जल और स्वच्छता
July 12, 2023

पानी बचाना है तो समुदाय को उसका मालिक बनाना होगा

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हिंदुस्तान यूनिलीवर फाउंडेशन द्वारा समर्थित
पूर्वी और मध्य भारत में आदिवासी समुदायों की महिलाएं स्थायी जल संरक्षण प्रणाली की योजना, निर्माण और प्रबंधन का अभिन्न अंग हैं।
5 मिनट लंबा लेख

पूर्वी एवं मध्य भारत के जनजातीय क्षेत्रों- जहां प्रदान पिछले 40 सालों से काम कर रहा है- में छोटे एवं पिछड़े किसानों का एक बहुत बड़ा तबका ऐसा है जो अपने खेतों में वर्षा-आधारित खेती करते हैं और जंगलों पर आश्रित हैं। इन इलाकों में भारी मात्रा में वर्षा होती है लेकिन पहाड़ी इलाक़ा होने कारण बारिश का सारा पानी बह कर नीचे चला जाता है। नतीजतन, यहां के लोगों को गंभीर जलसंकट से जूझना पड़ता है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और झारखंड की राज्य सरकारों द्वारा वाटरशेड विकास के प्रयासों में कामचलाऊ निवेश होने के कारण इनका प्रभाव सीमित है। ज़्यादातर मामलों में योजना और कार्यान्वयन, दोनों ही स्तरों पर जनजातीय समुदायों की उपस्थिति नदारद पाई गई है। 

योजनाएं बनाने और फ़ैसले लेने की प्रक्रियाओं में समुदायों की भागीदारी सीमित होने के कारण, लोग विकास पहलों को अपने जीवन और आजीविका के अवसरों के साथ जोड़कर नहीं देख पाते हैं। एक जल संरक्षण प्रणाली तभी सफल और टिकाऊ हो सकती है, जब यह समुदाय के उस नजरिए के मुताबिक बनाई गई हो जिसमें लोग अपने लिए बेहतर जीवन और आजीविका की संभावना देखते हों। इसे लोगों और पशु-पक्षियों, दोनों की जरूरतों को ध्यान में रखकर तैयार किया जाना चाहिए। प्रदान में काम करते हुए यही हमारे लिए एक महत्वपूर्ण सीख रही है।

प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन, और जलवायु परिवर्तन जैसी बड़ी समस्याओं का समाधान, इलाके में व्यक्तिगत स्तर पर परिवारों और किसानों से सूक्ष्म स्तर पर जुड़कर निकाला जा सकता है। प्रदान में, हम ऐसा मानते हैं कि लोग हमेशा ही अपनी ज़रूरतों के अनुसार बदलाव लाने में सक्षम होते हैं। सामुदायिक भागीदारी से यह तय होता है कि समुदाय की जरूरतों और ज्ञान का भी तालमेल बड़ी विकास पहलों के साथ हो सके। बॉटम-अप का यह दृष्टिकोण कोई नया विचार नहीं है। समाजसेवी संस्थाएं कई दशकों से, भागीदारी और समुदाय-आधारित योजना निर्माण और कार्यान्वयन को साथ लाने का काम करती रही हैं।

हम महिलाओं की जल्दी से सीखने और उसके मुताबिक ढलने की इच्छा देखकर हैरान रह गए।

अपने शुरुआती दिनों में, हमने माइक्रोफ़ाइनैन्स के लिए महिलाओं के स्वयं-सहायता समूह (एसएचजी) स्थापित किए थे। लेकिन जब हमने उन्हें बचत और लेनदारी से परे जाकर योजना निर्माण की प्रक्रियाओं में शामिल करना शुरू किया तब हम उनकी जल्दी सीखने और अनुकूल होने की ललक एवं समुदाय के प्रति उनकी दृढ़ प्रतिबद्धता को देखकर हैरान रह गए। हमने उनके भीतर वित्तीय, तकनीकी, सामाजिक और यहां तक कि राजनीतिक सम्भावनाएं, ज्ञान और उद्यमशीलता पाई।

