पश्चिम अफ्रीका के बेनीन में एम&सी सातची (एक संचार एजेंसी) ने साइटसेवर्स (एक स्वयंसेवी संस्था) के साथ मिलकर कोविड-19 पर सामाजिक और व्यावहारिक परिवर्तन संचार (एसबीसीसी) के डिज़ाइन पर काम किया है। यह रचनात्मक संपत्ति एक टेलीविज़न विज्ञापन (टीवीसी) था जिसे पहले एम&सी सातची ने छ: स्थानीय भाषाओं में सबटाइटल के साथ प्रसारित किया था। अन्य सम्पत्तियों में रेडियो, बिलबोर्ड, पोस्टर, पर्चे और स्वास्थ्य कर्मियों के साथ-साथ धार्मिक और पारंपरिक नेताओं के लिए प्रशिक्षण पुस्तिका भी शामिल थी। मिलाजुला कर चलने वाले और आसानी से उपलब्ध डिज़ाइन के सुझावों पर साइटसेवरों ने अपनी सलाह दी। इन सलाहों के साथ टीवीसी ने एक सांकेतिक भाषा वाले दुभाषिये की मदद की और अलग रंग में गाए शब्दों की आवाज़ को बढ़ा दिया। उन्होनें पर्दे पर दिखने वाले संकेतक के आकार और उसकी स्थिति के साथ ही संकेतक के चेहरे पर मास्क का उपयोग भी किया था जिससे कि वह अपने चेहरे के हावभाव और मुंह कि गति में कमी ला सके।
इसका परिणाम यह निकला कि इस डिज़ाइन ने उन लोगों की मदद की जिनके सुनने की क्षमता खत्म हो गई थी, जो बहरे थे, जिनके काम करने की याददाश्त के साथ दिक्कत थी, या गति के साथ तालमेल नहीं बैठा सकते थे या फिर डिस्लेक्सिया जैसी बीमारी से पीड़ित थे। टीवीसी के लिए आधिकारिक मंजूरी मिलने से पहले स्वास्थ्य मंत्रालय के प्रतिनिधि ने एक्सिसिबिलिटी का समर्थन कर दिया था। एम&सी सातची के प्रतिनिधि ने कहा कि, “इस अपेक्षाकृत समावेशी अभियान ने इस आधार पर बड़ी हिस्सेदारी प्रदान की है कि हमें समावेशन को ध्यान में रखते हुए संचार की प्रक्रिया को कैसे विकसित करना चाहिए। यह भविष्य में हमारे अभियानों की शुरुआती बिन्दु को तैयार करेगा जिसमें हम अपने पिछले काम के आधार पर इनका निर्माण करते हैं और साथ ही संचार प्रदान करने में आगे बढ़ने के ऐसे तरीकों की तलाश करते हैं जो समावेशी हैं।”
कोविड-19 के प्रति हमारी प्रतिक्रिया ने हमें क्या सिखाया?
