सीएसआर और लोक-कल्याण
June 14, 2022

भारत में व्यक्तिगत दान देने वालों तक पहुँचना

आँकड़ों के अनुसार आम लोग अब पहले से अधिक दान देते हैं। स्वयंसेवी संस्थाएँ ऐसे कई कदम उठा सकती हैं जिससे परोपकार के इस क्षेत्र से अधिकतम लाभ हासिल किया जा सके।
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परोपकार पर होने वाली चर्चाएँ मुख्य रूप से उच्च आय वर्ग वाले लोगों (हाई नेट वर्थ इंडिविजूअल्स या एचएनआई) या अपने कॉर्प्रॉट सोशल रेस्पॉन्सिबिलिटी (सीएसआर) के माध्यम से देने पर केंद्रित होती है। हालाँकि आँकड़े बताते हैं कि पिछले कुछ सालों में इन दोनों ही प्रकार के अनुदान में किसी तरह की वृद्धि नहीं हुई है। और निकट भविष्य में इन रुझानों में भारी बदलाव की उम्मीद के कई कारण उपलब्ध हैं।

शायद यही वह अवसर है जब हम नागरिकों द्वारा व्यक्तिगत स्तर पर किए जाने वाले छोटे आकार के अनुदानों पर अपना ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। वर्तमान में 144 देशों वाली विश्व अनुदान सूची (वर्ल्ड गिविंग इंडेक्स) में भारत 124वें स्थान पर है। औसतन भाग लेने वाले केवल 22 प्रतिशत भारतीयों ने कहा कि उन्होंने इस साक्षात्कार1 के पहले पिछले एक महीने में किसी को दान दिया, किसी अजनबी की मदद की, किसी अच्छे काम में स्वेच्छा से समय दिया या तीनों ही काम किया है। तुलना करने पर यह बात सामने आई है कि हमारे दक्षिण एशियाई पड़ोसी इस काम में हमसे बहुत आगे हैं। अनुदान की इस वैश्विक सूची में पाकिस्तान 91, बांग्लादेश 74, नेपाल 52, और श्रीलंका 27वें स्थान पर है।

हालाँकि एक तरह की आशा है कि व्यक्तिगत दान के क्षेत्र में वृद्धि आएगी। ऐसा इसलिए माना जा रहा है क्योंकि रणनीतिक हस्तक्षेप के माध्यम से इस व्यापक होते बाज़ार का पूरा लाभ उठाने की स्थिति बनती दिखाई पड़ रही है। हाल ही में परोपकार के क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर काम करने वाले लोगों के नेटवर्क फ़िलैन्थ्रॉपी फ़ॉर सोशल जस्टिस एंड पीस (पीएसजेपी) ने भारत में व्यक्तिगत दान पर एक अध्ययन करवाया था। उस रिपोर्ट की कुछ मुख्य बातें इस प्रकार हैं।

भारत में निजी दान की स्थिति

भारत में अनौपचारिक दान सांस्कृतिक और धार्मिक परम्पराओं का एक मुख्य हिस्सा है। दान को हिंदू और इस्लाम दोनों ही धर्मों में अनिवार्य माना गया है। दानउत्सव के वालंटियर वेंकट कृष्णन का कहना है कि “यह सामाजिक क्षेत्र को दिया जाने वाला औपचारिक दान नहीं है जिसपर हम अपनी नज़र रखते हैं। धार्मिक/आध्यात्मिक और सामुदायिक संगठनों द्वारा दिए जाने वाले अनौपचारिक दान की मात्रा अगर औपचारिक दान से ज़्यादा न हो तो उसके बराबर है। इसके अलावा सीधे तौर पर किए जाने वाले दान भी होते हैं जिसमें ज़रूरतमंद की पैसे या अन्य रूप से मदद करना शामिल होता है। उदाहरण के लिए घरेलू सहायक या ड्राइवर के बच्चों की पढ़ाई का खर्च उठाना।”