हम जल्द ही इस बात को समझ गए थे कि विकास कार्यक्रमों के योजना निर्माण की प्रक्रिया पर दोबारा सोचने का समय आ गया है। साथ ही, इन प्रक्रियाओं में न केवल महिलाओं को शामिल करने की आवश्यकता है बल्कि हमें अपनी योजनाओं और उनके कार्यान्वयन की बागडोर भी उनके हाथों में थमा देनी चाहिए। अब महिलाओं ने कार्यक्रमों का स्वामित्व अपने हाथों में ले लिया है; कई एसएचजी की सदस्य अब स्थानीय चुनाव लड़ रही हैं और पंचायत सदस्य बन चुकी हैं। इसलिए हम इस बात से सहमत थे कि महिलाएं इस प्रक्रिया की मुख्य हितधारक हैं और उन्हें आगे आकर नेतृत्व करना चाहिए। 

सदी के शुरुआती सालों से हमने ग्रामीण क्षेत्रों में जल सुरक्षा योजनाओं में किसानों, खासतौर पर महिलाओं को संगठित करना शुरू कर दिया था। पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, ओडिशा और झारखंड में हमारा एकीकृत प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन (इंटीग्रेटेड नेचुरल रिसोर्स मैनेजमेंट) मॉडल 110,000 हेक्टेयर से अधिक भूमि में फैला है और इसने 740,000 से अधिक किसानों की आय में सुधार लाने का काम किया है। यह कैसे सम्भव हो सका?

सामुदायिक भागीदारी

समुदाय जब अपनी योजनाओं पर काम करते हैं तो उन्हें प्रेरणा मिलती है। व्यक्तिगत स्तर पर परिवारों को योजना निर्माण के चरण में शामिल करने से सदस्यों के अंदर स्वामित्व का भाव पैदा होता है। इस तरह वे इसे अपनी सम्पत्ति मानते हैं और जुड़ाव महसूस करते हैं। दरअसल, हमें एक ऐसे तरीक़े की ज़रूरत है जिससे समुदायों से जुड़ी बॉटम-अप योजनाओं को अच्छी तरह से आपस में जोड़ा जाए ताकि इसे विभिन्न सरकारी विभागों से फंड भी मिल सके। इस प्रकार, सरकार लोगों द्वारा बनाई गई योजनाओं पर काम करती है न कि लोग सरकार द्वारा बनाई गई योजनाओं पर। जब समुदाय के लोगों को प्रक्रिया के शुरुआती चरण में ही जोड़ लिया जाता है तब वे इसके निर्माण और देखभाल में अपना समय, अपनी ऊर्जा और यहां तक कि वित्तीय और ग़ैर-वित्तीय संसाधनों का भी निवेश करते हैं। 

किसी भी परियोजना को शुरू करने से पहले सामुदायिक संसाधन व्यक्ति (कम्यूनिटी रिसोर्स पर्सन) समुदायों को उनकी जरूरतों और चुनौतियों को समझने के लिए संगठित करते हैं। हम महिलाओं के एसएचजी, ग्राम-स्तरीय संगठनों और क्लस्टर-स्तरीय संघों के साथ काम करते हैं। सदस्य अपने लक्ष्यों और उद्देश्यों पर विचार करने के लिए इकट्ठा होते हैं और अपने सामने उपस्थित विकल्पों पर सोच-विचार करते हैं। वे गांव के बुनियादी ढांचे या स्कूलों और अपने बच्चों के लिए सुविधाओं की आवश्यकता पर चर्चा करते हैं। अक्सर ही ये बातचीत आजीविका के मुद्दे पर आ जाती है और आजीविका से जुड़ी सारी बातचीत और चर्चाओं के केंद्र में पानी होता है। 

