एनजीओ की प्रशासनिक और प्रबंधन से जुड़ी फंडिंग में लगातार आ रही कमी, उनके विकास और अधिक से अधिक समुदायों की सेवा करने की क्षमता पर एक रुकावट की तरह है। जैसा कि दसरा में साधन निर्माण के भूतपूर्व निदेशक अनंत भगवती ने कहा, ‘प्रबंधन लागत के क्षेत्र में एनजीओ के लिए फंडिंग का अभाव है।’
एनजीओ क्षेत्र से जुड़े अनेक प्रमुख लोगों से विचार-विमर्श करने के बाद हमने जाना कि अनेक निवेशक इस बात से डरते हैं कि उनके द्वारा किए गए निवेश को अगर उसी कार्यक्रम तक सीमित नहीं रखा गया जिसके लिए उन्होंने निवेश किया है तो उसका परिणाम अच्छा नहीं आ पाएगा। लेकिन अनेक एनजीओ के उदाहरणों से यह बात ग़लत साबित हो जाती है। उनके अनुभवों से यह पता चला है कि कुछ ऐसे ज़रूरी खर्चे जो कार्यक्रम की लागत का हिस्सा नहीं होते, जैसे कि रणनीति, नेतृत्व विकास और वित्तीय प्रबंधन, इनके लिए पर्याप्त धनराशि वास्तव में समाज में उनके योगदान में अत्यधिक लाभकारी हैं, और इससे ऐसी संस्थाओं का निर्माण होता है जो विपरीत परिस्थितियों में भी समुदाय और समाज की सेवा करने में सक्षम होते हैं।
क्वालिटी एजुकेशन सपोर्ट ट्रस्ट (क्वेस्ट)—बच्चों की प्रारम्भिक शिक्षा पर केंद्रित एनजीओ ऐसा ही एक उदाहरण है। यह संस्था 13 वर्षों में, एक छोटी ग्रासरूट संस्था से महाराष्ट्र के 24 जिलों में 2,60,000 से अधिक सुविधाहीन बच्चों को शिक्षा संपन्न बनाने वाले सफल स्टार्ट-अप के रूप में विकसित हुई है। क्वेस्ट के संस्थागत साधन निर्माण में अगर निवेशकों ने निवेश नहीं किया होता तो क्वेस्ट के लिए इस स्तर पर सफलता प्राप्त करना संभव नहीं हो पाता।
एक एनजीओ के लीडर के अनुसार कार्यक्रम के अलावा निवेश नहीं मिल पाने के कारण, यह कोई आश्चर्य नहीं है कि स्वयंसेवी संस्थाएँ वांछित से कम स्तर (‘सब-स्केल’) पर काम करने के लिए मजबूर हैं। धन की कमी तीन गैर-कार्यक्रम श्रेणियों पर प्रभाव डालती हैं:
कई भारतीय निवेशक जिसे ‘साक्ष्य की गंभीर कमी’ कहते हैं, वह फंडिंग प्रथाओं में बदलाव के पैरोकारों के लिए भी बड़ी बाधा रही है। इस कमी को दूर करने के लिए, द ब्रिजस्पैन ग्रुप ने इस सेक्टर का प्रतिनिधित्व करती 388 स्वयंसेवी संस्थाओं का सर्वेक्षण किया और 40 अग्रणी और अपेक्षाकृत अच्छी तरह से वित्त पोषित स्वयंसेवी संस्थाओं का वित्तीय विश्लेषण किया। हमारा सर्वेक्षण और वित्तीय विश्लेषण एक नए पे व्हाट इट टेक्स (पीडबल्यूआईटी ) इंडिया इनिशिएटिव का हिस्सा है, जिसकी पहल ब्रिजस्पैन और पाँच मुख्य सहभागी: ए.टी.ई. चंद्रा फाउंडेशन, चिल्ड्रेन्स इनवेस्टमेंट फंड फाउंडेशन, एडेलगिव फाउंडेशन, फोर्ड फाउंडेशन और ओमिडयार नेटवर्क इंडिया द्वारा की गई है। सभी सहभागी भारत में और अधिक मज़बूत, और विपरीत परिस्थितियों से उभरने में समर्थ एनजीओ के निर्माण के लिए प्रथाओं और अन्य हितधारकों की मानसिकता को बदलने के लिए साथ कार्य करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। हमारे शोध से भगवती द्वारा बताए गए व्यवस्थित तरीके के अभाव का एक स्पष्ट स्वरूप उभरकर आया।
शोध में सामने आने वाले कुछ मुख्य बिन्दु निम्नलिखित हैं:
जहाँ सामाजिक क्षेत्र प्रतिबंधात्मक सरकारी नियमों के तहत काम करना जारी रखे हुए है, फंडरों के साथ-साथ स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा अच्छी प्रथाओं को अपनाने से अधिक सामाजिक कल्याण करने के लिए आवश्यक विश्वास और पारदर्शिता को बेहतर बनाने में मदद मिल सकती है। सैक्टर के लीडरों के साथ हमारे शोध और साक्षात्कार ने हमें चार ऐसी बेहतर प्रथाओं को पहचानने में मदद की जो फंडर और स्वयंसेवी संस्थाओं को नए मार्ग बनाने की संभावना दिखाती हैं।