सत्त्व के एवरीडे गिविंग इन इंडिया रिपोर्ट का अनुमान है कि भारत में निजी स्तर पर दिए जाने वाले दान की राशि पाँच बिलियन डॉलर है जिसका 90 प्रतिशत हिस्सा अनौपचारिक दान से आता है। बाक़ी का बचा हुआ 10 प्रतिशत अनौपचारिक दान स्वयंसेवी संस्थाओं के हिस्से में जाता है जिसे ‘खुदरा परोपकार’ (रिटेल फ़िलैन्थ्रॉपी) भी कहा जाता है। रिपोर्ट के अनुसार सालाना इसके ऑनलाइन माध्यम में 30 प्रतिशत और ऑफ़लाइन माध्यम में 25 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है।

हाल के दिनों में क्राउडफ़ंडिंग, वेतन भुगतान और मैरथॉन के माध्यम से फंडरेजिंग जैसे तरीक़े काफ़ी लोकप्रिय हुए हैं। इसके अलावा भारत में व्यक्तिगत स्तर पर दान को बढ़ावा देने वाला दानउत्सव भी है जिसकी शुरुआत 2009 में ‘जॉय ऑफ़ गिविंग वीक’ से हुई थी। यह दान का सप्ताह भर चलने वाला उत्सव है। इस उत्सव के पहले साल में दस लाख लोगों ने हिस्सा लिया था जिनकी संख्या अब बढ़कर साठ या सत्तर लाख हो गई है। और हम जानते हैं कि इन दानकर्ताओं में ज़्यादातर लोग निम्न आय वर्ग से आते हैं जिनमें ऑटो चलाने और शहरी इलाक़ों की स्वयं सहायता समूह की औरतें शामिल हैं।

जब तक तकनीक सभी के लिए एक आसानी से हासिल करने वाली चीज़ नहीं बन जाएगी तब तक ऑनलाइन दान का महत्व व्यक्तिगत रूप से दिए जाने वाले दान के बराबर नहीं हो पाएगा। | चित्र साभार: रॉपिक्सेल

अंतरराष्ट्रीय स्वयंसेवी संस्थाओं से प्रतिस्पर्धा

चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राई) भारत में बड़े पैमाने पर खुदरा धन जुटाने वाली पहली स्वयंसेवी संस्था थी। लेकिन इसकी सीईओ पूजा मरवाहा का कहना है कि अंतरराष्ट्रीय स्वयंसेवी संस्थाओं से प्रतिस्पर्धा के कारण क्राई की कमाई कम हो रही है। उनका कहना है कि इन संगठनों के पास पर्याप्त धन होता है जिससे वे अपना ब्रांड तैयार कर लेते हैं। इसलिए धन के वैकल्पिक स्त्रोत के अभाव में भारतीय स्वयंसेवी संस्थाएँ इस क्षेत्र में उतर भी नहीं पाती हैं। फंडरेजिंग के लिए आवश्यक धन की मात्रा को देखते हुए भारतीय स्वयंसेवी संस्थाओं में डर का माहौल है।

इसका फ़ायदा यह है कि स्थानीय संगठनों के पास अंतरराष्ट्रीय संगठनों द्वारा फंडरेजिंग के लिए विकसित ढाँचों का लाभ उठाने का विकल्प होता है। एडूकेट गर्ल्स की ऐलिसन बुख़ारी का कहना है कि “अब क्षमता में वृद्धि होगी क्योंकि अब दानकर्ताओं और इस क्षेत्र में काम करने वाले लोगों की संख्या बहुत अधिक है। ज़्यादातर शहरों में मैरथॉन का आयोजन होता है, अब घर-घर जाकर फंडरेजिंग का तरीक़ा स्थापित हो चुका है, कॉल सेंटर के माध्यम से धन उगाही अब प्रचलन में है…मुझे उम्मीद है कि हम जल्द ही उस स्तर पर पहुँच जाएँगे जब ‘लोकल बेहतर है’ का संदेश सुनने को मिलेगा और स्थानीय स्वयंसेवी संस्थाएँ अंतरराष्ट्रीय स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा विकसित और स्थापित तरीक़ों का प्रयोग शुरू कर देंगे।”

