व्यापक यौनिकता शिक्षा किशोरावस्था के विकास का एक महत्वपूर्ण पहलू है जो दृष्टिकोण, व्यवहार, और समग्र विकास को प्रभावित करती है। समाज में बदलाव के साथ युवाओं के लिए यौनिकता शिक्षा का परिदृश्य भी बदल रहा है। परम्परागत रूप से यौनिकता के बारे में ज्ञान प्रदान करने की प्राथमिक विधि के रूप में औपचारिक स्कूली शिक्षा पर ध्यान केंद्रित किया गया है। हालांकि, डिजिटल युग के आगमन के साथ मनोरंजन और मीडिया युवाओं की धारणाओं और दृष्टिकोण को आकार देने में एक शक्तिशाली और प्रभावशाली साधन के रूप में उभरा है।
बदलाव को नकारा नहीं जा सकता है – युवा यौनिकता के बारे में अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए तेज़ी से ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म, टीवी शो, फ़िल्मों, और सोशल मीडिया की ओर क़दम बढ़ा रहे हैं। इस प्रतिमान बदलाव को पहचानते हुए व्यापक यौनिकता शिक्षा और संवेदनशीलता प्रदान करने के साधन के रूप में मनोरंजन और मीडिया का उपयोग करने की क्षमता का पता लगाना अनिवार्य हो जाता है।
मनोरंजन और मीडिया का आकर्षण जानकारी को ऐसे तरीक़े से प्रस्तुत करने की क्षमता में निहित है जो न केवल सुलभ हो बल्कि युवा दर्शकों के लिए प्रासंगिक भी हो। औपचारिक स्कूली शिक्षा के विपरीत, जो सामाजिक वर्जनाओं या संस्थागत सीमाओं से बाधित हो सकती है, मनोरंजन और मीडिया में यौनिकता को उसकी सभी जटिलताओं में संबोधित करने,और रिश्तों और अनुभवों की गहरी समझ को बढ़ावा देने की स्वतंत्रता है। मनोरंजन और मीडिया ऐसा साधन बन जाता है जहां कथाएं सामने आ सकती हैं, बातचीत शुरू हो सकती है, और जानकारी को इस तरह से प्रसारित किया जा सकता है ताकि उन दर्शकों का ध्यान आकर्षित हो सके जो सक्रिय रूप से ऐसी सामग्री की तलाश करते हैं जो उनके जीवन के अनुभवों को प्रतिबिंबित करती हो।
यह बदलाव चुनौतियों से रहित नहीं है। ज्ञान की तलाश में किशोरों को अनजाने में अविश्वसनीय स्रोतों से ग़लत सूचना का सामना करना पड़ सकता है, ख़ासकर इंटरनेट के विशाल विस्तार में। इससे उनकी मान्यताओं, उनके व्यवहारों और समग्र कल्याण पर ऐसी ग़लत सूचना के संभावित प्रभाव के बारे में चिंताएं पैदा होती हैं। नतीजतन, यौनिकता शिक्षा में शोधकर्ताओं को इन स्रोतों से उत्पन्न होने वाली ग़लत सूचना के नुकसान से निपटने के साथ-साथ मनोरंजन और मीडिया की क्षमता का दोहन करने की दोहरी चुनौती का सामना करना पड़ता है।
इस लेख में हम व्यापक यौनिकता शिक्षा के लिए मनोरंजन का उपयोग करने की जटिल गतिशीलता, इसके द्वारा प्रस्तुत अवसरों और समवर्ती चुनौतियों की जांच करेंगे, जो युवाओं के बीच यौनिकता शिक्षा की समग्र और सटीक समझ सुनिश्चित करने के लिए रणनीतिक हस्तक्षेप की मांग करते हैं।
युवा सक्रिय रूप से मनोरंजन-मीडिया की तलाश करते हैं क्योंकि यह आकर्षक तरीके से जानकारी प्रदान करता है। औपचारिक स्कूली शिक्षा के विपरीत मनोरंजन और मीडिया में वर्जित विषयों को संबोधित करने, कहानी के माध्यम से ध्यान खींचने, और जानकारी को इस तरह से प्रस्तुत करने की क्षमता है जो उसके दर्शकों के साथ जुड़ती है। स्कूलों में औपचारिक यौनिकता शिक्षा से जुड़ी सीमाओं और चुनौतियों को देखते हुए यह विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो जाता है।
युवाओं के बीच यौनिकता शिक्षा के लिए मनोरंजन और मीडिया पर बढ़ती निर्भरता कई चुनौतियाँ सामने लाती है। एक प्राथमिक चिंता ग़लत सूचना एवं रिश्तों और यौनिकता के अवास्तविक चित्रण की संभावना है। इंटरनेट, विशेष रूप से, सामग्री के एक विशाल भंडार के रूप में कार्य करता है जो गुणवत्ता, सटीकता और उपयुक्तता में व्यापक रूप से भिन्न होता है। युवा खोज करने और सीखने की उत्सुकता में भ्रामक जानकारी पर ठोकर खा सकते हैं, और सहमति, सुरक्षित यौन प्रथाओं, और रिश्तों की जटिलताओं जैसे विषयों के बारे में मिथकों को क़ायम रख सकते हैं।
हमारे अनुभव में भारत-नेपाल सीमा के पास बसे बहराइच जनपद के एक ग्रामीण समुदाय मिहींपुरवा की किशोरी सोनी (काल्पनिक नाम) के साथ सत्र के दौरान हमको यह पता चला कि कैसे किशोरियां यौनिकता के बारे में जानकारी के लिए इंटरनेट स्रोतों पर भरोसा करती हैं। हालांकि आगे के सत्रों में यह देखा गया कि कुछ ऑनलाइन सामग्री में ग़लत सूचना और अवास्तविक चित्रण ने सहमति, सुरक्षित यौन सम्बन्ध, और रिश्तों में संचार के महत्व के बारे में ग़लत धारणाओं को बढ़ावा दे दिया है। यह मनोरंजन और मीडिया में प्रस्तुत जानकारी का आलोचनात्मक मूल्यांकन करने की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
इसके अलावा, इन ऑनलाइन मंचो के इस्तेमाल करने में मार्गदर्शन की कमी हानिकारक रूढ़िवादिता और अवास्तविक अपेक्षाओं को सुदृढ़ करने में योगदान कर रही है। युवा अनजाने में ग़लत मंचो से अपनी समझ विकसित करते हैं, जिससे उनके आत्म-सम्मान, शरीर की छवि, और एक स्वस्थ रिश्ते का गठन करने वाली धारणाओं पर असर पड़ सकता है। अनुचित सामग्री के संपर्क में आने का जोखिम चुनौतियों को और बढ़ा देता है, जिससे संभावित रूप से यौनिकता की ग़लत समझ विकसित हो सकती है।
इन चुनौतियों से निपटने के लिए एक बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है जिसमें शोधकर्ताओं, मनोरंजन निर्माता, सहकर्मी शिक्षकों, और समुदायों का सहयोग शामिल हो। एक महत्वपूर्ण क़दम सहकर्मी शिक्षकों और मनोरंजन निर्माताओं के बीच साझेदारी की स्थापना भी है। एक साथ काम करके, ये हितधारक के लिए ऐसी सामग्री विकसित कर सकते हैं जो न केवल आकर्षक हो बल्कि सटीक, ज़िम्मेदार, और किशोरों के अनुभवों की विविध वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित करने वाली हो। किशोरों की यौनिकता की समझ पर मनोरंजन मीडिया के प्रभाव को समझते हुए समुदायों के साथ काम कर रहे सहकर्मी शिक्षक मनोरंजन निर्माताओं को एक गहन और सही दृष्टिकोण भी प्रदान कर सकते हैं।
युवाओं में उत्पन्न होने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए, सहकर्मी और सामुदायिक शिक्षक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
हमें मीडिया साक्षरता कार्यक्रम भी लागू करना चाहिए जो समाधान का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलु है। किशोरों में भ्रामक स्रोतों और विश्वसनीय स्रोतों को पहचानने के लिए कौशल विकसित करने की आवश्यकता है। ये कार्यक्रम युवाओं को उनके सामने आने वाली सामग्री पर सवाल उठाने, उसकी विश्वसनीयता का मूल्यांकन करने, और यौनिकता की उनकी समझ में शामिल जानकारी के बारे में सूचित निर्णय लेने के लिए सशक्त बना सकते हैं।
संभावित रूप से भ्रामक जानकारी के संपर्क में आने से युवाओं में उत्पन्न होने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए, सहकर्मी और सामुदायिक शिक्षक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये शिक्षक खुली चर्चा के लिए सुरक्षित स्थान बना सकते हैं, मिथकों को दूर कर सकते हैं, और सटीक जानकारी प्रदान कर सकते हैं।
उन समुदायों में, जहां औपचारिक यौनिकता शिक्षा तक पहुंच सीमित हो, सहकर्मी और सामुदायिक शिक्षक और भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं। यौनिकता शिक्षा की शैक्षिक सामग्रियों में स्थानीय रीति-रिवाज़ों और मूल्यों का एकीकरण शामिल हो सकता है। इसके अलावा, युवाओं की सोच और कौशल को सशक्त बनाने के लिए मंच, कार्यशालाएं, और सत्र आयोजित किए जा सकते हैं, जिससे वे भ्रामक स्रोतों से विश्वसनीय स्रोतों को पहचानने में सक्षम हो सकें।
व्यापक यौनिकता के बारे में जानकारी देने लिए समुदायों के विशिष्ट सांस्कृतिक संदर्भों का इस्तेमाल कर के शैक्षिक पाठ्यक्रम को तैयार करना चाहिए, जो मनोरंजक होने के साथ यह भी सुनिश्चित करता हो की वह स्थानीय आबादी के साथ मेल खाती है, और अधिक समावेशी और प्रभावी शिक्षण अनुभव को बढ़ावा देती है।
अंततः स्कूली शिक्षा के भीतर व्यापक यौनिकता शिक्षा को बढ़ावा देना महत्वपूर्ण है। जबकि मनोरंजन और मीडिया एक मूल्यवान पूरक हो सकता है, औपचारिक शिक्षा शारीरिक रचना, सहमति, संचार, और रिश्तों सहित यौनिकता के विभिन्न पहलुओं को व्यवस्थित रूप से संबोधित करने के लिए एक संरचित मंच प्रदान करती है। व्यापक यौनिकता शिक्षा को पाठ्यक्रम में एकीकृत करके, स्कूल सटीक जानकारी को सुदृढ़ कर, प्रदान कर सकते हैं।
निष्कर्ष में हम यह देखते हैं कि व्यापक यौनिकता शिक्षा के लिए मनोरंजन और मीडिया का उपयोग युवाओं तक प्रभावी ढंग से पहुंचने का एक आशाजनक अवसर प्रदान करता है। हालांकि यह चुनौतियों के साथ आता है और उन्हें सटीक सूचना प्रसार सुनिश्चित करने के लिए संबोधित किया जाना चाहिए। व्यापक यौनिकता शिक्षा के लिए मनोरंजन का उपयोग करने में चुनौतियाँ मौजूद हैं पर रणनीतिक सहयोग, मीडिया साक्षरता पहल, और समुदाय-केंद्रित शिक्षा प्रयास इन चुनौतियों को सकारात्मक प्रभाव के अवसरों में बदल सकते हैं।
यह दृष्टिकोण जागरूक और सशक्त पीढ़ी के निर्माण में योगदान दे सकता है जो अपने रिश्तों और यौन जीवन में जिम्मेदार विकल्प चुनने में सक्षम होंगे। विचारशील हस्तक्षेपों के साथ डिजिटल युग की जटिलताओं को दूर करके, हम युवाओ को सटीक जानकारी के साथ सशक्त बनाने के लिए मनोरंजन और मीडिया की क्षमता का उपयोग कर सकते हैं, और यौनिकता के बारे में समावेशी और ज़िम्मेदार ज्ञान पंहुचा सकते हैं।
यह आलेख मूलरूप से इनप्लेनस्पीक पर प्रकाशित हुआ था जिसे आप यहां पढ़ सकते हैं।
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आमतौर पर बड़े-पैमाने वाले सरकारी कार्यक्रम पायलेट्स की तरह शुरू किए जाते हैं। पायलट प्रोजेक्ट एक छोटे-पैमाने का प्रयोग होता है जिसके माध्यम से कार्यान्वयन प्रक्रिया की व्यवहारिकता का आकलन किया जाता है। आमतौर पर, सरकारी योजनाओं के मामले में किसी भी तरह के पायलट को छोटी जगहों, कुछ गांवों, या जिले की ग्राम पंचायतों में शुरू किया जाता है। इसके माध्यम से इस बात का पता लगाया जाता है कि क्या कारगर है और क्या नहीं। साथ ही, यह समझा जाता है कि कार्यक्रम या योजना को बड़े पैमाने पर ले जाने से पहले इसमें किस तरह के बदलाव की जरूरत है।
सरकारी योजनाओं के लिए यह एक सामान्य नियम है। इसके लिए प्रधान मंत्री किसान ऊर्जा सुरक्षा एवं उत्थान महाभियान (पीएम कुसुम) का उदाहरण देख सकते हैं। यह योजना 2019 में किसानों की आय बढ़ाने के साथ-साथ सौर सिंचाई की मदद से कृषि क्षेत्र को विकार्बनन करने के उद्देश्य से शुरू की गई थी। पीएम कुसुम योजना का पहला चरण जुलाई और दिसंबर 2019 के बीच था। इस चरण में विभिन्न प्रयोगों द्वारा सब्सिडी दरें और फीड-इन-टैरिफ़्स (एफ़आईटी) जैसे विभिन्न घटकों की जांच का प्रयास किया गया। फीड-इन-टैरिफ़्स, वह मूल्य होता है जिस पर बिजली वितरण कंपनियां ज़मीन पर काम करने वाले किसानों से नवीकरणीय ऊर्जा वापस ख़रीदती हैं।
इसके बाद से इस योजना ने गति पकड़ ली है। जून 2023 तक, छोटे सौर ऊर्जा संयंत्रों की कुल 113.08 मेगावाट क्षमता – प्रत्येक 2 मेगावाट तक की क्षमता – और 2.45 लाख पंप लगाये जाने या सौर ऊर्जा से संचालित होने की सूचना मिली है। कॉप-26 में, भारत सरकार ने साल 2070 तक नेट-जीरो एमिशन हासिल करने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किया है। भारत ने अपनी संचयी विद्युत ऊर्जा का 50 फ़ीसद गैर-जीवाश्म ईंधन स्रोतों से प्राप्त करने का फ़ैसला लिया है, जिसमें सौर ऊर्जा भी शामिल है। जहां कुल कार्बन उत्सर्जन में खेती दूसरे स्थान पर है वहीं किसानों पर बिना अतिरिक्त बोझ दिए इस काम को करने की पूरी संभावना है। पीएम कुसुम योजना इसी दिशा में उठाया गया एक कदम है।
पायलट से बड़े पैमाने पर हुई इसकी शुरुआत को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि इस योजना से जुड़ी किसी भी तरह की गड़बड़ी में इसके प्रयोग वाले चरण में ही राष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित किए जाने से पहले ही सुधार लाया जा चुका था। लेकिन इतना भी सीधा और सरल नहीं था।
पायलट प्रोजेक्ट बहुत अधिक उपयोगी होते हैं लेकिन इनमें जोखिम भी होता है – जब अलग-अलग मामलों में बड़े पैमाने पर इसकी सफलता दिखती है, वहीं कभी-कभी इसके अनचाहे परिणाम भी देखने को मिल सकते हैं। यह विशेष रूप से कृषि और जल क्षेत्र से जुड़े कार्यक्रमों के बारे में सच साबित होता है। उदाहरण के लिए, कुछ साल पहले खेतों में बनाए जाने वाले तालाब बहुत लोकप्रिय हुए थे। यह छोटा कृषि-स्तरीय कार्यक्रम था जो शुष्क क्षेत्रों में किसानों को रबी (सर्दी) और ख़रीफ़ (गर्मी) मौसम के दौरान पानी तक पहुंच प्रदान करने के लिए स्थापित किया गया था ताकि वे दूसरी और तीसरी फसल उगा सकें। छोटे पैमाने पर, कुछ खेतों में बने तालाब आमतौर पर प्रभावी होते हैं और शायद ही कभी इनका कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। हालांकि, बड़े खेतों में या अधिक संख्या में बनाए गए तालाब पानी की असमानता और पानी के निजीकरण जैसे अप्रत्याशित मुद्दों को जन्म दे सकते हैं।
पीएम कुसुम से जुड़ी पायलट परियोजना के दौरान नीचे बताई गई तीन समस्याओं का सामना करना पड़ा था:
इसलिए, इन शुरुआती पायलटों के अनुभव से मिला डेटा भारत जैसे विविध संदर्भों वाले देश में बड़ी परियोजनाओं के लिए पर्याप्त नहीं हैं। हमारे शोध से यह निकला है कि मॉडलिंग अभ्यास अपेक्षाकृत अधिक व्यापक रूप से प्रभाव का अनुमान लगा सकते हैं।
मॉडलिंग, सिमुलेशन (अनुरूपता) के रूप में, संभावित परिणामों का संभावित अवलोकन प्रदान कर सकता है। मॉडल वास्तविकता का एक सरल किया गया रूप होता है, जिसे अक्सर उस वास्तविकता के कुछ पहलुओं को समझाने, समझने या भविष्यवाणी करने में मदद करने के लिए डिज़ाइन किया जाता है। किसी मॉडल की प्रभावशीलता आमतौर पर इस बात पर निर्भर करती है कि यह वास्तविक दुनिया की प्रणाली या परिदृश्य का कितनी अच्छी तरह दिखाता है।
पायलट, जहां वास्तविक कार्यक्रम हैं और कार्यान्वयन के लिए संसाधनों में समय और उच्च निवेश की आवश्यकता होती है। लेकिन मॉडल अक्सर, कार्यक्रम के संभावित प्रभावों को समझने का एक तेज़ गति वाला और कम खर्चीला तरीका है। इन्हें केवल कंप्यूटर पर उन उपकरणों का उपयोग करके बनाया जा सकता है जिनके लिए विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है, लेकिन इनमें पायलट प्रोजेक्ट जितने बहुत अधिक निवेश की ज़रूरत नहीं होती है।
सौर सिंचाई के संदर्भ में, एजेंट-आधारित मॉडलिंग (एबीएम) हमें किसानों द्वारा किए जाने वाले उन चुनावों को समझने में मदद कर सकती है जो उनके सामने वाले आय बढ़ाने वाले विकल्प प्रस्तुत किए जाते हैं जो सौर पंप के इस्तेमाल से होती है। एबीएम का उपयोग समग्र रूप से सिस्टम पर उनके प्रभावों का आकलन करने के लिए स्वायत्त एजेंटों (व्यक्तियों या सामूहिक संस्थाओं जैसे संगठनों या समूहों) के कार्यों और संवाद को अनुकरण करने के लिए किया जाता है।
ऐसे परिदृश्य में दो संभावित परिणाम हैं: (1) बिजली और सिंचाई तक पहुंच के बिना किसान अंत में अधिक खेती के लिए आवश्यक पानी पंप कर सकते हैं, या (2) सिंचाई और बिजली दोनों सुविधाओं तक पहुंच वाले किसान फीड-इन-टैरिफ़ के माध्यम से ग्रिड को अपने द्वारा निर्मित ऊर्जा को बेच सकते हैं। और फिर भी, कारकों का एक संयोजन है – स्थानीय जैव-भौतिकीय, सामाजिक-आर्थिक और सामाजिक-राजनीतिक – जो किसानों द्वारा किए जाने वाले संभावित निर्णयों को निर्धारित करते हैं।
हमने पीएम कुसुम योजना पर किसानों द्वारा मिलने वाली संभावित प्रतिक्रियाओं का पता लगाने के लिए एक एबीएम अभ्यास का आयोजन किया। इस मामले में ‘किसान’ एजेंट की भूमिका निभा रहे थे। मॉडलिंग ढांचा इस सोच पर आधारित है कि अधिकतम लाभ और जोखिम को कम करने की आवश्यकता से प्रेरित होकर, किसान व्यक्तिगत स्तर पर इस बात का फ़ैसला लेते हैं कि कौन सी फसल उगानी है। वे जिन फसलों की खेती का चुनाव करते हैं वे इन चीजों पर निर्भर होती है:
हमने किसानों की पानी, जमीन और बिजली तक पहुंच के आधार पर छह मामलों का चुनाव किया। इस लेख में उनमें से एक लेख को आधार बनाकर हम अपने अनुभव और सीख को साझा कर रहे हैं।
पंजाब के बठिंडा ज़िले में ज़्यादातर किसान तीन में से एक फसल प्रणाली चुनते हैं: धान-गेहूं (ख़रीफ़ के मौसम में धान, उसके बाद रबी फसल के रूप में गेहूं), कपास-आलू, और किन्नू (एक खट्टे फल का पेड़)।
इन समूहों में, धान-गेहूं की फसल प्रणाली में सबसे अधिक पानी की आवश्यकता होती है, इसके बाद कपास-आलू और फिर किन्नू की फसल होती है। इस जिले में, भूमि की उपलब्धता प्रमुख बाधा है, क्योंकि लगभग 99 प्रतिशत फसल भूमि पहले से ही सिंचाई के अधीन है। अधिकांश किसान सिंचाई-गहन धान-गेहूं फसल पैटर्न का पालन करते हैं और न तो सिंचाई के तहत अधिक भूमि ला सकते हैं और न ही पंप से निकलने वाले पानी की मात्रा बढ़ा सकते हैं।
बठिंडा में किसानों को ऊर्जा की सीमित मात्रा के उपयोग जैसी मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ता है क्योंकि पंजाब सरकार किसानों को मुफ्त या भारी सब्सिडी दरों पर बिजली प्रदान करती है। उनके उथले ट्यूबवेल, ग्रिड से जुड़ी बिजली से संचालित होते हैं, और, ख़रीफ़ और रबी फसलों के दौरान, उन्हें हर दिन औसतन चार से आठ घंटे बिजली मिलती है। यह सौर पैनल द्वारा प्रदान की जाने वाली औसत चार से पांच घंटे की बिजली के बराबर है।
जहां तक पानी तक पहुंच की बात है, पंजाब में भूजल विशाल जलोढ़ों में जमा है; इसलिए भूजल के स्तर में आई थोड़ी सी गिरावट का असर यहां के किसानों ने अब तक महसूस नहीं किया है। यहां तक कम बारिश वाले सालों में भी पानी की कमी नहीं होती है। अध्ययनों से यह बात सामने आई है कि पंजाब में धान की खेती करने वाले क्षेत्रों में बारिश में आई कमी का जरा भी असर देखने को नहीं मिला है।
सिंचाई की अधिकतम क्षमता को देखते हुए; अब सवाल यह उठता है कि क्या इसमें इतनी कमी आ सकती है कि अतिदोहन की वर्तमान दर में कमी आ सके। किसान किन फसलों का चयन करेंगे? उनका मुनाफ़ा कैसे बदलेगा? भूजल की स्थिति कैसे बदलेगी?
