भारत में स्वयंसेवी संस्थाएं अब संचालन के लिए पेशेवर सीईओ को नियुक्त करने लगी हैं। उनके ऐसा करने के पीछे का कारण अक्सर यह होता है कि इसके संस्थापक अब इसे आगे चलाने की स्थिति में नहीं होते हैं या फिर किसी-किसी मामले में वे इसे अब खुद चलाना नहीं चाहते हैं। इसके अलावा बहुत ही कम मामलों में ही सही लेकिन ऐसी स्थितियां भी दिखती है जिनमें संस्थापकों को महसूस होता है कि अब उनके इस पद से आगे बढ़ने का समय आ गया है।
ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अक्सर बोर्ड पहले संस्थापकों के लिए और उसके बाद संगठन या संस्था के लिए होते हैं।
आमतौर पर, संगठन के साथ आने वाले नए नेतृत्व को इसके कर्मचारी, कार्यक्रम के साथ ही इसका बोर्ड भी विरासत में मिलता है। एक बोर्ड जिसका गठन संस्था की स्थापना के समय की जरूरतों को ध्यान में रख कर किया गया था।
और जहां नया नियुक्त सीईओ आमतौर पर अपनी सोच से संस्था को स्वतंत्र रूप से चलाने का सुख भोगता है, वहीं ऐसा विरले ही होता है कि उसे बोर्ड के स्तर पर किसी भी तरह का बदलाव करने की वैसी ही छूट मिली हो। शुरुआती कुछ सालों में तो बिलकुल भी नहीं मिलती है। इस तरह की परिस्थितियाँ अपने साथ कौन सी चुनौतियाँ लेकर आती है?
संस्थापकों द्वारा गठित बोर्ड से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण कारकों को ध्यान में रखना जरूरी है:
- ये लोग आमतौर पर संस्थापक के या तो दोस्त होते हैं या परिवार के सदस्य या फिर कुछ मामलों में दोस्तों की सलाह पर चुने गए लोग।
- बोर्ड एक ऐसा समूह होता है जो संस्था या संगठन के विकास के दौरान संस्थापक की जरूरतों के हिसाब से काम करता है और उनके बारे में जानता है—इसकी भूमिका उन बातों को मानने से लेकर उन तरीकों का समर्थन करने की है जो उस वक्त की मांग है (भले ही कभी-कभी इसमें कुछ न करना भी शामिल होता है)।
- यह रिश्ता मौलिक रूप से संस्थापक—एक व्यक्ति—के साथ होता है न कि संस्था की स्थापना के पीछे के उद्देश्य से, हालांकि कि समय के साथ इसमें बदलाव भी आ सकता है।
- बोर्ड के अंदर की गतिकी की व्यवस्था संस्थापक करता है और कभी-कभी उस पद पर बैठा हुआ आदमी जिसे संस्थापक नियुक्त करता है या कर सकता है। संस्थापक और बोर्ड के सदस्यों के बीच एक ख़ास किस्म का रिश्ता होता है जो संवाद के उन तरीको को तय करता है जिनके आधार पर संगठन में उन सदस्यों की भूमिकाएँ तय होती हैं।
- आमतौर पर बोर्ड की सक्रियता संस्थापक के इशारे पर होती है और बहुत ही कम मामलों में कोई भी बोर्ड संगठन की संचालन प्रक्रिया में बदलाव लाने के फैसले पर सक्रियता दिखाता है।
- जब संरचना में किसी तरह का बदलाव होता है तो इसका कारण भी संस्थापक की कोई नई या अलग जरूरत हो सकती है, और वे आमतौर पर आने वाले बदलाव को सुनिश्चित करने के लिए अपना अंतिम मत देते हैं।
ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि किसी भी संगठन का बोर्ड अक्सर पहले इसके संस्थापक के लिए काम करता है और फिर उसके बाद संगठन के लिए।
क्या होता है जब नया सीईओ अपना पदभार संभाल लेता है?
