भारत में यह धारणा आम है कि, “सरकारी शिक्षक पढ़ाने में रुचि नहीं लेते हैं।”
लेकिन समस्या यह नहीं है कि शिक्षक पढ़ाना नहीं चाहते हैं, बल्कि यह है कि शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए बनाई गई मौजूदा व्यवस्था ठीक नहीं है। यह न तो उनकी कक्षाओं के लिए प्रासंगिक है और न ही उनके सामने आने वाली चुनौतियों से निपटने में मददगार साबित होती है।
भारत के ज्यादातर राज्यों में शिक्षकों के प्रशिक्षण की सरकारी व्यवस्था मुख्य रूप से कैस्केड मॉडल पर आधारित है, जिसमें प्रशिक्षण कई स्तरों से होकर अगले व्यक्ति तक पहुंचता है। इस तरीके से अधिक से अधिक शिक्षकों तक व्यापक पहुंच तो बनाई जा सकती है, लेकिन इसमें कैस्केड लॉस होता है, यानी हर स्तर पर प्रशिक्षण की सामग्री और उद्देश्य की गुणवत्ता घटती जाती है। इस तरह के शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम साल में एक या दो बार होते हैं। ये आमतौर पर चार से पांच दिनों तक चलने वाले सघन कार्यक्रम होते हैं, जहां सीमित समय में अधिक से अधिक जानकारी देने की कोशिश की जाती है।
साथ ही, इन कार्यक्रमों में शिक्षकों की स्थानीय वास्तविकताओं का भी बहुत कम ध्यान रखा जाता है। इनमें अक्सर गहराई का अभाव होता है और ये एकरूपी ढर्रे पर आधारित होते हैं, जिसमें न तो आपसी संवाद की गुंजाइश होती है और न ही सामूहिक रूप से सीखने का अवसर मिलता है।।प्रशिक्षण के बाद शिक्षकों को किसी प्रकार का नियमित अकादमिक सहयोग या फीडबैक भी उपलब्ध नहीं हो पाता, जिससे उनका व्यावहारिक विकास अधूरा ही रह जाता है।
इसके अलावा, क्लस्टर स्तर की बैठकें जहां शिक्षक मिलकर अपने काम से जुड़ी चर्चाएं कर सकते हैं, या तो बहुत औपचारिक और जटिल एजेंडे से भरी होती हैं या फिर अनियमित होती हैं। शिक्षकों को शिक्षण पर खुलकर बातचीत करने, अपने अनुभवों पर विचार करने और किसी सबक या समाधान को साझा कर पाने के मौके बहुत कम मिलते हैं।
वर्तमान शिक्षक प्रशिक्षण मॉडल को देखें तो शिक्षकों के पेशेवर विकास के लिए एक नई व्यवस्था की जरूरत साफ दिखाई देती है। इससे यह भी पता चलता है कि यह व्यवस्था कोई एकदिवसीय आयोजन नहीं, बल्कि शिक्षकों के ही नेतृत्व में वाली एक निरंतर प्रक्रिया होनी चाहिए। पेशेवर शिक्षण समुदाय (प्रोफेशनल लर्निंग कम्युनिटीज यानी पीएलसी) इसका एक सार्थक विकल्प सामने रखते हैं। ये समुदाय समान अभिरुचि वाले शिक्षकों को नियमित अंतराल पर एक मंच पर लाकर न केवल अपनी शिक्षण पद्धतियों पर मंथन करने का अवसर देते हैं, बल्कि उन्हें अपनी शिक्षण यात्रा का उत्तरदायित्व भी सौंपते हैं। आमतौर पर आयोजित प्रशिक्षणों के विपरीत, पीएलसी कक्षा की वास्तविकताओं से जुड़ा निरंतर, सामूहिक और व्यवहारिक अधिगम (लर्निंग) सुनिश्चित करती हैं।
शिक्षक प्रशिक्षण का नया तरीका
चलिए, उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले में चलते हैं। आधी जनवरी बीत चुकी है, स्कूल हाल ही में दोबारा खुले हैं और 57 शिक्षकों का एक समूह छुट्टी के बाद एक जगह इकट्ठा हुआ है। बगैर किसी सरकारी आदेश या आधिकारिक निर्देश के, ये शिक्षक यहां अपनी इच्छा से इकट्ठा हुए हैं।
क्यों?
