झोपड़ी) कह रहे हैं। शहर के लोग इन कॉटेज में रहने आते हैं क्योंकि वे थारू संस्कृति का अनुभव करना चाहते हैं।
पार्क के अंदर, विभाग का ऑफिस हमारी संस्कृति और हमारे पारंपरिक पहनावे के बारे में जानकारी दिखाते हैं। और, इसके ठीक उलट हमें हमारा पारंपरिक जीवन जीने से रोकते हैं। मूलरूप से हमारी संस्कृति ही उनके लिए पर्यटन ला रही है लेकिन उससे जुड़ी आय में हमें कोई हिस्सा नहीं मिलता है।
सहबिनया राना थारू आदिवासी महिला मजदूर किसान मंच की महासचिव हैं।
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अधिक जाने: जानें कैसे खेती के लिए थारु समुदाय जलवायु परिवर्तन और सरकारी विभागों से जूझ रहा है।
राजस्थान के दक्षिणी छोर पर बसा, बांसवाड़़ा जिला, गुजरात और मध्य प्रदेश से सटा हुआ है। इस पहाड़ी इलाक़ों में बारिश का पानी जितनी तेजी से आता है, उतनी ही तेजी से निकल भी जाता है। बारिश भी, मुश्किल से एक से दो महीने ही होती है। इसलिए यहां के परंपरागत तालाब किसानों के लिए खेती का एकमात्र स्रोत हैं। लेकिन कर्क रेखा बांसवाड़ा जिले से होकर गुजरती है यानी यह इलाका लगभग साल भर गर्म ही रहता है। तेज गर्मी इन स्रोतों में इकट्ठा हुए पानी को तेज़ी से सुखा देती है।
ऐसे में, खेती करना यहां के किसानों के लिए हमेशा ही संघर्ष से भरा रहा है। आजीविका के लिए लोग अक्सर पड़ोसी राज्यों में मजदूरी के काम के लिए पलायन कर जाते हैं। ये पलायन ज़्यादातर रबी और ख़रीफ़ की फसलों के बीच के समय (मार्च से लेकर जून-जुलाई के दौरान) देखा जाता है, जब यहां आमदनी का कोई जरिया नहीं होता है।
लेकिन हाल ही में तालाब किनारे बसे एक गांव खेरदा और उसके आसपास के गांवों के किसानों ने इलाके की फ़सल विविधता-चक्र को बदला है। उन्होंने जून-जुलाई के समय में बोई जाने वाली मूंग की फसल को मार्च में ही बोना शुरू किया है। मार्च से जून के बीच तालाब में पानी लगभग सूख चुका होता है। इसलिए वे इस दौरान तालाब के किनारे स्थित खेतों एवं तालाब के तल की नमी का उपयोग कर, मूंग की खेती कर रहे है।
मूंग की खेती से फ़सल में विविधता लाना यहां के लिए कारगर रहा है। मूंग कम समय (60 -70 दिन) में तैयार होने वाली फ़सल है। इससे जून-जुलाई की मुख्य फसलों को बोने में अड़चन नहीं आती है। चूंकि ये किसान बाजार में मूंग को समय से पहले उपलब्ध करवा रहे हैं, इसलिए फ़सल बेचने पर सामान्य से लगभग दोगुनी कीमत मिलती है। आर्थिक रूप से मजबूत होने से किसान सामाजिक आयोजनों जैसे विवाह में नूतरे (विवाह वाले घर में पैसे देने की प्रथा) वग़ैरह देने सरीखी आर्थिक जरूरतों को भी पूरा कर पाते है। साथ ही, इससे मुख्य फसल के लिए बीज, बुवाई आदि का खर्च भी उठाने में सक्षम हो रहे हैं।
इस फसल से पशुओं को चारा भी मिल रहा है। साथ ही, इन महीनों में खेती न होने की वजह से होने वाला पलायन भी अब कम हो गया है। इसके अलावा, इस फसल से किसानों के खेत की उर्वरता बढ़ रही है क्योंकि मूंग की जड़ों में राइज़ोबियम बैक्टीरिया होता है जो भूमि में नाइट्रेट् की मात्रा बढ़ा देता है। इसकी सूखी पत्तियां भी जैविक खाद की तरह काम करती हैं।