हम स्थायी परिवर्तन को एक ऐसी घटना के रूप में परिभाषित करते हैं जहां एक किसान अपनी आय में वृद्धि करते हुए पानी का उपयोग कम करता है और जोखिम के स्तर को कम करता है या उतने पर ही बनाए रखता है।
धान-गेहूं की खेती करने वाले एक किसान के पास तीन विकल्प होते हैं।
सैद्धांतिक रूप से एक किसान के लिए धान-गेहूं या कपास-आलू की खेती से किन्नू की खेती का फ़ैसला लेना संभव है। हमारी गणना से पता चलता है कि ये परिवर्तन आर्थिक रूप से व्यावहारिक और पानी की कम खपत वाले हैं। किसान अपने पानी के उपयोग में बड़े स्तर पर कटौती करते हुए सौर ऊर्जा और फसलों की बिक्री के माध्यम से अपनी आय में बढ़ोतरी कर सकेंगे क्योंकि धान-गेहूं और कपास-आलू की तुलना में किन्नू को कम सिंचाई की आवश्यकता होती है।
हालांकि, सौर सिंचाई के परिणामस्वरूप उनकी कमाई में थोड़ी बहुत वृद्धि के बावजूद इस बात की बहुत कम संभावना है कि धान-गेहूं और कपास-आलू, दोनों ही की खेती करने वाले किसान इस मध्यम-अवधि में खेती के अपने पैटर्न में किसी तरह का बदलाव लाएंगे।
ऐसे दो जोखिम हैं जिसके कारण किसान किसी भी तरह के स्थायी परिवर्तन के लिए तैयार नहीं हो सकते हैं:
इसलिए, सौर सिंचाई की शुरूआत से बठिंडा में स्थायी परिवर्तन नहीं हो सकता है, क्योंकि एजेंट/किसान धान-गेहूं की खेती की अपनी परंपरा को जारी रखेंगे। सौर सिंचाई से लाभ में केवल मामूली वृद्धि हो सकती है, क्योंकि किसान को सौर पंप के लिए प्रारंभिक पूंजीगत खर्च उठाना होगा। इस विकल्प के परिणामस्वरूप भूजल संसाधनों का निरंतर अत्यधिक दोहन होने की संभावना है – चूंकि फसलें वही रहती हैं, इसलिए सिंचाई के लिए पानी की अधिक आवश्यकता होती है।
एक अलग फसल की खेती से जुड़े स्पष्ट लाभों के बावजूद ये विकल्प ‘लॉक्ड-इन‘ हैं। हमारे संवेदनशीलता विश्लेषण से पता चला है कि कम एफआईटी और कम सब्सिडी पर, सौर सिंचाई के साथ धान-गेहूं की खेती करने वाले किसान के लिए इसी खेती जारी रखना लाभदायक नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें तो, यदि किसान किसी भी तरह का जोखिम उठाने से बचना चाहते हैं तो ऐसे में सौर सिंचाई के विकल्प को अपनाने की संभावना कम है। किसी भी किसान के लिए सौर सिंचाई का उपयोग करते हुए धान-गेहूं उगाना तभी लाभदायक होगा जब एफ़आईटी की दर 5 रुपये प्रति किलोवॉट-घंटा हो और जिसपर 70 फ़ीसद की सब्सिडी मिले। हालांकि, इस बात का ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि अधिकांश एफआईटी और सब्सिडी के बावजूद कपास-आलू और किन्नू की खेती के विकल्प को अपनाना किसी भी किसान के लिए लाभदायक है। लेकिन मूल्य-संबंधी और सांस्कृतिक जोखिमों से जुड़ी किसानों की धारणाओं के पहले के विवरणों से पता चलता है कि यह एक बेहद असंभव परिणाम है।
इस बात को भी ध्यान में रखना महत्वपूर्ण है कि ऐसी आकस्मिक घटनाएं या परिदृश्य होंगे जिनकी भविष्यवाणी करने में मॉडलिंग विफल हो जाएगी क्योंकि मानव व्यवहार का पूरी तरह से अनुमान लगाना संभव नहीं है। ऐसी घटनाएं भी हो सकती हैं जो काम करने के तरीक़े को पूरी तरह से बदल सकते हैं, और जिससे हमारे द्वारा यहां बताए गए परिणाम शून्य हो जाएंगे। उदाहरण के लिए, एक ग्रामीण उद्यमी किन्नू से बनने वाले जैम की फैक्ट्री स्थापित कर सकता है और इससे उस क्षेत्र में किन्नू स्थायी मांग बनी रह सकती है, जो किसानों को आर्थिक झटके से बचाता है और बठिंडा जैसे परिदृश्य के लिए पर्यावरण की दृष्टि से अधिक उपयुक्त है।
इसके अलावा कुछ और भी सीमाएं हैं। उनमें से एक है कि यह अध्ययन इसकी बात नहीं करता है कि कार्यक्रम के क्रियान्वयन के दौरान किसान अपने-अपने ज्ञान को आपस में कैसे साझा करेंगे। साथ में सीखने की यह प्रक्रिया एक महावपूर्ण कारक है जो उनके व्यवहार को प्रभावित करता है। यह अध्ययन फसल परिवर्तन पर पूरी तरह ध्यान केंद्रित नहीं करता है, न कि सिंचाई तकनीकों पर, भले ही विभिन्न सिंचाई तकनीकों के परिणामस्वरूप एक फसल को छोड़कर दूसरी फसल की उपज शुरू करने पर अलग-अलग स्तर पर पानी की बचत होगी। इसके अलावा, यह केवल फसल की खेती से होने वाली आय पर विचार करता है, न कि पशुधन पालन जैसे गैर-कृषि स्रोतों पर।
हालांकि, मॉडलिंग का काम अभी भी महत्व रखता है। कार्यक्रमों को बड़े पैमाने पर शुरू करने से पहले सिमुलेशन विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं ताकि हम योजना प्रक्रिया के दौरान ही अनजाने परिणामों का हिसाब रख सकें। भारत की संघीय प्रकृति यह तय करती है कि केंद्र सरकार कार्यक्रम डिज़ाइन करे और राज्य सरकारें उन्हें लागू करें। हालांकि भारत की भौगोलिक, सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक विविधता को देखते हुए राज्य सरकारों को कार्यक्रम डिजाइन की जानकारी देने के तरीके खोजना अधिक लाभदायक है। इस तरह के सिमुलेशन शक्तिशाली उपकरण हो सकते हैं जो राज्य सरकारों को नीति डिजाइन से जुड़ी जानकारी देने और बाद में अधिक प्रभावी कार्यक्रम कार्यान्वयन की अनुमति देते हैं।
सरकारी धन का ग़ैर-पक्षपाती आवंटन सुनिश्चित करने के लिए, सिमुलेशन पर भरोसा करना आवश्यक है। ये उपकरण हमें विभिन्न परिदृश्यों को सावधानी के साथ मॉडल करने में सक्षम बनाने के साथ ही सार्वजनिक खर्च की जानकारी लेने जैसी महत्वपूर्ण समझ प्रदान करते हैं। सिमुलेशन का उपयोग करके, हम परिणामों का अधिक सटीक पूर्वानुमान लगा सकते हैं, संभावित नुकसान की पहचान कर सकते हैं और खर्च किए जाने वाले एक-एक रुपये की प्रभाव को अधिकतम स्तर तक ले जा सकते हैं। एक जिम्मेदार राजकोषीय प्रबंधन और वांछित नीति परिणामों की उपलब्धि के लिए इस दृष्टिकोण को अपनाया जाना महत्वपूर्ण है।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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सामाजिक क्षेत्र से जुड़े लगभग सभी लोग इस बात को मानते हैं कि किसी भी संगठन के विकास के लिए फंडरेजिंग बहुत महत्वपूर्ण होता है। समाजसेवी संगठनों के लिए लंबी अवधि वाले परिवर्तन लाना धन की कमी के साथ संभव नहीं है। इसलिए किसी भी संगठन का वित्तीय स्वास्थ्य फंडरेजिंग पर ही निर्भर होता है।
इस लेख में हम आपको बता रहे हैं कि कैसे अध्ययन फाउंडेशन और रीप बेनिफिट नामक दो संगठन, क्षमता-निर्माण अनुदान का उपयोग करके अपने लोगों के माध्यम से ही धन जुटाने में सक्षम हो सके, और कैसे 12 महीनों के भीतर इसका बहुस्तरीय प्रभाव पड़ा।
अध्ययन फाउंडेशन, भारत में शिक्षा की बेहतरी के लिए काम करने वाला एक क्षमता-निर्माण संगठन है। वे स्कूलों में शिक्षण और सीखने के नेतृत्व और शासन पर ध्यान केंद्रित करके अपने इस लक्ष्य को पूरा करते हैं। रीप बेनिफिट जमीनी स्तर की लामबंदी और तकनीकों का उपयोग करके ज़मीनी स्तर के नेतृत्वकर्ताओं की पहचान करता हैं, और उन्हें बनाए रखने के संसाधन देता है, ताकि वे नागरिक और जलवायु परिवर्तन से निपटने पर काम कर सकें।
दोनों ही संगठन अपने-अपने क्षेत्रों में उच्च प्रभाव वाले कार्य करने वाले विभिन्न हितधारकों (बच्चे और युवा, नागरिक, और सरकारों) के साथ काम करते हैं। उन्हें इस स्तर पर लाने में पर्याप्त मात्रा में धन जुटाने के काम ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लेकिन इस यात्रा में उन्हें कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ा और साथ ही उन्होंने बहुत कुछ सीखा भी है।
अध्ययन ने साल 2017 में फ़ंडिंग के दो छोटे माध्यम से आधिकारिक शुरुआत की – दोस्त एवं परिवार के ज़रिये, और बोर्ड के निदेशकों से मिलने वाले ऋण के माध्यम से। इस पैसे का उपयोग नये कार्यक्रमों को चलाने के लिए किया गया जिनके माध्यम से वे अपना काम सरकारों, साझेदार समाजसेवी संस्थाओं और फंडर्स सहित विभिन्न हितधारकों को दिखा सके। इसका लक्ष्य उनकी अवधारणा का प्रमाण प्रस्तुत करना था।
साल 2018 में, उनकी पहुंच फ़ंडिंग के दो महत्वपूर्ण स्रोतों तक हो गई – एक संस्थागत दानकर्ता जिसकी वजह से वह अपना कार्यक्रम गोवा ले जा सके और एक अर्ध-सरकारी निकाय जिसने दिल्ली में काम करने के लिए सहायता दी। अधिकांश स्टार्ट-अप की तरह ही संस्थापकों के मौजूदा नेटवर्क को आधार बनाकर काम करने के कारण इनकी प्रक्रिया भी व्यवस्थित, तय इरादों वाली या केंद्रित नहीं थी। जितना काम हुआ वह संस्थापकों के मौजदा नेटवर्क के कारण था।
2020 में कोविड-19 महामारी के बाद अध्ययन के मुख्य दानकर्ताओं ने उन्हें दान देना बंद कर दिया। अगले दो साल तक वे पूरी तरह से अपने केवल एक दानकर्ता पर निर्भर रहे। हालांकि, अनुदान की तय सीमा समाप्त होने के एक महीने पहले, दानकर्ता ने अध्ययन की टीम को सूचित किया कि वे अब अपना अनुदान जारी नहीं रख सकते हैं क्योंकि उन्हें अपना फंड कोविड-19 राहतकोष के लिए इस्तेमाल करना है।
यह अध्ययन के लिए एक बड़े झटके जैसा था, क्योंकि संगठन में 17 सदस्य थे और उनके पास किसी भी तरह की फंडिंग पाइपलाइन नहीं थी। खुदरा फंडरेजिंग के प्रयासों से उन्होंने कुछ पैसे (लगभग 7-10 लाख रुपये) जमा किए थे। लेकिन यह राशि इतनी भी नहीं थी कि संगठन के लोगों को उनका वेतन दिया जा सके। नतीजतन, जून में प्रोजेक्ट समाप्त होने के बाद उन्हें कुछ लोगों को काम से निकालना पड़ा। सबसे बड़ी चुनौती विभिन्न संगठनों से किया गया गोवा राज्य सरकार से की गई प्रतिबद्धताओं को पूरा करना था, जहां वे पहले से ही काम कर रहे थे। सौभाग्य से, दो वर्षों में सरकार के भीतर पर्याप्त क्षमता का निर्माण हो गया था और इसलिए वे ड्राइविंग स्कूल सुधार नाम से चल रहे कार्यक्रम के कई पहलुओं को स्वतंत्र रूप से आगे बढ़ाने में सक्षम थे।
2020 एक महत्वपूर्ण साल था। कोविड-19 की शुरुआत हो चुकी थी और कम्पनियां और फ़ंडर सभी अपना पैसा पीएम केयर या कोविड-19 राहतकोष में दे रहे थे। अध्ययन के काम और लक्ष्य को देखते हुए उनके लिए राहत कार्यों में लगना सही नहीं था – वे प्रणालीगत और रणनीतिक तरीके से स्कूल की गुणवत्ता को मजबूत करने वाले अपने कार्यक्रमों पर ही अपना ध्यान केंद्रित करना चाहते थे। विभिन्न दानकर्ताओं से बातचीत करने के बाद उन्हें अपने काम के लिए सहायता देने वाला केवल एक डोनर मिला। अध्ययन के दस्तावेज को देखने और उनके भूतपूर्व दानकर्ताओं से बातचीत करने के बाद इस दानकर्ता ने उन्हें अनुदान दिया जो संगठन की जीवन रेखा बना। इस अनुदान के तहत उन्हें एक छोटी सी धनराशि मिली ताकि वे फंडरेजिंग क्षमता के निर्माण के साथ ही अपना गोवा कार्यक्रम भी जारी रख सकें। उनका आदेश सरल था – इस पैसे का उपयोग किसी ऐसे व्यक्ति को काम पर रखने के लिए करना जो आपके काम को बढ़ाने के लिए आवश्यक धन जुटाएगा।
रीप बेनिफिट (आरबी) का पंजीकरण साल 2013 में हुआ था, और शुरुआती कुछ सालों तक उनके पास विभिन्न स्रोतों से पैसे आते रहे – उन्हें उनका पहला बड़ा अनुदान उनकी स्थापना के चार सालों बाद मिला था। शुरुआत में इस संगठन को शुल्क फीस से मिले (या तो ऐसे युवा जिनके साथ इन्होंने काम किया था या निम्न-आय स्कूलों में स्कूल प्रबंधन समितियों से)। या फिर फाउंडेशन से अनुबंध, फेलोशिप (अशोका) से आय, और एमआईटी जीएसडब्ल्यू, अशोका और स्टैनफ़ोर्ड जैसी प्रतियोगिताओं से फंड मिलते थे।
आरबी विभिन्न बड़े घरेलू फाउंडेशन से भी फंड इकट्ठा करने का प्रयास कर रहा था लेकिन इस काम में उन्हें सफलता नहीं मिल रही थी।
2016 में, आरबी को अपने दूसरे चरण में एचएनआई (अच्छी निवल संपत्ति वाले शख़्स) और फैमिली फाउंडेशन से अनुदान मिलना शुरू हुए। ये वे लोग थे जिन्होंने आरबी का काम और उस काम का प्रभाव देखा था, उनकी टीम के साथ संबंध विकसित किए थे और उन्हें अपना समर्थन दिखाने में इच्छुक थे। इसी दौरान, आरबी विभिन्न बड़े घरेलू फाउंडेशन से भी फंड इकट्ठा करने का प्रयास कर रहा था लेकिन इस काम में उन्हें सफलता नहीं मिल रही थी। अरबी का काम मूल रूप से नागरिक जुड़ाव, युवा, शिक्षा, नागरिक प्रशासन और ऐसे कई अन्य क्षेत्रों के चौराहे पर है और ज़्यादातर फाउंडेशन को ऐसे संस्थानों की तलाश नहीं थी। और इस तरह उन्होंने पाया कि फ़ंडिंग के साथ उनका संबंध प्यार-नफ़रत वाले समीकरण पर आधारित है – वे जानते थे कि उन्हें धन उगाही के लिए समय और संसाधन दोनों का ही निवेश करना होगा, लेकिन वे यह भी जानते थे कि ऐसा करने से ज़मीनी स्तर से उनका ख़ुद का जुड़ाव कम हो जाएगा।
विकास क्षेत्र में जुटाई गई धनराशि और बजट को बढ़ोतरी के पैमाने के रूप में देखा जाता है। कई फंडर यह भी समझते है की ज़्यादा धनराशि का मतलब ज़्यादा प्रभाव होता है। प्रभाव नापने का यह तरीक़ा धीमा भी है और लगभग सभी मामलों में ग़लत भी – और वो भी जमीनी स्तर पर किए जा रहे काम की कीमत पर। बावजूद इसके, अधिकांश फ़ंडर इसी तरीक़े पर ध्यान देते हैं।
आरबी के कुलदीप दंतेवाड़िया (सह-संस्थापक और सीईओ) का कहना है कि संस्थापक टीम के सदस्यों के लिए ज़रूरी है कि वे जमीन पर किए जाने वाले वास्तविक काम में हिस्सा लें। वे कहते हैं, ‘एक ज़मीनी स्तर वाले संगठन को चलाना एक रेस्टोरेंट चलाने जैसा है। एक अच्छे शेफ़ के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह अपने सहकर्मियों को अपने संस्थान की संस्कृति और गरिमा को आगे बढ़ाने के बारे में बताए। किसी भी संगठन में टीम के शुरुआती सदसयों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके पास इतना समय है कि वे काम के इन पहलुओं को हस्तनांतरित करने में अपना योगदान दे सकें।’
कुलदीप मानते हैं कि निजी स्तर पर बिक्री के मामले में वे कॉर्पोरेट और विश्व स्तर पर काम कर रहे विभिन्न फाउंडेशन को प्रभावित करने में असफल रहे। और यह भी कि शायद इस काम को अधिक प्रभावी ढंग से करने वाले किसी व्यक्ति का संस्थान से जुड़ना अधिक मूल्यवान हो सकता है।
अध्ययन को अपने डोनर से मिलने वाले आदेश के आधार पर आईएलएसएस के धन उगाहने वाले कार्यक्रम में जाने का अवसर मिला। कुलदीप की तरह ही अनुश्री अल्वा (सीईओ और संस्थापक टीम की सदस्य) का अनुभव भी यही कहता है कि उन्हें भी बड़े फाउंडेशन और सीएसआर जैसे स्थापित और पारंपरिक फ़ंडर से धन प्राप्त करना नहीं आता था। ‘हमें नहीं पता था कि पैसे कैसे जुटाए जाएं। और हमारे पास इतना समय भी नहीं था कि हम धीरे-धीरे सीखें क्योंकि हमें तुरंत ही कार्यान्वयन की ज़रूरत थी। हमारे बोर्ड के एक सदस्य ने हमें सुझाव दिया कि हमें दूसरों द्वारा किए जा रहे कामों के बारे में जानने, और अपने संगठन के लिए फंडरेजिंग का तरीक़ा सीखना चाहिए और इसके लिए आईएलएसएस पाठ्यक्रम से जुड़ना सबसे बेहतर तरीक़ा होगा। इतना ही नहीं, हमारे इस पाठ्यक्रम से जुड़ने का खर्च भी उस बोर्ड के सदस्य ने ही उठाया।’
आरबी को यह सलाह मिली कि उसे कॉर्पोरेट अनुभवों और कनेक्शन वाले वरिष्ठ फंडरेज़र को नियुक्त करना चाहिए। नियुक्त किए गए सलाहकार इस संस्था के लिए उपयुक्त थे – उन्हें संस्था के लक्ष्य में भरोसा था। आरबी के सर्वेसर्वा कुलदीप को काम को केंद्र में रखकर एक प्रस्ताव तैयार करने में अधिक समय नहीं लगा। लेकिन इस तरीक़े को सफलता नहीं मिली। कुलदीप कहते हैं कि, ‘मुझे यह महसूस हुआ कि बहुत अधिक अनुभव वाले लोग एक ख़ास तरीक़े से काम करते और सोचते हैं और उनके लिए काम करने वाले लोगों की एक बहुत बड़ी टीम होती है। एक समाजसेवी संगठन के नाते हमारे पास यह विशेष सुविधा नहीं होती है। आपको एक ही समय में सोचना, अपनी सोच को क्रियान्वित करना और फिर उस पर पुनर्विचार करना होता है। हम केवल सोचने के लिए अलग से समय और संसाधन खर्च करने में सक्षम नहीं थे।’
फंडरेजिंग के लिए की जाने वाली नियुक्तियों पर विचार करते समय अध्ययन को इसकी जानकारी नहीं थी कि उन्हें इसकी शुरुआत कहां से करनी चाहिए। क्योंकि जिन विशिष्ट चैनलों से वे मदद लेते थे वे शिक्षा से जुड़े दूसरे समाजसेवी संस्थाओं के होते थे। अनुश्री कहती हैं कि, ‘हमने सोचा कि हमें किसी ऐसे व्यक्ति की ज़रूरत है जिसे इस काम का कम से कम 8 से 10 सालों का अनुभव हो। साथ ही वह विकास सेक्टर से जुड़ा हो और पहले किसी बड़े संगठन या संस्थान के लिए धन उगाही में सफलता हासिल कर चुका हो। इसके अलावा उसके पास अपना नेटवर्क हो और जोखिमों से निपटना जानता हो। एक ऐसा व्यक्ति जिसके पास धन उगाही के लिए नई व्यवस्थाओं और प्रक्रियाओं के निर्माण की जानकारी भी हो।’
अध्ययन ने लोगों की भर्ती करने वाले एक फर्म से मदद मांगी, जिसने उन्हें उम्मीदवारों की एक विस्तृत सूची दी। और इसी सूची से उन्होंने एक ऐसे व्यक्ति को खोज निकाला जो उनके सभी मानदंडों पर खरा उतर रहा था। उन्होंने उस व्यक्ति को अपनी टीम में शामिल कर लिया।