सेवा वितरण के क्षेत्र में काम न करने वाली एक नागरिक समाज संगठन के रूप में ब्रेकथ्रू में हम लोगों ने कोविड-19 के प्रति अपनी सामुदायिक प्रतिक्रिया पर अंतहीन बहसें की हैं। मेरी ज़ूम स्क्रीन के उस काल डब्बे के पीछे से आने वाली आवाज़ें गुस्से और हताशा से भरी थीं। मेरे सहकर्मी ने कहा कि “हम विभिन्न स्तरों पर बहुत सारी महामारी के साथ लड़ रहे हैं क्योंकि तकनीक और सोशल मीडिया ने बहुत ही तेज गति से गलत सूचनाओं को लोगों तक पहुंचाने का काम किया है। इससे हमें उन समुदायों के साथ तालमेल बैठाने में मुश्किल हो गई है आ जिनके साथ काम करने में हमें मतौर पर मजा आता था। अब वे लोग हमें शक की नज़रों से देखने लगे हैं क्योंकि हम टीका और उपचार की बात कर रहे हैं।”
नतीजतन, हमने यह फैसला किया कि चूंकि हम लोग फिर से शुरुआत कर रहे हैं इसलिए हमारा ध्यान महामारी पर संवाद वाले क्षेत्र और संवाद को विषय-संबंधित करने पर होगा। इसके अलावा हम इस पर भी ध्यान देंगे कि हमारा यह संवाद उन लोगों की प्रतिध्वनि हो जिनके साथ हम काम करते हैं। यह सबकुछ उस महत्वपूर्ण अनुभव पर आधारित था जो हमने संकट के दौर में पिछले 18 महीनों में हासिल किया था। अगर हम लोग उस समुदाय के साथ लगातार बातचीत नहीं करेंगे जिनके लिए हम सेवाओं को तैयार कर रहे हैं और साथ ही ऐसे विषयों को लक्ष्य नहीं बनाएँगे जो उन लोगों के लिए प्रासंगिक है तो ऐसा हो सकता है कि वे गलत सूचनाओं और गलत ख़बरों का हिस्सा बनने लगें।
क्या हमनें वास्तव में इस बात का ध्यान रखा है कि संचार सामाजिक व्यवहार परिवर्तन का निर्माण प्रभावशाली ढंग से कर सकता है?
सरकारों, नागरिक समाज संगठनों, दानकर्ताओं, राजनीतिक नेताओं, डॉक्टरों और वैज्ञानिकों ने इस संकट पर भारी प्रतिक्रिया दी है। और इन प्रतिक्रियाओं में से ज़्यादातर हिस्सा प्रोटोकॉल, उपचार और टीके के बारे में है। महामारी के हर पहलू को लेकर सूचनाओं का एक ढ़ेर चारों तरफ बिखरा हुआ है। लेकिन क्या उस संचार के विकास को लेकर हम लोग रणनीतिक या समावेशी हो पाए? क्या हमनें वास्तव में इस बात पर ध्यान दिया कि संचार सामाजिक व्यवहार परिवर्तन का निर्माण प्रभावशाली ढंग से कर सकता है?
अतीत से सीखना
अपने पिछले अनुभवों से हमने सीखा है कि संचार में निर्मित सामुदायिक जुड़ाव और सामाजिक परिवर्तन रणनीतियाँ 1990 और 2000 के दशक में बड़े पैमाने पर टीकाकरण लाभ से लेकर इबोला तक, और पोलियो की चुनौती को पूरा करने जैसे कामों में महत्वपूर्ण साबित हुई हैं।
अगर आप पश्चिमी अफ्रीका में इबोला के मामलों को देखते हैं तो आप पाएंगे कि सबसे सफल संचार रणनीतियों में से कुछ सामुदायिक जुड़ाव और सबसे अधिक जोखिम का सामना कर रहे समूहों के लिए लक्षित स्वास्थ्य संचार थे। प्रकोप की शुरुआत में, गलत सूचना और मिथकों से लड़ने के प्रयास बहुत मजबूत नहीं थे, और इसलिए हानिकारक समाधानों को सही समाधानों के रूप में पेश किया गया था।लेकिन बाद में रेडियो पर ‘इबोला ऑवर’ जैसे कार्यक्रमों का इस्तेमाल मिथकों को तोड़ने और स्वास्थ्य संबंधी स्पष्ट और सही जानकारी देने के लिए बहुत कारगर साबित हुआ। लाइबेरियन वकालत समूहों ने उन लोगों तक पहुँचने के लिए फेसबुक पर स्थानीय भाषाओं में इबोला के बारे में ऑडियो घोषणाएँ पोस्ट कीं जो अँग्रेजी नहीं समझते हैं या फिर पढ़ नहीं सकते हैं। स्थिति का विश्लेषण करने और स्थानीय समुदायों के साथ सहयोग में सुधार करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने गिनी में स्थानीय मानववैज्ञानिकों