इस तरह यह फ़सल आगे की मुख्य फसलों के लिए न केवल जमीन को उर्वर बना रही है बल्कि जल सरंक्षण और लगातार बिगड़ते पारिस्थितिक तंत्र में जैव विविधता को बनाए रखने की दिशा में भी काफी मददगार है। मूंग की खेती से जुड़े वाग्धारा संस्था के तकनीकी ज्ञान एवं सहयोग के चलते दो सौ परिवारों के साथ शुरू कर हम लगभग 20 हजार परिवारों तक इस खेती को पहुंचा चुके हैं।
अनीता, पिछले 13 वर्षों से वाग्धारा संस्था के साथ बतौर कम्युनिटी लीडर काम कर रही हैं। वे खेरदा और उसके आसपास के गांवों में सच्ची खेती, जल सरंक्षण एवं समुदायिक अधिकारों को लेकर जागरुकता अभियान चलाती हैं।
सोहन नाथ करीब 25 सालों से सामाजिक क्षेत्र से जुड़े है। वे वाग्धारा के साथ जल सरंक्षण, सच्ची खेती जैसे नवाचारों एवं सामुदायिक कार्यक्रमों में अपनी मुख्य जमीनी भूमिका निभाते हैं।
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बीती 29 अप्रैल को, दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) ने पश्चिमी दिल्ली के रघुबीर नगर में फुटपाथ के किनारे 50-60 झुग्गियों को ध्वस्त कर दिया। तिरपाल चादरों और टिन की छतों वाली इन झुग्गियों में मुख्य रूप से फेरी (पारंपरिक कपड़ा रीसाइक्लिंग) का काम करने वाले लोग रहते थे। इन घरों में रहने वाली महिलाएं दिल्ली के आस-पास के इलाकों में पुराने कपड़ों के बदले बर्तन बेचती थीं और इन्हें रीसाइक्लिंग बाजारों में बेचकर अपनी आजीविका चलाती थीं।
एमसीडी ने इन झुग्गियों को ध्वस्त करने से पहले किसी तरह की कोई सूचना नहीं दी थी। अपने सात महीने के बच्चे को गोद में लिए एक छब्बीस वर्षीय महिला का कहना है कि ‘लिखित की तो छोड़िये उन्होंने हमें मौखिक सूचना भी नहीं दी। अब हम अपने बच्चों को लेकर कहां जाएंगे?’ सुबह दस बजे बिना किसी सूचना के बुलडोजर हमारी बस्ती में आ गया और हमारी झुग्गियों को ध्वस्त करके दोपहर बारह बजे तक लौट गया।
एक दूसरे स्थानीय निवासी ने बताया कि, ‘हमें अपना सामान हटाने या कुछ और सोचने तक का समय भी नहीं दिया गया। हमने उनसे पूछा भी कि हमें क्यों हटाया जा रहा है लेकिन उन्हें इसका जवाब देने में किसी तरह की दिलचस्पी नहीं थी।’
इन झुग्गियों में रहने वाले लोगों का दावा है कि वे कई पीढ़ियों यहां रह रहे हैं और कुछ की झुग्गी तो साल 1982 से यहीं पर है। 62 साल की दुर्गा* कहती हैं कि ‘हमारे बच्चों और उनके बच्चों का जन्म भी यहीं हुआ है। हमारे पास वोटर कार्ड, आधार कार्ड, राशन कार्ड, स्कूल प्रमाणपत्र जैसे सभी ज़रूरी दस्तावेज हैं।’
दिल्ली की स्लम और झुग्गी झोपड़ी पुनर्वास और स्थानांतरण नीति, 2015 में कहा गया है कि 1 जनवरी 2015 से पहले स्थापित बस्तियों और 1 जनवरी 2006 से पहले अस्तित्व में आई झुग्गियों के निवासियों को वैकल्पिक आवास प्रदान किए बिना नहीं हटाया जा सकता है। इसलिए, ये आवश्यक दस्तावेज़ उस स्थान पर उनके निवास के प्रमाण हैं, जो उन्हें पुनर्वास सेवाओं के लिए पात्र बनाते हैं। यहीं रहने वाली गौरी* ने अपनी हताशा व्यक्त करते हुए कहा, ‘उन्होंने हमारी त्रिपाल की चादरों को भी फाड़ दिया। क्या वे इन झुग्गियों को खड़ा करने के संघर्ष को समझते हैं? घर की तो छोड़िये क्या सरकार नये त्रिपाल भी देगी?’
