22 दिसम्बर 2021 को बाल विवाह निषेध (संशोधन) अधिनियम 2021 संसदीय कमेटी को चर्चा के लिए भेजा गया। यह अधिनियम लड़कियों के लिए शादी की न्यूनतम क़ानूनन आयु को 18 से बढ़ाकर 21 साल करने की सिफ़ारिश करता है। साफ है कि इस अधिनियम का उद्देश्य बाल विवाह की प्रथा पर अंकुश लगाना है। लेकिन इस बात के सबूत न के बराबर हैं कि केवल एक क़ानून बनाकर ऐसा किया जा सकता है। क्योंकि लड़कियों की शादी की क़ानूनी उम्र 18 साल होने के बावजूद देश भर से बाल विवाह की ख़बरें आती रहती हैं। ऐसे में सवाल किया जा सकता है कि क्या क़ानून का सहारा लेना ही बाल विवाहों को रोकने का एकमात्र कारगर रास्ता है?
यूनिसेफ़ द्वारा निर्धारित बाल विवाह की परिभाषा पर गौर करें तो “एक ऐसा विवाह जिसमें लड़की या लड़के की उम्र 18 वर्ष से कम हो, बाल विवाह कहलाता है। इसमें औपचारिक या अनौपचारिक, दोनों तरह की वे व्यवस्थाएं शामिल हैं जिसमें 18 वर्ष से कम उम्र के बच्चे एक-दूसरे के साथ शादीशुदा जोड़े की तरह रहते हैं।” बाल विवाह समाज में गहरे बैठी सामाजिक-सांस्कृतिक रूढ़ियों और लैंगिक असमानता का परिणाम है जिसका नुक़सान सबसे अधिक लड़कियों को उठाना पड़ता है।
भारत जैसे पितृसत्तात्मक समाज में लड़कियों की परवरिश का अंतिम लक्ष्य अक्सर उनकी शादी होता है। आमतौर पर उन्हें सिर्फ़ घर के कामों तक ही सीमित रखा जाता है और उनसे पढ़ाई-लिखाई करने या नौकरी करने की अपेक्षा नहीं की जाती है। इसलिए उनकी शादी हो जाने तक परिवार वाले उन्हें आर्थिक बोझ की तरह देखते हैं। यही कारण है कि लड़कियों की शादी जल्दी करवा देना न केवल परम्परा के अनुसार सही माना जाता है बल्कि आर्थिक रूप से भी अधिक व्यावहारिक होता है। इसके अलावा ग़ैर-शादीशुदा संबंधों से गर्भधारण का ख़तरा भी एक ऐसी वजह है जो लड़की की शादी में रुकावट पैदा कर सकती है। इससे वे अनिश्चित समय के लिए परिवार पर एक आर्थिक बोझ बन जाती हैं। इन तमाम वजहों के चलते ज्यादातर समुदाय बाल विवाह को एक समस्या नहीं बल्कि समाधान मानते हैं।
ग़ैर-क़ानूनी होने के बावजूद भारत में बाल विवाह को सामाजिक मंज़ूरी मिली हुई है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) ने हाल ही में अपने पांचवें दौर का सर्वेक्षण जारी किया है। इस सर्वेक्षण में भारत की 20 से 24 साल आयुसमूह की शादीशुदा महिलाओं में से एक चौथाई महिलाओं की शादी 18 साल से कम उम्र में होने की बात सामने आई है। एनएफएचएस द्वारा इससे पहले 2015–16 में यह सर्वे किया गया था जिससे हालिया सर्वे की तुलना करें तो बाल विवाह के मामलों में बहुत ही मामूली कमी आने का पता चलता है। ऐसा तब है जब मौजूदा बाल विवाह क़ानून को लागू हुए चार दशक से अधिक का समय बीत चुका है। हालांकि 2005–06 और 2015–16 के बाल विवाह के आंकड़ों पर गौर करें तो असरदार कमी देखने को मिलती है लेकिन इसमें क़ानून की बजाय शिक्षा के बेहतर मौकों एवं अन्य कारकों का योगदान अधिक प्रतीत होता है।1
लड़कियों की शादी की क़ानूनी उम्र बढ़ाकर 21 वर्ष करने के इस प्रस्ताव के कई दुष्परिणाम हो सकते हैं।
पार्ट्नर्स फ़ॉर लॉ इन डेवलपमेंट द्वारा किए गए सर्वे के अनुसार मौजूदा बाल विवाह क़ानून के तहत दर्ज मामलों में से 65 फ़ीसदी घर से भागने (ज़रूरी नहीं कि इसमें शादी ही कारण हो) के चलते दर्ज करवाए गए थे। इनमें से ज़्यादातर शिकायतें असहमत माता-पिता या परिवार के सदस्यों द्वारा की गई थीं। इन मामलों में क़ानून का ग़लत इस्तेमाल उन जोड़ों को परेशान करने के लिए किया गया जिनकी शादियां क़ानूनन सही हैं। ये आंकड़े इस बात की आशंका पैदा करते हैं कि विवाह की उम्र बढ़ाकर 21 वर्ष किए जाने से उन युवाओं की संख्या बढ़ेगी जो इस तरह के उत्पीड़न से बचने के लिए जल्दी विवाह का विकल्प चुन लेते हैं। इसके साथ ही इससे लोगों के पास अंतर-धार्मिक और अंतर-जातीय विवाहों के विरोध के लिए एक और साधन उपलब्ध हो जाएगा।