के साथ काम किया। उन्होनें पाया कि इबोला के उपचार ने अब तक सिर्फ बायोमेडिकल पहलुओं पर ही ध्यान केंद्रित किया था और समुदाय, समाज और संस्कृति जैसे मानकों की अवहेलना की थी। नतीजतन, उन्होनें स्थानीय समुदायों की आशंकाओं, चिंताओं और पारंपरिक मान्यताओं को गंभीरता से लेना शुरू कर दिया। उन्होनें पाया कि स्थानीय लोग ‘आइसोलेशन केन्द्रों’ को ‘डेथ चैंबर’ समझते हैं जहां से कोई भी जिंदा वापस नहीं लौटता है। एक बहुत ही सरल उपाय बताते हुए मनोवैज्ञानिकों ने सुझाव दिया कि इसे बदलकर ‘उपचार केंद्र’ कर दिया जाये। इसके अलावा प्रभावित समुदायों को वायरस की रोकथाम और प्रबंधन को प्रभावी ढंग से संप्रेषित करने के लिए एक बहु-मोडल रणनीति पर भी ध्यान केंद्रित किया गया था।
ऐसा लगता है कि कोविड-19 के शुरू होने पर इबोला के प्रकोप से मिलने वाले अनुभव वैश्विक समुदाय में मुश्किल से ही प्रसारित हुए थे। इस दौर में मैंने एक नई शब्दावली ‘इन्फोडेमिक’ के बारे में जाना जो विविध और बहुअर्थी है। सोशल मीडिया प्लैटफ़ार्म के इस विशाल प्रभाव ने अफवाहों और संदिग्ध सूचनाओं को बढ़ावा दिया है। एल्गोरिदम ने सामग्री प्रचार और सूचना प्रसार के काम में मदद की है। इसने महामारी के शुरुआती दिनों से ही बेतुकी बातों को आकार देने में उनकी मदद की है। इसके उदाहरणों में बिल गेट्स को एक प्रयोगशाला में वायरस की उत्पत्ति से जोड़ने वाली गलत सूचना और भारत में दूसरी लहर और वैक्सीन रोलआउट के रूप में टीके से नपुंसकता पैदा होने वाली अफवाहें शामिल हैं। अफवाहों और गलत सूचनाओं के इस मेल से पैदा होने वाले डर के कारण लोगों ने स्वास्थ्य कर्मियों पर हमले भी कर दिये। कई संगठनों ने इनमें से कुछ मिथकों को तोड़ने और सोशल मीडिया पोस्ट और फिल्मों के माध्यम से झूठी सूचनाओं का मुकाबला करने पर ध्यान केंद्रित किया। उदाहरण के लिए बीबीसी मीडिया एक्शन द्वारा प्रसारित काउंटडाउन जैसी फिल्म।
हमारा शोध हमें क्या बताता है?
जून 2021 के अंतिम सप्ताह में ब्रेकथ्रू में हमनें इसे लेकर एक डिपस्टिक शोध किया कि कैसे कोविड-19 उन क्षेत्रों में महिलाओं और लड़कियों को बुरी तरह से बिना भेदभाव के प्रभावित कर रहा है जहां हम काम करते हैं। हमने महसूस किया कि ग्रामीण, वंचित समुदायों में लोगों के लिए टीकाकरण के बाद के लक्षणों जैसी अवधारणाओं को समझना मुश्किल है क्योंकि बुखार आना बीमारी का संकेत देता है, न कि इस बीमारी से लड़ने के लिए एंटीबॉडी बनाने की प्रक्रिया को बताता है। उत्तर प्रदेश के एक गाँव में रहने वाले रामशरण ने बताया कि “शुरुआत में गाँव के लोग टीका लगवाने के लिए तैयार थे लेकिन हमनें सुना कि टीका लगवाने के बाद बहुत सारे लोग बीमार हो जा रहे हैं। इसलिए हमनें सोचा कि अगर बहुत सारे लोगों के साथ ऐसा हो रहा है तब हमें टीका क्यों लगवाना चाहिए?” हमारे अध्ययन के परिणाम में भी यह बात स्पष्ट है कि डिजिटल पंजीकरण के कारण बहुत कम संख्या में औरतों ने टीका के लिए पंजीकरण करवाया है क्योंकि उनके पास मोबाइल या कंप्यूटर की उपलब्धता नहीं है। साथ ही जब घर के कामों की ज़िम्मेदारी की बात आती है तो परिवार में एक स्पष्ट पदानुक्रम होता है जहां काम के लिए सबसे पहले औरतों को ही आगे आना पड़ता है। अगर वह बीमार हो जाती है तो उससे उम्र में बड़ी लड़कियां उन जिम्मेदारियों को उठाती हैं। घर के मर्द या लड़के सिर्फ उन्हीं स्थितियों में घर का काम करते हैं जब परिवार की सभी औरतें एक साथ बीमार हो जाती हैं।
हम क्या कर सकते हैं?
