सामाजिक विकास संस्थाओं की सफलता के आकलन के लिए लोग उनके विकास को ही मुख्य तौर पर पैमाना मानते हैं। आगे बढ़ने की चाहत ही हमें अपने लक्ष्यों पर ध्यान लगाए रखने के लिए प्रेरित करती है—फिर चाहे वह संगठन का आकार बढ़ाने की बात हो, काम से मिल रहे नतीजों की हो, या फिर उसके प्रभाव या क्षेत्र की ही क्यों ना हो, और ऐसा करते हुए हम उस ‘मूल भावना’ के खो जाने का जोख़िम भी ले लेते हैं, जो संगठन के निर्माण का आधार थी।
वक़्त के साथ एक संगठन के तौर पर गूंज का आकार अब बड़ा हो गया है। 1999 में हमने 67 कपड़ों के साथ काम की शुरुआत की थी और आज हम 30 राज्यों व् केन्द्रशासित प्रदेशों में सालाना 9,400 टन से अधिक सामग्रियों को ‘चैनलाइज़’ करने का काम अपनी प्रमुख पहल ‘क्लॉथ फॉर वर्क’ के माध्यम से करते हैं। यह पहल लोगों के आत्मसम्मान को बनाये रखने के साथ विकास के लिए प्रेरित करती है, जिसमें गाँव के लोग अपनी समस्याओं को खुद से दूर करने के लिए सामूहिक रूप से श्रमदान करते हैं, जैसे तालाब की सफाई करना, बांस के पुल बनाना आदि। इसके बदले में गाँव वालों को शहरों से एकत्रित की गयी सामग्रियों से बनी किट को सम्मान के तौर पर दिया जाता है। इस काम को 1,000 से अधिक नियमित सदस्यों और तमाम वालंटियर्स के साथ किया जा रहा है। मेरा मानना है कि यह सब करते हुए हम ने अपने संगठन की उस मूल भावना को बनाए रखा है जिसके साथ इसे शुरू किया था।
ऐसा करने की अपनी कोशिशों के दौरान, हमने 23 सालों में जो कुछ सीखा उसे हम यहां साझा कर रहे हैं।
आपने यह कैसे तय किया कि काम के पहले साल से लेकर अब तक, आपके संगठन में ‘वैल्यू सिस्टम’ और नियम एक तरह से बने रहें?
हर सामाजिक संस्था में अपने तय ‘मूल्यों’ को बरकरार रखने का तरीक़ा अलग-अलग होता है। जब आप यह तय करते हैं कि पैसा कहां खर्च करना है, संसाधनों का उपयोग कैसे करना है और आगे बढ़ने के आपके पैमाने क्या हैं, इन सबसे मदद मिलती है… हमने पाया कि दो बातों पर ख़ासतौर पर ध्यान देने की ज़रूरत होती है।
जब संगठन के मूल्यों, नैतिकता और उसकी सोच को आगे बढ़ाने की बात आती है तब अक्सर लोग इस काम के लिए ‘फाउंडर्स’ की ओर देखते हैं। ‘फाउंडर’ वह इंसान है जो अनगिनत मूल्यों के साथ संगठन की शुरूआत करता है पर वास्तव में शुरूआती टीम ही उस विचार को संगठन की संस्कृति का रूप देती है। यही वे लोग हैं जो कि संगठन के काम करने की क्षमता का विकास करते हैं—फिर चाहे वह जोखिम लेने की क्षमता हो या फिर यह तय करना की ध्यान कहाँ ज्यादा देना है और साथ ही ‘वैल्यू सिस्टम’ को बनाए रखना भी इन्हीं पर निर्भर करता है।
जैसे-जैसे किसी संगठन का आकार बढ़ता है, ‘फाउंडर’ अक्सर नए नियुक्तियों से दूर होते चले जाते हैं। इसलिए, यदि शुरूआती टीम को संस्था के ‘लक्ष्यों’ और ‘दूरदर्शिता’ से परिचित कराया जाए और उन पर भरोसा जताया जाए तो टीम के सदस्य आगे चलकर जुड़ने वाले नए लोगों को संगठन के ‘वैल्यू सिस्टम’ से परिचय करवाने का काम करेंगे, उनके बाद के लोग अपने बाद आने वालों तक इसे पहुंचाएंगे और यह क्रम चलता रहेगा।