झुग्गियों को ध्वस्त करने के बाद यहां रहने वाले लोग अपनी अपनी झुग्गियों के मलबे के नीचे रह रहे हैं। गर्मी और बेमौसम की बरसात से बचने के लिए वे त्रिपाल की चादरें तानना चाहते हैं लेकिन उन्हें पुलिस स्टेशन का डर सता रहा है।
*गोपनीयता के लिए नामों को बदल दिया गया है।
अनुज बहल एक अर्बन रिसर्चर और प्रैक्टिशनर हैं।
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उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले में थारू आदिवासी समुदाय के लोग सदियों से जंगल के आसपास बसे हुए हैं। हमने इन जंगलों की वनस्पतियों और जीवों की रक्षा की और बदले में जंगल ने हमें बहुत कुछ दिया। जैसे लकड़ियां, जिसका उपयोग हमने खाना पकाने और घर बनाने में किया। लेकिन साल 1977 में जब से दुधवा नेशनल पार्क का निर्माण हुआ, तब से हमारा समुदाय विस्थापन के साथ-साथ वनोपज तक पहुंच को लेकर कई तरह के प्रतिबंधों का सामना कर रहा है।
वन विभाग हमें अतिक्रमणकारियों के रूप में देखता है। हम यहां 300 सालों से बसे हुए हैं लेकिन इसके बावजूद विभाग हमें हमारी ही ज़मीन पर खेती करने से रोकता है। ऐसा तब है जब हमारे तीन गांवों में लोगों को व्यक्तिगत वन अधिकार प्राप्त हो चुके हैं, और 20 सामुदायिक वन अधिकार के दावे हैं जो आज भी मंजूरी का इंतज़ार कर रहे हैं।
पहले हम अपनी सीमित ज़मीन पर गन्ना और चावल उगाते थे। लेकिन जो चीनी मिलें हमसे गन्ना खरीदती थीं, वे महीनों तक हमें पैसा नहीं देती थीं। इसलिए अब हम ज्यादातर समय अपना मुख्य भोजन गेहूं और चावल ही उगाते हैं।
लेकिन इसमें भी हमें चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। पिछले तीन-चार सालों से बारिश का समय आगे-पीछे हो गया है। मॉनसून से पहले की बारिश जो जून की शुरुआत में आती थी और बीज के अंकुरण में मदद करती थी, अब गायब हो गई है। इन दिनों, जुलाई में जब बारिश होती भी है, तो मूसलाधार बारिश होती है। यदि कोई किसान इस दौरान बीज बोता है तो भारी बारिश से पौधे बह जाते हैं। फसल के मौसम के दौरान फिर से बारिश होने लगती है इसलिए हमारे लिए फसल का भंडारण कर पाना मुश्किल हो जाता है।
सरकार द्वारा संचालित बाजार शहर में बहुत दूर हैं। अगर कोई किसान अपनी उपज के साथ वहां पहुंचने में कामयाब भी हो जाता है, तो उसे इसे बेचने से के लिए कई दिनों तक लाइन में लगकर इंतजार करना पड़ता है। इससे फसल खराब होने का खतरा रहता है। हमारे लोग अब बिचौलियों को बेचना पसंद करते हैं, भले ही वे इसकी कम कीमत ही क्यों न दे रहे हों।
बाजार तक हमारी पहुंच को सुविधाजनक बनाने या हमें अपनी ज़मीन के दावे देने की जगह, सरकार हमें कह रही है कि कि हम सार्वजनिक वितरण प्रणाली से दिये चावल खाएं। वह चावल निम्न गुणवत्ता का होता है और हम लोग उसे नहीं खाना चाहते हैं। हम अक्सर इसे राशन की दुकानों को बेच देते हैं और बदले में पैसे ले लेते हैं।
निबादा राना थारू आदिवासी महिला मजदूर किसान मंच की उपाध्यक्ष हैं। सहबिनया राना थारू आदिवासी महिला मजदूर किसान मंच की महासचिव हैं।
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छेरछेरा छत्तीसगढ़ में फसलों से जुड़ा एक पारंपरिक त्योहार है जो पौष (जनवरी) के महीने की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इस त्योहार में गांव के लोग घर-घर जाकर एक-दूसरे से भंडार में रखे गये नई फसल वाले चावल मांगते हैं। इस दौरान लोग, व्यक्तिगत रूप से और समूहों में एक दूसरे से मिलने जाते हैं। एक-दूसरे के घर जाते समय वे ‘छेरछेरा कोठी के धान हेरते हेरा’ (अपने भंडार में से थोड़ा सा चावल मुझे भी दो) वाला गीत भी गाते हैं। डंडा नाच और सुआ नाच जैसे पारंपरिक नृत्य भी उत्सव का हिस्सा हैं।
