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March 24, 2022

“कश्मीर में एक पत्रकार होना आसान नहीं है”

कश्मीर की एक महिला पत्रकार ने कार्यस्थल की मुश्किलों के साथ-साथ अनुच्छेद 370 के हटने और कोविड-19 के कारण घाटी में पत्रकारिता पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में हमसे बात की।
7 मिनट लंबा लेख

मेरा नाम बिसमा भट्ट है और मैं श्रीनगर, कश्मीर में एक पत्रकार हूँ। वर्तमान में मैं फ्री प्रेस कश्मीर  नाम की एक साप्ताहिक पत्रिका में फीचर लेखक के रूप में काम करती हूँ। मैंने अपना पूरा जीवन श्रीनगर में बिताया है। मेरे बचपन में ही मेरे पिता का देहांत हो गया था। मुझे और मेरी दो छोटी बहनों को हमारी माँ ने पाला है। मेरे जीवन की योजना में पत्रकार बनना शामिल नहीं था। स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद मुझे जम्मू और कश्मीर के कटरा में वास्तुकला में स्नातक की पढ़ाई करने के लिए श्री माता वैष्णोदेवी विश्वविद्यालय में नामांकन मिल गया था। चूंकि कॉलेज घर से थोड़ी ज्यादा दूरी पर था और मेरी माँ को मेरी सुरक्षा की चिंता थी इसलिए मैंने वहाँ न जाने का फैसला किया। इसके बदले 2016 में मैंने विज्ञान में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। उसी साल एक मुठभेड़ में उग्रवादी बुरहान वानी मारा गया था, जिसके कारण कश्मीर में तनाव का माहौल बन गया था। उसी समय के आसपास अपनी माँ के साथ उनके वार्षिक चिकित्सीय जांच के लिए मैं पास के ही एक तृतीयक देखभाल अस्पताल गई थी। मैं डॉक्टर के कमरे के बाहर अपनी माँ का इंतजार कर रही थी, तभी मैंने देखा कि एक आदमी को जल्दी से स्ट्रेचर पर लाया जा रहा है जिसके सिर में गोलियां लगी हुई हैं और वह घायल अवस्था में है। मैं उसकी माँ के रोने की आवाज़ सुन सकती थी। जैसे ही मैं अपने झटके से उबरी मुझे अच्छी तरह से याद है कि उस वक्त वहाँ एक भी पत्रकार या मीडिया का आदमी मौजूद नहीं था जो इस घटना की रिपोर्टिंग करता। मैं अंदर से हिल गई थी लेकिन साथ ही मुझे यह भी महसूस हुआ कि मुझे कुछ करने की जरूरत है। 

उस घटना के बाद मैंने  केंद्रीय विश्वविद्यालय, कश्मीर से अभिसरण पत्रकारिता (कन्वर्जेंट जर्नलिज़्म) में स्नातकोत्तर की पढ़ाई के लिए आवेदन करने का फैसला किया। मैंने 2018 में अपनी पढ़ाई पूरी कर ली और मेरी पहली नौकरी कश्मीर मॉनिटर  नाम के एक दैनिक अँग्रेजी अखबार में लगी। मैंने वहाँ लगभग तीन वर्षों तक काम किया। उसके बाद अगस्त 2020 में मैं फ्री प्रेस कश्मीर  से जुड़ गई। 

वर्तमान में फ्री प्रेस कश्मीर  में बहुत अधिक संख्या में रिपोर्टर नहीं है और इसलिए मुझे हर दिन दैनिक रिपोर्टिंग से जुड़ा बहुत सारा काम करना पड़ता है। हालांकि मेरी रुचि विवाद-आधारित और गुमशुदा लोगों की कहानी में है। मैं द वायर, आर्टिकल 14 और फ़र्स्टपोस्ट जैसे राष्ट्रीय समाचार पोर्टलों के लिए भी लिखती हूँ। 