अब जब हम कोविड की दूसरी लहर से आगे बढ़ते हैं और चीजों के पुनर्निर्माण की शुरुआत करते हैं तब हमें यह सोचना चाहिए कि हम कोविड-19 पर होने वाले संवाद को कैसे बेहतर कर सकते हैं? मैंने इस मुद्दे पर कुछ विशेषज्ञों से बात की है। बीबीसी मीडिया एक्शन की कार्यकारी निदेशक प्रियंका दत्ता ने कहा कि संवाद के विकास के लिए अपेक्षाकृत अधिक रणनीतिक, मानव-केन्द्रित सोच को अपनाना महत्वपूर्ण है। उनका सवाल है कि “क्या हम महामारी पर साक्ष्य-आधारित, आकर्षक और प्रभावशाली सामाजिक और व्यवहार परिवर्तन वाले संवाद लोगों तक पहुंचा सकते हैं?”
संचार और परिवर्तन केंद्र-भारत (सीसीसी-आई) की उप निदेशक संजीता अग्निहोत्री ने कहा कि एक एकीकृत, सटीक और विश्वसनीय संदेश को साझा करना महत्वपूर्ण है। वह आगे कहती हैं कि “इन संदेशों को विभिन्न श्रोताओं के अनुसार बदलना (भी) आवश्यक है।”
जैसा कि प्रियंका कहती हैं, हमें सामान्य सूचनाओं से आगे बढ़ना होगा और उन लोगों के नजरिए से संवाद को देखना शुरू करना होगा जिनकी सोच जटिल है और जिनकी जरूरतें परतदार हैं और जिनपर कोविड-19 का बहुत बुरा असर पड़ा है। एसबीसीसी द्वारा किए जाने वाले तैयारी के प्रयास स्वास्थ्य प्रणाली को मजबूत करने के लिए एक अभिन्न अंग के रूप में काम करता है और एक आपातकालीन सावर्जनिक स्वास्थ्य संकट से निबटने के इसकी क्षमता को बढ़ा सकता हैं। इस तरह के संचार का निर्माण विभिन्न हितधारकों की पहचान करने, उनकी भूमिकाओं को समझने और किसी समस्या को हल करने के लिए उन्हें एक साथ जोड़ने की आवश्यकता को दर्शाता है—उदाहरण के लिए, टीकों की आवश्यकता के बारे में बात करने के लिए ऐसे स्थानीय लोगों को लेकर आना जिनका प्रभाव इलाके में बहुत अधिक है। एसबीसीसी यह भी सुनिश्चित करता है कि विभिन्न हितधारकों के बीच संरचनाएं और नेटवर्क स्थापित किए गए हैं, जिसके परिणामस्वरूप नीति निर्माताओं और गैर-लाभकारी संस्थाओं, चिकित्सा आपूर्ति के वितरकों और सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के बीच सफल समन्वय प्रयास होते हैं। ये और इसके अलावा अन्य शुरुआत स्वास्थ्य प्रणालियों के समग्र परिवर्तन में योगदान कर सकती हैं, जिससे वे अच्छी तरह से काम कर सकें और आवश्यक होने पर आपात स्थिति से निबटने में सक्षम हो सकें।
हमें टीके लेने सहित कोविड-19 उपयुक्त व्यवहार को अपनाने के प्रति लोगों के दृष्टिकोण को समझने पर ध्यान देना चाहिए।हमें ग़लत सूचनाओं से निबटने हेतू लोगों को तैयार करने के लिए सामूहिक रूप से और अधिक प्रयास करना चाहिए, जिसमें कल्पना से तथ्य बताना सीखना और दोस्तों और परिवार के साथ साझा करने से पहले डेटा की सत्यता की जांच करना शामिल है।