साझा उद्देश्यों के आधार पर दीर्घकालिक साझेदारी का भरोसा, अनुदान लेने वाले और फंडर के बीच बेहतर और पारस्परिक विश्वास का निर्माण करती है। परिणामस्वरूप, दोनों ही अनुदानों को लेन-देन की नज़र से देखना बंद कर देते हैं और बेहतर सामाजिक कल्याण प्रदान करने के लिए सभी ज़रूरी बातों पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं।
अप्रत्यक्ष-लागत के क्षेत्र में फंडिंग की कमी को ख़त्म करने के लिए फंडरों को अनुदान देने के बारे में सोचने के तरीके को बदलने की आवश्यकता होगी – जिसे स्वयंसेवी क्षेत्र अपनी आवश्यकताओं को स्पष्ट रूप से बताकर सरल बना सकता हैं। फंडरों के लिए, इसका मतलब – अपने कर्मचारियों को प्रशिक्षित करना और वास्तविक लागतों के विकल्प के रूप में कम, निश्चित अप्रत्यक्ष-लागत दरों पर निर्भर रहने के बजाय स्वयंसेवी लीडरों से उनके विशिष्ट मिशन, ऑपरेटिंग मॉडल और आवश्यकताओं के बारे में बातचीत में शामिल करना है।
स्वयंसेवी संस्थाएँ, संस्थागत विकास के लिए ऐसी अनुदान राशि का इस्तेमाल करती हैं जिनके ऊपर किसी तरह की सीमा नहीं लगाई गई होती है। लेकिन इस तरह की धनराशि कम ही रहती है। फंडर अनुदान लेने वाली संस्थाओं को बता सकते हैं कि वे इस बात को समझते हैं कि संस्थाओं को मजबूत बनाना कितना ज़रूरी होता है और वे इसके लिए आवश्यक वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए तैयार हैं। एनजीओ को अपनी संस्थागत विकास की छोटी और दीर्घकालिक ज़रूरतों और उन पर होने वाले खर्च का आकलन साझा करने से फायदा होगा।
जब संभव हो, तब निवेशकों को सीधे अनुदान लेने वाले की संचित कोष को मज़बूत करने में निवेश करना चाहिए। उन्हें स्वयंसेवी संस्थाओं को प्रोत्साहित करना चाहिए कि वे कामकाज के लिए मिले धन से कुछ धन बचाएँ जिन्हें आरक्षित निधि में परिवर्तित किया जा सकता है। स्वयंसेवी संस्थाओं को अपने निवेशकों और उनके बोर्डों को प्रमुख बातों, जैसे ऑपरेटिंग सरप्लस तथा आरक्षित निधि कितने महीनों की है जैसी बातों के बारे में सूचित करना चाहिए, ताकि वित्तीय लचीलापन बनाने के महत्व पर ज़ोर दिया जा सके।
फंडिंग में लगातार कमी उन सामाजिक उद्देश्यों को हानि पहुंचाती है जिसके लिए फ़ंडर और स्वयंसेवी संस्थाएँ प्रयास करती हैं। सच्ची लागत फंडिंग (ट्रू कॉस्ट फ़ंडिंग) की दिशा में बढ़ने के लिए गहरे पैठ चुके दृष्टिकोण और प्रथाओं को दूर करना होगा। और इसके लिए सब्र और मजबूत इरादे की ज़रूरत होगी। यह एक जटिल और व्यवस्था से जुड़ा मुद्दा है, और सभी हितधारकों को इसे हल करने के लिए एक साथ काम करने की आवश्यकता है। लेकिन इस बदलाव की पहल फंडरों को ही करनी होगी।
जिन लोगों ने पहले से ही बेहतर अनुदान प्रथाओं को अपनाया है, उन्होंने देखा है कि कैसे क्वेस्ट जैसी संस्थाएं अपने सामाजिक मिशन की दिशा में बेहतर नतीजे दे सकती हैं। इसके अलावा, हमारे शोध से यह समझ में आता है कि अब समय आ गया है कि फंडर सुनिश्चित करें कि समाज की जटिल समस्याओं से जूझती स्वयंसेवी संस्थाओं के पास मजबूत संस्थागत आधार और विपरीत परिस्थितियों से उबरने के लिए आवश्यक संसाधन हों। जस का तस जैसी स्थिति से किसी का भला नहीं होने वाला है।
प्रिथा वेंकटचलम और डोनाल्ड येह मुंबई में स्थित ब्रिजस्पैन के पार्टनर हैं, और शशांक रस्तोगी ब्रिजस्पैन के प्रिन्सिपल हैं।
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