सुबह 7.00 बजे: सुबह का मेरा अधिकतर समय घर के कामों को निबटाने में लग जाता है— घर और बर्तन की सफाई, मेरे पति के काम पर जाने से पहले उनके लिए खाना पकाना। कोविड-19 के कारण मेरे दफ्तर ने मुझे घर से काम करने की अनुमति दे दी है लेकिन चूंकि मेरे पति शिक्षा विभाग में एक सरकारी कर्मचारी हैं इसलिए उन्हें हर दिन काम पर जाना पड़ता है। मेरे ससुर मुझे जब भी घर के कामों में लगा हुआ देखते हैं, वह मुझसे दफ्तर जाने के लिए कहते हैं या फिर कहानियों के लिए क्षेत्र में निकलने की गुजारिश करते हैं। वह मुझसे अक्सर कहते हैं कि मुझे अपनी नौकरी पर ध्यान देना चाहिए और घर के कामों में ज्यादा समय नहीं बिताना चाहिए। 

दोपहर 1.00 बजे:  दोपहर का खाना जल्दी ख़त्म करके मैं लैपटाप पर नई कहानी पर काम शुरू करती हूँ। पहले चरण में मैं लोगों की सूची बनाती हूँ जिनसे मुझे इस कहानी को पूरा करने के लिए मिलने की जरूरत होती है। कहानी के लिए संभावित स्त्रोतों की पहचान करने के बाद मैं उनमें से प्रत्यके को फोन करना शुरू करती हूँ।

कुछ सालों तक एक पत्रकार के रूप में काम करने के बाद मैं अब आसानी से लोगों तक पहुँच कर जानकारी हासिल कर लेती हूँ।

मेरे लिए लेख लिखने की प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा इसमें शामिल सभी पक्षों से बात करना है। मैंने हाल में ही श्रीनगर के पीरबाग में एक लेख पर काम किया था जहां एक घरेलू सहायक ने 3-4 लाख रुपए की चोरी की और भाग रहा था। जब मुझे इस मामले के बारे में पता चला तो मैंने सबसे पहले उस परिवार से संपर्क किया जिसके घर में चोरी हुई थी और फोन पर ही जानकारी हासिल की। मैंने उनसे पूछा कि वास्तव में क्या हुआ था, उन्हें इसके बारे में कब पता चला था और इस पूरी घटना में नौकरी दिलाने वाली एजेंसी की क्या भूमिका है। उनसे बात करने के बाद मैंने जिला के पुलिस थाने में फोन किया और उसके बाद उस एजेंसी में भी फोन किया जिसने उस घरेलू सहायक को काम पर लगवाया था और मैंने इस घटना को लेकर उनका पक्ष भी सुना। मैं बहुत विस्तार से नहीं बताऊँगी कि उन लोगों से मुझे क्या जानकारियाँ मिली क्योंकि यह एक बड़ी खबर है जिसपर मैं अभी काम कर रही हूँ और मुझे उम्मीद है कि मैं जल्द ही इसे राष्ट्रीय प्रकाशन के लिए पेश करूंगी। 

कुछ सालों तक एक पत्रकार के रूप में काम करने के बाद मैं अब आसानी से लोगों तक पहुँच कर जानकारी हासिल कर लेती हूँ। हालांकि ऐसा हमेशा से नहीं था। मुझे याद है जब मैंने कश्मीर मॉनिटर  के साथ पहली बार एक पत्रकार के रूप में काम करना शुरू किया था, उस समय क्षेत्र में मेरे पास बहुत अधिक स्त्रोत नहीं थे। कहानियाँ ढूँढना बहुत मुश्किल था, और अक्सर मुझे खबर लिखने के लिए घटना वाली जगह पर जाना पड़ता था। शुरूआती दिनों में मुझे विभिन्न सरकारी दफ्तरों में जाना पड़ता था और जानकारी इकट्ठा करने के लिए वरिष्ठ अधिकारियों से बातचीत करनी पड़ती थी। एक युवा महिला पत्रकार के रूप में यह काम आसान नहीं था। कभी-कभी इन जानकरियों के बदले मुझसे ‘निश्चित समझौते’ करने के लिए कहा जाता था। मुझे याद है कि उन दिनों मैं कितना डरती थी। मेरी उम्र बहुत कम थी और मैंने अभी-अभी अपना करियर बनाना शुरू किया था। मैं नहीं जानती थी कि इन परिस्थितियों से कैसे निबटा जाए। इस क्षेत्र में कुछ साल बिताने के बाद अब मैं समझ गई हूँ कि लोगों से कैसे संपर्क किया जाए और ऐसे मामलों में कैसे प्रतिक्रिया करनी चाहिए। 