तकनीक के दौर में व्यक्तिगत दान

भारत में कुछ सबसे बड़े ऑनलाइन क्राउडफ़ंडिंग प्लैटफ़ॉर्म मिलाप, केटो और इम्पैक्टगुरु हैं। केटो के 70 प्रतिशत दानकर्ता भारतीय हैं और ये बड़े शहरों में रहते हैं और इनकी उम्र 25 से 45 के बीच है। फ़ंडिंग का ज़्यादातर हिस्सा परियोजनाओं और सेवा-उन्मुख संगठनों को जाता है न कि मानव अधिकारों से जुड़े मुद्दों या संगठनात्मक समर्थन को।

केटो के वरुण सेठ बताते हैं अगले पाँच सालों में भारत के चालीस लाख स्वयंसेवी संस्थाओं को मिलने वाली ऑनलाइन दान में बहुत अधिक वृद्धि होने की सम्भावना है। बड़े स्तरों पर दान देने वालों को यह आसान लगता है। उनका कहना है कि “यह फंडरेजिंग का सस्ता और कुशल तरीक़ा है। छोटे स्तर पर काम करने वाले संगठनों को इसमें समस्या हो रही है क्योंकि वे इंटरनेट की दुनिया में नए हैं।”

लेकिन पूजा मरवाहा आगाह करते हुए कहती हैं कि क्राउडफ़ंडिंग और ऑनलाइन दान से संबंधित आँकड़े वास्तविक हैं पर इनका आकार इतना छोटा है कि ऑनलाइन दान के पाँच गुना बढ़ जाने के बावजूद भी प्राप्त धनराशि अपेक्षाकृत बहुत कम होगी।

वेंकट कृष्णन ने अपनी बात रखते हुए कहा कि “आने वाले कुछ सालों में क्राउडफ़ंडिंग, चेकआउट चैरिटी और ई-पेय प्लैटफ़ॉर्म में बहुत अधिक वृद्धि होगी और वेतन देने/काम पर रखने जैसे दान के पारम्परिक तरीक़े भी खुद को ऑनलाइन की तरफ़ मोड़ेंगे। गाईडस्टार इंडिया की पुष्पा अमन सिंह का कहना है कि हम अब तक कुल क्षमता के एक चौथाई हिस्से तक भी नहीं पहुँच पाएँ हैं।”

भारत में व्यक्तिगत दान को बढ़ाने के लिए तकनीकी ज्ञान है लेकिन भारतीयों को ऑनलाइन लेनदेन पर भरोसा नहीं है।

पुष्पा सुंदर का मानना है कि जब तक तकनीक एक सार्वभौमिक चीज़ नहीं हो जाती तब तक व्यक्तिगत तौर पर दिए जाने वाले दान की तुलना में ऑनलाइन दान का महत्व कम ही रहेगा। स्मॉल चेंज की सारा अधिकारी कहती है कि क्राउडफ़ंडिंग का ध्यान सामाजिक क्षेत्रों पर नहीं है, स्वयंसेवी संस्थाएँ अपने प्रचार-प्रसार के काम में अच्छी नहीं हैं और कुछ संस्थाओं को यह महत्वहीन लगता है। वे सोचते हैं कि क्राउडफ़ंडिंग से मिलने वाली छोटी राशि के लिए इतनी मेहनत नहीं की जानी चाहिए और उन्हें इसके बजाय सीएसआर के माध्यम से फंडरेजिंग में निवेश करना बेहतर विकल्प लगता है।

दूसरी तरफ़ सेंटर फ़ॉर सोशल इम्पैक्ट एंड फ़िलैन्थ्रॉपी की इंग्रिद श्रीनाथ कहती हैं कि भारत में व्यक्तिगत दान को बढ़ाने के लिए तकनीकी ज्ञान है लेकिन भारतीयों को ऑनलाइन लेन-देन पर भरोसा नहीं है। हालाँकि भारत में मध्यवर्ग दूसरी चीजों के लिए ऑनलाइन लेन-देन करना शुरू कर चुका है लेकिन उनके बीच दान के लिए उपलब्ध ऑनलाइन प्लैटफ़ॉर्म को लेकर अब भी जानकारी की कमी है। वेंकट कृष्णन कहते हैं कि इसे अभी पूरी तरह से अनियंत्रित क्राउडफ़ंडिंग स्पेस के बेहतर नियंत्रण, बेहतर तकनीकी इंटरफ़ेस और ऐसे ही कुछ प्रयासों से ठीक किया जा सकता है।