एक-दूसरे से सीखने के लिए, कक्षा में रोजाना आने वाली चुनौतियों को सुलझाने के लिए और साथ मिलकर आगे बढ़ने के लिए।
उत्तर प्रदेश के सात और जिलों में इस तरह की बैठकें आयोजित की जा रही हैं। इस प्रक्रिया को शिक्षकों, एकैडेमिक रिसोर्स पर्सन्स (एआरपी) और स्टेट रिसोर्स ग्रुप्स (एसआरजी) का एक समूह संचालित कर रहा है। ये सभी लोग पूर्व में लैंग्वेज एंड लर्निंग फाउंडेशन (एलएलएफ) से एक साल का फाउंडेशनल लिटरेसी (एफएल) कोर्स पूरा कर चुके हैं।
शिक्षकों के सतत व्यावसायिक विकास को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से एलएलएफ ने अपने पूर्व छात्रों को इस प्रक्रिया का हिस्सा बनाया है। पहले जहां हम बाहरी मार्गदर्शकों (मेंटर्स) को नियुक्त करते थे, वहीं अब हम एफएल कोर्स कर चुके शिक्षकों को नए बैच का मार्गदर्शन करने के लिए निवेदन करते हैं। इसके लिए उन्हें हर हफ्ते पांच से छह घंटे का समय देना होता है, अपने जिले से 10-15 शिक्षकों को एफएल कोर्स में भर्ती करवाना होता हैऔर साप्ताहिक चर्चाओं का आयोजन करना होता है। सबसे जरूरी बात यह कि वे यह सब स्वेच्छा से करते हैं और इसके लिए उन्हें न तो आर्थिक मानदेय मिलता है और न ही आधिकारिक मान्यता।
आठ जिलों के 26 शिक्षक इस पहल के लिए राजी हुए और उन्होंने 350 प्राथमिक शिक्षकों को इस कोर्स से जुड़ने के लिए प्रेरित किया।
यह सहयोगी नेटवर्क शिक्षकों के मौजूदा प्रशिक्षण कार्यक्रमों में देखी गई खामियों को ध्यान में रखते हुए विकसित किया गया। अमूमन ऐसे कार्यक्रमों की रूपरेखा बाहरी स्तर पर तैयार होती है, जिसमें ‘टॉप-डाउन एप्रोच’ (बुनियाद समझने के लिए शीर्ष स्तर से शुरुआत करना) का उपयोग किया जाता है। साथ ही ये कार्यक्रम एकरूपी पाठ्यक्रमों और जटिल ऑनलाइन मॉड्यूलों तक सीमित रहते हैं। ऐसे में जब शिक्षक लंबे अरसे से ढांचागत चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, यह सामूहिक सहकर्मी-आधारित सीखने की पद्धति (पीयर लर्निंग) स्थानीय परिस्थितियों में उनकी तत्काल जरूरतों को पूरा करने में मददगार साबित हुई है। इस स्वैच्छिक शिक्षक मॉडल की सफलता के कुछ कारण यहां दिए गए हैं:
1. शिक्षक एक-दूसरे से सीखने के मौकों को महत्व देते हैं
बाहरी मार्गदर्शकों पर निर्भर होने की बजाय मौजूदा सरकारी व्यवस्था के अंतर्गत ही मेंटर्स और मास्टर ट्रेनर्स को पहचानना और प्रशिक्षित करना, अधिक व्यावहारिक और स्थाई समाधान है। एफएल कोर्स के एल्युमनाई आमतौर पर अधिक उत्साहित और प्रतिबद्ध होते हैं और अपने काम के बाद भी अलग से समय से देने के लिए तैयार रहते हैं। उनके लिए सर्टिफिकेट, सार्वजनिक सराहना और शिक्षण चर्चाओं में नेतृत्व जैसे मौके मिलना बहुत प्रेरणादायी होता है।
इस नेटवर्क का हिस्सा रहे गोरखपुर के प्राथमिक शिक्षक संतोष राव कहते हैं, “मैं स्कूल के बाद इन बैठकों में हिस्सा लेता हूं। ये चर्चाएं मेरे लिए बहुत प्रेरणादायी रही हैं और मुझे इनसे नए-नए आइडिया और तकनीक के बारे में पता चला है। इसके अलावा मैं अपने सहयोगियों के साथ काफी जानकारियां भी साझा कर पाया हूं।”