उन्होंने अध्ययन के साथ तीन महीनों तक काम किया। इस दौरान उन्होंने फंडरेजिंग पाइपलाइन के लिए, नये संपर्क ढूंढ़ने के लिए, पृष्ठभूमि से जुड़े शोध करने के लिए, और मीटिंग की बातचीत का रिकॉर्ड रखने की व्यवस्था तैयार की। साथ ही विभिन्न श्रेणियों के दाताओं के लिए विभिन्न प्रकार के प्रस्ताव लिखने के लिए बुनियादी व्यवस्थाएं और प्रणालियों को विकसित भी किया। उन्होंने भविष्य में होने वाली क्षति के लिए सभी प्रकार के टेम्पलेट तैयार किए और संस्थागत दाताओं की एक बहुत लंबी सूची बनाई।
यदि आप किसी वरिष्ठ व्यक्ति को संस्था में शामिल करते हैं, तो वे नुक़सान की जवाबदेही नहीं उठाएंगे या नये संपर्क सूत्र विकसित नहीं करेंगे।
अनुश्री के अनुसार, उनकी फ़ंडरेजर ने शोध का काम किया, उसके लिखने की क्षमता और योग्यता अच्छी थी और वह एक अत्यंत गहन सोच वाली इंसान थीं। केवल एक ही बाधा थी कि उन्हें ऐसे बड़े, स्थापित संगठनों में काम करने की आदत थी जहां संगठन के संस्थापक के एक फ़ोन से उन्हें 10 करोड़ रुपये तक के अनुदान मिल जाते हैं और जिनके पास ऐसे दाताओं की संख्या बहुतायत में होती है। लेकिन अध्ययन एक ऐसा छोटा संगठन था जो महामारी के दौरान भी स्वयं को बचाए रखने का प्रयास कर रहा था। ऐसे में उन्हें किसी ऐसे व्यक्ति की ज़रूरत थी जो धन उगाही के पारंपरिक रास्तों को समझने वाले व्यक्ति की तुलना में इसके ग़ैर-पारंपरिक तरीक़ों के बारे में सोचने में सक्षम हो।
साथ ही, अनुश्री ने भी कुलदीप की तरह ही यह माना कि – यदि आप किसी वरिष्ठ व्यक्ति को संस्था में शामिल करते हैं, तो वे नुक़सान की जवाबदेही नहीं उठाएंगे या नये संपर्क सूत्र विकसित नहीं करेंगे, और यदि वे ऐसा करते हैं, तो वे इससे खुश नहीं होंगे। (जहां, अनुश्री के फंडरेज़र ने ये सभी काम किए, वहीं दूसरी तरफ़ उनकी फंडरेज़र ईमानदारी से कहती थी कि उनके स्तर के ज़्यादातर लोग ऐसा नहीं करेंगे।) दोनों ही नेताओं ने यह महसूस किया कि उन्हें किसी ऐसे व्यक्ति की ज़रूरत थी जो धन उगाही के लिए आवश्यक बहुत सारे काम जैसे कि पृष्ठभूमि शोध, पाइपलाइन निर्माण, प्रस्ताव लेखन, फॉलो-अप, और दाताओं के साथ विश्वासपूर्ण और ईमानदार संबंध विकसित करने की इच्छा रखता हो।
आरबी में सदस्यों ने इसे ‘द सॉक्स एंड शूज’ का नाम दिया है (चलने से पहले जूते और मोज़े पहन के तैयार होना)। यह खेती करने से पहले खेत की जुताई करने जैसा है। इसके बिना आप अपनी ज़मीन पर अपनी मर्ज़ी की फसल नहीं उगा सकते हैं। ‘मुझे इसका एहसास हुआ कि अगर मैं किसी ऐसे व्यक्ति को ढूंढ़ सकूं जो मेरे लिए तैयारी के इन कामों को कर सके, तब मेरे पास दाताओं के सामने प्रस्ताव लेकर जाने और संगठन के लक्ष्य और कार्यक्रमों पर ध्यान देने के लिए पर्याप्त समय होगा।’
वरिष्ठ फंडरेज़र को नियुक्त करने का प्रयास असफल होने के बाद अध्ययन के सलाहकार बोर्ड के सदस्यों ने संगठन के साथ एक बैठक की। इसमें उन्होंने संगठन को यह सलाह दी कि वे वरिष्ठ सलाहकार के ऊपर होने वाले खर्च को दो हिस्सों में बांटें और उससे अपेक्षाकृत कम अनुभवी या ग़ैर-अनुभवी दो लोगों को नियुक्त करें। उन्होंने अनुश्री को ऐसे लोगों को ढूंढ़ने के लिए कहा जो पारंपरिक तरीक़ों से धन उगाही करने वाले ना हों बल्कि उनके पास शोध और लेखन की क्षमता हो और किसी ख़ास तरह से काम करने के आदि ना हों।
अनुश्री कहती हैं कि, ‘हमने अपने चैनल को खुदरा और दो भागों में बांटा – संचार तथा एचनआई और संस्थागत। हमने धन उगाही के लक्ष्य को उस व्यक्ति कि प्रमुख जिम्मेदारियों से भी हटा दिया। हमने उनसे केवल इतना कहा कि वे प्रक्रिया का पालन करते हुए वे सभी काम करें जो डोनर को तैयार करने के लिए चाहिए था। उसके बाद का काम यानी कि डोनर को दान के लिए तैयार कर लेना और उनसे वास्तव में दान प्राप्त कर लेना उनकी ज़िम्मेदारी है।’
साल 2021 में, जहां तियाशा और जयती अध्ययन के बोर्ड में शामिल हुईं, वहीं सुकृति ने आरबी के साथ काम करना शुरू किया। उनके पास विभिन्न समाजसेवी संस्थाओं और निगमों में एक से छह साल तक काम करने का अनुभव था। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि, उनके पास आवश्यक मुख्य कौशल थे जो अपने-अपने संगठनों में धन उगाहने के लिए आधार बने। उनके काम करने का तरीक़ा इस प्रकार था:
अध्ययन में शामिल होने के बाद तियाशा ने उनके पूर्वर्ती फंडरेज़र द्वारा विकसित व्यवस्थाओं और प्रणालियों के अनुसार काम करना शुरू किया। ऐसा करने से उन्हें आगे बढ़ने के लिए एक अनुशासित और व्यवस्थित दृष्टिकोण मिला। उन्होंने उनकी सूची में शामिल प्रत्येक व्यक्ति के साथ संपर्क किया, उस पर संगठन में भी चर्चा की और क्या काम कर रहा है और क्या नहीं इस बात पर नज़र बनाए रखी। उन्होंने उन दाताओं से भी बातचीत जारी रखी जो उनके संगठन को दान देने में सक्षम नहीं थे – वे उनसे उनकी वर्तमान रणनीति पर प्रतिक्रिया मांगते थे और उसी आधार पर आगे का कदम उठाते थे। (दरअसल, शुरुआत में मना करने वाले कई डोनर बाद में उनसे जुड़ गये और दान भी दिया)।
इस स्तर के प्रयास और धन उगाही पर ध्यान केंद्रित करने के कारण, उनके पास अपने कार्यक्रमों को चलाने के लिए पर्याप्त समय नहीं था, लेकिन वे लगे रहे, और कई महीनों के बाद उनकी बातचीत परिवर्तित होने लगी। अध्ययन ने रिन्युल पर भी ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया – अपने मौजूदा दाताओं के साथ संबंध निर्माण करना और उनसे नज़दीकी बढ़ाना। यह सब करते हुए वे इस बात को भी सुनिश्चित कर रहे थे कि उनकी सूची में नए लोग शामिल हों और उनसे लगातार बातचीत का सिलसिला चलता रहे।
अधिकांश फ़ंडर चाहते हैं कि संगठन का सीईओ या संस्थापक अनुदान के लिए उनके पास प्रस्ताव लेकर आएं। लेकिन एक समाजसेवी संगठन के विकास के साथ यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि डोनर के साथ अपने संबंध को विकेंद्रीकृत किया जाए। अध्ययन के मामले में, तियाशा और जयती ने स्वयं को इतना सक्षम बनाया ताकि वे सीधे दाताओं से बातचीत कर सकें। इसकी शुरुआत उन्होंने विभिन्न डोनर के साथ होने वाली मीटिंग में भाग लेकर और प्रेज़ेंटेशन बनाकर की और धीरे-धीरे बातचीत का नेतृत्व करने लगीं। यह तरीक़ा इतना सफल हुआ कि वर्तमान में डोनर सीधे तियाशा और जयती से ही संपर्क में हैं।
आरबी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। सुकृति ने फ़ंडरेजिंग के लिए आवश्यक काम करने के स्तर से ऊपर जाकर कुछ दाताओं के साथ सीधे तौर पर काम करना शुरू कर दिया। फंडरेजिंग पर प्रतिदिन काम करने से एक व्यक्ति को किसी संगठन को बेहतर तरीक़े से समझने में मदद मिलती है; विभिन्न डोनर के व्यक्तित्व, उनकी पसंद और बाधाओं को समझना आसान होता है। इससे उन्हें प्रस्ताव में लिखे जाने वाले विषयों को समझने में मदद मिलती है और समय के साथ वह इस पूरे काम को अकेले ही करने लग जाते है।
अपने संगठन के साथ जुड़ने के लगभग छह से बारह महीनों के भीतर ही तियाशा, जयती और सुकृति किसी भी डोनर के साथ बातचीत शुरू करने से लेकर उसे अंत तक पहुंचाने के स्तर पर पहुंच चुकी थीं।
कुलदीप और अनुश्री दोनों जल्द ही समझ गये कि उन्हें अपने संगठनों में फंडरेजिंग के काम का दायरा बढ़ाकर औरों तक लेकर जाना होगा और इसे संगठन के डीएनए का हिस्सा बनाना होगा। इसके लिए हालाँकि दोनों ही लोगों ने दो अलग-अलग लेकिन बिलकुल नये रास्ते अपनाए।
मंगलवार को होने वाले आरबी की टीम मीटिंग में फ़ंडिंग अब एक महत्वपूर्ण विषय होता है ताकि सभी स्तरों पर काम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को इसकी जानकारी रहे। इसके अलावा, कार्यक्रम टीम ने भी फंडरेजिंग से जुड़ी बातचीत में शामिल होना शुरू कर दिया। कुलदीप और सुकृति उनकी प्रतिक्रियाओं को प्रस्तावों में शामिल करते हैं और डोनर कार्यों में शामिल करते हैं। आरबी ने फिर से कार्यक्रम नेतृत्वकर्ताओं को राजस्व जिम्मेदारी सौंपनी शुरू कर दी है, जिसका अंतिम लक्ष्य सभी इकाइयों के नेताओं को अपनी टीम के लिए धन जुटाना है।
कुलदीप मानते हैं कि इस स्तर की तरफ़ बढ़ने से आरबी की रचनात्मकता बढ़ी है। वे कहते हैं, ‘पहले हम अपने फ़ंडर से केवल पैसों के लिए संपर्क करते थे। लेकिन अब हम उनसे मिल सकने वाले समर्थन के प्रति रचनात्मक रवैया रखते हैं। जैसे कि, हमने अपने दाताओं से इस बात के लिए संपर्क किया कि क्या वे हमारे मध्य स्तर वाले प्रबंधन के लिए आवश्यक पाठ्यक्रमों के लिए दान देना चाहते हैं, या फिर तकनीक से जुड़ा कोई फाउंडेशन हमारे लिए आवश्यक टूल के निर्माण में हमारी मदद कर सकता है।
लेकिन ऐसा तभी संभव है जब बुनियादी बातों का ध्यान रखा जाए – जब आप जानते हों कि रास्ता सरल है। और आपके पास इस पर सोचने के लिए पर्याप्त संख्या में कुशल और सक्षम लोग हैं।’
फंडरेजिंग का काम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को संगठन और इसकी बड़ी तस्वीर के बारे में जानने की जरूरत है।
अध्ययन ने फंडरेजिंग को एक रोचक काम में बदलने का फ़ैसला किया। उन्होंने एक वार्षिक अभियान का ढांचा तैयार किया जिसमें पूरे संगठन को साल में एक बार फंडरेजिंग के लिए संस्कृति निर्माण में अपना समय निवेश करना था। सभी को यह बात मालूम है कि उन्हें हर साल अध्ययन के लिए धन उगाही का काम करना है, इसलिए संगठन का प्रत्येक व्यक्ति धन उगाही करता है। अध्ययन इस काम को पिछले दो वर्षों से कर रहा है और अब इसे औपचारिक रूप देने के लिए प्रयासरत है।
अनुश्री का कहना है कि इससे उनपे और कविता (संस्थापक) पर दबाव कम होता है। ‘संगठन सुचारू रूप से चल सके इसके लिए धन उगाही के बारे में सोचते हुए हम बहुत अधिक दबाव में आ जाते थे। और हमें महसूस हुआ कि ऐसे नहीं चल सकता है। सभी को स्वामित्व और ज़िम्मेदारियों का एहसास होना चाहिए, और हम सभी को एक साथ मिलकर इस समस्या का हल निकालना होगा।’ इस वार्षिक टीम अभियान ने फंडरेजिंग के काम को विकेंद्रीकृत कर दिया, जिसका मतलब था कि स्वामित्व की भावना वितरित हो गई और नेतृत्व पर दबाव कम हो गया। इसका यह भी मतलब था कि फंडरेजिंग का काम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को संगठन और इसकी बड़ी तस्वीर के बारे में जानने की जरूरत है। क्योंकि इससे वे यह देख और समझ पाने में सक्षम हो पाते हैं कि वे एक संगठन के निर्माण का हिस्सा कैसे हैं और इसमें महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं।
इस अभियान के साथ-साथ, तियाशा डोनर संबंधों को प्रबंधित करने के लिए अध्ययन में प्रत्येक टीम की क्षमता का निर्माण कर रही थी। वह उन्हें मासिक रिपोर्ट और प्रेजेंटेशन तैयार करने में मदद कर रही थी और साथ ही उन्हें यह सिखा रही थी कि दाताओं के सामने कैसे प्रभावी और आकर्षक बातचीत की जानी चाहिए। और, अंत में, अपने लिए फंडरेजिंग करने के अलावा, अध्ययन ने स्कूल की गुणवत्ता में निवेश करने के लिए हितधारकों के समूह के विस्तार पर भी काम शुरू कर दिया। उन्होंने निजी विद्यालयों को अरुणाचल प्रदेश के विद्यालयों को सीधे फंड देने में मदद की, जिससे देखभाल और समर्थन का एक पारिस्थितिकी तंत्र तैयार हुआ।
आरबी ने सहकर्मी संगठनों का अपना स्वयं का पारिस्थितिकी तंत्र भी बनाना शुरू कर दिया, जिसके साथ वे धन उगाहने को लेकर दाताओं की विभिन्न श्रेणियां, क्या काम करता है, क्या नहीं जैसे विषयों पर टिप्पणियों और प्रतिक्रियाओं का आदान-प्रदान कर सकते थे। उन साथियों के साथ विचारों को साझा करना जो समान मुद्दों से जूझ रहे हैं और रचनात्मक समाधानों के बारे में सोच सकते हैं, समाजसेवी संस्थाओं को भी रचनात्मक रूप से सोचना शुरू करने में मदद करता है।
दोनों संगठनों के बजट में तेजी से वृद्धि हुई है। अपने प्रमुख दाताओं को खोने से पहले अध्ययन का बजट 1.3 करोड़ रुपये था। वे साल 2021 में 55 लाख रुपये पर आ गए। वर्तमान में उनका बजट 3 करोड़ रुपये है और वे इसे दोगुना कर 6 करोड़ रुपये करने की उम्मीद कर रहे हैं। साल 2022-23 में आरबी लगातार और बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के अपने बजट में 2.5 गुना वृद्धि कर 7.6 करोड़ रुपये तक पहुंच गया है।
पर्याप्त धन होने के कारण अध्ययन फ़ंडर को ना कहने की स्थिति में आ गया। इससे उन्हें दाताओं के साथ बराबरी पर खड़े होने की भी सुविधा मिली। वे अपने फ़ंडर से मोलभाव करने, नियमों में ढिलाई लाने और उनके परिणामों से जुड़ी सीमाओं और उम्मीदों को लेकर बातचीत करने की स्थिति में आ गये। अनुश्री कहती हैं कि, ‘जब हमारे पास पूरे साल भर के लिए पर्याप्त धन हो गया था तब हम सुरक्षित महसूस करने लगे और क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए को लेकर फ़ैसले कर पाने की स्थिति में आ गए। पहले हम ना कहने की स्थिति में नहीं थे क्योंकि हमारे पास बने रहने का संकट था। ना कहने से हमारी ताक़त में इजाफ़ा हुआ। इससे पूरा खेल ही बदल गया।’
कुलदीप का मानना है कि पर्याप्त फ़ंडिंग के कारण आरबी को दो क्षेत्र में लाभ हुआ – फंडरेजिंग और प्रतिभा। ‘इससे हम यह सोच पाने की स्थिति में आ गए कि 8–12 करोड़ वाले बजट के साथ हमें कैसे काम करना है और हमने समुदायों और तकनीक के माध्यम से अपना काम बढ़ाया। हम नहीं चाहते कि साल-दर-साल हमारा बजट बढ़ता रहे और फिर लगातार धन जुटाते रहें।
क्योंकि क्या इसका कोई सांख्यिकी प्रमाण है कि एक बार एक निश्चित धनराशि जुटा लेने के बाद हम प्रभाव पैदा करने की स्थिति में आ ही जाएंगे? जहां तक प्रतिभा की बात है, हमें नहीं लगता है कि हम एक ही तरह की प्रतिभा के लिए अन्य संगठनों से किसी तरह की प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं या करना चाहते हैं। आरबी में अलग तरह की प्रतिभा है और हम उसमें निवेश करना चाहते हैं।
कॉपोरेट क्षेत्र का अनुभव लिये और अच्छे संपर्क वाले लोगों से बहुत अधिक प्रभावित नहीं होना चाहिए। फंडरेजिंग के लिए सोचने और करने वाली मानसिकता की ज़रूरत होती है। इसमें या तो करने या ना करने वाली स्थिति की संभावना नहीं होती है। इसलिए, समाजसेवी संस्थाओं को किसी ऐसे व्यक्ति में निवेश करना चाहिए जो नेतृत्व के लिए आवश्यक तैयारी के साथ-साथ पिचिंग भी करेगा।
कुलदीप कहते हैं कि, ‘समझ लीजिए कि फंडरेजिंग समाजसेवी संस्थाओं की दुनिया में खेला जाने वाला एक खेल है; आप ऐसा नहीं कह सकते हैं कि आप बिना किसी तैयारी के खेलेंगे। हालांकि, मैं तो यह कहता हूं कि भले ही दुनिया द्वारा तय की गई परिभाषा के अनुसार आपका फंडरेज़र ‘करिश्माई’ नहीं है लेकिन अगर वह पूर्व तैयारी के काम में अच्छा है तो उसमें निवेश किया जाना चाहिए।’
सेल्स की भाषा में, एक सीईओ और संस्थापक शिकार, खेती या बाग़वानी में अच्छा हो सकता है लेकिन तीनों ही कामों में अच्छा कभी नहीं हो सकता। एक नेता के रूप में अपने कौशल और स्वाभाविक क्षमता को पहचानें। और उसके बाद ऐसे कुशल लोगों को नियुक्त करें जो आपकी क्षमता को बढ़ा सकें। श्रम के उस विभाजन से बेहतर कामकाजी संबंध और भूमिकाओं में स्पष्टता भी आती है। उदाहरण के लिए अगर, सीईओ किसी नये फ़ंडर के सामने पिचिंग के काम में बेहतर है तो ऐसे में उन्हें किसी ऐसे की ज़रूरत होगी जो उनके रिश्ते को मज़बूत बनाए और उसे आगे ले जाने में उनकी मदद कर सके। ऐसा करने के लिए, एक नेता के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह अपनी खूबियों और ख़ामियों दोनों को समझे।
माहौल के अनुसार प्रतिक्रियात्मक बने रहना बहुत महत्वपूर्ण है (अपनी बदलती हुई परिस्थिति, नये उभरते फ़ंडर आदि)। यह भी महत्वपूर्ण है कि फंडरेजिंग के काम को फ़ंड्रेजिंग टीम या सीईओ के दायरे से निकालकर पूरे संगठन के लोगों को इस प्रक्रिया से जोड़ा जाए। आप अपने संगठन के वित्त को जितना अधिक विकेंद्रीकृत करेंगे, पैसों के मामले में आपकी टीम में स्वामित्व का भाव उसी अनुपात में बढ़ेगा।
‘हमें अपनी पिच केवल 30 सेकंड में सुनाएं; हमारे पास बात करने के लिए केवल दो मिनट ही है’ – ऐसी बातें करने वाले दाताओं में मूल्यों को कम करने की प्रवृति होती है। दाताओं के लिए ज़रूरी है कि वे समय निवेश करें, सवाल करें, काम को समझें और लोगों से जुड़ने की इच्छा रखते हों। अनुश्री के लिए यह लगातार महत्वपूर्ण होता जा रहा है। ‘हम किसी भी ऐसे डोनर के साथ नहीं जुड़ना चाहते हैं जिसमें धैर्य ना हो और जो किसी बड़े अवसर की तलाश में हो। इस तरह के फ़ंडर के साथ तालमेल बिठाना मुश्किल होता है।’ किसी भी प्रकार की फंडरेजिंग में निवेश करना और किसी संगठन के डीएनए में धन जुटाने की संस्कृति का निर्माण करने से उन्हें इस बात को समझने में मदद मिलती है कि कैसे वित्त पोषित किया जाए और वे किस प्रकार के अवसर चाहते हैं।