यह भी ध्यान रखना ज़रूरी है कि ‘शुरूआती टीम’ केवल उन लोगों तक सीमित नहीं है जो संगठन की स्थापना के समय बोर्ड में शामिल हुए थे। हर बार जब आप विस्तार करते हैं—फिर चाहे वह विस्तार विभागीय स्तर पर हो, भौगोलिक स्तर पर हो या सेक्टर में—आपके सामने एक नई टीम होती है जिसमें समय, ऊर्जा और संसाधनों के निवेश की ज़रूरत होती है।
एक सामाजिक विकास संस्था के तौर पर हमें हमेशा इस बात का सामना करते रहना पड़ता है कि हमारे पास उस काम के लिए पर्याप्त फ़ंडिंग नहीं है जो हम करना चाहते हैं। इसलिए हम अपने कार्यक्रम में कुछ ऐसे बदलाव करते चले जाते हैं जो कि फंडर के अनुकूल हो, ऐसा करना कभी संगठन के पक्ष में हो सकता है और कई बार उससे हटकर भी, ऐसे में अपने मूल उद्देश्यों को ध्यान में रखना और उसके आधार पर अपने फ़ैसलों को आंकना बहुत जरुरी होता है।
उदाहरण के लिए, 2004 में जब हिंद महासागर में सुनामी आई थी तब गूंज को काम करते हुए सात साल भी नहीं हुए थे। हमारी टीम में 15 से कम सदस्य थे और सालाना टर्नओवर कुछ लाख रुपये ही था। उस समय हमारे सामने ऐसे प्रस्ताव भी आए जिनमें यह कहा गया कि अगर हम सुनामी प्रभावित इलाक़ों में घर बनाते हैं तो हमें लाखों रुपये और संसाधन मुहैया कराये जाएंगे। इन पैसों से हमें बहुत अधिक मदद मिल सकती थी; हम अपने लिए एक बड़ा दफ़्तर बना सकते थे, ज़्यादा लोगों को काम पर नियुक्त किया जा सकता था और अपने कामकाज को भी बढ़ाया जा सकता था। साथ ही, हम घर बनाकर ‘पुनर्वास’ की एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया का हिस्सा बन सकते थे। इसके बावजूद हमें ना कहना पड़ा क्योंकि हमारा संगठन घर बनाने के लिए नहीं बनाया गया था। मुझे लगता है कि हमें यह खुद को याद दिलाते रहना चाहिए कि हम जब भी कुछ करना चुनते हैं तो वह कुछ और करने की क़ीमत पर पर होता है।
मैं यकीनन यह कह सकता हूं कि अगर उस समय हमने वह फंड लिया होता तो आज हम शायद अलग होते और वह सब नहीं सीख पाते जो हमने सीखा। हम समुदाय की मदद से होने वाले विकास और सीमित संसाधनों में काम करने के महत्व को नहीं समझ पाते।
किसी सामाजिक विकास संस्था को चलाने के लिए जहां फंडिंग बहुत ज़रूरी है वहीं हमें यह याद रखना भी ज़रूरी है कि फंड के अलावा और भी संसाधन मौजूद हैं जैसे कौशल, समुदाय आदि जो कि किसी भी तरह से किसी बड़ी मुद्रा से कम नहीं हैं, और आपके सामने ऐसी परिस्थितियां आती रहती हैं जब ये संसाधन, आपकी नैतिकता और मूल्यों के साथ आपको खुद के प्रति सच्चे रहने में मदद करती हैं।