व्यक्तिगत दान के बाज़ार को बेहतर बनाना

रिपोर्ट में भारत में व्यक्तिगत दान के स्तर को और बेहतर करने के लिए कई तरीक़ों के बारे में बताया गया है।

स्वयंसेवी संस्थाओं में विश्वास पैदा करना

स्वयंसेवी संस्थाओं में विश्वास की कमी कई भारतीयों के लिए एक समस्या रही है। गाइडस्टार इंडिया, सीएएफ इंडिया, दसरा, गिवइंडिया, केयरिंग फ्रेंड्स जैसी कई संस्थाएँ है जो स्वयंसेवी संस्थाओं को प्रमाणित/सत्यापित करने और उन्हें मान्यता देने का काम करती हैं। ये संस्थाएँ दानकर्ताओं और स्वयंसेवी संस्थाओं को उचित सेवाएँ देती हैं और उन्हें मिलवाने का काम करती हैं। इससे व्यक्तिगत स्तर पर दान देने वाले लोगों के व्यवहार में बदलाव आने में मदद मिल सकती है।

इसके अतिरिक्त स्वयंसेवी संस्थाओं से संबंधित अधिक से अधिक जानकारियाँ उपलब्ध करवाने की आवश्यकता है। स्वयंसेवी संस्थाएँ अपने वित्तीय मामलों को सार्वजनिक बना सकती हैं। इससे भुगतान में कमी या ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियों में उस संगठन विशेष की भूमिका जैसे भ्रम दूर किए जा सकते हैं। राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में नागरिक समाज के योगदान को केंद्र में रखकर बनाए गए संदेश भी लोगों के बीच विश्वास पैदा कर सकते हैं।  

सारा अधिकारी के अनुसार दान में छोटी राशि माँग कर भी अविश्वास को दूर किया जा सकता है।

जनता से बेहतर संवाद

अधिकारी यह भी कहती हैं कि भारत में व्यक्तिगत स्तर पर दान देने वाले लोगों के बीच संवाद की कमी है। और साथ ही लोगों में सामाजिक क्षेत्र का हिस्सा बनने के लिए प्रेरणा की भी कमी है। वह अपनी बात बढ़ाते हुए कहती हैं कि जहां स्वयंसेवी संस्थाएँ इस काम को बेहतर कर सकती हैं वही सामाजिक क्षेत्रों के बारे में बताने वाली कहानियों के माध्यम से पारम्परिक और ऑनलाइन मीडिया भी इस काम में अपना योगदान दे सकती हैं। इंग्रिद श्रीनाथ भी ऑनलाइन दान को बेहतर बताने वाले स्त्रोतों की कमी को एक समस्या मानती हैं।

स्वयंसेवी संस्थाओं का क्षमता निर्माण

इंग्रिद श्रीनाथ के अनुसार व्यक्तिगत स्तर पर मिलने वाले दान की सम्भावना को वास्तविकता में बदलने के लिए हमें स्वयंसेवी संस्थाओं के क्षमता निर्माण में बहुत अधिक निवेश की ज़रूरत है। बड़े संगठनों के पास क्षमता निर्माण के लिए धन उगाहने के बेहतर अवसर उपलब्ध होते हैं। लेकिन भारत में स्वयंसेवी संस्थाओं में काम करने वाले कर्मचारियों की औसत संख्या पाँच से भी कम होती है और इनमें शायद ही कोई फंडरेजिंग का विशेषज्ञ होता है। उन्हें फंडरेजिंग के सभी पहलुओं विशेष रूप से ऑनलाइन फंडरेजिंग में प्रशिक्षित होने की ज़रूरत है।