पारिवारिक क़ानून के सुधार के विषय में 2008 में लॉ कमीशन की रिपोर्ट में यह सिफ़ारिश की गई थी कि लड़के एवं लड़कियों दोनों के लिए ही विवाह की समान उम्र 21 साल नहीं बल्कि 18 साल होनी चाहिए। इसके पीछे का तर्क दिया गया था कि यदि सभी नागरिक 18 की उम्र में मतदान कर सकते हैं, अभिभावक बन सकते हैं और अपराध करने की स्थिति में वयस्क की श्रेणी में रखे जाते हैं तो उन्हें 18 साल में शादी करने की अनुमति क्यों नहीं दी जानी चाहिए? इस बात की पूरी संभावना लगती है कि नए क़ानून से ज़्यादातर महिलाओं की चुनाव या पसंद की स्वतंत्रता पर प्रभाव पड़ सकता है।
वर्तमान सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में लोग न केवल जल्द से जल्द बेटियों की शादी करवा देना चाहते हैं बल्कि अगर हो सके तो बेटियां पैदा ही नहीं करने का विकल्प चुनते हैं। हमारे पितृसत्तात्मक समाज की मान्यताओं को बदले बग़ैर विवाह की क़ानूनी उम्र को बढ़ाना माता-पिता में ‘बोझ’ वाली भावना को मज़बूत बना सकता है। इसके चलते गर्भ में ही या जन्म के तुरंत बाद लड़कियों को मार दिए जाने जैसी कुप्रथाओं में वृद्धि हो सकती है।
दुनिया भर में बाल विवाह की घटनाओं को रोकने के लिए कई सफल रणनीतियां अपनाई गई हैं। नीचे ऐसे ही कुछ उपायों का ज़िक्र है जो भारत जैसे देश में कारगर हो सकते हैं।
हम 2008 लॉ कमीशन के सुझाव का समर्थन करते हैं। यह लड़के और लड़कियों दोनों के लिए शादी की न्यूनतम आयु समान कर, 21 की बजाय 18 साल करने की बात करता है। अगर लोग 18 साल की उम्र में मतदान कर सरकार चुन सकते हैं तो उन्हें अपना जीवनसाथी चुनने का अधिकार भी इसी उम्र में मिल जाना चाहिए।
इस बात के साफ प्रमाण हैं कि लड़कियों को उनकी शिक्षा पूरी करने का मौक़ा मिले तो उनकी शादी में देरी होती है और वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर भी बनती हैं। एनएफ़एचएस-4 की रिपोर्ट के मुताबिक़ स्कूली शिक्षा प्राप्त न करने वाली लड़कियों के लिए शादी की औसत उम्र जहां 17.2 साल है वहीं 12वीं या उससे अधिक पढ़ाई करने वाली लड़कियों के लिए विवाह की औसत उम्र 22.7 साल है। शिक्षा लड़कियों को अपनी इच्छाओं को पूरा करने और गरिमापूर्ण जीवन जीने के योग्य बनाती है। इसके अलावा, इससे लड़कियों को अपनी मर्ज़ी से शादी करने और शादी में यौन संबंध बनाने या बच्चा पैदा करने के अपने अधिकार को क़ायम रखने की समझ भी मिलती है।
किशोर लड़कियों में आर्थिक रूप से सक्षम हो सकने का विश्वास जगाने के लिए उनकी क्षमता एवं कौशल निर्माण में निवेश करना बहुत आवश्यक है।
बाल विवाह का संबंध शिक्षा के निचले स्तर, ग़रीबी और ग्रामीण आवास से जुड़ता है। एनएफ़एचएस-4 की रिपोर्ट बताती है कि ग्रामीण इलाक़ों में रहने वाली ऐसी लड़कियां जो गरीब घरों से हैं और जिन्हें शिक्षा नहीं मिली है, उनकी शादी 18 वर्ष से पहले किए जाने की संभावना ज्यादा होती है। सरकार को लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई की राह में आने वाली रुकावटों पर काम करने की ज़रूरत है। इसके लिए एक सुरक्षित वातावरण का निर्माण करने, शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार लाने और एक ऐसी व्यवस्था बनाने की दरकार है जिससे लड़कियों की शिक्षा में किया गया निवेश माता-पिता के लिए उपयोगी साबित हो सके।