जब एक नया सीईओ अपना पद संभालता है तब उसे बाकी चीजों के साथ विरासत में संस्था का वह बोर्ड भी मिलता है जो संस्थापक/पूर्ववर्ती के साथ एक खास ढांचे में काम करता था। नए सीईओ की उपस्थिती बोर्ड की हर चीज पर असर डालती है—सीईओ के साथ के रिश्ते पर, सदस्यों के आपसी रिश्ते पर और साथ ही वहाँ की प्राथमिक चीजों पर भी।
इस तरह के बहुत सारे बदलावों से तनाव पैदा होता है—लोगों की एक दूसरे से उम्मीदें बदल जाती हैं, कमियाँ और अधिक स्पष्ट और मजबूत हो जाती हैं, इरादे और उठाए गए कदमों के बारे में धारणाएँ बनने लगती हैं, और भी बहुत कुछ होता है। इन सभी मामलों में सीधे तौर पर तब तक बात नहीं की जाती है जब तक तनाव का स्तर बहुत ऊंचा नहीं हो जाता है, उम्मीदें लंबे समय तक या तो पूरी नहीं होती हैं या अस्पष्ट रह जाती हैं और नया सीईओ एक ऐसे बोर्ड के साथ तालमेल बैठाने पर मजबूर हो जाता है जिसे उसने न तो बनाया है और न ही जिसके काम करने के तरीके से वह सहमत है।
इन चुनौतियों को कम करने के लिए पहले कुछ महीनों में एक सीईओ क्या-क्या कर सकता है
1. बोर्ड को बेहतर तरीके से समझना
- संस्थापक/पूर्ववर्ती से बातचीत करने के लिए समय निकालना और बोर्ड के हर सदस्य की नियुक्ति के पीछे के कारण को समझने की कोशिश करना; साथ ही यह भी समझना कि उनके आपस में संबंध कैसे हैं; वे कैसे लोग हैं; उनकी क्षमता, बाध्यताएँ और चुनौतियाँ क्या हैं; संगठन में उनकी भूमिका क्या है; और आगे बढ़ने के लिए उनसे किस तरह की उम्मीदें की जानी चाहिए और क्यों।
- बोर्ड के सदस्यों से एक-एक करके मिलना और उनके काम करने के पीछे की प्रेरणाओं, संगठन से उनकी उम्मीदों, आगे बढ़ने के लिए उनकी सोच, दृष्टि के प्रति स्वामित्व और रणनीति को समझने की कोशिश करना।
- यह भी समझना कि संस्थापक/पूर्ववर्ती के साथ का निजी संबंध बोर्ड के सदस्यों की आपसी समझ और संचालन पर कैसे असर डाल सकती है।
- उनसे की गई बातचीत के आधार पर बोर्ड के हर सदस्य के लिए उनकी अलग-अलग भूमिकाओं की योजना बनाना (जिसमें सीईओ के साथ उनके संबंध और संवाद भी शामिल होंगे) और इस योजना को लागू करने के लिए उनके साथ चर्चा करना। पूरे बोर्ड के सामने एक जैसी चीज रखना ताकि हर आदमी अपनी सहमति को लेकर स्पष्ट रहे।
- तीन या चार बैठकों में से किसी एक बैठक में सीईओ के साथ ‘नए संबंध’ पर बोर्ड की समीक्षा और प्रतिक्रिया पर बातचीत करना और यह तय करना कि: सब कुछ ठीक चल रहा है या नहीं? क्या उम्मीदें स्पष्ट हैं? क्या उठाए जाने वाले कदम इरादे के अनुकूल हैं? क्या किसी तरह की नई चुनौती सामने आ रही हैं? इस तरह के बैठकों का आयोजन ईमानदारी से प्रतिबद्धता की तरफ इशारा करती है और यह बताती है कि सीईओ बोर्ड की सक्रियता को बनाए रखना चाहता है।
2. बोर्ड की कार्यशैली समझना
- इसका संबंध एजेंडा की योजना बनाना, उसे साझा करना और उस पर चर्चा करने से लेकर बैठकों की तैयारी और उसके संचालन सबकुछ से है। इसमें बैठकों में दर्ज की जाने वाली अनुपस्थिति जैसे मुद्दों से निबटना भी शामिल है।
- पहले के एजेंडा और बोर्ड की बैठकों के मुद्दे पर एक नजर डालना और पहले किए गए फैसलों को समझने में कुछ समय लगाना (यह पुराने सीईओ और बोर्ड के सदस्यों दोनों के नजरिए को समझने के लिए उपयोगी होता है)।