इस त्यौहार में अमीर-गरीब, बच्चे-बूढ़े, जाति-वर्ग से परे सभी लोग एक दूसरे के घर जाते हैं। यहां तक कि राज्य के मुख्यमंत्री और राज्यपाल भी धूमधाम से इस त्योहार को मनाते हैं। समुदाय का मानना है कि मांगना हम मनुष्यों को विनम्र बनाता है। आमतौर पर, लोग अपनी क्षमता के आधार पर एक-दूसरे को चावल देते हैं; अक्सर इस मौक़े पर घर आने वालों को महुआ से बनी ताजी शराब भी परोसी जाती है। नृत्य की मंडलियां त्योहार से एक-दो सप्ताह पहले ही समूह बनाकर लोगों के घर जाना शुरू कर देती हैं। उन्हें प्रत्येक घर से 5–6 किलो चावल मिल जाता है। लोग त्योहार पर आसपास रहने वाले रिश्तेदारों के घर भी ज़रूर जाते हैं क्योंकि वहां उन्हें अधिक चावल मिलने की संभावना होती है।
छेरछेरा एक समय में पूरे राज्य में लोकप्रिय था लेकिन शहरी आबादी के इससे दूर हो जाने के कारण अब ये ग्रामीण इलाक़ों तक ही सिमट कर रह गया है। इतना ही नहीं, स्थिति ऐसी हो चुकी है कि छत्तीसगढ़ के गांवों में भी लोग इस त्योहार को इसके पारंपरिक स्वरूप में नहीं मना पा रहे हैं।
पिछले कुछ दशकों में, इलाक़े में कोयला खदानों के शुरू हो जाने के कारण यहां के लोगों से उनकी ज़मीन छिन गई है। खेती वाली ज़मीन के कम होने का सीधा मतलब है – बहुत कम या ना के बराबर उपज। इस स्थिति ने, लोगों को छेरछेरा में चावल की जगह पैसे देने पर मजबूर कर दिया है, वहीं चावल के बदले मक्का उपजाने वाले किसानों ने मक्का देना शुरू कर दिया है। इन सबके बावजूद, अब भी भूमिहीन समुदायों के कई ऐसे सदस्य हैं जो इस त्योहार को इसके वास्तविक स्वरूप में मनाने की इच्छा रखते हैं। इसलिए वे सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से मिलने वाले चावल का एक हिस्सा छेरछेरा पर मांगने आने वाले लोगों के लिए अलग से बचा कर रख लेते हैं।
मुरली दास संत एकता परिषद में छत्तीसगढ़ राज्य परियोजना समन्वयक हैं।
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लद्दाख के पांग इलाक़े में ज़मीन के एक बहुत बड़े -लगभग 80 किमी क्षेत्र वाले- हिस्से पर एक मेगा सौर ऊर्जा संयंत्र की स्थापना किया जाना तय हुआ है। अनुमान है कि इस ऊर्जा संयत्र से 13 गीगा वॉट तक अक्षय ऊर्जा उत्पन्न हो सकती है। लद्दाख को केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा मिलने के तुरंत बाद ही शुरू हुई इस परियोजना को पूरा करने की समयसीमा, साल 2029–30 तक रखी गई है।
लेकिन 13 गीगा वॉट वाला यह विशाल सौर ऊर्जा संयंत्र हमारे लिए एक बड़ी चिंता बन गया है, क्योंकि इसके कारण हमारे प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ सकता है। उदाहरण के लिए, पांग एक शुष्क क्षेत्र है जहां धूल बहुत उड़ती है। समय के साथ इन सौर पैनलों पर धूल की परत चढ़ेगी जिसे धोने के लिए भारी मात्रा में पानी खर्च करना पड़ेगा। हमें डर है कि इससे क्षेत्र के जल स्तर और ग्लेशियरों पर भी इसका गंभीर प्रभाव पड़ेगा। यह क्षेत्र घुमंतू जनजातियों के लिए चारागाह के तौर पर महत्वपूर्ण है क्यों कि इससे उनके मवेशियों को नियमित चारा उपलब्ध होता है। इस प्रोजेक्ट के कारण इलाक़े की कई जनजातियां इस भूमि के उपयोग से वंचित हो जाएंगी।
परियोजना के लिए, एक अतिरिक्त पाइपलाइन को मंजूरी दे दी गई है जो इस बिजली को हिमाचल प्रदेश और पंजाब से होते हुए हरियाणा के कैथल तक पहुंचाएगी, जहां इसे राष्ट्रीय ग्रिड के साथ एकीकृत किया जाएगा। इस पाइपलाइन के निर्माण से अपने प्राकृतिक संसाधनों के साथ, हमारे द्वारा बनाए गए नाजुक संतुलन को और अधिक ख़तरा पहुंचने की संभावना है।
इस सौर ऊर्जा संयंत्र से हम लद्दाखियों की बिजली की मांग पर कोई विशेष असर नहीं पड़ेगा क्योंकि हमारी वर्तमान ज़रूरत निमो बाज़गो और चुटक जैसे हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्लांट और अन्य कई सौर संयंत्रों के जरिए पहले से ही पूरी हो रही है। परियोजना की योजना बनाते समय हममें से किसी से सलाह नहीं ली गई। स्थानीय निर्वाचित पार्षदों की एक वैधानिक संस्था लद्दाख स्वायत्त पहाड़ी विकास परिषद, लेह को भी इस पूरी योजना और प्रक्रिया से बाहर रखा गया था।
जिग्मत पलजोर, लद्दाख के एक कार्यकर्ता और एपेक्स बॉडी लेह के को-ऑर्डिनेटर हैं।वे वर्तमान में #क्लाइमेट फ़ास्ट आंदोलन के भी को-ऑर्डिनेटर हैं।
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