खेती-किसानी, जंगल के संसाधनों या मवेशी पालन से अपनी आजीविका चलाने वाले लोग बातचीत के अंत में पानी की उपलब्धता से जुड़ी चुनौतियों पर चर्चा करने लग जाते हैं। इस बातचीत के अगले चरण में हम इस पर चर्चा करते हैं कि खाद्य एवं जल सुरक्षा को कैसे सुनिश्चित किया जा सकता है। इसके आधार पर, टोले और गांव जल संरक्षण के लिए अपनी योजनाएं बनाते हैं जो उनके संसाधनों – भूमि, जल, पशुधन और मानव संसाधन – के साथ-साथ उनकी ज़रूरतों, प्राथमिकताओं और आकांक्षाओं से जुड़ी होती हैं। हम यह सुनिश्चित करते हैं कि नियंत्रण, पहल और प्रभाव की बागडोर समुदाय के हाथों में ही रहे। लेकिन हम विचारों को योजनाओं में बदलने के लिए तकनीकी सहायता प्रदान करते हैं और साथ ही उनकी व्यवहार्यता का पेशेवर मूल्यांकन भी करते हैं।

जब समुदायों की निर्णय लेने में सीमित भागीदारी होती है, तो वे विकास पहलों को अपने जीवन से जोड़ने में असमर्थ होते हैं। | चित्र साभार: सीआईएमएमवायटी / सीसी बीवाय

सार्वजनिक धन का उपयोग

क्षेत्रों को सूखे, वनों की कटाई और मिट्टी के क्षरण से बचाव को सुनिश्चित करने वाले संसाधनों के निर्माण के लिए 2005 से महात्मा गांधी ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत सार्वजनिक धन को उपलब्ध कर दिया गया है। दैनिक रोज़गार पाने की इच्छा रखने वाले लोग मनरेगा फंड का उपयोग जल संग्रहण करने वाले स्थानों जैसे कि तालाब, खाइयों, गली प्लग, सीपेज टैंकों और वर्षा जल संचयन संरचनाओं के निर्माण के लिए कर सकते हैं।

इन योजनाओं को लागू करने में, समुदाय के सदस्य अपनी खुद की भूमि और जल संपत्ति के निर्माण के दौरान मज़दूरी कमाते हैं।

ग्राम पंचायत, योजना इकाई होती है। जब स्वयं सहायता समूह पंचायत के साथ मिलकार काम करते हैं तो स्थानीय रूप से उपयोगी व्यापक उपचार योजनाओं को विकसित करना सम्भव हो जाता है। साथ ही इनमें लोगों की ज़रूरतों को भी ध्यान में रखा जाता है। उसके बाद पंचायत इस बजट को तीन से चार साल की योजनाओं में आवंटित करती है। इन योजनाओं को लागू करने में, समुदाय के सदस्य अपनी खुद की भूमि और जल संपत्ति के निर्माण के दौरान मज़दूरी कमाते हैं। यह बदले में खेती को टिकाऊ बनाता है। इसके बाद खेती में निवेश से बेहतर परिणाम के लिए प्रदान उत्पादकता पर ध्यान केंद्रित कर सकता है।

सबको साथ लाने का नुस्खा

प्रदान यह सुनिश्चित करने का प्रयास करता है कि ग्राम पंचायत योजना निर्माण प्रक्रिया में एसएचजी को जोड़ा जाए। पंचायती राज संस्थाओं, स्वयं सहायता समूहों और स्थानीय प्रशासन के बीच यह सहयोग परिवर्तन की प्रक्रिया की रीढ़ है। एक बार जब किसी योजना को लागू करने का यह मॉडल सफल हो जाता है- इस मामले में मनरेगा के साथ- तब यह अन्य सरकारी विभागों, दानकर्ताओं और संगठनों के भाग लेने के लिए मार्ग बनता है। इसी टेम्पलेट का उपयोग रुचि लेने वाले अन्य हितधारकों से प्राप्त संसाधनों के मिलान के लिए भी किया जा सकता है। लगाए गए संसाधनों की मात्रा के आधार पर, यह विस्तार के लिए एक ढांचा बन जाता है जहां नागरिक समाज संगठन और सरकार पूरक भूमिका निभाते हैं। वित्तीय संस्थान उसी ढांचे के भीतर काम करने के लिए पूंजी और बाजार से जुड़े अन्य समर्थन भी प्रदान कर सकते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में कई हस्तक्षेप एकीकृत हो जाते हैं, और इसका प्रभाव कई गुना अधिक हो जाता है, जिससे संपूर्ण मूल्य श्रृंखला बन जाती है। वास्तव में, कई जगहों पर यह अब कृषि से आगे बढ़कर किसान उत्पादक संगठनों तक पहुंच गया है। प्रदान प्रोटोटाइप बनाता है लेकिन, समय के साथ, यह इस कारगर व्यवस्था में शामिल कई हितधारकों में से एक बन जाता है।