इस बात को सुनिश्चित करें कि उन्हें फील्ड में काम कर रहे विभिन्न टीम के साथ नियमित रूप से जुड़ने और ख़ुद भी फील्ड में काम करने का अवसर मिले। इससे उन्हें संगठन को बेहतर ढंग से समझने, लक्ष्य के साथ जुड़ने और अंततः एक बेहतर प्रस्ताव और पिच बनाने में मदद मिलेगी।
कुलदीप का मानना है कि जब धन जुटाने की क्षमता के निर्माण की बात आती है तो फंडर्स के लिए लचीला होना और संगठनों को काम करने का मौक़ा देना महत्वपूर्ण होता है। जब कोई फ़ंडर अपने अनुदान प्राप्तकर्ता संगठन में फ़ंडरेजिंग के लिए किसी व्यक्ति में निवेश करना चाहता है तो ऐसे में उसे लंबी अवधि तक टिकने वाली दृष्टिकोण को अपनाना चाहिए। ऐसा इसलिए है क्योंकि सीखने के क्रम में लोगों से ग़लतियां होने की पूरी संभवना होती है।
यदि कोई फ़ंडर किसी जमीनी स्तर के संगठन के लिए विक्रेता में निवेश करते हैं तो इसका प्रभाव दोगुना हो जाता है।
अनुश्री और कुलदीप, दोनों का कहना है कि फंडरेजिंग के लिए एक सफल इंजन बनाने के उद्देश्य से उन्होंने जिस डोनर के साथ काम किया वे बड़े लचीले थे, जिसकी वजह से उन्हें बहुत अधिक मदद मिली। कुलदीप कहते हैं कि, ‘उनके भी अपने मेट्रिक्स थे, लेकिन जल्द ही हमने यह बात समझ ली कि मेट्रिक्स का उद्देश्य एक स्तर तक हमें जवाबदेह बनाए रखता था। जब शुरुआती विचार विफल हो गए तो इसने हमें नई चीज़ें आज़माने से नहीं रोका। और यही सफलता की कुंजी थी।
इसके अलावा, यदि कोई फ़ंडर किसी जमीनी स्तर के संगठन के लिए विक्रेता में निवेश करते हैं तो इसका प्रभाव दोगुना हो जाता है, क्योंकि इससे संस्थापक टीम के पास काम करने और सोचने के लिए पर्याप्त समय होता है। इससे उन्हें अपने मुख्य काम पर ध्यान देने का समय मिलता है, जो किसी भी संगठन के लिए आगे बढ़ने और अपने प्रभाव को बनाने के लिए आवश्यक है। कुलदीप कहते हैं कि, ‘सुकृति के शामिल होने के बाद मुझे सोचने के लिए पर्याप्त समय मिलने लगा था, नतीजतन हम नेतृत्व के लिए एक सशक्त और विविध टीम को विकसित करने में सक्षम थे। इस टीम के लगभग 50 फ़ीसद सदस्य ग़ैर-हिन्दी भाषी थे। इससे मुझे उस टीम के साथ काम करने का मौक़ा मिला जो वास्तव में काम करता है।’
दाताओं को इस बात का एहसास होना चाहिए कि किसी भी समाजसेवी संगठन में कई सारी चीजें होती हैं और इस बात का अनुमान लगा पाना बहुत मुश्किल होता है कि अगले पांच सालों में परिस्थिति कैसी होगी। अगर आप अपने कार्यक्रम को टिकाऊ बनाना चाहते हैं तो आपको इसे समुदायों के साथ मिलकर बनाना होगा। आप अपनी रणनीति और योजनाओं को एकांत में रहकर नहीं बना सकते हैं, इसलिए दाताओं को इसके बारे में ज़रूर सोचना चाहिए।
अनुश्री का कहना है कि ऐसे भी डोनर हैं जो विशिष्ट चीजों की मांग करते हैं जिन्हें पूरा करने के लिए आपको एक ऐसा व्यक्ति बनना पड़ेगा जो भविष्यवाणी कर सके। वे कहती हैं कि, ‘उनमें से कुछ के पास निवेश और परिणाम को देखने का एक्रेखीय तरीक़ा होता है। इससे आपको अपनी प्रतिक्रिया देने या जिन लोगों की आप सेवा करते हैं उनके नेतृत्व का अनुसरण करने का अवसर नहीं मिलता है। किसी योजना को अति-अनुदेशात्मक बनाने से संगठन की उन चीजों का पता लगाने की क्षमता खत्म हो जाती है जो अधिक रचनात्मक और टिकाऊ होती हैं।’
बहुत अधिक महत्वपूर्ण होने के बावजूद भी, समाजसेवी संगठनों में फंडरेजिंग के लिए आवश्यक टूल और क्षमता निर्माण पर बहुत अधिक ध्यान नहीं दिया जाता है। ज़्यादातर डोनर, किसी संगठन की गैर-प्रोग्रामेटिक लागतों का भुगतान करने में रुचि नहीं दिखाते हैं जिसमें फंडरेजिंग, संचार, प्रभाव माप और ऐसे ही कारक शामिल होते हैं। हालांकि, इनमें से किसी भी काम में अपेक्षाकृत छोटे निवेश का समाजसेवी संस्थाओं और उनके द्वारा सेवा किए जाने वाले समुदायों दोनों पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है। क्षमता-निर्माण अनुदान ने अध्ययन और आरबी को धन उगाहने में निवेश करने की अनुमति दी। और ऐसा करने से न केवल संगठनों का बजट बढ़ा, बल्कि उन्हें एक मजबूत टीम बनाने, अपने काम का विस्तार करने और जिन समुदायों की वे सेवा करते हैं, उनके साथ सही काम करने में भी मदद मिली। अपनी यात्राओं के माध्यम से, ये दोनों संगठन अविश्वसनीय रूप से उच्च रिटर्न का प्रदर्शन करते हैं जो समाजसेवी संस्थाओं की मुख्य लागतों में निवेश करने, चीजों के गलत होने की चिंता न करने और सीखने और फिर से प्रयास करने पर ध्यान केंद्रित करने से आता है।
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अनुश्री एवं कुलदीप के बारे में
अनुश्री अल्वा अध्ययन की सीईओ और संस्थापक टीम की सदस्य हैं। वे एक शिक्षक हैं और पिछले 10 वर्षों में भारत, पूर्वी एशिया और अमेरिका में शैक्षिक कार्यक्रमों का नेतृत्व का अनुभव रखती हैं। अध्ययन से पहले अनुश्री ने टीच फॉर इंडिया, इंटरनेशनल रेस्क्यू कमिटी, ग्लोबल नोमैड्स ग्रुप, और सैंक्चुअरी फॉर फ़ैमिलिज के लिए काम कर चुकी हैं। उन्होंने कोलंबिया यूनिवर्सिटी के टीचर्स कॉलेज से शिक्षा में एमए किया है। अनुश्री मिलर सेंटर की पूर्व छात्रा है, जो त्वरक कार्यक्रम का एक महिला नेतृत्व वाला समूह है; और टीचर्स कॉलेज के भारत चैप्टर की आयोजन समिति में हैं।
कुलदीप दांतेवाडिया रीप बेनिफिट के सह-संस्थापक और सीईओ है। उन्होंने बिज़नेस मैनेजमेंट में बीए किया है। इसके अलावा कुलदीप ने पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन और रणनीतिक गैर-लाभकारी प्रबंधन से जुड़े कई शॉर्ट-टर्म कोर्स भी किए हैं। कुलदीप अशोका फेलो, अनरिजनेबल फेलो रहे हैं, और आर्किटेक्ट ऑफ़ द फ्यूचर, और यूनिलीवर यंग एंटरप्रेन्योर अवार्ड से सम्मानित भी हो चुके हैं।
यह लेख मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुआ है और यह इसका संक्षिप्त संस्करण है।
पिछले कुछ दशकों से वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन के घातक प्रभाव देखने को मिल रहे हैं। इनका मुख्य कारण ईंधनों से होने वाला कार्बन उत्सर्जन है। दुबई में 5 दिसंबर को हुए कॉप-28 जलवायु सम्मेलन (कांफ्रेंस ऑफ़ दी पार्टीज़) में जारी किए गए ग्लोबल कार्बन बजट रिपोर्ट के अनुसार साल 2022 में कार्बन उत्सर्जन अपने रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गया था।
इसी क्रम में दुनिया भर के देश, वैश्विक स्तर पर कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों को विकसित करने और इसके मुख्य पारंपरिक स्रोत कोयला के इस्तेमाल को धीरे-धीरे कम करते हुए इसे बंद करने की बात कर रहे हैं।
दुनिया भर में ऊर्जा के स्रोतों में बदलाव लाने की इस प्रक्रिया को न्यायसंगत परिवर्तन यानी कि ‘जस्ट ट्रांज़िशन’ का नाम दिया गया है। इसके पीछे का मूल भाव यह है कि वातावरण और पर्यावरण में प्रदूषण को बढ़ाने वाले ऊर्जा के स्रोतों (मुख्य रूप से जीवाश्म ईंधन) का इस्तेमाल बंद करके, इसकी जगह ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों को अपनाने की ऐसी प्रक्रिया होनी चाहिए जो सभी के लिए उचित और न्यायसंगत हो। आसान शब्दों में कहें तो परिवर्तन की इस प्रक्रिया के केंद्र में आर्थिक, नस्लीय और लैंगिक न्याय होना चाहिए तथा सबसे अधिक प्रभावित होने वाले समुदायों का हित ध्यान में रखा जाना चाहिए। जस्ट ट्रांज़िशन का एक उद्देश्य ऊर्जा के अन्य स्रोतों जैसे खनिज, तेल और गैस आदि को लेकर बनाई गई नीतियों में व्याप्त ग़लतियों को ना दोहराते हुए लोगों की सहमति के बिना उनकी आजीविका के स्रोत जैसे ज़मीन, जंगल आदि ना लेने के साथ ही उन्हें न्यायपूर्ण मुआवज़ा देना भी है।
लेकिन भारत के दो राज्यों, छत्तीसगढ़ और झारखंड के दस कोयला-निर्भर गांवों के लोगों की हालत देखकर यह कहा जा सकता है कि दुनिया में होने वाले सभी परिवर्तन, न्यायसंगत नहीं हो सकते हैं। साथ ही इससे यह एहसास भी मजबूत होता है कि आर्थिक विविधीकरण, वैकल्पिक रोज़गारों, नौकरियों, प्रशिक्षण और लोगों को नये तरीक़े से दोबारा कुशल बनाने के विचार की आंच धीमी पड़ जाती है।
दुनिया के बाक़ी देशों में जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल बंद होने और ‘जस्ट ट्रांज़िशन’ की प्रक्रिया से जुड़ी बातचीत के केंद्र में इससे प्रभावित लोगों के लिए आजीविका के वैकल्पिक स्रोतों के निर्माण की बात कही गई है। लेकिन क्या भारत के लिए भी यही स्थिति संभव हो सकती है? भारत में कोयला बिजली उत्पादन का मुख्य स्रोत है। साल 2022-23 में भारत ने अपने 73 फ़ीसद बिजली का उत्पादन कोयला से किया है। ऐसे में भारत की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा कोयला खनन की पूरी प्रक्रिया से औपचारिक और अनौपचारिक दोनों तरह से जुड़ा हुआ है। कहने का मतलब यह है कि कोयला खदानों वाले क्षेत्रों जैसे कि झारखंड एवं छत्तीसगढ़ राज्य के हज़ारीबाग़, रामगढ़ और कोरबा ज़िलों के स्थानीय लोगों की आजीविका प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों ही रूपो में कोयला पर आधारित है। खदानों के शुरू होने से पहले इन ज़िलों के लोगों का मुख्य पेशा खेती था। लेकिन कोयला खनन के लिए किए जाने वाले भूमि अधिग्रहण में इनमें से अधिकतर की ज़मीनें चली गईं और वे भूमिहीन हो गये। हालांकि, इस भूमि अधिग्रहण के बदले लोगों को मुआवज़ा और नौकरियां मिलीं हैं लेकिन यहां रहने वाले लोगों का कहना है कि उन्हें अपनी ज़मीन के बदले मिलने वाली नौकरियों पर भरोसा नहीं है। दरअसल इनमें से ज़्यादातर नौकरियां अनौपचारिक हैं और बहुत हद तक कोयला अर्थव्यवस्था पर निर्भर हैं। इसके अलावा उनके सामने खाद्य सुरक्षा का भी संकट खड़ा होने लगा है। ऐसी कई चिंताएं हैं जो इन लोगों को अपनी ज़मीनों पर मालिकाना हक़ के मुद्दे पर सोचने के लिए लगातार मजबूर कर रही हैं।
पढ़ाई पूरी करके डिग्री हासिल कर चुके युवा भी नौकरी न होने कि वजह से यहां आर्थिक रूप से अपने माता-पिता पर ही निर्भर हैं।
भारत में कोयला-खदान बंद होने की स्थिति में ग्रामीण इलाक़ों के लोगों का जीवन किस प्रकार प्रभावित होगा इसका एक जीता-जागता उदाहरण झारखंड के रामगढ़ ज़िले का संथाल गांव महुआटांड है। 1980 के दशक में जब एक पीएसयू कंपनी ने यहां अपनी खदान लगाई थी तब उसमें इस गांव के लोगों ने ना केवल अपनी ज़मीन गंवाई बल्कि अपनी पैतृक संपत्ति के समाप्त होने के कारण उनके सामने खाद्य सुरक्षा और सुरक्षित भविष्य का संकट भी पैदा हो गया। ज़मीनों के अधिग्रहण के बाद यहां के लोग लगभग पूरी तरह से कोयला आधारित नौकरियों पर निर्भर हो गये थे। गांव के लोगों का कहना है कि ऐसे भी बहुत कम लोगों को ही नौकरियां मिली थीं और साल 2019 में यहां के खदान बंद होने के बाद जल्दी ही वे नौकरियां भी चली जाएंगी और लोग पूरी तरह से बेरोज़गार हो जाएंगे।
इसी गांव के निवासी बबलू हेम्ब्रम कहते हैं कि ‘मैंने कोयला खनन कंपनी में नौकरी के लिए एक लंबी लड़ाई लड़ी और अंत में साल 2016 में औपचारिक नौकरी हासिल की। और अब खदान में काम बंद होने के बाद से हर दिन केवल हाज़िरी बनाने के लिए जाता हूं।’ अपने परिवार के भविष्य के लिए चिंता जताते हुए दो बच्चों के पिता बबलू हेम्ब्रम आगे कहते हैं कि, ‘हम में से ज़्यादातर लोगों को इस बात का अफ़सोस है कि हमारे बुजुर्गों ने साल 1964 में नौकरी या मुआवज़े के एवज़ में अपनी ज़मीनें कोयला खदानों को दे दी थी। 1984 में कोयला खनन शुरू होने के बाद से मुआवज़े में मिले पैसे ख़त्म हो गये और नौकरी भी परिवार में केवल एक व्यक्ति को ही मिली थी। एक निश्चित उम्र के बाद यह नौकरी भी चली जाएगी। भविष्य में हम और हमारे बच्चे भीख मांगने की स्थिति में आ जाएंगे।’ इसी में अपनी बात जोड़ते हुए गांव की सरपंच किरण देवी ने कहा कि, ‘हमारे गांव की लगभग 75 फ़ीसद आबादी बेरोज़गार है। पढ़ाई पूरी करके डिग्री हासिल कर चुके युवा भी आर्थिक रूप से अपने माता-पिता पर ही निर्भर हैं।’ बीजू उरांव कहते हैं कि, ‘अगर कोई नया उद्योग विकसित भी हो जाता है तो क्या उसमें हम सब के लिए पर्याप्त नौकरी होगी?’ अब तक दक्षिणी और पश्चिमी राज्यों में ही विकसित ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों के विकास से इन क्षेत्रों के लोगों को किसी भी तरह की मदद मिलती नहीं दिखाई पड़ रही है।
उरांव समुदाय के शिवपाल भगत छत्तीसगढ़ में रायगढ़ ज़िले के सारसमाल गांव के सरपंच हैं। इस विषय पर पूछे जाने पर शिवपाल भगत ने बताया कि उनका परिवार पिछले चार पीढ़ियों से इस क्षेत्र में रह रहा है, लेकिन इससे पहले उनमें इस तरह की आर्थिक असुरक्षा का भाव कभी नहीं आया था। वे कहते हैं कि, ‘2007 में हमने अपनी ज़मीनें कोयला खदानों को दे दी। उसके बाद से अब तक हम लोग लगभग भटक रहे हैं। हमने सोचा था कि खदानों के आने से हमारे क्षेत्र में विकास आएगा और हमें स्थायी रोज़गार मिलेगा। लेकिन बदले में हम में से कुछ लोगों को ठेकेदारों के यहां मज़दूरी का काम मिला।’ उनके भाई कुलदीप भगत ने बताया कि ‘अपनी ज़मीनें कंपनियों के हाथों बेचते समय हमारे माता-पिता के पास आवश्यक सूचना और जानकारियां नहीं थीं।’
भारत में कोयला खनन की प्रक्रिया में लगातार तेज़ी देखने को मिली है। साल 2015 से 2022 के बीच भारत में कोयला की 22 नई खदानें खुलने के साथ ही 93 नई कोयला परियोजनाओं को मंज़ूरी दी गई। लेकिन इसके बावजूद भी कोयला क्षेत्र में रोज़गार में वृद्धि ना के बराबर हुई है। इसके अलावा, कोयला खनन की प्रक्रियाओं का मशीनीकरण, निजी ठेकेदारों की बढ़ती भागीदारी और खनन विकास ऑपरेटरों (एमडीओ) का बढ़ता वर्चस्व लोगों और कोयले के बीच के रिश्ते को बहुत अधिक प्रभावित कर रहा है। एक अनुमान के अनुसार, इस क्षेत्र में औपचारिक श्रमिकों की संख्या की तुलना में अनौपचारिक श्रमिकों की संख्या लगभग ढाई गुना अधिक है।
कुछ स्थानीय लोगों का कहना है कि खदानों के ठेकेदार और एमडीओ आमतौर पर दूसरे राज्यों से आने वाले लोगों को काम पर रखना पसंद करते हैं। खदानों में काम करने वाले प्रवासी कर्मचारियों के रहने की व्यवस्था भी कंपनी के परिसर में ही की जाती है और वे कई महीनों तक बिना छुट्टी लिए लगातार काम करते हैं। इस मुद्दे पर बोलते हुए क्षेत्र के एक स्थानीय व्यक्ति ने कहा, ‘कंपनी के लोगों का मानना है कि हम लोग बहुत अधिक छुट्टियां लेते हैं, जिसके कारण उनका काम प्रभावित होता है।’
कोयला क्षेत्र में काम करने वाले ज़्यादातर स्थानीय लोगों के जीवन में कोयला की भूमिका विवादास्पद है। झारखंड के हजारीबाग ज़िले के चुरचू गांव के दो लोगों को इस बात की ख़ुशी है कि वे लोग अपनी पूर्वजों की ज़मीन के बदले मुआवज़े में नौकरी पाने में सफल रहे। हालांकि, नाम ना बताने की शर्त रखते हुए इन दोनों ने यह भी आरोप लगाया कि उन्हें हर दो महीने में अलग-अलग कंपनियों से वेतन पर्ची मिलती है। ऐसी स्थिति में उन्हें कई तरह की चिंताएं सताती हैं जैसे कि वे किन लोगों के लिए काम कर रहे हैं, और ऐसी कौन सी शर्तें हैं जिनके आधार पर उनकी नौकरी जा सकती है या फिर रोज़गार चले जाने की स्थिति में वे किसी तरह के मुआवजे के हक़दार होंगे भी या नहीं। सारसमाल में अब एक ठेकेदार के लिए गार्ड की नौकरी करने वाले एक आदमी का आरोप है कि उसे खनन कंपनी में सफाई के काम से हटा दिया गया क्योंकि मेडिकल जांच के बाद उसकी एक आंख कमजोर पाई गई। इसी क्रम में, रायगढ़ के टपरंगा में, स्थानीय कर्मचारियों के यूनियन नेता ने हमें बताया कि जल्द ही उनसे उनकी नौकरियां चली जाएंगी, और इसके बाद उन्होंने हमें अपनी वह बस्ती दिखाई जहां के घरों में खदानों में होने वाले ब्लास्ट के कारण या तो दरारें आ गई हैं या फिर वे पूरी तरह से ढह चुके हैं।
भगवान दास* भुजांगकछार के रहने वाले हैं। यह गांव, छत्तीसगढ़ के कोरबा ज़िले में कोयला की एक खदान के बिलकुल नज़दीक बसा हुआ है। बातचीत के दौरान भगवान दास बताते हैं कि पहले उनकी खेती वाली ज़मीन खदान में चली गई थी और अब खनन का काम उनके घर के बिलकुल क़रीब पहुंच चुका है। दिन-रात उन्हें इसी बात की चिंता सताती रहती है कि देर-सेवर उनका घर भी कोयला-खदान की बलि चढ़ जाएगा। उनके साथ रहने वाला उनका बेटा श्याम दास* उसी खदान वाली कंपनी में एक ठेकेदार के लिए काम करता है और कंपनी, जल्दी ही उनकी घर वाली ज़मीन पर भी कब्ज़ा करने वाली है। उसके कई साथी इसी असमंजस में जी रहे हैं। उनमें से ही एक रनसाही सोनपकट, का कहना है कि वे अपना भविष्य दांव पर लगा रहे हैं। वे कहते हैं कि, ‘हालांकि मेरे पास पहले उतनी ज़मीन नहीं बची है लेकिन फिर भी मैं अपनी बची हुई ज़मीन पर खेती का काम जारी रखना चाहता हूं। संभव है कि मेरे बच्चों को नौकरी मिल जाएगी। लेकिन अगर नहीं मिली तो उस स्थिति में उनके पास अपनी खेती के लिए ज़मीन तो होगी ना!’