- अगर सीईओ इसमें से कुछ भी बदलना चाहता है तो उसके लिए यही बेहतर होगा कि वह संस्थापक और बोर्ड के सदस्यों के साथ इस पर चर्चा करे। साथ ही बदलाव की जरूरत के लिए पुख्ता तर्क भी दे। इससे अनुकूलता का स्तर ऊंचा होता है।
- भारत में विशेष रूप से सामाजिक-सांस्कृतिक कारक बोर्ड के आंतरिक गतिशीलता को तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लिंग, आयु, क्षमता का प्रभाव और क्षेत्रीय पृष्ठभूमि बोर्ड के सदस्यों के बीच के संवाद पर अपना असर डालते हैं। बोर्ड के भीतर होने वाला विरोध या सहमति दोनों ही अक्सर इन कारकों से प्रभावित होते हैं। इनके प्रति सतर्क होना और इन कारकों को समझने में समय लगाना एक नए सीईओ के लिए मददगार हो सकता है। वह इन बातचीत से निकलने वाले परिणाम से कुछ अनुमान लगा सकता है और इसके लिए अच्छी योजना बना सकता है।
3. समय दें और ईमानदार बने रहें
- नए साँचे को फिर से बनाने में समय लगेगा। बिलकुल वैसे ही जैसे किसी भी नए रिश्ते में चीजें धीरे-धीरे स्थिर होती हैं। एक नए सीईओ-बोर्ड संबंध में भी चीजों को विकसित होना होता है। ये जितनी मौलिक और स्वाभाविक होंगी उतनी ही मजबूत होंगी।
- हालांकि यह ध्यान में रखना जरूरी है कि कुछ रिश्ते टिकने के लिए नहीं बनते हैं। कभी-कभी लोग एक दूसरे के साथ तालमेल नहीं बैठा पाते हैं। यह पता लगाना मुश्किल नहीं है कि बोर्ड के कुछ सदस्य नए सीईओ से जुड़ नहीं पा रहे हैं। इन स्थितियों में यह फैसला करना जरूरी होता है कि इसे कहाँ रोकना है और इसपर तुरंत कार्रवाई करनी पड़ती है ताकि संगठन का काम जारी रह सके।
- नए सीईओ के लिए यह बहुत जरूरी है कि वह जितनी जल्दी हो सके अपनी छवि ‘सफल आदमी’ की बना ले। ऐसा करने से अक्सर बोर्ड के सदस्यों पर दबाव बनता है और वे ‘काम करने’ लगते हैं। लेकिन कभी कभी यह स्वाभाविक नहीं होता है। बोर्ड के साथ मिलकर भविष्य की असफलताओं का अनुमान लगाएँ और उसके लिए योजना बनाएँ और संस्थापक या बोर्ड के भरोसेमंद सदस्य के साथ चुनौतियों को लेकर ईमानदारी से बातचीत करें।
- बोर्ड को समय दें ताकि वह समझ सके कि नया सीईओ उनके पुराने सीईओ जैसा नहीं है। और यह कि उनके पास संगठन के लिए अपनी योजनाएँ हो सकती हैं और चीजों को करने का अपना तरीका हो सकता है। एक समय में एक कदम उठाना और ‘अनुचित तुलना’ के लिए खुद को जाँचने की प्रक्रिया एक मजबूत संस्कृति का निर्माण करता है और यह सुशासन के अनुकूल होता है।
- और अंत में, इस बात को ध्यान में रखना जरूरी है कि सीईओ किसी ऐसे बोर्ड के गठन के लिए एक हद तक आजाद होता है जो एक समायावधि के लिए उसके लिए काम करेगा (संगठन के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए क्या बेहतर है उसके आधार पर परिभाषित)। ऐसा करने से उस सीईओ का साहस और विश्वास बढ़ता है जो अब कुशल और विवेकपूर्ण योगदान देने वाले एक मजबूत बोर्ड के गठन के लिए आवश्यक अतिरिक्त कदम उठाने के लिए तैयार है
अंत में, विरासत में मिला बोर्ड अपने नए सीईओ को वह समर्थन दे सकता है जो संगठन को आगे ले जाने के लिए चाहिए। हालांकि, ऐसा तभी किया जा सकता है जब चुनौतियों का अनुमान लगा लिया गया और साथ ही विश्लेषण कर लिया गया हो। और साथ ही इसके लिए संभव उपाय ढूंढ लिए गए हों ताकि नकारात्मक परिणामों में कमी लाई जा सके।
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