मैं जानती हूँ कि हम जो काम करते हैं वह आसान नहीं है लेकिन अगर मैं आवाज़ उठाने में मददगार साबित हो सकती हूँ तो मैं यह काम करते रहना चाहती हूँ। | चित्र साभार: बिस्मा भट्ट

दोपहर 3.00 बजे: फोन कॉल से मिली जानकारियों को लिखने के बाद मैं ऑनलाइन शोध करना शुरू करती हूँ और देखती हूँ कि क्या इस तरह के मामलों से जुड़ी खबरें भारत में पहले प्रकाशित हो चुकी हैं। अगर मुझे ऐसी कोई खबर मिलती है तब मैं उसका अध्ययन करती हूँ। जरूरत पड़ने पर मैं बाहर निकलकर स्त्रोतों से बातचीत भी करती हूँ। जैसे ही अपनी रिपोर्ट के ढांचे को लेकर मैं आश्वस्त हो जाती हूँ मैं अपना लैपटॉप बंद करती हूँ और बैग में रख लेती हूँ। आमतौर पर मैं लिखने का काम अगले दिन दोपहर को करना पसंद करती हूँ और शाम तक अपने संपादक को कहानी भेज देती हूँ। मुझे याद है जब 2019 में अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिया गया था। उस दिन न तो मैं दफ्तर जा सकी थी और न ही अपने संपादक को अपनी कहानियाँ भेज पाई थी क्योंकि सभी नेटवर्क बंद कर दिये गए थे। उस समय सरकार मीडिया सुविधा केंद्र में सीमित इंटरनेट कनेक्शन मुहैया करवाती थी। इसलिए मैं अपनी कहानियों को पेनड्राइव में डाउनलोड करती थी और सुविधा केंद्र तक जाती थी ताकि दिल्ली में बैठे अपने संपादकों से जम्मू और कश्मीर की वर्तमान स्थिति से जुड़ी खबरें साझा कर सकूँ। 

कश्मीर में एक पत्रकार होना आसान नहीं है। संपर्कस्त्रोत और सुरक्षा की कमी के कारण मुझे कभी-कभी सिर्फ श्रीनगर से जुड़ी खबरों पर ही काम करना पड़ता है। दिन में मैं बहुत देर तक बाहर भी नहीं रह सकती हूँ और अंधेरा होने से पहले मुझे घर वापस लौटना पड़ता है। 

एक पत्रकार के रूप में हर दिन हमारा सामना हिंसा, खून-खराबा और मौतों से होता है, विशेष रूप से हमारे इलाकों में जहां संघर्ष बहुत अधिक है।

हालांकि 2020 में जब मुझे संजय घोस मीडिया पुरस्कार के लिए चुना गया था तब मुझे इसके कारण उन ग्रामीण इलाकों से जुड़ी खबरों पर काम करने का मौका मिला था जो सामान्य स्थिति में संभव नहीं था। प्रक्रिया के हिस्से के रूप में मैं औरतों से जुड़ी पाँच खबरों पर काम कर सकती थी। उस दौरान मैंने बहुत सारी औरतों से बात की और मुझे इस बात का एहसास हुआ कि वे सभी किसी न किसी रूप में संघर्ष कर रही हैं। उनमें से अधिकतर औरतों को अपने अधिकारों की जानकारी भी नहीं है। वे नहीं जानती हैं कि घर पर पति या परिवार के सदस्यों द्वारा बुरा बर्ताव करने की स्थिति में उन्हें किससे संपर्क करना चाहिए या क्या कदम उठाना चाहिए। 