झारखंड की लगभग 42 फ़ीसद और छत्तीसगढ़ की लगभग 29 फ़ीसद आबादी कई स्तरों पर ग़रीबी की मार झेल रही है। इन क्षेत्रों में रहने वाले ज़्यादातर लोगों का मानना है कि ज़मीन पर मालिकाने हक़ का सीधा संबंध खाद्य सुरक्षा से है। झारखंड के ढेंगा में बने एक पुनर्वास कॉलोनी में रहने वाले राम सेवक बादल कहते हैं कि, ‘जब हमारे पास अपनी ज़मीन थी तब हमें कभी भी खाने की कमी नहीं हुई। अब हमें सब कुछ ख़रीदना पड़ता है और हमारा वेतन इतना नहीं है कि हम सब कुछ ख़रीद सकें।’
सारसमाल की 60 वर्षीय बुजुर्ग महिला भगवती भगत महुआ, तेंदू और अन्य वनोपज के सहारे अपना घर चलाती थीं। वे कहती हैं कि, ‘मैं साल के छह महीने काम करती थी और बाक़ी के छह महीने बिना काम किए भी मेरा आराम से गुजर-बसर हो जाता था। छह महीने की कमाई से मैं साल भर अपने परिवार का पेट भर सकने में सक्षम थी। अब ज़मीनों के खदान में चले जाने के कारण वनोपज में भी कमी आ गई है। इसके अलावा, जंगल में जाने के लिए खदान के टीलों पर चढ़कर जाना पड़ता है जो कि बहुत ही ख़तरनाक है। पहले हम लोग बहुत ज़्यादा मोरिंगा खाते थे। अब इनके पेड़ कोयला से ढंक गये हैं और इन्हें पकाने से पहले कई बार धोना पड़ता है।’ कोयला-संबंधित विस्थापन के कारण भगवती भगत जैसी स्थानीय महिलाओं का जीवन बहुत ज्यादा प्रभावित हुआ है जिनके लिए खेतिहर मज़दूरी करके या वनोपज के सहारे अपनी आजीविका चलाना ज्यादा बेहतर था।
जब हम अपनी ज़रूरतों को पूरा करने और पेट भरने के लिए साइकिल और मोटरबाइक पर कोयला ढोते हैं तो उसे चोरी का नाम दे दिया जाता है।
महुआटांड की आबादी का एक बड़ा हिस्सा जहां अपने जीवनयापन के लिए अन्य क्षेत्रों और राज्यों में पलायन कर चुका है, वहीं वहां बच गए लोगों के लिए अनौपचारिक कोयला खनन ही एकमात्र विकल्प रह गया है। महिलाओं और किशोर लड़के-लड़कियों की एक लंबी क़तार नीचे खदान के अंदर अंधेरे में जाती हुई दिखाई पड़ती है। इनमें से कुछ के हाथ में मोबाइल फ़ोन होता है जिसका इस्तेमाल वे टॉर्च के रूप में करते हैं। अमूमन पतले और छोटे कद वाले लोगों के लिए इन भूमिगत खदानों में प्रवेश कर पाना अपेक्षाकृत आसान होता है। हालांकि कंपनी ने इस अवैध खनन को रोकने के लिए खदानों के चारों ओर गहरे गड्ढे खोद दिये हैं लेकिन भूख और ज़रूरत के मारे लोगों ने इसमें से भी अपने लिए रास्ता ढूंढ़ निकाला है। इस मामले में पूछे जाने पर राम मांझी* कहते हैं कि, ‘अगर मैं कोयला इकट्ठा करके इसे नहीं बेचूंगा, तो मेरे घर में रात का चूल्हा नहीं जल पाएगा। अगर इसी कोयला को कंपनी वाले ट्रक में लादकर ले जाते हैं तो इसे विकास कहा जाता है। लेकिन जब हम अपनी ज़रूरतों को पूरा करने और पेट भरने के लिए साइकिल और मोटरबाइक पर कोयला ढोते हैं तो उसे चोरी का नाम दे दिया जाता है।’ मांझी भी खनन के कारण विस्थापित हुए ऐसे हज़ारों-लाखों लोगों में से एक हैं जिन्हें ना तो मुआवज़ा मिला और ना ही नौकरी। मांझी आगे बताते हैं कि, ‘कोयला खनन कंपनी ने हमसे हमारा घर खाली करवा दिया। अपने घर से निकलकर मैंने पास के ही एक जंगल में अपने रहने की व्यवस्था की। लेकिन अब वन विभाग के अधिकारियों ने मुझ पर वन भूमि पर अतिक्रमण का मामला दर्ज करवा दिया है।’
नई खनन परियोजनाओं द्वारा भूमि अधिग्रहण के मामले से जूझ रहे ग्रामीण समुदायों ने ‘कोयला’ गांवों के इतिहास से सीखा है। झारखंड के जुगरा और छत्तीसगढ़ के पेल्मा जैसे गांवों में स्थानीय लोग लगातार विस्थापन का विरोध कर रहे हैं। इस विषय पर झारखंड के विष्णुगढ़ के एकता परिषद के कार्यकर्ता चुन्नूलाल सोरेन का कहना है कि स्थानीय लोगों को इस बात की जानकारी है कि कोयला उद्योग का जीवन बहुत लंबा नहीं है और संभव है कि उन्हें मुफ़्त में अपनी ज़मीन खोनी पड़े।
सुधलाल साव जुगरा में गन्ना किसान हैं और वे अपने दो बेटों, बहू और पोते-पोतियों के साथ मिलकर गुड़ बनाने का काम करते हैं। वे कहते हैं कि, ‘मैं पैसों के लिए अपनी इस पैतृक संपत्ति को किसी को नहीं दे सकता हूं। इससे हम मालिक से नौकर में बदल जाएंगे। आप देख सकते हैं मेरे आसपास क्या हो रहा है। क्या वे पीढ़ी दर पीढ़ी परिवार के प्रत्येक सदस्य को नौकरी देंगे?’ उसी गांव के सामाजिक कार्यकर्ता कैलाश साव मानते हैं कि गांव की उपजाऊ ज़मीन पर कोयला खनन करना मूर्खता है। वे कहते हैं कि, ‘बरकागांव (जहां वे रहते हैं) को इस क्षेत्र में चावल का कटोरा कहा जाता है। इतनी उपजाऊ ज़मीन का उपयोग कोयला खनन के लिए क्यों किया जा रहा है?’
जुगरा के एक सरकारी स्कूल के संविदा शिक्षा रामदुलार साव बताते हैं कि, ‘अगर उन्हें तीन या चार दशकों में खदान बंद करनी है तो वे अब जमीन क्यों अधिग्रहित कर रहे हैं। इतिहास ने हमें सिखाया है कि तुरंत मिलने वाले फ़ायदों के लिए हमें अपनी ज़मीनें किसी को नहीं दे देनी चाहिए।’ साल 2018 में, जुगरा के निवासियों ने ज़िला प्रशासन को शिकायत की थी कि उनसे जबरदस्ती जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा है।
छत्तीसगढ़ में स्थानीय लोग 2011 से कोयला सत्याग्रह के माध्यम से औद्योगिक खनन का विरोध कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ के पेल्मा गांव के लगभग सभी निवासी इस बात से सहमत हैं कि उनके गांव में कोयला खनन शुरू हो जाने से उनका भविष्य बेहतर नहीं बल्कि स्थिति ज्यादा बदतर हो जाएगी। पेलमा की ही निवासी राजबाला* का मानना है कि अगर उसकी ज़मीन ले ली गई तो यह उसके लिए विनाशकारी होगा। वे कहती हैं कि, ‘यह एक बहुत बड़ा नुक़सान होगा। मैं चाहती हूं कि मेरे बच्चे यहीं रहकर खेती-किसानी करें।’
खनन करने वाली कंपनियों को क़ानून का पालन करना चाहिए ताकि स्थानीय समुदाय दोबारा इन ज़मीनों का इस्तेमाल कर सकें।
शिवपाल भगत बताते हैं कि भावी उद्यमों में मिलने वाली नौकरियां उनके और उनके लोगों की जीविका को सुरक्षित करने के लिए पर्याप्त नहीं होंगी, इसलिए वे अपने इलाक़े में होने वाले खनन से प्रभावित अधिकांश लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे कहते हैं कि, ‘हमारे अस्तित्व के बचे रहने के लिए खेती की ज़मीन का होना बहुत ज़रूरी है।’ भगत उन लोगों में से हैं जिन्होंने अन्य कारणों के अलावा, खनन द्वारा नष्ट की गई ऊपरी मिट्टी की भरपाई करने में विफल रहने के लिए एक खनन कंपनी से पर्यावरणीय क्षति की मांग करते हुए याचिका दायर की थी। उनकी मांग है कि खनन करने वाली कंपनियों को क़ानून का पालन करना चाहिए। खनन पूरा हो जाने के बाद कंपनियों को गड्ढों में मिट्टी को भरकर ज़मीन समतल करने के बाद उसके ऊपरी परत के संरक्षण के उपाय करने चाहिए ताकि स्थानीय समुदाय दोबारा इन ज़मीनों का इस्तेमाल कर सकें। टपरंगा के यूनियन नेता का कहना है कि बंजर ज़मीन भी हमारे लिए उपयोगी हो सकती है। हम लोग इन ज़मीनों का उपयोग आजीविका के अन्य विकल्पों जैसे कि मछली पालन, पशुपालन आदि के लिए कर सकते हैं।
हालांकि, भारत में समुदायों को उनकी ज़मीन वापस देने की प्रक्रिया को सुनिश्चित करने वाले क़ानूनों की कमी है। एकता परिषद के राष्ट्रीय संयोजक रमेश शर्मा कहते हैं कि, ‘एक बार जब सरकार खनन के लिए भूमि अधिग्रहण कर लेती है तो बाद में वह इसका इस्तेमाल अन्य परियोजनाओं के लिए कर सकती है या फिर किसी निजी कंपनी को पट्टे पर दे सकती है। यहां तक कि ऊर्जा के वैकल्पिक और नवीकरणीय स्त्रोतों जैसे कि सौर या पवन ऊर्जा के संयंत्रों के लिए भी निजी कंपनियों को अगर ज़मीन की ज़रूरत है तो उन्हें और बड़ी मात्रा में ज़मीनें मिलेंगी। हालांकि ये ज़मीनें इसके मूल निवासियों और उन किसानों को वापस लौटा दी जानी चाहिए जो इसके असली मालिक हैं। कई समुदाय मिलकर भी इन ज़मीनों पर अपना मालिकाना हक़ बनाए रख सकती हैं।’
देश के लगभग 120 जिलों के लोगों का जीवन यहां पाए जाने वाले जीवाश्म-ईंधन या इससे जुड़े उद्योगों पर सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से निर्भर है। न्यायसंगत परिवर्तन की दिशा में किसी भी तरह की रणनीति बनाने से पहले यह आवश्यक है कि भारत इन सबसे अधिक प्रभावित होने वाले स्थानीय लोगों की ज़रूरतों को केंद्र में रखे और तभी आगे बढ़े। मौजूदा हालात को देखते हुए इस बात की संभावना से बिलकुल इंकार नहीं किया जा सकता है कि खनन वाले क्षेत्रों के स्थानीय लोगों की ज़रूरतें संभवतः बहुत गहराई से उनकी ज़मीनों से जुड़ी होती हैं।
*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नामों को बदल दिया गया है।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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वर्तमान में प्रत्येक संगठन के लिए यह आवश्यक है कि वह संचार को अपनी रणनीति का एक प्रमुख हिस्सा बनाए। ख़ासतौर पर समाजसेवी संगठनों के पास, संचार रणनीति को लागू करने के लिए एक स्पष्ट और सटीक सोच-प्रक्रिया होने से उनका प्रभाव बढ़ाने में, लोगों में अपने ब्रांड की पहचान बनाए रखने में और क्रियान्वयन को प्रेरित करने की गति को तेज़ी मिल सकती है। इसके अलावा, ज़्यादातर संगठन संचार में निवेश को लेकर संघर्षरत रहते हैं। दरअसल, संचार के लिए अलग से धन और मानव संसाधन का प्रबंधन करने में सक्षम संगठन भी कई बार इस काम को ऐसे करते हैं कि वह अनौपचारिक और अंत में प्रभावहीन होता है।
यह अध्ययन एक संगठन – विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी – के मुख्य कार्य के रूप में संचार के साथ संबंध के विकास को रेखांकित करता है। इस लेख को पढ़ें और समझें कि उनकी संचार रणनीति कैसे बनी – विशेष रूप से, उन्होंने संचार में निवेश की आवश्यकता पर क्यों विश्वास किया, वे ऐसा कैसे करते रहे, और इस दौरान उन्होंने क्या सीखा।
विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी जनता के हित को ध्यान में रखकर शासन में सुधार के लिए कानूनी शोध करती है। वे कानून निर्माण और कानूनी नीति की जानकारी देने के लिए केंद्र सरकार, राज्य सरकारों और विभिन्न अन्य सार्वजनिक संस्थानों के साथ जुड़ते हैं। इसके अलावा, उनके काम के मुख्यरूप से में यह सुनिश्चित करना शामिल है कि उनका शोध जनता के लिए सुलभ हो ताकि यह चर्चा को आकार दे सके।
रणनीतिक संचार संगठन को उनके प्रभाव लक्ष्यों को प्राप्त करने में बड़ी भूमिका निभाने वाला रहा है, लेकिन इसका लाभ उठाने का तरीका सीखने की इस यात्रा में बहुत कुछ जानने को मिला।
साल 2013 में जब विधि की स्थापना हुई, तब इसकी टीम में मुख्यरूप से वकील शामिल थे। इन सभी की पृष्ठभूमि शैक्षणिक, मुक़दमेबाज़ी और क़ानूनी फ़र्म की थी। इन शुरुआती वर्षों में, संगठन को संचार की प्रासंगिकता, महत्व और दायरे को समझने के लिए संघर्ष करना पड़ा। इसके सह-संस्थापक आलोक प्रसन्ना कहते हैं कि ‘हमने संचार को कभी भी अपने काम का महत्वपूर्ण पहलू नहीं माना।’
जब संगठन का काम जोर पकड़ने लगा तब संचार रणनीति को विकसित करने की जरूरत महसूस होने लगी। आलोक आगे बताते हैं कि ‘पहले से अधिक लोग हमारे काम पर अपनी प्रतिक्रिया दे रहे थे और इसे सरकार द्वारा किए जाने वाले कामों से जोड़ कर देख रहे थे, और इसमें कुछ नकारात्मक प्रतिक्रियाएं भी मिलीं।’ इस बिंदु पर, विधि ने संचार के लिए एक प्रतिक्रियात्मक दृष्टिकोण विकसित करना शुरू किया। आधार मामले पर विधि के काम को भी जब जनता की नकारात्मक प्रतिक्रिया मिली तो इस प्रतिक्रियाशील दृष्टिकोण को एक ठोस संचार रणनीति माना गया। आलोक ने बताया कि ‘जब भी कोई हमारे बारे में कुछ कहता तो टीम के सदस्य संचार को अपने बचाव के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले एक टूल के रूप में देखते थे।’
उन दिनों, टीम के सदस्यों ने संचार सामग्री (जैसे कि वेबसाइट, बाहरी बातचीत और अन्य सामग्री) को तैयार करने को एक ऐसे काम के रूप में देखा जिसे किसी भी तरह पूरा किए जाने की ज़रूरत है। आलोक यह भी बताते हैं कि संचार को एक कार्यान्वयन प्रक्रिया की तरह इस्तेमाल किया गया जिसका उद्देश्य हमारे काम की बारीकी से जांच करना था।
यह परिप्रेक्ष्य तब बदल गया जब विधि के योगदान से तैयार हुआ वित्तीय समाधान और जमा बीमा (एफआरडीआई) विधेयक को सार्वजनिक कर दिया गया। इस विधेयक में एक ‘बेल-इन’ क्लॉज़ का प्रस्ताव रखा गया जो दिवालिया बैंक में जमा धारकों को उनकी जमा राशि को शेयरों में परिवर्तित करके सुरक्षा प्रदान करेगा। इसे करदाताओं के धन का उपयोग किए बिना जमा धारकों की सुरक्षा करने के एक साधन के रूप में माना जाता था। हालांकि, नोटबंदी के एक-आध साल बाद लोगों को इस बात की चिंता हुई कि क्या विधेयक के इस क्लॉज़ का उपयोग उनकी जमा राशि को बैंक शेयरों में बदलने के लिए किया जाएगा। लोगों से मिलने वालों नकारात्मक प्रतिक्रिया के कारण सरकार को इस विधेयक को वापस लेने पर मजबूर होना पड़ा, नतीजतन विधि की पूरी मेहनत बर्बाद हुई। विधेयक पर मिली लोगों की नकारात्मक प्रतिक्रिया के कारण विधि के नेतृत्व मंडल को इस बात का एहसास हुआ कि उनके मुख्य मूल्यों के अलावा उनके काम के पीछे का विचार और इरादा लोगों तक नहीं पहुंच रहा था।
आलोक अपनी बात को बढ़ाते हुए कहते हैं कि ‘लोगों को एफ़आरडीआई के बारे में बताने को लेकर किसी भी तरह की तैयारी नहीं की गई थी, नतीजतन लोग घबराहट में प्रतिक्रिया कर रहे थे। और, यही वह समय था जब हमें इस बात का एहसास हुआ कि हमारे लिए लोगों यह बताना महत्वपूर्ण है कि हमारा काम सार्वजनिक हित में हैं।’
कुछ ही दिनों में, विधि को यह बात समझ में आ गई कि संचार ही वह माध्यम है जिसका उपयोग करके संगठन अपने काम और मूल्यों के बारे में जनता को बता सकता है। उन्हें इसे लेकर थोड़ा अधिक सक्रिय होना होगा क्योंकि संचार का महत्व सोशल मीडिया से कहीं अधिक था। आलोक बताते हैं कि ‘हमारे शोध के केंद्र में जनता होती है। हम व्यापक जनहित के लिए काम कर रहे हैं, चाहे हम सरकार के साथ काम कर रहे हों या किसी मुद्दे पर नई रिपोर्ट पर काम कर रहे हों, हमारा सारा काम जनता से संबंधित होता है।’
इस एहसास के बाद ही विधि एक ठोस रणनीति में अपनी ऊर्जा लगाने के लिए तैयार हो सका; हालांकि, उन्हें अब भी इसके तरीक़े के बारे में सीखने की जरूरत थी।
जब संचार के प्रबंधन की बात आती है तब संगठन इस काम के लिए अक्सर किसी पीआर फर्म की सेवाओं को एक विश्वसनीय और आसान तरीक़े के रूप में देखा जाता है। विधि ने भी शुरुआती दौर में इसी रास्ते को अपनाया। लेकिन जहां पीआर फर्म मीडिया तक पहुंचने और किसी ख़ास उद्योग के लिए कारगर तरीक़े के बारे में जानते हैं, वहीं अक्सर वे अपने ग्राहकों को एक तय दायरे (कॉर्पोरेट, जीवनशैली आदि) में फिट कर देते हैं। आलोक इस बात पर जोर देते हैं कि ‘वे इनमें से किसी एक में आपको रखने का प्रयास करते हैं क्योंकि उनके काम करने का तरीक़ा ही यही है। वे ऐसी फर्म होते हैं जिनके पास आपके अलावा भी सैकड़ों ग्राहक हैं।’ विधि जैसे शोध संगठन के पास बहुत अधिक सामग्री होती है। किए जा रहे शोध के विषय को समझे बिना इसके बारे में लोगों को बताना जटिल होता है। विधि में संचार विभाग की प्रमुख ऋचा बंसल कहती हैं कि ‘शोध संगठन में संचार की प्रक्रिया सुगम होनी चाहिए क्योंकि कोई उपयोगकर्ता सीधे इससे जुड़ा नहीं होता है। इसलिए, लोगों को इस बात के महत्व को समझना होगा कि प्रभावशाली नीति वास्तविक कार्रवाई में कैसे परिवर्तित होगी। इसके अलावा, हमें इस बात को लेकर स्पष्ट करना होगा कि ये पहले से ही रुचि रखने वाले लोग हैं, लेकिन इनके पास इस विषय के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं है।’