लड़कियों को उनके इकनॉमिक पोटेंशियल यानी अर्थव्यवस्था में उपयोगी हो सकने का यकीन दिलाने के लिए किशोरवय से ही उनकी क्षमता एवं कौशल निर्माण में निवेश किया जाना बहुत आवश्यक है। आर्थिक सशक्तिकरण से अक्सर लोगों को अपने घरों में अधिक महत्व मिलता है और वे अपने भविष्य से जुड़े फ़ैसले लेने में सक्षम और ज़िम्मेदार माने जाने लगते हैं। आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर लड़कियां कम उम्र में होने वाली शादी के लिए मना कर सकती हैं और परिवार में बोझ की तरह भी नहीं देखी जाती हैं। सबसे ज्यादा ध्यान इस बात पर दिए जाने की ज़रूरत है कि लड़कियों एवं महिलाओं के लिए काम के ऐसे सुरक्षित अवसर बनाए जाएं जिनसे उनकी आय भी हो सके।
बाल विवाह को समाप्त करने की कोशिशों में एक तरीक़ा टारगेटेड एसबीसीसी में निवेश करना हो सकता है। एसबीसीसी में सामान्य माने जानी वाली सामाजिक और व्यवहारगत रूढ़ियों की पहचान कर और उन पर बात कर उन्हे बदलने की कोशिश की जाती है। इसका एक उदाहरण शादी से जुड़े फ़ैसलों में लड़कियों एवं लड़कों को बाहर रखे जाने का है।
पॉप्युलेशन फ़ाउंडेशन ऑफ़ इंडिया की प्रमुख एसबीसीसी पहल ‘मैंहूं’ के नतीजे बताते हैं कि इन संदेशों के जरिए बाल विवाह से जुड़े ख़तरों के बारे में जागरूकता बढ़ी है। साथ ही इस कार्यक्रम से जुड़ने वाले माता-पिता और लड़कियों के व्यवहार में भी सकारात्मक बदलाव देखने को मिला है। हमें व्यापक स्तर पर एसबीसीसी जैसी पहलों की ज़रूरत है। बेहतर होगा अगर इन्हें स्थानीय स्तर पर राजनीतिक, सामुदायिक या धार्मिक नेताओं का समर्थन हासिल हो। ताकि महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित करने वाले संस्थागत भेदभाव और कमतर समझे जाने वाली धारणाओं से छुटकारा दिलाने पर काम किया जा सके।
बाल विवाह का शिकार सबसे अधिक पिछड़े समुदायों की लड़कियां बनती हैं। एनएफ़एचएस-4 के अनुसार सामान्य वर्ग की महिलाओं की शादी देर से होती है। सामान्य वर्ग में 25–49 वर्ष की औरतों की शादी की औसत आयु 19.5 साल है। यह आंकड़ा अन्य पिछड़े वर्ग की औरतों के लिए 18.5 साल, अनुसूचित जनजातियों के लिए 18.4 साल एवं अनुसूचित जातियों के लिए 18.1 साल है। हमें बड़ी संख्या में ऐसी नीतियों और कार्यक्रमों की ज़रूरत है जो विशेष रूप से पिछड़े समुदायों की लड़कियों, युवा महिलाओं और उनके परिवारों को आर्थिक संस्थानों, शिक्षा, सूचना, पोषण और स्वास्थ्य (यौन, प्रजनन और मानसिक स्वास्थ्य सहित) सेवाओं से जोड़ने का काम करे।
विवाह के रजिस्ट्रेशन को अनिवार्य बनाने वाले सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बावजूद राज्य सरकारों ने इस फ़ैसले को लागू करने के लिए बहुत कम काम किया है। इसलिए सरकार को एक ऐसी व्यवस्था बनानी होगी जिसमें सभी तरह की शादियों (कानूनी, धार्मिक और परम्परागत संबंध), जन्म और मृत्यु को पंजीकृत करवाना अनिवार्य हो ताकि इससे शादियों और नवविवाहितों की उम्र पर नज़र रखी जा सके। इसके अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में बाल विवाह को संभव बनाने और अधिकृत करने वालों के ख़िलाफ़ कार्रवाई का प्रावधान होना चाहिए।
बाल विवाह को समाप्त करने के लिए उठाया गया कोई भी कदम लड़कियों के अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए होना चाहिए, ख़ासकर ऐसी लड़कियों के लिए जिनका बाल विवाह होने की सम्भावना अधिक होती है। हमें दंडात्मक कार्यवाहियों और क़ानूनी तरीक़ों से अलग हटकर उन तरीक़ों के बारे में सोचना होगा जो बाल विवाह को बढ़ावा देने वाली पितृसत्तात्मक सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को बदलने में मददगार साबित हों।
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