मुझे इस बात का भी एहसास हुआ कि मीडिया संगठनों के बहुत कम लोग श्रीनगर के इन इलाकों में जाते हैं और इनकी समस्याओं के बारे में लिखते हैं। उस समय मैं अनंतनाग और बंदीपोरा जैसे इलाकों में होने वाली घटना और मुठभेड़ों पर काम कर रही थी। इन इलाकों में ये घटनाएँ बहुत आम थीं। हालांकि, मानव-हित से संबंधित बहुत कम कहानियाँ ही हैं। इन जगहों पर रहने वाले लोगों की आवाज़ें देश भर में तो क्या हम तक भी कभी नहीं पहुँच पाती हैं। आज की तारीख में कश्मीर में एक पत्रकार के रूप में काम करते हुए मैं कोशिश करना चाहती हूँ और बदलाव लाना चाहती हूँ। 

शाम 6.00 बजे: रात का खाना तैयार करने के बाद मैं अपने लिए एक कप चाय बनाती हूँ और कश्मीर के इतिहास से जुड़ी उस किताब को उठा लेती हूँ जो मैं पिछले कुछ दिनों से पढ़ रही हूँ। आमतौर पर मुझे विवाद और युद्ध-आधारित कहानियाँ पसंद हैं, लेकिन हाल ही में मैंने यह पाया है कि मैं कश्मीर पर लिखी ऐतिहासिक कथा और कथेतर की किताबें भी पढ़ने लगी हूँ। 

अपने करियर के इतने सालों में मुझे इस बात का एहसास हुआ है कि हमारे जीवन में ऐसे शौक और पसंद की चीजें होनी चाहिए जिनसे हमें राहत पाने में आसानी होती है। एक पत्रकार के रूप में हर दिन हमारा सामना हिंसा, खून-खराबा और मौतों से होता है, विशेष रूप से हमारे इलाकों में जहां संघर्ष बहुत अधिक है। ऐसे अनुभव अक्सर आपके जीवन का हिस्सा बन जाते हैं। 

कश्मीर के लोगों को बहुत कुछ सहना पड़ता है। हर दिन किसी के बेटे, भाई या पिता के गुम होने की खबर दर्ज होती है।

मेरे दिमाग से आज भी वह घटना नहीं जाती है जिस पर 2020 में मैं काम कर रही थी। यह कुलगाम में एक लड़की के बारे में था जिसका बलात्कार करके मरने के लिए छोड़ दिया गया था। जब मैं उसके परिवार से बात करने के लिए गई तब तक उस लड़की की मृत्यु के तीन दिन हो चुके थे। मैंने उनके साथ एक-दो घंटे का समय बिताया ताकि वे घटना के बारे में मुझसे बात करने में सहज महसूस कर सकें। वे अब भी सदमे में थे लेकिन उनके अंदर गुस्सा भी था क्योंकि उन्हें ऐसा लग रहा था कि उनके लिए कोई कुछ नहीं कर रहा था—उनके अनुसार पूरी घाटी इस घटना को लेकर चुप थी। मुझे याद है कि वे बार-बार एक ही सवाल पूछ रहे थे: हम इतने असंवेदनशील कब हो गए?

खासकर औरतों से जुड़ी इस तरह की कहानियों पर नियमित रूप से काम करने और लिखने के बाद मैंने फैसला किया कि अपने मानसिक स्वास्थ्य के लिए मुझे किसी पेशेवर मदद की जरूरत है। उस घटना के बारे में सोचने पर आज भी मैं परेशान हो जाती हूँ। 

शाम 7.00 बजे: मुझे पुलिस का कॉल आया है। उन्होनें मुझे आश्वस्त किया है कि यह एक नियमित रूप से होने वाला सत्यापन का कॉल है। उन्होनें पूछा है कि मैं कहाँ काम करती हूँ और क्या काम करती हूँ। उनके सवालों का जवाब देने के क्रम में मैं यह याद करने की कोशिश कर रही हूँ कि हाल में मैंने कुछ ऐसा तो नहीं लिखा है जिसके कारण मुझे पुलिस से किसी तरह की कॉल आ सकती है। उनके फोन रखने के बाद मैंने अपने सहकर्मियों को फोन किया और उनसे यह जानने की कोशिश की कि क्या उनके पास भी इस तरह का कोई कॉल आया था। शुक्र है उन सबके पास भी ऐसे ही फोन आए थे और उनसे भी वही सवाल किए गए थे। 