जबकि पीआर फर्म कई तरह की संचार गतिविधियों में लगी हुई थी, लेकिन विधि के काम को लेकर पूरी समझ नहीं होने के कारण वे असफल रहे। आलोक कहते हैं, ‘हम बहुत सारी अलग-अलग चीजें कर रहे थे और सब कुछ ठीक ही लग रहा था, लेकिन एक पूरी कहानी नहीं बन रही थी।’ एकजुटता की कमी थी। वे आगे बताते हैं कि ‘जिस चीज ने हमें इस समस्या से निपटने में मदद की वह संचार से जुड़ी होने वाली समस्याओं को समझने में सक्षम होना था।’ विधि को यह बात समझ में आ गई थी कि उन्हें दो चीजों की ज़रूरत थी: प्रभाव को संप्रेषित करना, और एक ऐसी टीम का होना जो बता सके कि इस प्रभाव को कैसे व्यक्त किया जाए।
विभिन्न हितधारकों, संचार पेशेवरों और बोर्ड के सदस्यों के साथ हुई बातचीत के माध्यम से विधि ने यह जाना कि उन्हें अपने काम के प्रति गंभीर रूप से प्रतिबद्ध किसी व्यक्ति की जरूरत थी। आलोक विस्तार से बताते हुए कहते हैं कि ‘हम अपनी तरह का अलग काम कर रहे हैं। हम ना तो पूरी तरह से एक क़ानूनी फर्म हैं और ना ही पूरी तरह से एक समाजसेवी संस्था हैं। हम कई ‘ना’ किए जाने वाले कामों का एक जत्था हैं। और हम केवल इतना ही चाहते थे कि हमें इस बात को समझने वाला कोई मिल जाए।’
विधि के लिए, इसका सीधा मतलब यह था कि उन्हें किसी ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता थी जो संगठन के भीतर गहराई से जुड़ा हो। कोई ऐसा व्यक्ति जो शोधकर्ताओं की उनकी टीम से बात कर सके, और उन्हें यह दिखा सके कि वे अपने काम को जनता तक बेहतर ढंग से कैसे पहुंचा सकते हैं।
और, जब उन्होंने अपने बोर्ड में एक ऐसे व्यक्ति को शामिल कर लिया तो इसका प्रभाव तुरंत दिखाई पड़ने लगा। बाहर से, उन्होंने देखा कि उनकी वेबसाइट और ब्लॉग मीडियाकर्मियों और कानून के छात्रों के लिए एक उपयोगी संसाधन बन गए हैं। वहीं, आंतरिक रूप से पता चला कि एक संचार रणनीति का क्या प्रभाव हो सकता है, और यह प्रभाव पैदा करने में किस तरह से उनकी मदद कर सकती है।
ऋचा के मार्गदर्शन में, विधि ने बाहरी तौर पर अपने प्रभाव की कहानी सक्रिय रूप से बतानी शुरू की। ऋचा कहती हैं कि ‘हमने कहानी के माध्यम से अपने प्रभाव के बारे में लोगों को बताने का फ़ैसला किया – हमने वेबसाइट पर प्रभाव के लिए एक जगह बनाई और विधि का पहला प्रभाव रिपोर्ट प्रकाशित किया। इसका बहुत अधिक प्रभाव पड़ा। लोगों ने इस शोध को सकारात्मक इरादे के साथ अंत तक पहुंचने के एक साधन के रूप में देखा, जिसमें बाहरी हितधारकों द्वारा प्रमाणित किए गए ठोस उदाहरण भी शामिल थे। इस सक्रिय नरेटिव सेटिंग ने चुनौती को उल्टा कर दिया।’
साल 2020 में विधि एक इनहाउस संचार टीम को अपने साथ लेकर आई हैं, और उसके बाद से संगठन ने लोगों तक अपनी पहुंच और उनसे जुड़ाव में वृद्धि देखी। उदाहरण के लिए:
ऋचा कहती हैं कि ‘शुरुआत में, आप एक रणनीति बनाते हैं जो वास्तव में व्यापक होती है – अपनी कहानी कैसे बताएं, उस कहानी को कैसे बढ़ाएं, मीडिया तक कैसे पहुंचें, सामयिकता का लाभ कैसे उठाएं, चल रही बातचीत में कैसे शामिल हों, और कैसे इसे अधिकतम लोगों तक पहुंचाएं। लेकिन समय के साथ, जैसे-जैसे संगठन विकसित होता है, एक विस्तृत दृष्टिकोण का एहसास होता है। विधि के मामले में इस काम को हमने यह सुनिश्चित करते हुए किया था कि सभी टीम अक्सर संचार रणनीति के साथ जुड़ी रहती हैं, और प्रभाव को संप्रेषित करने के लिए वकालत और प्रसार योजनाओं के निर्माण में शामिल होती हैं।’
उन्होंने इस काम को कुछ इस प्रकार किया था। विधि में शोध करने वाली प्रत्येक टीम को यह सोचने के लिए कहा जाता है कि उस शोध के लिए उनकी दो-वर्षीय या पंच-वर्षीय योजना क्या है – वे इसे कैसे प्रसारित करने की योजना बनाते हैं? किसी प्रोजेक्ट के शुरुआती चरणों में इन सवालों को ध्यान में रखने से विभिन्न टीमों को अपनी रिपोर्ट तैयार करते समय संचार और एडवोकेसी के नज़रिए का उपयोग करने में मदद मिलती है। इसके परिणामस्वरूप, जारी की गई रिपोर्ट अपने चाहे गए प्रभाव पैदा करने के लिए अनुकूलित होती हैं, चाहे उनका काम बदलाव लाना हो या लोगों का ध्यान आकर्षित करना हो या फिर दोनों।
यह महसूस करना कि रणनीतिक संचार का उपयोग उनके अनुसंधान और जमीन पर प्रभाव का लाभ उठाने के लिए किया जा सकता है, विधि के लिए एक गेम चेंजर था। इसकी प्रक्रिया को समझाते समय आलोक ने पंजाब में नशे की बढ़ती समस्या और उस समय क़ानून के प्रभाव का उदाहरण देते हैं। उनका कहना है कि ‘जब हम पंजाब में नशे की समस्या पर शोध किया, तब 30–40 अख़बारों ने हमारे इस शोध का परिणाम प्रकाशित किया। लेकिन एचएमआरए लक्ष्य यह नहीं था। हमारा लक्ष्य एक ऐसी बातचीत की शुरुआत करना था जिसमें इस बात की जांच की जाए कि क्या वह विशेष कानून भारत के लिए सही था। इसलिए, जब आर्यन खान ड्रग मामले में बहस शुरू हुई, तब हमने इसका फ़ायदा उठाने के बारे में सोचा- हम इस काम को करने में सक्षम थे क्योंकि हमारे पास ऋचा जैसी विशेषज्ञ थीं। ऋचा ने हमारा काम, हमारे आंकड़े लिये, इसे जनता के सामने लाया और हमारी मदद की ताकि हम इस पर बहस छेड़ सकें कि क्यों मामूली नशीली दवाओं को अपने पास रखने को अपराध की श्रेणी से बाहर किया जाना चाहिए।’
इस रणनीति का असर अभी भी दिख रहा है। आज, यदि आप गूगल पर ‘भारत में नशीली दवाओं को अपराधमुक्त करना’ जैसे विषय को खोजें तो विधि की रिपोर्ट अभी भी दिखाई देती है। इस तथ्य के बावजूद कि वे इस मुद्दे पर शोध करने वाले पहले (या आखिरी) नहीं थे, जब भी देश में लोग नशीली दवाओं के इस्तेमाल के बारे में बात करते हैं तो उनके शोध का हवाल दिया जाता है। अन्य शोध से उनकी शोध को अलग करने वाला कारक उनकी स्पष्ट संचार रणनीति थी: सही कहानी, सही समय पर, सही लोगों तक पहुंचाना। और परिणामस्वरूप, वे खुद को एक ऐसी जगह पर पाते हैं जहां कुछ समाजसेवी संस्थाएं होने का दावा कर सकती हैं – उनका शोध लोगों के सोचने के तरीके को बता रहा है; यह लोगों को उनकी वेबसाइट से आगे जाकर अन्य स्रोतों का इस्तेमाल करने के लिए प्रेरित कर रहा है।
प्रभाव को मापने के लिए, विधि अब प्रभाव रिपोर्ट विकसित करती है, जो सभी अलग–अलग टीमों के इनपुट के साथ बनाई जाती है।
प्रभाव को मापने के लिए, विधि अब प्रभाव रिपोर्ट जारी करती है, जो सभी अलग-अलग टीमों के इनपुट के साथ बनाई जाती है। जैसा कि ऋचा कहती हैं, ‘विधि जैसे संगठन पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इसके संकेतक कई आंतरिक बातचीत के बाद स्थापित किए गए थे। हम आज भी इसे बेहतर बनाने के लिए काम कर रहे हैं। और हम ऐसा करके लगातार इस बात को सुनिश्चित करते हैं कि हम अपने उद्देश्य के अनुसार सही काम कर रहे हैं।’
नए विचारों को विकसित करना और खोजना तथा पुराने विचारों का मूल्यांकन करना भी किसी संगठन के विकास का एक निरंतर हिस्सा है। ऋचा आगे कहती हैं कि ‘मुझे लगता है कि एक प्रमुख पहलू जो वास्तव में मदद करता है, वह है सीखने की उत्सुकता और आप जो कर रहे हैं उस पर दोबारा गौर करना ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि कोई भी अपने विचारों में फंसा न रहे। और यह वास्तव में बहुत महत्वपूर्ण है। वास्तव में जो प्रभाव हम देना चाहते हैं उसे देने के लिए हम जो कुछ अलग करते [सकते] हैं उसे देखने और उसका आकलन करने की क्षमता – वह रवैया वास्तव में मदद करता है ।’
किसी भी क्षेत्र में काम करने वाले समाजसेवी संगठन के लिए संचार को अपनी प्राथमिकता बनाना आवश्यक होता है। आलोक कहते हैं कि संचार ‘ज़रूरी नहीं है कि व्यापक पैमाने पर ही किया जाए। इसे फ़ंडर या सरकार जैसे कुछ तय हितधारकों तक भी सीमित रखा जा सकता है लेकिन यह जरूरी है कि इसे संगठन के लिए मौलिक माना जाए।’
ऐसा करने के लिए, नेतृत्व टीम को संचार को एक प्राथमिक गतिविधि के रूप में देखने की ज़रूरत है जो संगठन द्वारा किए जाने वाले काम से अलग नहीं होना चाहिए, बल्कि उस पर ही निर्मित और आधारित होना चाहिए। अगर संचार को एक अतिरिक्त टूल के रूप में देखा जाता है तो संगठन के लिए अपने लक्ष्यों को पाने की दिशा में आगे बढ़ने में कठिनाई होगी।
संचार में प्रारंभिक निवेश किसी संगठन के लिए बहुत मददगार हो सकता है। आलोक ज़ोर देते हुए कहते हैं कि ‘मैं संचार को आपके परिणामों का मौलिक पहलू मानता हूं। जब हम कोई प्रस्ताव भेजते हैं, तो उसमे हम शोधकर्ताओं पर होने वाले खर्च को एक वर्ग में और संचार, रणनीति और अन्य ख़र्चों को दूसरे वर्ग में दर्ज करके भेजते हैं। ज़रूरी यह है कि संचार को अतिरिक्त खर्च के रूप में नहीं देखा जाना ताकि इसे ख़ारिज करने या इसमें कटौती करने की गुंजाइश न रहे।’
इस निवेश को संगठन की ज़रूरतों को ध्यान में रखकर तय किया जाना चाहिए। संचार के लिए समर्पित एक पूरी टीम का होना महत्वपूर्ण नहीं है। लेकिन, संगठन की ज़रूरतों को समझने वाला और सही संचार प्रणाली को स्थापित करने की जानकारी रखने वाले किसी एक उचित व्यक्ति की नियुक्ति से भी बहुत बड़ा अंतर लाया जा सकता है।
टीम के अन्य सदस्यों के साथ सहयोगात्मक दृष्टिकोण संचार प्रयासों को सफल बनाने का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। ऋचा, संचार कार्य में अन्य टीमों को शामिल करने की आवश्यकता पर प्रकाश डालती हैं। इसके अलावा वह उन्हें प्रक्रिया समझाती हैं, उन्हें संचार टीम के साथ अपने काम की बारीकियों के बारे में बात करने के लिए कहती हैं, और उनके साथ एक कामकाजी संबंध स्थापित करती हैं। वे कहती हैं कि ‘यदि कोई संगठन कई क्षेत्रों में काम करता है, तो छोटी तस्वीर को समझने के लिए विभिन्न टीमों के साथ लगातार बातचीत करना महत्वपूर्ण है। यह रिपोर्ट बनाने या प्रस्तुत करने से अलग है। इसका संबंध इससे है कि वह रिपोर्ट किसी टीम के काम के बड़े कथन के साथ कैसे फिट बैठती है, और फिर उस टीम का काम संगठन के बड़े कथन में कैसे फिट बैठता है।’ इन बारीकियों तक पहुंच होने से संचार पेशेवर को अपनी परियोजनाओं को बेहतर ढंग से निष्पादित करने में मदद मिलती है।
क्षमता निर्माण में निवेश होना चाहिए। यह महत्वपूर्ण है कि दाता, समाजसेवी संस्थाओं के लिए उन प्रशिक्षकों से सीखने के अवसर पैदा करें जिनके पास भारत में संचार का अनुभव है। ऋचा कहती हैं कि ‘ऐसे लोगों को चुनें जो इस क्षेत्र में काम कर रहे हैं, और संदर्भ से जुड़े हुए हैं।’ एक विदेशी फर्म को भारतीय प्रणाली के अंदर और बाहर की जानकारी नहीं होगी, जो किसी भी सार्थक प्रशिक्षण को संचालित करने के लिए महत्वपूर्ण है। ऋचा कहती हैं कि उन्होंने देखा है कि ‘फंड देने वाले कभी-कभी अच्छे इरादों के साथ बड़े विदेशी नामों को लाने के लिए इच्छुक हो सकते हैं, लेकिन वे वास्तव में भारत के संदर्भ को नहीं समझते हैं। सही लोगों के साथ सही कार्यक्रम बनाना बहुत महत्वपूर्ण है। ऋचा आगे कहती हैं कि ‘क्षमता निर्माण को एक ऐसी चीज़ के रूप में सोचा जाना चाहिए जिसके लिए कुछ निरंतर प्रशिक्षण और सहायता की आवश्यकता होती है। और, यह लंबे समय में होता है, यहां तक कि एक वर्ष में भी ऑनलाइन और ऑफलाइन बातचीत के माध्यम से होता है।’
आलोक सुझाव देते हैं कि फ़ंडर को इस बारे में नवोन्मेषी होना चाहिए कि वे किन क्षेत्रों में फंड का निवेश करना चाहते हैं। वे आगे कहते हैं कि उम्मीद करने की बजाय, वे किसी ऐसे व्यक्ति को शामिल कर सकते हैं जो गैर-लाभकारी संस्थाओं के भीतर किसी समाचार संगठन या पीआर एजेंसी में काम करता है। इन लोगों का वेतन भी फ़ंडर को ही देना चाहिए और इस बात को सुनिश्चित करना चाहिए कि वे कम से कम एक साल तक टिकें और सीखें और अपनी विशेषज्ञता का लाभ समाजसेवी संस्थाओं को पहुंचाएं।’ इसके अतिरिक्त, फ़ंडर, सामाजिक प्रभाव क्षेत्र के लिए संचार पाठ्यक्रमों के विकास में भी निवेश के बारे में सोच सकते हैं। इस तरह के विभिन्न पाठ्यक्रम विधि (शोध पर काम करने वाले) जैसे संगठनों की मदद करने के साथ ही ज़मीनी स्तर के कार्यक्रम बनाने वाली संस्थाओं के लिए भी मददगार साबित हो सकते हैं।
इस काम को कई तरीकों से किया जा सकता है। फ़ंडर, अनुदान प्राप्तकर्ता भागीदारों को संचार में निवेश करने और ऐसा करने की लागत का समर्थन करने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं। या, वे एक साझा सेवा मॉडल बनाने के बारे में सोच सकते हैं जहां वे अपने भागीदार संगठनों के समूह की क्षमता बनाने के लिए एक एजेंसी को नियुक्त करते हैं।
सबसे महत्वपूर्ण यह है कि फंडर्स अपने साथियों के साथ संचार में निवेश करने की आवश्यकता के बारे में बात करके और इसके लिए अपने समर्थन के बारे में पारदर्शी होकर, मानसिकता में बदलाव लाने की शुरूआत कर सकते हैं।
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ऋचा और आलोक के बारे में
ऋचा बंसल पिछले सत्रह से अधिक वर्षों से विकास संचार और पत्रकारिता के क्षेत्र में काम कर रही हैं। वे विधि सेंटर फॉर लीगल स्टडीज़ की प्रमुख हैं, और पांच सालों तक सेंटर फॉर पालिसी रिसर्च में संचार निदेशक के पद पर काम कर चुकी हैं। इससे पहले, उन्होंने विभिन्न लिंग-आधारित संगठनों में संचार विभाग में अपनी भूमिकाएं निभाई हैं, जिसमें पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ़ इंडिया, और कैमफेड, यूके, इंटरनेशनल सेंटर फॉर रिसर्च ऑन वीमेन जैसी संस्थाएं शामिल हैं। उन्होंने अपने करियर की शुरुआत एक पत्रकार के रूप में की और अहमदाबाद, हैदराबाद, पुणे, और कोलकाता के विभिन्न अख़बारों के लिए काम कर चुकी हैं। ऋचा ने यूके की यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैम्ब्रिज से डेवलपएमईटी स्टडीज़ में एमफिल किया है। उन्होंने जनसंचार में एमए और अंग्रेजी साहित्य में बीए किया है।
आलोक प्रसन्ना कुमार विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के सह-संस्थापक और प्रमुख हैं। वे न्यायिक सुधार, संवैधानिक क़ानून, शहरी विकास और क़ानून और तकनीक जैसे क्षेत्रों में शोध करते हैं। आलोक ने 2008 में नालसार यूनिवर्सिटी से बीएएलएलबी (ऑनर्स) और 2009 में यूनिवर्सिटी ऑफ़ ऑक्सफ़ोर्ड से बीसीएल किया है। वे इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली के लिए एक मासिक कॉलम लिखते हैं। इसके अलावा, द हिंदू, इंडियन एक्सप्रेस, स्क्रॉल, क्विंट और कारवां जैसे मीडिया आउटलेट्स के अलावा इंडियन जर्नल ऑफ कॉन्स्टिट्यूशनल लॉ और नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया रिव्यू में भी उनके लेख प्रकाशित हुए हैं। उन्होंने मोहन परासरन के चैंबर से सुप्रीम कोर्ट और दिल्ली हाई कोर्ट में प्रैक्टिस की है। आलोक आईवीएम पॉडकास्ट पर गणतंत्र पॉडकास्ट के को-होस्ट हैं।
* विधि में संचार टीम की नियुक्ति के बाद विधि की पहुंच से जुड़े आंकड़ों को शामिल करने के लिए 12 दिसंबर 2022 को इस लेख को अपडेट किया गया था।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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1. डायरेक्टर, जो कम्युनिटी और फंडर के बीच पिस गया है।
2. रिसर्चर, जो सिर्फ रिसर्च में विश्वास करते हैं, मार्केटिंग में नहीं।
3. कम्युनिकेशन ऑफिसर, जो अपनी टीम से कंटेंट मांग-मांग के थक गया है (पर टीम है कि जो अपने में ही मस्त है!)