इस पहले समूह में ऐसे शिक्षक मेंटर बने, जिनका स्थानीय स्तर पर अच्छा नेटवर्क था और जो बुनियादी साक्षरता (फाउंडेशनल लिटरेसी) में पारंगत थे।। हालांकि, इस पाठ्यक्रम में भाग लेने वाले शिक्षकों के सामने समय प्रबंधन को लेकर कुछ चिंतायें थी। इसे दूर करने के लिए, एल्युमनाई ने उनके साथ प्रशिक्षण और शिक्षण के बीच संतुलन बनाने के अपने अनुभव साझा किए। उन्हें बताया कि कैसे इस कोर्स से उन्होंने जटिल विषयों को अधिक इंटरैक्टिव और रुचिकर गतिविधियों को समझाना सीखा है और यह कक्षा में उनके लिए मददगार रहा है। एक मेंटर बताते हैं कि, “हमें एक-दूसरे के अनुभवों के बारे में जानने को मिला, जो कि सीखने के सबसे अच्छे तरीकों में से एक है।” एक और मेंटर कहते हैं कि, “अगर कोई एक शिक्षक किसी समस्या का समाधान ढूंढ लेता है, तो वह हम सबके काम आता है।”
2. शिक्षक एक दूसरे की चुनौतियों को अच्छी तरह समझ सकते हैं
एफएल कोर्स के एक साल के एल्युमनाई एक्सटेंशन मॉडल को गोरखपुर, जौनपुर, कौशाम्बी, मथुरा, मेरठ, वाराणसी, श्रावस्ती और बलरामपुर में चलाया जा रहा है। इनमें श्रावस्ती और बलरामपुर न केवल राज्य के बल्कि देश के आर्थिक रूप से सबसे कमजोर जिलों में आते हैं। ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में फैले इन जिलों के अधिकांश बच्चे उन समुदायों से आते हैं, जिनकी आजीविका का साधन खेती और दिहाड़ी मजदूरी है।
इन जिलों के स्कूलों को कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिनमें बुनियादी ढांचे और शिक्षण संसाधनों की कमी तथा भारी प्रशासनिक बोझ शामिल हैं। शिक्षकों की कमी के कारण कक्षाओं में छात्रों की संख्या में भी इजाफा हुआ है। एक ही शिक्षक को अलग-अलग उम्र और कक्षा स्तर के बच्चों को पढ़ाना पड़ता है, जिनमें कई बार अलग-अलग भाषाएं बोलने वाले बच्चे भी शामिल होते हैं। शिक्षकों ने यह भी बताया कि बच्चों में बुनियादी साक्षरता का स्तर बहुत कम है। खासकर उन बच्चों में, जिनके परिवार प्रवासी मजदूरी से जुड़े हैं। ऐसे छात्रों की अनुपस्थिति दर भी अधिक है। इसके अलावा, पाठ्यपुस्तकों के वितरण में देरी जैसी समस्याएं भी बच्चों के सीखने की निरंतरता को प्रभावित करती हैं, जिससे पढ़ाया गया बहुत कुछ याद रख पाना मुश्किल हो जाता है।
इन तमाम चुनौतियों के बीच, शिक्षक मानते हैं कि साल में एक बार आयोजित किए जाने वाला प्रशिक्षण किसी औपचारिक गतिविधि की तरह लगता है। इनमें किए जाने वाले सत्र व्यावहारिक रणनीतियों और शिक्षकों के पेशेवर विकास से जुड़े सुझावों की बजाय महज जानकारी प्रदान करने पर ज्यादा जोर देते हैं। इसी तरह से, सरकार का पोर्टल डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर फॉर नॉलेज शेयरिंग (दीक्षा) कई कोर्स तो उपलब्ध करवाता है, लेकिन इस पर जानकारी ढूंढने में शिक्षकों को कठिनाई होती है। कई बार उन्हेंयह तक याद करने में दिक्कत होती है कि उन्होंने क्या सीखा है। ऐसे में एल्युमनाई मॉडल ने उन्हें अधिक व्यावहारिक तरीका दिया है, जिसमें शिक्षकों के सामने आने वाली वास्तविक समस्याओं के लिए चर्चा और समाधान के सुझाव शामिल होते हैं।
3. शिक्षक समस्याओं को मिलकर हल करते हैं
इन प्रयासों में साथियों के साथ मिलकर, स्थानीय जरूरतों के मुताबिक सहयोग की उपयोगिता साफ तौर पर उभर कर आती है। पीयर लर्निंग से ऊपर बताई गई कई समस्याओं को हल करने में मदद मिली है क्योंकि एक ही जिले या ब्लॉक के शिक्षक एक समान अनुभव साझा करते हैं और ऐसे समाधान खोजते हैं जो उनके स्थानीय संदर्भों के मुताबिक होते हैं।