व्यक्तिगत दान संबंधी आँकड़े विकसित करना

इंग्रिद श्रीनाथ मानती हैं कि “किसी भी तरह के विश्वसनिय आँकड़े ख़ासकर व्यक्तिगत दान से जुड़े विश्वसनीय आँकड़ों की गम्भीर कमी से भारत को बहुत नुक़सान पहुँचा है।” “इसलिए हम अपनी सामूहिक प्रवृति और कुछ मीडिया खबरों का सहारा लेते हैं।” व्यक्तिगत दान के लिए पारिस्थितिकी निर्माण में नियमित और विश्वसनीय आँकड़े मददगार साबित हो सकते हैं।

व्यक्तिगत दान

विकास क्षेत्र छोटे स्तर पर मिलने वाले व्यक्तिगत दान की तुलना में धनवान लोगों या फ़ाउंडेशनों द्वारा मिलने वाले दान को अधिक प्राथमिकता देता है। उनका ऐसा विश्वास है कि धनवान लोगों या फ़ाउंडेशनों द्वारा मिलने वाले दान अधिक रणनीतिक होते हैं और ये इन्नोवेशन को संचालित करते हैं। हालाँकि परोपकार के इस रूप पर इनकी अति-निर्भरता से जुड़े नुक़सान अब सामने आने लगे हैं।

क्या पैसे के मालिकों को नीतियों को भी प्रभावित करना चाहिए? क्या यह लोकतांत्रिक है?

अति-धनवान या कॉर्पोरेट परोपकार से धन शायद ही कभी ऐसे आंदोलनों में जाता है जो धन के ग़ैर-अनुपातिक संचय को चुनौती देते हैं। इसके अलावा, दानकर्ता अक्सर उन स्वयंसेवी संस्थाओं के काम को प्रभावित करते हैं जिन्हें वे दान देते हैं। क्या पैसे के मालिकों को नीतियों को भी प्रभावित करना चाहिए? क्या यह लोकतांत्रिक है? मानव अधिकार या सामाजिक न्याय संगठनों के मामले में यह विशेष रूप से विवादास्पद हो जाता है।

वहीं दूसरी तरफ़, छोटे दान के रूप में सामान्य व्यक्तियों से मिलने वाला समर्थन अधिकार-आधारित कामों की वैधता को मजबूत कर सकता है। पुष्पा सुंदर का कहना है कि आपके कारणों में विश्वास करने वाले सामान्य लोगों द्वारा किया जाने वाला दान आगे के मार्ग को मज़बूत करता है। “स्वयंसेवी संस्थाओं को अपने लोगों से इसके लिए अपील करने के लिए तैयार होने की ज़रूरत है। सरकार के लिए गुमनाम रूप से दी गई छोटी धनराशि छोटे दान का विरोध कठिन होता है।”

वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में यह स्थिति सटीक है। अधिकारों और न्याय पर काम करने वाले संगठनों को सरकार शक की नज़र से देखती है। जिसके कारण एचएनआई, अन्य संस्थाएँ और कम्पनियाँ ख़ुद का नाम इन संगठनों और अभियानों से जोड़ने से बचती हैं। इस अंतर को भरने के लिए व्यक्तिगत दान के विकास और क्षमता का उपयोग किया जाना चाहिए।

फ़ुटनोट:

  1. इसके लिए कुल 3000 लोगों का साक्षात्कार किया गया था।

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लेखक के बारे में
साहिल केजरीवाल
साहिल केजरीवाल इंटरनेशनल इन्नोवेशन कॉर्प्स फ़ेलो हैं जो वर्तमान में यूएसएआईडी/भारत के नॉलेज पार्टनर, लर्निंग4इम्पैक्ट में सलाहकार के रूप में काम कर रहे हैं। इससे पहले वह सेंटर फ़ॉर इफ़ेक्टिव गवर्नन्स ऑफ़ इंडियन स्टेट्स (सीईजीआईएस) से जुड़े हुए थे। साहिल ने आईडीआर के साथ भी काम किया है। इन्होंने यंग इंडिया फ़ेलोशिप पूरा किया है और अशोक यूनिवर्सिटी से लिबरल स्टडीज़ में पोस्टग्रैजुएट डिप्लोमा की पढ़ाई की है। साहिल ने दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज से अर्थशास्त्र में बीए किया है।