4. फंडरेज़र, जो अपने काम में माहिर है… अपनी तमाम तिकड़म बाजियों के साथ।
5. कार्यकर्ता, जिसे लगता है सब सही चल रहा है!
6. मैनेजर, जो अपने उन ओवर-एक्साइटेड वॉलंटीयर्स को संभालता फिरता हैं जिन्होंने सोशल सेक्टर में कदम रखा ही है।
एक समाजसेवी संस्था की अपने कार्यक्रमों को प्रभावी ढंग से चलाने की क्षमता उसकी रणनीति से जटिल रूप से जुड़ी हुई होती है। ऐसा तब है जब उच्च प्रभाव वाला हस्तक्षेप समाधान का एक हिस्सा भर है, वहीं समाजसेवी संस्था की दीर्घकालिक मजबूती बढ़ाने के लिए संगठनात्मक विकास महत्वपूर्ण होता है। संगठन की समग्र संरचना को मजबूत करने पर दिया जाने वाला यह निरंतर जोर न केवल इसके विकास के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि इसके प्रभाव को बढ़ाने में भी मदद करता है।
यह केस स्टडी बताती है कि कैसे अंतरंग फाउंडेशन एक बाहरी सलाहकार की मदद से अपनी संगठनात्मक रणनीति विकसित करने में सक्षम था। यह अध्ययन, प्रक्रिया के दौरान उनके द्वारा अनुभव की गई चुनौतियों और सफलताओं तथा इस रणनीतिक अभ्यास के दीर्घकालिक प्रभाव को रेखांकित करता है।
अंतरंग अपने करियरअवेयर और करियररेडी कार्यक्रमों के माध्यम से 14 से 25 वर्ष की आयु के युवाओं के साथ काम करता है। संगठन का मुख्य उद्देश्य छात्रों को यथासंभव लंबे समय तक औपचारिक शिक्षा में बने रहने के लिए प्रोत्साहित करना है। इसके साथ ही यह वंचित पृष्ठभूमि के युवाओं को शिक्षा और रोजगार के बीच के अंतर को पाटने में भी मदद करता है ताकि उन्हें एक अच्छे कैरियर की राह पर आगे बढ़ाया जा सके।
अपनी स्थापना के बाद ही अंतरंग ने नवंबर/दिसंबर में वार्षिक समीक्षा और रणनीतिक योजना करना शुरू कर दिया। इस अभ्यास के तहत, संगठन का वरिष्ठ नेतृत्व सामूहिक रूप से पिछले साल की उपलब्धियों की समीक्षा करता है और इस बात का पता लगाता है कि कौन सी रणनीतियां कारगर रहीं और किस क्षेत्र में बेहतर किए जाने की गुंजाइश है। यह अभ्यास एक ऐसी दुनिया को साकार करने में मदद करने के संगठन के मार्गदर्शक सिद्धांत द्वारा संचालित है जहां प्रत्येक युवा वयस्क उत्पादक, सकारात्मक और जुनून से अपनी पसंद के करियर में लगा हुआ है। अभ्यास से बने विचारों और प्रतिबिंबों को बाकी टीम और बोर्ड के सामने प्रस्तुत किया जाता है। बाद में आंतरिक टीम के साथ विचार-विमर्श से, संगठन अगले वर्ष के लिए तय किए गए अपने लक्ष्य पर पहुंचता है।
साल 2019 में, लंबे समय तक अपने समर्थक रहे (कोइटा फाउंडेशन के रिज़वान कोइटा) के साथ हुई बातचीत ने अंतरंग के नेतृत्व टीम को प्रोत्साहित किया कि वे एक स्थायी और टिकाऊ रणनीति को स्थापित करने के लिए बाहरी मदद के बारे में सोचें। वे चाहते थे कि उनके प्रभाव को बढ़ाने के लिए कोई उन्हें सही दिशा और मार्ग प्रदान करे। ऐसा करने में उनकी मदद के लिए, उन्होंने अपने बोर्ड में एक सलाहकार को शामिल करने का फैसला किया।
संगठन ने तीन व्यापक मानदंड निर्धारित किए और वे चाहते थे कि उनका सलाहकार उन मानदंडों को पूरा करे। पहला, वे चाहते थे कि वे संगठन के दर्शन, प्रक्रियाओं और शक्तियों को ध्यान में रखें और सही सवाल करें जो अगले कदम तय करने में अंतरंग का मार्गदर्शन करें। हालांकि संगठन को अपने व्यापक उद्देश्यों और इन उद्देश्यों की पूर्ति को प्रभावित करने वाले कारकों के बारे में पता था, लेकिन उन्हें अपनी छिपी हुई दक्षताओं को सामने लाने के लिए बाहरी मदद की ज़रूरत थी। इसलिए, एक उचित सलाहकार वही हो सकता था जिसके पास रणनीतिक और विश्लेषणात्मक योग्यता हो और जो एक बड़ी तस्वीर को देखने के लिए मायोपिक लेंस का उपयोग कर आगे बढ़ने में उनकी मदद कर सके।
दूसरे, अंतरंग की टीम बड़े और व्यापक इकोसिस्टम में अपने स्थान के बारे में जानना चाहती थी। उनके लिए यह समझना महत्वपूर्ण था कि वे किन कमियों को दूर कर रहे हैं और अधिक प्रभाव डालने के लिए उन्हें क्या करना चाहिए। इससे वे युवाओं को करियर में सफलतापूर्वक परिवर्तन लाने के योग्य बनाने के अपने वादे को पूरा को कर पाने में सक्षम हो सकेंगे।
तीसरा और अंतिम, अंतरंग चाहता था कि उनका बाहरी सलाहकार उनके लिए एक ऐसे संसाधन के रूप में काम करे जिसमें इकोसिस्टम में उभरते रुझानों की पहचान कर सके। यह तीसरा पहलू विशेष रूप से इसलिए भी महत्वपूर्ण था क्योंकि इससे संगठन को इकोसिस्टम में उभरते रुझानों के आधार पर दीर्घकालिक दृष्टिकोण के साथ काम करने में मदद मिलने वाली थी।
शुरुआत में, संगठन के पास इतना धन नहीं था कि वह अपने बोर्ड में किसी सलाहकार को शामिल कर सके। अंतरंग की संस्थापक, प्रिया अग्रवाल कहती हैं कि वे संगठनात्मक विकास के लिए फंडरेजिंग के काम में बहुत अच्छे नहीं रहे हैं। ‘मुझे लगता है कि एक स्तर पर, हम इस तरह की फ़ंडिंग मांगने में कतराते हैं। जब आप किसी कार्यक्रम के लिए फ़ंडिंग या समर्थन मांगते हैं तो यह उसकी तुलना में अधिक न्यायसंगत लगता है।’ संगठन ने बोर्ड में एक रणनीतिक सलाहकार को शामिल करने से होने वाले फ़ायदों को समझने और इसमें आने वाले खर्च के बारे में जानने के लिए अपने साथी समाजसेवी संस्थाओं से बात की। उसके बाद, उन्होंने कुछ ऐसे दाताओं से संपर्क किया जो बहुत लंबे समय से संगठन के विकास में निवेश कर रहे थे।
प्रिया ने यह भी कहा कि एक बार जब वे अपनी इस योजना के साथ दाताओं के पास गये तब उन्हें इस बात का एहसास हुआ कि उनके दाता इस प्रस्ताव को लेकर उनकी कल्पना से परे उत्साहित थे। ‘हम लोगों ने किसी एक दाता से पूरी योजना के लिए फंड देने को नहीं कहा। हमने कई दाताओं से संपर्क किया और कहा कि ‘यदि आप सहायता के लिए अमुक राशि देंगे तो मैं इस आधार पर किसी अन्य दाता के पास जाकर उनसे इतनी ही राशि का सहयोग देने के लिए कहूंगी।’ और आपको जानकर आश्चर्य होगा कि किसी ने भी इसके लिए ना नहीं कहा।’
उन सलाहकारों की पहचान करने के लिए जिनसे वे संपर्क कर सकते हैं, संगठन ने पहले इसी तरह के अभ्यास को आयोजित करने वाले अपने दाताओं और अन्य संगठनों से कुछ नामों का सुझाव देने के लिए कहा। इन सुझावों और सिफ़ारिशों के आधार पर उन्होंने दसरा, डैलबर्ग, ब्रिजेस्पैन और सत्त्व से संपर्क किया और उन्हें अपने संभावित बाहरी सलाहकार के रूप में शामिल करने के बारे में सोचने लगे।
कुछ संगठन बहुत जल्दी ही दौड़ से बाहर हो गए क्योंकि वे बेहद महंगे थे। अंत में अंतरंग के पास केवल दो विकल्प बचे थे, और उन्होंने दसरा को चुना क्योंकि वे संगठन की तीनों आवश्यकताओं को पूरा कर रहा था: उनके पास संगठन के लिए आवश्यक रणनीतिक अंतर्दृष्टि थी, वे अंतरंग के भीतर संचालित पारिस्थितिकी तंत्र से परिचित थे, और दाता आवश्यकताओं पर उनकी पकड़ मज़बूत थी।
अंतरंग को इस बात का एहसास हुआ कि ड्रॉइंग बोर्ड में वापस जाना कुछ ऐसा था जिसको लेकर वे सहज थे, और जिसने सोच की शुरुआती अवधि को रोमांचक और सरल बना दिया। हालांकि, मूल्य संरेखण सुनिश्चित करने की प्रक्रिया में सबसे पहले बाधाएं सामने आईं। प्रिया का कहना है कि वे सहयोगात्मक निर्णय लेने को जो महत्व देते हैं, वह “लगभग [हमें] अनिर्णायक होने या अपने पैर खींचने के रूप में सामने आ सकता है”। इसमें शामिल सभी लोगों को एक निश्चित तरीके से सोचने के लिए पर्याप्त जगह देना, भले ही इसका मतलब अपने कदम पीछे हटाना हो, एक ऐसी चीज है जिसके लिए संगठन हमेशा प्रतिबद्ध रहा है।
हालांकि, दसरा ने उन्हें बताया था कि रणनीतिक योजना अभ्यास में अधिकतम दो से तीन लोगों का समूह शामिल होना चाहिए। और इसी आधार पर अंतरंग एक संचालन समिति लेकर आए जिसमें तीन आंतरिक सदस्य और तीन बोर्ड सदस्य शामिल थे। दृष्टिकोणों की बहुलता के परिणामस्वरूप अक्सर उन्हें प्रश्नों पर दोबारा गौर करना पड़ता है या गोल-गोल घूमना पड़ता है। बोर्ड में सभी को शामिल करने और एक दूसरे के साथ तालमेल बैठाने पर ज़ोर देने वाली बात से (दसरा और अन्तरंग दोनों के टीम के सदस्यों के लिए) तनाव की स्थिति पैदा हो गई थी, क्योंकि इससे इस पूरी प्रक्रिया में सामान्य से अधिक समय लग रहा था।
प्रिया इस बात पर भी ज़ोर देते हुए बताती हैं कि तालमेल के लिए आवश्यक कुछ प्रक्रियाओं को आंतरिक रूप से नियंत्रित किया जाना चाहिए था क्योंकि इससे काम को आगे बढ़ाने में मदद मिलती है। ‘उदाहरण के लिए, इस प्रक्रिया में हमारे सबसे महत्वपूर्ण हितधारकों का पता लगाने और किए गए और ना किए गये काम की पहचान करने के लिए हमारे सभी डेटा का अध्ययन करना शामिल था। दसरा को यहां तक पहुंचने में बहुत समय लग गया, लेकिन हम इसके बारे में पहले से जानते थे। मुझे लगता है कि यदि दसरा के लिए हम ऐसी ही कुछ प्रक्रियाओं को तेज कर देते तो यह काम थोड़ा जल्दी हो सकता था।’
अंतरंग में प्रोग्राम ऑपरेशंस और स्केल के वरिष्ठ निदेशक, वेनिल अली का कहना है कि एक बाहरी सलाहकार को लाने से टीम को उन भावनाओं को दूर करने में मदद मिली जो उन कार्यक्रमों को आगे नहीं बढ़ाने के निर्णय के कारण पैदा हुई थीं जिनमें टीम के कुछ सदस्यों ने काफी निवेश किया था। उदाहरण के लिए, संगठन ने समुदायों के साथ काम ना करने का फ़ैसला किया था। हालांकि, यह टीम के उन सदस्यों के लिए एक भावनात्मक फ़ैसला था जिन्होंने सालों तक समुदायों के साथ काम किया था क्योंकि उन्हें लग रहा था कि उनका प्रयास और निवेश व्यर्थ हो गया। प्रक्रिया के दौरान दसरा का एक तटस्थ सूत्रधार के रूप में काम करना और यह सुनिश्चित करना कि टीम एक आम सहमति पर पहुंचे, इन भावनाओं को पनपने से रोकने के लिए महत्वपूर्ण था।
यह तथ्य कि निर्णय और कार्यान्वयन में संगठन के कई लोग शामिल थे, भी फायदेमंद था। हालांकि, अंतरंग द्वारा बनाई गई संचालन समिति छोटी थी, उन्होंने अपने पूर्व छात्रों और टीम के अन्य सदस्यों को भी शामिल करने के लिए एक ठोस प्रयास किया। प्रत्येक संचालन समिति की बैठक से पहले उनके इनपुट एकत्र करके, संगठन ने यह सुनिश्चित किया कि समिति के निर्णयों से प्रभावित होने वाले सभी लोगों की राय को ध्यान में रखा जाए।
संचालन समिति द्वारा लिए गए रणनीतिक निर्णय प्रबंधकों के एक छोटे समूह को दिए गए। इस समूह ने बाद में औपचारिक रूप से इस बात का फ़ैसला लेने का प्रयास किया कि इन निर्णयों को कैसे लागू किया जाए। बाहरी सर्वेक्षणों से मिली सीख और बाकी टीम की प्रतिक्रियाओं के आधार पर, इस समूह ने ध्यान केंद्रित करने वाले क्षेत्रों की रूपरेखा तैयार की।
इसके अलावा संगठन ने ‘कार्यकारी समूह’ बनाए जिसका काम संचालन समिति द्वारा तैयार की गई संरचना को पूर्व छात्रों, कर्मचारियों और अन्य संबंधित हितधारकों के सामने पेश करना था। संगठन के लगभग 50 फ़ीसद लोग कम से कम एक कार्यकारी समूह का हिस्सा थे और प्रक्रिया में उनका शामिल होना प्रक्रिया के लिए स्वामित्व, स्पष्टता और उत्साह के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था। इन हितधारकों से मिलने वाली प्रक्रियाओं को उसके बाद ऊपर बताये गये प्रबंधकों के छोटे-छोटे समूहों तक पहुंचाया जाता था। यह एक, बार-बार दोहराए जाने वाली प्रक्रिया थी जिसमें चार से पांच महीने का समय लगा। इस पूरी प्रक्रिया में अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए दसरा उपस्थित थी।
दसरा के एक निदेशक और तीन सदस्यों वाली टीम को अंतरंग के साथ काम करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी। अपने काम की प्रगति से जुड़े अपडेट देने के लिए हमें दसरा के साथ हर पंद्रह दिनों में एक मीटिंग करनी होती थी। इस मीटिंग के अलावा प्रारंभिक परिचालन पूरा होने के बाद वेनिल सप्ताह में दो बार दसरा के प्रबंधकों से संपर्क करती थीं।
रणनीतिक योजना अभ्यास का सबसे महत्वपूर्ण लाभ यह था कि इससे अंतरंग को यह समझने में मदद मिली कि वे अपने प्रभाव को कैसे बढ़ाना चाहते हैं। प्रिया कहती हैं कि ‘मुझे लगता है कि अब इस बात को लेकर हमारी समझ स्पष्ट है कि हम हज़ारों लोगों वाला एक विशाल संगठन नहीं बनना चाहते हैं। हम अपने प्रभाव को ग़ैर-रेखीय और सरल तरीक़े से बढ़ाने में सक्षम होना चाहते हैं। यह दृष्टिकोण अब उनके द्वारा नियोजित चार-वर्षीय हस्तक्षेप के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में कार्य करता है।
अंतरंग को अब अपने पूर्व छात्रों, गैर-प्रमुख टीम और फंडर सहित विभिन्न प्रकार के हितधारकों से संपर्क करने और उन्हें अपने साथ शामिल करने की अपनी टीम की क्षमता पर अधिक विश्वास है। प्रिया इस बात को रेखांकित करती हैं कि हाल ही में उनके सबसे बड़े दानदाताओं में से एक की यात्रा ने इसकी पुष्टि की है। ‘आप चाहें टीम में किसी से भी बात करें, प्रत्येक सदस्य एक ही तरह की भाषा बोलता है और प्रत्येक सदस्य की समझ अपने द्वारा किए जाने वाले काम और उसके पीछे के कारण को लेकर स्पष्ट होती है।’ मुझे लगता है कि यह कथन इस तथ्य का प्रमाण है कि लोगों को पूरी प्रक्रिया से गुजरने में मदद मिलती है।’
व्यापकता को लेकर संगठन की सोच में भी एक महत्वपूर्ण परिवर्तन आया है। वेनिल कहती हैं कि ‘मुझे लगता है कि अब संगठन के हर स्तर पर लोगों के लिए, चाहे वह इंटर्न हो, सहायक हो या सहयोगी हो, व्यापकता के नजरिए से समाधान के बारे में सोचना बहुत आसान हो गया है।’ प्रिया अपनी बात जोड़ते हुए कहती हैं कि ‘अब टीम के सदस्य अपने आप से यह पूछने में सक्षम हैं कि: क्या बड़े पैमाने पर यह कारगर होगा? अगर नहीं, तो अपने प्रभाव को बनाए रखने के लिए हमें किस तरह के बदलाव की ज़रूरत है?’ अब व्यापकता से हमें किसी तरह का नुक़सान नहीं होता है और अब हम व्यापकता से जुड़े डिज़ाइन बहुत ही आसानी से सोच पाते हैं।’ बाहरी साझेदार ने अपनी शक्तियों और क्षमताओं को उजागर करके टीम में जो आत्मविश्वास पैदा किया, उसने भी बड़े पैमाने पर उनके दृष्टिकोण को फिर से उन्मुख करने में एक प्रमुख भूमिका निभाई।
समाजसेवी संस्थाओं के लिए यह समझना महत्वपूर्ण है कि वे आंतरिक रूप से इस प्रयास को शुरू कर सकते हैं या नहीं। उन्हें इस बारे में भी सोचना चाहिए कि क्या वे बतौर संस्था के इस स्तर पर हैं जहां किसी बाहरी सलाहकार को शामिल करना उनके लिए उचित होगा। प्रिया कहती हैं कि ‘हमारा मानना था कि हमारे एक कार्यक्रम में तेज़ी से विस्तृत होने की संभावना स्पष्ट थी, और अन्य कार्यक्रमों से होने वाले प्रभाव को लेकर हम बहुत हद तक निश्चिंत थे। इसलिए अगले कदम के बारे में सोचने के लिए यह सही समय था।’ इस प्रकार एक रणनीतिक पुनर्विचार ऐसा होना चाहिए जो आवश्यक हो।
एक समाजसेवी संस्था के लिए यह समझना महत्वपूर्ण है कि वे अपने बाहरी पक्ष से किस भूमिका को निभाने की उम्मीद कर रहे हैं और ऐसे कौन से पहलू हैं जिन पर संगठन अपने आंतरिक टीम के साथ काम करेगा। उदाहरण के लिए, मूल्य संरेखण और रणनीतियों के क्रियान्वयन जैसे महत्वपूर्ण काम आंतरिक टीम द्वारा किए जाने पर ही अच्छे परिणाम देते हैं। इसके अलावा, सलाहकार संगठनों को यह स्पष्ट रूप से पहचानने में मदद कर सकते हैं कि उन्हें कौन सा काम जारी रखना है और कौन सा काम बंद करना है। समाजसेवी संस्थाओं के लिए, क्या नहीं करना चाहिए इस पर विचार-विमर्श और संरेखण पैमाने के निर्माण का अभिन्न अंग है।
सलाहकार को उस आंकड़े और जानकारी के बारे में बताना आवश्यक है जो आपके पास पहले से है। आंकड़ों पर इस तरह से काम करना कि वह कमियों को स्पष्ट करे, बाद की रणनीति को सटीक और प्रभावी बनाने में मददगार साबित होता है।
प्रक्रिया की शुरुआत से ही सभी स्तरों पर कई हितधारकों को शामिल करने से अंतरंग को बहुत अधिक लाभ हुआ। प्रिया का कहना है कि किसी निश्चित हितधारक को शामिल करने के उचित समय की स्पष्टता से प्रक्रिया को सुचारू रूप से चलाने और किसी अवांछित परिणाम को रोकना आसान हो गया। इसी वक्तव्य पर अपनी सहमति जताते हुए वेनिल ने इस बात को रेखांकित किया कि अपनी समितियों और कार्यकारी समूहों में विभिन्न हितधारकों को शामिल करने से उन्हें प्रक्रियाओं और उनके परिणामों में अधिक निवेश करने का मौका मिला।
कई तरह के लोगों को शामिल करने से टीम को ज़मीनी स्तर पर काम कर रहे लोगों से क्या कारगर है और क्या नहीं जैसे विषयों पर विस्तृत और व्यावहारिक प्रतिक्रिया लेने में भी मदद मिली।
वेनिल कहती हैं कि टीम के कम से कम दो सदस्यों को इतना सक्षम होना चाहिए कि वे अपना लगभग 50 फीसद समय इस प्रक्रिया में लगाएं। ऐसा इसलिए है क्योंकि बाहर से किसी भी तरह की सुविधा प्रदान करने वाले किसी व्यक्ति या संगठन की क्षमता उस संदर्भ और गहन अंतर्दृष्टि की भरपाई नहीं कर सकती है जो आंतरिक टीम से मिलती है। चूंकि बाहरी सूत्रधार को मदद के लिए आंतरिक टीम में वापस आते रहना होगा, इसलिए टीम के लिए रणनीतिक ओवरहाल को प्रभावी ढंग से संचालित करने के लिए आंतरिक क्षमता का होना अभिन्न है।