रात 8.00 बजे: मैं और मेरे पति रात का खाना खा रहे हैं और मैंने उन्हें थोड़ी देर पहले आए पुलिस कॉल के बारे में बताया। उन्होनें मेरी सुरक्षा को लेकर चिंता जताते हुए मुझे अपने पेशे को बदलने के बारे में गंभीरता से सोचने की सलाह दी। यह एक ऐसी बातचीत है जो हमारे बीच कई बार हो चुकी है – वह मुझसे कहते हैं कि मैं जो काम करती हूँ वह बहुत ख़तरनाक है, और मैं उनसे कहती हूँ कि जहां एक तरफ मैं इस काम के खतरे को समझती हूँ वहीं दूसरी तरफ मैं कोई दूसरा काम नहीं करना चाहती हूँ। 

कश्मीर के लोगों को बहुत कुछ सहना पड़ता है। हर दिन किसी के बेटे, भाई या पिता के गुम होने की खबर दर्ज होती है। हाल ही में मैंने एक ऐसे परिवार की मदद की थी जिनसे मैं कभी मिली भी नहीं थी। ऐसा उस खबर की वजह से हुआ जिसमें मैंने उत्तर प्रदेश में गिरफ्तार हुए उन तीन मुस्लिम लड़कों के बारे में लिखा था जिन्होनें पाकिस्तान के क्रिकेट टीम के पक्ष में नारेबाजी की थी। उन तीन लड़कों में से दो लड़के बहुत ही गरीब थे। वकील का खर्च उठाने के लिए उनमें से एक के परिवार को अपनी गाय बेचनी पड़ी थी। जब मैंने इस खबर के बारे में लिखा और ट्वीट किया उसके बाद से मुझे ऐसे असंख्य लोगों के संदेश मिले जो उनकी मदद करना चाहते थे और उस परिवार को पैसे भेजना चाहते थे ताकि उन्हें अपनी गाय वापस मिल जाए।

मैं जानती हूँ कि हम जो काम करते हैं वह आसान नहीं है। लेकिन मेरा विश्वास है कि अगर मैं आवाज़ों को बाहर लाने में मदद कर सकती हूँ, अगर मैं किसी भी तरह से किसी की मदद कर सकती हूँ, तो मैं जो करती हूँ उसे करते रहना चाहती हूँ। 

जैसा कि आईडीआर को बताया गया। 

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अधिक जानें 

  • इस बारे में पढ़ें कि जम्मू और कश्मीर में राज्य महिला आयोग के भंग होने के कारण एक महिला को अपने खिलाफ हुए अपराध को दर्ज करवाने में कितना अधिक संघर्ष करना पड़ा।

अधिक करें

  • बिस्मा भट्ट के काम को जानने के लिए उन्हें ट्वीटर पर @bismabhat3 पर फॉलो करें।

लेखक के बारे में
बिस्मा भट्ट
बिस्मा भट्ट फ्री प्रेस कश्मीर के साथ एक पत्रकार के रूप में काम करती हैं। उनकी विशेषताएं फ़र्स्टपोस्ट, आर्टिकल 14 और द वायर सहित प्रमुख राष्ट्रीय समाचार पोर्टलों में दिखाई दी हैं। उनके पास अभिसरण पत्रकारिता में मास्टर डिग्री है। बिस्मा को जम्मू-कश्मीर में महिलाओं के खिलाफ हिंसा पर उनकी रिपोर्ट के लिए संजय घोष मीडिया अवार्ड 2020 से सम्मानित किया गया है।

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  • Very well presented. Every quote was awesome and thanks for sharing the content. Keep sharing and keep motivating others.