एक ‘डेवलपमेंट प्रैक्टिशनर’ के रूप में हम उन समुदायों की गरिमा का तो ख़्याल रखते हैं जिनके लिए हम काम कर रहे होते हैं लेकिन अपनी टीम की गरिमा पर उतना ध्यान नहीं देते हैं। हमें खुद को लगातार यह याद दिलाते रहने की ज़रूरत है कि ‘सिस्टम’ और ‘प्रोसेस’ ज़रूरी तो है ही साथ ही यह भी कि इसे लोगों का ध्यान रखने के लिए ही बनाया गया था।
अगर हम इस नज़रिए से देखें तो हमारे लिए यह समझना आसान होगा कि हमारी प्राथमिकता हमारे संगठन के लोग भी हैं और हमारी अंदरूनी नीतियां और व्यवस्थाएं उनके अनुकूल होनी चाहिए। हम यहां कुछ तरीक़ों के बारे में बता रहे हैं जो आपको अपनी टीम के लिए सही निर्णय लेने में मदद कर सकते हैं।
किसी भी संगठन या सामाजिक विकास संस्था के लिए यह जरूरी है कि वह अपने बाहरी हितधारकों, मदद की सामग्री या पैसे देने वाली इकाइयों, अपने बोर्ड और अपने साथ काम करने वाले समुदायों के प्रति पारदर्शिता बरतें। लेकिन सबसे ज़रूरी यह है कि आप अपने संगठन के लोगों के प्रति भी पारदर्शी रहें। इसके लिए हमने कुछ तरीक़े अपनाए जो कारगर साबित हुए:
पिछले कुछ वर्षों में, गूंज में, हमने अपनी वास्तविक क्षमता को जानने के लिए विचारों को अधिक प्राथमिकता दी है। टीम के सदस्यों के पास एक ही तरह के काम या प्रोजेक्ट से बंधे रहने के बजाय अलग-अलग कार्यों और क्षेत्रों को समझने का अवसर होता है। इससे वे खुद के बारे में और अच्छी समझ बना पाते हैं और साथ ही उन्हें अपनी असल विशेषज्ञता विकसित करने में भी मदद मिलती है।
यहाँ कुछ अन्य तरीके दिए गए है जो लोगो को उनकी क्षमता का एहसास कराने में मदद कर सकते है:
अगर आप चाहते हैं कि आपकी टीम खुद को निजी स्तर पर संगठन से जोड़े तो एक संगठन के तौर पर आपको भी उनसे जुड़ना होगा। इसका मतलब है कि टीम के सदस्यों के बुरे वक़्त में आपको उनका साथ देना होगा। यदि टीम का कोई सदस्य या उसके परिजन किसी भी तरह की आर्थिक तंगी या चिकित्सीय समस्या से जूझ रहे हैं या किसी दूसरी तरह कि परेशानियों से घिरे हैं तो ऐसे वक़्त में उनकी मदद करने और साथ देने के लिए संगठन से किसी सदस्य को उनके साथ होना चाहिए।
इसी तरह टीम के सदस्यों की ख़ुशी के अवसर पर भी हम उनके साथ होते हैं। उदाहरण के लिए उनके बच्चों की पढ़ाई पूरी होने के अवसर पर, कॉलेज या स्कूल में नामांकन होने या शादी के समय हम उनके साथ होते हैं। हम यह यकीन दिलाने कि कोशिश करते हैं कि हम संगठन में अपनी टीम के सदस्यों के व्यक्तिगत जीवन के अच्छे और बुरे दोनों ही समय के लिए जगह बना सकें। एक संस्था के तौर पर गूंज का काम इस सिद्धांत पर आधारित है कि अगर आप लोगों को अहमियत देते हैं। और उनका सम्मान करते हैं तो इसका बड़ा असर देखने को मिल सकता है। यह असर न केवल संगठन के लिए उनके सहयोग में दिखाई देता है बल्कि उनके जीवन और जीवन की चुनौतियों का सामना करने के तरीक़े में भी नज़र आता है।
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