संगठन की सफलता के लिए दाता की प्रतिबद्धता साधारण वित्तीय लेनदेन से परे होनी चाहिए। अनुदान प्राप्तकर्ताओं के साथ संचार की खुली लाइन बनाए रखने से अपेक्षाकृत अधिक ईमानदारी और स्पष्टता को बढ़ावा मिलता है। अपने विकास में आने वाली बाधाओं के बारे में अपने दाताओं को स्पष्ट रूप से बताकर, अंतरंग ने उनके सामने आने वाले संगठनात्मक मुद्दों से सहयोगात्मक रूप से निपटने के लिए अपने दाताओं की क्षमताओं और शक्तियों का लाभ उठाया।
इस उदाहरण में, अंतरंग ने ग़ैर-रेखीय दृष्टिकोण का उपयोग करके स्केल का चुनाव किया। ऐसा इसलिए संभव था क्योंकि उनके दाताओं ने विस्तार के लिए उनकी तैयारी और क्षमता को समझने के लिए और स्केल के उपलब्ध मॉडल को जानने में उनकी मदद की। साथ ही इन कारकों के आधार पर उनके लिए सबसे उचित मॉडल का चुनाव करने के लिए आवश्यक संसाधन उपलब्ध करवाने में भी सहायता प्रदान की।
यह देखते हुए कि किसी संगठन के लिए दिशा की स्पष्ट समझ और महत्वाकांक्षी दृष्टि होना महत्वपूर्ण है, टीम ने संगठनात्मक क्षमता में निवेश के महत्व पर जोर दिया। उदाहरण के लिए, अंतरंग की रणनीति ने उन्हें एक केंद्रित क्रियान्वयन योजना (निर्माण के लिए आवश्यक क्षमता सहित) दी, साझेदारी और मौजूदा निवेशों का लाभ उठाने वाली एक ग़ैर-रेखीय स्केलिंग योजना दी, काम करने की क्षमता को लेकर एक स्पष्ट समझ प्रदान की और साथ ही यह भी बताया कि अपने दाताओं से उन्हें किन तरह के सहयोगों की आवश्यकता थी।
किसी संगठन के कार्य और योजना के इन पहलुओं को समग्र समर्थन के माध्यम से बढ़ावा दिया जा सकता है जो केवल संगठन के कार्यक्रमों को लक्षित नहीं करता है। वेनिल कहती हैं कि, ‘या तो आप केवल कार्यक्रमों के लिए पैसे देते रह सकते हैं, या फिर क्षमता निर्माण में हमारी मदद कर सकते हैं ताकि हम अधिक कुशलता से अपने परिणाम दे सकें।’
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प्रिया अग्रवाल अंतरंग फाउंडेशन की संस्थापक-निदेशक हैं।इससे पहले उन्होंने एक एडवरटाइज़िंग पेशेवर के रूप में काम किया है।अशोका फेलो रह चुकी प्रिया का विकास सेक्टर में विभिन्न संगठनों का नेतृत्व का दो दशक से अधिक का अनुभव है।
वेनिल अली ने साल 2004 में अपनी बीए की पढ़ाई करते हुए एक वॉलंटियर के रूप में विकास सेक्टर में अपना काम शुरू किया था। उन्होंने 2008 में लीप (एलईएपी) नामक एक आफ्टर-स्कूल सेंटर शुरू किया, जो मुंबई के माटुंगा लेबर कैंप में लगभग 60 छात्रों को सेवा प्रदान करता था। 2009 में, वेनिल टीच फॉर इंडिया फ़ेलोशिप के पहले समूह में शामिल हुईं। अपनी फ़ेलोशिप के बाद, वह एक स्टाफ सदस्य के रूप में टीच फ़ॉर इंडिया में शामिल हो गईं और मुंबई की सिटी डायरेक्टर बनने से पहले विभिन्न प्रोग्रामेटिक भूमिकाएं निभाईं। उन्होंने एक एडटेक स्टार्ट-अप में सभी ट्यूटर ऑपरेशन भी तैयार किए। वर्तमान में, वेनिल अंतरंग फाउंडेशन में कार्यक्रम और स्केल की वरिष्ठ निदेशक हैं। वे ए न्यू काइंड ऑफ सेलेब्रिटी नामक पॉडकास्ट का संचालन भी करती हैं, जो विभिन्न चेंजमेकर्स के काम पर प्रकाश डालता है।
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साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, भारत में किशोरों की संख्या 25.3 करोड़ है और इनमें 47% लड़कियां हैं। किशोरावस्था वाली तमाम लड़कियां एनीमिया की शिकार होने के अत्यधिक जोखिम के अलावा, यौन स्वास्थ्य को लेकर बेहद कम जागरूकता, कुपोषण और मानसिक स्वास्थ्य जैसी समस्याओं से भी जूझ रही हैं। उनके स्कूली पढ़ाई बीच में छोड़ने की संभावना तो ज्यादा रहती ही है, साथ ही घरेलू और देखभाल संबंधी अवैतनिक गतिविधियों में शामिल होने से उनके पास खुद अपने लिए बहुत ही कम समय बचता है।
आखिर भारत में किशोरियों के स्वास्थ्य और शिक्षा में निवेश करना इतना महत्वपूर्ण क्यों है। राज्यों की विशिष्ट जरूरतों को ध्यान में रखते हुए वित्तपोषण में अंतर को पाटने के साथ ही आधारभूत कौशल और डिजिटल साक्षरता पर ध्यान केंद्रित करके बजट में भारतीय किशोरों के समग्र विकास की एक मजबूत नींव रखी जा सकती है। इससे उन्हें उत्पादक और डिजिटली-सक्षम भविष्य के लिए तैयार किया जा सकता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की परिभाषा के मुताबिक 10 से 19 के बीच की उम्र को किशोरावस्था माना जाता है जो मानसिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक विकास के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण उम्र होती है।
भारत में किशोर विकास से जुड़ी नीतियां तैयार करते वक्त उन्हें जनसांख्यिकी के सामाजिक-आर्थिक कल्याण के लिहाज से मूल्यों, सिद्धांतों और उद्देश्यों की व्यापक कसौटी पर परखा जाता है। इन नीतियों को तैयार करने में शिक्षा, महिला एवं बाल विकास, युवा एवं खेल मामले, और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण जैसे विभिन्न मंत्रालय अहम भूमिका निभाते हैं।
किशोर समूह से जुड़ी प्रमुख नीतियों में राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम या आरकेएसके, राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति, 2017, राष्ट्रीय युवा नीति, 2033 एवं 2014 और राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य नीति, 2014 आदि शामिल हैं। इनमें जहां अपने कुछ खास लक्ष्य हैं, तो कुछ परस्पर जुड़े लक्ष्य भी निहित हैं। इसके अलावा, राष्ट्रीय जनसंख्या नीति, 2000 और हालिया राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 भी हैं जो पूरी तरह किशोरों पर केंद्रित तो नहीं हैं लेकिन इसके कुछ पहलू इस आयु वर्ग के लिए मायने रखते हैं।
2019-2021 में किए गए पांचवें राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) के मुताबिक, देश में 10-19 उम्र की हर पांच किशोरियों में से तीन एनीमिया की शिकार हैं जबकि लड़कों के मामले में यह आंकड़ा 28% है। ये आंकड़ा लड़कियों के मामले में एक खास स्वास्थ्य चुनौती को दिखाता नजर आता है, जो आगे चलकर गंभीर स्वास्थ्य समस्या की वजह बन सकती है और उनकी सोचने समझने का शक्ति और शारीरिक विकास में रुकावट डाल सकती है।
इंडियास्पेंड की अक्टूबर 2016 की एक रिपोर्ट बताती है कि डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, आयरन की कमी से होने वाले एनीमिया के कारण ‘सिर्फ व्यक्ति विशेष की ही नहीं बल्कि पूरी आबादी की कार्य क्षमता घटती है और इसका गंभीर आर्थिक प्रभाव देश के विकास को भी बाधित कर देता है।’ जर्नल ऑफ न्यूट्रिशन में प्रकाशित 2002 के एक अध्ययन की मानें तो एनीमिया के कारण भारी शारीरिक श्रम करने वाले श्रमिकों की उत्पादकता 17% घटी है, वहीं मध्यम सक्रियता वाले श्रमिकों के उत्पादन में 5% की गिरावट आई है।
यौन और प्रजनन स्वास्थ्य से संबंधित मुद्दे भी चर्चा के महत्वपूर्ण बिंदु बने हुए हैं, जिनमें कम उम्र में गर्भधारण और प्रजनन स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता का अभाव चिंता का बड़ा कारण हैं। हालांकि 15-19 की उम्र में प्रति 1,000 महिलाओं पर आयु-विशिष्ट प्रजनन दर एनएफएचएस-4 (2015-16) के दौरान 51 से घटकर एनएफएचएस-5 में 43 हो गई। यूएनएफपीए की रिपोर्ट के मुताबिक, फिर भी वैश्विक स्तर पर पर हर सात अनपेक्षित गर्भधारण में से एक भारत में होता है। वहीं, एनएफएचएस-5 से यह भी पता चलता है कि 15 से 19 की उम्र की 6.8% किशोरियां बच्चों को जन्म दे रही हैं।
इस उम्र में पोषण की कमी के चलते बौनेपन और कम वजन की समस्याएं भी नजर आती हैं। एनएफएचएस-4 के मुताबिक, स्कूल जाने वाली 41.9% से अधिक लड़कियों का वजन औसत से कम है। ये समस्या बिहार, झारखंड और गुजरात जैसे कुछ राज्यों में अधिक स्पष्ट दिखाई देती है, जो क्षेत्रीय स्तर पर पोषण संबंधी असमानता का संकेत है।
नए मिशन पोषण 2.0 के तहत किशोरियों की पोषण संबंधी जरूरतों को पूरा करने पर जोर दिया गया है। पिछली योजना में स्कूल छोड़ने वाली 11-14 वर्ष की किशोरियों को शामिल किया गया था। वहीं पोषण 2.0 में आकांक्षी जिलों की 14-18 वर्ष की सभी लड़कियां को शामिल किया गया है।
एनएफएचएस सर्वे मासिक धर्म स्वास्थ्य की स्थिति भी दर्शाता है, जिसमें मासिक धर्म के दौरान इस्तेमाल किए जाने वाले स्वच्छता उत्पादों के इस्तेमाल में अच्छी-खासी बढ़ोतरी नजर आती है। अब 15-19 वर्ष आयु वर्ग की 78% लड़कियां इन उत्पादों का इस्तेमाल कर रही हैं, जबकि 2015-16 में यह आंकड़ा 58% ही था। हालांकि, सभी लड़कियों तक मासिक धर्म स्वास्थ्य उत्पाद की उपलब्धता और उन्हें शिक्षा मिल सके, यह सुनिश्चित करने के लिए निरंतर प्रयास किए जाने की जरूरत बताई गई है।
मानसिक सेहत से जुड़ी समस्याएं बढ़ना भी किशोर स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है।
मानसिक सेहत से जुड़ी समस्याएं बढ़ना भी किशोर स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है। मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी स्थितियों में से आधी की शुरुआत 14 वर्ष की उम्र में होती है, और 15 से 19 साल के बच्चों की मौत का एक प्रमुख कारण उनका खुद को नुकसान पहुंचाना ही है। भारत के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2015-16 में पाया गया कि 13-17 वर्ष की आयु के किशोरों में मानसिक विकार के शिकार होने का जोखिम करीब 7.3% था और लड़कों की तुलना में लड़कियों के तनाव के शिकार होने की घटनाएं ज्यादा पाई गईं। भारत में किशोर कल्याण पर यूनिसेफ की 2019 की रिपोर्ट मानसिक स्वास्थ्य (किशोरों में अवसाद और चिंता के मामले) की बढ़ती समस्या को रेखांकित करती है और इस दिशा में लक्षित प्रयासों की जरूरत बताती है।
आरकेएसके और पोषण 2.0 जैसे कार्यक्रमों का असरदार होना और सबको इसका फायदा मिले, यह पूरी तरह इस पर बात पर निर्भर करता है कि इसके लिए वित्तीय संसाधन कितने मजबूत हैं। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय का राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम किशोरों के स्वास्थ्य के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण है, लेकिन धन के कम इस्तेमाल की वजह से इसके अमल में कई तरह की बाधाएं उत्पन्न हो रही हैं।
किशोरावस्था उम्र का वह दौर है जब बच्चे प्रारंभिक से माध्यमिक शिक्षा और शिक्षा से कैरियर की राह पर चलने की तैयारी करते हैं। लेकिन शिक्षा के सीमित अवसर लड़कियों की भविष्य की संभावनाओं पर अच्छा खासा असर डालते हैं। भारत सहित आठ देशों में किए गए 2020 के एक शोध अध्ययन के मुताबिक, सार्वभौमिक माध्यमिक शिक्षा पूरी करने के लिए प्रति लड़की प्रति दिन 1.53 डॉलर का निवेश, विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को वर्ष 2030 तक अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को औसतन 10% तक बढ़ाने में मदद कर सकता है।
मौजूदा समय में भारत में महिला श्रम बल भागीदारी दर (फ़ीमेल लेबर पार्टिसिपेशन रेट – एफएलपीआर) 37% है। यह दर जी-20 देशों में सबसे कम में से एक है। जहां एक तरफ लड़कियों का उच्च शिक्षा न मिल पाना महिला श्रम बल भागीदारी दर के बढ़ने का एक कारण है, वहीं दूसरी ओर पर्याप्त ज्ञान, कौशल और शिक्षा की कमी भी महिलाओं को कुशल कार्यबल का हिस्सा बनने से रोक रही है।
14-18 साल की उम्र में ही लड़कियां माध्यमिक शिक्षा और शिक्षा से अपने कैरियर की ओर रुख करती हैं। कह सकते हैं कि ये उम्र उनके आगे के जीवन के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। हालांकि आंकड़े बताते हैं कि माध्यमिक स्तर पर लड़कियों की नामांकन दर में पर्याप्त सुधार हुआ है। यह दर 2012-13 में 43.9 फीसद थी, जो 2021-22 में बढ़कर 48 फीसद पर पहुंच गई। लेकिन बड़ी संख्या में किशोर लड़कियां अभी भी स्कूल से बाहर हैं। शिक्षा के लिए एकीकृत जिला सूचना प्रणाली के मुताबिक, 2021-22 में जहां देश में शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर लड़कियों की स्कूल छोड़ने की दर 1.35% है, वहीं माध्यमिक स्तर पर यह बढ़कर 12.25% हो गई, जबकि किशोर लड़कों के लिए यह आंकड़ा 12.96% है। कोविड-19 महामारी ने भारत की किशोरियों की सीखने की क्षमता पर गहरा असर डाला है। एएसईआर 2023 ‘बियॉन्ड बेसिक्स’ सर्वे बताता है कि 14-18 वर्ष की उम्र की 24% लड़कियां दूसरी कक्षा की किताबें भी ठीक ढंग से नहीं पढ़ पाती हैं।
महामारी के दौरान स्कूलों को वर्चुअल मोड में बदल दिया गया था। इसने उन छात्रों की शिक्षा को सबसे अधिक प्रभावित किया जिनके पास डिजिटल उपकरणों तक पहुंच नहीं थी या सीमित थी। असर (एएसईआर) सर्वे में किशोर युवाओं के बीच लैंगिक असमानता का भी पता चलता है। जो लोग स्मार्टफोन का इस्तेमाल कर सकते हैं, उनमें से 43% छात्रों के पास अपने खुद के फोन थे, जबकि छात्राओं के लिए ये आंकड़ा 19% था।
पर्याप्त ज्ञान, कौशल और शिक्षा की कमी भी महिलाओं को कुशल कार्यबल का हिस्सा बनने से रोक रही है।
बच्चों को बेहतर शिक्षा मिल सके, इसके लिए सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की मौजूदगी बेहद मायने रखती है। लेकिन यहां भी आंकड़े बताते हैं कि स्थिति उतनी अच्छी नहीं है। स्कूली शिक्षा और साक्षरता विभाग की संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट के अनुसार, 2022-23 में शिक्षकों के कुल स्वीकृत पदों में से माध्यमिक स्तर पर 15% और उच्च माध्यमिक स्तर पर 19% पद खाली हैं।
क्योंकि माध्यमिक स्तर पर शिक्षा मुफ्त नहीं है, इसलिए माता-पिता अपनी बेटियों की तुलना में अपने बेटों को पढ़ाने के ज्यादा इच्छुक रहते हैं। उन्हें बेटियों की बजाए बेटों पर खर्च करना ज्यादा उचित लगता है। ऐसे में कम शुल्क लेने वाले सरकारी स्कूल अप्रत्यक्ष रूप से माध्यमिक स्तर पर लड़कियों को अधिक बढ़ावा देने वाले साबित होते हैं। जाहिर सी बात है, किशोरियों के लिए माध्यमिक शिक्षा के लिए सरकार की तरफ से दी जाने वाली आर्थिक मदद बेहद महत्वपूर्ण है।
इंडियास्पेंड ने अक्टूबर 2018 में ‘नन्ही कली’ की ओर से जारी ‘टीन एज गर्ल्स’ रिपोर्ट के आधार पर बताया था ‘स्कूल में बिताया गया एक अतिरिक्त साल एक लड़की द्वारा अर्जित आय में कम से कम 10% -20% से वृद्धि करता है। माध्यमिक शिक्षा पर रिटर्न 15%-25% तक है।’ ‘नन्ही कली’ किशोर लड़कियों के साथ काम करने वाली एक संस्था नन्दी फाउंडेशन का एक प्रोजेक्ट था।
ग्रामीण इलाकों में सर्वे में शामिल सिर्फ 18.6% लड़कियों ने कहा कि उनके समुदाय के लड़के उतना ही घरेलू काम करते हैं जितना कि वे करती हैं, जबकि शहरी क्षेत्रों में ऐसा कहने वाली लड़कियों का आंकड़ा 23.8% रहा। घरेलू और देखभाल संबंधी अवैतनिक गतिविधियों में शामिल होने से उनके पास खुद अपने लिए बहुत ही कम समय बचता है।
माध्यमिक शिक्षा पर केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा कुल सार्वजनिक व्यय पिछले पांच सालों से सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 1% पर स्थिर है और केंद्र सरकार का हिस्सा समय के साथ घट रहा है। सीबीजीए-क्राई अध्ययन का अनुमान है कि 15-19 वर्ष की उम्र की सभी योग्य लड़कियों को सार्वभौमिक गुणवत्ता वाली माध्यमिक शिक्षा मिल पाए इसके लिए सकल घरेलू उत्पाद का 0.2% – 0.3% अतिरिक्त चाहिए होगा।
2022 में स्कूल छोड़ने वाली 11-14 वर्ष की किशोरियों को फिर से नामांकित करने के लिए महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने स्कूल शिक्षा और साक्षरता विभाग के साथ मिलकर कन्या शिक्षा प्रवेश उत्सव नाम से ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ के तहत एक विशेष अभियान शुरू किया था। सरकार ने जुलाई 2023 में लोकसभा को बताया कि 2022-23 में, ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ के तहत केंद्र सरकार ने 90 करोड़ रुपये जारी किए थे। 2020-21 और 2021-22 में यह आंकड़े क्रमशः 53 करोड़ रुपये और 57 करोड़ रुपये थे। पोर्टल के अनुसार, 2022 तक 22 राज्यों में 144,000 किशोर लड़कियों की पहचान की गई और उनमें से 100,000 को फिर से नामांकित किया गया है। हालांकि, स्कूल न जाने वाली लड़कियों की संख्या रिपोर्ट की गई संख्या से अधिक होगी क्योंकि प्रोजेक्ट अप्रूवल बोर्ड ऑफ समग्र शिक्षा अभियान की बैठक के मिनट्स से पता चलता है कि कई राज्यों ने अभी तक प्रबंध पोर्टल पर डेटा अपलोड करना शुरू नहीं किया है।
यह आलेख मूलरूप से इंडिया स्पेंड पर प्रकाशित हुआ था जिसे आप यहां पढ़ सकते हैं।
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