‘लोगों के झुकावके लिए प्रशिक्षण

स्थानीय समुदायों को उनके संसाधनों का प्रबंधन करने की क्षमता के निर्माण के अपने इतने सालों के अनुभव से हमने यह सीखा है कि कोई भी मॉडल “सिल्वर बुलेट” नहीं है; और न ही कोई ऐसा ढांचा हो सकता है जो सभी दृष्टिकोणों के लिए लिए अनुकूल हो। समाधानों को स्थानीय ज़रूरतों के मुताबिक तैयार करने और लोगों को अपने संसाधनों के प्रभावी प्रबंधन के लिए प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है। 

यही कारण है कि हम सर्वश्रेष्ठ तकनीकी और प्रबंधकीय कॉलेजों के छात्रों की भर्ती करते हैं और उन्हें एक गहन विकास प्रशिक्षण कार्यक्रम का हिस्सा बनाते हैं। वे उन समुदायों के लोगों के बीच एक साल का समय बिताते हैं जिनके साथ भविष्य में उन्हें काम करना होता है। वे अपना यह एक साल सीखने और उससे अधिक महत्वपूर्ण रूप से पहले से सीखी गई बातों को भूलने में लगाते हैं। ऐसा सम्भव है कि एक इंजीनियर के भीतर इंजीनियरिंग को लेकर कोई झुकाव हो और एक कृषक में खेती के प्रति।  हम चाहते हैं कि वे सभी ‘लोगों’ को लेकर झुकाव बनाएं, ख़ासकर उन लोगों के लिए जिनकी आवाज सुनने की संभावना सबसे कम है। 

वास्तविक विकास के लिए, हमें एक समाज के रूप में उन लोगों को सुनने की जरूरत है जिन्हें कभी नहीं सुना जाता है। हमें क़तार में खड़े सबसे अंतिम व्यक्ति को पहला बनाने का भरोसा जताना होगा। सामुदायिक दृष्टिकोण या बॉटम-अप दृष्टिकोण का काम बिल्कुल यही है – सबसे कमजोर और बेआवाज़ लोगों को अपनी बात रखने के लिए जगह या मंच प्रदान करना।

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लेखक के बारे में
नरेंद्रनाथ दामोदरन
नरेंद्रनाथ दामोदरन पिछले 34 वर्षों से प्रदान नामक भारत के एक प्रमुख स्वैच्छिक संगठन का हिस्सा रहे हैं। झारखंड और राजस्थान में प्रदान के क्षेत्र पेशेवर के रूप में नरेंद्रनाथ ने एसएचजी में ग्रामीण महिलाओं को संगठित करने और आजीविका कार्यक्रमों को लागू करने का काम किया है। नरेंद्र प्रदान में संसाधन और अनुसंधान केंद्र में कार्यक्रम निदेशक हैं। नरेंद्र अभ्यास से ज्ञान का निर्माण करने और इसे सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध कराने के लिए कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय अनुसंधान और प्रलेखन प्रयासों में शामिल भी रहे हैं।
सरोज महापात्रा
सरोज महापात्रा ग्रामीण परिवारों के लिए आजीविका के स्थायी अवसरों के विस्तार को केंद्र में रखकर काम करने वाली संस्था प्रदान में कार्यकारी निदेशक हैं। सरोज सिंचाई और जलवायु-लोच के बुनियादी ढांचे के निर्माण के विशेषज्ञ हैं और इन्होंने झारखंड और छत्तीसगढ़ में बहु-हितधारक जुड़ाव को बढ़ावा देने वाली परियोजनाओं का नेतृत्व किया है।