प्रत्येक व्यक्ति के पास दुनिया को देखने के लिए एक अलग दृष्टि होती है।
क्या विभिन्न समुदायों को लगता है कि उनके पास व्यक्तिगत और सामूहिक कौशल और कोविड-19 उपयुक्त व्यवहार अपनाने की क्षमता है? संजीता और प्रियंका दोनों ने हाशिए के समुदायों की विशिष्ट जरूरतों को पूरा करने के लिए संचार को तैयार करने के बारे में बात की। प्रत्येक व्यक्ति के पास दुनिया को देखने के लिए एक अलग दृष्टि होती है। संचारकों के लिए जरूरी है कि वे उस दृष्टि को समझें और दर्शकों की ज़रूरतों, धारणाओं और आत्म-प्रभावकारिता पर भी ध्यान दें। संजीता ने यह भी बताया कि हमारे हस्तक्षेपों को किस तरह से संशोधित किया जा सकता है ताकि यह पता लगाया जा सके कि लोग अपने व्यवहार परिवर्तन के किस स्तर पर हैं: क्या वे परिवर्तन के लाभों को स्वीकार करने की स्थिति में हैं? क्या उन्होंने ऐसा कोई कदम उठाया है जिससे पता चलता है कि वे इसके लिए तैयार हैं? या वे पूर्व-महामारी मुक्ति वाले दिनों में लौट रहे हैं?
ब्रेकथ्रू में मेरे सहकर्मियों का ऐसा मानना है कि कोविड-19 से संबंधित संचार पूरी तरह से आम जनता के नजरिए से नहीं तैयार किया जा सकता है। क्या हमारे पास समस्याओं के प्रतिच्छेदन को लेकर पर्याप्त साक्ष्य नहीं हैं? दुनिया भर में असमान रूप से पीड़ित अल्पसंख्यकों और प्रवासियों से लेकर महिलाओं और लड़कियों को संयुक्त राज्य अमेरिका में सफेद उच्च और मध्यम वर्गों की तुलना में संक्रमण के उच्च जोखिम का सामना करना पड़ रहा है। आप इसे किसी भी तरह से देखें, संचार तब प्रभावी होता है जब इसे उन दर्शकों के अनुरूप बनाया जाता है, जिन तक आप पहुँचने का लक्ष्य रखते हैं।
रणनीतिक एसबीसीसी में बहुत बड़ा काम किया जाना है जो समुदायों को सूचित, सशक्त बना सकता है और उन्हें जोड़ने का काम कर सकता है। इसे समुदायों के सहयोग से तैयार किया जाना चाहिए और सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के संगठनों के साथ साझेदारी में वितरित किया जाना चाहिए। हमें यह भी पता लगाने की जरूरत है कि महामारी से उभरने वाले कई अंतर-संबंधी मुद्दों में संचार कैसे भूमिका निभा सकता है—लिंग आधारित हिंसा में वृद्धि, मानसिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताएं, और बहुत कुछ। हमारे पास सबमें फिट होने वाली एक ही आकार की संचार रणनीति नहीं हो सकती है। हमें रेडियो पर अपना ‘कोरोना ऑवर’ चाहिए।
ब्रेकथ्रू ग्लोबल अलायंस फॉर सोशल एंड बिहेवियर चेंज का सदस्य है।
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