उदाहरण के लिए, अब शिक्षक मौखिक भाषा विकास पर अधिक जोर दे रहे हैं, ताकि बच्चों के पढ़ने-लिखने की नींव मजबूत हो सके। बच्चों को कक्षा में बोलने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। ऐसे में पढ़ाई ब्लैकबोर्ड पर लिखे पाठ को दोहराने और उसकी नकल करने से परे जा रही है। डिकोडिंग, या अक्षर और ध्वनियों के संबंध के जरिए लिखे शब्दों को बोल में बदलने, को अधिक व्यवस्थित तरीके से सिखाया जा रहा है। इसके लिए कई तरह की शिक्षण सामग्री का इस्तेमाल किया जा रहा है, जिससे बच्चे ध्वनियों को जोड़ना और शब्द पढ़ना सीख सकें। कक्षा में सीखना अब अधिक इंटरैक्टिव हो गया है, क्योंकि बच्चे समूह या जोड़ियां बनाकर साथ काम कर रहे हैं।
पीयर-ड्रिवेन प्रोग्राम को चलाए रखना
आमतौर पर शिक्षकों को काम के भारी बोझ और संसाधनों की कमी से जूझना पड़ता है। ऐसे में किसी पीयर-ड्रिवेन प्रोग्राम को चलाए रखने के लिए मान्यता, निरंतर समर्थन और सार्थक जुड़ाव बहुत जरूरी हो जाते हैं। उनके लिए नियमित मार्गदर्शन और नए इनपुट (जिसमें शिक्षण के ऐसे नए तरीके और रणनीतियां शामिल हों, जो छात्रों की भागीदारी बनाए रखने के साथ चर्चाओं को रोचक और प्रासंगिक बनाए रखें) सुनिश्चित किए जाने चाहिए। चर्चा के विषयों में खुलापन होने और शिक्षकों को कक्षा में आने वाली वास्तविक चुनौतियों को सामने लाने से, यह सुनिश्चित होता है कि शिक्षकों की भागीदारी उनके रोज के काम में उपयोगी होगी। पीयर ड्रिवेन पहल ने शिक्षकों की जरूरत के मुताबिक, कार्यक्रम में डिस्कशन शेड्यूल और असाइनमेंट की समय-सीमा को लेकर लचीलापन बनाए रखा है, जो उनपर दवाब कम करता है और यह सुनिश्चित करता है कि सीखना जारी रहे। एल्युमनाई मेंटर्स भी मिलकर बैठने के लिए जगह बनाए रखने पर काम करते हैं, जिसमें जिला अधिकारियों से संपर्क करना या अनौपचारिक स्थानों पर चर्चा करना शामिल है।
अकादमिक पहलू से इतर भी व्यक्तिगत विकास, प्रेरणा और बेहतरी के अवसरों का होना, एक बड़ा बदलाव लाता है। शिक्षक तब अधिक जुड़ाव महसूस करते हैं जब उन्हें उनकी पेशेगत पहचान से आगे बढ़कर एक व्यक्ति के रूप में भी समर्थन मिलता है। अपने साथियों से प्रोत्साहन मिलना, सफलता की कहानियां साझा करना और छोटी-छोटी सफलताओं की खुशी मनाना शिक्षकों में उपलब्धि की भावना पैदा करता है।
इसमें सबसे जरूरी बात संवाद का लगातार जारी रहना है। नियमित चेक-इन, संरचना में ढली चर्चाएं और समस्या समाधान के सत्र, सीखने की गति बनाए रखने में मददगार होते हैं। जब शिक्षक अपनी कक्षाओं में वास्तविक सुधार देखते हैं—चाहे वह कोई नई रणनीति लागू करना हो या उनके सहयोग से किसी बच्चे का बेहतर प्रदर्शन करना—तो उनका आत्मविश्वास और प्रक्रिया पर भरोसा बढ़ता है। इससे वे न केवल अपना प्रशिक्षण जारी रखने के लिए प्रेरित होते हैं, बल्कि दूसरों का मार्गदर्शन करने में भी रुचि लेते हैं।
संस्थागत सहयोग से पीयर लर्निंग को मजबूत बनाना
शिक्षकों को प्रोत्साहित करने का एक और प्रभावी तरीका यह है कि उन्हें सरकारी स्तर पर मान्यता दी जाए। यह मान्यता आर्थिक लाभ तक सीमित न होकर प्रमाण-पत्र, अधिकारियों द्वारा सार्वजनिक प्रशंसा या नेतृत्व की भूमिका निभाने जैसे अवसर की तरह भी दी जा सकती है।
पीएलसी, सहकर्मी समूह (पीयर ग्रुप) और सामूहिक अधिगम के ऐसे मंच शिक्षकों को निरंतर सहयोग देने के सशक्त माध्यम बन सकते हैं, जो उनकी रोजमर्रा की जरूरतों के अनुसार तैयार किए जायें। इसके अलावा, चूंकि मेंटर्स पहले से ही सरकारी ढांचे का हिस्सा हैं, इसलिए उनकी विशेषज्ञता का सही इस्तेमाल करते हुए ऐसी व्यवस्था बनायी जा सकती है, जो उनके योगदान को औपचारिक रूप से मान्यता दे और उनका समर्थन करे। इस तरह का मॉडल शिक्षकों के व्यावसायिक विकास और प्रशिक्षण के लिए व्यवहारिक और टिकाऊ उपाय बन सकता है।
ऐसा एक उदाहरण छत्तीसगढ़ से है जहां राज्य सरकार ने एलएलएफ द्वारा विकसित एक कोर्स के क्रियान्वयन के दौरान मेंटरिंग सपोर्ट के लिए एल्यूमनाई के एक समूह को 500 रुपए प्रतिमाह का संचार भत्ता दिया था। यह मॉडल न केवल बाहरी विशेषज्ञों पर निर्भरता कम करता है, बल्कि शिक्षकों की भागीदारी को बढ़ाता है और सरकारी तंत्र में इस अभ्यास को सहजता से जोड़ देता है।
अन्य कुछ राज्यों में भी पीयर लर्निंग के सफल उदाहरण देखे गए हैं। जैसे, कर्नाटक में सब्जेक्ट टीचर फोरम। लेकिन पीएलसी को व्यापक स्तर पर अपनाए जाने में भी अभी कई बाधाएं हैं, जैसे नीतिगत समावेश की कमी, शिक्षकों में जागरुकता न होना और स्कूलों में हेरार्की कल्चर।
इसके बावजूद निरंतर शिक्षक अधिगम (कंटीन्यूअस टीचर लर्निंग) के महत्व को कई नीतियों में पहचाना गया है, जिसमें निपुण भारत मिशन भी शामिल है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 भी सतत पेशेवर विकास और सहयोगी तरीकों पर जोर देती है, लेकिन साफ तौर पर पीएलसी को अनिवार्य नहीं बनाती है।
पीएलसी को मजबूत बनाने और उन्हें शिक्षकों के विकास का मुख्य हिस्सा बनाने के लिए निम्न रणनीतियां अपनाई जा सकती हैं:
- अभियानों और प्रशिक्षण के जरिए, शिक्षकों के नेतृत्व में चलने वाले वाले कार्यक्रमों की जागरुकता बढ़ाना।
- स्थानीय स्कूल के मुद्दों पर अकादमिक चर्चाओं के लिए मेंटर्स, जैसे स्टेट रिसोर्स ग्रुप (एसआरजी) के साथ पीएलसी गठन के लिए सरकारी दिशा-निर्देश देना ।
- सर्टिफिकेट, फोरम्स और करियर में तरक्की के जरिए मजबूत पीएलसी को प्रोत्साहन और मान्यता देना।
- छात्र उपस्थिति और प्रवासी बच्चों के लिए समर्थन जैसी विशिष्ट समस्याओं को हल कर, स्थानीय समस्या-समाधान को प्रोत्साहित करना।
- अपने सबसे कारगर तरीकों को सामने रखने और दूसरों के साथ अपनी सीख साझा करने के लिए पीएलसी को मंच देना।
जब शिक्षक ऐसे सहयोगी लर्निंग स्पेस में जुड़ते हैं तो वे न केवल अपने विचार साझा करते हैं या एक-दूसरे का समर्थन करते हैं, बल्कि तात्कालिक और जरूरी समस्याओं को हल करने के लिए भी मिलकर काम करते हैं। यह शिक्षकों के लिए एक ऐसा अवसर बन सकता है, जहां वे प्रेरित महसूस करें, समुदाय का हिस्सा बन सकें और अपने छात्रों की जरूरतों को समझने में बेहतर बन सकें। आखिर में, इन प्रयासों से आत्मविश्वास से भरे और सशक्त शिक्षक तैयार होते हैं। ऐसे शिक्षकों की कक्षा में पढ़ते हुए बच्चे बहुत सक्रिय होते हैं और रुचि भी लेते हैं।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
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